हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 240 ☆ कहानी – ‘एक कमज़ोर आदमी की कहानी’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 240 ☆

☆ कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी

उमाकान्त निश्चिंतता ओढ़े हुए ट्रेन के डिब्बे में सवार हो गये, लेकिन बेटे के चेहरे पर  उद्विग्नता साफ दिखती थी। पिता की अटैची उनकी सीट के ऊपर सामान रखने वाली जगह में जमा कर रविकान्त बोला, ‘पापा आप सुनते नहीं हैं। मैं एक दिन की छुट्टी लेकर चला चलता। कौन सी मुसीबत आने वाली थी?’

उमाकान्त हँसकर बोले, ‘यहाँ से बैठकर सीधे हबीबगंज में उतर जाना है। कौन कहीं गाड़ी बदलना है या जर्नी ब्रेक करना है। मेरे साथ जाते और तुरन्त लौटते। व्यर्थ की भागदौड़। मैं आराम से चला जाऊँगा। वहाँ तो कोई न कोई लेने आएगा। पहुँचते ही फोन करूँगा।’

रविकान्त चुप हो गया।

उमाकान्त व्यवस्थित हो कर बैठ गये। यह इंटर-सिटी गाड़ी थी, यानी सिर्फ बैठने की व्यवस्था। दूरी भी तो ज़्यादा नहीं थी, लगभग साढ़े छः घंटे की। उन्हें खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। बगल में एक सज्जन थे और उनकी प्यारी सी आठ दस साल की बच्ची। बातचीत से मालूम हुआ उन्हें भी हबीबगंज जाना था।

उमाकान्त अब बहुत कम शहर से बाहर निकलते थे। दो साल पहले पत्नी की मृत्यु के बाद वे पूरी तरह हिल गये थे। मृत्यु का एकदम निर्मम रूप सामने आ गया था। उमाकान्त को लगा जैसे ज़िन्दगी का खेल खेलते खेलते वे अचानक दर्शक-दीर्घा में आ गये हों। ज़िन्दगी की गतिविधियों से जी उचट गया था। बस रस्म- अदायगी रह गयी थी।

अब अकेले रहने या कहीं अकेले जाने पर उन्हें अवसाद और व्यर्थता-बोध घेरने लगता था। अकेले सफर करने पर अचानक भय और बेचैनी का अनुभव होता। उन्हें लगता उन्हें कुछ हो जाएगा और उनके परिवार वालों को पता भी नहीं लगेगा। वे बेचैनी में किसी परिचित चेहरे को ढूँढ़ने लगते जिसकी मदद से वे अपने भय से उबर सकें।

उमाकान्त सुशिक्षित व्यक्ति थे। वे जानते थे कि ये सब भावनाएं आधारहीन हैं, लेकिन उनके उभरने पर उनका कोई वश नहीं चलता था। वे अपने मन में चलती ऊहापोह के दृष्टा मात्र बन कर रह जाते थे। अचानक नकारात्मक विचारों का रेला आता और वे मन पर नियंत्रण खोकर बदहवास होने लगते।

फिलहाल उनके सफर की वजह यह थी कि भोपाल में, उनके सहकर्मी रहे मेहता जी की नातिन की शादी थी और मेहता जी ने अनेक बार फोन करके उन्हें बता दिया था कि उनकी चरन- धूल पड़े बिना कार्यक्रम अधूरा माना जाएगा। मेहता जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और ‘दादा’ कह कर संबोधित करते थे। उमाकान्त मेहता जी को समझाने में असफल रहे थे कि अब वे अपनी चरन-धूल घर की चौहद्दी में गिराना ही पसन्द करते हैं, सफर अब उनके लिए छोटी-मोटी त्रासदी होता है।

ट्रेन चल पड़ी और रविकान्त दूर तक चिन्तित आँखों से उनकी तरफ देखता रहा। उमाकान्त अब अपने को सँभालने में लग गये। वे उस भय और अवसाद को काबू में रखना चाहते थे जो अकेले में उन्हें घेरता था। वह कब अचानक मन के किसी कोने से उठकर उन्हें जकड़ने लगेगा, यह जानना उनके लिए संभव नहीं था। ऐसे मौकों पर वे कोशिश में रहते थे कि आसपास के लोगों पर उनकी कमज़ोरी ज़ाहिर न हो।

उनकी बगल में बैठी बालिका अपने पिता से बातें करने में मशगूल थी। बहुत चंचल और बातूनी लगती थी। वह लगातार पिता से कुछ सवाल किये जा रही थी। पिता शान्त स्वभाव के दिखते थे। वे धीमी आवाज़ में उसके सवालों के जवाब दे रहे थे। ज़ाहिर था कि बेटी पिता की लाड़ली थी।

अचानक लड़की उमाकान्त से बोली, ‘दादा जी, मैं खिड़की वाली सीट पर आ जाऊँ? मुझे वहाँ अच्छा लगेगा।’

उमाकान्त तुरन्त राज़ी हो गये। अब लड़की के पिता बीच में थे और वे कोने में। उमाकान्त बेटियों को बहुत प्यार करते थे, विशेषकर चौदह-पन्द्रह साल तक की। अल्हड़, बेफिक्र और बिन्दास। उनकी कॉलोनी में जब इसी उम्र की लड़कियाँ शाम को साइकिलें लेकर हँसते, बातें करते चक्कर लगातीं तब उन्हें लगता जैसे चिड़ियों का चहचहाता झुंड कॉलोनी में उड़ान भर रहा हो। सोयी हुई कॉलोनी जैसे जाग जाती।

लड़की के हाथ में मोबाइल था, जो शायद पिता का था। बीच बीच में वह सिर झुका कर उस पर उँगलियाँ फेरने लगती।

चार घंटे बाद गाड़ी इटारसी स्टेशन पर रुकी। लड़की के पिता उठे, बोले, ‘पानी लेकर आता हूँ। गरम हो गया है।’

लड़की बोली, ‘मेरे लिए चिप्स और चॉकलेट आइसक्रीम का कोन लाना।’

पिता ‘देखता हूंँ’ कह कर उतर गये। थोड़ी दूर तक दिखायी पड़े, फिर भीड़ में ओझल हो गये। लड़की मोबाइल से खेल रही थी।

थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी चल पड़ी। लड़की के पिता अभी लौटे नहीं थे। लड़की का ध्यान उधर गया। वह खिड़की में मुँह डालकर ‘पापा, पापा’ चिल्लाने लगी। गाड़ी ने गति पकड़ ली लेकिन लड़की के पिता नहीं लौटे। लड़की ने उमाकान्त की तरफ चेहरा घुमाया। उसका चेहरा भय से विकृत और आँखों में आँसू थे। वह फिर चिल्लायी, ‘पापा’।

उमाकान्त के मन में सुगबुगाता अपना भय और अवसाद कहीं दुबक गया। वे लड़की की हालत देखकर परेशान हो गये। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘रो मत। किसी दूसरे डिब्बे में चढ़ गये होंगे। अभी आ जाएँगे। ऐसा हो जाता है।’

काफी देर हो गयी, लेकिन लड़की के पिता का कहीं पता नहीं था। लड़की लगातार रोये जा रही थी। अचानक लड़की के मोबाइल पर फोन आया। पिता बोल रहे थे। वे उसके लिए आइसक्रीम ढूँढ़ते  प्लेटफार्म पर छूट गये थे। वैसे भी उनमें वह फुर्ती नहीं दिखती थी जो ऐसे मौकों पर ज़रूरी हो जाती है।

पिता ने बेटी को बताया कि उन्होंने भोपाल फोन कर दिया था, उसकी माँ समय से स्टेशन पहुँच जाएगी। घबराने की कोई बात नहीं है।

उमाकान्त ने लड़की के हाथ से फोन ले लिया। पिता से कहा कि वे बिल्कुल चिन्ता न करें। वे भोपाल तक उनकी बेटी की देखभाल करेंगे। अलबत्ता उसे लेने के लिए कोई स्टेशन ज़रूर पहुँच जाए।

पिता से बात खत्म होते ही माँ का फोन आ गया। वे खासी घबरायी थीं। बेटी की कुशलक्षेम पूछने के बाद वे उसे बार-बार ढाढ़स बँधाती रहीं। साथ ही यह आश्वासन भी कि वे स्टेशन ज़रूर पहुँच जाएँगीं। लड़की ने उन्हें भी बताया कि बगल वाली सीट के दादा जी उसकी देखभाल कर रहे हैं।

थोड़ी देर में डिब्बे का टी.टी. ई. भी लड़की का हालचाल लेने आ गया। उसके पास इटारसी से स्टेशन मास्टर का फोन आया था कि हबीबगंज तक लड़की की देखभाल करता रहे और उसे वहाँ परिवार वालों को सौंप दे।

लड़की अब काफी शान्त हो गयी थी। उसका भय लगभग खत्म हो गया था। उमाकान्त को भी अभी तक अपने भय को जगह देने की फुरसत नहीं मिली थी।

वे अब लड़की को बहलाने में लग गये। उन्होंने उसे बताया कि कैसे जब वे कई साल पहले वैष्णो देवी गये थे तब जम्मू में उस वक्त ट्रेन चल दी थी जब वे बुक-स्टॉल पर पत्रिकाएँ देख रहे थे। तब उन्होंने दौड़ कर ट्रेन पकड़ी थी, और उस वक्त उनके हाथ में जो झटका लगा उसका दर्द कई दिन तक रहा। उन्होंने पूरे अभिनय के साथ लड़की को यह कहानी सुनायी। उसे बताया कि अब भी उस घटना को याद करके वे सिहर उठते हैं। लड़की उनकी बातों को रुचि लेकर सुनती रही।

उमाकान्त के पास बिस्कुट थे। इसरार करके उन्होंने लड़की को खिलाये। फिर उसे व्यस्त रखने के लिए उसके परिवार के बारे में पूछते रहे। उसके दो भाइयों, स्कूल, क्लास, सहेलियों, पसन्द-नापसन्द के बारे में तफसील से जानकारी ली। उनकी पूरी कोशिश रही कि लड़की को अपने अकेलेपन का एहसास न हो।

राम राम करते गाड़ी हबीबगंज पहुँच गयी। रात के करीब साढ़े दस बज गये थे। गाड़ी यहीं खत्म होती थी। लड़की व्यग्रता से खिड़की से बाहर झाँकने लगी। तभी भीड़ के बीच से एक महिला दौड़ती हुई आती दिखायी पड़ी। वह चिन्ता से बदहवास थी। खिड़की के पास आकर ‘गीता,गीता’ पुकारने लगी। लड़की भी खड़ी होकर ‘मम्मी, मम्मी’ पुकार रही थी। माँ ने उसे देख लिया था।

उमाकान्त ने लड़की का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े तक पहुँचा दिया। पीछे पीछे टी.टी.ई. भी आया। वह माँ-बेटी को दफ्तर में ले जाकर इत्मीनान करेगा कि लड़की सही हाथों में सौंप दी गयी।

माँ बेटी को छाती से चिपका कर आँसू बहा रही थी। लड़की ने उमाकान्त का परिचय माँ से कराया और माँ ने हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दिया। उमाकान्त को लेने मेहता जी का बेटा आ गया था। ट्रेन से उतरते उतरते उमाकान्त उस भय और अवसाद को ढूँढ़ने लगे जो इस घटना-चक्र के बीच कहीं गुम हो गया था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 239 – मायोपिआ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 239 ☆ मायोपिआ ?

दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ।  अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।

विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।

दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले,  मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।

मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं,  निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-

वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं।

काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 186 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 186 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 186) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 186 ?

☆☆☆☆☆

चलो अब जाने भी दो

क्या करोगे दास्तां सुनकर

खामोशी तुम समझोगे नहीं

और हमसे बयाँ होगा नहीं…

☆☆

Let’s leave it at that now….

What’ll you do by hearing my story

You won’t understand the silence

And I’ll not be able to explain…!

☆☆☆☆☆

मेरी तमन्ना न थी कभी

तेरे बगैर रहने की मगर

मजबूर को मजबूर की

मजबूरीयां मजबूर कर देती हैं!

☆☆

Never did I desire to

Live without you but…

The helplessness compels 

the helpless to live without!

☆☆☆☆☆

वो मुझसे हारा तो जरूर पर

मेरी पीठ थपथपा के गया…

मेरा  गुरुर,  मेरी  जीत

सब मिट्टी में मिला के गया…!

☆☆

He lost to me but his gentle

conceding pat on my back…

Shattered my ego, my victory

my pride to the smithereens..!

☆☆☆☆☆

कुछ ऐसे हो गए है

इस दौर के रिश्ते,

आवाज अगर तुम ना दो

तो बोलते वह भी नही..!

☆☆

Relationships of this era

have become such that

If you don’t invoke them 

then they also won’t speak

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 45 – “Things…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 45 ?

☆ –Things ☆ Shri Ashish Mulay 

Things you haven’t got

are the strings

that make you move

and the things you have got

are the wings that lift you

 *

things will be there

like a forever glue

be detached

or become a thing too

when a thing is missed

crying is what children do

but in the next moment

find something else to do

 *

be the child of destiny

and things won’t affect you

like a child plays in a clay

play with the earth, will you?

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 359 ⇒ जल संकट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जल संकट।)

?अभी अभी # 359 ⇒ जल संकट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पानी इतना दीजिए

जा मे कुटुंब नहाय।

मैं भी प्यासा ना रहूं

पंछी न प्यासा जाय ।।

जब तक किसी वस्तु का अभाव अथवा असुविधा महसूस नहीं होती, हमारा उस पर ध्यान नहीं जाता। जलसंकट का अनुभव भी उसे ही होता है, जिसे पानी नहीं मिलता। गर्मी में पानी बिजली हमारी मूलभूत समस्या है। जहां नियमित जल प्रदाय होता रहता है, वहां इस संकट को महसूस नहीं किया जा सकता।

बढ़ते शहर की प्यास भी तो बढ़ेगी। गर्मी के शुरू होते ही, अधिकांश ट्यूब वेल सूख जाते हैं और सड़कों पर टैंकर दौड़ने लगते हैं। जब तक आप पैसा फेंकते रहेंगे, आपको पानी मिलता रहेगा। कुंए बावड़ी तो अब झांकने को भी नहीं मिलते।।

प्यास लगते ही कुंआ नहीं खोदा जाता, और खोदने के पश्चात् भी पानी की संभावना क्षीण ही रहती है। कुंआ खोदने से बेहतर है, वृक्षारोपण किया जाए, बारिश के पानी को रोका जाए, रीसाइकल किया जाए। जो पेड़ शहर के विकास में बाधा पहुंचाएंगे, उनको तो फिर भी काटा ही जाएगा।

हर आदमी पैसा फेंककर तमाशा नहीं देख सकता।

इधर आदमी को प्यास बढ़ती जा रही है और उधर पानी कम होता चला जा रहा है। याद आते हैं वे दिन, जब जगह जगह सड़कों पर प्याऊ नजर आ जाती थी। क्या एक्वागार्ड और आरो का पानी पीने वाला व्यक्ति इस पानी से अपनी प्यास बुझाएगा। वह तो अपने साथ हमेशा बिसलेरी की बॉटल लेकर चलता है। उसे अपनी सेहत का खयाल भी तो रखना है।।

आसमान की ओर देखो, तो सूरज आग उगल रहा है, और इधर पंखे भी गर्म हवा फेंक रहे हैं। कूलर पैसा और पानी दोनों मांगता है, अब सरकार मुफ्त राशन की तरह मुफ्त एसी तो सबको प्रदान नहीं कर सकती।

गर्मी में ठंड कैसे रखी जाए, इंसान ने पैसा कमाना तो सीख लिया, काश वह पानी बचाना भी सीख पाता, तो उसे गर्मी में पैसा पानी की तरह नहीं बहाना पड़ता।।

क्या समय आ गया है, हमें हवा और पानी दोनों खरीदने पड़ रहे हैं। पंखे, कूलर और ए.सी.की हवा क्या खरीदी हुई नहीं है। पानी पर तो वैसे भी डायरेक्ट जल कर के रूप में टैक्स है ही, हवा पर भी इनडायरेक्ट तौर पर टैक्स लगा हुआ है।

अंग्रेज गर्मियों में हिल स्टेशन चले जाते थे, और साथ साथ राजधानी भी वहीं ले जाते थे। वे भले ही चले गए हों, हमारे लिए गर्मियों की छुट्टियां छोड़ गए थे। इधर परीक्षा खत्म हुई और उधर गर्मी की छुट्टियां शुरू, और सभी साहबजादे चले ननिहाल।

गांव की हरियाली और प्राकृतिक हवा पानी में कैसी गर्मी और कैसी प्यास। छुट्टियां गुजर जाती, मगर प्यास नहीं बुझती थी।।

झूठ क्यूं बोलें, हमें ईश्वर ने हवा भी छप्पर उड़ाकर दी है, और पानी भी छप्पर फाड़कर। याद आते हैं वे दिन, जब नालीदार पतरों की छत से बारिश का पानी टप टप, टपकता था, कहीं बूंद बूंद, तो कहीं धाराप्रवाह। घर के सभी बर्तन, घड़ा, बाल्टी, तपेली, परात, और तो और ग्लास लोटे तक कार सेवा में सहयोग प्रदान करते थे। इतनी बारिश के बाद आंगन में लगे दो नीम और एक गूगल का पेड़, साल भर मस्ती में झूमते रहते थे। उनकी छांव में कहां कभी गर्मी महसूस हुई। माता पिता के साये के साथ इन दरख्तों की छांव भी हमसे छिन गई।

गर्मी पर फिलहाल चुनावी सरगर्मी हावी है। लोकतंत्र का उत्सव वैसे भी पांच वर्ष में एक बार ही तो आता है, जीवन के सुख दुख, और धूप छांव का हंसी खुशी से सामना करते हुए एक सुरक्षा और सुकून की आस में, अगर थोड़ा तप लेंगे तो क्या बुरा है।

अब कोई हवा पानी की भी मुफ्त की गारंटी देने से तो रहा। अगर गर्मी और जलसंकट से बचना चाहते हैं तो आप भी लेह लद्दाख घूम आइए, वर्ना बत्ती गुल होने पर, हाथ से पंखा झलिये और पसीने में नहाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 185 ☆ गीत – अभिन्न ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – अभिन्न…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 185 ☆

एक गीत – अभिन्न ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

हो अभिन्न तुम

निकट रहो

या दूर

*

धरा-गगन में नहीं निकटता

शिखर-पवन में नहीं मित्रता

मेघ-दामिनी संग न रहते-

सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता

अविच्छिन्न हम

किन्तु नहीं

हैं सूर

*

देना-पाना बेहिसाब है

आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है

तन का द्वैत, अद्वैत हो गया

काया-छाया सत्य-ख्वाब है

नयन न हों नम

मिले नूर

या धूर

*

विरह पराया, मिलन सगा है

अपना नाता नेह पगा है

अंतर साथ श्वास के सोया

अंतर होकर आस जगा है.

हो न अधिक-कम

नेह पले

भरपूर

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सु डो कू ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ 🕺 सु डो कू ! 🙏 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

सु टले वाटता वाटता

कधी येई अंगाशी घाई,

चुकता आकडा चौकोनी

बिघडून गणित जाई !

*

डो के शिणते सोडवतां

करी पार मेंदूचा भुगा,

सवय होता हळू हळू

सुटतो एक एक धागा !

*

कु शाग्र बुद्धीचे हे खाद्य

चव चविष्ट याची भारी,

रोज रोज चाखल्या विना

शांती लाभे ना मज उरी !

शांती लाभे ना मज उरी !

© प्रमोद वामन वर्तक

१६-०४-२०२४

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “घेई छंद…” ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

? विविधा ?

☆ “घेई छंद…” ☆ श्री सुनील शिरवाडकर

“घेई छंद…. “

नागपुरातील धंतोली्वर त्या रात्री एक सुरांची अविस्मरणीय मैफिल जमली होती. तसं म्हटलं तर ती सगळी तरुण मुलंच होती. समोर श्रोत्यांमध्ये मात्र नागपुरातील जाणकार, बुजुर्ग संगीतप्रेमी होते. सुरांची ती अचाट मैफिल संपल्यानंतर समोर बसलेल्या, मैफीलीत रत असलेल्या श्रोत्यांना दाद देण्याचेही भान राहिले नव्हते. काहीतरी अलौकिक घडल्यानंतर, अनुभवल्यानंतर वातावरणात भिनलेली ती धुंद शांतता… ती अनुभवणारा तो गायक… त्याचे साथीदार…

आणि अचानक श्रोत्यांमधील एक बुजुर्ग, म्हातारा विचारता झाला…

“काहो देशपांडे… आपले घराणे कुठले ?

“आमच्यापासून सुरू होणार आहे आमचं घराणं…. ” त्या गायकाने ताडकन उत्तर दिले… आणि

दिवाणखान्यात बसलेल्या रसिक नागपुरकरांनी आता मात्र टाळ्यांचा कडकडाट केला.

तिशीच्या आसपास असलेला तो गायक होता… वसंतराव देशपांडे.. तबल्यावर मधु ठाणेदार… आणि पेटीच्या साथीला साक्षात पु. ल. देशपांडे.

कोणत्याही एकच घराण्याची शागिर्दी न पत्करता वसंतरावांनी अनेकांकडे सुरांची माधुकरी मागितली. आणि ती त्यांना मिळालीही. नागपुरात असलेल्या शंकरराव सप्रे गुरुजींकडे वसंतरावांनी संगीताचे प्राथमिक धडे गिरवले. सप्रे गुरुजींच्या त्या गायनशाळेत त्यावेळी वसंतरावांबरोबर अजून एक शिष्य गायनाचे धडे गिरवत होता. दोघेही पुढे जाऊन आपल्यागुरुचे नाव त्रिखंडात गाजवतील याची सप्रे गुरुजींना कल्पनाही नसेल. त्यावेळी वसंतरावांबरोबर शिकणारा त्यांचा जोडीदार होता… राम चितळकर…. म्हणजेच सी. रामचंद्र.

नागपुरातील सप्रे गुरुजींनी गायकीचे प्राथमिक धडे तर दिले… पण आता पुढे काय?

नेमके त्याच वेळेला वसंतरावांचे मामा नागपुरात आले होते. ते रेल्वेत नोकरीला होते. लाहोरला. मामाने त्यांना आपल्याबरोबर लाहोरला नेले. त्याकाळी लाहोरला मोठमोठ्या गवयांचे वास्तव होते. अनेक मुसलमान गवयांची मामाची ओळख होती.

कुठूनतरी वसंतरावांना समजले. रावी नदीच्या पलिकडे एक कबर आहे. तेथील विहिरी जवळ काही फकीर बसतात. ते उत्तम गवयी आहेत. वसंतराव तेथे जाऊ लागले. गाणे ऐकू लागले. मामाने पण सांगितले… त्यातील मुख्य फकीर जो आहे… असद अली खां, त्याची क्रुपा झाली तर ती तुला आयुष्यभर कामाला येईल.

खांसाहेबांकडुन गाणे शिकायचे होते. त्यासाठी त्यांना राजी करणे महत्त्वाचे. मामाने सांगितले… टोपलीभर गुलाबाची फुले आणि मिठाई घेऊन खांसाहेबांकडे जा. सोबतीला थोडा चरस असेल तर उत्तम. त्यांचे पाय धर. विनंती कर. हट्ट कर. मग तुला ते गायन शिकवतील.

मामाने सांगितल्याप्रमाणे वसंतरावांनी फुले, मिठाई, आणि हो…. कुठुनतरी चरसही आणला. सर्व वस्तू खांसाहेबाना अर्पण केल्या. विनंती केली. खांसाहेबाना राजी केले.

खासाहेबांनी जवळ असलेल्या विहिरीकडे त्यांना नेले. दोघेही काठावर बसले. संध्याकाळची वेळ होती. वसंतरावांच्या हातात त्यांनी गंडा बांधला. गंडा बांधणे म्हणजे शिष्य या नात्याने गुरुशी नाते जोडणे. गंडा बांधून झाला. मग त्यांनी वसंतरावांना अर्धेकच्चे चणे खायला दिले. हाही एक त्या विधीचा भाग. असले चणे खाताना, चावताना त्रास होतो. कडकडा चावून खावे लागतात. विद्या मिळवण्याचा मार्ग कसा खडतर आहे हे कदाचित त्यातून सुचवायचे असेल. चणे खाऊन झाल्यावर एक लहानसा गुळाचा खडा तोंडात घातला. कानात कुठल्यातरी रागाचे सुर सांगितले.

तालमीला सुरुवात झाली. खांसाहेबांनी जवळच्या एका फकिराला इशारा करताच त्याने ‘मारवा’ आळवायला सुरुवात केली.

वसंतराव सांगतात, “विहीरीवर बसून गाण्यातली गोम अशी होती की काठावर गायलेला सुर विहिरीत घुमुन वर येत असे आणि तंबोर्याचा सुर मिळावा तसा सुर विहीरीतुन मिळत असे “.

सतत तीन महिने खांसाहेबांनी मारवा हा एकच राग शिकवला. वसंतराव म्हणतात की तो त्यांनी असा काही शिकवला की त्या एका रागातून सगळ्या रागांचे मला दर्शन झाले.

मारवा गळ्यात पक्का बसला. आता बाकी रागांचे काय? तशी त्यांनी विचारणाही केली. त्यावर खांसाहेब म्हणाले,

” जा. तु आता गवयी झालास. एक राग तुला आला… तुला सगळे संगीत आले”.

आणि शेवटी म्हणाले….

“एक साधे तो सब साधे…

सब साधे तो कुछ नही साधे “

वसंतराव देशपांडे शास्त्रीय संगीतातील उत्कृष्ट गायक आहेत पण ते उत्तम अभिनेते पण आहेत हे सर्वांना समजले केंव्हा? तर  ‘कट्यार काळजात घुसली ‘हे नाटक रंगमंचावर आले तेव्हा. यातील ‘खांसाहेब’त्यांनी अजरामर केला. वास्तविक त्यापुर्वी त्यांनी पु. लं. च्या ‘तुका म्हणे आता’, ‘दूधभात’ या चित्रपटांतून कामे केली होती. पण ‘कट्यार… ‘मधील खांसाहेब ने त्यांना प्रसिध्दीच्या शिखरावर नेले.

या महान गायकाने उदरनिर्वाहासाठी, प्रपंच चालवण्यासाठी आयुष्यातील भर उमेदीची २४ वर्षे चक्क कारकुनी केली. रात्र रात्र मैफिली गाजवणारे वसंतराव सकाळ झाली की सायकलवर टांग टाकून मिलीटरी ऑफिसमध्ये खर्डेघाशी करायला जात. सदाशिव पेठेत असलेल्या एका खोलीत संसार. एक दोन नाही…. पंचवीस तीस वर्षं. त्यावेळी एका ज्योतीषाला त्यांनी कुंडली दाखवली होती. तो ज्योतिषी वसंतरावांना म्हणाला….

“वसंतराव.. मोठी खट्याळ कुंडली आहे तुमची. तुम्हाला आयुष्यात धन, पैसा, प्रतिष्ठा, सन्मान सर्व काही लाभणार आहे. खडिसाखरेचे ढीग तुमच्या पुढे पडणार आहे. पण अश्यावेळी की त्याचा आस्वाद घ्यायला तुमच्या मुखात दात नसतील”.

त्या ज्योतीष्याकडे पहात मिस्कील स्वरात वसंतराव म्हणाले…

“ठिक आहे. दात नसले तरी हरकत नाही. आम्ही ती खडीसाखर चघळून चघळून खाऊ”.

आयुष्यभर स्वरांचे वैभव मोत्यांसारखे उधळले वसंतरावांनी. सुबत्ता, मानसन्मान, पुरस्कार आयुष्याच्या उत्तरार्धात मिळु लागले. पण फार काळ नाही. निव्रुत्त होण्यासाठी थोडे दिवस राहिले असतानाच संरक्षण खात्याने त्यांची बदली ईशान्येकडील नेफाच्या जंगलात केली. जंगलातील तंबूत त्यांचे वास्तव्य. पाऊस पाणी, रोग राई, जीवजंतू याचा विपरीत परिणाम त्यांच्या प्रक्रुतिवर झाला. तेथून ते परतले. निव्रुत्त झाले. पण तेथे जडलेली पोटाची व्यथा त्यांना त्रास देऊ लागली.

पुण्यातील बालगंधर्व रंगमंदिरात त्यांचा एकसष्ठीचा सत्कार झाला. त्यानंतर पुढच्याच वर्षी वयाच्या… बासष्ठाव्या वर्षी अकोला येथे झालेल्या बासष्ठाव्या नाट्यसंमेलनाचे अध्यक्षपद भूषविले. आणि वर्षभरातच त्यांनी या जगाचा निरोप घेतला.

आज २ मे. वसंतरावांचा  जन्मदिवस. त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मानिनी… – भाग-४ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ मानिनी… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(तो MR गेला पण तिच्या काळजाचे पाणीपाणी झालं. ती मनातल्या मनात रडू लागली. पुढे काय झालं शिरीषचे हे तिला कळेना. कुणाला विचारावे तरी पंचायती.) – इथून पुढे 

म्हणता म्हणता ती साठ वर्षाची झाली. जय बारावी झाला, मग तो B. Farm ला गेला. त्याला व्यवसायाची आवड म्हणून तिने त्याला “जय एजन्सी ‘सुरु करून दिली. एवढी वर्षे ती मेडिकल चालवत होती, त्यामुळे तिच्या ओळखी होत्याच. एका वर्षात त्याला वीस कंपन्याच्या agencies मिळाल्या. दहा माणसे कामाला ठेवली. जोरात धंदा होऊ लागला. मग माल सप्लाय करण्यासाठी टेम्पो घेतला. त्याला मुली सांगून येऊ लागल्या, मग परंजपे डॉक्टर यांच्या ओळखीच्या कुटुंबातील वर्षा चें स्थळ आले आणि जयचे लग्न होऊन वर्षा सून म्हणून घरात आली.

गॅलरीतल्या खुर्चीवर बसल्या बसल्या आशुच्या डोळ्यसमोर तिच्या आयुष्याचा चलदचित्रपट सरकत होता. साठ वर्षे आपण पुरी केली, कळलेच नाही. या आयुष्यात आईवडिलांसारखे विजुआते आणि काका तसेच डॉ पराजपे यांचे उपकार न विसरण्याजोगे. याच आयुष्यात शिरीष भेटला आणि मनात वसला तसेच बाहेर पण पडला.

हे आपले साठ वर्षाचे आयुष्य. जय आणि वर्षा यांनी आपली एकस ष्ठी ठेवली आहें आणि तो विचारतो, जन्मदात्याला आणि काकाकाकूला बोलवणार का, म्हणून?

काय केल बाबा तूझ्या पित्याने?

काकाकाकूने? हाकलून दिल घरातून, पुन्हा चौकशी पण केली नाही कधी. जिवंत आहोत का मेलो याची..

आशुची एकसष्ठी पार पडली. बहीण भावोजी, भाचरे, भाऊ वहिनी तसेच मावंशी आणि तीच कुटुंब, विजुआते, डॉ काका, डॉ पराजपे फॅमिली हॉस्पिटलस्टाफ, जिल्ह्यातील केमिस्ट परिवार तसेच अनेक ओळखीची मंडळी हजर होती. कार्यक्रमला मंगळसूत्र घातलेल्या बाईचा नवरा उपस्थित नाही म्हणून काही मंडळींनी कुजबुज केली पण ज्यांना आशुची परिस्थिती माहित होती, त्यांना आश्यर्य वाटले नाही.

सर्व मंडळी आपापल्या घरी गेली, पुन्हा आशू मेडिकल मध्ये आणि जय वर्षा एजन्सी मध्ये मग्न झाले. एक दिवस वर्षाने आपल्या नवऱ्याला म्हणजे जयला विचारले 

“जय, तूझ्या आईचा जवळजवळ पस्तीस वर्षे नवऱ्याशी संबंध नाही मग तिला दुसरे लग्न करावे असे वाटले नाही कधी?

“विजआजी मला एकदा म्हणाली होती, शिरीष गोखले नावाचा एक कोल्हापूरमधील MR तिला आवडायचा, असे आईने आजीला सांगितले होते. त्याची बायको घटस्फोट घेणार होती आणि मग आई घटस्फोट घेऊन त्यांच्याशी लग्न करणार होती, पण काही कारणाने ते लग्न झाले नाही. शिरीष गोखले आता कुठे असतांत कोण जाणे?

एक दिवस आशू दुकानात असताना जयचा फोन आला “आई, गावाकडून काकूने निरोप दिला आहें, तुझे बाबा जास्त आजारी आहेत, त्यांना घेऊन जा ‘

“आत्ता आठवण झाली का आमची, पण तुझा पत्ता त्यांना कळला कसा?

“अग त्या गावातील एक मुलगा माझ्या एजन्सी मध्ये कामाला आहें, त्याने त्यांना सांगितले असणार. ‘

“काय आजारी आहेत?”हार्ट अटॅक आलाय बहुतेक ‘.

“ठीक आहे, मुलगा आहेस म्हणून कर्तव्य कर, गाडी घेऊन जा त्यांना हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट कर ‘.

जय गाडी घेऊन गेला आणि आपल्या वडिलांना घेऊन आला आणि डॉ परकार हॉस्पिटल मध्ये त्याना ऍडमिट केले.

हॉस्पिटल मध्ये सर्व तपासण्या झाल्या आणि बायपास करायला हवे असे डॉ नी सांगितले. जयने सर्व पैश्याची व्यवस्था केली. जय रोज हॉस्पिटल मध्ये जात होता पण आशू एकदाही गेली नव्हती. पंधरा दिवसांनी त्यांना डिस्चार्ज मिळाला. आधल्या दिवशी जय आईला म्हणाला “आई, ते म्हणत आहेत, माझे गावाकडे खुप हाल होत आहेत, जेवणं पण मिळत नाही, खिशात पैसे नाहीत, मी तुमच्याघरी येऊ काय?’

आशू कडाडली -“जय, त्यांना त्यांच्या घरी पोहोचून ये. त्या घाणीतून मी पस्तीस वर्षांपूर्वी मी तुला घेऊन बाहेर पडले, ती घाण परत माझ्या घरात नको. आणि परत असले निरोप मला देऊ नकोस. यांनतर तूझ्या माणसाला सांगून ठेव, त्या घरातले बरे किंवा वाईट निरोप दयायचे नाहीत. मी इथे मानाने रहाते आहें, मानिनी सारखी. त्यांची दृष्ट लागायला नको ‘.

जय वडिलांना गावी पोहोचून आला.

    आशुचे आयुष्य नेहेमीसारखे सुरु होते, सून वर्षा हल्ली सतत म्हणायची “आई, तुम्ही कुठेच फिरला नाहीत. अजून धड कोकण पाहिले नाहीत. केंव्हा तरी लग्नकार्याच्या निमित्ताने मुंबई किंवा पुणे, ते पण घाईत. लोक आता युरोप ट्रिप करतात, नर्मदा परिक्रमा करतात, तुम्ही पण जा ना… ,

आशू मनात म्हणायची, मला पण जावेसे वाटते पण जाऊ कुणाबरोबर…

रोज सारखा कंटाळवाणा दिवस सुरु होता, निमा आणि मीना काऊंटर सांभाळत होत्या, आशू स्टोकिस्ट कडून आलेली बिले चेक करत होती, एव्हड्यात दुकानासमोर रिक्षा थांबली आणि गृहस्थ हातातील बॅग सांभाळत सरळ आत येत म्हणाला “मॅडम, चहा मागवा ‘.

आशू चमकली, तोच आवाज, बोलण्याची तीच पद्धत वीस वर्षा पूर्वीची. तिने झटकन मान वर करून पाहिले, डोळे विसफ़ारले, चेहरा आश्रयचकित झाला, ती किंचाळली “शिरीष ‘.

काही कळायच्या आत ती त्याला बिलगली. शिरीषने तिला थोपटत म्हणाला, “होय आशू, मी शिरीष ‘.

ती रडत रडत म्हणाली “अरे तू आहेस?

“होय आशू, मी आहें. तुला कुणीतरी सांगितले असेल मी आत्महत्या केल्याचे. करायचा होता मला नाश स्वतःचा, पण शेजाऱ्यांनी धावपळ करून मला वाचवलं, आता गेल्या महिन्यात ती पण गेली कॅन्सरने. माझा शत्रू संपला पण मी आहें ‘.

आशुच्या लक्षात आलं, आज आपण जे वागलो ते पाहून दुकानातल्या मुलींना आश्यर्य वाटलं असणार. ती परत शिरीष पासून अलग झाली आणि त्याला म्हणाली “चल, आपण घरी जाऊ, मला तुझ्याशी खुप खुप बोलायचं आहें ‘. निमाला दुकानाकडे लक्ष दयायला सांगून तिने रिक्षा बोलावली आणि त्याला घेऊन ती घरी आली.

मग शिरीषने आपली सर्व हकीकत सांगितली. मग बायको आपल्यावर कसा लक्ष ठेऊन असायची. कुणाला फोन करतो, कुणाचा येतो हे पहायची. रोज पैशावरून, जेवणावरून भांडणे. आपण या काळात तीन नोकऱ्या सोडल्या. कंटाळून खुप झोपेच्या गोळया घेतल्या, पण शेजारी बरा होता त्याच्या लक्षात आले, त्यानी हॉस्पिटल मध्ये ऍडमिट केले आणि वाचवले. कंटाळवणे आयुष्य चालले होते. दोन वर्षांपूर्वी बायकोला कॅन्सर झाला. मी हयगय न करता सगळे उपचार केले पण उपयोग झाला नाही, आपण जगत नाही हे लक्षात आल्यावर तिला माझ्या बरोबर दुष्ठपणाने वागल्याचा पक्षचताप झाला, तिने क्षमा मागितली आणि पंधरा दिवसात ती गेली ‘.

आशू शिरीषला म्हणाली “शिरीष, तू पुन्हा भेटशील ही आशा मी सोडली होती, माझ्या मनातला पुरुष तूच होतास, आता मी समाजाचा विचार करणार नाही, माझ्यावर कसल्या जबाबदाऱ्या नाहीत. जय चें लग्न झाले आहें, दुकान, एजन्सी जोरात सुरु आहें, पण मी एकटी आहें रे, तुझ्यावाचून मी अपुरी आहें, मला या वयात साथी हवा आहें आणि तो तूच आहेस. आपण लग्न करू आणि आयुष्याचा शेवटचा काळ एकमेकासामावेत घालवू, नाही म्हणू नकोस शिरीष..

“नाही कशाला म्हणू आशू, मी मनापासून तुझ्यावरच प्रेम केलाय. ‘

“तर मी आज जय आणि वर्षाला सांगते, आम्ही लग्न करतोय म्हणून ‘

    त्याच दिवशी जय आणि वर्षा घरी आली आणि अनोळखी माणूस पाहून चक्रवली.

आशू ने जयला ओळख करून दिली 

“जय, हा शिरीष, शिरीष गोखले.

जयला एकदम आश्यर्य वाटले, त्याने त्यांचे नाव विजूयाआजी कडून ऐकले होते. त्याला माहित होत, आईला यांच्याशी लग्न करायची इच्छा होती.

“अरे हो, छान छान.. मी ऐकलं होत तुमच्याबद्दल.. विजू आजी म्हणाली होती ‘

“हो ना, जय तेंव्हा आम्ही लग्न करू शकलो नव्हतो, पण समाज काय म्हणेल, कोण काय म्हणेल याची पर्वा न करता आम्ही लग्न करत आहोत ‘.

 जयच्या डोळयांतून पाणी आलं, आपल्या आईने कसे संन्यासी सारखे आयुष्य काढले, हे त्याने पाहिले होते. आईला सुख मिळालेच पाहिजे निदान या वयात.

जयने शिरीषला मिठी मारली, वर्षाने आशूला मिठी मारली.

चार दिवसांनी आशू आणि शिरीष यांचे मोजक्या लोकात लग्न झाले.

जयने दुसऱ्या दिवशी दोन युरोप ट्रिपची तिकिटे शिरीषच्या हातात ठेवली.

आयुष्यात पहिल्यांदा आशू विमानात बसणार होती. ती घाबरत नव्हती कारण तिचा प्रिय शिरीष तिच्यासमवेत होता. त्याचा हात हातात घेऊन ती लंडन, पॅरिस, स्वित्झर्लंड, जर्मनी फिरणार होती.

– समाप्त –

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

 

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “पाहुणा…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ “पाहुणा…” ☆ श्री मंगेश मधुकर 

कॉलेजच्या रियुनियनला सहकुटुंब गेलेलो. अनेक मित्र-मैत्रीणींची भेट झाली. जुन्या आठवणी, भरपूर खाणं अन पोटभर गप्पांमुळे संध्याकाळ संस्मरणीय झाली. मस्त मूड होता. कधी नव्हे ते गाणं गुणगुणायला लागलो. बायको आणि मुलीला आश्चर्य वाटलं. घरी पोचलो तर दार सताड उघड आणि हॉलमध्ये खुर्चीत मांडी घालून आई बसलेली.

“काय गं, दार उघड ठेवून अशी का बसलीयेस”

“बरं झाला आलास. किती वेळची वाट बघतेय. ”आई.

“काय झालं. अर्जंट होतं तर फोन करायचा ना”

“म्हटलं तर अर्जंट म्हटलं तर नाही. ”

“आई, मूड चांगलाय. नीट सांग. काय झालं”

“घरात पाहुणा आलाय. ”

“मग त्यात टेंशन कसलं”

“विशेष पाहुणा आहे”

“कोण?कुठयं?

“आत्ताच कपाटामागे गेलाय”

“पाहुणा कपाटामागे??आई, काय बोलतेस तुझं तुला तरी कळतयं का?” 

“अरे, उंदीर मामा घरात शिरलेत. तास झाला खुर्चीतून हलली नाहीये. ”आईचं ऐकून बायको आणि मुलगी “ईssईss”करत किंचाळत घराबाहेर गेल्या. पाठोपाठ आईसुद्धा. खरं सांगायचं तर मीसुद्धा जाम घाबरलो. उंदीर पाहिला की कसंतरीच होतं. शिसारी येते. खूप भीती वाटते.

“अहो, आधी त्याला बाहेर काढा”

“बाबा, लवकर”

“ही काठी घे आणि त्याच्या डोक्यात घाल. ईकडून तिकडं फिरून मेल्यानं वात आणलंय. ”

“ए, बायांनो!!जरा थांबता का?”.

“आता कशाला थांबायचं”आई.

“अगं हो, जरा बघू तर दे. ”

“ईss उंदराला काय पहायचं. ”मुलगी 

“मी बाहेर जातो. काय करायचं ते तुम्हीच ठरवा. ”  

“आधी त्याला घालवा मग कुठंही जा”बायको.

“मग एकदम गप्प बसायचं आणि आधी घरात या. उगीच आख्ख्या सोसायटीला कळायला नको”. आई खुर्चीवर तर मुलगी आणि बायको सोफ्यावर बसल्या. ‘वासरात लंगडी गाय शहाणी’ न्यायानं मीच तो काय सोकॉल्ड धीट, शूर??भीती वाटत होती तरीही उसनं अवसान आणून भिरभिरत्या नजरेनं काठी कपाटाजवळ आपटायला सुरुवात केली.

“जास्त जवळ जाऊ नको रे”

“अहो, बेतानं नाहीतर एकदम अंगावर येईल. ”

“उंदीर चावतो का” आई, बायको, मुलगी पाठोपाठ बोलल्या.

“शांत बसा नाहीतर काठी घ्या त्याला हाकला. ”मी चिडलो.

“आमच्यावर रागवण्यापेक्षा उंदराला बाहेर काढा. बघू या जमतयं का?”बायकोचं बोलणं सहन न झाल्यानं रागाच्या भरात जोरात काठी जमिनीवर फेकली तेव्हा कपाटामागचा उंदीर भसकन बाहेर आला. अचानक समोर आल्यानं घाबरून मागे सरकलो तर उंदराला पाहून आई, बायको, मुलगी एकदम ओरडल्या त्या आवजानं उंदीर जागेवरच एक इंच उडाला आणि किचनमध्ये पळाला. पाठोपाठ अस्मादिक किचनमध्ये. नक्की कुठं लपलाय कळत नव्हतं त्यातच परडीला धक्का लागून एक कांदा पायावर पडला. घाबरून जोरात ओरडलो.

“अहो, आधी दोन्ही बेडरूमची दारं लावून घ्या. ”

“दारं बंदच आहे”आई.

“आता काय करायचं”मुलगी.

“फक्त वाट बघायची. ” भिंतीला टेकून उभा राहिलो. नजर शोधत होतीच. बराच वेळ झाला तरी काहीच हालचाल जाणवली नाही. पुन्हा ओटा, ट्रॉली, शेल्फवर काठी आपटायला लागलो.

“उंदराच्या नादात किचनमध्ये तोडफोड करू नका. सावकाश!!”बायकोचा अनाहूत सल्ला.

“मला कळतं. ऐकून घेतो म्हणून प्रत्येकवेळी नवऱ्याला सुनवायची गरज नाही. ”

“ते माहितीये पण स्वभाव धसमुसळायं ना म्हणून आधीच सांगितलं नंतर सॉरी म्हणून उपयोग होणार नाही. ” गरज नसताना बायकोनं टोमणा मारल्यानं संताप अनावर होऊन रॅकवर जोरात काठी मारली तर उंदीर एकदम अंगावर आला, हेलपाटलो कसंबसं सावरत काठी मारली पण नेम चुकला. घाबरलेला उंदीर आईच्या दिशेने गेला तर ती ओरडायला लागली. हातातली काठी फेकली तेव्हा तो कपाटामागे लपला. पुन्हा काहीवेळ शांतता आणि एकदम तो तुरुतुरु पळत सोफ्याच्या दिशेनं गेल्यावर बायको आणि मुलगी घाबरून सोफ्यावरच उभ्या राहिल्या. बायको जोरजोरात “हाड हाड” करायला लागली.

“ममा, तो कुत्रा नाहीये, ” 

“तू गप गं. आधी त्याला हाकल मग मला अक्कल शिकव” मायलेकी वाद घालायला लागल्या अन यागडबडीत उंदीर पुन्हा बेपत्ता. झालं पुन्हा शोधाशोध!!सगळेच बेचैन, अस्वस्थ. जरा कुठं खट्ट वाजलं तरी दचकत होते. उंदीर घरात असेपर्यंत कोणालाच शांत झोप लागली नसती त्यामुळे काहीही करून त्याला बाहेर घालवणं किवा मारणं गरजेचं होतं परंतु तो हाती लागत नव्हता. इकडून तिकडं नाचवत होता. खूप दमलो. भीतीची जागा संतापानं घेतली. रात्रीचे अकरा वाजून गेलेले अन आम्ही एवढ्याशा जीवाच्या दहशतीखाली होतो आणि कदाचित तो आमच्या………

“आता रे???, शेजारच्यांना बोलावू का?” आई म्हणाल्यावर मी भडकलो.

“जरा दम धरतेस. आल्यापासून तेच करतोय ना. कशाला उगीच गाव गोळा करायचाय”

“तुम्ही चिडू नका. मदतीसाठी म्हणून त्या म्हणाल्या. ”बायकोनं समजावलं.

“आता त्याला सोडायचा नाही. तू एक काम कर, किचनची वाट आडव. आई, तू खुर्चीवरून हलू नकोस. कार्टे, तो फोन बाजूला ठेव आणि शोकेसजवळ थांब. हातात काहीतरी ठेवा जर अंगावर आलाच तर उपयोगी पडेल. ” बोलत असतानाच तो दिसला जोरात काठी मारली पण परंतु परत नेम चुकला.

“बाबा, त्याला बाहेर घालवू. मारायला नको. छोटसं पिल्लूयं”

“बरं, रेडी. घाबरू नका. फक्त पाच मिनिटं लागतील”स्वतःसकट सर्वांचा उत्साह वाढवायचा प्रयत्न केला. हातात झाडू घेऊन आई खुर्चीत, फरशी पुसायचा मॉप घेऊन बायको किचनच्या दारात, प्लॅस्टिकचा ट्रे घेऊन मुलगी शोकेसच्या बाजूला उभी राहिली.

“सगळे तयार आहात. तुमच्या बाजूला येऊन द्यायचं नाही. दाराच्या दिशेने ढकलायचं. ओके”काठी आपटायला लागल्यावर काही वेळानं तो बाहेर आला अन किचनकडे गेला पण टिपॉय आडवा टाकून वाट बंद केल्यामुळे शोकेसच्या बाजूला गेला पण मुलीनं ट्रेनं ढकललं. लपायला जागा सापडत नसल्यानं त्याची पळपळी सुरु झाली अन गोंधळ वाढला. पळापळ करून थकलेला अन घाबरलेला उंदीर हॉलच्या कोपऱ्यात थांबला. दरवाजाच्या दिशेनं वळवण्यासाठी प्रयत्न केले तर एकदम तो किचन नंतर सोफ्याकडं मग शोकेसच्या दिशेनं गेला पण आवाजामुळं मागे फिरला. काही क्षण एका जागी थांबून अंदाज घेतल्यावर अचानक तो एकदम घराबाहेर गेला. अवघ्या काही सेकंदात हे सगळं घडलं. पटकन दार लावून घेतलं. आई जोरजोरात टाळ्या वाजवायला लागली तर मुलगी बायकोला बिलगली. मी मात्र  “हुssssश” करत मटकन खाली बसलो. खूप मोठं ओझं उतरल्यासारखं वाटत होतं. तितक्यात बायकोनं विचारलं “सासूबाई, नक्की पाहुणा एकच आला होता की… ” ते ऐकून मी कोपरापासून हात जोडले. तिघीही जोरजोरात हसायला लागल्या. —-

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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