हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-2 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-2 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

जगजीत सिंह की आवाज में गायी यह  ग़ज़ल आप सब सुनते ही नहीं सराहते भी हैं :

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी, , , , , , ,

सुनते ही आप दाद देने लगते हैं और बार बार सुनना चाहते हैं और सुनते भी हैं। इस ग़ज़ल के लेखक थे जालंधर के ही सुदर्शन फाकिर और गायक जगजीत सिंह! जगजीत सिंह का जन्म बेशक श्रीगंगानगर में हुआ लेकिन ग्रेजुएशन डी ए वी काॅलेज, जालंधर से की और डाॅ सुरेन्द्र शारदा बताते हैं कि जगजीत सिंह व सुदर्शन फाकिर दोनों डी ए वी काॅलेज, जालंधर में इकट्ठे पढ़ते थे। वहीं इनकी जोड़ी बनी। सुदर्शन फाकिर मोता सिंह नगर में अपने भाई के पास रहते थे।

जालंधर की ही डाॅ देवेच्छा भी बताती हैं कि जगजीत सिंह यूथ फेस्टिवल में सुगम संगीत में हिस्सा लेकर महफ़िल लूट लेते थे। डाॅ देवेच्छा ने यह भी बताया कि उनकी सहेली उषा शर्मा के घर भी जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनीं। उषा शर्मा भी यूथ फेस्टिवल में भाग लेती थी। उन दिनों जगजीत सिंह पर ग़ज़ल इतनी सवार थी कि जहाँ भी अवसर मिलता वे ग़ज़ल सुना देते थे। फिर तो जगजीत सिंह ग़ज़ल गायन में देश विदेश तक मशहूर हो गये।

वैसे यह गाना भी आपने सुना होगा – बाबुल मोरा पीहर छूटत जाये! इसके गायक कुंदन लाल सहगल थे, जो जालंधर के ही थे। उन्होंने न केवल गायन बल्कि फिल्मों में अभिनय भी किया। इनके ही कजिन थे नवांशहर में जन्मे मदन पुरी और अमरीश पुरी जिन्हें उन्होंने फिल्मों में काम दिलाया और ये दोनों भाई विलेन के रोल में खूब जमे। सहगल की स्मृति में दूरदर्शक केंद्र, जालंधर के सामने बहुत खूबसूरत सहगल मैमोरियल बनाया गया है। एक मशहूर शायर हाफिज जालंधरी भी हुए हैं। व्यंग्यकार दीपक जालंधरी भी याद आ रहे हैं।

जालंधर की बात करें और उपेंद्रनाथ अश्क को कैसे भूल सकते हैं। इन्होने कथा, उपन्यास और एकांकी में नाम कमाया। इनके पिता रेलवे में थे तो कभी राहों नवांशहर में पोस्टिंग होगी तब इन्होंने जोंक हास्य एकांकी लिखा जिसमें नवांशहर का खास जिक्र है। अश्क पंजाबी पत्रिका प्रीतलड़ी में भी कुछ समय संपादन में रहे। फिर इलाहाबाद बस गये और अपना प्रकाशन भी खोला। इनका उपन्यास बड़ी बड़ी आंखें व कहानी डाची भी पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में पढ़ने को मिलीं।

रवींद्र कालिया भी जालंधर से ही निकले और फिर धर्मयुग, ज्ञानोदय व नया ज्ञानोदय पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे। इनकी लिखी संस्मरणात्मक आत्मकथा गालिब छुटी शराब व काला रजिस्टर, नौ साल छोटी पत्नी जैसी रचनायें खूब चर्चित रहीं। इनकी पत्नी ममता कालिया इन पर रवि कथा नाम से बहुत ही शानदार पुस्तक यानी संस्मरण लिख चुकी हैं। वह पुस्तक भी चर्चित रही। अभी वे इसका दूसरा भाग लिख रही हैं। ममता कालिया गाजियाबाद में रहती हैं। रवींद्र कालिया ने शुरुआत में हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में काम किया। काफी साल ये भी इलाहाबाद रहे।

बहुचर्चित कथाकार मोहन राकेश भी जालंधर से जुड़े रहे और डी ए वी काॅलेज में दो बार हिंदी प्राध्यापक लगे। दूसरी बार हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इनके अनेक रोचक किस्से जालंधर से जुड़े हुए हैं कि ये क्लास काॅफी हाउस में भी लगा लेते थे। मोहन राकेश ने कहानियों के अतिरिक्त तीन नाटक लिखे-आषाढ़ का एक दिन, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस। चौथा नाटक अधूरा रहा जिसे बाद में इनके मित्र कमलेश्वर ने पैर तले की ज़मीन के रूप में पूरा किया। मोहन राकेश के आषाढ़ का एक दिन और आधे अधूरे नाटक देश भर में अनेक बार खेले गये। ये नयी कहानी आंदोलन में कमलेश्वर व राजेन्द्र यादव के साथ त्रयी के रूप में चर्चित रहे। इनकी कहानी उसकी रोटी फिल्म भी बनी और ये एक वर्ष सारिका के संपादक भी रहे पर ज्यादा समय फ्रीलांसर के रूप में बिताया। इन्होंने ज्यादा लेखन सोलन व धर्मपुरा के आसपास लिखा।

खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ चंद्रशेखर के बिना भी पुराना जालंधर पूरा नहीं होता। इन्होंने कटा नाखून जैसे अनेक रेडियो नाटक लिखे और पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी। फगवाड़ा से पत्रिका रक्ताभ भी निकाली। बाद में डाॅ चंद्रशेखर पंजाबी विश्वविद्यालय,  पटियाला के हिंदी विभाग में रीडर रहे लेकिन दिल्ली से लौटते समय कार-रोडवेज बस में हुई टक्कर में जान गंवा बैठे। एक प्रतिभाशाली लेखक असमय ही हमसे छीन लिया विधाता ने! इनके शिष्यों में कुलदीप अग्निहोत्री आजकल हरियाणा साहित्य व संस्कृति अकादमी के कार्यकारी  उपाध्यक्ष हैं। डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज, मोहन सपरा और डाॅ सेवा सिंह, डाॅ गौतम शर्मा व्यथित इनके शिष्यों में चर्चित लेखक हैं। बाकी अगले भाग का इंतज़ार कीजिये।

एक बात स्पष्ट कर दूं कि ये मेरी यादों के आधार पर लिखा जा रहा है। मैं जालंधर का इतिहास नहीं लिख रहा। कुछ नाम अवश्य छूट रहे होंगे। अगली किश्तों में शायद उनका जिक्र भी आ जाये। आभार। भूल चूक लेनी देनी।

क्रमशः… 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-1 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-1 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी ने अपने संस्मरणों की शृंखला मेरी यादों में जालंधर के प्रकाशन के आग्रह को सहर्ष स्वीकार किया, हार्दिक आभार। आज से आप प्रत्येक शनिवार – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर” पढ़ सकेंगे।)

आज मेरी यादों का कारवां जालंधर की ओर जा रहा है, जो पंजाब की सांस्कृतिक व साहित्यिक राजधानी कहा जा सकता है। नवांशहर से मात्र पचास-पचपन किलोमीटर दूर! यहाँ मेरी बड़ी बुआ सत्या नीला महल मौहल्ले में रहती थीं और उन दिनों बस स्टैंड बिल्कुल रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर ही धा। सत्या बुआ की शादी के बाद कई साल तक उनके कोई संतान नहीं हुई तो मेरी दादी साग व अन्य सौगातें देकर मुझे सत्या बुआ के यहाँ भेजा करती थीं । मेरी गर्मियों की दो महीने की छुट्टियां भी वहीं कटतीं ताकि बुआ को संतान न होने की कमी महसूस न हो। मेरे फूफा जी पुलिस में थे तो मौहल्ले के बच्चे मुझे सिपाही का बेटा कहकर बुलाते। पतंगबाजी का शौक़ मुझे भी था और फूफा जी को भी। वे छत पर चढ़कर बड़े बड़े पतंग उड़ाते जिन्हें छज्ज कहा जाता था । वे मुझे दूसरों के पतंग काटने के गुर भी सिखाते और छुट्टियां खत्म होने पर बहुत सारे पतंग और पक्की डोर तोहफे के तौर पर देते ।

नीला महल मौहल्ले के पास ही  एक छोटी सी लाईब्रेरी भी थी। दोपहर के समय मैं वहाँ समय बिताया करता। इसके कुछ आगे मशहूर माई हीरां गेट था। जहाँ ज्यादातर हिंदी व संस्कृत की किताबों के भारतीय संस्कृत भवन व दीपक पब्लिशर्स आज तक याद हैं । संस्कृत भवन के स्वामी तो हमारे शारदा मौहल्ले के दामाद थे। उनका बेटा राकेश मेरा दोस्त था और मैं संस्कृत भवन पर भी पुस्तकें उठा कर पढ़ता रहता था। आज जो फगवाड़ा में लवली यूनिवर्सिटी है, उनकी जालंधर छावनी में सचमुच मिठाइयों की बड़ी मशहूर दुकान थी । इस पर कभी हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने चुटकी भी ली थी। अब लवली यूनिवर्सिटी खूब फल फूल चुकी है।

मेरे फूफा जी का एक बार एक्सीडेंट हो गया और उनकी तीमारदारी में मुझे तीन माह सिविल अस्पताल में रहना पड़ा। वहाँ शाम के समय ईसा मसीह के अनुयायी अपना साहित्य बांटने आते जिनका इतना ही सार याद है कि एक अच्छा चरवाहा अपनी भेड़ों को अच्छी चारागाह में ले जाता है, ऐसे ही यीशु हमें अच्छी राह पर ले जाते हैं। अब समझता हूँ कि कैसे वे अपना साहित्य पढ़ाते थे !

दसवीं के बाद साहित्य में मेरी रूचि बढ़ गयी। संयुक्त पंजाब के सभी हिंदी, उर्दू व पंजाबी के अखबार यहीं से प्रकाशित होते थे और नये बस स्टैंड के पास ही आकाशवाणी का जालंधर केंद्र था। यहाँ मुझे पहली बार डाॅ चंद्रशेखर ने युववाणी में काव्य पाठ का अवसर दिलाया। इसके बाद जालंधर दूरदर्शन भी बना जहाँ मुझे रचना हिंदी कार्यक्रम के पहले एपीसोड में  ही जगदीश चंद्र वैद के सुझाव पर आमंत्रित किया गया। जालंधर आकाशवाणी व दूरदर्शन से ही अनेक पंजाबी गायक निकले जिनमें से गुरदास मान भी एक हैं। नववर्ष पर विशेष प्रोग्राम में गुरदास मान को अवसर मिला और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। काॅमेडी में विक्की ने भी नाम कमाया। नेत्र सिंह रावत, संतोष मिश्रा,रवि दीप, लखविंदर जौहल, पुनीत सहगल, के के रत्तू, मंगल ढिल्लों आदि कुछ नाम याद हैं। मंगल ढिल्लों न्यूज़ रीडर थे बाद में एक्टर बने और कुछ समय पहले ही उनका निधन हुआ। लखविंदर जौहल का लिश्कारा प्रोग्राम खूब लोकप्रिय रहा। पुनीत सहगल आजकल जालंधर दूरदर्शन के कार्यकारी प्रमुख हैं। संतोष मिश्रा कुछ समय हिसार दूरदर्शन के निदेशक भी रहे।  इनकी बेटी सुगंधा मिश्रा कपिल शर्मा के काॅमेडी शो के कुछ एपीसोड में भी आई।

कभी आकाशवाणी व दूरदर्शन के बाहर कतारें लगी रहती थीं लेकिन अब वह बीते जमाने की बाते़ं हो गयीं। आकाशवाणी में एक बार लक्ष्मेंद्र चोपड़ा भी निदेशक रहे तो श्रीवर्धन कपिल भी। विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक और सोहनसिंह मीशा प्रसिद्ध पंजाबी कवि और डाॅ रश्मि खुराना  हिंदी और देवेंद्र जौहल पंजाबी कार्यक्रम के प्रोड्यूसर रहे। हरभजन बटालवी भी याद आ रहे हैं। लक्ष्मेंद्र चोपड़ा आजकल सेवानिवृत्ति के बाद गुरुग्राम में रह रहे हैं। आकाशवाणी से ही माइक के आगे बोलना सीखा।

वीर प्रताप अखबार में मेरी लघु कथा आज का रांझा को प्रथम स्थान मिला।  यहाँ मेरी सत्यानंद शाकिर,  इंद्र जोशी, दीदी, आचार्य संतोष से लेकर गुरमीत बेदी और सुनील प्रभाकर से भी मुलाकातें होती रहीं। सुनील प्रभाकर बाद में दैनिक ट्रिब्यून में सहयोगी बने और गुरमीत बेदी हिमाचल पब्लिक सर्विस रिलेशन से सेवानिवृत्त हुए। सुनील प्रभाकर भी सेवानिवृत्त  हो चुके हैं। गुरमीत बेदी ने पर्वत राग पत्रिका भी निकाली। उन दिनों वीर प्रताप और हिंदी मिलाप की तूती बोलती थी। हिंदी मिलाप में तो कभी प्रसिद्ध निदेशक रामानंद सागर व हिंदी के प्रसिद्ध लेखक रवींद्र कालिया भी उप संपादक रहे। दोनों अखबार बंद हो चुके हैं। सिर्फ पंजाब केसरी, दैनिक सवेरा, उत्तम हिन्दू और अजीत समाचारपत्र ही हिंदी में चल रहे हैं। हिंदी मिलाप का हैदराबाद संस्करण चल रहा है। अजीत समाचार के संपादन में सतनाम माणक व सिमर सदोष चर्चित हैं। सिमर सदोष वीर प्रताप, हिंदी मिलाप और आज कल अजीत में साहित्य संपादक के रूप में लंबी पारी खेल रहे हैं। उन्हें पंजाब की नयी पीढ़ी को व लघुकथा को आगे बढ़ाने का श्रेय जाता है पर वे हैंडल विद केयर इंसान हैं । बहुत भावुक व सरल। मैंने यह बात पिछले साल उनकी पंकस अकादमी के समारोह में कह दी जो उन्हें खूब पसंद आई लेकिन एक दूसरे साहित्कार को यह बात हजम नहीं हुई। छब्बीस साल से सिमर पंकस अकादमी चला रहे हैं। न जाने कितने साहित्यकारों को सम्मानित कर चुके हैं। बड़ी लम्बी सूची है जिनमें एक नाम मेरा भी शामिल है। जालंधर की साहित्यिक यात्रा का अगला भाग अगले शनिवार। इंतज़ार कीजिये।

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ गांव की यादें – 1. नवांशहर 2. …. और मैं नाम लिख देता हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ गांव की यादें – 1. नवांशहर 2. …. और मैं नाम लिख देता हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

[1] नवांशहर 

गांव की यादें मेरे आसपास मंडराती रहती हैं । बचपन में पिता नहीं रहे थे । सिर्फ तेरह साल का था और ज़मीन इकतीस एकड़ । नन्हे पांव और सारे खेतों की देखभाल मेरे जिम्मे । खेती की कोई जानकारी नहीं । छोटे तीन भाई बहन । गेहूं की कटाई के दिनों में रातें भी खेतों में ही गुजारनी पड़तीं । हवेली का नौकर भगत राम लालटेन जलवा कर पास रखवा देता । ऐसे में मैं साहित्यिक उपन्यास पढ़ता रहता । मक्की की रोटी, मक्खन और लस्सी बना कर लाता । गेहूं की कटाई के बाद बैलों की मदद से गेहूं निकाला जाता और फिर इसको बांटने की शुरूआत होती । खेतों में कोई तोलने वाली मशीन न होती । टीन के कनस्तर को मापने के लिए देसी माणक माना जाता । शुरूआत में जो मजदूर लगे होते उनके निर्धारित पीपे दिए जाते । फिर भगत राम के लिए गेहूं छोड़ी जाती । उसके बाद हम दोनों का आधा आधा होता । फिर अनाज मंडी और वहां बहीखातों मे हिसाब किताब । काफी साइन उस बही-खाते पर किए होंगे । छह माह का राशन बैलगाड़ी पर लाद कर घर लाते । ताकि अगली फसल आने तक चल सके ।

फिर गन्ने का सीजन आता और बेलना खेत में लगाया जाता । सर्दियों की हल्की हल्की धूप में फिर बेलने के पास मेरी चारपाई लगा दी जाती । गर्म गर्म गुड़ और फिर आसपास के खेतों में काम करने वाले आ जाते अपनी अपनी रोटियां लेकर कि इनके ऊपर थोड़ा गुड़ डाल दो । रस भी पीते और खूब मूंछें संवारते । वे मज़े ले लेकर खाते तो भगत राम हंसता -लाला जी का बेलना क्या पंजाबी ढाबा हो गया ? चले आए जब दिल चाहा । मैं रोक देता ऐसा कहने से । उबलती हुई रस के  कड़ाहे में मेरे लिए आलू उखाड़ कर डाले जाते और बाहर निकाल कर ठंडे कर खाते । ऐसा लगता जैसे आलू शकरकंदी बन गये । बहुत स्वाद से खाते सब ।

अब गांवों के किसी खेत में शायद ही बेलना चलता दिखाई  देता हो । हां , सड़क किनारे यूपी से आकर लोग गन्ने का ठेका लेकर बेलना लगाते हैं और नवांशहर से जालंधर व चंडीगढ़ के बीच सड़क पर ऐसे कितने बेलने मिल जाते हैं । कभी कभी गाड़ी रोकर गुड़ शक्कर खरीदता हूं तो आंखें भीग जाती हैं अपने गांव के खेतों में चलते बेलने को याद करके ।

हमारे शहर के बारे में उर्दू की किताबों में जो विशेषता दी गयी वह इस प्रकार थी :

नवांशहर की चार चीज़ें हैं खरी

गुड़, शक्कर, रेवड़ियां और बारांदरी ।

हर साल बादाम, किशमिश और खरबूजे के बीज डाल कर गुड़ बनवाया जाता जो घर आए मेहमान को खाने के बाद स्वीट डिश की तरह परोसा जाता । आह । वे दिन और कैसे बाजार बनता जा रहा गांव । मक्की के भुट्टे सारे मुहल्ले में दादी बंटवाती थी और लोहड़ी के दिन बड़ी बल्टोही रस से भरी मंगवाती गांव से और सारे घरों में देतीं । अब रस की रेहड़ियां आतीं हैं घरों के आसपास आवाज़ लगती है रस ले लो । सब बाजार में । भुट्टे गर्मा गर्म बाजार में । कुछ दिल नहीं करता । गांव जाता हूं तो बच्चों के लिए खूब सारे भुट्टे लाता हूं । उन्हें वे भूनना भी नहीं जानते । रसोई गैस पर भूनते हैं और जला देते हैं । हमारी हवेली के सामने दाने भूनने वाली बैठती थी और भगत राम मेरे लिए मक्की के दाने भिगो कर बनवाता जिसे खाते । या चने जिनको बाद में पीस कर शक्कर मिला कर कूटते और उन जैसा स्वाद किसी स्वीट डिश में आज तक नहीं मिला । बड़े बड़े होटल्स में भी नहीं ।

यों ही गांव मेरे पास आया और अपनी कहानी सुना गया । सुबह सैर के बीच कितनी बार गांव मेरे पास आया । आखिर वह अपनी व्यथा कथा लिखवाते में सफल रहा ।

 [2] ……. और मैं नाम लिख देता हूँ

दीवाली से एक सप्ताह पहले अहोई माता का त्योहार आता है ।

तब तब मुझे दादी मां जरूर याद आती हैं । परिवार में मेरी लिखावट दूसरे भाई बहनों से कुछ ठीक मानी जाती थी । इसलिए अहोई माता के चित्र  बनाने व इसके साथ परिवारजनों के नाम लिखने का जिम्मा मेरा लगाया जाता ।

दादी मां एक निर्देशिका की तरह मेरे पास बैड जातीं । और मैं अलग अलग रंगों में अहोई माता का चित्र रंग डालता । फिर दादी मां एक कलम लेकर मेरे पास आतीं और नाम लिखवाने लगतीं । वे बुआ का नाम लिखने को कहतीं ।

मैं सवाल करता – दादी , बुआ तो जालंधर रहती है ।

– तो क्या हुआ ?  है तो इसी घर की बेटी ।

फिर वे चाचा का नाम बोलतीं । मैं फिर बाल सुलभ स्वभाव से कह देता – दादी ,,,चाचा तो ,,,

– हां , हां । चाचा तेरे मद्रास में हैं ।

– अरे बुद्धू । वे इसी घर में तो लौटेंगे । छुट्टियों में जब आएंगे तब अहोई माता के पास अपना नाम नहीं देखेंगे । अहोई माता बनाते ही इसलिए हैं कि सबका मंगल , सबका भला मांगते हैं । इसी बहाने दूर दराज बैठे बच्चों को माएं याद कर लेती हैं ।

बरसों बीत गए । इस बात को । अब दादी मां रही नहीं ।

जब अहोई बनाता हूं तब सिर्फ अपने ही नहीं सब भाइयों के नाम लिखता हूं । हालांकि वे अलग अलग होकर दूर दराज शहरों में बसे हुए हैं । कभी आते जाते भी नहीं । फिर भी दीवाली पर एक उम्मीद बनी रहती है कि वे आएंगे ।

…….और मैं नाम लिख देता हूं ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – अपेक्षा ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपका विचारणीय संस्मरण  – अपेक्षा )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 22 ☆ 

? मेरी डायरी के पन्ने से… संस्मरण  – अपेक्षा ?

हमारा मोहल्ला काफ़ी बड़ा मोहल्ला है। मोहल्ले के सभी निवासी यहाँ की साफ़-सफ़ाई और बागवानी से खुश हैं। छोटे बच्चों के प्ले एरिया की विशेष देखभाल की जाती है। मच्छर न हों इसलिए नियमित औषधीय छिड़काव किए जाते हैं, धुआँ फैलाया जाता है। कुल मिलाकर आकर्षक परिसर है।

मोहल्ले में पिछले पंद्रह वर्षों से एक माली काका बाग – बगीचे की देख-रेख करते आ रहे हैं। मेहनती हैं, सुबह दस बजे से शाम के पाँच बजे तक लगातार श्रम करते हैं।

माली काका अब थक से गए हैं। कमर भी झुक गई है और चलने की गति भी कम हो गई है। खास किसी के साथ बतियाते नहीं। कभी- कभार बीड़ी फूँकते हैं। कॉलोनी के मैनेजर ने कई बार उन्हें टोका है। पर आदत छूटती कहाँ! झाड़ियों के पीछे छिपकर बीड़ी पीने से भी धुआँ कहाँ छिपता है भला? मालूम तो पड़ ही जाता है कि माली काका थकावट दूर करने के लिए बगीचे के एक कोने में बैठकर थोड़ा सुस्ताते हुए एक आध बीड़ी फूँक रहे हैं।

मैनेजर के कहने पर कल वह मोहल्ले के दफ्तर में चेयरमैन से मिलने गए थे। चेयरमैन रिटायर्ड आदमी हैं, सत्तर से अधिक उम्र है। इंजीनियर आदमी थे। अपने क्षेत्र के माहिर व्यक्ति थे वे जिस कारण रिटायर्मेंट के बाद अभी भी उसी कंपनी में वे कंसल्टेंट के पद पर हैं। मोहल्ले की देखभाल समाज सेवा की दृष्टि से करते हैं।

माली काका जब कमरे में आए तब वे किसी से मोबाइल पर बात करते हुए व्यस्त थे तो इशारे से उसे बैठने के लिए कहा। संकोचवश माली काका कमरे से बाहर निकलकर दीवार से पीठ टेककर सुस्ताते हुए बैठ गए। पाँच बज चुके थे, उनके घर जाने का भी समय हो रहा था।

चेयरमैन अपनी बात पूरी करके कमरे से बाहर आए। एक मचिये पर साहब बैठ गए और माली काका से बोले

 – कैसे हैं माली काका ?

– ठीक हूँ साहिब। आपकी दुआ है।

– अरे नहीं, सब ईश्वर की कृपा है। काका अब आपकी उम्र कितनी हो गई है ?

– साहिब साठ -बासठ होगा ! हम अनपढ़ गिनती क्या जानें साहिब!

– थके से लगने लगे हैं अब । अच्छा, वे केले के पेड़ लगाए थे उस पर फल लगे कि नहीं ?

– हाँ साहिब बहुत फल लगे थे

(काका के चेहरे पर अचानक चमक आ गई मानो कोई उनसे उनके अपने सफल बच्चों की खैरियत पूछ रहा हो।)

 – साहिब सभी घर में दो-तीन, दो-तीन केले बाँट दिए थे। (हँसकर) अपना मोहल्ला बहुत बड़ा भी है न साहिब तो हर घर में थोड़ा- थोड़ा बाँट दिया।

– अरे वाह! यह तो बहुत अच्छा किया।

(थोड़ा रुककर) मोहल्लेवालों को अब आप पर दया आने लगी है ।

– क्यों साहिब?

– अब आपकी उम्र काफ़ी हो गई है, साथ में इतनी धूप, बारिश में काम करते रहते हैं।

– सो तो साहिब हम माली हैं काम है हमारा, पौधे -पेड़ हमारी औलादें जो ठहरी ! देखभाल तो करनी ही पड़ेगी न साहिब।

– हूँ, हम लोग सोच रहे थे… कि काका हर महीने में हम कुछ पेंशन देंगे आपको, आप अब रिटायर हो जाइए।

– साहिब ये क्या बोल गए आप! मैं घर बैठकर क्या करूँगा? फिर पेट चलाने को पगार भी कम पड़ता है तो पेंशन से रोटी कैसे चलेगी साहिब! दो बखत तो रोटी चाहिए न साहिब!

– हाँ, इसलिए ही तो पेंशन देंगे आपको।

 काका कुछ देर चुप रहे फिर अचानक बोले,

– साहिब हमें कनसूलेट बना दो!

– माने ?

– साहब आप को भी तो रिटायर होकर बहुत साल हो गए न, आप कंपनी में कनसूलेट हैं न! आप अभी भी तो कुछ घंटों के लिए कंपनी जाते हैं।

– आपको कैसे पता?

– साहिब आपका डिराइवर बता रहा था कि साहब कंपनी में बहुत फेमस हैं, बहुत मेहनती हैं और बहुत अच्छा काम करते हैं इसलिए कंपनीवाले छोड़ते नहीं आपको।

– अच्छा ! (हँसकर) बड़ी खबर रखते हैं आप काका।

– (अपना सिर खुजाते हुए) नहीं साहिब, क्या है के हम भी पंद्रह साल से दिन रात इस कालोनी में खपते रहे। कनसूलेट बन गए तो दूसरे मालियों को टरेनिंग देंगे, काम सिखाएँगे। मोहल्ला सुंदर भी बना रहेगा हमारा पेट भी भरा रहेगा।

माली काका की बातें सुनकर चेयरमैन अचंभित अवश्य हुए पर अनपढ़ व्यक्ति की दुनियादारी और जागरुकता देखकर मन ही मन प्रसन्न भी हुए।

– ठीक है काका हम मीटिंग में तय करके आपको बताएँगे।

– ध्यान रखना हमारा साहिब, हम कनसूलेट बनकर और ज्यादा काम करेंगे। नमस्ते साहिब ।

नमस्ते कहकर चेयरमैन बुदबुदाए – कंसल्टेंट बनकर काम करने की अपेक्षा रखने की आवश्यकता अब हर लेवल पर है यह बात तो स्पष्ट हो गई। रिटायर होना तो बस एक बहाना भर है वरना कमाई किसे नहीं चाहिए भला।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 211 ☆ “कमी नहीं है कद्रता की…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका संस्मरण – “कमी नहीं है कद्रता की…)

☆ संस्मरण – “कमी नहीं है कद्रता की…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देखा जाए तो संघर्ष का नाम ही जीवन है, इस दुनिया में हम खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ जाते हैं, बीच का समय होता है और इस बीच के समय में जिसने संघर्ष से नजर मिला ली उसने जीवन जीत लिया।

यदि मन में हो संकल्प और इरादे हों मजबूत तो कोई भी इंसान मेहनत कर अपनी मंजिल हासिल कर सकता। उमरिया जिले के बियाबान जंगल के बीच बसे पिछड़े आदिवासी गांव का प्रताप गौड़ जब घिटकते घिसटते स्टेशन रोड स्थित ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के आफिस पहुंचा तो उसकी आंखों में चमक थी, उसके अंदर जुनून की ज्वाला भभक रही थी उसके अंदर कुछ सीखने की ललक अंगड़ाई ले रही थी, उसने बताया कि वह चंदिया के पास एक गांव का रहने वाला है,गौंड़ जाति का है उसका नाम गरीबी रेखा में है और वह आठवीं पास है,दो दिन बाद आरसेटी में ड्रेस डिजाइन का प्रशिक्षण चालू होने की खबर से वह तीस चालीस किलोमीटर दूर गांव से घिसटते घिसटते आया था, उसके दोनों पैर पोलियो से बचपन मे खराब हो गए थे और वह चल फिर नहीं सकता था दोनों हाथ ही उसके दो पैर का भी काम करते थे, उसको देखकर दया आई, पर उसके जुनून और कुछ करने की तमन्ना को देखते हुए हमने ड्रेस डिजाइन के पचीस दिवसीय प्रशिक्षण में उसका एडमिशन कर लिया। चौबीस और प्रशिक्षणार्थियों को शामिल किया गया जो उमरिया जिले के अलग-अलग गांवों से आए हुए थे। आवासीय प्रशिक्षण में एडमिशन पाकर प्रताप खुश था। उसकी दिनचर्या अन्य बच्चों से अधिक आदर्श थी सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर पूजा पाठ करता समय पर तैयार हो जाता। हर काम करने में अव्वल रहता।  पच्चीस दिनों में उसने अपना एक अलग इम्प्रेसन बना लिया था। अब वह कुछ करना चाहता था। गांव में गरीबी थी, पिता बीमार रहते थे बहुत गरीब थे घर में एक जून की रोटी मिल जाए ये भी भाग्य की बात होती थी। प्रताप को रोजगार से लगाने की चिंता सभी को हुई। जिला उद्योग केन्द्र से उसका रोजगार योजना का केस बनवाया गया। केस उसके गांव के पास की स्टेट बैंक की चंदिया शाखा भिजवाया गया। फिर ड्रेस डिजाईन व्यवसाय को अपना कर एक अच्छी जिंदगी की शुरुआत करने की तमन्ना लेकर विकलांग बालक प्रताप सिंह गोँड के जीवन मे उम्मीद की किरण भारतीय स्टेट बैंक चँदिया शाखा के वित्त पोषण से हुई ।

उसने एसबीआई आर सेटी उमरिया से ड्रेस डिजाईन का प्रशिक्षण प्राप्त किया जिला उद्योग व्यापार  केंद्र ने रानी दुर्गावती योजना मे  उसका  ऋण प्रकरण बनाया और चँदिया शाखा से उसका  ऋण स्वीकृत हो गया । एक कार्यक्रम के दौरान हमारी उपस्थिति में परसाई शाखा प्रबंधक एवं अन्य गणमान्य नागरिकों के बीच प्रताप सिंह को सिलाई मशीन, इंटरलॉक मशीन, अलमारी, और कपड़े खरीदने हेतु चेक का वितरण एसबीआई आर सेटी उमरिया के माध्यम से किया गया। प्रताप सिंह गोँड ने इस अवसर पर बताया की स्टेट बैंक चँदिया ने उसे नया जीवन प्रदान किया और बैंक द्वारा दिये गए समान से यह अपनी बेरोजगारी एवं गरीबी को ख़त्म करके रहेगा। उसने अपने गांव में एक छोटी सी दुकान खोली और अपने हुनर से आसपास के गांव से उसके पास सिलाई कढ़ाई के काम आने लगे, व्यवहार, समयबद्धता और अपने काम से उसके पास भीड़ लगने लगी।  फिर उसने एक दो दोस्तों को काम सिखा कर उन्हें भी रोजगार दे दिया, बैंक की हर किश्त हर महीने की पांच तारीख को जमा होती बैंक वाले भी आश्चर्यचकित कि उन्हें ऐसा पहला ग्राहक मिला जो हर पांच तारीख को किश्त चुकाता है जबकि बैंक का बीसों साल का रिकॉर्ड था कि शासकीय योजनाओं में लोग पांच पांच साल किश्त नहीं चुकाते।

एक दिन मोबाइल में किसी मित्र का मोबाइल नंबर ढूंढते हुए अचानक प्रताप के गांव के सरपंच का नंबर दिख गया। प्रताप गौंड़ की याद आ गई, फिर सरपंच ने प्रताप का मोबाइल नंबर दिया।  प्रताप के नंबर को मिलाया, वहां से एक ताजगी भरी आवाज आयी एक छोटी बच्ची पूंछ रही थी अंकल आप किससे बात करना चाहते हैं, मैंने प्रताप गौंड़ का नाम बताया। उसकी फोन पर आवाज आयी पापा किसी अंकल का फोन है। मुझे बेहद खुशी हुई।  प्रताप आत्मनिर्भर होकर बाल बच्चे वाला हो गया है।  प्रताप से पता चला कि उसने रेडीमेड गारमेंट का कारखाना खोल लिया था और ऊपर वाले की कृपा से अब सब कुछ है हमारे पास…. आपने और बैंक ने हमें इस काबिल बनाया कि हमारे सब दुख दूर हो गये और अब हम ईमानदारी से इन्कम टैक्स भरने लगे हैं। आज ग्यारह साल हो गए इस बात को…  जब प्रताप घिसटते घिसटते मेरे आफिस के बाहर मुझे कातर निगाहों से देख रहा था। मुझे लगा वो सारे लोग जो हमारे आसपास अनन्त सम्भावनाओं से भरे होते हैं पर कई बार अवसरों के अभाव में, तो कई बार जानकारी और संसाधनों के अभाव में अपनी क्षमताओं का भरपूर उपयोग नहीं कर पाते उनके लिए उनके कहे बिना कुछ ऐसा कर कर देना जिससे उनका वर्तमान और भविष्य बेहतर बन जाए कितनी सुन्दर बात है ना…।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 199 ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अविस्मरणीय संस्मरण – “समय समय की बात)

☆ संस्मरण ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

जमाना कितना बदल गया। हम लोगों ने परसाई जी के जीते जी 1991 में परसाई जन्मदिन के बहाने परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन दिवसीय बड़ा आयोजन किया था, जिसमें गया से मुख्य अतिथि डॉ सुरेन्द्र चौधरी (ख्यातिलब्ध आलोचक) आये थे और अध्यक्षता महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डॉ महेश दत्त मिश्र जी ने की थी

इस अवसर पर ‘परसाई स्मारिका पुस्तिका’ हमारे सम्पादन में निकाली गई थी, उस समय कई सौ प्रतियां नि:शुल्क बांटी गईं थीं। आज के समय में प्रकाशक संग्रह छापने के पहले लेखक से सौ प्रतियां खरीदने की शर्त रख देते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ कारगिल विजय दिवस विशेष – “बलिदान कारगिल में …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित कारगिल विजय दिवस पर विशेष संस्मरण “बलिदान कारगिल में…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ संस्मरण – कारगिल विजय दिवस विशेष – “बलिदान कारगिल में…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

घटना कारगिल की है । भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाकर भी पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं पर चुपचाप घुसपैठ शुरू कर दी थी । काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है । सन् 1947 में काश्मीर रियासत के राजा हरीसिंह ने पूरी रियासत का देश में मिलना स्वीकार कर भारत देश के एक प्रदेश के रूप में रहना पसंद किया । काश्मीर पाकिस्तान से लगा हुआ है । पाकिस्तान उसे अपने देश में गैर कानूनी ढंग से मिलाने के लिये शुरू से ही लालायित है । ऐसा असंभव है । इसलिये वह हमेशा काश्मीर प्रदेश में भारतीय सीमाओं पर घुसपैठ कर, आतंक मचाकर जमीन हथियाना चाहता है । कई बार युद्ध में हारकर भी मई 1999 में सीमाओं पर द्रास – कारगिल और बटालिक क्षेत्र में ऊँचे पहाड़ों पर उसने फिर हमला किया । हमारे वीर बहादुर सैनिक प्राणपण से देश की रक्षा के लिये लड़कर विजयी हुये ।

यह कारगिल क्षेत्र की टाइगर पहाड़ी पर घुसपैठियों से युद्ध करते हुये अपनी भारत माँ के लिये प्राण देने वाले वीर हेमसिंह की वीरता की घटना है । हेमसिंह ग्राम खेड़ा फिरोजाबाद के निवासी थे । टाइगर पहाड़ी पर अपूर्व वीरता के साथ दुश्मन सेअपने भारत देश के लिए लड़ते हुये अपना बलिदान दे उन्होंने शहादत पाई । उनके मित्र नायक रामसिंह ने उनकी वीरता का वर्णन इस प्रकार किया है ।

हेमसिंह की बहादुरी देखकर दुश्मनों के भी छक्के छूट गये । कारगिल में टाइगर पहाड़ी को दुश्मनों से छुड़ाने की ज़िम्मेदारी 9 वीं पैरा यूनिट के जाँबाज कमाण्डों को सौंपी गई थी । कमाण्डो अपने दल के साथ एक के बाद एक कुछ फासले से पहाड़ी पर चढ़ रहे थे । नायक हेमसिंह भी अपने कुछ साथियों को ले पहाड़ी पर रस्सी बाँधकर चढ़ रहे थे । जब वे ऊपर पहुँचने वाले ही थे तो दुश्मनों ने गोली चलानी शुरू कर दी । भारतीय सेना दल ने भी गोली चलानी शुरू कर दी तो दुश्मन अपने बंकरों में भाग कर ऊपर से धुंआधार गोलियाँ बरसाने लगे । दुश्मन केवल 40-50 गज की दूरी पर थे । बिना कोई परवाह किये देशभक्त भारतीय सैनिक चढ़ते और बढ़ते गये तथा अनेकों दुश्मन सैनिकों को ढेर कर दिया । इसी बीच दुश्मन ने और सैनिक सहायता से बमबारी शुरू कर दी । हेमसिंह आगे बढ़ते जा रहे थे । उनके शरीर में बम के टुकड़े धंसते गये पर अपने साथियों के पीछे हटने का आग्रह ठुकराकर भी हेमसिंह अपने मोर्चे पर डटे रहे और अपनी बंदूक के निशाने से दुश्मन के चार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । साथियों ने उन्हें अस्पताल, जो 20 किमी. दूर था, ले जाने की तैयारी की । परन्तु अपनी कर्मभूमि पर ही कर्त्तव्य पूरा कर हेमसिंह मातृभूमि के लिये लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुये । उनकी वीरता और जाँबाजी की चर्चा हमेशा अमर रहेगी । उन्होंने अपने बलिदान से एक बार फिर सबको सिखा दिया कि मातृभूमि जिसने हमें पाला – पोसा और बड़ा किया है, का ऋण समय आने पर ऐसे आदर्श बलिदान से दिया जा सकता है ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆ 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ यादें पिता की… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘यादें  पिता  की…’।)

☆ संस्मरण – यादें  पिता  की… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

वे जेब खर्ची देने वाले पिता नहीं थे।  वे उन पिताओं जैसे भी नहीं थे जो अपने बच्चों के बस्ते आप उठाकर उन्हे स्कूल बस में चढ़ाने जाते हैं। न ही वे हमें किसी आधुनिक पिता जैसा लाड़ प्यार करते थे। वे सख्त किस्म के पिता थे। उनका मानना था कि लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ते हैं अत: जहां वे मामूली गलती भी करें, उनकी पिटाई होती रहनी चाहिए। मार पीट के मामले में हम बचपन से ही ढीठ बन चुके थे।

(पिता स्वर्गीय चौधरी मुगला राम)

जीवन मूल्यों व संघर्ष की स्वयं अपनी शिक्षा के लिए पिताजी ने स्कूल वगैरा को कभी बीच में आने नहीं दिया। कोई लिखना पढ़ना नहीं। कोई थिअरी नहीं। सब कुछ प्रैक्टिकल। यही कुछ वे हमें सिखाना चाहते थे। 1947 में गांव में आ बसे पंजाबी परिवारों की सोभत में उन्होंने अपने पुत्रों को स्कूल भेजना तो शुरू किया पर जीवन कौशल की सख्त प्रैक्टिकल ट्रेनिंग में कोई रियायत नहीं की।

इस सब के बावजूद पिता सही मायने में  हमारे शुभचिंतक व संरक्षक थे। संतान प्राप्ति के लिए ही तो उन्होंने एक के बाद एक, चार शादियां की थी।

हमारे गांव में स्कूल नहीं था। पास के गांव पूंडरी में था। पहली क्लास में हमारा दाखिला वहीं हुआ।

हम कापियों पर पेंसिल या पैन से नहीं, तख्तियों पर स्याही और कलम से सुलेख लिखते थे। मुल्तानी मिट्टी से तख्ती पोची जाती थी।

तख्ती लड़ने के काम भी आती थी। कई बच्चे तो तलवार की तरह घुमाकर तख्ती चलाते थे। एक दिन दो बच्चों में ऐसा तख्ती युद्ध हुआ कि एक बच्चे के सिर से खून बहने लगा। एक अध्यापक ने उसकी मरहम पट्टी की। स्कूल में फर्स्ट एड बॉक्स था।

फिर सभी बच्चों को इकट्ठा किया और अध्यापक ने गुस्से से सभी को धमकाया कि अगर वे लड़ाई करेंगे तो उन्हे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। जो पढ़ना नहीं चाहता वह स्कूल में न आए।

आखरी बात मुझे बड़ी अच्छी लगी। जब दोबारा कक्षाएं शुरू हुईं तो मैं अपना थैलानुमा बस्ता और तख्ती उठाकर अध्यापक के पास गया और उनसे कहा कि मैं नहीं पढ़ना चाहता। यहां बच्चे लड़ाई करते हैं। मैं घर जाना चाहता हूं।

“अबे जा उल्लू के पट्ठे। तुझे कौन बुलाने गया था कि तू स्कूल में आ!”

मैं डर कर पीछे हटा। हैरान था कि कुछ देर पहले यह कहने  वाला अध्यापक कि जो पढ़ना नहीं चाहता, अपने घर जाए, अब क्यूं गुस्सा हो रहा था। खैर, मैं अपना तख्ती बस्ता लेकर त्यागी चौपाल में चल रहे स्कूल से वापिस अपने गांव और घर की ओर निकल गया।

गांव पहुंचा तो गली में ही चंद्रभान बनिए की दुकान पर बापू को बैठे पाया और ठिठक कर वहीं रुक गया। उन्होंने पूछा कि जल्दी कैसे आ गया तो मैंने साफ़ साफ़ सारा किस्सा सुना दिया यह कहते हुए कि मैं स्कूल में नहीं पढ़ना चाहता।

अच्छा तू नहीं पढ़ना चाहता… यह कहते हुए बापू ने अपने पैर की जूती उठाई और ज़ोर से मेरी तरफ फेंकी। उनका निशाना कुछ चूक गया और उन्हें अपनी तरफ आता देख मैं वहां से भाग लिया।

मैं आगे और बापू पीछे, गांव की फिरनी का पूरा चक्कर काट लिया। घूम कर स्कूल के रास्ते पर जब मैं मुड़ा तो बापू ने मेरा पीछा करना छोड़ा।

मैं बापू के गुस्से को समझ नहीं पाया पर पिटाई से बचने के लिए वापिस स्कूल की तरफ हो लिया। मन में एक और डर था कि अध्यापक भी पिटाई करेगा।

स्कूल की तरफ कुछ ही दूर गया था कि पंजाबी लड़का अविनाश ग्रोवर वापिस आता मिल गया। कहने लगा, आगे कोई लंबा सांप निकला है और उसने सांप के रास्ते से गुजरने के निशान देखे हैं।

मैं और डर गया। अकेला आगे कैसे जाऊं? रास्ते में सांप आ गया तो?

मैं वापिस अविनाश के साथ गांव की तरफ ही मुड़ लिया। पिता का भी डर था। मुझे दोनों तरफ सांप नज़र आने लगे। गांव की तरफ ही चलता गया यह सोच कर कि बापू तब तक दुकान से जा चुका होगा।

पर वो तो वहीं बैठा मिला ।

फिर वापिस आ गया तू? वह गुस्से से बोला। मैंने हकलाते हुए कहा, रास्ते में सांप था।

चन्द्रभान बनिए ने कुछ बीच बचाव किया। ….चाचा, बच्चा डर गया है, अब की बार माफ़ कर। आगे से यह स्कूल से नहीं भागेगा…

मैंने बगैर पूछे ही बार बार हामी भरते हुए गर्दन हिलाई।

“क्यों, फिर भागेगा”, बापू ने पूछा। वह पूरी तसल्ली करना चाहता था। मैंने दोनों कान पकड़ कर गर्दन दाएं बाएं हिलाते हुए ना कहा।

ऐसे काम नहीं चलेगा। नाक से तीन लकीरें निकाल कि तू फिर स्कूल से नहीं भागेगा।

मैंने तुरंत नाक से तीन लकीरें निकाली और कहा कि फिर कभी स्कूल से नहीं भागूंगा।

बापू ने कहा, जा घर जा।

आज माफ़ कर दिया, फिर नहीं करूंगा।

बस वो दिन और आज का दिन। मैं कभी स्कूल तो क्या कॉलेज या फिर दफ्तर की ड्यूटी से भी नहीं भागा। तीन लकीरें जो निकाली थीं नाक से।

तीन लकीरें सहज ही मेरे लिए बापू को दिए तीन वचन बन गईं :  पहला वचन कि कभी किसी काम से नहीं भागना भले ही कश्मीर के आतंकवाद में ड्यूटी करनी हो; दूसरा वचन कि पूरे मन से काम करना, इसी से ज्ञान व कौशल मिलेगा और मान सम्मान प्राप्त होगा तथा आखरी व तीसरा वचन यह कि जिस काम की दिल गवाही न दे, उसे करने से बचना।

पितृ दिवस पर नमन मेरे पिता को और उन जैसे सभी पिताओं को।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 191 ☆ “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – महान चित्रकार आशीष स्वामी…”)

☆ संस्मरण — “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए।  कोरोना उन्हें लील गया। मैंने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान उमरिया में तीन साल से अधिक डायरेक्टर के रूप में काम किया। मेरे कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। भारत सरकार ने उमरिया आरसेटी के डायरेक्टर को दिल्ली में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से सम्मानित भी किया था।  

आरसेटी में ट्रेनिंग लेने आये बच्चों में सकारात्मक सोच भरने और उनकी संस्कृति की अलख जगाने में श्री आशीष स्वामी बड़ी मेहनत करते थे। नये नये आइडिया देकर उन्हें कुछ नया काम करने की प्रेरणा देते थे। क्या भूलूं? क्या याद करूं?

हां एक खास इवेंट आप वीडियो में देखिए,जो हम लोगों ने जनगण तस्वीर खाना लोढ़ा में आयोजित किया था, यूट्यूब में दुनिया भर के लोगों ने जब इस वीडियो को देखा तो दंग रह गए। ऐसा दुनिया में पहली बार हुआ था लोढ़ा में।

जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था, दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तोआरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे। उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया। फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था। दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ। आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन किसानों के लिए अलग अलग तरह के मुफ्त के पहरेदार कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण तस्वीरखाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ,सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप उपरोक्त वीडिओ देखकर बताईए, आपको कैसा लगा। और महान कलाकार आशीष स्वामी जी को दीजिए श्रद्धांजलि…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – “रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

  

☆ संस्मरण – “रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(मित्र डाॅ घोटड़ की पुस्तक ‘रमेश बतरा की लघुकथाएं’ से)

रमेश बत्तरा -मेरा मित्र भी और कह सकता हूं कि कदम कदम पर मार्गदर्शक भी। हमारा परिचय तब हुआ जब करनाल से बढ़ते कदम नाम से एक पत्रिका संपादित करनी शुरू की रमेश ने और मुझे खत आया सहयोग व रचना के लिए। रचना भेजी। प्रवेशांक में आई भी। फिर रमेश का तबादला चंडीगढ़ हो गया और हमारी मुलाकातें भी शुरू हुईं। सेक्टर बाइस में घर तो सेक्टर आठ में

दफ्तर -दोनों जगह। फिर हम कब केशी और मेशी रह गये एक दूसरे के लिए यह पता ही नहीं चला। यह दूरी व औपचारिकता बहुत जल्द मिट गयी। चंडीगढ़ आकर शामलाल मेहंदीरत्ता यानी ‘प्रचंड’ की पत्रिका ‘साहित्य निर्झर’ की कमान रमेश ने संभाल ली। इससे पहले अम्बाला छावनी की पत्रिका तारिका(अब शुभ तारिका) का लघुकथा विशेषांक संपादित कर रमेश बत्तरा खूब चर्चित हो चुका था। यानी कदम कदम पर न केवल लघुकथाएं लिखकर बल्कि पत्रिकाओं का संपादन कर उसने लघुकथा को संवारने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ‘बढ़ते कदम’ से ‘तारिका’ और तारिका से ‘सारिका’ तक का सफर जल्दी जल्दी तय कर लिया रमेश ने। इनके साथ ही नवभारत टाइम्स और फिर संडे मेल तक लघुकथाओं को प्रमुखता से प्रकाशित कर चर्चित करने में रमेश की बहुत बड़ी भूमिका है। मैंने अप्रत्यक्ष रूप से संपादन भी रमेश से सीखा जब वह साहित्य निर्झर का और फिर दिल्ली में सारिका का संपादन कर रहा था। कैसे वह डीटीसी की लोकल बसों में भी रचनाएं पढ़ता जाता, छांटने का काम करता। कैसे फोटोज का चयन करता और कैसे रचना को संशोधित भी करता। चंडीगढ़ में रहते ही लघुकथा विशेषांक की तैयारी करते देखा, कुछ सहयोग भी दिया और मुझसे बिल्कुल अंतिम समय में नयी लघुकथा मांगी जब हम सेक्टर 21 में प्रेस में ही खड़े थे और मैंने प्रेस की एक टीन की प्लेट उल्टी कर लिखी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और कहा था कि यह ऐसी प्रेम कथा है जिसे अपने हर संपादन में प्रकाशित करूंगा और उसने वादा निभाया भी। यानी रचनाकारों से उनका श्रेष्ठ लिखवा लेने की कला रमेश में थी। ‘सारिका’ में भी मुझसे ‘दहशत”, ‘ चौराहे का दीया’ और ‘मैं नाम लिख देता हूं ‘ लिखवाई। संडे मेल में आई ‘मैं नहीं जानता’ को चर्चित करने में भी रमेश का ही हाथ रहा। जैसे मेरी रचनाओं को चर्चित किया, वैसे ही अनेक अन्य रचनाकार भी न केवल प्रकाशित किये बल्कि संशोधित व संपादित भी कीं रचनाएं, उन लेखकों की सूची बहुत लम्बी है। मार्गदर्शक की बात कहूं कि तो 25 जून, 1975 यानी आपातकाल की घोषणा होने वाले दिन मैं और रमेश एकसाथ ही थे चंडीगढ़ में। वह मुझे पंजाब बुक सेंटर ले गया और मार्क्स व एंगेल्स की पुस्तिकाएं खरीद कर दीं और कहा कि अब इन्हें जानने, पढ़ने व समझने की जरूरत है। फिर कुछ समय बाद रमेश ने कहा कि अब खूब पढ़ाई कर ली, अब इन पर आधारित कहानियां लिखने की जिम्मेदारी है। यह था उसका एक रूप। मित्रों को निखारने व समझाने का।

लघुकथा का जो रूप हम देख रहे हैं या लघुकथा जो सफर तय करके यहां तक पहुंची है, उसमें एक कुशल कारीगर की भूमिका रमेश बत्तरा की भी है। आठवें दशक में लघुकथा ने न केवल अपने कंटेंट बल्कि अपने कलेवर और तेवर में जो क्रांतिकारी बदलाव किये उनमें रमेश का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। न केवल लघुकथा लिखने बल्कि लघुकथा की आलोचना को आगे बढ़ाने का काम भी बखूबी संभाला। साहित्य निर्झर में ‘लघुकथा नहीं ‘जैसे आलेख में रमेश स्पष्ट करता है कि लघुकथा को नीति कथाओं, लोक कथाओं, मात्र व्यंग्य से आगे ले जाने की समय की मांग है। अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को भी रमेश ने उल्लेखित किया। लघुकथा में सृजनात्मकता लाने और चुटकुलेबाजी से मुक्ति का आह्वान किया। कहानी और लघुकथा में अंतर स्पष्ट करने और इसे संपूर्ण विधा के लिए मार्ग प्रशस्त किया। लघुकथा किसलिए और क्यों, लघुकथा में कितनी तरह की विविधता की जरूरत और इस आंदोलन का एक समय रमेश अगुआ की भूमिका में रहा।

चंडीगढ़ की अनेक मुलाकातों में कथा /लघुकथा और संपादन की बारीकियों पर चलते चलते भी बातचीत होती रहती। सबसे बड़ी चिंता कि इसे मात्र व्यंग्य की पूंछ लगाकर ही नहीं लिखा जा सकता। ऐसे एक सज्जन बालेन्दु शेखर तिवारी सामने आए भी और इसका आधार व्यंग्य ही न केवल माना बल्कि एक पूरा संकलन भी संपादित किया। इसलिए रमेश की चिंता इसी पर केंद्रित हो गयी कि लघुकथा में संवेदना को कैसे प्रमुखता दी जाये। यहां तक आते आते रमेश और मेरी लघुकथाएं विवरण की बजाय संवेदनात्मक होने लगीं। माएं और बच्चे, कहूं कहानी, उसकी रोटी, हालात, शीशा, निजाम, सूअर, नागरिक, वजह, चलोगे आदि लघुकथाओं में संवाद ही प्रमुख हैं। अनेक लघुपत्रिकाओं के विशेषांकों या लघुकथा संग्रहों के पीछे रमेश ही प्रमुख रहा। उसकी लघुकथाएं वैसे तो सभी चर्चित हैं लेकिन सर्वाधिक चर्चित हैं -सूअर, कहूं कहानी, उसकी रोटी, खोया हुआ आदमी और खोज। देखा जाये रमेश की लघुकथाओं में चिंता थी साम्प्रदायिकता की, बदलते समाज की, सभ्यता की और आम आदमी के स्वाभिमान की। इन बिंदुओं पर रमेश की लघुकथाएं आधारित हैं मुख्य रूप से।

एक एक शब्द पर चिंतन और एक एक वाक्य में कसावट और अपने उद्देश्य से भटकने न देना ही रमेश की लेखन कला का कमाल रहा। खोज, माएं और बच्चे, शीशा, बीच बाजार जैसी लघुकथाओं के पहले पहले श्रोता भी हम चंडीगढ़ के दोस्त ही रहे। कभी सेक्टर बाइस के बरामदे में तो कभी साहित्य निर्झर के प्रेस में। इस तरह वे भावुक से क्षण आज ही याद आते हैं, आते रहेंगे। रचना को बार बार संवारना और कभी अगली बार प्रकाशन के लिए भेजते समय शीर्षक भी बदल देना यह बताने के लिए काफी है कि किस प्रकार यह कुशल कारीगर अंतिम समय तक अपनी ही नहीं दूसरों की रचनाओं को देखता व समझता और निखारता रहता था। मेरी एक कहानी है -इसके बावजूद। यह शीर्षक उसी का दिया हुआ है। दोस्तों की रचनाओं के प्रकाशन और उपलब्धियों से रमेश बहुत खुश होता था जैसे उसकी अपनी उपलब्धि हो। कितने शाबासी भरे खत मुझे ही नहीं अन्य मित्रों को लिखता था और अंत में जय जय। सच रमेश तुम कमाल के संगठनकर्ता भी थे। क्या भुलूं, क्या याद करूं ? अब कोई अच्छी रचना के लिए बधाई नहीं देते एक दूसरे को। यह माहौल बनाने की जरूरत है। लघुकथा को अभी भी चुटकुले और बहुत सरल विधा मानने वालों की भीड़ है और अब जरूरत है इसका फर्क बताने वालों की।

खैर, कभी अलविदा न कहना तुम्हारा प्यारा गीत था और तुम रचना संसार है कभी अलविदा नहीं होंगे अगर न ही लघुकथा से… 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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