हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “धर्म की सासू माँ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –धर्म की सासू माँ“.)

☆ लघुकथा – धर्म की सासू माँ ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘आए थे हरि भजन को ओंटन लगे कपास।’ जैसी कहानी हमारे साथ घट गयी।

सुबह-सुबह  अच्छे मूड में घूमने निकले थे हम पति-पत्नी। रास्ते में एक मुसीबत गले पड़ गई।

एक अम्मा जी बीच राह रोते हुए मिल गई।

‘क्यों रो रही हैं माताजी’ – पत्नी ने संवेदना जताई।

अम्मा जी  बुक्का फाड़कर रोने लगी – मेरा घर गुम गया है बेटी। मेरा घर ढुंढ़वा दे। मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगी। मैं अपना घर भूल गई हूं।

‘घर का पता बताइए अम्माजी।’ पत्नी ने पूछ लिया।

‘अपने बेटे के घर गांव से आई थी। सुबह-सुबह बिना बताए घूमने निकल पड़ी। शहर की गलियों में फंस कर रह गई हूं।’

‘बेटे का नाम बताइए और यह बताइए कि वह कहां काम करते हैं?’

‘बैंक में काम करता है मेरा बेटा और रामलाल नाम है उसका।’

पत्नी ने बैंक का नाम पूछा और वह तथाकथित अम्मा जी बैंक का नाम नहीं बता पाईं। वह अपने घर से कितनी दूर चली आई थी इसका भी उन्हें कोई अनुमान नहीं था। अम्मा जी पत्नी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। मैं उन दोनों को वहीं छोड़कर अपने ऑफिस चला गया।

——–

शाम को घर लौटा तो बैठक में चाय भजिया का नाश्ता चल रहा था। वही अम्माजी विराजमान थी। खुश खुश दिखाई दे रही थीं।

बच्चे नानी मां नानी मां कहकर अम्मा जी से लिपटे चले जा रहे थ। यह चमत्कार से कम नहीं था।

‘लो दामाद जी आ गए’ – कहकर अम्मा जी ने घूंघट कर लिया।

पत्नी बोली – बमुशिकल अम्मा जी का घर ढूंढ पाई मैं और अम्मा जी ने मुझे धर्म की बेटी मान लिया है। इस तरह आप जमाई बाबू बन गए हैं।’

‘अब कुछ दिन वह अपनी बेटी के घर रहने चली आई हैं। मुझे एक कीमती साड़ी भी भेंट कर दी है उन्होंने। क्या पता था कि अम्मा जी अपने पीछे वाली लाइन में ही रहती है।’

मुझे पत्नी जी के पेशेन्स की प्रशंसा करनी पड़ी। उनकी मां नहीं थी और मुझे धर्म की सासू मां मिल गई थी। जैसे मुझे धर्म की सासू मां मिली, सभी को मिले।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जिजीविषा ? ?

गहरी मुँदती आँखें;

थका तन;

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ

क्या आख़िरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा..?

नींद, जिसमें

सुबह किये जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की ऊहापोह,

हाँ, कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा..?

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन

मिले न मिले,

तब भी

नया लिखूँगा..!

© संजय भारद्वाज  

(रात्रि 10:37 बजे, दि. 22.7.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Time… ☆ Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

☆ Time… ☆ Hemant Bawankar ☆

People say –

time is a great ointment

that heals

large wounds.

 

However,

over the years

I don’t know

Why are not healing

my heart’s wound

why that drips

constantly ….

Is it so because?

I’m living

in present

with nostalgia

with the false expectation

that

sometimes

these wounds will be healed

that

were given by my loved ones

or

I had only ever given

to myself.

 

It is true that-

time never halts

it slips

like sand slips

from the fists

and

life does not happen again

still we watch dripping wounds

of loved ones

in relation to each other

even though

none raises their hands

to heal the lesions.

 

Maybe

all mouths are stitched

all hands are tied

with the ego that –

why should I be the first?

(This poem has been cited from my book The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

© Hemant Bawankar

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 297 ⇒ गिले शिकवे और प्यार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिले शिकवे और प्यार ।)

?अभी अभी # 297 ⇒ गिले शिकवे और प्यार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कभी कभी, अभी अभी, फिल्मी हो जाता है। वैसे भी सुबह का वक्त लेखन, पठन पाठन, ध्यान धारणा और गीत संगीत का ही होता है। यूं भी दिन की शुरुआत इससे अच्छी तरह हो भी नहीं सकती अगर इनमें चाय और अखबार को और शामिल कर लिया जाए।

मैं पुस्तक प्रेमी के अलावा रेडियो प्रेमी अर्थात् संगीत प्रेमी भी हूं, मतलब किसी ना किसी तरह मेरा भी प्रेम से नाता तो है ही। जो रेडियो से करे प्यार, वो फिल्म संगीत से कैसे करे इंकार। जो कलाकार संगीत की गायकी विधा से जुड़े होते हैं, वे तानसेन कहलाते हैं, लेकिन मेरे जैसे रेडियो श्रोता को आप चाहें तो कानसेन कह सकते हैं। मेरे कान अक्सर रेडियो से ही सटे रहते हैं।।

सुबह सुबह कभी रेडियो सीलोन सुनने की आदत अब विविध भारती पर आकर ठहर गई है। मैं आज भी वही स्तरीय गीत पसंद करता हूं, जो कभी रेडियो सीलोन पर करता है, और विविध भारती भी मुझे कभी निराश नहीं करता।

अभी कल ही की बात है, सुबह ७.३० बजे, यानी भूले बिसरे गीतों के पश्चात् विविध भारती से कुछ युगल गीत प्रसारित हुए, जिसमें से एक गीत का जिक्र मैं यहां करने जा रहा हूं। जब हम कोई गीत बार बार सुनते हैं, तो उसके गायक/गायिका के साथ साथ ही गीतकार और संगीतकार के बारे में भी हमें पूरी जानकारी हो जाती है। जो संगीत रसिक होते हैं वे ऐसे खवैये होते हैं, जो स्वाद के साथ साथ परोसे व्यंजन के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं।।

रफी और लता का फिल्म सच्चा झूठा का एक युगल गीत चल रहा था, जिसे इंदीवर ने लिखा और कल्याणजी आनंद जी ने संगीतबद्ध किया था। यूं ही तुम मुझसे बात करती हो, या कोई प्यार का इरादा है। बड़ा प्यारा गीत है, मन करता है, बस सुनते ही रहो।

इस गीत को सुनते सुनते ही एक और गीत जेहन में गूंजने लगा। इस गीत और उस गीत की धुन और बोल आपस में टकराने लगे, लेकिन गीत इतनी जल्दी याद नहीं आया। बड़ी मशक्कत हो जाती है याददाश्त की और तसल्ली तब ही मिलती है, जब वह गीत याद आ ही जाता है।

और वह गीत निकला फिल्म रखवाला का, जिसे राजेंद्र कृष्ण ने लिखा और कल्याण जी आनंद जी ने ही संगीतबद्ध किया। इस गीत को भी रफी साहब ने ही आशा जी के साथ गाया था। बोल थे ;

रहने दो,

रहने दो गिले शिकवे

छोड़ी भी तकरार की बातें

जब तक फुरसत दे ये जमाना

क्यूं ना करें हम प्यार की बातें।।

दोनों ही गीतों में गिले, शिकवे, प्यार और तकरार है। मेरे हिसाब से गीत सुनने की चीज है। हमने तो अक्सर सभी गीत रेडियो पर ही सुने हैं और क्रिकेट की भी रनिंग कमेंट्री भी रेडियो पर ही सुनी है। तब कहां घर घर टीवी था।

कल्पना कीजिए, क्रिकेट मैच की ही तरह रफी साहब और लता जी के बीच शब्दों का मैच चल रहा है। लता जी के हाथ में बैट है और रफी साहब के हाथ में बॉल। फिल्म सच्चा झूठा का गीत शुरू होता है। कल्याण जी आनंद जी का संगीत चल रहा है, और रफी साहब शब्दों की डिलीवरी के पहले छोटा सा रन अप ले रहे हैं। उनकी शब्दों की स्पिन का जादू देखिए, और शब्दों की डिलीवरी देखिए ;

यूं ही तुम मुझसे बात करती हो ….

या कोई प्यार का इरादा है ..

और लता जी बड़े आराम से शब्दों की बॉल को पैड कर देती हैं ;

अदाएं दिल की जानता ही नहीं

मेरा हमदम भी कितना सादा है।।

बस इस तरह आप पूरा गीत सुनते जाइए और रफी साहब की शब्दों की स्पिन डिलीवरी और लता जी की डिफेंसिव बैटिंग का आनंद लीजिए।

फिल्म रखवाला में भी शब्दों की स्पिन के जादूगर रफी साहब ही हैं, लेकिन सामने इस बार आशा जी बैटिंग कर रही हैं ;

रहने दो और कहने दो

में आशा जी स्पिन को डिफेंड नहीं करती, कई बार बॉल बाउंड्री पार भी निकल जाती है।

दोनों गीतों को सुनिए और रफी साहब की शब्दों की स्पिन और लता और आशा के गले का कमाल सुनकर लीजिए। क्योंकि परदे के पीछे के असली कलाकार तो ये अमर गायक और दोनों अमर गायिकाएं ही हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #204 ☆ बाल गीत – मेरी माँ… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बाल गीत – मेरी माँआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 204 ☆

☆ बाल गीत – मेरी माँ.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

लल्ला  कह कर मुझे बुलाती

लोरी  गा  कर  मुझे   सुलाती

देकर  छाँव स्वयं आँचल  की

मेरी   माँ   मुझको   सहलाती

*

गिरूं  जरा तो तुरत उठाती

हर  आहट  पर  दौड़ी  आती

भर भर देती दूध – मलाई

माँ  ममता  का  रस बरसाती

*

सीधी – सादी भोली -भाली

मेरी  माँ पूजा की थाली

नजर  लगे  ना मुझको  कोई

काला  टीका   मुझे   लगाती

*

बिना  कहे  माँ  खूब  समझती

सबकी  चिंता सिर  पर  धरती

अपने दुख को छिपा छिपा कर

घर  में  सुख – संतोष   बढ़ाती

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ “हिंदी साहित्य में प्रभु श्रीराम” विषय पर “महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी” द्वारा “राष्ट्रीय संगोष्ठी “का सफल आयोजन ☆ साभार सुश्री इंदिरा किसलय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 “हिंदी साहित्य में प्रभु श्रीराम” विषय पर “महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी” द्वारा “राष्ट्रीय संगोष्ठी “का सफल आयोजन 🌹

वसंत पंचमी एवं निराला जयंती पर सम्मानित हुये सुधी साहित्यकार

महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी मुंबई एवं महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणे के संयुक्त तत्वावधान में वसंत पंचमी के अवसर पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।जिसमें साहित्य में प्रभु राम, माँ सरस्वती एवं निराला जयंती  पर सुधी वक्ताओं ने अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये।

मीरा जोगलेकर द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना एवं अतिथियों के सत्कार के उपरान्त म .रा. हि. सा .अकादमी के कार्यकारी सदस्य श्री अजय पाठक ने राम मंदिर निर्माण और एतद् विषयक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को विस्तार से समझाया।साथ ही राम कथा में कैकेयी की भूमिका को सर्वथा नूतन पार्श्व दिये।

मुख्य वक्ता हेमलता मिश्र मानवी ने रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण को केन्द्र में रखते हुये मैथिलीशरण गुप्तजी की पंक्तियों से वक्तव्य समाप्त किया—राम तुम्हारा नाम  स्वयं ही काव्य है।कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है।

ओजस्वी युवा कवयित्री श्रद्धा शौर्य ने अपनी जोशीली कविताओं से समां बाँध दिया।

मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार इन्दिरा किसलय ने कहा कि निराला को समग्रतः समझने के लिये निराला होना पड़ता है।लपट की तासीर जानने को लपट होना पड़ता है।

सूर्यकान्त मणि को रत्नराज कहा जाता है।निराला साहित्य जगत में यही स्थान रखते हैं।

विशेष अतिथि रा .तु .म. विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डाॅ मनोज पाण्डेय ने प्रभु राम एवं निरालाजी पर सारगर्भित विचार रखे।

संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय  वर्धा के अधिष्ठाता प्रो .कृष्णकुमार सिंह ने मानस की सरस भावाकुल व्याख्या की।हिंदी साहित्य में प्रभु राम कई भावों में चित्रित, वर्णित एवं अलौकिक रूप में हैं।ऐसे सत् साहित्य को जन जन तक पहुँचाना चाहिए।

म. रा .हिंदी साहित्य अकादमी के सदस्य श्री जगदीश थपलियाल भी मंच को शोभित कर रहे थे।विनोद शर्मा ने”मेरी चौखट पर चलकर प्रभु श्री राम आये हैं” भजन गाकर श्रोताओं में भक्ति रस का संचार किया।

हिंदी की उत्कृष्ट सेवा हेतु”हिंदी सेवा सम्मान 2024″ से साहित्यकार सर्व– रीमा दीवान चड्ढा,सतीश लाखोटिया,तन्हा नागपुरी,अमिता शाह,माधुरी मिश्रा मधु,मीरा जोगलेकर,डाॅ राम मुळे, टीकाराम साहू आजाद,संकेत नायक,माधुरी राऊलकर,एवं विनोद शर्मा को स्मृति चिह्न शाॅल एवं सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया गया।

संगोष्ठी का कुशल साहित्यिक/संयोजन संचालन श्री विनोद नायक तथा आभार प्रदर्शन संजय सिन्हा ने किया।

इस अवसर पर सुनील नायक,अजय पाण्डेय,कृष्णकुमार तिवारी,कमलेश चौरसिया,डाॅ शारदा रोशनखेड़े,निर्मला पाण्डेय,सुबोध शाह,नीरजा नायक, रूबी दास अरु,रीता नायक,स्नेहा शर्मा,आशु लाखोटिया,दक्षेश नायक,प्रमोद गोडे,शिवेश नायक,किशन विश्वकर्मा,चन्द्रकान्त बिल्लोरे,भाविका रामटेके,मंदा बागडे,एवं सुरेन्द्र हरडे आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।

साभार –  सुश्री इंदिरा किसलय 

नागपुर, महाराष्ट्र   

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 211 ☆ माय मराठी… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

? कवितेचा उत्सव # 211 – विजय साहित्य ?

☆ माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

माय मराठी मराठी, बकुळीचा दरवळ

दूर दूर पोचवी गं , अंतरीचा परीमल . . . !

*

कधी ओवी ज्ञानेशाची ,कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह, गाऊ महती संतांची. . . . !

*

संतकवी, पंतकवी,संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे, अभिजात साहित्यात. . . !

*

कधी भक्ती, कधी शक्ती,कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,धावे मराठी ऐटीत. . !

*

माय मराठीची वाचा,लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,नाळ जोडू ह्रदयाशी . . !

*

कधी मैदानी खेळात,कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते,पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

*

कोसा कोसावरी बघ, बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी,कधी कोकणी प्रारूप. . . !

*

माय मराठीचे मळे ,रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती,सृजनाच्या आरशात. . !

*

महाराष्ट्र भाषिकांची,माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

*

अन्य भाषिक ग्रंथांचे,केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे,करूनीया स्थलांतर. . . !

*

शिकूनीया लेक गेला,परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

*

नवरस,अलंकार,वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला,प्रती शब्द नाही दुजा.. !

*

माय मराठीने दिला,कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा. !

*

माय मराठीने दिली,नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ,घुमे अंतरात बोल. . .!

*

माय मराठी मराठी,कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला,तीने अमृताचा बोल. . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ – अभिमान  मराठी…– ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ अभिमान  मराठी ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

माय मराठीच्या दुधाची

साय मी खातो!

गोडवे अभिमानाने

तिचे मी गातो! 

*

अमृताहून असे

मायमराठी  गोड!

ज्ञानदात्या सरस्वतीला

तिचेच असे ओढ!

*

काय सांगू अल्पमती मी

तिची  थोरवी!

हेवा करी  तिचा  तो

तेजपुंज रवी!

*

काय सांगू तिची

ती शीतलला!

शशीला हेवा वाटे

पाहून कोमलता!

*

तिच्या कुशीत बागडले

थोरसंत अन् महाकवी!

गद्य,पद्य, कथा, पटकथा,

रसाळ गाथा अन ओवी!

*

तिची  लेकरे  लावती

झेंडे अटके पार!

दिल्लीचे तख्त राखती

पराक्रम गाजवी अपार!

*

मोकळे पणाने

होतो मराठीत व्यक्त!

धमन्यातून सळसळे

माय मराठीचे रक्त!

*

अभिजात असे माझी

मराठी भाषा!

अज्ञानास ज्ञानी करी

तिच्यात आशा!

*

उंची तिची मोजताना

थिटे  पडे आकाश!

उदरातुन तिच्या वाहे

ज्ञानाचा  प्रकाश!

 

वास्तवरंग

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ माझी मराठी भाषा ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

डॉ. जयंत गुजराती

🔅 विविधा 🔅

माझी मराठी भाषा ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

आपण राहात असलेल्या महाराष्ट्र प्रांतातील आपली मराठी ही प्राचीन प्राकृत भाषा आहे. ती केव्हापासून बोलली जाऊ लागली हे माहित नसले तरी सहाव्या शतकातील राष्ट्रकूटांच्या राजवटीपासून ती बोलली जाऊ लागली असा अंदाज आहे.

श्रवणबेळगोळ येथील नवव्या शतकातील बाहुबलीच्या शिल्पाच्या  पायावर “ चाविंडराये करवियले ” हे  कोरलेले वाक्य सर्वात  जुने व पहिले मराठी लेखन असावे. तेव्हापासून ते बाराव्या शतकापर्यंत अपभ्रंश मराठी बोलली जात होती.

अकराव्या शतकातील महानुभाव पंथातील चक्रधरस्वामींवर मुकुंदराजाने लिहिलेला लीळाचरित्र हा मराठीतील आद्य ग्रंथ होय.

मित्रांनो, महाराष्ट्राची ओळख ही राकट देशा, कणखर देशा, दगडांच्या देशा अशी आहे. अशा या आपल्या प्रांतातील आपली भाषा ही तितकीच रोखठोक, रांगडी तरीही मृदु मुलायम आहे. तलवारीच्या पात्याच्या तेजाची धार असलेली तरीही माणुसकीचा पाझर दगडा दगडांतून स्त्रवणारी ही मराठी माझी माय जणू दुधावरची साय.

शतकानुशतके शेतात घाम गाळणाऱ्या शेतकऱ्याने, अटकेपार झेंडा रोवणाऱ्या मराठा योध्यांचे पोवाडे गाणाऱ्या शाहिरांनी, ढोलकीच्या तालावर थिरकणाऱ्या लावणीने, गावगाडा हाकणाऱ्या बारा बलूतेदारांनी ही आपली मायबोली समृद्ध केली आहे.

महाराष्ट्र ही संतांची भूमी असल्याने मराठी भाषा विठ्ठलाच्या भक्तिरसाने समृद्ध होत गेली आहे. ज्ञानेश्वरांच्या ओवी  , तुकारामांचे अभंग जनमनाच्या ओठी बसले. एकनाथी भागवत, मोरोपंतांची केकावली, केशवसुतांची तुतारी, पठ्ठेबापूरावांपासून ते आजपर्यंतची जगदीश खेबुडकरांची लावणी परंपरा, राम गणेश गडकरीपासूनची नाट्य परंपरा, त्या अगोदरची संगीत नाटके, प्रल्हाद केशव अत्रेंचे कऱ्हेचे पाणी, साने गुरूजींची श्यामची आई, कुसुमाग्रजांची विशाखा, मराठीचे सौंदर्य खुलतच गेले.

खान्देशातील अहिराणी, कोकणातील कोकणी, विदर्भातील वऱ्हाडी प्रांता प्रांतातील वेगवेगळा बाज असलेली मराठी, ई लर्निंगच्या जमान्यातही तितकीच सुंदर, ताजी व टवटवीत आहे. इंग्रजीतही सांगितले की My Marathi तरीही ती माय मराठीच उरते. ज्ञानेश्वरांनी सांगितल्याप्रमाणे,

  माझिया मराठीचे बोलू कवतिके।

  अमृताते पैजा जिंके.।

                         अशीच आहे.

© डॉ. जयंत गुजराती

नासिक

मो. -९८२२८५८९७५ , ईमेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांगून ठेवते… भाग-२ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

☆ सांगून ठेवते… भाग-२ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(तो संपूर्ण बरा होऊ शकतो. फक्त अवधी फार लागतो. कदाचित तीन—चार— पाच वर्षेही लागू शकतात. घरातील लहान मुले आणि इतरांचा विचार करता दादीला तुम्ही…”) – इथून पुढे —

डॉक्टर जसजसे बोलत होते तस तसे माझ्या नसानसात ठोके घणघणत होते. मी पार ढेपाळून गेलोय्  असं वाटत होतं.  एखादा जुना वृक्ष कडकडून कोसळतोय, नाहीतर दूरच्या त्या पर्वताचा कडाच तुटून घरंगळत खाली येतोय असं भासत होतं.

डॉक्टरांनी माझ्या पाठीवर हात ठेवला होता,” मी तुझी मानसिक स्थिती समजू शकतो. समाजात या रोगाबद्दल अजून खूप गैरसमज आहेत. तो अनुवंशिक आहे,  संसर्गजन्य आहे वगैरे वगैरे.”

पण मी दादीला घरी घेऊन आलो तेव्हा अगदी विचित्र मनस्थितीत होतो.  आमच्या कुटुंबावर आलेलं हे एक धर्म संकटच वाटलं मला.  मी याच समाजाचा एक घटक होतो आणि त्या अनुषंगानं माझ्याही मनात एक अनामिक भय दाटलं होतं.  एकीकडे दादीवरचं अपार प्रेम तर, दुसरीकडे स्वतःचच हित, स्वतःच स्वास्थ, प्रतिष्ठा वगैरे.  खरोखरच काय बरोबर, काय योग्य, काहीच सुचत नव्हतं. आमच्या कुटुंबाचा कणाच डळमळीत झाला होता.

दादीची मात्र गडबड चालूच होती.

“ काय म्हणाले डॉक्टर ?इतका का तुझा चेहरा उतरलाय? आणली आहेस नाही औषधं? मी घेईन हो ती वेळेवर, जरा सुद्धा टाळणार नाही बघ.”

“ दादी ही औषधं तुला बरीच वर्ष घ्यावी लागतील. घेशील ना?”

एवढेच मी कसंबसं म्हणालो.

“ काय झाले  आहे मला?तो  कॅन्सर झालाय का? मरणार आहे का मी?”

मग मात्र दादीला मी कडकडून मिठी मारली.” नाही ग दादी तसं काहीच झालेलं नाही तुला. तू मरणार नाहीस. पण  “

पुढे माझे ओठ उघडलेच नाहीत. मग तिनेच माझ्या केसातून मायेने  हात फिरवला. दादीचा तो मायेचा स्पर्श अजून मला माझं लहानपण आठवून देतो.

“ तू असाच रे बाबा! हळवा लहानपणापासून. पायात बोचलेला काटा हि कुणाला काढू द्यायचा नाहीस. कसा रे तू? चांगली आहे मी. बरीच होईल मी. मला काय झालंय?”

पण त्या दिवशी दुपारभर ती झोपून होती. पोटाशी पाय दुमडून. आज ती खरंच थकलेली वाटत होती त्या सर्व वैद्यकीय चाचण्यांमुळे., कुठे कुठे टोचलेल्या सुयांनी ती बेजार झाली होती. तिच्या अंगावर शाल पांघरली तेव्हा वाटलं दादीने काही पाप केले का? या जन्मी नाही तर मागच्या जन्मी? पाप पुण्याचे हे भोग बिचारीला अशा रीतीने चुकते करावे लागणार आहेत का?

नोकरा चाकरांना आठवणीने कामाच्या पसाऱ्यातही पटकन न्याहारी देणारी, कुणाला जास्त काम पडतंय असं वाटलं की पटकन पुढे जाऊन हातभार लावणारी दादी म्हणजे सगळ्यांचा आधार.

मंदाकाकी वारली तेव्हा तिच्या लहान लहान मुलांना रात्रभर धरून बसली. त्यांच्याबरोबर रडली पण आणि त्यांना समजावलं पण

एक मात्र होतं दादी तशी कंजूष  फार! कुणी पैसे मागितले तर पटकन देणार नाही.  फारच कोणी पाठ धरली तर हळूहळू कनवटी  सोडून एखादं  नाणं अगदी जीवावर आल्यासारखं हातावर ठेवेल.  भाजी बाजारात गेली तर घासाघीस करून भाजी  घेईल आणि प्रवासाला निघाली तर हमाल करणार नाही. जमेल तिथे पायी पायीच  जाईल, नातवंडांवर प्रेम करेल खूप पण कुणी कधी शेंगदाणे घेण्याचे म्हटलं तर म्हणेल ,”अरे !या पावसा पाण्याचे शेंगदाणे खाऊ नये. नरम असतात. पोट दुखेल.”

पण हा काय तिचा इतका मोठा अवगुण होता का की त्याची ईश्वराने तिला एवढी मोठी शिक्षा द्यावी. माझ्या मनाला आता एक चाळा लागलाय— दादी बद्दल चुकीचे, काही अयोग्य, काही दूर्वर्तनाचे शोधून काढायचा.

बऱ्याच वेळा दादी म्हणायची,” रुक्मिणी वहिनीवर फार अन्याय झाला रे आपल्या कुटुंबात. तिचा नवरा मेला.  पण तिचा हक्क होता ना इस्टेटीवर. तिला काही मिळू दिले नाही रे कोणी. कुणीच काही तिच्यासाठी करू शकलं नाही. अगदी मी पण नाही. शेवटी संपत्ती म्हटली की जो तो स्वार्थीस बनतो रे !सांगून ठेवते..”

पण त्या रुक्मिणी वहिनींचे शाप, तळतळाट एकट्या दादीलाच लागावेत का?

मग जो जो माझ्या मनात विचार येतात तो तो वाटतं की दादी वाईट नाहीच. कधी कुणाशी भांडत नाही, कुणाचा हेवा मत्सर करत नाही, कुणावर रागा करत नाही, नाही पटलं तर दूर होते, उगीच कलकल करत नाही, कुणाला वाईट शिकवत ही नाही.

समोरच्या माई आमच्याकडे नेहमी येतात. आल्या की त्यांच्या सुनेबद्दल सांगत बसतात. ही अशी ना ही तशी. “कधी नव्हे तर बेबी माहेरपणाला  आली पण ही स्वतःच माहेरी निघून गेली. शोभतं का हे? कधी तिच्या पोरांना हात लावणार नाही, त्यांच्यासाठी काही चांगलं चुंगलं बनवणार नाही. आपणच उठाव आणि आपणच करावं अशा वेळी.”

दादी मात्र  चटकन म्हणते,” बस कर ग! तुझंच चुकतंय. हे बघ मुली परक्या असतात  सुनाच आपल्या असतात. त्यांनाच पुढे आपलं करावं लागणार असतं. आणि  चांगली तर आहे तुझी सून. सगळं तर करते की नीटनेटकं.  गेली असेल एखादे वेळेस माहेरी. त्यांनाही मन असतं सांगून ठेवते..”

दादीच्या बोलण्यावर माई संतापतात, जाता जाता म्हणतात,” तुझं बरं आहे ग बाई. नक्षत्रासारख्या सुना आहेत तुझ्या. तुझी उत्तम बडदास्त ठेवतात, काळजी घेतात.”

मग माईंच्या डुलत जाणाऱ्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे बघत दादी किंचित हसते.  हसताना तिचे ओठ विलग होतात. भुवयांच्या मध्ये एक बारीक लाट उमटते.  तिच्या अशा चेहऱ्याकडे पाहिलं की मला असंच वाटतं की जगातल्या साऱ्या भाव-भावनांना छेदून जाणार  तिचं  हे कणखर  मुकेपण आहे. 

भावना, व्यवहार आणि वास्तववादाच्या वेगवान झोक्यावर माझं मन हिंदकळत आहे. आपण करतोय ते बरोबर आहे का ?आपण स्वार्थी तर नाही? तिने आम्हाला लहानच मोठं केलं. आमच्या सुखदुःखाशी ती तन्मयतेने एकरूप झाली. ज्या कुटुंबासाठी तिचं अंत:करण तिळतिळ तुटलं त्यातून तिला निराळं करणं, अगदी तांदळातल्या खड्यासारखं वेचून बाजूला करणं हे माणुसकीच तरी आहे का? हेच आमच्या बाबतीत कुणाला झालं असतं तर ती अशी वागली असती का? देह, मन एक करून ती आमच्या पाठीशी उभी राहिली असती. तिच्यात प्रचंड सामर्थ्य होतं, मग आपण एवढे थिटे का? आपल्या मनात हे भय का? केवळ स्वतःच्या स्वास्थ्यासाठी, स्वतःच्या सुखासाठी! असेच नव्हे का? आपली भक्ती, श्रद्धा, इतकी लुळी आहे की दादीच्या सहवासात राहण्याचं सामर्थ्य आपल्यात असू नये? आपण दादीची पाठवणी करायला निघालो, तिला दूर ठेवायला तयार झालो.

पण मग मन पुन्हा वास्तवतेचा किनारा गाठतो. यात अयोग्य काहीच नाही आणि हे काही कायमस्वरूपाचं नाही. ही योजना फक्त काही वर्षांसाठीच आहे आणि ती दादीला नक्कीच मान्य होईल  कारण आम्हा सर्वांवर तिचं अपरंपार प्रेम आहे आणि या प्रेमापोटीच ती सारं काही समजून घेईल, निराश होणार नाही.

– क्रमश: भाग दुसरा 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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