हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #160 ☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 160 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 

पवन वेग से उड़ रहे, उड़ते हैं हनुमान। 

वर्षा पुष्प की कर रहे, देव करे सम्मान।।

 

करते सीता खोज वह, उड़ते सागर पार

पर्वत से सागर कहे, बड़ा करो आकार।।

 

हाथ जोड़ मैनाक है, पवनपुत्र हनुमान।

आड़े आया आपके, कर लो कुछ आराम।।

 

निकले सीता खोज में, वंदन है हनुमान।

मेरे मन में आपका, बहुत बड़ा सम्मान।।

 

लंका की इस राह में, बाधा करें प्रहार।

करना सीता खोज है, पवन न माने हार।।

 

रामदूत हनुमान हूं, बीच करो ना घात।

रूप धरोना सिंहिका, करता हूं आघात।।

 

किया प्रवेश लंका में, भव्य भवन भंडार।

भेंट लंकिनी से हुई, करते पवन प्रहार।।

 

कहा लंकिनी ने बहुत, हे वीर हनुमान।

मेरा जीवन धन्य हुआ, वानर तुझे प्रणाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उपचार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उपचार ??

आदमी जब रो नहीं पाता,

आक्रोश में बदल जाता है रुदन,

आक्रोश की परतें

हिला देती हैं सम्बंधों की चूलें,

धधकता ज्वालामुखी

फूटता है सर्वनाशी लावा लिये,

भीतरी अनल को

जल में भिगो लिया करो,

मनुज कभी-कभार

रो लिया करो…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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English Literature – Short Stories ☆ ‘प्रश्नपत्र’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Question Paper’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story “~प्रश्नपत्र ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ??

बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Question Paper ~ ??

The rain is torrential. …. There may be a power failure in the area. …. It is also possible that by morning there may be a deluge as water will be filled to the brim on every road… May be tomorrow’s exam will get cancelled… Apprehension and possibility kept running parallel.

The next morning the sky was clear and the atmosphere pleasant. After seeing the question paper, the nib of those who worked on apprehensions, had dried up, but the pens of those who lived the possibilities was running at full speed.

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ ~ Again and again ~ ☆ Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’ ☆

Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’

? ~ Again and again ~ ??

Why do I wish to swim

Against the river flow?

I know well

I will have to struggle

More and more.

I know that

Flowing downstream

Is an easy task

As compared to upstream.

I also know that

Well wishers standing

On both the banks

Will clap and laugh.

If I win,

They will say:

Their encouragement

Is responsible for the success.

If unfortunately

I lose,

They will not wait a second

To say that

They tried their best

To stop me

By laughing at me.

In both the cases

I will lose and

They will win.

Even then

I will swim

Against the river flow

Again and again.

© Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’

Vishwani Hindi Sansthan, 401 Vijay Apartment, Napier Town, Jabalpur 482001 

Mob : 9425183244  Email: [email protected]

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #147 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 147 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सिरफिरों ने कर दिया, चाहत को बदनाम

प्रेम दिखावा, क्रूर मन, करते कत्लेआम

 

संस्कार और संस्कृति, कभी न छोड़ें आप

अपनी यह पहचान है, जिसकी मिटे न छाप

 

बहूरूपियों से बचें, इनका दीन न धर्म

ये निकृष्टजन स्वार्थवश, करते खोटे कर्म

 

राह चलें हम धर्म की, करें नेक सब काज

रखें आचरण संयमित, मेरे ये अल्फ़ाज़

 

धर्म सनातन कह रहा, ईश्वर हैं माँ-बाप

मान रखें उनका सदा, बन कृतज्ञ सुत आप

 

बेटा हों या बेटियाँ, रखो धर्म की लाज

छोड़ें मत माँ-बाप को, कर मरज़ी के काज

 

कभी भरोसा मत करें, करके आँखे बंद

नकली हैं बहु चेहरे, जिनके नव छल-छंद

 

माना जीवन आपका, करें फैसले आप

ध्यान रखें पर कभी भी, दुखी न हों माँ-बाप

 

मात-पिता के प्यार से, बढ़कर  कोई प्यार

हुआ न होगा कभी भी, गाँठ बाँध लो यार

 

युग की नई विडंबना, आडंबर का जोर

बिन सोचे समझे चलें, जिसका ओर न छोर

 

किया प्रेम के नाम पर, मानवता का खून

जिसने तन टुकड़े किये, उनको डालो भून

 

जब भी बहकीं बेटियाँ, हुआ गलत अंजाम

छिनता है ‘संतोष’ तब, उल्टे होते काम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सावली… ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

⭐ सावली… 🖊️ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐ 

जन्मासवे प्रत्येकाच्या

होई बघा जन्म हिचा,

ठेवणी प्रमाणे शरीराच्या

असती खाचा खोचा !

 

पुढे सरकता दिनमान

बदले पहा हिचा ढंग, 

कोणाचीही असली

तरी तिचा एकच रंग !

 

येता सूर्य डोक्यावरी

होई शरीरी एकरूप,

जाता तो मावळतीला

उंची तिची वाढे खूप !

 

पडता पाऊस धरेवरी

गायब झाली वाटे,

येता पुन्हा सूर्य प्रकाश

लगेच बघा प्रकटे !

 

येता अंगावरी संकटे

सगे सोडतील साथ,

पण शब्द देतो तुम्हा

नाही करणार ही अनाथ !

 

सा  व  ली !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

स्थळ – बेडॉक रिझरवायर, सिंगापूर.

मो – 9892561086, (सिंगापूर)+6594708959

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #153 ☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 153 – विजय साहित्य ?

☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शब्दातल्या शरांनी घायाळ जिंदगी ही

लाचार वेदनांची, जपमाळ जिंदगी ही.

 

एकेक यातनांची , जंत्री चितारलेली.

अक्षम्य त्या चुकांची, बेताल जिंदगी ही.

 

आहे अजून ताकद, हरणार ना कदापी

नापास ठरवते का, दरसाल जिंदगी ही.

 

देऊन टाकले मी, पैशातल्या सुखाला

का वेचतो गरीबी , नाठाळ जिंदगी ही.

 

शब्दास मोल नाही, दुनिया जरी म्हणाली

उध्वस्त आज करते , वाचाळ जिंदगी ही .

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जगातील पहिले प्रेमपत्र… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

? विविधा ?

☆ जगातील पहिले प्रेमपत्र… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

आजकाल मोबाईलच्या वापरामुळे पत्रलेखन जवळपास थांबल्यासारखेच झाले आहे. पण काही वर्षांपूर्वीचा काळ म्हणजे आपल्या आवडत्या व्यक्तीच्या पत्राची वाट पाहण्याचा काळ होता. पत्र लिहिणाऱ्याच्या भावना पत्रात उतरत आणि ते ज्याला लिहिले आहे त्याच्यापर्यंत जाऊन पोहोचत. म्हणून तर प्रिय व्यक्तीची पत्रे जपून ठेवली जात. त्यांची पुन्हा पुन्हा पारायणे होत असत. हिंदी चित्रपटात तर या गोष्टीचा उपयोग करून गीतलेखकांनी अनेक गाणी लिहिली आहेत. आणि ती कमालीची लोकप्रिय होऊन लोकांच्या ओठांवर आली. नायिकेने नायकाला प्रेमपत्र लिहावे, पोस्टमन हा त्यांच्यामधला पत्र पोहोचवणारा दूत. कधी कधी नायिकेला पत्र लिहिता येत नाही. मग ती पोस्टमनलाच सांगते

खत लिख दे सावरियाके के नाम बाबू

कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू

वो जान जायेंगे, पहचान जायेंगे.

त्या नायिकेला एवढा विश्वास आहे की आपले फक्त नाव असलेले पत्र त्या प्रियकराला मिळाले की बाकी सगळं तो समजून जाईल.

पण तुम्हाला माहित आहे का की रुख्मिणीने श्रीकृष्णाला लिहिलेले पत्र हे जगातील पहिले प्रेमपत्र असावे. किती बुद्धिमान म्हणावी रुख्मिणी ! आणि तिच्या धाडसाचे कौतुक करावे तेवढे कमीच. मी असे का म्हणतो त्याला कारण म्हणजे त्या वेळची परिस्थिती. रुख्मिणी ही विदर्भराजा भीमकाची सुंदर आणि बुद्धिमान कन्या. लहानपणापासूनच श्रीकृष्णाच्या पराक्रमाच्या कथा तिच्या कानावर आल्या होत्या. आणि त्या ‘ सावळ्या सुंदरास ‘ तिने मनानेच वरले होते. पण तिचा भाऊ रुख्मी हा श्रीकृष्णाचा द्वेष करणारा होता. त्याच्या मनात तिचा विवाह शिशुपालाशी व्हावा अशी इच्छा होती. शिशुपाल हा सुद्धा श्रीकृष्णाचा द्वेष करणारा होता. रुख्मीने आपल्या बहिणीवर म्हणजे रुख्मिणीवर अनेक बंधने लादली होती. ती तिच्या स्वतःच्या मर्जीने कोठेही जाऊ शकत नव्हती. अशा वेळी तिच्या हातात काहीही नव्हते. तिचे आईवडील सुद्धा रुख्मीपुढे हतबल झाले होते.

त्यामुळे अशा परिस्थितीत तिच्या डोक्यात श्रीकृष्णाला पत्र लिहिण्याचा विचार येणे ही गोष्टच तिच्या बुद्धिमत्तेची निदर्शक आहे. पत्र लिहिणे आणि ते श्रीकृष्णाला पाठवणे आणि नंतर त्याच्यासोबत पळून जाऊन विवाह करण्याचे धाडस दाखवणे या तिच्या कृतीचे, गुणांचे कौतुक करावे तेवढे कमी आहे.

आपल्या पत्रात  ती श्रीकृष्णाला म्हणते

” हे भुवनसुंदरा, जेव्हापासून मी तुझे गुण ऐकले आहेत, तेव्हापासून मी तुझ्या प्रेमात पडले आहे. आणि तुला समर्पित झाले आहे. तू माझे हरण करून घेऊन जा. तुझ्यासारख्या सिंहाचा भाग शिशुपालरूपी कोल्हा नेतो आहे असे कदापि होऊ नये.

साधना, संस्कार, प्रीती, भक्ती इत्यादि धन घेऊन मी येईन. मी सतत तुझी पूजा करून काही पुण्यकृत्ये केली आहेत, आणि मनाने तुला वरले आहे. आता प्रत्यक्षात माझा स्वीकार कर.

अंबेच्या देवळात मी गौरीपूजेसाठी जाईन, तेव्हा तू माझे मंदिरातून हरण कर. आणि पराक्रमाने शिशुपालादिकांना हरवून राक्षसविधीने माझे पाणिग्रहण कर.

तू आला नाहीस तर मी समजेन की माझ्या साधनेत काही कमतरता राहिली असेल. तू मला या जन्मी लाभला नाहीस तर मी प्राणत्याग करीन, पण जन्मोजन्मी तुझी वाट पाहीन, आणि अंती तुझीच होईन !!”

या पत्रातला मला आवडलेले वाक्य म्हणजे ती श्रीकृष्णाला म्हणते , ” साधना, संस्कार, प्रीती, भक्ती इ धन घेऊन मी येईन. ” किती सुंदर विचार. आणि लाख मोलाचे धन. पैसा नाही, हुंडा नाही, वस्तू नाही. तर साधना, संस्कार, प्रीती आणि भक्ती या सुंदर भावना हेच धन. आणि तेच ती घेऊन येते. आणि श्रीकृष्ण जिचा सखा आहे, पती आहे तिला आणखी काय हवे ? आणि त्या श्यामसुंदराला सुद्धा कशाची अपेक्षा असते ? तुमची साधना महत्वाची. संस्कार महत्वाचे. प्रीती आणि भक्ती महत्वाची. तुम्ही भक्तिभावाने आपले हृदय त्याला अर्पण करा, म्हणजे तो रुख्मिणीप्रमाणे तुमचेही हरण करील. तुम्ही त्याचे होऊन जाल. हाच तर या पत्रातला आपल्या सगळ्यांसाठी संदेश आहे,  नाही का?

©️ विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव.

 प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अ.ल.क.  … श्री प्रदीप आवटे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ अ.ल.क.  … श्री प्रदीप आवटे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे 

काही अलक 

 

१.  आपणच राखले नाही ईमान

    आणि वर म्हणालो, ऋतू बेईमान झाले.

    तसं असतं तर, रस्त्यावरच्या अमलताशने चैत्र आल्याची बातमी

    सगळ्यात आधी कशी सांगितली असती?

****

२.  तुला झाडाचे नाव नाही ठाऊक

     पण झाडाला माहीत आहेत, 

     तुझे ऋतू, तुझे सण, तुझे उत्सव !

     म्हणून तर हिरव्या पोपटी पानांची गुढी

    त्याने कधीची उभारली आहे…… आणि.. 

    त्याच्या अनोळखी फुलांचा बहर वाहून नेणाऱ्या वाऱ्याने, 

    व्हायरल केली आहे बातमी …… 

    वसंत आल्याची !

****

३. झाडांना काढाव्या वाटत नाहीत मिरवणुका, 

    वाजवावे वाटत नाहीत ढोल ताशे, 

    ती फक्त आतून आतून पालवतात

   आणि शांत उभी राहतात कोसळणाऱ्या उन्हात

   एखाद्या तपस्व्यासारखी !

   वसंताच्या इशाऱ्यावर वाहत राहते …. 

   सर्जनाची गंधभारीत वरात

   त्यांच्या धमन्यातून..!

****

४. कर्णकर्कश्य खणखणाटाशिवाय

    तुला व्यक्त करता येत नाही, तुझा आनंद. 

    झाडाला मात्र पुरुन उरते .. किलबिल पाखरांची

   आणि आनंदविभोर खार खेळत राहते झाडाच्या अंगाखांद्यावर.

   मुळे वाहून आणतात मातीमायचे सत्व त्यांच्या रक्तवाहिन्यापर्यंत…

   कळ्यांच्या हळव्या नाजूक देठापर्यंत !

 

     तुला असे उमलता येत नाही खोल आतून

    …. म्हणूनच तुला फुले येत नाहीत. 

****

५.  झाडं कधीच नसतात ‘खतरे में ‘…. दुसऱ्या झाडांमुळे.

     झाडांना नीट असते ठावे प्रत्येक झाडाचा हक्क असतो .. मातीच्या प्रत्येक कणावर!

     मातीतून उगवणारे आणि त्याच मातीत मिसळणारे प्रत्येक झाड

     समृध्द करत असते माती.. मातीशी एकजीव होता होता..!

     आणि तू .. अवघी पृथ्वी काबीज करण्याच्या नादात, 

     स्वतःच्याच मुळांवर घाव घालणारा शेखचिल्ली आहेस तू, 

     झाडांना भीती वाटते फक्त तुझ्या ‘गोतास काळ ‘ कुऱ्हाडीची !

****

लेखक : श्री प्रदीप आवटे

संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ भगवंताने हे जग तुम्हाला खेळायला दिलंय… श्री श्रीकांत कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆

सुश्री स्नेहलता दिगंबर गाडगीळ

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☆ भगवंताने हे जग तुम्हाला खेळायला दिलंय… श्रीकांत कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆

१९८७ साल असेल. पार्टनरशिपमध्ये व्यवसाय सुरु करून ३-४ वर्षं झाली होती. आम्हा तीन पार्टनरपैकी एक पार्टनर विलास भावे छोट्याश्या ऑपरेशनचे निमित्त होऊन गेला. मोठा धक्का होता. पण शो मस्ट गो ऑन. मी आणि माझा पार्टनर श्रीहरी ह्या धक्क्यातून सावरलो. एक वर्षात नवीन जागा घेतली आणि तिथे स्थलांतर करून व्यवसाय वाढवायला सुरवात केली. नव्या जागेत जाताना, आज विलास हवा होता ही खंत होतीच. पण परमेश्वरी इच्छा वेगळीच होती. व्यवसाय वाढत होता. कामगार आणि स्टाफ वाढला, १८-२० पर्यत गेला. संख्या वाढली तशी दर महिन्याच्या ओव्हरहेडचे गणित आणि बँकेचे हप्ते जुळवणे सुरु झाले. ऑर्डर होत्या, पण त्या वेळेत पूर्ण व्हाव्यात म्हणून व्यवसायाला शिस्त आणि सिस्टीम लावणे सुरु होते. आम्हा दोघांचे वय तिशीचे आणि बहुतांश नोकर आमच्यापेक्षा २-३ वर्षेच लहान. दोघे-तिघे तर वयाने मोठेच होते. कधी कधी ताण येत असे. त्या काळात फोनचा नंबर लागायला १०-१० वर्षे लागत. नव्या जागेत OYT special कॅटेगोरीत तब्बल १०हजार रुपये भरून फोन कनेक्शन घेतले. या दहा हजाराची जुळवाजुळव अनेक महिने चालू होती. एकंदर घडी बसत होती. कॉम्प्यूटर नव्याने येऊ लागले होते. त्यासाठी लागणारे UPS आम्ही बनवत होतो. डिमांड होती. डीलर नेटवर्क होते. महिना सधारण ४०-५० UPS विकले जात. इतरही काही प्रॉडक्ट होती. electronic product असल्याने आवश्यक components सहज मिळत नसत. इम्पोर्ट करण्यास बंदी असल्याने अनेक गोष्टी राजरोसपणे स्मगल करून येत. कोणास ठाऊक कसे? पण 

लघुउद्योगांना त्या मिळत. अर्थात विक्रेते सांगतील त्या किमतीत. सभोवताली उद्योगास अनुकूल असे कोणतेच वातावरण नव्हते. पण तरुण वय, काहीतरी करायची जिद्द त्यामुळे जाणवायचं नाही. उद्योग हा अशाच प्रतिकूलतेत करायचा असतो, अशीच ठाम धारणा. त्यामुळे ठीक चालले होते. कधी कधी ताण यायचा पण पुन्हा सर्व विसरून काम सुरू व्हायचे.

नव्या ऑफिसच्या केबिनमध्ये आम्हा दोघा पार्टनरांची टेबले शेजारी होती. दोन खुर्च्यांमध्ये एका स्टुलावर फोन असे. फोनचे मध्ये असणे ही दोघांची सोय होती. एक दिवस सकाळी १०चा सुमार असेल, मी फोनवर कोणाशी तरी बोलत होतो. माझे बोलणे काहीसे लांबत चालले होते. श्रीहरीला देखील कोणाशी तरी बोलायचे असल्याने माझे संपण्याची वाट बघत होता. तेवढ्यात समोर एक भगवी कफनी घातलेले साधारण पन्नाशीचे गृहस्थ येऊन उभे राहिले. ‘कुलकर्णी आहेत का?’ असे विचारते झाले. त्यांना मी हाताने खूण करून थोडे थांबण्यास सांगितले व फोनवरचे बोलणे सुरूच ठेवले. त्यांनी मला उलटी खूण केली- ‘तुमचे चालू द्यात, मी थांबतो. काही घाई नाही.’ कदाचित मी कुणावर तरी रागावलो होतो, आवाज जास्तच चढत होता. फोनवर एका सप्लायरवर उशिरा मटेरियल देण्याबद्दल बहुदा रेशन घेत होतो. बोलता बोलता ५ मिनिटे झाली, १० झाली, १५ मिनिटे झाली. आमची नजरानजर झाल्यावर गृहस्थ शांतपणे ‘असूद्या असूद्या तुमचं चालू द्यात’ अशी खूण करत. मी बोलता बोलता मनात विचार करत होतो- ‘भगवे कपडे घातलेले माझ्याकडे कशाला आले असतील? काही देणगी वगैरे मागायला असतील बहुदा. देणगी मागितली तर यांना कसे कटवता येईल?’ आत येताना त्यांनी माझे नाव घेतल्याने श्रीहरीनेदेखील त्यांना कशासाठी आलात? काही मदत करू का? असे विचारले नाही. त्याच्या डोक्यातही भगव्या कफनीमुळे असाच काहीसा संभ्रम झाला असावा. माझे बोलणे संपले. मी फोन ठेवला, तर श्रीहरीने झडप घालूनच उचलला कारण तो फोनसाठी फार काळ ताटकळला होता. फोनवर मी तावातावाने बोलताना का कुणास ठाऊक उगाचच उभा राहून बोलत होतो. माझा बोलणे झाले, तोच त्या गृहस्थांनी मलाच बसायला सुचवले. ‘माझ्याच केबिनमध्ये मला बसायला सांगणारे हे कोण?’ असा मनात मी विचार करत होतो. तोच ते म्हणाले “नमस्कार कुलकर्णी, शांत झालात का?” मी थोड्या गुर्मीतच “होय” असे म्हटले. त्यानंतर ते गृहस्थ म्हणाले.  “कुलकर्णी आपण व्यवसायाचं नंतर बोलूयात का? मी बराच वेळ तुम्हाला फोनवर कोणाशीतरी बोलताना ऐकतोय. तुम्हाला एक सांगू का? अहो गरज नाहीये एवढे रागावण्याची. तुम्ही कोणाशी बोलत होतात हे तुम्ही मला सांगू नका. त्याची गरजही नाही. पण तुम्हाला एक गोष्ट सांगतो, असा विचार करा की तुमच्या सभोवतालची सर्व माणसे तुम्हाला परमेश्वराने खेळायला दिली आहेत. खेळताना आपण रागावतो का? खेळताना आपण खिलाडूवृत्तीने खेळायचं. इतकं रागवायची गरज नसते.” मी एका सप्लायरबरोबर बोलत होतो, त्याने माल वेळेत न दिल्याने आमची डिलिव्हरी वेळेत होणार नव्हती. मी त्यांना म्हणालो “ अहो यांना Advance देऊनही  वेळेत माल देत नाहीत. मी कस्टमरला काय सांगू. तुम्ही माझ्या जागी असाल तर काय कराल.”

बाबा शांतपणे म्हणाले “ तुम्ही रागावलात. आता ते वेळेत माल देणार का?”

“अहो नाही ना. वेळेविषयी बोलतच नाहीत”…मी

“ हे बघा तुमच्या रागाने ते डिस्टर्ब झाले. त्याचीही काही मजबुरी असेल. तुमचा राग ते दुसऱ्यावर काढतील. बाकी वेगळे काय घडेल? मी तुम्हाला सांगतो. तुम्ही या सगळ्या गोष्टींकडे खिलाडूवृत्तीने बघा. अहो हे तुमचे शेजारी बसलेले पार्टनर, बाहेर काम करत असलेला तुमचा स्टाफ, तुमची बायको, मुलं, आई-वडील, सप्लायर, कस्टमर, सरकारी अधिकारी, आता तुमच्याशी बोलत असलेला मी– हे सगळंसगळं खेळायला दिलंय अशा दृष्टीकोनातून जीवनाकडे बघा. बघा कशी मजा येते ते. या खेळात जीवनाच्या प्रत्येक टप्प्यावर वेगवेगळे भिडू मिळतील. गीता हेच सांगते. ”

महाराज बोलत होते त्यात तथ्य वाटत होते. कुठेतरी मी आतून हललो होतो. कुठेतरी प्रकाश पडत होता.  

“बरं आता मी माझ्या येण्याचे प्रयोजन सांगू का? मला माझ्या मुलासाठी एक UPS घ्यायचाय. मला तुमचे नाव श्री. अमुक यांनी सांगितले. ते म्हणाले कुलकर्णीचा UPS घ्या. मी २ वर्षे वापरतोय उत्तम आहे.”

“ बापरे, बसा ना. सर सॉरी मी तुम्हाला बसा देखील म्हटले नाही.” …मी. समोर उभे असलेले गृहस्थ देणगी मागायला आलेले साधू नसून माझे कस्टमर आहेत हे कळल्यावर माझी होणारी सहाजिक प्रतिक्रिया.

“ असू देत. मी माझी ओळख करून देतो. मी शितोळे. पुण्यातले प्रसिद्ध सरदार शितोळे तुम्हाला माहित असतील तर त्यांच्यापैकी. कसब्यात एकमेव उत्तम स्थितीत असलेला दगडी वाडा आमचाच. मोठे ऐतिहासिक घराणे आहे आमचे. पेशव्याचे सरदार होतो आम्ही. अर्थात आजची ती ओळख नाही. मी अमेरिकेत योग शिकवतो. गेली अनेक वर्षे देशात परदेशात योगाचा प्रसार करतो. माझे बहुतांशी वास्तव्य अमेरिकेत असते. या भगव्या कपड्यांवर जाऊ नका. तो माझा व्यावसायिक युनिफार्म आहे. तसा मी सांसारिक आहे. मुलाला कॉम्पुटर इंजिनीअरिंगला प्रवेश घेतला, त्याच्या कॉम्पुटरसाठी UPS हवा, हे आपल्या भेटीचे प्रयोजन. मला घाई नाही. UPSची किंमत सांगा. तुमचे सर्व पैसे आत्ताच देऊन टाकतो. तुम्ही म्हणाल तेव्हा मुलगा येऊन UPS घेऊन जाईल. तुमच्या बोलण्यावरून थोडा उशीर होणार असे दिसतेच आहे. हरकत नाही. पण उत्तम वस्तू द्या.”

मी अवाक होऊन बघत होतो. माझ्यासमोर एक योगी गुरुस्वरूप होऊन उभा होता. माझ्या करंटेपणामुळे त्यांना ओळखले नाही. माझे हे गुरु जाताजाता मला मंत्र देऊन गेले “ कुलकर्णी भगवंताने हे सर्व जग तुम्हाला खेळायला दिलं आहे. अनेक भिडू तुम्हाला मिळतील, येतील आणि जातील सुद्धा. तुमचा डाव आहे तोपर्यंत खेळायचं. आणि आनंदी राहायचं, आनंद द्यायचा आणि घ्यायचा देखील. बघा जमतंय का? जमलं तर मिळणारा आनंद तुमचाच. कोणी हिरावून घेणार नाही.”

शितोळेगुरूंना मी नंतर आजतागायत भेटलो नाही.  पण “ कुलकर्णी, भगवंताने हे जग तुम्हाला खेळायला दिलंय ” 

हे शब्द मात्र कायम कानात घुमतात. आयुष्यातले अनेक प्रसंग मी ह्या मंत्राने निभावून नेले आहेत.  आज गुरुपौर्णिमेनिमित्त सहज या गुरूंची आठवण झाली म्हटलं लिहून काढावं. जगण्याचा साधा मंत्र आहे- सर्वाना सांगावा.  

लेखक : श्री श्रीकांत कुलकर्णी

९८५००३५०३७

संग्राहिका : स्नेहलता गाडगीळ

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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