हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #273 – कविता – ☆ गीतिका – जलती रही चिताएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गीतिका गीतिका – जलती रही चिताएँ” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #273 ☆

☆ गीतिका – जलती रही चिताएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बने रहो आँखों में ही, मैं तुम्हें प्यार दूँ

नजर, मिरच-राईं से, पहले तो उतार दूँ ।

*

दूर रहोगे तो, उजड़े-उजड़े पतझड़ हम

अगर रहोगे संग-संग, सुरभित बयार दूँ।

*

जलती रही चिताएँ, निष्ठुर बने रहे तुम

कैसे नेह भरे जीवन का, ह्रदय हार दूँ।

*

सुख वैभव में रमें,रसिक श्री कृष्ण कन्हाई

जीर्ण पोटली के चावल, मैं किस प्रकार दूँ।

*

चुका नहीं पाया जो, पिछला कर्ज बकाया

माँग रहा वह फिर, उसको कैसे उधार दूँ।

*

पानी में फेंका सिक्का, फिर हाथ न आया

कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ।

*

दायित्वों का भारी बोझ  लिए  काँधों पर

चाह यही हँसते-हँसते, जीवन गुजार दूँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 97 ☆ जंगल अंगार हो गया ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “जंगल अंगार हो गया”।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 97 ☆ जंगल अंगार हो गया ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

टेसू क्या फूल गए

जंगल अंगार हो गया।

 

सज गई धरा

नवल वधू सी

वृक्षों ने पहने

परिधान राजसी

 

सरसों पर मस्त मदन

पीत वसन डाल सो गया।

 

महुआ रस गंध

बौराया आम

नील फूल कलसी

भेजती प्रणाम

 

सेमल के सुर्ख गाल

अधरों पर प्यार बो गया ।

 

थिरक रही हवा

घाघरा उठाकर

चहक रहे पंछी

बाँसुरी बजाकर

 

तान फागुनी सुनकर

मौसम गुलज़ार हो गया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ? ?

भीड़ का जुड़ना,

भीड़ का छिटकना,

इनकी आलोचनाएँ,

उनकी कुंठाएँ,

विचलित नहीं करतीं

तुम्हें पथिक..?

पथगमन मेरा कर्म,

पथक्रमण मेरा धर्म,

प्रशंसा निंदा से

अलिप्त रहता हूँ,

अखंडित यात्रा पर

मंत्रमुग्ध रहता हूँ,

पथिक को दिखते हैं

केवल रास्ते,

इसलिए प्रतिपल

कर्मण्येवाधिकारस्ते!

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Life Lessons… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Life Lessons…  ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

? ~ Life Lessons…  ??

I don’t regret the things I did wrong,

I regret the good things I did

for the wrong people

Those who point fingers at others,

Sometimes give them a mirror as a gift.

When you point a finger at someone…

Always remember that…

three fingers point towards you..!

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
23 March 2025

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ – ‘Floating in the Dark viscosity…’ – ☆ Mrs. Rupa Bhargava (Ajaat Anant) ☆

Mrs. Rupa Bhargava (Ajaat Anant)

(Mrs. Rupa Bhargava, a.k.a “Ajaat Anant” is a bilingual wordsmith, consultant by day, mother of two and is a seeker of life’s mysteries. Her poems delve into love, life, relationships, spirituality and philanthropy. She has performed at various local and international poetry platforms. She embraces adventure sports, loves to travel, paints, serenades with her voice and guitar.)

☆ ~ ‘Floating in the Dark viscosity…’ ~? ☆ Mrs. Rupa Bhargava (Ajaat Anant) ☆

(The Prize-winning entry in the Literary Warriors Group Contest. The subject of the contest was “परछाइयां” /Shadows”.)

How I play?  and get played, 

By reticent energies thick as tar,

Dark viscosity smears clairvoyance,

Obscure, heavy & opaque as they flow, 

Slithering through the twisted spine, 

Like visceral vines of the dimensions,

She sits there laughing and dancing,

with her supposedly dominant glow,

Unaware shamelessly of her darkness,

and the sifting sands of her existence, 

Parables and eternal paradoxes summons,

The vicious multitude of rhetorical blows,

As I struggle to move, 

stuck in the maze of dense tar,

Pulling myself out with all my 

might and strength,

Everytime aiming to cut through 

the stifling blur,

Fighting the dark viscosity,  

I continue to flow…,

I will always continue to flow.

~Mrs. Rupa Bhargava (Ajaat Anant)

© Mrs. Rupa Bhargava (Ajaat Anant)

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 101 ☆ सादगी बेहिस हुई है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “सादगी बेहिस हुई है “)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 101 ☆

✍ सादगी बेहिस हुई है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सबको अपनी ही पड़ी है शहर में

हाय दिल की मुफ़लिसी है शहर में

*

रात पूनम सी कही पर तीरगी

किस तरह की रोशनी है शहर में

*

बिल्डिंगों के साथ फैलीं झोपडीं

साथ दौलत के कमी है शहर में

*

शानो-शौक़त का दिखावा बढ़ गया

सादगी बेहिस हुई है शहर में

*

हर गली में एक मयखाना खुला

मयकशी ही मयकशी है शहर में

*

जुत रहा दिन रात औसत आदमी

यूँ मशीनी ज़िंदगी है शहर में

*

नाम पर तालीम के सब लुट रहे

फीस आफ़त हो रही है शहर में

*

सभ्य वासी बन रहे पर सच यही

नाम की कब आज़ज़ी है शहर में

*

है अरुण सुविधा मयस्सर सब मगर

कब फ़ज़ा इक गाँव सी है शहर में

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वो बेवफ़ा था चला गया… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – वो बेवफ़ा था चला गया।)

✍ वो बेवफ़ा था चला गया… ☆ श्री हेमंत तारे  

जब जानते हो ग़लत है तो फिर करते क्यों हो

शिकस्त के ग़म में दिन – रात झुलसते क्यों हो

*

गर पाना है खोया प्यार तो ऐलान ऐ जंग करो

ज़माने  से लढो,  यलगार भरो,  डरते क्यों हो

*

वो बेवफ़ा था चला गया, राब्ते में न रहा

तुम बेदार रहो, उसे पाने को तडपते क्यों हो

*

मय का कारोबारी मयखोर हो जरूरी तो नही

वो बाहोश रहता है,  उसे रिंद समझते क्यों हो

*

दौलत- शोहरत का नशा तारी हो उससे पेशतर

कुछ ज़र्फ़ तो पैदा करो, यूं अकडते क्यों हो

*

उसकी फितरत है वो तो गलत बयानी ही करेगा

तुम तो दानिशवर हो,  बहकावे मे आते क्यों हो

*

तमन्ना है ‘हेमंत’, के वो छम्म से आ जाये अभी

आ जाये तो बता देना तुम संजीदा रहते क्यों हो

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 638 ⇒ विचारक और प्रचारक ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारक और प्रचारक।)

?अभी अभी # 638 ⇒  विचारक और प्रचारक ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

विचारक और प्रचारक का रिश्ता भी कुछ कुछ लेखक और पाठक जैसा ही होता है, बस अंतर यह है कि हर पाठक लेखक का प्रशंसक नहीं होता, जब कि हर प्रचारक, विचारक का प्रशंसक भी होता है।

पहले विचार आया, फिर विचार का प्रचार आया। आप चाहें तो विचारक को चिंतक भी कह सकते हैं, लेकिन चिंतक इतना अंतर्मुखी होता है कि उसे अपने विचार से ही फुर्सत नहीं मिलती। हमारी श्रुति, स्मृति और पुराण उसी विचार, गूढ़ चिंतन मनन का प्रकटीकरण ही तो है। जिस तरह वायु, गंध और महक को अपने साथ साथ ले जाकर वातावरण को सुगंधित करती है, ज्ञान का भी प्रचार प्रसार विभिन्न माध्यमों से होता चला आया है।।

चिंतन सामाजिक मूल्यों का भी हो सकता है और मानवीय मूल्यों का भी। विचारक जहां सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा होता है, एक दार्शनिक जीवन के मानवीय और भावनात्मक पहलुओं पर अपनी निगाह रखता है। विचार और दर्शन हमेशा साथ साथ चले हैं। विचार ने ही क्रांतियां की हैं, और विचारों के प्रदूषण ने ही इस दुनिया को नर्क बनाया है। ऐसा क्या है बुद्ध, महावीर, राम और कृष्ण में कि वे आज भी किसी के आदर्श हैं, पथ प्रदर्शक हैं, कोई उन्हें पूजता है तो कोई उन्हें अवतार समझता है। मार्क्स, लेनिन आज क्यों दुनिया की आंख में खटक रहे हैं। विचार ही हमें देव बना रहा है, और विचार ही हमें असुर। देवासुर संग्राम अभी थमा नहीं।

एक अनार सौ बीमार तो ठीक, पर एक विचारक और इतने प्रचारक ! अगर सुविचार हुआ तो सबका कल्याण और अगर मति भ्रष्ट हुई तो दुनिया तबाह। देश, दुनिया, सभ्यता, संस्कृति विचारों से ही बनती, बिगड़ती चली आ रही है। मेरा विचार, मेरी सभ्यता, मेरी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ, हमारा नेता कैसा हो, इसके आगे हम कभी बढ़ ही नहीं पाए। जो विचार भारी, जनता उसकी आभारी।।

आज सबके अपने अपने फॉलोअर हैं, प्रशंसक हैं, आदर्श हैं। सोशल मीडिया और प्रचार तंत्र जन मानस पर इतना हावी है कि आम आदमी की विचारों की मौलिकता को ग्रहण लग गया है। एक भेड़ चाल है, जिससे अलग वह चाहकर भी नहीं चल सकता। आज हमारे पास अच्छे विचारक भले ही नहीं हों, अच्छे प्रचारक जरूर हैं।।

आज का युग विचार का नहीं, प्रचार का युग है। अच्छाई एक ब्रांड है, जो बिना अच्छे पैकिंग, विज्ञापन और ब्रांड एंबेसेडर के नहीं बेची जा सकती। धर्म, राजनीति, आदर्श, नैतिकता और समाज सेवा बिना प्रचार और प्रचारक के संभव ही नहीं। कोई सेवक है, कोई स्वयंसेवक, कोई गुरु है कोई चेला, कोई स्वामी है कोई शिष्य, कोई भगवान बना बैठा है तो कोई शैतान। सबकी दुकान खुली हुई है, मंडी में बोलियां लगवा रही हैं समाजवाद, पूंजीवाद, वंशवाद और राष्ट्रवाद की। सबके आदर्श, सबके अपने अपने विचारक, प्रचारक और डंडे झंडे। मंडे टू संडे। जिसका ज्यादा गल्ला, उसका बहुमत। लोकतंत्र जिंदाबाद।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 14 ☆ लघुकथा – कैनवास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा  – “कैनवास“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 14 ☆

✍ लघुकथा – कैनवास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

वे हर आयोजन में उपस्थित। लगता सबको ध्यान से देख रही हैं। पर मुझे महसूस होता कि वे आँखों से केवल देख रही हैं और आँखों के भीतरी पर्दे पर किसी और का प्रतिबिम्ब है। वे अंदर बाहर दोनों देखती हैं। यही नहीं साठ साल पहले का देखती हैं और आज का भी। सजी संवरी एम्बेसडर में बैठी अपने आप को और हृष्ट पुष्ट युवा पति को और व्हील चेयर पर बैठे बीमार वृद्ध पति को एक साथ देखती हैं, ऐसा लगता।

उनकी दृष्टि बहुत बड़ा कैनवास है, जिस पर हँसता खेलता बचपन, यौवन की अँगड़ाइयॉं, विवाह के सात फेरे, नन्हीं सी जान की छटपटाहट, बच्चों की किलकारियाँ, परिवार की जिम्मेदारियाँ, पति का बिजनेस और अपना स्कूल जब कुछ एक साथ कैनवास पर चलता रहता है। रंग बदलते रहते हैं। दृश्य भी बदलते रहते हैं पर उनकी तारतम्यता कभी भंग नहीं होती। सबसे बड़ी बात है कि आँखों में शून्यता पर चेहरे पर सदाबहार मुस्कान जो सबको आकर्षित करती।

मुझे किसी कारण शहर छोडना पड़ा। गर्मी का मौसम समाप्त होकर बरसात का मौसम आने वाला है। श्रावण मास चल रहा है। मुझे डाक से एक लिफाफा मिला। खोल कर देखा तो उसमें राखी थी और दो पंक्तियों की चिट्ठी, समय पर बाँध लीजिएगा। जब हम एक ही शहर में थे तब कभी ऐसा नहीं हुआ, बस हर पर्व व अवसर पर शुभकामनाओं का आदान प्रदान होता। मेरे हाथ में उनकी भेजी राखी है और मस्तिष्क में शून्यता में खोई उनकी नजरें। और अब मेरी आंखें भी कैनवास बन गईं। सब कुछ कैनवास पर चित्रित हो रहा है।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 64 – बुढ़ापा… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 64 – क्षमादान श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रागिनी का बारहवीं कक्षा का रिजल्ट आया तो वो फेल हो गई थी। मां बचपन में ही चल बसी थी।

पापा के गुस्से के डर से उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?  जीवन बोझ लग रहा था। उसे याद आ रहा था जब पिछली क्लासों में वह किसी तरह पास होती थी तब पापा उसे बहुत मारते थे। भैया भाभी जीना मुश्किल कर देंगे। घर का काम तो पूरा करवाते ही हैं पढ़ने भी नहीं  देते। जाने अब क्या होगा?

पिताजी जब ऑफिस से घर आए तो रागिनी थर-थर काँपने लगी। साथ ही भैया भाभी भी ऑफिस से घर आ गए।

पापा ने कहा- “बेटी चिंता मत करो, और मन लगाकर पढ़ाई करो। यदि तुम पढ़ाई नहीं करना चाहती तो बता दो दूसरे और भी प्रोफेशनल कोर्स हैं जो तुम कर सकती हो? सिलाई, कढ़ाई और पार्लर का कोर्स भी कर सकती हो? खाना तुम कितना अच्छा बनाती हो, ड्राइंग भी अच्छा करती हो। जो काम अच्छा लगे वही करो, डरो मत।”“

उसने कहा कि- “पापा में पार्लर का कोर्स करूंगी और साथ ही फिर से 12वीं की परीक्षा दूंगी इस बार मैं अच्छा करके दिखाऊंगी? आपने इतना विश्वास किया है।”

क्षमादान पाकर उसमें एक नया उत्साह जाग गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares