हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 11☆ कभी अनचाहा जो जाता है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  कभी अनचाहा जो जाता है ।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 11 ☆

☆ कभी अनचाहा जो जाता है ☆

जीवन की राहों में देखा ऐसे भी कभी दिन आते है

जिन्हें याद न रखना चाहते भी हम भूल कभी न पाते है।

 

होते हैं अनेकों गीत कि जिनके अर्थ समझ कम आते है

पर बिन समझे अनजाने ही वे फिर फिर गाये जाते है

 

छा जाते नजारे नयनों में कई वे जो कहे न जाते हैं

पर मन की ऑखो के आगे से वे दूर नहीं हो पाते है।

 

सुनकर या पढ़कर बातें कई सहसा आँसू भर आते हैं

मन धीरज धरने को कहता पर नयन बरस ही जाते हैं

 

अच्छी या बुरी घटनायें कई सहसा ही हो यों जाती हैं

जो घट जाती हैं पल भर में पर घाव बडे कर जाती हैं

 

सुंदर मनमोहक दृष्य कभी मन को ऐसा भा जाते हैं

जिन्हें  फिर देखना चाहें पर वे फिर न कभी भी आते हैं

 

घटनायें कभी सहसा घट कर इतिहास नया रच जाती है

गलती तो करता एक कोई पर सबको सदा रूलाती है।

 

भारत बटवारें की घटना ऐसी ही एक पुरानी है

जो चाहे जब पुस्तक से निकल बन जाती नई कहानी है

 

परिवार में घर का बटवारा कभी भी न भुलाया जाता है

वह स्वप्न जो यह करवाता है पूरा न कभी हो पाता है

 

इतिहास कई घटनाओं को यों बढ़ चढ़ के बतलाता है

सुनने वालों के आगे जिससे खौफ खड़ा हे जाता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  गांधी – एक सोच ☆ सुश्री दामिनी खरे

सुश्री दामिनी खरे

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं। लेखकों से हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हम सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजनमें प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस का प्रारम्भ कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरे जी की कविता “गांधी -एक सोच”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  गांधी – एक सोच  ☆

वर्ष में फिर एक बार

सत्य अहिंसा पुकार

गाँधी के नाम से

बातों से करें वार

 

गांधी एक पुरुष नहीं

गांधी एक व्यक्ति नहीं

गांधी एक सोच हैं

जिसमे कोई रोष नहीं

 

ऊंच नीच भेद नही

जाति धर्म भेद नहिं

लिंगभेद रंगभेद

कर्म-वचन भेद नहीं

 

आज कहाँ हैं गांधी

त्रस्त आधी आबादी

सत्ता मुठ्ठी में बंद

लिख रही है बर्बादी

 

दिनों को न लेखिए

कर्म को उकेरिए

राह जो दिखा गए

चल कर तो देखिए

 

रामराज्य सपन आज

विस्मृत कर करें काज

दीनहीन निर्बल की

रखता है कौन लाज

 

क्षण भर को सोचिए

पापकर्म रोकिए

आचरण सुधार कर

शुचिता को पोषिए

 

रामराज्य कल्पना

भारती की वन्दना

शंख नाद से करें

भारत की अर्चना।।

 

©  सुश्री दामिनी खरे

भोपाल

मोबाइल 09425693828

2.10.20

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हरापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ हरापन

जी डी पी का बढ़ना

और वृक्ष का कटना

समानुपाती होता है;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

डायरेक्टली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

वर्तमान अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था..,

‘संजय दृष्टि’ देख रही थी-

सेंसेक्स के साँड़

का डुंकारना,

काँक्रीट के गुबार से दबी

निर्वसन धरा का सिसकना,

हवा, पानी, छाँव के लिए

प्राणियों का तरसना-भटकना

और भूख से बिलबिलाता

जी डी पी का

आरोही आलेख लिए बैठा

अर्थशास्त्रियों का समूह..!

हताशा के इन क्षणों में

कवि के भीतर का हरापन

सुझाता है एक हल-

जी डी पी और वृक्ष की हत्या

विरोधानुपाती होते हैं;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

इनवरसली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

भविष्य का मनुष्य

गढ़ रहा है..!

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ स्त्री-पुरुष – श्री सुरेश पटवा ☆ समीक्षक – श्री गोकुल सोनी

पुस्तक – स्त्री-पुरुष

लेखक – श्री सुरेश पटवा

प्रकाशक – नोशन प्रेस, चेन्नई

मूल्य – रु.२६०/-

☆ पुस्तक चर्चा – स्त्री-पुरुष – लेखक श्री सुरेश पटवा – समीक्षक – श्री गोकुल सोनी 

श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष’ को पढ़ते हुए वैचारिक धरातल पर जो अनुभव हुए, वैसे प्राय: अन्य कृतियों को पढ़ते समय नहीं होते. रिश्तों के दैहिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, गूढ़ रहस्यों को धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, संरचनात्मक, परिप्रेक्ष्य में अनावृत्त कर विवेचन करती यह पुस्तक समूचे विश्व के मत-मतान्तरों को समेटते हुए सचमुच एक श्रमसाध्य अन्वेषण है. जहां श्री पटवा जी स्त्री- पुरुष के अंतर्संबंधों की गहराई में उतरते हुए कभी एक मनोवैज्ञानिक नजर आते हैं, तो कहीं इतिहासवेत्ता, कहीं भूगोलवेत्ता, तो कहीं समाजशास्त्री. पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक की प्रतिभा के विभिन्न आयाम सामने आते हैं.

suresh patwa-साठीचा प्रतिमा निकालभारतवर्ष की पुरातन संस्कृति और धर्म तथा आध्यात्म का आधार वेद-पुराण, उपनिषद और अन्य धार्मिक ग्रन्थ हैं. जहाँ हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ अभीष्ट बताये हैं, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं. इनमे ‘काम’ अर्थात सेक्स को एक सम्मानजनक स्थान दिया गया है. वहीँ सुखी मानवीय जीवन हेतु त्याज्य बुराइयों में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह जैसे तत्वों या प्रवृत्तियों में ‘काम’ को पहला स्थान दिया गया है. काम दोनों जगह है.

प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों? उत्तर स्पष्ट है- यदि काम का नैसर्गिक और मर्यादित रूप जीवन में हो तो समूचा जीवन संगीत बन जाता है, परन्तु काम को विकृति के रूप में अपनाने पर यह व्यक्ति के मन और मष्तिष्क पर अपना अधिकार करके उसे रसातल में पहुंचा देता है. निर्भया के अपराधियों के कृत्य और उनको फांसी, इसके जीवंत उदाहरण हैं.

काम सृष्टि का नियामक तत्व है और जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में पाया जाता है. यह केवल मनुष्यों में ही नहीं, पशु-पक्षियों या मनुष्येतर प्राणियों में भी आचरण और स्वभाव का मूल कारक होता है. यह एक ऐसा विषय है जिसने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों देवी-देवताओं, दैत्यों, विद्वानों के चिंतन को उद्वेलित किया है. धार्मिक ग्रंथों को लें तो ‘नारद मोह’ इंद्र-अहिल्या, और राजा ययाति की कथा इसके जीवंत उदाहरण हैं, वहीँ यह राजा भर्तहरी को भोग लिप्सा के वशीभूत श्रंगार शतक लिखवाता है. फिर चिंतन की गहराई में धकेलते हुए वैराग्य शतक लिखवाता है.

स्त्री-पुरुष अन्तर्संबंधों में काम तत्व इतना जटिल रूप में दृष्टिगोचर होता है कि जिसको मात्र आध्यात्मिक चिंतन से विद्वान लोग हल नहीं कर पाए. यही वजह है कि धर्म ध्वजा फहराने निकले आदि गुरु शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में मिथिला विद्वान मंडन मिश्र को तो हरा दिया परंतु उनकी विदुषी पत्नी भारती के काम कला संबंधी सवालों का जवाब ब्रहमचारी सन्यासी आदि शंकराचार्य नहीं दे पाए. क्योंकि एक स्त्री से हारना उनको अपमानजनक लगा अतः उन्होंने एक राजा की देह में परकाया प्रवेश कर काम कला का ज्ञान प्राप्त किया, तब जाकर भारती को हराकर उसे शिष्या बनाया. इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि काम एक गूढ़ विषय है.

आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ऋषि वात्सायन ने समग्र चिंतन-मनन के पश्चात काम सूत्र की रचना की. यही नहीं आधुनिक लेखकों ने नर-नारी पृष्ठभूमि पर प्रोफ़ेसर यशपाल के उपन्यास “क्यों फँसे” और “बारह घंटे” लिखा जिसमें उन्मुक्त यौनाचार, नर नारी संबंधों का विश्लेषण है, साथ में बारह घंटे में प्रेम-विवाह की नैतिकता को केंद्र में रखकर इसके स्वरुप पर विचार किया है. काम की महत्ता मात्र वैदिक धर्म में ही नहीं, वरन अन्य धर्मों में भी देखने में आती है. यदि मुस्लिम धर्म का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि उन्हें भी प्रलोभन दिया गया है, कि यदि अल्लाह के बताए मार्ग पर चलेंगे, तो जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी. वहीँ ईसाई धर्म में तो प्रभु यीशु का कुंवारी मां के गर्भ से जन्म लेना काम का प्रभावी रूप दर्शाता है.

लेखक ने जहां भारतीय धर्म दर्शन वा साहित्य यथा- कामसूत्र, शिव पुराण, और अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढ़ा है वहीँ कबीर, गांधी, ओशो, के साथ ही पाश्चात्य दर्शन-साहित्य जैसे फ्राइड, काल मार्क्स, अरस्तू, प्लेटो, लिविजिन व लाक, विल्हेम, वुंट, टिनेचर, फेक्नर, हेल्मोलेत्स, हैरिंग, जी ई म्युलर डेकार्ट, लायब, नीत्से, ह्यूम,हार्टले, रीड, कांडीलेक, जेम्स मिल, स्टुअर्ट मिल, बेन, कांट, हरबर्ट, बेवर, हेल्मो, डार्विन, फ्रेंचेस्को, पेट्रार्क, बर्ट्रेण्ड रसेल, जैसे कई विदेशी वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, समाज शास्त्रियों के सिद्धांतों का अध्ययन कर, उनके जीवन-दर्शन, चिंतन को इस पुस्तक में समाहित किया है.

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पग पग नर्मदा दर्शन के सहयात्री श्री सुरेश पटवा जी से पहली बार इस यात्रा में ही परिचय हुआ। वे मुझसे 5 साल बड़े हैं। स्टेट बैंक के सहायक महाप्रबंधक पद से रिटायर हुए हैं। हमारी पैदल नर्मदा यात्रा के सूत्र धार वे ही हैं। आपको लिखने पढ़ने का शौक है, इतिहास की सिलसिलेवार तारीख के साथ जानकारी उन्हें कंठस्थ है।वे लेखक भी हैं उनकी पहली पुस्तक “गुलामी की कहानी” में इतिहास के अनछुए किस्सों को रोचक ढंग से लिखा गया है। आपकी दूसरी पुस्तक “पचमढ़ी की खोज” जेम्स फार्सायथ का रोमांचक अभियान है, आपने तीसरी पुस्तक ” स्त्री पुरुष की उलझनें “ पति पत्नी और प्रेमियों के रिश्तों की देहिक, भावात्मक,और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर केन्द्रित है। श्री पटवा जी ने नर्मदा घाटी के इतिहास और यात्रा अनुभव को अपनी पुस्तक “नर्मदा” सौंदर्य, समृद्धि,और वैराग्य की नदी में लिखा है।

– श्री अविनाश दवे, सेवानिवृत सेंट्रल बैंक

Notion Press Link  >>  1. नर्मदा     2. स्त्री – पुरुष  3. गुलामी की कहानी 

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लेखक ने अपना एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है, कि ईश्वर ने मंगल ग्रह के पत्थरों और कड़क मिट्टी को लेकर मजबूत हड्डियों और पुष्ट मांसपेशियों से आदमी बनाया, उसके बाद उसका दिमाग बनाकर उसमें ताकत, क्षमता, उपलब्धि और सफलता प्राप्त करने के बीज रोपित कर दिए. उसे ऐसी योग्यता का एहसास दिया, कि कठिन से कठिन परिस्थिति का हल ढूंढ सकता है. उसे इस भाव से भर दिया, कि मुश्किलों से निकलने के लिए मंगल ग्रह के जीव के अलावा किसी अन्य जीव का सहयोग वांछित नहीं और दिमाग में अजीब सी रासायनिक चीज डाली कि जवान औरत को देखकर उसे पाने हेतु उसमें तीव्र इच्छा जागृत हो. जिसे मात्रा अनुसार क्रमशः प्रेम, कामुकता, और वासना कहा गया. क्योंकि उसे सृष्टि का सृजनचक्र अनवरत जारी रखना था, इसीलिए यह सृष्टि कायम रखने के लिए उसने शुक्र ग्रह की हल्के, मुलायम, पत्थर और नरम मिट्टी से सुंदर स्त्री बनाकर उसके दिमाग में प्रेम-भावना, कमनीयता, अनुभूति, समस्या आने पर दूसरों से साझा कर, सुलझाने की प्रवृत्ति और आदमी से आठ गुना अधिक काम का अंश, दिमाग में रसायन देकर सुंदर शरीर-सौष्ठव, कामुक अंग, मन की चंचलता, परंतु ममता की भावनाओं से भर दिया. सजने-सँवरने द्वारा काम उद्दीपन और पसंद के आदमी से सृजन हेतु चयन का रुझान दिया. इतना ही नहीं, पशु पक्षियों में काम अंश की स्थापना की, ताकि सृष्टि का क्रम निर्वाध गति से चलता रहे. क्योंकि दोनों की वाह्य संरचना और आंतरिक सोच में पर्याप्त अंतर है, इसलिए आपस में समस्याएं भी उत्पन्न होती है. दोनों एक दूसरे को अपने जैसा समझ लेते हैं. अंतर भूल जाते हैं. तब एक दूसरे पर भावनात्मक शासन की प्रवृत्ति जागृत होती है. जब आपसी समस्या उत्पन्न होती है, तो आदमी चिंतन की आंतरिक गुफा में प्रवेश कर जाता है. वह अपनी समस्या को बगैर किसी से बाटें, स्वयं सुलझाना चाहता है और औरत के बार बार टोकने पर क्रोधित हो जाता है. वहीँ औरत जब समस्या अनुभव करती है, तो वह साझा करना चाहती है. वह चाहती है, कि आदमी धैर्य पूर्वक उसकी बात सुन भर ले, समस्या तो वह स्वयं हल कर लेगी. ऐसा नहीं होता, तो वह तनाव ग्रस्त होकर ऊपर से भले संयत दिखे, पर दुखी होकर अपना अस्तित्व खोने लगती है. यदि दोनों परस्पर एक दूसरे की मानसिक संरचना और शरीर में स्रावित रसों से उत्पन्न भावना चक्रों को ध्यान में रखते हुए परस्पर व्यवहार करें, तो जीवन की सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाती है.

लेखक यह भी मानता है, कि पूरे जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में काम होता है, जिसे उसने वात्सायन, फ्राइड, रजनीश आदि के सिद्धांत द्वारा स्पष्ट करते हुए रजनीश के उपन्यास “संभोग से समाधि की ओर” का विश्लेषण कर समझाने की चेष्टा की है. पुस्तक में औरत एवं आदमी की वाह्य अंगों की संरचना एवं आंतरिक स्वभाव की दृष्टि से कई वर्गीकरण भी किए गये हैं, तो जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं और उनके समाधान के तरीके भी सुझाए गये हैं.

प्रेम के दैहिक वा मनोवैज्ञानिक रहस्य को समझने हेतु विभिन्न उदाहरण, और अंत तीन प्रेम कहानियां भी दी गई हैं, जो पुस्तक को सरल और बोधगम्य बनाती हैं. पृष्ठ ४७ से ५४ तक मनोविज्ञान के विकास का विस्तृत इतिहास पढ़ते हुए लगता है, कि लेखक जैसे अपने मूल विषय से भटक कर विषयांतर होकर उन मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने लगा हो जो पूर्णत: स्त्री-पुरुष अंतर्संबंधों के आवश्यक कारक नहीं है तथापि पृष्ठ 62 से 66 पठनीय है जिसमें भारतीय संस्कृति और हिंदू दर्शन के बीज निहित हैं.

हमारे प्राचीन दर्शन में काम संबंधी वर्जनाएँ नहीं थी. आज के युग में काम विकृति का कारण ही यही है, कि उसे निंदनीय, गंदा, नियम विरुद्ध, त्याज्य बताकर ही बचपन से विचारों में ढाला जाता है, अतः जब नियम टूटता है तो व्यक्ति को ग्लानि भाव होने लगता है. लेखक के अनुसार यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है और इसे सहजता पूर्वक अपनाकर मर्यादित रुप से आनंद लेने में कोई बुराई नहीं है. अंदर से प्रत्येक स्त्री-पुरुष इसे चाहते हुए ऊपर से परंपराओं के वशीभूत हो, इसकी आलोचना करते हैं, परंतु लेखक की दृष्टि में यह तथ्य भी मैं लाना चाहता हूँ कि जब कोई आदत या प्रवृत्ति बहुत सामान्य हो जाएगी तब वह निश्चित ही अपना आकर्षण खो देगी. लंबे अंतराल के पश्चात जो मिलन होता है वह कई गुना आनंद देता है. दूसरे अनावृत्त के प्रति अधिक आकर्षण होता है, पाने की चाह और आनंद होता है, अतः आंशिक वर्जनाओं का अपना अलग महत्त्व है. उसी से समाज का स्वरुप बना रहता है. यदि पुस्तक में राजा ययाति के चरित्र का चित्रण किया जाता तो विषय की व्यापकता में वृद्धि होती और यह सोने पर सोहागा सिद्ध होता। पुस्तक को पाठ्यपुस्तक की तरह लिखा गया है. वास्तव में यह पुस्तक ग्रेजुएशन के कोर्स में पढाये जाने लायक है, पुस्तक का शीर्षक एकदम सपाट “स्त्री पुरुष” है. लेखक विद्वान हैं अत: अच्छा होता कि इसका शीर्षक कलात्मक, यथा- जीवन और प्रेम, सुखद दांपत्य का रहस्य, सुखद अंतर्संबंधों का रहस्य, या सृष्टि-सृजन में प्रेम की भूमिका जैसा कलात्मक शीर्षक होता तो अधिक अच्छा लगता.

कुल मिलाकर यह पुस्तक चिंतन को नया आयाम देकर काम की विज्ञान और मनोविज्ञान सम्मत परिभाषा देते हुए स्त्री-पुरुष के बीच सौहार्द्र स्थापित करने की कुंजी है जो सुखद दाम्पत्य जीवन की नींव है. टीनेजर से लेकर सभी आयु वर्ग के पाठकों के  पढ़ने योग्य है यह पुस्तक. श्री सुरेश पटवा जी को इस सुंदर सार्थक साहित्य-सृजन हेतु बधाई एवं उन्नत लेखकीय भविष्य हेतु हार्दिक मंगलकामनाएं.

 

समीक्षक .. श्री गोकुल सोनी (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)

ए-४, पैलेस आर्चर्ड, फेस-१,  कोलार रोड, भोपाल. मो- ७०००८५५४०९

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ व्रत करती हुई स्त्री ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे।

☆ कविता – व्रत करती हुई स्त्री ☆

स्त्री शिव भक्त है

रखती है

हर सोमवार को व्रत

यह सोचकर

कि शायद

ऐसा करने से

हो जाएं खुश

भगवान शिव

और कट जाएं उसकी मजबूत बेड़ियां

जो डाल रखी हैं समाज ने

उसके चारों तरफ

उसके सोचने, बोलने

लिखने – पढ़ने

चलने फिरने

घूमने घामने

खिलखिलाकर हंसने  बेबात

आँखें खोलकर देखने

अपने चारों तरफ

एकांत में ताकने

जी भर अपना आकाश

बगीचे में टहलते हुए

सहलाना फूलों को

तोड़ लेना कुछ पत्तियाँ यूं ही

पता नहीं क्या तो सोचते हुए

पहन लेना

अपनी पसंद के कपड़े

या गरमी के दिनों में

शाम को चले जाना

अकेले ही नदी के किनारे

और लौटना गुनगुनाते हुए

अपनी पसंद का गीत

पर सालों हो गए व्रत करते

न खुश हुए शिव

न कमजोर हुई बेड़ियों की जक

उम्मीद से भरी स्त्री

आज भी रख रही है व्रत

उम्मीद स्त्री की आखिरी ताकत है

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

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English Literature ☆ Stories ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 10 Kaustubha ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  We are pleased to begin a series on excerpts from his well acclaimed book  “Samudramanthanam” .  According to Mr Ashish  “Samudramanthanam is less explained and explored till date. I have tried to give broad way of this one of the most important chapter of Hindu mythology. I have read many scriptures and take references from many temples and folk stories, to present the all possible aspects of portrait of Samudramanthanam.”  Now our distinguished readers will be able to read this series on every Saturday.)    

Amazon Link – Samudramanthanam 

 ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 10 – Kaustubha☆ 

Now Sura were doing Churning with confidence and happiness as they got all the apsaras who were emerging from ocean ‘Kshirasāgara’ for their heaven at the other hand Asura are frustrated and now they are applying more force in churning.

It is the day of ‘Naga panchmi’ when many Naga and other creature of similar clan grouping around many places near the churning. They have come to do prayer for their God Naga “Vasuki’ who is doing his duty to help Sura and Asura to make impossible churning of ‘Kshirasāgara’ possible.

Soon Sura and Asura saw that something like millions of suns shining, started shining from the ocean which they were churning. They were unable to look towards that direction and all have to close their eyes.

Other sages and Bahram also wonder about this bright shine. Then soon that shining turned to little smooth so that Sura and Asura can able to look in that direction.

They saw many Nagas coming out of the ocean who hold a big shining stone over their head. Yes, it was the most beautiful gem of world, a gem in front of that all diamond, ruby etc. are nothing but simply stones.

They Naga go up and up in sky and placed that precious gem of universe over the hood head of their god Naga ‘Vasuki’.

Vasuki said, “Thank you for this honor but I doesn’t deserve this because I am the necklace of the neck of a sanyasi. So, I didn’t required this”

Vasuki given a small jerk to his head to keep down that precious stone name ‘Kaustubha’ over ‘Kshirasāgara’.

As ‘Kaustubh’ fall from the head of Vasuki soon king of Sura ‘Indra’ and king of Asura ‘Bali’ fly in the sky and both hold that together in their hands.

‘Indra’ trying to pull that most bright gem ‘Kaustubha’ towards him and other hand ‘Bali’ is trying to pull that towards him.

Bali given a sudden jerk and grip of ‘Indra’ lost and soon ‘Kaustubha’ fall in the hands of ‘Bali’ then Bali said to Indra, “Indra you have got all the apsaras as the wives of many Gandharva. Now this is our turn, this ‘Kaustubha’ will look good only on the crown of Asura king”

 

© Ashish Kumar

New Delhi

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 57 – आपसुक…! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #57 ☆ 

☆ आपसुक…! ☆ 

तुझ्या माझ्यातला पाऊस

आता पहिल्यासारखा

राहिला नाही… . .

तुझ्या सोबत जसा

पावसात भिजायचो ना

तसं पावसात भिजणं

होत नाही

आता फक्त

मी पाऊस

नजरेत साठवतो…

आणि तो ही ;

तुझी आठवण आली की

आपसुकच गालावर ओघळतो.

तुझं ही काहीसं

असंच होत असेल

खात्री आहे मला . . .

तुझ्याही गालावर

नकळत का होईना

पाऊस ओघळत असेल…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तत्वज्ञान ☆ श्री ओंकार कुंभार

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तत्वज्ञान ☆ श्री ओंकार कुंभार ☆

हे बरं आहे

 

सुचतात दोन ओळी

भरल्या पोटी मजला

 

त्याला काय सुचते

जो दोन घासांना भुकेला.

 

उदराची भ्रांत संपता

जगण्यात तत्वज्ञान शोधतसे

भुकेल्या पोटीचे तत्वज्ञान काय असे.

 

निवारा पूर्ण होता वस्तूंची गर्दी जमतसे

निवारा नसतानाही कोणत्या वस्तूंची यादी मन करतसे.

 

©  श्री ओंकार कुंभार

मो 9921108879

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन डबे ☆ सौ. नीला देवल

सौ. नीला देवल

☆ जीवनरंग ☆ दोन डबे ☆ सौ. नीला देवल ☆

राजू आज फार खुश होता. राकेश उर्फ रॉकी सारखाच स्पायडर मॅन चे चित्र असलेला, काल स्पर्धेत बक्षिस मिळालेला टिफिन चा डबा घेऊन तो शाळेत आला होता मधल्या सुट्टीत त्याने खाण्यासाठी डबा उघडला तर आतील ब्रेड जाम बघून तो रॉकी कडे धावला.  “रॉकी थांब डब्याची आदला बदल झाली आहे. हा घे तुझा डबा”. येवढे म्हणे तो रॉकी ने राजुचा डबा खायला सुर वात ही केली होती. “असु दे, आज माझा डबा तू खा, तुझा डबा मी खातो”. राजूने ब्रेड जाम खाल्ले तर रॉकी ने पोळी भाजी चाटून पुसून खाऊन टाकली.

दुसरे दिवशी रॉकी हट्टाने म्हणाला “राजू आज पण तुझा डबा मी च खाणार”. राजुच्या डब्यातील भाकरी, मेथीची भाजी लिंबाचं लोणचं रॉकी ने संपवले. त्रतोठरा बसणारा पाव जाम खावून राजूला भूक भागवावी लागली.   ओ लीने चार दिवस पवाचे तुकडे खाऊन राजूला वीट आला. दुसरे दिवशी त्याने आपला डबा रॉकी कडून हिसकावून घेतला. “तुझा डबा तू खा. तुझा पाव जाम नको मला. वीट आला त्याचा. कोरड कोरड खाऊन भूक भागत नाही माझी. जाम सुध्धा अगोडच लागतोय. माझ्या आईच्या भाजी भाकरी पुढे.” “होय रे राजू तुझ्या डब्यातल्या भाजी भाकरीची रोज एक नवीन च पण मस्त चव असते. भाकरी भाजी तिखट असूनही चवता चावता इतकी मस्त गोड होऊन जाते की बस!” ती भाकरी खाताना कमीच पडते. आता तुझा डबा रोज मीच खाणार सांगून ठेवतो तुला”. “रॉकी नको, नको माझा डबा मलाच हवा. तुझ्या विकतच्या ब्रेड जमला माझ्या आईच्या भाजी भाकरी ची चव कशी येणार?”

दोघांचे भांडण  शिक्षकानं पर्यंत गेले, “सर हा रॉकी माझा डबा रोज जबदस्तीने घेऊन खातो आणि मला त्याच्या डब्यातील पावाचे तुकडे मला खायला लावतो. मला पाव खावून  कंटाळा आला. शिवाय भूक भागत नाही ते वेगळेच” राजू म्हणाला. “पण तुझ्या डब्यातील भाकरी, पोळी भाजी खाऊन माझी भूक आणखीनच वाढत जाते. भाकरी कमीच पडते. असे वाटते.” सर म्हणाले,”रॉकी तुझ्या आईला तू पोळी भाजी द्यायला का नाही सांगत?”  सर तिला तिच्या लॅपटॉपच्या सततच्या कामातून सवड मिळत नाही. नोकरणी डबा देते. मग मलाही ब्रेड खाऊन खाऊन कंटाळा येतो ना!”

“बरोबर आहे. पण दुसऱ्याचा डबा खाणे योग्य नाही. ब्रेड विकणाऱ्या बेकरी वाल्यांना फ्कत पाईषाशी मतलब. तो पाव, केक खा नाही तर फेकून द्या त्यांना काहीच फरक नाही पडत. पण आई भाजी भाकरी, पोळी करताना आपल्या  मुलाने ती खावी, त्याच्या अंगाला ते जेवण लागून त्याने  धश्ट पुष्ट्ट, बलवान बनाव म्हणून मायेच्या, प्रेमाच्या हातानं त्यात तिखट मीठ घालतांना ममतेची गोडी ही त्यात ती घालत असते. म्हणून ती भाजी भाकरी चवीष्ट होऊन गोड मधूर होऊन जाते. त्यात   तिचे निस्वार्थी प्रेम असते. पै शाचा संभंध नसतो. रॉकी तुझा डबा फकत पैं सा , व्यवहार याने भरलेला असतो तर राजुचा डबा माया ममता  आणि निस्वार्थी प्रेम याने भरलेला असतो. असो. उद्या दोघांनी स्वतःचेच डबे खायचे. नाही तर मी शिक्षा करीन. अशी ताकी त देऊन सर गेले.

दुसरे दिवशी मधल्या सुट्टीत राजूने आपला डबा उघडला. पण रॉकी ने डबा उघडला च नाही. रडवेल्या डोळयांनी तो स्वताच्या बंद डब्या कडे  नुसताच बघत बसून राहिला.”  रॉकी,

 

© सौ. नीला देवल

९६७३०१२०९०

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मैत्र फुलांची ओंजळ ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

☆ विविधा ☆ ? मैत्र फुलांची ओंजळ ?☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

आम्हा दोघा पती-पत्नींना माणसे जोडायची आवड आहे. याच ओढीतून पंधरा वर्षांपूर्वी आम्ही सांगलीत आमच्या घरी एका ग्रुपची स्थापना केली. सोमवारी जमतो म्हणून ‘सोमवार ग्रुप’. १२-१५ जणांचा हा ग्रुप ५० जणांचा कधी झाला हे कळलेच नाही. ज्ञान- विज्ञान- माहिती, छंद आवडीनिवडी, सुखदुःख, जिवाभावाचे सर्व काही एकमेकांशी वाटून घेत हा ग्रुप एक मोठे कुटुंब बनले आहे. आज आम्ही तिथून पुण्यात आलो तरी या ग्रुपशी नाळ घट्ट बांधलेली आहे. नित्य संवाद सुरू असतो.

काही वर्षांपूर्वी माझ्या मिस्टरांच्या वाढदिवसानिमित्त आमच्या या ‘सोमवार ग्रुप’ साठी आम्ही एक छोटासा कार्यक्रम आयोजित केला होता. कार्यक्रमाची रूपरेषा अशी काहीच ठरवलेली नव्हती. एकत्रित गप्पा सुरू होत्या. एका मैत्रिणीची बहीण आमच्या ग्रुपचा कार्यक्रम पाहायला आलेली होती. पुण्याची ही पाहुणी मैत्रीण सुरेल गायिका निघाली. तिने आग्रहाखातर गाणे म्हटले ‘ओवी आणि अभंगाने भुई सारी भिजे ‘, आणि पाहता पाहता सगळ्यांचा मूडच पालटला.

कोणीतरी ह्यांना मागच्या आठवणी विचारल्या. आमच्या लग्नाच्या संदर्भातील प्रश्नांनी मन भूतकाळात गेले. असंख्य आठवणींनी पुनःप्रत्ययाचा आनंद मिळाला. मैत्रिणींच्या चेष्टामस्करीला जोर चढला. जणू सगळ्यांच्यातच तरूणाईचे चैतन्य संचारले होते. आमच्या सदस्यांचा वयोगट साधारणपणे ३५ते ८२-८३ वर्षांचा आहे. जवळजवळ पंचवीस तीस जण हजर होते. हास्यविनोदात वय विसरून सर्व जण मन मोकळे झाले होते.

वाढदिवसाचे अभिष्टचिंतन करण्यासाठी इतर गोष्टींबरोबरच प्रत्येकापाशी मुखावरचा निर्मळ आनंद आणि मनापासून भरपूर शुभेच्छा होत्या; ज्यामुळे खूपच भारावून जायला झाले. शेवटी मैत्री ही आयुष्यातील मोठी मिळकत असते. एका मैत्रिणीने तर आम्हा दोघांना दोन ओंजळी भरून अतिशय सुवासिक अशी तिच्या बागेतली जुईची फुले दिली. तिची ही सुगंधी भेट तर फारच अनमोल अशी होती. शेवटी मैत्रीत ‘देणं-घेणं’ काही नसतंच. असतो फक्त एकमेकांना आनंद वाटायचा. ह्या फुलांनी आम्हा सगळ्यांनाच खूप आनंद दिला. सारा हॉल सुवासाने भरून गेला. एका मैत्रिणीने एक छानशी कविता वाचली. या छोटेखानी कार्यक्रमाचा हा एक मनोहारी आनंद मेळावा झाला. आमच्यासाठी हा आयुष्यातील एक सुखद क्षण ठरला आणि याची सांगता झाली पाहुण्या मैत्रिणीच्या गाण्याने ” जीवनात ही घडी…… !”

खरोखरच ‘ही घडी’ मनात जपून ठेवावी अशीच होती. आपण आयुष्यात एकमेकांशी अनेक नात्यांनी बांधलेले असतो. पण त्यात मैत्रीचं नातं हे अतिशय मोलाचं असतं. हक्क-जबाबदाऱ्या  यांच्या कसल्याही फूटपट्ट्या नसणारी निरपेक्ष मैत्री ही आयुष्यातील वाटचालीची शिदोरी असते. सर्व सुख-दु:खात, कठीण प्रसंगात, हास्यविनोदात साथ देते ती मैत्री. या मैत्रीमुळे ‘एकला चलो रे ‘चा एक तांडा बनतो. या मैत्रीच्या जोरावरच आपण आयुष्याची वाटचाल यशस्वीपणे करत असतो. अशी निखळ मैत्री ज्यांना लाभली ते खरोखरच भाग्यवान. या मैत्रीचा स्नेह सुगंध मनात सदैव दरवळत राहतो आणि आपली आयुष्य निश्चितच पुलकित होतात.

© सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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