हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 191 ☆ सिरमौर विरंचि विचार सँवारे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सिरमौर विरंचि विचार सँवारे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 191 ☆ सिरमौर विरंचि विचार सँवारे

भारतीय संस्कृति का आधार जिसने समझ लिया उसके लिए जीवन एक उत्सव की तरह हो जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जब हमारे भीतर समाहित होगा तब हम व्यक्ति से ज्यादा समष्टि को महत्व देने लग जाते हैं। कण- कण में भगवान को महसूस कर, धरती को माँ मानकर नदियों से अमृत स्वीकार कर, गीता का ज्ञान हृदय में बसा कर कर्म तो करते हैं पर फल की चिंता नहीं करते।

मैं (अहंकार) का भाव जब तक तिरोहित नहीं होगा तब तक सब कुछ सहजता से स्वीकार करना आसान नहीं होता। व्यक्ति क्रोध, लोभ मोह, माया से ग्रसित हो पृथ्वी लोक में भटकता रहेगा।

कर्म हमेशा सही योजना बनाकर करें। राह और राही दोनों को सत्यमार्ग का वरण करते हुए सहजता से आगे बढ़ना चाहिए जिससे प्रकृति का आनन्द उठाते हुए नर्मदा के कण- कण में शंकर बसते हैं इसे आप जी सकें, महसूस कर सकें अमृत तुल्य निर्मल जल की उद्गम धारा को आत्मसात कर सकें। किसी भी विशाल वृक्ष को देखें उसमें पंछी कितने उन्मुक्त भाव से अपने जीवन को बिताते हैं, प्रातः दूर आकाश में उड़ान भरते हुए अपने भोजन की तलाश में जाते हैं और शाम होने से पहले अपने घोसले में वापस आते हैं।

इसी तरह ऋतुओं का बदलाव भी कितना सहजता से होता है बिल्कुल बच्चे की मुस्कान जैसे, जो खेलते हुए चोट लगने पर रोता तो है पर माँ के पुचकारने से पुनः आँसू पोछता हुआ खेलने भाग जाता है। क्या हम ऐसा जीवन नहीं जी सकते ? आकाश की विशालता, पंछी की उन्मुक्तता, बच्चों की सहजता, धरती से धीरज, वृक्षों से निरंतर देते रहने का, प्रकृति से परिवर्तन का भाव ग्रहण कर सहजता से मानव धर्म का पालन करते हुए जीवन नहीं जी सकते ?

अभी भी समय है ये सब चिंतन हमें अवश्य करना चाहिए जिससे हमारा और भावी पीढ़ी का जीवन सरल होकर हर्षोल्लास में व्यतीत हो।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा ? बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत ही न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं पर वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या कोई लाभ मिला ?

यकीन मानिए इसका उत्तर, शत- प्रतिशत लोगों का न ही होगा। अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप अपने हृदय व सोच को विशाल करेंगे सारी समस्याएँ अपने आप हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के, चिंतन कीजे काज।

सच्चे चिंतन मनन से, पूरण सुफल सुकाज।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 343 ⇒ विचारों का आखेट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों का आखेट।)

?अभी अभी # 343 ⇒ विचारों का आखेट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

शेर को जंगल का राजा कहा गया है। एक जंगल हमारे विचारों का भी है, और हम ही उस जंगल के राजा हैं। एक शेर की तरह हम अपने विचारों के जंगल में निर्विघ्न घूमते हैं, जब भी हमें भूख लगती है, हम अपने ही विचारों का आखेट कर लेते हैं।

हमारे विचारों के इस जंगल में प्रवेश तो कोई भी कर सकता है, लेकिन हमारे अदृश्य विचारों का शिकार नहीं कर सकता। विचार हमारे मन के आंगन में निर्द्वंद्व विचारा करते हैं। एक उड़ती चिड़िया की तरह हमें अपने ही विचारों को शब्दों और लेखनी के पिंजरे में कैद करना पड़ता है। आप चाहें तो हमारे मन को विचारों का चिड़ियाघर अथवा अजायबघर भी कह सकते हैं।।

आत्मा की तरह ही विचार भी अमर हैं। विचार प्रकट और अप्रकट दोनों होते हैं, प्रकट विचारों का कोई कॉपीराइट नहीं होता। लेकिन पुस्तक के रूप में प्रकट विचारों का कॉपीराइट हो सकता है।

मनुष्य के अप्रकट विचार एक ऐसा अक्षुण्ण भंडारगृह है, कुबेर का खजाना है, गोडाउन है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता।

हमारी विचार गंगा कहां से निकलती है, कोई नहीं जानता, इसका कोई गोमुख नहीं, लेकिन इस ज्ञान रूपी गंगासागर के गर्भ में कितने मोती हैं, कोई नहीं जानता।

जो प्रकट है, वह अनमोल मोती है, और जो अभी अप्रकट है, उसकी कोई थाह नहीं।।

एक ऐसा नंदन कानन है हमारा मन, जिसमें स्मृतियों और संकल्प विकल्पों के बीच नए विचार भी पनप रहे हैं। इधर मन ने संस्कार संचित किया उधर विचार पीछे पीछे चले आए बाराती की तरह। अमृत मंथन की तरह हमारे विचारों का भी मंथन चलता रहता है। अफसोस, अमृत तो सभी चाहते हैं, लेकिन यहां किसी नीलकंठ विषपायी का नितांत अभाव है।

पृथ्वी के गर्भ की तरह ही हमारे विचारों और संस्कारों के गर्भ में क्या है, कौन जानता है। जब विचारों का निर्झर बाहर आता है, तब ही पता चलता है, यह गुप्तगंगा है अथवा कोई ज्वालामुखी। कहीं प्रेम की गंगा तो कहीं नफरत का ज्वालामुखी।

विचारों में आग भी है, ठंडक भी, अमृत भी है और जहर भी। हमारे मन के नंदन कानन में केवल फूल ही खिले, कांटे नहीं, प्रेम और अमृत ही संचित हो, नफरत का ज़हर नहीं, इसका केवल एक ही उपाय है, नीलकंठ महादेव की शरण ;

हे नीलकंठ, हे महादेव

ऐसी कृपा अब कर दो।

मेरे मन में जहर भरा है

उसको अमृत कर दो।।

हे नीलकंठ, हे महादेव , ,

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चट्टान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – चट्टान ? ?

मैं

चट्टान बनकर खड़ा हूँ

प्रवाह के बीचों-बीच

वह

नदी बनकर

मेरे इर्द-गिर्द बह रही है

समीक्षा के शौकीन

प्रवाह की तरलता

और सरलता की

आदर्श कथा सुना रहे हैं

बगैर तथ्य जाने-समझे

मुझ पर संवेदनहीन,

जड़ और भोथरा

होने का आरोप लगा रहे हैं,

मैं चुप हूँ

वैसा ही, जैसे तब था,

तब…जब, वह

अपने सारे उफान,सारे तूफान

सारा आक्रोश,सारा असंतोष

मुझसे बयान करती

मेरे सीने से लगती

मुझसे लिपटती

कहती,सुनाती और रोती,

उसके भीतर जमा

सबकुछ प्रवाहित होने लगता

वह हल्की होती

शनैः-शनैः नदी बन

बहने लगती

….और मैं

भीतर ही भीतर समेटे

सारे झंझावत

निःशब्द खड़ा रह जाता,

उसे प्रवहमान करने

की प्रक्रिया में

सारा भीतर

भीतर ही भीतर सूख जाता,

ये सूखा भीतर

नित विस्तार पाता रहा

वह हर क्षण प्रवाह होती गई

मैं हर पल पाषाण होता रहा,

अब वह उछलती-कूदती नदी है

मैं हूँ निर्जीव चट्टान,

पर प्रवाह का

इतिहास लिखनेवालों का

है कहना;

हर नदी के लिए

आवश्यक है

एक चट्टान का होना! 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 276 ☆ आलेख – सच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख सच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 276 ☆

? आलेखसच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य ?

सीधे सरल अर्थ में साहित्यिक  सम्मान साहित्यकार की रचना धर्मिता के प्रति किसी संस्था के कृतज्ञता बोध का प्रतीक होना चाहिए। जिसका असम्मान सर्वथा अनुचित है। किंतु, वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में साहित्यकारों को प्रदान किए जाने वाले सम्मान कई तरह से दिए जा रहे हैं।

कहीं साहित्यकार से संस्था की सदस्यता या अन्य बहाने से राशि लेकर, तो कहीं सिफारिश के आधार पर चयन होता दिखता है। कहीं किसी स्वनाम धन्य बड़े अफसर या प्रभावी व्यक्तित्व से कोई अप्रत्यक्ष लाभ की प्रत्याशा में सम्मान किया जाता है, तो कहीं पुरुस्कार राशि वापस ले कर सौदेबाजी देखने मिल रही है। इस तरह के सम्मान स्वतः ही कालांतर में अपनी साख खो देते हैं।

राजनैतिक कारणों से लिए दिए गए सरकारी सम्मानों की वापसी के प्रकरण पढ़ने सुनने को मिलते रहे हैं, स्पष्टतः पुरस्कारों के ये असम्मान नैतिक क्षुद्रता के भौंडे प्रदर्शन हैं। 

संक्षिप्त में कहें तो साहित्यकारों के सच्चे सम्मान उनके सारस्वत कृतित्व को और जिम्मेदार बनाते हैं, और ऐसे सम्मान का असम्मान नितांत गलत है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #43 ☆ कविता – “वोह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 43 ☆

☆ कविता ☆ “वोह…☆ श्री आशिष मुळे ☆

खेल खेल में क्या सीखे

बने राजा फ़िर भी हारे

उसे कभी समझ ना पाए

खेल सारा वोह चलाए

 *

वोह चाहे उसको जिताए

चाहें मर्जी किसीको रुलाए

एक नज़र में जहां भुलाए

बर्फ़ को भी आग बनाए

 *

वोह देखें तो भी मौत

ना देखें तो भी मौत

इतनी ताकत किसमे होत

बगैर उसके जिंदगी रोत

 *

आलम दुनिया उसकी दीवानी

हर नक्श में उसकी निशानी

है औरत या है कहानी

हर रास्ते की मंज़िल सुहानी…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #166 – बाल कहानी – जादू से उबला दूध ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “बाल कहानी – जादू से उबला दूध)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 166 ☆

बाल कहानी – जादू से उबला दूध ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

“आओ रमेश,” विकास ने रमेश को बुलाते हुए कहा, “मैं जादू से दूध उबाल रहा हूँ। तुम भी देख लो।”

“हाँ, क्यों नहीं?, में भी तो देखें कि जादू से दूध कैसे उबाला जाता है?” रमेश ने बैठते हुए कहा।

” भाइयों, आपे से मेरा एक निवेदन है कि आप लोग मैं जिधर देखें उधर मेत देखना। इस से जादू का असर चला जायेगा और आकाश से आने वाली बिजली से यह दूध गरम नहीं होगा। “विकास ने कहा और एक कटोरी में बोतल से दूध उँडेल दिया।

“अब मैं मंत्र पढूँगा। आप लोग इस दूध की कटोरी की ओर देखना।” यह कहकर विकास ने आसमान की ओर मुँह करके अपना एक हाथ आकाश की और बढ़ाया, ” ऐ मेरे हुक्म की गुलाम बिजली !  चल जल्दी आ! और इस दूध की कटोरी में उतर जा।”

विकास एक दो बार हाथ को झटक कर दूध की कटोरी के पास लाया, “झट आ जा। लो वो आई,”  कहने के साथ विकास ने दूध की कटोरी की ओर निगाहें डाली। उस दूध की कटोरी में गरमागरम भाप उठ रही थी। देखते ही देखते वह दूध उबलने लगा। विकास ने दूध की कटोरी उठा कर दो चार दोस्तों को छूने के लिए हाथ में दी, ” देख लो, यह दूध गरम है?”

” हाँ,” नीतिन ने कहा,  “मैंने पहले भी कटोरी को छू कर देखा था। वह ठंडी थी और दूध भी ठंड था।”

अब विकास ने कटोरी का दूध बाहर फेंक दिया। तब बोला, ” यह दूध जादू से नहीं उबला था।”

“फिर?” रमेश ने पूछा।

“मैं ने मंतर पढ़ने और बिजली को बुलाने के लिए ढोंग के बहाने इस दूध में चूने का डल्ला डाल दिया था। इससे दूध गरम हो कर उबलने लगा। यह कोई जादू नहीं है।”

“यह एक रासायनिक क्रिया है इसमें चूना दूध में उपस्थित पानी से क्रिया करके ऊष्मा उत्पन्न करता है। जिससे दूध गरम हो कर उबलने लगता है।” विकास ने यह कहा तो सबने तालियां बजा दी।

” लेकिन ऐसे दूध को खानेपीने में उपयोग न करें दोस्तों!” विकास ने सचेत किया।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 200 ☆ बाल गीत – काश ! परी यदि मैं बन जाता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 200 ☆

बाल गीत – काश ! परी यदि मैं बन जाता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

काश ! परी यदि मैं बन जाता।

अपने नाना से मिल आता।।

 *

नाना मेरे बड़े दुलारे।

मेरे हैं आँखों के तारे।।

 *

खेल खेलता मैं मुस्काता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।।

 *

मेरे नाना इतने अच्छे।

वे बिल्कुल बन जाते बच्चे।।

 *

मैं तो अपने पास सुलाता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।।

 *

मम्मा पार्क नहीं ले जातीं ।

देर रात तक मुझे जगातीं।

 *

नाना के सँग दौड़ लगाता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।

 *

नाना जगते सुबह – सकारे।

योग कराएँ न्यारे – न्यारे।।

 *

लप्पा लोरी सँग – सँग गाता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।।

 *

नाना मेरे कभी न डाँटें।

मम्मा झट से मारे चाँटे।।

 *

संग – साथ में भोजन खाता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।।

 *

नाना सपनों में आ जाते।

मुझ पर अपना प्यार लुटाते।।

 *

मेरा सपना सच हो जाता।

काश ! परी यदि मैं बन जाता।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तूच तू… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तूच तू… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

निष्क्रियता की विधायक,

तूच कर्ता नि करविता.

तूच दाता,तूच ज्ञाता,

निर्गुण तू , तू विधाता .

उच्चार तू ,अनुच्चार तू.

तू माैनाची मूकसंहिता.

तू उदासी,हास्य तू,

तमस तू ,तू सविता.

उसळता दर्याच तू,

तू प्रवाही संथ सरिता .

तूच कागद, शब्द तू,

कलम तू, तू प्रतिभा.

बद्ध तू,मुक्त तू,

व्यापून रिक्त मन,अवघे सनातन ,

तूच तू, तू कविता,तू कविता.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – “नाही वहिनी. आम्ही आणि डॉक्टरांनी काहीच केलेले नाही. आम्ही फक्त निमित्त होतो. बाळ वाचलंच नाहीय फक्त तर ते ‘वर’ जाऊन परत आलंय.” लेले काका सांगत होते,”आत्ता पहाटे आम्ही इथे आलो ते मनावर दगड ठेवून पुढचं सगळं अभद्र निस्तरण्याच्या तयारीनेच आणि इथे येऊन पहातो तर हे आक्रित! दादा, तुम्हा दोघांच्या महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच या चमत्कार घडलाय.बाळ परत आलंय.”

या आणि अशा अनेक अनुभवांचे मनावर उमटलेले अमिट ठसे बरोबर घेऊनच मी लहानाचा मोठा झालोय.सोबत ‘तो’ होताच…!)

पुढे तीन वर्षांनी बाबांची कुरुंदवाडहून किर्लोस्करवाडीला बदली झाली ते १९५९ साल होतं. कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वी आई न् बाबा दोघेही नृसिंहवाडीला दर्शनासाठी गेले.आता नित्य दर्शनाला येणं यापुढे जमणार नाही याची रुखरुख दोघांच्याही मनात होतीच. आईने दर पौर्णिमेला  वाडीला दर्शनाला येण्याचा संकल्प मनोमन सोडून ‘माझ्या हातून सेवा घडू दे’ अशी प्रार्थना केली आणि प्रस्थान ठेवलं!

किर्लोस्करवाडीला पोस्टातल्या कामाचं ओझं कुरुंदवाडपेक्षाही कितीतरी पटीने जास्त होतं.पूर्वी घरोघरी फोन नसायचे.त्यामुळे ‘फोन’ व ‘तार’ सेवा पोस्टखात्यामार्फत २४ तास पुरवली जायची.त्यासाठी पोस्टलस्टाफला दैनंदिन कामांव्यतिरिक्त जादा

रात्रपाळीच्या ड्युटीजनाही जावे लागायचे. त्याचे किरकोळ कां असेनात पण जास्तीचे पैसे मिळायचे खरे, पण ती बिले पास होऊन पैसे हातात पडायला मधे तीन-चार महिने तरी जायचेच. इथे येऊन बाबा अशा प्रचंड कामाच्या दुष्टचक्रात अडकून पडले.त्यांना शांतपणे वेळेवर दोन घास खाण्याइतकीही उसंत नसायची. दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दत्तदर्शनासाठी जायचा आईचा नेम प्रत्येकवेळी तिची कसोटी बघत सुरू राहिला होता एवढंच काय ते समाधान. पण तरीही मनोमन जुळलेलं अनुसंधान अशा व्यस्ततेतही बाबांनी त्यांच्यापध्दतीने मनापासून जपलं होतं. किर्लोस्करवाडीजवळच असलेल्या रामानंदनगरच्या आपटे मळ्यातल्या दत्तमंदिरातले नित्य दर्शन आणि सततचे नामस्मरण हा त्यांचा नित्यनेम.कधीकधी घरी परत यायला कितीही उशीर झाला तरी त्यांनी यात कधीही खंड पडून दिला नव्हता!

मात्र बाबांच्या व्यस्ततेमुळे घरची देवपूजा मात्र रोज आईच करायची. माझा धाकटा भाऊ अजून लहान असला तरी त्याच्यावरच्या आम्हा दोन्ही मोठ्या भावांच्या मुंजी नुकत्याच झालेल्या होत्या. पण तरीही आईने पूजाअर्चा वगैरे बाबीत आम्हा मुलांना अडकवलेलं नव्हतं. या पार्श्वभूमीवरचा एक प्रसंग…

पोस्टलस्टाफला किर्लोस्कर कॉलनीत रहायला क्वार्टर्स असायच्या. आमचं घर बैठं,कौलारू व सर्व सोयींनी युक्त असं होतं. मागंपुढं अंगण, फुलाफळांची भरपूर झाडं, असं खऱ्या ऐश्वर्यानं परिपूर्ण! आम्ही तिथे रहायला गेलो तेव्हा घरात अर्थातच साधी जमिनच होती. पण कंपनीतर्फे अशा सर्वच घरांमधे शहाबादी फरशा बसवायचं काम लवकरच सुरू होणार होतं. त्यानुसार आमच्याही अंगणात भिंतीना टेकवून शहाबादी फरशांच्या रांगा रचल्या गेल्या.

त्याच दिवशी देवपूजा करताना आईच्या लक्षात आलं की आज पूजेत नेहमीच्या दत्ताच्या पादुका दिसत नाहीत. देवघरात बोटांच्या पेराएवढ्या दोन चांदीच्या पादुका होत्या आणि आज त्या अशा अचानक गायब झालेल्या!आई चरकली.अशा जातील कुठ़ न् कशा?तिला कांहीं सुचेचना.ती अस्वस्थ झाली. तिने कशीबशी पूजा आवरली. पुढची स्वयंपाकाची सगळी कामंही सवयीने करीत राहिली पण त्या कुठल्याच कामात तिचं मन नव्हतंच. मनात विचार होते फक्त हरवलेल्या पादुकांचे!

खरंतर घरी इतक्या आतपर्यंत बाहेरच्या कुणाची कधीच ये-जा नसायची. पूर्वीच्या सामान्य कुटुंबात कामाला बायका कुठून असणार?

धुण्याभांड्यांसकट सगळीच कामं आईच करायची. त्यामुळे बाहेरचं कुणी घरात आतपर्यंत यायचा प्रश्नच नव्हता. आईने इथं तिथं खूप शोधलं पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.

बाबा पोस्टातून दुपारी घरी जेवायला आले. त्यांचं जेवण पूर्ण होईपर्यंत आई गप्पगप्पच होती. नंतर मात्र तिने लगेच ही गोष्ट बाबांच्या कानावर घातली.ऐकून बाबांनाही आश्चर्य वाटलं.

“अशा कशा हरवतील?”

“तेच तर”

“सगळीकडे नीट शोधलंस का?”

“हो..पण नाही मिळाल्या”

आई रडवेली होऊन गेली.

“नशीब, अजून फरशा बसवायला गवंडीमाणसं आलेली नाहीत.”

“त्यांचं काय..?”

“एरवी त्या गरीब माणसांवरही आपल्या मनात कां होईना पण आपण संशय घेतलाच असता..”

त्या अस्वस्थ मनस्थितीतही बाबांच्या मनात हा विचार यावा याचं त्या बालवयात मला काहीच वाटलं नव्हतं,पण आज मात्र या गोष्टीचं खूप अप्रूप वाटतंय!

नेमके त्याच दिवशी गवंडी आणि मजूर घरी आले. पूर्वतयारी म्हणून त्यांनी जमीन उकरायला सुरुवात केली. त्यानिमित्ताने घरातले सगळे कानेकोपरेही उकलले गेले. पण तिथेही कुठेच पादुका सापडल्या नाहीत. पूजा झाल्यानंतर आई ताम्हणातलं तीर्थ रोज समोरच्या अंगणातल्या फुलझाडांना घालायची. ताम्हणात चुकून राहिल्या असतील तर त्या पादुका त्या पाण्याबरोबर झाडात गेल्या असायची शक्यता गृहीत धरून त्या फुलझाडांच्या भोवतालची माती खोलवर उकरून तिथेही शोध घेतला गेला पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.

मग मात्र आईसारखेच बाबाही अस्वस्थ झाले. नेहमीप्रमाणं रोजचं रुटीन सुरू झालं तरी बाबांच्या मनाला स्वस्थता नव्हतीच.कुणाकडूनतरी  बाबांना समजलं की जवळच असणाऱ्या पलूस या गावातील सावकार परांजपे यांच्या कुटु़ंबातले एक गृहस्थ आहेत जे पूर्णपणे दृष्टीहीन आहेत.ते केवळ अंत:प्रेरणेने हरवलेल्या वस्तूंचा माग अचूक सांगतात अशी त्यांची ख्याती आहे म्हणे.बाबांच्या दृष्टीने हा एकमेव आशेचा किरण होता! बाबा स्वत: त्यांनाही जाऊन भेटले. आपलं गाऱ्हाणं आणि मनातली रूखरूख त्यांच्या कानावर घातली. त्यांनीही आपुलकीने सगळं ऐकून घेतलं. काहीवेळ अंतर्मुख होऊन बसून राहिले.तोवरच्या त्यांच्या चेहऱ्यावरच्या शांतपणाची  जागा हळूहळू काहीशा अस्वस्थपणानं घेतलीय असं बाबांना जाणवलं. त्यांची अंध,अधूदृष्टी क्षणभर समोर शून्यात स्थिरावली आणि ते अचानक बोलू लागले.बोलले मोजकेच पण अगदी नेमके शब्द!

“घरी देवपूजा कोण करतं?” त्यांनी विचारलं.

“आमची मंडळीच करतात”

बाबांनी खरं ते सांगून टाकलं.

” तरीच..”

“म्हणजे?”

” संन्याशाची पाद्यपूजा स्त्रियांनी करून कसं चालेल?”

“हो पण.., म्हणून..”

” हे पहा ” त्यांनी बाबांना मधेच थांबवलं.” मनी विषाद नको, आणि यापुढे हरवलेल्या त्या पादुकांचा शोधही नको. त्या कधीच परत मिळणार नाहीत.”

” म्हणजे..?”

” त्या हरवलेल्या नाहीयत. त्या गाणगापूरच्या पादुकांमध्ये विलीन झालेल्या आहेत.”

बाबांच्या मनातली अस्वस्थता अधिकच वाढली.कामात मनच लागेना ‘घडलेल्या अपराधाची एवढी मोठी शिक्षा नको’ असं आई-बाबा हात जोडून रोज प्रार्थना करीत विनवत राहिले.भोवतालच्या मिट्ट काळोखातही मनातला श्रध्देचा धागा बाबांनी घट्ट धरुन ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती पण ती फरुद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार होणं आवश्यक होतं!आणि एक दिवस अचानक……?

क्रमश: दर गुरुवारी

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ काचेचा स्वर्ग… (अनुवादित कथा) – भाग-1 – डॉ अमिताभ चौधुरी ☆ सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? जीवनरंग ?

काचेचा स्वर्ग… (अनुवादित कथा) – भाग-1 – डॉ अमिताभ चौधुरी ☆ सौ. गौरी गाडेकर

पौषातली दुपार निरोप घ्यायच्या तयारीत होती. थंड वारा  सुटला  होता. धरणीधरची धाकटी मावशी आणि तिचे पती आले होते.  धरणीधर- मुग्धा हे पती-पत्नी  उतरत्या उन्हाची  दुलई  ओढून त्यांच्यासोबत गप्पा मारत होते. 

“चहा कधी करणार?” धरणीधरने हातावर हात चोळत विचारलं,” काय काका! एक-एक कप गरम चहा मिळाला,तर रक्त गोठण्यापासून आपली सुटका होईल ना!” 

मुग्धा हसतहसत उठून उभी राहिली.”जरा कुठे मावशींबरोबर बोलत होते,तर मध्येच…”

डॉ अमिताभ चौधुरी 

“सॉरी मॅम, पण मोठमोठ्या लोकांचं बोलणं एका खेपेत थोडंच आटोपतं? बोलणी तर चालूच राहतात. आता हिंदुस्थान-पाकिस्तानच्या बोलण्यांचं ,वाटाघाटींचं बघा ना. चहा करून आण. मग गप्पांचा दुसरा एपिसोड चालू करू या.”

मुग्धा स्वयंपाकघरात  गेली,तोच टेबलावरचा धरणीधरचा फोन वाजायला लागला.

मुग्धाने हाक मारली,”अहो, तुमचा फोन वाजतोय.” 

“यावेळी कोणाचा फोन?” धरणीधरला खुर्ची सोडून उठावंच लागलं. नाव धरणीधर,पण  मोबाईलचं ओझंपण त्याला पेलवत नाही. तो भार,तो पत्नीवरच सोपवतो. 

“हॅल्लो!” पलीकडून आवाज आला. पण रस्त्यावरच्या कलकलाटाने ते शब्द स्वाहा केले. 

“कोण बोलतंय?” 

“अरे,धरणी. मी शंभुदयाल बोलतोय. ओळखलंस?” एक अस्पष्ट आवाज स्मृतीच्या सागरापलीकडून हलक्या हाताने टकटक करत होता. 

“अरे यार! कसा आहेस? किती दिवसांनी! ” 

“दिवस नाही.वर्षं म्हण.बस्स! अडतीस वर्षं नोकरी करून आता रिटायर झालोय. बसल्याबसल्या जुन्या मित्रांना फोन करतोय.”

“वा! पण माझा नंबर कसा मिळाला?”

“अरे,मोहनकडून मुरलीचा, मुरलीकडून मोतीलालचा..असं करत करत मिळाला.” 

“काय म्हणतोयस? रिटायरमेंटनंतर मुक्काम कुठे?” 

“परत आलो बनारसला. सर्वांहून सरस,आमची काशी-बनारस. जमुहरा बाजारात ढीगभर लोकांनी घरं बांधली.रिटायर होत गेले आणि तिथेच फॅक्टरीपासून लांब जमीन विकत घेऊन घरं बांधत गेले.तीन-चार एकर जमिनीत लोक घर बांधतात. तेवढ्या पैशात बनारसमध्ये कबुतरांच्या कॉलनीतलं एखादं खुराडंपण मिळणार नाही.”  

“आणि मुलं? ती काय करतात?”

थोडा वेळ शंभुदयालचा आवाजच बंद झाला.

नंतर ” मला दोन मुलगे आहेत. दोघेही सेटल  झालेत. मोठा बंगलुरूच्या सॉफ्टवेअर कंपनीत इंजिनिअर आहे.  धाकटा भोपाळच्या एका पॉलिक्लिनिकशी अटॅच्ड आहे.”

“वा,बच्चू! मला वाटतं,तू एकदा फोनवर बोलला होतास,मोठा मुलगा इंजिनिअर आणि धाकटा डॉक्टर. म्हणजे  लक्ष्मी तुझ्या घरी पाणी भरतेय, म्हणायची.”

“तुझ्या मुलीचं लग्न झालं ना? ती ऑस्ट्रेलियात असते म्हणे.”

“हो.”

“आणि तुझा मुलगा टाटा सायन्स इन्स्टिट्यूटमध्ये पीएचडी करतोय ना?” 

“अरे! तू तर सीआयडीसारखी  सगळी इन्फॉर्मेशन गोळा केलीयस.”

” हा हा! माझं काय? दिवसभर बसून असतो. प्रायमरीपासून कॉलेजपर्यंतच्या जुन्या मित्रांना – ज्यांचे नंबर आहेत माझ्याकडे, त्यांना फोन करत राहतो. कोणाला तुझ्याविषयी विचारतो.मग तुझ्याकडून दुसर्‍या कोणाचीतरी माहिती काढीन. बस्स. इन्फॉर्मेशन कम्प्लिट.” 

हायस्कूलमधल्या दोन मित्रांच्या गप्पा अशाच चालू राहिल्या. 

“जगन्नाथ तुझा जिवलग मित्र होता. तो कसा आहे,ठाऊक आहे का तुला?” शंभुदयालने विचारलं,” काही वर्षांपूर्वी मालाची डिलिव्हरी घ्यायला आसनसोलला गेलो होतो, तेव्हा मला भेटला होता.”

“काय सांगू तुला? तो अगदी एकटा पडलाय आता,” धरणीचा आवाज उदास झाला,”मुलगी चेन्नईला नोकरी करते. आणि मुलगा भुवनेश्वरला. मला वाटतं,त्याचं शिक्षण अजून पुरं नाही झालं.”

“चांगलंच आहे की! पण एकटा पडलाय म्हणजे?”

” त्याच्या बायकोला कॅन्सर झाला होता. तेव्हा बिचारा मुंबईला टाटा मेमोरिअल हॉस्पिटल आणि कुठे कुठे धावाधाव करत होता. पण कॅन्सर म्हणजे असला रोग ,साक्षात यमराजाशी गाठ. त्यानंतर कधी भेटला नाही तुला तो?”

“नाही. माझ्याकडे त्याचा नंबर नाही. तुझ्याकडे कधी येईन,तेव्हा त्याचा नंबर घेईन. आणि बोलेन त्याच्याशी.”

“नक्की ये. या म्हातारपणात बालपणीच्या गप्पा होतील.”

” बरोबर बोललास. काय सांगू? त्रेसष्ट वर्षांचा होता होता सहाशे तीस रोग लागले माझ्यामागे.”

” चल. नंतर  गप्पा मारू या. शिवीगाळ करू या. भेटायला आलास,की चहा पाजीन आणि इरसाल बनारसी शिव्यांनी तुझं आदरातिथ्य करीन. आता मावशी आणि काका आले आहेत.”

“ठीक आहे. भेटू या कधीतरी.”

“नक्की ये. अपॉइंटमेंट घ्यायची गरज नाही. पण एक फोन कर. नाहीतर तू यायचास आणि नेमकं त्याच वेळी आम्ही दोघं दहा मिनिटांसाठी बाहेर जायचो. ओ.के.”

फोन ठेवून धरणीधर मावशी-काकांकडे आला. 

“पहिलीपासून आम्ही एका वर्गात होतो. हायस्कूलपर्यंत बरोबर होतो. मग दोघांचे सब्जेक्ट वेगवेगळे झाले. मी वेगळ्या कॉलेजमधून इंटर केलं.”

” पहिल्या इयत्तेतला मित्र! अरे वा!” मावशीचा चेहरा खुलला. 

“हो. त्याच्याकडे हजार-बाराशे फोन नंबर आहेत,म्हणत होता. सगळ्यांना फोन करत असतो. काय  बडबडतो देवाला ठाऊक! आमच्या जमान्यात वर्गात मेंढरांसारखी मुलं भरलेली असायची. पण सत्तर-ऐंशीपेक्षा जास्त थोडीच असणार! आणि हायस्कूलमध्ये पोहोचेपर्यंत त्यापैकी काही मुलं रिसर्च स्कॉलर बनली. मग उरली किती?….नंतर त्याच्या ऑफिसात किंवा आयआयटीमध्ये असून असून किती मित्र असणार! फार तर पन्नास -शंभर . का कोणास ठाऊक! तोंडाला येईल ,ते बडबडत होता.” 

चहा आला. घोट घेताघेता धरणीधरचं स्मृतिमंथन चाललं होतं,” तसं तर,लहानपणीही थापा मारायची सवय होती त्याला. मला आठवतं, त्या दिवसांत सगळ्यांना शायरीची बाधा झाली होती. तर एक दिवस त्यानेपण स्वतःची शायरी ऐकवली,’बदल जाएं  अगर माली, चमन होता नहीं खाली, बहारें फिर भी आती हैं,बहारें फिर भी आएंगी’  ” 

“अरे,हे तर ‘बहारें फिर भी आती हैं’ या सिनेमातलं गाणं आहे!”

“बघा ना!”

“याआधी कधी बोलणं झालं होतं तुमचं?” आता काकांनाही मजा वाटत होती. 

“हो. दोन-तीनदा त्यानेच फोन केला होता. पहिल्यांदा जवळजवळ वीस-पंचवीस वर्षांपूर्वी. शेवटचा तीन-चार वर्षांपूर्वी. तेव्हा म्हणत होता,’आता रिटायर होणार,तेव्हा बनारसला येऊन जुन्या मित्रांना भेटू या.’ ” 

” जुन्या मित्रांशी तुझं बोलणं होतं?” मावशीने हसतच विचारलं.

” कुठून होणार? हं. दोघं-तिघं जणं बाजारात वगैरे भेटतात,तेव्हा थोडं बोलणं होतं. नाहीतर कोणाला हार्ट प्रॉब्लेम,तर कोणाला डायबिटीस, कोणाकोणाला तर दोन्ही रोगांचं वरदान. आता शंभू बोललाय,येतो म्हणून, पण येतो की नाही,ते बघू या.” 

आणि तेच झालं. कित्येक महिने गेले. शंभुदयाल ना धरणीधरच्या घरी आला,ना त्याने पुन्हा फोन केला. धरणीनेही त्याचा नंबर सेव्ह केला नव्हता. त्यामुळे कॉलबॅकची  शक्यता नव्हती .दिवस-रात्री उलटत गेल्या. जग आपल्या चालीने चक्कर काटत राहिलं…. 

—  (क्रमशः भाग पहिला )

मूळ लेखक :डॉ. अमिताभ शंकर रॉय चौधुरी 

मूळ हिंदी कथा :  कांच की जन्नत

मराठी अनुवाद :सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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