हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मिलीभगत ||।)

?अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Connivance

कुछ शब्द बड़े मासूम नजर आते हैं। अब भगत शब्द को ही ले लीजिए। नरसिंह भगत से चेतन भगत तक की यात्रा कर चुका है यह शब्द। भगत के बस में हैं भगवान लेकिन जैसे ही इस शब्द का मेल मिलाप, मिली जैसे शब्द से होता है, हमें कोई सांठ गांठ अथवा साजिश नजर आने लगती है। शब्द, सत्संग से, क्या से क्या हो जाए।

मिलीभगत शब्द का प्रयोग भले ही अच्छे अर्थ में नहीं किया जाता हो, लेकिन फिर भी यह एक सामूहिक प्रयास का ही नतीजा है।

अकेला व्यक्ति तो सिर्फ भक्ति ही कर सकता है, मराठी में एक म्हण भी है, एकटा जीव सदाशिव।

एक अकेला जीव बगुला भी है, जो भक्ति नहीं ध्यान करता है। उसकी भी ख्याति बगुला भगत की तरह ही है। अर्जुन को मछली की सिर्फ आंख नजर आती थी, हमारे बगुला भगत के ध्यान में तो हमेशा पूरी मछली नजर आती है।।

अगर सभी बगुले एक ही जगह एकत्रित हो जाएं तो क्या यह उनकी मिलीभगत नहीं कहलाएगी। मिलीभगत के लिए व्यक्ति में बगुले के गुण कूट कूटकर भरे होना जरूरी है। मिलीभगत का परिणाम बड़ा कारगर होता है। अपराध और क़ानून की मिलीभगत आप अपराधी और पुलिस और वकील और अदालत के बीच आसानी से देख सकते हैं। तारीख पर तारीख और जमानत पर जमानत।

जीयो और जीने दो।

अफसर व्यापारी और नेता उद्योगपति के बीच का मधुर मेलजोल क्या मिलीभगत का परिणाम नहीं। संसार में सबसे अटूट रिश्ता स्वार्थ का होता है। पूरे देश को एक सूत्र में बांधने के लिए आपस में प्रेम और सौहार्द्र के अलावा एक बॉन्ड की भी आवश्यकता होती है।

भाषा की गरिमा को बनाए रखते हुए हमें सांठ गांठ, साज़िश अथवा मिलीभगत जैसे शब्दों से परहेज़ करना चाहिए। आज हमारे पास इसके विकल्प के रूप में इलेक्टोरल बॉन्ड हैं, जो देश को विकास की ओर ले जाते हुए सभी को आपस में जोड़ भी रहा है।।

हमें अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक और उदार बनाना होगा। हमारे रोजमर्रा के जीवन में एक और बड़ा प्यारा सा शब्द है, जो सनातन और शाश्वत है। मैं अतिथि देवो भव का जिक्र नहीं कर रहा, आवभगत शब्द का कर रहा हूं।

भक्ति भाव से किसी का स्वागत ही तो आवभगत है। शब्द वही है, लेकिन सब सत्संग का प्रभाव है। अच्छी आवभगत, आदर सत्कार और सम्मान भी आजकल व्यक्ति देखकर ही किया जाता है। जितने अच्छे तोहफे, उतनी ही शानदार आवभगत। और ऊपर से थैंक्यू थैंक्यू, इसकी क्या जरूरत थी। जामनगर जैसे आयोजन में तो आवभगत और मिलीभगत की सुंदर जुगलबंदी नजर आई। रिश्तों का मान रखते हुए खाना भी खाकर ही जाना पड़ेगा। आखिर बहुत पुराना याराना जो है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #225 ☆ लघुकथा – भोला मन – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक लघुकथा – भोला मन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 225 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – भोला मन ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

केबिन के दरवाजे में ठक तक की आवाज आई।

तुरंत ही हमने कहा ..” कम इन ” ।

देखते ही होश उड़ गए ।सामने से खूबसूरत लड़की हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए चली आ रही थी।

आते ही बोली ” सर लीजिए इसी ऑफिस में आज ही मेरी पोस्टिंग हुई है सॉफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर।”

हमने …” बधाई है जी कहा “।

और वह “थैंक्स कह कर चली गई।”

दिन रात रूबी के साथ काम के सिलसिले में उठना बैठना जारी रहा मेरा मन तो बस उसका दीवाना होता जा रहा था उसकी बातों में उसके शब्दों में उसके पहनने ओढ़ने में कशिश थी जिसमें मैं रमता चला जा रहा था। कई बार सोचा कि उससे बात करूं उससे कहूं, लेकिन हिम्मत ही नहीं हुई एक दिन पता चला कि वह नौकरी छोड़ कर जा रही है।

उसको शहर से बाहर कहीं और अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई है तब मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसके जाने से पहले उसको कह ही दिया……..” रूबी जबसे तुमको देखा है तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं मैं तुम्हें प्यार करता हूं तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी गुजारना चाहता हूं।”

तब रूबी का जवाब था… “आप सभी पुरुष वर्ग का मन बड़ा भोला होता है हंसी मजाक मित्रता को आप प्यार समझ लेते हैं और उसी पर अपना जीवन बर्बाद करने के लिए उतारू हो जाते हैं मैंने इस संदर्भ में कभी नहीं सोचा और न ही मैं सोचना चाहती हूं।”

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवगीत – सत्य की छाँव ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ☆

सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

परिचय

कवियत्री – सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

संप्रत्ति – सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन।

प्रकाशित पुस्तक – पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह)

पुरस्कार/सम्मान –  कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित

? नवगीत – सत्य की छाँव ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ? ?

चौसर की यह चाल नहीं है,

नहीं रकम के दाँव।

अपनापन है घर- आँगन में,

लगे मनोहर गाँव।।

*

खेलें बच्चे गिल्ली डंडे,

चलती रहे गुलेल।

भेदभाव का नहीं प्रदूषण,

चले मेल की रेल।।

मित्र सुदामा जैसे मिलते,

हो यदि उत्तम ठाँव।

*

जीवित हैं संस्कार अभी तक,

रिश्तों का है मान।

वृद्धाश्रम का नाम नहीं है

यही निराली शान।।

मानवता से हृदय भरा है,

नहीं लोभ की काँव।

*

घर-घर बिजली पानी  देखो,

हरिक दिवस त्योहार।

कूके कोयल अमराई में,

बजता प्रेम सितार।।

कर्मों की गीता हैं पढ़ते,

गहे सत्य की छाँव।

*

© सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 206 ☆

☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हर व्यक्ति के अंदर जो परमात्मा के अंश स्वरूप आत्मा विद्यमान है, वह हमारे हर कार्य की साक्षी है और हमें अच्छे बुरे का आभास कराते हुए बुरे कार्य करने से रोकने के लिए प्रेरित भी करती है.! दूसरे शब्दों में हम इसे  विवेक भी कह सकते हैं जो बुरे- भले को कसौटी में कसते हुए,हमें सचेत करता है एवं अच्छाई का मार्ग प्रशस्त करता है.! कुछ लोग इसे वॉइस ऑफ गार्ड भी कहते हैं..!! परंतु यह विवेक या अंतरात्मा व्यक्ति के संस्कारों,पृष्ठभूमि,चरित्र,मानसिकता, एवं धर्म आदि पर निर्भर होती है.!

आजकल राजनीति में अंतरात्मा शब्द का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है.! अब इन नेताओ का आए दिन अंतरात्मा की आवाज के नाम पर दल-बदल एवं सिद्धांतों से समझौता करना आम हो गया है.? और आधुनिकता एवं स्वार्थ के इस दौर में हो भी क्यों न.? अब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करना एवं अपना फायदा पहले देखना क्या कोई बुरी बात है.? नेता ही क्यों किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को देख लो चाहे वह व्यापारी हो लोकसेवक हों संत हों साधु हों महात्मा हों कितने लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हैं.? यदि आसाराम बापू ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी होती तो आज जेल में नहीं होते.! ना जाने ऐसे कितने बाबा हैं जो अपने तात्कालिक फायदे के लिए, अपनी अंतरात्मा की आवाज को कुचल देते हैं ! आम जिंदगी में यहां हर कोई लूट- खसोट और एक दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हुए.!  अब कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे लोगों की आत्मा मर गई है.? अब इन्हें कौन समझाए कि आत्मा कभी मरती नहीं है..! समाज में चोरी करने वाला भी जानता है कि वह गलत काम कर रहा है ऐसे ही हर गलत काम करने वाला व्यक्ति जानता है कि वह यह अनैतिक,अवैधानिक कार्य कर रहा है.! पर सभी जानते हुए भी यह सब किये जा रहे हैं.? अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इनकी विबसता  क्या है.? इस प्रश्न के जवाब व्यक्ति के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं.! हालांकि अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाने का सिलसिला नया नहीं है.यह प्राचीन काल से ही चला आ रहा है.त्रेता में  रावण,द्वापर में कंस जैसे हर युग में अनेकानेक व्यक्ति हैँ जो विशेष रूप से चर्चाओं के साथ इतिहास का हिस्सा रहे.! कलयुग में तो अब यह आम हो गया है.! स्वार्थ और लोभ इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति पग पग पर आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रहा है.! कहते हैं कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.!

राजनीति में तो अंतरात्मा की आवाज बहुत सुनाई देती है और नेता लोग अंतरात्मा की आवाज के नाम पर जब चाहे तब सिद्धांतों से समझौता दल बदल ग्रुप बाजी , आराम से अपनी सहूलियत एवं सुविधाओं के हिसाब से कर लेते हैं.? अभी विगत दिनों राज्यसभा चुनाव में हिमाचल,उत्तर प्रदेश एवं , कर्नाटक में अंतरात्मा की आवाज कहकर पाले बदल लिए.? राजनीति मैं तो अंतरात्मा की आवाज का अपना एक लंबा चौड़ा इतिहास है विभिन्न अवसरों पर संसद एवं विधान सभाओं में अंतरात्मा की आवाज का आव्हान भी किया जाता है और बहुतेरे नेता, इस लालच रूपी आव्हान में अपनी असल आवाज को भूल कर चक्कर में आ जाते हैं.! अब आएं भी क्यों ना उन्हें भी अपने भविष्य के बारे में चिंता करने का अधिकार जो है.? सब कुछ आम लोगों के हिसाब से थोड़ी चलेगा.!! लोग है कि बेवजह है नेताओं को बदनाम करते हैं..! कितने लोग हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन रहे हैं..?  यह तो भला हो नेताओं का जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कुछ तो फैसले कर रहे हैं.!! फिर यह सतयुग थोड़ी ही है जो हर कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ले.! यह कलयुग है भाई.! यहाँ तो बेटे बाप की नहीं सुनते .? पत्नी पति की नहीं सुनती.,भाई भाई का नहीं सुनता,हर कोई अपनी धुन में अपने हिसाब से जी रहा है.! फिर इस दौर में यदि नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर अपना फायदा खोजते हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है.? अब कुछ विश्लेषक अंतरात्मा की आवाज का भी विश्लेषण करने उतारू हो जाते हैं.! हम तो बस यही कह सकते हैं कि किसी के कृत्यों से अंतरात्मा की आवाज का विश्लेषण करना क्या उचित है. ?

चुनाव के समय भी कई बार मतदाताओं से भी अपील की जाती है कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें.! अनेकों बार ऐसा लगता है कि कैसे अपने लक्ष्य को साधने के लिए अंतरात्मा की आवाज के नाम का उपयोग किया जाता है.! पर यह क्या कुछ लोग तो अपनी इस आवाज को ही बेच देते हैं.? आखिर इससे भी तो उन्हें कुछ फायदा तो हुआ ना.!

हमारा तो बस यही कहना है की अंतरात्मा की आवाज की यह सुर्खियां हमेशा बनी रहें और लोग, अपनी अंतरात्मा की आवाज को सतत सुनते भी रहें.! क्योंकि एक यही आवाज है जो आपको अपने असल वजूद का एहसास कराती है.!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ ज्ञानमुद्रा पुब्लिकेशन, भोपाल द्वारा ‘मध्यप्रदेश साहित्यकार कोश’ शीघ्र प्रकाश्य ☆ साभार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ ज्ञानमुद्रा पुब्लिकेशन, भोपाल द्वारा ‘मध्यप्रदेश साहित्यकार कोश’ शीघ्र प्रकाश्य ☆ साभार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन, भोपाल मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकाशन है ।

ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन की योजना अनुसार यथाशीघ्र मध्यप्रदेश साहित्यकार कोश का प्रकाशन किया जा रहा है।

इस महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ में, मध्य प्रदेश के विभिन्न विधाओं के समकालीन रचनाकारों का परिचय प्रकाशित किया जाएगा।

समय समय पर इस तरह के अनेक प्रयास, कई संस्थानों से हुए हैं, किंतु ज्ञानमुद्रा का यह अद्यतन प्रयास इस दृष्टि से भिन्न होगा की इस ग्रंथ में न केवल लेखक /कवि /रचनाकार का परिचय मात्र होगा , वरन साथ ही इस ग्रंथ में आपकी किताबों पर भी सूक्ष्म चर्चा संकलित होगी । इससे यह ग्रंथ संदर्भ तथा शोधार्थियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा ।

अतः निवेदन है कि अविलंब [email protected] पर आपकी फोटो, संपर्क, बिंदु रूप संक्षिप्त परिचय, (नाम, जन्म, शिक्षा, विधा, संप्रति क्या कर रहे हैं, केवल अकादमी या उच्च स्तरीय सम्मान , उल्लेखनीय ) एक पेज में बस आपकी प्रत्येक प्रकाशित पुस्तक (आई एस बी एन सहित ) के कंटेंट की सूक्ष्म चर्चा मात्र एक 100 शब्दों के पैराग्राफ में ।

एक ही वर्ड फाइल में यूनिकोड में टंकित करवाकर 30 अप्रैल 2024 से पूर्व भेजकर सहयोग करें ।

इस संकलन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वरिष्ठ समीक्षक, व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव निभा रहे हैं ।

आशा है आपके साथ हम इस महत्वपूर्ण परियोजना को जल्दी ही प्रकाशित कर सकेंगे । समकालीन रचनाकार कोश में संकलित रचनाकारों को ग्रंथ की प्रतियां रियायती मूल्य पर सुलभ होंगी ।

तो जुड़िये इस महत्त्वपूर्ण किताब में

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

[email protected]

संपर्क – ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८  ईमेल – [email protected][email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 215 ☆ गाथा तुकोबांची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 215 – विजय साहित्य ?

☆ गाथा तुकोबांची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

गाथा तुकोबांची

अमृताची धारा

प्रबोधन वारा

प्रासादिक..! १

*

तुकाराम गाथा

जीवन आरसा

तात्त्विक वारसा

विठू नाम…! २

*

दिली अभंगाने

दिशा भक्तीमय

षडरिपू भय

दूर केले…! ३

*

अभंगांचे शब्द

जणू बोलगाणी

झाली लोकवाणी

गाथेतून…! ४

*

जीवनाचे सूत्र

महा भाष्य केले

भवपार नेले

अभंगाने…! ५

*

तुकाराम गाथा

आहे शब्द सेतू

प्रापंचिक हेतू

पांडुरंग…! ६

*

वाचायला हवी

तुकाराम गाथा

लीन होई माथा

चरणातें…! ७

*

कविराज शब्दी

गाथा पारायण

अंतरी स्मरण

तुकोबांचे..! ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझा न मी राहिलो ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

माझा न मी राहिलो ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

नयनांत माझिया वसलिस तू

वदनांत माझिया लपलिस तू

श्रवणांत माझिया घुसलिस तू

अन् जोड काळजा दिलीस तू

*

चरणास शक्ति “नि” आधार

कंठात पट्टिचा हार

तुमच्याचमुळे मी तगलो

अन् आजवरी मी जगलो

माझाच न मी राहिलो

माझ्यातच मी ना उरलो …

😀😀😀😀😀

ग्यानबाची मेख – ओळींनुसार :

१)लेन्स्  २)कवळी  ३)कर्ण यंत्र  ४)स्टिंग  ५)नि रिप्लेसमेंट  ६)गळपट्टा

😀😀😀😀😀

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सखा… ☆ सुश्री मानसी चिटणीस ☆

सुश्री मानसी विजय चिटणीस

? विविधा ?

☆ “सखा…” ☆ सुश्री मानसी विजय चिटणीस

माणूस माणसाशी बोलताना नकळत हातात हात घेतो. सहज कृती आहे ती. जसा सहज श्वास घेतो तसा सहज जगू शकतो का ? याचे उत्तर बहुधा नाही असेच आहे. जगणे सोपे व्हावे म्हणून प्रत्येकालाच एक मितवा हवा असतो. तो प्रसंगी मित्र , तत्वज्ञ किंवा वाटाड्या, मार्गदर्शक होवू शकेल असा कोणीही आपल्याला हवाच असतो. बरेचदा काय होते , आयुष्यातला प्रॉब्लेम जेवढा मोठा तेवढे समोरचे आव्हान मोठे वाटू लागते. आव्हान आपल्या अहंकारला सुखावण्यासाठीच असते. मुळात अहंकार नसतोच पण तो निर्माण केला जातो. यात मुख्य सहभाग त्या लोकांचा असतो जे त्यांना स्वत:ला आपले हितचिंतक मानतात. एखाद्या छोट्या गोष्टीला डोंगराएवढी करण्यात त्यांचा पुढाकार असतो,  Psychoanalyst, गुरु मंडळी, तत्ववेत्ते तुमच्या नसलेल्या problems ना अस्तित्व देतात नाहीतर त्यांचे अस्तित्व धोक्यात येऊ लागेल. अडचणीत जर कोणी आलेच नाही तर ते मदत कोणाला करणार? हा ही प्रश्न उरतोच. खरेतर नक्की काय शोधत असतो आपण? नेमके काय हवे असते आपल्याला? याचा विचार का करत नाही आपण? आपण जे पचायला सोपे ते आणि तेवढेच स्वीकारतो आणि जे पटत नाही ते सोडून देतो. बरेचदा सरावाने आपल्याला कळत जाते काय घ्यायचे आणि काय नाही,  पण त्यातही आपली कुवत आड येतेच.

आपण सारेच तसे अर्जुन असतो.आपापल्या कुरूक्षेत्रांवर लढण्यासाठी ढकलले गेलेले अर्जुन..आणि प्रत्येकाला कोणी कृष्ण भेटतोच असे नाही.म्हणून आपल्याला स्वतःमधला कृष्ण  चेतवावा लागतो परिस्थितीप्रमाणे.. कृष्णच का ??..तर कृष्ण ही वृत्तीची तटस्थता आहे.आपल्या वर्तनाचा त्रयस्थ राहून विचार करणारी.स्वतःला ओळखण्यासाठी त्रयस्थ व्हा..आरसा व्हा स्वतःचाच ..” प्रत्येकात कृष्ण असतोच .तो कोणाला सापडतो , कोणाला भासमान दिसतो , कोणी कृष्ण होतो तर कोणी कृष्णमय…” अर्जुनालाही कृष्णमय व्हावे लागले तेव्हाच त्याला महाभारतीय युद्धाची आवश्यकता , त्यासाठीचे त्याच्या स्वतःच्या अस्तित्वाचे असणे उमजले…” कृष्णायन ”

पण कृष्णायन म्हणजे गीता नव्हे.स्वतःला ओळखणे , स्वतःच्या अस्तित्वाचा हेतू ओळखणे , स्वतःच्या कोषातून बाहेर काय आहे याची जाणिव होणे म्हणजे गीता.एखादा कोणी जेव्हा म्हणतो की तुझ्याकडे कोणतीच कसलीच प्रतिभा नाही..तेव्हा हा विचार करावा कृष्णाने सांगीतलेला..दुस-या कोणापेक्षा तुम्ही स्वतः स्वतःला जास्त ओळखू शकता..तुमची ताकद , तुमची मर्यादा तुम्हाला माहिती हवी..असे कोणी म्हणल्याने तुमच्याकडे काही येत नाही तसे जातही नाही.ते असतेच अंगभूत.. माऊलींनी देखील स्वतःचा स्वतःमध्ये लपलेल्या अर्जुनापासून विलग होऊन कृष्णरुप होण्याचा प्रवासच जणु ज्ञानेश्वरीत मांडला आहे. आपल्याला काय काय हवे आहे ह्याची बकेट लिस्ट  नक्कीच करावी. पण आपल्याकडे काय काय आहे आणि नाही  हे आपल्याला कळले आहे का ह्याची लिस्टही जरुर करावी आणि ह्या कळण्यातही किती वाढ झाली हे पण पहावे. आपल्याकडे असलेल्याचा वापर आपण कसा करतो यावर आपले व्यक्तिमत्व घडते. “माझ्याबाबतीच असे का होते”? “त्याला मिळू शकते तर मग मला का नाही”?  असे प्रश्न पडत असतील तर आपल्याकडे काय आहे हे आपल्याला कळलेच नाही हे पक्के ओळखावे. आयुष्य अनुभवानी आपल्याला समृद्ध करत असते. आणि श्रीमंत ही ! आपले असमाधान आपल्या अपेक्षांना जन्म देते त्यामुळे असे असमाधानी असण्यापेक्षा अप्रगतच असणेच  बरे नाही का?

चोरी फक्त गरजा भागवण्यासाठीच केली जाते असे नाही होत.  काहीजण गरजा लपवण्यासाठीही चोर्‍या  करतात. उघडपणे केले तर समाज बहिष्कृत करेल या भितीने चोरुन करतात. काय हवे,  काय नको हेच साठत जाते नंतर. काय हवे आहे आणि का हवे आहे  ह्याचा विचारच करायला विसरतो आपण. हे नाही, हे सुध्दा नाही. असे सगळेच नाकारून पहा एकदा, सर्व नकार संपले. . . की एक आणि एकच होकार उरेल. हेच हवे असते आपल्याला.  हेच असते आपले खरे सत्य, सत्व आणि अस्तित्व. मानवी प्रयत्न , मानवी जीवन , मानवी आकांक्षा या सर्वांमध्ये ..यासाठी प्रयत्न करणा-या व्यक्ती अविस्मरणीय ठरतात आणि त्या व्यक्तींच्या आयुष्याचा परिपाक आपल्याला मानवतेच्या छटांचे दर्शन घडवत राहतो….” पिंडी ते ब्रम्हांडी ” जे मनात उपजते तेच आपण अंगिकारतो.हिग्ज बोसाॅन , क्वांटम थिअरी , ब्लॅक होल या संकल्पना ज्ञानेश्वरांनी अभ्यासल्या होत्या  की नाही हे माहिती नाही पण  ” मी विश्वरुप आहे ” ही कल्पना त्यांनी प्रत्यक्षात आणली.प्रत्येकाने आहे आणि नाही यामधला अवकाश समजून घेतला पाहिजे ही जाणिव जिथे उमगते…तिथे कृष्ण भेटतो. ….

घनसावळ्या….

अजूनही थिरकतात मीरेची पावलं

तुझ्या त्या मुरलीच्या स्वरांवर

आजही बावरी होते राधा

तुला कदंबाखाली शोधताना

राधा काय किंवा  मीरा काय

तुझीच रुपं अद्वैत 

तू जादुगार. ..

बांबूच्या  पोकळीत स्वर गुंफून त्यांना सजीव करणारा

तुझ्या वेणुच्या स्वरांतून जन्मतात मानवी देहाचे

षड्ज

तू निराकार , साकार ,सगुण, निर्गुण

तूच सर्वत्र

तूच आदिम तूच अंतिम सोहळा

हे घनसावळ्या. …….

© सुश्री मानसी विजय चिटणीस

केशवनगर, चिंचवड, पुणे. फोन : ०२०२७६१२५३१ / ९८८११३२४०७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “मृत्युपत्र…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

☆ “मृत्युपत्र…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

हल्ली ती झोपूनच असायची. फार हालचाल करायला तिला नकोच वाटायचं . तसं वयही झालं होतं म्हणा… नवरा गेल्यापासून डोळे मिटून गत जीवनातल्या घडामोडी आठवत राहायची… 

….. आज तिला नवऱ्याने केलेल्या मृत्युपत्राची आठवण आली.

तो दिवस आठवला.

 चार दिवस त्याचं काहीतरी लिहायचं आणि कागद फाडायचा असं सुरू होत. तिने विचारलं

” काय करताय?”

”  महत्त्वाच काम करतोय..मृत्युपत्र लिहितोय..विचार करून ते लिहायच असत..”

” काय मृत्युपत्र..आत्ता …कशासाठी?”

” आत्ता नाही तर कधी  करणार? सगळं व्यवस्थित केलं म्हणजे काळजी नको”

” म्हणजे वाटणी का “

यावर तो जरा रागवलाच..

“नुसती वाटणी नसते ती… बरं ते जाऊदे..  उगीच काहीतरी विचारत बसु नको..तुला काय त्यातल समजणार ?एक वाजायला आलाय जेवायला वाढ “

ती गप्प बसली .खरंच आपल्याला काय कळणार? आणि समजा  काही सांगितलं तरी त्यांनी काही ऐकून घेतलं नसतं त्यांना जे करायचं तेच त्यांनी केलं असतं. नेहमीचच होतं ते .. त्याचं बोलणं तिने  मनावर घेतलं नाही. मनात  मात्र कुठेतरी वाईट वाटलच…

का कोण जाणे… पण गेले काही दिवस मृत्युपत्र हेच तिच्या डोक्यात होत..

आज लेक भेटायला आली .तेव्हा तिने विषय काढला .म्हणाली..

“मला पण मृत्युपत्र करायच आहे .”

“तुला ?…मृत्युपत्र ?…कशासाठी? काय लिहिणार आहेस त्यात ?” मुलीनी हसतच विचारलं..

तिचं लक्षच नव्हतं. ती तिच्याच नादात होती .पुढे म्हणाली ..

“अगं एक  महत्वाचं विचारायचं होतं मृत्यूपत्र लिहिले की त्याप्रमाणे वागावं लागतं का ?ते बदलता येत नाही ना ?” … आईचा शांत संयमित  आवाज ऐकून लेकीच्या  लक्षात आलं…आई गंभीरपणे काही सांगते आहे..ती म्हणाली….

” हो नाही बदलता येत .पण आई असं का विचारते आहेस?”

” मला पण करायचे आहे मृत्युपत्र. आण कागद.. पेन ..  घे लिहून …”

“कशाची वाटणी करणार आहेस ?काय आहे तुझ्याजवळ?”

लेकीच्या बोलण्याकडे तिचं लक्षच नव्हतं … ती तंद्रीतच बोलत होती …. 

“भावानी बहिणीला  वर्षातून एकदा माहेरपण करायचं..

राखी पौर्णिमेला आणि भाऊबीजेला बहिणीने भावाला बोलवायचं .त्याला ओवाळायचं .तबकात  अगदी अकरा रुपये टाकले तरी चालतील …भावाला  घरी बोलवायचं … गौरीला माहेरची सवाष्ण हवी ..नाही जमलं तर एखाद्या शुक्रवारी तिला घरी बोलवायचं तिची ओटी भरायची.. बहिणीने भावाच्या अडीनडीला धावून जायचं ..त्याला मदत करायची.. वहिनीला बहिणीप्रमाणे सांभाळायचं.  तिच्यावर माया करायची.. आपापसात सगळ्यांनी प्रेमाने मायेनी  आपुलकीनी राहायचं … आत्या ,काकु,मामा ,मामी सगळी नाती जपायची .. एकोप्याने रहायच.. पुढच्या पिढीने पण हे असंच चालू ठेवायचं …..”

एवढं बोलल्याने ती दमली.  मग श्वास घेतला.  थोडा वेळ थांबली.

लेक थक्क होऊन आईचं बोलणं ऐकत होती…आई मनाच्या गाभाऱ्यातलं खोलवर दडून असलेलं अंतरंग तिच्याजवळ उघडं करत होती…

”  तु विचारलस ना…माझ्याकडे काय आहे वाटणी करायला ?खरंच ….काही नाही ग… मला वाटणी नाहीच करायची …तर तुमची जोडणी करायची आहे .

तुमची माया एकमेकांवर अखंड अशीच राहू दे. आलं गेलं तरच ती टिकून  राहील ..हीच माझ्या प्रेमाची वाटणी आणि हेच माझं मृत्युपत्र असं समजा.”

लेकीचे डोळे भरून वाहत होते. आईची प्रांजळ भावना तिला समजली .तिने आईचा हात हातात घेतला…त्यावर थोपटले .. आश्वासन दिल्यासारखे……लाखमोलाच सदविचारांचं धन आईनी वाटल होत..

दारात भाऊ भावजय मायलेकींचं बोलणं ऐकत उभे होते. ते पण आत आले त्यांनीही तिचा हात हातात घेतला. चौघांचे डोळे भरून वाहत होते .

आता ती निश्चिंत झाली होती .

खूप दिवसांनी ती समाधानाने हसली.

मनात म्हणाली …

“ रामराया आता कधीही येरे न्यायला… मी तयार आहे..”

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “हिंदोळ्यावर…” ☆ सौ. रेणुका धनंजय मार्डीकर ☆

सौ. रेणुका धनंजय मार्डीकर

परिचय

शिक्षण: एम ए मराठी-

व्यवसाय: मैत्री गंधर्व फॅमिली रेस्टॉरंट, उमरगा-पार्टनर आणि गृहिणी. कॉलेज जीवनापासून लेखनाची आवड. कॉलेजमध्ये विद्यार्थी संसदेत सहभाग LR (लेडीज रिप्रेझेंटिटीव) पदाची मानकरी. 

लेखन–

  • मुरुड येथील साप्ताहिक गणतंत्र मध्ये पहिला लेख “एक शाम मस्तानी मदहोश किये जाय”. प्रकाशित. औसा येथील दर्पण मासिकातून कविता प्रकाशित… लातूर येथील “ब्रह्मसमर्पण”, मासिकातून 36 लेख प्रकाशित. फुलोराच्या पंधराव्या काव्य संमेलनात “फुलोरा रत्न” पुरस्काराने सन्मानित.
  • फुलोरा साहित्य समूहाच्या सतराव्या काव्य संमेलनात विशेष साहित्य सेवा पुरस्कार देऊन गौरविण्यात आले.  शुभंकरोती साहित्य समुहाकडून.. नवदुर्गा पुरस्काराने सन्मानित.
  • शब्दवेधी बाणाक्षरी समूहाकडून मला साहित्य रागिणी पुरस्कार आणि काव्यरंग पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आले.
  • “ काव्यरेणू “ हा पहिला काव्यसंग्रह १ फेब्रुवारी २०२४ धुळे येथे झालेल्या राज्यस्तरीय काव्य संमेलनात प्रकाशित झाला.
  • धुळे येथील काव्य संमेलनात सांजवात कला साहित्य पुरस्काराने सन्मानित
  • शुभंकरोती साहित्य परिवारातर्फे महिला दिनी अष्टभुजा पुरस्काराने सन्मानित

सांजवात हा रांगोळी आणि चारोळी संग्रह प्रकाशनाच्या वाटेवर.

राहणार औसा.

? मनमंजुषेतून ?

☆ हिंदोळ्यावर…सौ. रेणुका धनंजय मार्डीकर 

उंच झोका झाडावर

पाळण्याची सय आली

झोपाळा ओसरीवर

मंद मंद झोका घाली

*

हिंदोळ्यावर सुखदुःखाची

स्वप्ने सारी पाहिली

गतकाळाची आठव पूंजी

झोपाळ्यावर राहिली

*

झोपाळा म्हटलं की ओसरीवर अगदी मधोमध माळवदाच्या कड्यांना बांधलेला झोपाळा आणि त्यावर घातलेली गादी आणि लोड आठवतात. बालपणापासून कितीतरी रूपात हा झोका आपल्याला भेटतो नाही का. अगदी जन्मल्याबरोबर विधिवत बाळाला पाळण्यात घातलं जात. त्याला नामकरण म्हणतात. आणि तिथून हा झोक्याचा प्रवास सुरू होतो. माझ्या घरी अजूनही माझा सागवानी लाकडी पाळणा आहे ज्या पाळण्यामध्ये मी तर खेळलेच, पण माझी मुलं देखील त्याच पाळण्यात खेळली. पाळण्यापासून सुरू झालेला हा प्रवास मग झोक्यापाशी येऊन थांबतो.

माझ्या बालपणी तर आमच्या सरकारी वाड्यामध्ये उंच माळवदाला झोका बांधलेला असायचा आम्ही भावंड नेहमी नंबर लावून झोका खेळायचो.

कोण सर्वात उंच झोका घेऊन चौकटीला पाय लावतो त्याची स्पर्धा लागायची आमची. किती सुंदर काळ होता ना तो बालपणीचा!

झोका आठवला की बालपणीची आठवण येते. आणि

“एक झोका चुके काळजाचा ठोका”अशी काहीशी अवस्था माझी होते त्याला कारणही तसेच आहे. माझ्या माहेरी चिंचेचे मोठं बन आहे. त्याला चिंच मळा म्हणतात. चिंचेची झाडं इतकी जुनी आहेत, उंच आहेत की नागपंचमी आल्यानंतर त्याच उंच झाडांना झोके बांधले जातात. माझ्या शेजारी एक ताई राहायची आणि ती मला झोका खेळायला घेऊन जाण्यासाठी घरी आली.मी तेंव्हा जेमतेम पाचवी सहावीच्या वर्गात असेन. माझ्या आईला सांगून मला ती ताई घेऊन जात होती तेव्हा आई म्हणाली, “तिला जास्त मोठ्या झोक्यावर नको हो बसवूस.”त्या ताईने मला तिच्या पायामध्ये बसवले आणि ती त्या उंच झोक्यावर उभी राहिली झोका उंच उंच गेला. चार-पाच जणांनी दिलेला झोका तो खूपच उंच गेला आणि जणू काही आम्ही आकाशात गेलो की काय असे वाटून मी घाबरून गेले उंच गेलेल्या झोक्यावरून एकदम सटकले, डोळे पांढरे झालेले. मी सटकलेली पाहून खालची सर्व मुलं-मुली मग मोठ्यांनी ओरडू लागली. सर्वजण खूप घाबरले होते पण प्रसंगावधान राखून त्या ताईने झोका थांबेपर्यंत मला तिच्या पायामध्ये आवळून धरले व एका पायावर ती झोक्यावर उभी राहिली व मला खाली पडू दिले नाही. पण तेव्हापासून मी कधीच तितक्या उंच झोक्यावर बसले नाही… अशी ही झोक्याची काळजाचा ठोका चुकवणारी आठवण.

ओसरीवरचा चौफाळा अजून आमच्या घरामध्ये आहे. माझ्या चुलत्यांनी त्याचा फक्त आता पलंगा सारखा वापर सुरू केला आहे. किती आठवणी असतील ना या चौफळ्याच्या. किती जणांची सुखदुःख ऐकली असतील याने. सुखदुःख ऐकवणारी सर्व माणसं काळाच्या पडद्याआड गेली. पण या चौफाळ्याच्या मनात मात्र यांचा शब्द न शब्द रुंजी घालत असणार. खरंच याला जर बोलता आलं असतं ना तर याने पूर्ण घराण्याच्या कथा ऐकवल्या असत्या अगदी पानाचा डबा घेऊन करकर सुपारी कात्रत गावकीचा कारभार पाहणारे घराचे कारभारी झोपाळ्यावर बसूनच तर बोलत असणार. दोन-तीन माणसं आरामशीर बसू शकतील इतका मोठा हा चौफाळा आहे. दुपारच्या वेळेला पुरुष मंडळी नसताना स्त्रियांनी देखील याचा आस्वाद घेतला असणार. कारण पूर्वीच्या काळी पुरुष माणसे घरात असताना, स्त्रिया कधी ओसरीवर येत नसत. पण ते  बाहेर गेल्यानंतर मात्र ह्या स्त्रिया चार सुखदुःखाच्या गोष्टी बोलण्यासाठी नक्की ओसरीवर आणि चौफळ्यावर बसत असणार. नुसतं कुठल्या हो गप्पा मारणार हातात वातीचा कापूस, संध्याकाळच्या स्वयंपाकासाठी भाजी नीट करणे, अशी सवडीची काम घेऊन मगच त्या गप्पा मारणार. कितीतरी स्त्रियांची हितगुजं, ऐकली असतील नाही का या झोपाळ्यांने. नाही नाही तो जणू त्यांचा सांगातीच झाला असेल.

घरात कोणी नसताना एखादं तरुण जोडपं देखील नक्कीच विसावलं असणार झोपाळ्यावर. ओसरीवरून अंगणातलं टिपूर चांदणं आणि थंड वाऱ्याची झुळूक घेतली असणार त्यांनी अंगावर. कधी घरातल्या आजी आजोबाही पत्ते खेळत बसले असणार. किंवा त्या काळात सोंगट्या देखील खेळायचे, झोपाळ्यावर बसून.घरातली छोटी मुलं देखील या झोपाळ्यावर दंगामस्ती करायची, आणि मग एखादं डोहाळे जेवण जर घरामध्ये असेल तर मात्र काय थाट वर्णावा या झोपाळ्याचा. त्याच्याकड्यांना छान छान फुलांच्या माळा वेली पाने लावून सुरेख सजवले जायचे. त्या रुबाबदार झोपाळ्यावर बसवून मग त्या पहिलटकरणीचे सर्व लाडकोड करत सोहळे साजरे व्हायचे. घरात माणसांची खूप गर्दी झाली तर एखादं माणूस झोपून जायचं या झोपाळ्यावरचं. कितीतरी जणांच्या परसामध्ये हा चौफाळा असायचा. हिरव्यागार झाडीमध्ये या चौफाळ्यावर बसून मंद मंद झोके घेत सर्वजण आनंद घ्यायची. कितीतरी उपयोग होता या झोपाळ्याचा. आणि भल्या मोठ्या ओसरीची शान होता हा झोपाळा.

काळानुरूप झोपाळ्याचे स्वरूप बदलले. पितळी कडया जाऊन त्या जागी लोखंडी कड्या आल्या. काही ठिकाणी जाड सोल लावूनही झोपाळा बांधला जातो. त्यातही आजकाल आधुनिकीकरण आले आहे. खुर्ची वजा झुला बाल्कनी मध्ये आजकाल आढळतो. शहरांमध्ये मोठमोठ्या उद्यानात झोपाळे असतात.

काळ बदलला तरीही कुठल्या ना कुठल्या रूपामध्ये हा झोपाळा आपल्या आयुष्यात अजूनही त्याचे स्थान टिकवून आहे. म्हणून शेवटी झोपाळा, झुला, चौफाळा, झोळी, पाळणा, झोका या सर्व हिंदोळ्याच्या रूपांना उद्देशून मी म्हणेन-

बदललेल्या रूपातून

आजही झोपाळा दिसतो

हिंदोळा सुखाचा देतो

आणि गोड हसतो

 

हितगुज करतात 

त्याच्या सवे वारे

झुल्यावर झुलताना

सुखावती सारे

 

 © सौ.रेणुका धनंजय मार्डीकर

औसा.

मोबा. नं.  ८८५५९१७९१८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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