मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ करावी कीव …पण कोणाची ? ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– करावी कीव …पण कोणाची? – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

घडली घटना,

गेले जीव |

ढिसाळ व्यवस्थेची,

करावी कीव |

*

मोडले संसार,

फुटल्या बांगड्या |

पुसली कुंकू,

विस्कटल्या घड्या |

*

तुटली आधाराची काठी,

हरवले पित्याचे छत्र |

होत्याच नव्हतं झालं,

नियतीचा घाव विचित्र |

*

पाच लाखाची मदत,

गेल्या जीवाची किंमत |

बजबजल्या भ्रष्टाचाराची,

वाढलीय हिम्मत |

*

अधिकारी मोकाट,

मालक निर्धास्त |

चौकशीच्या फेऱ्या,

लाल फीत सुस्त |

*

निगरगट्ट नेत्यांची वरात,

आरोप प्रत्यारोपांच्या फैरी |

सामान्य माणसांच्या,

जीवावर उठलेले हेच वैरी |

*

फॅक्टरी इन्स्पेक्टर,

प्रदूषण मंडळ |

सगळेच खाणारे,

एकमेकांना बळ |

*

दोन दिवसाची बातमी,

मिडियाला खुराक |

पुन्हा दुसरी घटना,

कुठे बसेना चपराक |

*

कुटुंबाला दुःख,

कोसळले आभाळ |

अकाली तो गेला,

कुटुंबाची पुढे आबाळ |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

मित्र,

नेत्रपटल पर उभरा

मित्र गरुड़ का चित्र ।

गरुड़ का स्मरणः

एकाएक

मुख पर

खिल गई मुस्कान् ।

मानो मिल गया –

समाधान ।

गरुड़ बोले-

चलो

चलकर मिलते हैं

महाराज ययाति से

जो कर चुके हैं

सहस्त्रों यज्ञों का

अनुष्ठान ।

निश्चय ही

वे

पूर्ण करेंगे

मनो कामना ।

मित्र गरुड़

और

ऋषि गालव को

राजसभा में

उपस्थित पाकर,

आदर से

उठ खड़े हुए

ययाति महाराज ।

बोले

शुभ दिन है आज।

मैं

कृतार्थ हुआ

आप दोनों के दर्शन पाकर।

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 192 – “धूपमे सूखे दिखे हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत धूपमे सूखे दिखे हैं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 192 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “धूपमे सूखे दिखे हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

शब्द तेरे प्रेमरासो के

चित्र जैसे हों पिकासो के

 

मुस्कराहट जहाँ

इसमें टँकी दिखती है

जो यहाँ पर एक कविता

सहज लिखती है

 

क्या बतायें प्रेम की

देते परीक्षा

धूपमे सूखे दिखे हैं

दिन ” प्रकासो ” के

 

डुबकियाँ लेती

नदी में दिखाई देती

जो किनारे पर खड़ी

जमुहाइयाँ लेती

 

फिर प्रयत्नो मे जुटी

जैसे निरंतर

लगा होंगे पूर्ण सब

सपने ” प्रयासो”  के

 

बहुत है विस्तृत

सुनो परछाई इसकी

कौनसा आकार इसमें

ले रहा सिसकी

 

कौन दिखता

जूझता रेखांकनों से

रंग में डूबी हुई

लड़की  “हुलासो ” के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-5-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वह  ? ?

(16)

वह परिभाषित

नहीं करती यौवन को,

यौवन उससे

परिभाषित होता है,

वह परिभाषा को

यौवन प्रदान करती है!

 

(17)

वह जानती है

बोलते ही ‘देह’

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

इस आकार को मनुष्य

सिद्ध करने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह!

 

(18)

वह माँजती है बरतन,

चमकाती है बरतन,

धरती को

महापुरुषों की चमक

उसीके बूते मिली है!

 

(19)

वह बुहारती है झाड़ू,

सारा कचरा

घर से बाहर निकालती है,

मन की शुचिता के सूत्र

उसीने दिये हैं!

 

(20)

वह धोती है कपड़े,

फटकारती है कपड़े,

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆

☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

प्रतिभाओं को खोजना – निखारना ही लक्ष्य था

ओंकार श्रीवास्तव “संत” एक निहायत ही सामान्य कद – काठी वाले व्यक्ति थे जिन्हें उनके जन्म भूमि और संस्कृति प्रेम ने, बच्चों, किशोर – किशोरियों और युवाओं को सन्मार्ग पर बनाए रखने की तत्परता ने, इरादे और वचनों की दृढ़ता तथा साथियों के प्रति समर्पण की भावना ने उनके जीवनकाल में ही विशिष्ट बना दिया था। उन्होंने 1958 में अपने बाल्यकाल में ही कुछ मित्रों के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संस्था “गुंजन कला सदन” की स्थापना की। ओंकार जी द्वारा बनाई गई यह संस्था जबलपुर नगर और आसपास के क्षेत्रों में अपने 66 वें वर्ष में भी पूरी तरह से गतिशील है। श्रीवास्तव जी ने अपनी प्रतिभा, संगठन शक्ति और सक्रियता से गुंजन में ऐसे प्राण फूंक कि चहुं ओर उसकी गूंज सुनाई देने लगी। विगत 66 वर्षों में “गुंजन” और ओंकार एक दूसरे में ऐसे समाहित हुए कि अब इन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ओंकार श्रीवास्तव के व्यक्तित्व – कृतित्व को समझने के लिए गुंजन के स्थापना काल से ओंकार जी के जीवन काल तक उनके गुंजन के प्रति समर्पण और सामाजिक कार्यों पर दृष्टि डालना होगी। गुंजन कला सदन के स्थापना काल के उनके कुछ अभिन्न साथी समाजसेविका अन्नपूर्णा तिवारी, इंजी. जीवानंद पांडे, सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. घनश्याम असरानी, इनायत खान अब नहीं हैं, किंतु भाई गौरीशंकर केशरवानी, सरदार गुरवचन सिंह चौपरा, नरेंद्र जैन “एन सी”, डॉ. आनंद तिवारी, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई, सुरेश सराफ, जादूगर एस. के. निगम, लोकगंदर्भ पंडित रुद्रदत्त दुबे “करुण”, राजेंद्र साहू, अजय अग्रवाल, लायन राजीव अग्रवाल, लायन नरेन्द्र जैन, विजय जायसवाल सहित अनेक लोग आज भी अपने – साथियों के साथ समर्पित भाव से गुंजन कला सदन के उद्देश्य पूर्ण कार्यक्रमों को करते चले आ रहे हैं जो ओंकार श्रीवास्तव जी ने प्रारंभ किए थे। गुंजन कला सदन में प्रांतीय स्तर, नगर स्तर के स्वतंत्र संगठनों के साथ ही महिला प्रकोष्ठ, साहित्य प्रकोष्ठ व युवा गुंजन संगठन भी सक्रिय हैं।

ओंकार श्रीवास्तव जो भी कार्यक्रम करते थे वे सफलता के कीर्तिमान रचते थे। आखिर क्यों ? उन्होंने अपने साथियों को स्वयं इसका रहस्य बताते हुए कहा था कि जब किसी आयोजन में पूरे मन – प्राण समर्पित किए जाते हैं, केवल लक्ष्य रूपी चिड़िया की आंख को देखा जाता है तो सफलता को कदम चूमना ही पड़ते हैं। ओंकार जी ने अपने जीवन काल में नगर की प्रतिभाओं के विकास को ध्यान में रखते हुए प्रति वर्ष अनेक कार्यक्रम किए जिनमें प्रमुख हैं – बड़े – बड़े नाट्य समारोह, अ.भा. कवि सम्मेलन, अ.भा. महिला कवि सम्मेलन, अ.भा. हास्य कवि सम्मेलन, मुशायरे, नृत्य समारोह, चित्रकला – मूर्तिकला, गायन – वादन, भाषण प्रतियोगिताएं, नाटककार सांसद सेठ गोविन्द दास समारोह, बुंदेली दिवस समारोह तथा होली पर “रसरंग बारात” जैसे बड़े बजट के विशाल और व्यवस्थित सांस्कृतिक कार्यक्रम। इन सभी आयोजनों में नगर के किशोरों, युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित रहती थी। इन कार्यक्रमों ने गुंजन और ओंकार जी की प्रतिष्ठा बढ़ाई।  होलिका दहन की संध्या को नगर के लगभग 4 किलो मीटर मुख्य मार्ग पर निकलने वाली “रसरंग बारात” ने तो टी वी चैनलों के कव्हरेज के कारण सम्पूर्ण देश में एक अनोखे कार्यक्रम के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इस कार्यक्रम के पीछे होली के विकृत हो चुके स्वरूप को पुनः सांस्कृतिक गरिमा प्रदान कराना लक्ष्य था। इस रसरंग बारात में दूल्हे के वेश में शामिल हजारों महिलाओं – पुरुषों के साथ बैंड वादकों, शहनाई और ढोल वादकों के साथ  नृत्य करती दुलदुल घोड़ियां, किन्नरों की टीम, महिला घुड़सवार, गुलाल उड़ती बैलगाड़ियां, ऊंट, नृत्य करते रीछ, विविध प्रसंगों पर झांकियां, गधों पर सवार समाजसेवी और नेता लोगों के आकर्षण का केंद्र होते थे। उल्लेखनीय है कि नगर के जितने विधायकों ने इस बारात में गधों पर सवार होकर भाग लिया वे सभी आगे चलकर मंत्री बने। लोगों को प्रतिवर्ष इस बारात की प्रतीक्षा रहती थी किंतु निरंतर 15-16 वर्षों तक जारी रही इस बारात को यातायात व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुए बंद करने का निर्णय लेना पड़ा यद्यपि यह आयोजन अब भी बदले स्वरूप में “रसरंग महोत्सव” के नाम से प्रतिवर्ष होलिका दहन की संध्या को जबलपुर के शहीद स्मारक रंगमंच व सभागार में होता है। इसमें सभी महिला – पुरुष आयोजक, अतिथि और दर्शकों को साफा, माला पहनाकर दूल्हे के रूप में सजाकर ही मंच व दर्शक दीर्घा में भेजा जाता है। बहुत बड़े क्षेत्र में अपनी विशिष्टता के कारण यह कार्यक्रम अति लोकप्रिय है। इस कार्यक्रम को हाल में बैठे सैकड़ों लोगों के साथ ही हाल के बाहर लगे बड़े परदे पर भी सैकड़ों लोग देखते हैं।

ओंकार जी की संस्कृति संरक्षण एवं प्रतिभा विकास की सकारात्मक भावना के कारण गुंजन कला सदन को उसके स्थापना काल से ही जबलपुर के प्रबुद्ध व संपन्न जनों का संरक्षण मिला। सांसद सेठ गोविन्द दास, सांसद रात्नकुमारी देवी, सांसद जयश्री बैनर्जी, सांसद पत्रकार पंडित मुंदर शर्मा, प्रखर पत्रकार संपादक पंडित कालिका प्रसाद दीक्षित “कुसुमाकर”, पंडित भगवतीधर वाजपई, समाजसेवी पंडित नर्मदाप्रसाद तिवारी, शिक्षाविद डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव, व्यंग्यकार पंडित श्रीबाल पांडेय, शिक्षाविद मनोरमा चटर्जी, पूर्व उपमहापौर अन्नपूर्णा तिवारी आदि “गुंजन” के सशक्त संरक्षक थे। आज भी गुंजन को समाज के श्रेष्ठजनों का संरक्षण प्राप्त है। ओंकार जी का मानना था कि संस्कृति संरक्षण और समाज को सकारात्मक दिशा में के जाने के लिए चंद संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं इसके लिए अनेक संस्थाएं बनना चाहिए। उन्होंने स्वयं “ज्ञान गुंजन” एवं “गूंज” आदि संस्थाएं बनवाईं। कभी अन्य संस्थाओं से द्वेष नहीं रखा।

एक बात की जानकारी और दे दूं जो चंद लोग ही जानते हैं। ओंकार श्रीवास्तव अपने पिता को बहुत प्रेम करते थे। एक अवसर पर उन्होंने बताया था कि उनके पिता ने कक्षा पांचवीं तक उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर स्कूल छोड़ा और स्कूल से लेकर घर आए। उन्हें अपने ऐसे प्रिय पिता के निधन की खबर शहीद स्मारक भवन, जबलपुर में उस समय मिली जब वे वहां एक नाटक में अभिनय कर रहे थे। उन्होंने सोचा कि नाटक को बीच में छोड़ कर जाना पूरी टीम और दर्शकों के साथ अन्याय होगा अतः संदेशवाहक को मौन रहने का संकेत करते हुए पिता के निधन की खबर को आयोजन की समाप्ति तक अपने साथियों से गोपनीय रखा और नाटक की समाप्ति के बाद ही घर पहुंचे।

स्व. ओंकार श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस एवं “गुंजन कला सदन” का स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 27 दिसंबर को विविध आयोजनों के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। 29 जुलाई 2016 को ओंकार जी ने अंतिम सांस ली, किंतु प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें निखार कर सामने लाने का जो काम ओंकार जी ने शुरू किया था उसे “गुंजन” आज भी कर रही है। गुंजन से प्रोत्साहन पाकर विविध क्षेत्रों के अनेक कला साधकों ने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की और कर रहे हैं। गुंजन के माध्यम से ओंकार जी की लक्ष्य यात्रा उनके बाद भी जारी है।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth#5 – Isolation Station: Life in a Village the World Forgot – The Idiot Box ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his satire Isolation Station: Life in a Village the World Forgot

☆ Witful Warmth # 5 ☆

☆ Satire ☆ Isolation Station: Life in a Village the World Forgot ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

In our village, even the dogs have given up barking. They know there’s no one left to listen. The silence of our once bustling community now echoes through the empty streets, where even the shadows seem to have abandoned us. Life in our village is like a game of musical chairs, except there’s never enough chairs for everyone.

Living in a village is like starring in a never-ending soap opera, except it’s a tragedy with no commercial breaks. The drama unfolds in the whispers of neighbors and the sighs of the elderly, who sit on their porches, reminiscing about days when the village was alive with laughter and hope. Our village is so small, the census taker uses a magnifying glass to find us, but even he has stopped coming.

You know you’re in a village when the highlight of your day is watching the cow graze. The simplicity of such moments once brought joy, but now, it only serves as a reminder of the life we are missing. In our village, the only thing that grows faster than the weeds is gossip. The tales we weave are the threads that keep us from unraveling completely.

You haven’t experienced true isolation until you’ve lived in a village with no Wi-Fi. The disconnection from the world outside is complete, and the isolation is profound. In our village, the only thing that travels faster than the wind is a juicy piece of gossip. But even that has lost its allure as the stories have become repetitive and stale.

Living in a village is like being stuck in a time warp, where progress is just a distant dream. Our village is so remote, even Google Maps gives up trying to find us. The world has moved on, leaving us behind in a bubble where the only change is the seasons.

In our village, the local barber doubles as the town therapist. His chair has seen more tears than haircuts. He listens patiently, offering the same words of comfort and advice that have been passed down through generations. Life in a village is like living in a fishbowl, except everyone’s watching and no one’s cleaning the glass.

You know you’re in a village when the only entertainment is watching paint dry. The monotony of our days is broken only by the occasional scandal, which spreads faster than laughter. Living in a village is like being trapped in a never-ending family reunion, where everyone knows your business, and there’s no escape.

Our village is so small, the only parade we have is when the cows come home. The simplicity of such events once brought us together, but now it only highlights our isolation. You haven’t experienced true loneliness until you’ve walked the deserted streets of our village at night. The silence is deafening, and the emptiness is all-consuming.

In our village, the only thing more outdated than the traditions is the technology. The past is preserved in every stone and every face, but the future is uncertain. Life in a village is like living in a museum, where the past is cherished, but the future is a distant dream.

You know you’re in a village when the only nightlife is the sound of crickets. Our village is so quiet, you can hear a pin drop from a mile away. Living in a village is like being in a reality show, except there’s no prize money and no way out. The days blend into one another, each one a reflection of the last.

In our village, the only thing more barren than the fields is the hope of a better tomorrow. The dreams we once had have withered away, much like our crops. You know you’re in a village when the biggest event of the year is the annual cow beauty pageant. It’s a sad reminder of what little we have left to celebrate.

Living in a village is like living in a time capsule, where progress is a foreign concept. In our village, the only thing more unreliable than the weather is the village gossip. The stories change, but the underlying despair remains the same.

You know you’re in a village when the only traffic sign is a cow crossing. Our village is so remote, the nearest hospital is a day’s journey away. Living in a village is like living in a fishbowl, where privacy is a luxury. The sense of community we once cherished has become a burden we can no longer bear.

In our village, the only thing more stagnant than the pond is the economy. The opportunities that once drew people here have dried up, leaving us with nothing but memories and regrets. You know you’re in a village when the only fashion statement is who can wear the most mud.

Living in a village is like being in a bad sitcom, where the jokes are stale and the laugh track is missing. The humor that once lightened our days has faded, replaced by a heavy sense of resignation. In our village, the only thing more stubborn than the mules is the mindset of the people.

You know you’re in a village when the only news is who got married, who died, and who got caught stealing chickens. The cycles of life and death continue, but the hope for something better has long since vanished. Our village is so isolated, the only connection to the outside world is the occasional passing breeze.

Living in a village is like living in a time warp, where progress is a myth and tradition is law. The customs and rituals that once gave us a sense of identity now feel like chains. In our village, the only thing more common than poverty is resignation. The dreams we once had have been buried beneath the weight of our circumstances.

You know you’re in a village when the only nightlife is the flicker of oil lamps. Our village is so remote, even the birds fly over us instead of stopping. The silence and isolation have become our constant companions, as we continue to exist in a place forgotten by time and the world.

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : drskm786@gmail.com

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 373 ⇒ घूंट घूंट चिंतन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घूंट घूंट चिंतन।)

?अभी अभी # 373 घूंट घूंट चिंतन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मन की कई अवस्थाएं होती हैं। एक शांत मन होता है, जिसमें विचारों की भीड़ जमा नहीं होती, वहीं दूसरी ओर एक उत्तेजित मन ऐसा भी होता है, जहां विचारों का जमघट लगा रहता है। कहीं लहर है, तो कहीं तूफान और कहीं प्रशांत महासागर।

उनके खयाल आए, तो आते चले गए। विचारों के सैलाब को थामने के लिए, कागज़ पर कलम चलाने के लिए मूड बनाया जाता है। खिड़की खोली जाती है, पंखा चलाया जाता है, मौसम के हिसाब से ठंडा गरम हुआ जाता है। सुबह सुबह तो चाय का प्याला कमाल कर जाता है, चुस्कियों के साथ चुटकियों में कलम सरपट दौड़ने लगती है।।

बच्चों का मन बड़ा चंचल होता है, खेलते वक्त उन्हें खाने पीने की कोई फिक्र नहीं होती। मां आवाज देती है, दूध पीकर खेलने जाओ। बच्चा, बचने का बहाना बनाता है, अभी गर्म है। मां उसकी चालाकी समझती है, तुरंत ठंडा कर देती है, फीका है, एक और बहाना। मां दूध में हॉर्लिक्स मिला देती है, चलो अब जल्दी गट गट पी जाओ, फिर चॉकलेट भी दूंगी। और बच्चा एक सांस में गट गट, पूरा ग्लास खाली कर देता है।

जो लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, वे चाय हो अथवा दूध, आराम से घूंट घूंट पीते हैं। हमने वह जमाना भी देखा है जहां कॉफी हाउस में एक कप कॉफी और सिगरेट के सहारे लोग घंटों समय काटा करते थे। एक एक चाय का घूंट और हर फिक्र को धुएं में उड़ाने का अंदाज़। सार्वजनिक स्थानों पर आज भले ही धूम्रपान वर्जित हो गया हो, लेकिन आज भी केसर के दाने दाने में दम है। चोर, चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए।।

जो शायर कम्युनिस्ट होते हैं, वे बदनाम होते हैं। खुले आम शराब पीते हैं, और कहते हैं ;

मैने पी शराब !

तुमने क्या पीया ?

आदमी का खून ….

पीने पिलाने की भी तहजीब होती है। शराब की चुस्कियां नहीं ली जाती, पेग पीये, पिलाये जाते हैं, कहीं घूंट घूंट, तो कहीं बच्चों की तरह गटागट। कहीं शराब गम गलत करती है, तो कहीं खुशी बढ़ाती है।

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।।

एक आम आदमी की जिंदगी भी क्या है। वहां रोज संघर्ष है, मान अपमान है, राग द्वेष है, महत्वाकांक्षा है, हार जीत है, पेशेवर ईर्ष्या (professional jealousy) है। आए दिन कभी उसे अपमान का घूंट पीना पड़ता है, तो कभी जहर का। कभी उसका खून जल रहा है, तो कभी वह बेबस, लाचार सिर्फ खून का घूंट पीकर ही रह जाता है।

घुट घुटकर जीने से तो अच्छा है, दो घूंट ही लगा लें। हम पीने पिलाने से इत्तेफाक नहीं रखते, क्योंकि यह आपका जाती मामला है। फिर भी हम किसी को खून का घूंट पीने से नहीं रोक सकते। ऐसी परिस्थितियों में मुकेश का यह गीत हमारा शॉक ऑब्जर्वर का काम करता है ;

जब ग़म ए इश्क़ सताता

है तो हँस लेता हूँ।

हादसा याद ये आता

है तो हँस लेता हूँ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆ # “रिश्ते और दर्द” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिश्ते और दर्द”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆

☆ # “रिश्ते और दर्द” #

जब कभी चलते चलते

जीवन रूक जाता है

सांस का तूफान

दर्द में छुप जाता है

जब जीवन का अर्थ

समझ में आता है

तब अहंकार का भरम

अचानक टूट जाता है

 

चाहे कितना भी बलशाली हो

आंखों में धन की हरियाली हो

जब देखते देखते टूटतीं हैं सांसें

तब लगता है हाथ कितने खाली हैं  

 

हर पल जिनके लिए जीते हैं

दुःख दर्द जिनके लिए पीते हैं

वो ही जब फेर लेते हैं आंखें

कांपते होठों को

मजबूरी में सी लेते हैं

 

किससे कोई फरियाद करें

किसको बताएं ,

किसको याद करें

किसको अब हमारी परवाह है

कोई क्यों अपना समय बर्बाद करें

 

रिश्ते भी यहां पर अजीब हैं

कौन किसके यहां कितने करीब हैं

परस्पर देते हैं

एक दूसरे को धोका

रिश्ते निभ जाये तो

उसका नसीब है

 

रिश्तों और दर्द का संबंध

बहुत पुराना है

इस मे बंधा हुआ

सारा ज़माना है

मौत भी इनको

जुदा नहीं करती

हर जगह गूंजता  

यही तराना है /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वैराग्य… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

वैराग्य☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

केवढे हे भाग्य खोटे तू मला सोडून जावे

सारखे ध्यानीमनी मी दु:ख ते का आठवावे

*

थाटला दरबार आहे  स्वागताला वंचनेच्या

वाटते या सोहळ्याला चंद्रतारे बोलवावे

*

पेटलेला देह कोठे शांत होतो सावलीला

दैवताने घात केला हेच आता ओळखावे

*

संकटे आली तरीही  हात होते बांधलेले

संशयाला वाटले की माणसाला ठोकरावे

*

स्वप्न वेडे दिवस होते काळ सरला  वैभवाचा

थोडके उरलेत बाकी स्पर्श तेही संपवावे

*

राहिले बाकी न काही हात झाले संत दोन्ही

बदललेल्या वास्तवाने नेमके वैराग्य यावे

*

वासनांनी जींदगीला कैद केले कैक वेळा 

मुक्त तेचा काळ येता पाय गुंते सोडवावे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 175 ☆ माणुसकी…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 175 ? 

☆ माणुसकी☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(अंत्यओळ काव्य…)

प्रेमाचा मळा फुलला पाहिजे

मनाला मनं, भिडलं पाहिजे

आमंगल सर्व निघूनी जाता

ऐसे हे सर्व, झालेच पाहिजे.

*

ऐसे हे सर्व, झालेच पाहिजे

ऋणानुबंध जपल्या जावा

वैरभाव संपूनी सर्वतोपरी

माणुसकीच्या जावे गावा.!!

*

माणुसकीच्या जागे गावा

मनुष्य बनूनी जगून पहावे

शांत वृत्ती समतोल वृत्ती

आपुले आपण होऊनि असावे.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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