आत्म प्रकृति स्वाधीन शक्ति से ,अपना जन्म प्रकटता हूँ।।6।।
भावार्थ : मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।।6।।
Though I am unborn and of imperishable nature, and though I am the Lord of all beings, yet, ruling over My own Nature, I am born by My own Maya. ।।6।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(सुश्री सुषमा भंडारी जी साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं । प्रस्तुत है आपकी भावपूर्ण कविता आगे-आगे क्यूं तू भागे? आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )
(यह एक संयोग ही है की आज के ही दिन श्री आशीष कुमार जी की पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’ का विमोचन है। श्री आशीष जी को उनकी इस नवीनतम कृति की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें।)
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। आज के साप्ताहिक स्तम्भ में प्रस्तुत है एक अत्यन्त भावुक एवं मार्मिक संस्मरण “सरदार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #6 ☆
☆ सरदार ☆
मैंने अपनी अभियांत्रिकी सूचना प्रौद्योगिकी से सन 2000 से लेकर 2004 तक की थी । इस दौरान मैंने अपनी जिंदगी के 4 साल उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में व्यतीत किये और बहुत कुछ सिखने को मिला । मैं अभियांत्रिकी के सूचना प्रौद्योगिकी की बात नहीं कर रहा बल्कि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया । अलग अलग तरह के लोगो से वास्ता पड़ा सबकी सोच को समझने की कोशिश की । उस दौरान ये भी समझ में आया की कैसे किसी की संस्कृति, रहन सहन, उसका क्षेत्र और उसके माता पिता, भाई बहन आदि का उसके विचारो, प्रकृति और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है । अभियांत्रिकी में शुरू का 1 महीना तो जान पहचान आदि में ही बीत जाता है ।
धीरे धीरे मेरी भी मेरी शाखा सूचना प्रौद्योगिकी के बाक़ी साथियो से जान पहचान और कुछ से दोस्ती भी शुरू हो गयी एक लड़का जो की सरदार जी थे हमेशा कक्षा में देर से आता था कभी कभी तो आता भी नहीं था एक दिन हमारी व्यक्तित्व विकास (Personality Development) का व्याख्यान (lecture) था उसमे अध्यापिका ने बोला के आज आप सब लोग अपना परिचय (Introduction) दीजिये । तो सब साथी अपना परिचय ऐसे दे रहे थे ‘My Name is….’ और हमारी अध्यापिका सबको Ok Ok बोल रही थी । कुछ देर बाद सरदार जी का नंबर आया उन्होंने अपना परिचय My name is …….से शुरू नहीं किया बल्की ‘I am … ‘ से शुरू किया । अध्यापिका ने बोला वैरी गुड जब हमे कोई अपना परिचय देने को बोले तो हमे I am and name बताना चाहिए ना की शुरुवात ही my name is से करनी चाहिए । क्योकि सामने वाला आपके बारे में पूछ रहा है ना कि केवल आपका नाम । उसके बाद कक्षा के सब छात्र अपना परिचय ‘I am …’ से ही देने लगे । सरदार जी ने जो अपना नाम बताया था वो मेरे दिमाग पर छप गया वो नाम था ‘राजविंदर सिंह रैना’
धीरे धीरे राजविंदर और मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी । फिर अभियांत्रिकी के दूसरे साल में मैं और राजविंदर कमरा साथी (Roommate) बन गए । मैं राजविंदर को बोला करता था यार तुम्हे तो Modeling में जाना चाहिए था तो वो हमेशा बोलता ‘नहीं यार Modeling के लिए तो बहुत कम उम्र से तैयारी करनी पड़ती है और मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ’ तो जवाब में बोलता ‘तुम्हारा नाम है राजविंदर सिंह रैना मतलब तुम्हारे नाम में राजा भी है और शेर भी, और ना ही राजा कभी बूढ़ा होता है ना ही शेर’ इस बात पर राजविंदर बहुत हँसा करता था । राजविंदर में ये विशेषता थी की वो अपनी बातो से किसी रोते हुए को भी हँसा सकता था ।
इंजीनियरिंग में लड़के रात रात भर जागते है कुछ पढ़ाई करते है कुछ खुराफ़ात । हमारे कमरे से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक चाय की टपरी थी जिसे एक बाप और दो बेटे चलाते थे । बाप और एक बेटा सुबह से रात तक चाय की टपरी संभालते थे और दूसरा बेटा रात से सुबह तक । ऐसे वो ‘गुप्ता जी’ की चाय की टपरी 24X7 खुली रहती थी । कॉलेज की परीक्षाओ के समय हम लोग रात को कभी भी गुप्ता जी की चाय की टपरी पर चाय पीने चले जाते थे कभी रात्रि में 11:30 कभी रात्रि में 2:00 कभी सुबह 5:00 आदि आदि । रात के समय गुप्ता जी की चाय की टपरी पर काफी रिक्शा वाले भी बैठे रहते थे क्योकि वो बेचारे अपना घर चलाने के लिए रात में भी रिक्शा चलाते थे क्योकि रात मे पैसे थोड़े ज्यादा मिल जाते थे धीरे धीरे मेरी और राजविंदर की उन रिक्शावालों से भी अच्छी पहचान हो गयी थी ।
अब अगर हम लोगो को अपने घर (Hometown) जाना हो तो हम लोग रात को गुप्ता जी की चाय की टपरी पर से ही रिक्शा लेते थे क्योकि ज्यादातर ट्रेन मेरे और राजविंदर के Hometown के लिए रात में ही चलती थी तो घर जाते समय हम लोग पहले गुप्ता जी के यहाँ चाय पीते फिर वही से रिक्शा में बैठ कर रेलवे स्टेशन चले जाते । सामान्य तौर पर हम लोग ट्रेन का टिकट कई दिन पहले ही बुक करा लेते थे पर कभी कभी अचानक भी जाना पड़ता था ऐसे ही एक बार राजविंदर को अचानक अपने घर जम्मू जाना था सर्दी का समय था उसकी ट्रेन करीब रात के 12:30 पर बरेली आती थी । हम लोग रात 10:00 बजे के करीब गुप्ता जी की चाय की टपरी पर पहुंचे हमने चाय पी, फिर मैंने राजविंदर से पूछा ‘यार तेरा ट्रेन में टिकट बुक नहीं हुआ है तो टिकट और रास्ते के लिए पैसे है या नहीं ?’ तो राजविंदर ने कहा ‘Don’t worry यार 500 रूपये है’ मैंने कहा ‘ठीक है’ फिर हमे गुप्ता जी की चाय की टपरी पर ही एक जानने वाला रिक्शावाला मिल गया राजविंदर उस रिक्शा में बैठ गया मैंने उसे विदा किया और वापस कमरे की तरफ चल दिया ।
मैं घर आ कर सो गया अगले दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की रात को करीब 3:00 बजे राजविंदर का फ़ोन आया था उस समय सन 2001 में मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करता था तो राजविंदर का फ़ोन उस दोस्त के पास आया था जिसके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था मैंने उस दोस्त से घबरहाट और उत्सुकता से पूछा ‘क्या हुआ इतनी रात को उसने फ़ोन क्यों किया था ?’
उस दोस्त ने कहा ‘यार वो बिना टिकट यात्रा कर रहा था T.C. ने पकड़ लिया था तो किसी स्टेशन से फ़ोन कर के T.C. को ये confirm करा रहा था की वो स्टूडेंट है ताकि T.C. उसे छोड़ दे ‘ मैंने बोला ‘नहीं यार ऐसा कैसे हो सकता है जब वो गया था तो उसके पास 500 रूपये थे उतने में स्लीपर का टिकट आराम से आ जाता’ उस दोस्त ने कहा ‘पता नहीं यार’ । जब राजविंदर अपने घर से वापस आया तो सबसे पहले मैंने उससे यही पूछा ‘यार तेरे पास तो टिकट के लिए पैसे थे फिर बिना टिकट यात्रा क्यों कर रहे थे ?’ तो वो बोला ‘यार वो रामलाल चाचा वो जिनकी रिक्शा में बैठकर मैं स्टेशन तक गया था उनकी बच्ची बहुत बीमार थी और उनके पास डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे इसलिए मैंने 500 रूपये उन्हें दे दिए थे’ मैं मन में सोच रहा था की जो किसी और की परेशानी मे अपने पास के सारे पैसे किसी जरूरतमंद को देदे और बिना टिकट यात्रा करता हुआ पकड़ा जाये शायद उसी को सरदार बोलते हैं। दिल से सलाम है राजविंदर को ।
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं। आप कविता की विभिन्न विधाओं में दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम आपका “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना की कवितायें ” शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं। इस शृंखला की यह तीसरी कड़ी है। संभवतः ‘साहित्य संसार’ शीर्षक से काव्यप्रकार : सुधाकरी अभंग (६,६,६,४) में रचित यह कविता उनके साहित्य संसार में से उत्कृष्ट रचनाओं में से एक होनी चाहिए। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की कविता “साहित्य संसार”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -3 ☆
Every parent wants the best for their children, they want their child to be happy and flourish.
However, finding the right education for their child can be a challenge.
Positive education emphasises the importance of training the heart as well as the mind in education.
Positive Education curriculum has been implemented with good results in schools in Australia, USA and Germany.
Be the first one to start this initiative at your school in India!
Well-being should be taught in school on three grounds:
As an antidote to depression
As a vehicle for increasing life satisfaction
And as an aid to better learning and more creative thinking.
“All young people need to learn workplace skills, which has been the subject matter of the education system in place for two hundred years. In addition, we can now teach the skills of well-being – of how to have more positive emotion, more meaning, better relationships, and more positive accomplishment. Schools at every level should teach these skills”.
Martin Seligman Founder, Positive Psychology “Positive Education is preparing students for the tests of life, not just a life of tests. All schools can and should be 21st century schools”.
Anthony Seldon “Positive education is based on the science of well-being and happiness.“
Positive Education is –
an approach to education that blends academic learning with character & well-being.
preparing students with life skills such as: grit, optimism, resilience, growth mindset, engagement, and mindfulness amongst others.
“Widespread support is necessary for the success of the positive education movement.“
“Positive education views school as a place where students not only cultivate their intellectual minds, but also develop a broad set of character strengths, virtues, and competencies, which together support their well-being”.
“In consultation with world experts in positive psychology, the Geelong Grammar School developed its
‘Model for Positive Education’ to complement traditional learning – an applied framework comprising six domains: Positive Relationships, Positive Emotions, Positive Health, Positive Engagement, Positive Accomplishment, and Positive Purpose.
“Positive education is a whole-school approach to student and staff well-being: it brings together the science of positive psychology with best-practice teaching, encouraging and supporting individuals and communities to flourish.”
Our Fundamentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings. Email: [email protected]
Founders: LifeSkills
Jagat Singh Bisht
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
Radhika Bisht:
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “औरत! ”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 5 ☆
☆ औरत! ☆
तुझे इन्सान किसी ने माना नहीं
तू जीती रही औरों के लिये
तूने आज तक स्वयं को पहचाना नहीं।
नारी!
तू नारायणी
भूल गयी,शक्ति तुझमें
दुर्गा और काली की
तु़झ में ही औदार्य और तेज
लक्ष्मी,सरस्वती-सा
तूने उसे पहचाना नहीं।
तुझमें असीम शक्ति
दुश्मनों का सामना करने की
पराजित कर उन्हें शांति का
साम्राज्य स्थापित करने की
तूने आज तक उसे जाना नहीं।
तुझमें ही है!
कुशाग्र बुद्धि
गार्गी और मैत्रेयी जैसी
निरूत्तर कर सकती है
अपने प्रश्नों से
जनक को भी
तूने आज तक यह जाना नहीं।
तुझमें गहराई सागर की
थाह पाने की
साहस लहरों से टकराने का
सामर्थ्य आकाश को भेदने की
क्षमता चांद पर पहुंचने की
तूने अपने अस्तित्व को पहचाना नहीं।
तू पुरूष सहभागिनी!
दासी बन जीती रही
कभी तंदूर,कभी अग्नि
कभी तेजाब की भेंट चढती रही
तुझमें सामर्थ्य संघर्ष करने का
तूने स्वयं को आज तक पहचाना नहीं।
(डॉ भावना शुक्ल जी को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की शिक्षाप्रद लघुकथा “हृदय का नासूर…” । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #3 साहित्य निकुंज ☆
☆ हृदय का नासूर… ☆
‘ मां क्या हुआ? इतनी दुखी क्यों बैठी हो?”
“बेटा क्या बताये आजकल लोग कितनी जल्दी विश्वास कर लेते है। सब जानते है अपनों पर विश्वास बहुत देर में होता है फिर भला ये कैसे कर बैठी अनजान पर विश्वास।
“मां कौन?”
“प्रिया और कौन?”
“ओह्ह …प्रिया आंटी सोहन अंकल की बेटी!”
“हाँ हाँ वही …”
“क्या हुआ?”
“अभी-अभी फोन आया प्रिया का तो वह बोली …दीदी बहुत गजब हो गया मैं कहे बिना नहीं रह पा रही हूँ पर आप किसी से मत कहना मन बहुत घबरा रहा है।
“अरे तू बोलेगी अब कुछ या पहेलियां की बुझाती रहेगी।“
“हाँ हाँ बताती हूँ …”
“एक दिन बस स्टेण्ड पर एक अजनबी मिला बस आने में देर हो रही थी और मैं ऑटो करने लगी तभी एक लड़का आया और बहुत नम्रता से बोला मुझे भी कुछ दूरी तक जाना है प्लीज मुझे भी बिठा लीजिये मैं शेयर दे दूँगा। मैं न जाने क्यूँ उसके अनुरोध को न टाल पाई और ठीक है कह कर बिठा लिया। अब तो रोज की ही बात हो गई वह रोज उसी समय आने लगा और न जाने क्यों? मैं भी उसका इन्तजार करने लगी। हम रोज साथ आने लगे और एक अच्छे दोस्त बन गए। उसने कहा “एक दिन माँ से मिलवाना है।”
हमने कहा…”हम दोस्त बन गए है अच्छे पर मेरी शादी होने वाली है हम ज़्यादा कहीं आते जाते नहीं न ही किसी से बात करते है पता नहीं आपसे कैसे करने लगे?”
वह बोला “…कोई बात नहीं फिर कभी …”
कुछ दिन बीतने पर वह दिखाई नहीं दिया हमे चिंता हो गई तो हमने फोन किया तो उसकी मम्मी ने उठाया वह बोली …”पापाजी बहुत बीमार है ऑपरेशन करवाना है अभि पैसों के इंतजाम में लगा है बेटा आते ही बात करवाती हूं।”
थोड़ी देर बाद अभि का फोन आया वह बोला “क्या बताये? पापा को अचानक हॉर्ट में दर्द हुआ और भर्ती कर दिया। अब ऑपरेशन के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत है 50 मेरे पास है 50 हजार की ज़रूरत है।
हमने कहा …”कोई बात नहीं हमसे ले लेना।”
वह बोला “नहीं … हमने कहा हम सोच रहे तुम्हारे पापा हमारे पापा।“ और अगले दिन उसे पैसा दे दिया। कुछ दिन बाद कुछ और पैसों से हमने मदद की। वह बोला…”हम तुम्हारी पाई-पाई लौटा देंगे। मुझे नौकरी मिल गई है हमें कंपनी की ओर से बाहर जाना है दो माह बाद आकर या तुम्हारे अकाउंट में डाल देंगे। कुछ दिन वह फोन करता रहा बातें होती रही एक दिन उसके फोन से किसी और दोस्त का फोन आया और वह बोला…
“मैं बाथरूम में फिसल गया पैर टूट गया है चलते नहीं बन रहा मैं जल्दी आकर तुम्हारा क़र्ज़ चुकाना चाहता हूँ।
हमने कहा “कोई बात नहीं …कुछ दिन बाद बैंक में डाल देना।“
बोला “ओके.”
दो चार दिन बाद हमने मैसेज किया “प्लीज पैसा भेजो।“
तब उसके दोस्त का फोन आता है “एक दुखद सूचना देनी है गलती से अभि की गाड़ी के नीचे कोई आ गया और एक्सिडेंट हो गया तो उसे पुलिस ले गई है। वह आपसे एस एम एस से ही बात करेगा आज मैं यह फोन उसे दे दूँगा।“
हमने कहा…”हे भगवन ये क्या हो गया बेचारे की कितनी परीक्षा लोगे।”
कुछ समय बाद उसका मैसेज आया “मैं ठीक हूं जल्द ही बाहर आ जाऊंगा”।
तब हमने कहा …”आप अपने दोस्त से कहकर मेरा पैसा डलवा दो मेरी शादी है मुझे ज़रूरत है।”
वह बोला “ठीक है …”
फिर हमने कई बार मैसेज किया कोई जबाब नहीं आया।
तब मैं बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी एक साथ उसके साथ जो घटा वह वास्तव में था या सिर्फ़ एक नाटक था।
तब मन में एक अविश्वास का बीज पनपा और हमने उसका नंबर ट्रेस किया तो वह नंबर भारत में ही दिखा रहा था। यह जानकर मन दहल गया और वह दिन याद आया जब वह बहुत अनुरोध कर रहा था होटल चलने की कुछ समय बिताने की लेकिन हमने कहा “नहीं हमें घर जाना है यह सही नहीं है तुम्हारे साथ मेरा दोस्त रुपी पवित्र रिश्ता है।“
दीदी बोली… “बेटा पैसा ही गया इज्जत तो है। बेटा अब पछताये होत क्या जब… ।”
“अब अपने आप को कोसने के सिवा कोई चारा नहीं है दीदी। यह तो अब हृदय का नासूर बन गया है।”
(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे। आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प पाचवे – धावती भेट. . . . !” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प पाचवे #-5 ☆
☆धावती भेट. . . . ! ☆
किती बरं वाटतं *धावती भेट* हा शब्द ऐकल्यावर. खरच आजच्या स्पर्धेच्या युगात ही धावती भेट आवश्यक झाली आहे. भरधाव वेगाने जाणाऱ्या अलिशान वातानुकुलित गाडीतून विहंगम दृश्यांची धावती भेट मनाला टवटवीत करून जाते.
ब-याच वर्षानी महाविद्यालयीन जीवनातील एखादा मित्र लोकलमध्ये, प्रवासात बसमध्ये घाई घाईत आपला मोबाईल क्रमांक घेतो. अचानक पणे कधीतरी आपला पत्ता शोधत आपल्या ऑफिस वर, घरी येऊन धडकतो. त्याच अस अवचित येण मनापासून आवडत. एकमेकांना कडकडून भेटताना दोघांच्या चेहर्यावरचा आनंद खूप काही देऊन जातात. हे समाधान मिळण्यासाठी योग यावा लागतो. हल्ली मित्रांच्या गाठी भेटी व्यावहारिक पातळीवर अस्तित्वात येतात. पार्टी साठी येणारा मित्र जेव्हा पार्ट टी वर खूष होतो ना तेव्हा ते समाधान काही औरच असते.
धावत्या भेटीत मिळालेली आठवणींची वस्त्रे आपल्याला मनाने चिरतरुण ठेवतात. धावत्या भेटीत वेळेचा हिशेब नसतो पण ही भेट संपू नये असे वाटत असतानाच एकमेकांचा निरोप घ्यावा लागतो. धावती भेट घ्यायला कुठल्याही नियोजनाची गरज नसते. एक विचार मनात येतो आणि परस्परांना भेटण्याची ओढ ही धावती भेट घडवून आणते.
कौटुंबिक जीवनातील ताणतणाव दूर करण्यासाठी आपल्या आवडत्या पर्यटन स्थळाला धावती भेट दिली तर मिळणारं समाधान नवी उमेद देत ही उर्मी, उर्जा मनाला उभारी देते. हल्ली या व्यवहारी जगात एकमेकांच्या मनाचा फारसा विचार कुणी करत नाही. प्रत्येक जण आपापल्या परीने विचार करून मोकळा होतो. सहजीवनात याच गोष्टी वादाचे कारण बनतात. एकमेकांशी मनमोकळा संवाद साधायचा असेल तर अशा धावत्या भेटी व्हायला हव्यात. आवडती वस्तू, आवडत्या व्यक्तीला आठवणीने देण्यात जे समाधान मिळते ते अनमोल आहे. त्यासाठी पैसा नाही थोडा समंजस पणा हवा. आपले पणा हवा.
देवाचे दर्शन घेताना देवळाबाहेर उभे राहून चप्पल बूट न काढता केवळ बाहेरून हात जोडून देवदर्शन करता येते पण जरा थोडा वेळ काढून गाभाऱ्यात जाऊन देवदर्शन घेतल्यावर मनाला मिळणारे समाधान अवर्णनीय आहे. तेव्हा या धकाधकीच्या जीवनात आपल आयुष्य अधिक आनंदी करायचे असेल लोकाभिमुख रहायचे असेल तर धावती भेट घ्यायलाच हवी. संवाद साधताना मी देखील घेतोय धावती भेट. . . तुमच्यातल्या रसिकाची आणि माणसातल्या माणसाची. . . . !
(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है। आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है। एक युवा लेखक के रुप में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते। हाल ही में आपकी एक मराठी कथा “पबजी” e-abhivyakti में प्रकाशित हो चुकी है। हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भावुक एवं मार्मिक मराठी कथा अनिश्चितता।)
☆ अनिश्चितता ☆
सकाळीच रोहितला जाग आली पण त्याला अंथरूणातुन उठावसं वाटत नव्हतं. रात्रीच्या जारणाने त्याची झोप पुर्ण झाली नव्हती. सवयीमुळे नेहमीच्याच वेळेवर त्याला जाग आली. पण डोळ्यांत झोप मात्र शिल्लक होती. अंग जड-जड वाटत होतं. डोकंही दुखत होतं. रात्री उशिरापर्यंत त्याला एकच विचार भेडसावत होता. कि काय होईल? या एकाप्रश्नाने त्याची झोप उडाली होती. वय 27 झाली होती. घरी बाबांची तब्येत बरी नव्हती. बाबांना दमाचा त्रास आहे. काही दिवसांपूर्वीच डाॅक्टरांनी निदान केलं होतं. बाबा म्हणत होते “मी जिवंत आहे तोवर संसाराला लागुन जा. मी गेल्यानंतर तुला कोणी विचारणार नाही. तो मोठा आहे. त्याचं लग्न झालंय. तो त्याच्या संसारात रमला आहे. तो तुझ्यावर लक्ष देणार नाही. त्यात तुझी आई म्हातारी ती काय करेल.” बाबांचं म्हणणं जरी भावनिक होतं पण ते योग्य होतं. कारण त्याच्या मोठ्या भावाचं लग्न होऊन चार वर्षंपेक्षा जास्त वेळ झाला होता. लग्नानंतर मोजून दोन महिने राहिला असेल तो. नंतर त्याच्या बायकोला घेऊन बड्या शहरात निघून गेला होता. गेला तो परतला नव्हता. एकंदरीत म्हणायचं झालं तर त्यानं पुन्हा त्यांच्याकडे ढुंकूनही पाहिलं नव्हतं. म्हणुन तो काही करेल ही उमेद बाबांनीही आणि रोहितनेही सोडली होती. जे काही करायचं ते रोहितलाच करायचं होतं. वय झालं म्हणुन बाबांची तब्येत बरी राहत नव्हती. आणि त्यातच दमाचं नादान. म्हणजे पायाखालची जमीन सरकली होती रोहितची. मोठ्या भावाच्या गोड गोड शब्दाना भुलून होतं तेवढं शेतही विकून टाकलं होतं. आणि आता सगळंच आयुष्य उन्हात उभं होतं. ते घरच तेवढं शिल्लक राहिलं होतं. आणि त्या घराची परिस्थिती बदलावी. आणि गेलेलं शेत परत मिळावं म्हणून म्हणुन रोहितने एका अशा जगात उडी घेतली होती जिथं काही निश्चीत नव्हतं. सगळं काही अनिश्चित होतं. ते क्षेत्र असं होतं कि ज्यात आपलं कोणीच नव्हतं. तिथं जायला त्याच्यासाठी दरवाजे बंद होते. खिडकी तेवढी उघडी होती. तो दरवाजा आतुन उघडण्यासाठी तो जिवाचे रान करत होता. घरची गरिबी आणि सुखी भविष्याचे स्वप्न घेऊन तो मुंबईत आला होता.
मुंबई म्हणजे पैसे वाल्यांची. आणि त्याच्याकडे तोच नव्हता. पण येणा-या काळावर आपल्या कौशल्याचा घाव घालून बदलावा. या निर्धाराने तो मुंबईत आला होता. सुरूवातीच्या चार- सहा महिन्यांच्या निराशेनंतर आता कुठेतरी जम बसायला लागला होता. काही अंशी त्याला यशही मिळू लागलं होतं. मुंबईने आता कुठे तरी त्याला आपलंसं करायला सुरूवात केली होती. पण जे काही मिळतं होतं त्यात त्याचं भागत होतं. आणि त्यांतच बाबांच्या आजाराचं निदान होणं. हे त्याला हैराण करून सोडणारं होतं. आता बाबांच्या इलाजासाठी त्याला पैसे हवे होते. ते कुठून नि कसे येणार? आणि आता पुढे काय?
बाबांचं म्हणणं होतं की लग्न कर. आता त्याच्या समोर तिहेरी संकट आलं होतं. हो संकटच म्हणावं लागेल. एक तर गेलेली शेती, लग्न आणि बाबांचा दवाखाना. भावाकडून त्याला अपेक्षा नव्हती. जे काही करायचं ते त्यालाचं करायचं होतं. आणि याच विचारांनी त्याला झोप आली नव्हती.
सकाळी उठला तेव्हा त्याचं डोकं दुखत होतं. शरीर जड-जड वाटत होतं. पण त्याकडे कानाडोळा करून तो अंथरूणातुन उठला. आणि आपल्या नित्याच्या कामाला लागला. तो कामावर जायची तयारी करत होता तेव्हा त्याला घरून फोन आला. ” बाबाना पुन्हा श्वास घ्यायला त्रास होतोय. त्यांना दवाखान्यात दाखल केले आहे. तू लवकर घरी ये.” त्याने फोन ठेवला. आणि कामावर गेला. डोक्यात तोच विचार होता. रोहितने बाॅस कडे पैसे मागितले तेव्हा बाॅस म्हटला. ” अरे, आता तर जाऊन आला तू गावाकडे. आणि मागच्या महिन्यात तूझ्या किती सुट्या आहेत. पगाराची तारीख पण अजुन लांब आहे. कसा देऊ तुला पैसे?” म्हणत बाॅसने नकार दिला. पण थोडी विनवणी केल्यानंतर व त्याची सर्व हकीकत ऐकल्यानंतर बाॅस पैसे द्यायला तयार झाला. पण त्यापूर्वी त्याच्याकडून मरणाचं काम करून घेतले. थकलेल्या अवस्थेत तो घरी आला आणि न थांबता लगेच जायला निघाला.
गावी पोहोचल्यावर तो घरी न जाता सरळ दवाखान्यात गेला. डाॅक्टरांना भेटला. डाॅक्टरांशी भेट झाल्यानंतर बाहेर आला. तेव्हा समोर त्याचा भाऊ उभा दिसला. त्याने त्याच्याकडे दुर्लक्ष केले आणि पुढे जाऊ लागला. पण भाऊने त्याला हाक दिली “रोहित” तो मागे वळला. आणि एखाद्या अनोळखी माणसाने माणसाकडे आवाज दिल्यावर जसं उत्तर दिलं जातं. तस त्याने त्याला पाहीले. आईही बाजुलाच दवाखान्यातील खुर्च्यावर बसली होती. “फक्त तुझेच नाही माझेही बाबा आहेत ते. आता यापुढचा इलाज मी करेल त्यांचा” रोहीतने त्याला काही उत्तर दिले नाही. पण बाजुलाच बसलेल्या आईला त्याच्या बोलण्यात त्याचा स्वार्थ वाटला. तीने शांतपणे त्याला उत्तर दिले ” आता काही नाही रं बाबा आमच्याकडे तुला हिस्सा देण्यासाठी. डोकी लापवण्यासाठी तेवढी झोपडी -हायलीय. जा घेऊन जा ती बी. पण अश्या येळेला नको येऊ बाबा मंधी. एकतर आधीच पोरगं मरतयं माझं” आईच्या या बोलण्याने भावाच्या डोळ्यांत पाणी आलं. रडतच त्याने आईचे पाय धरले. आणि म्हटला ” नाही आये, मी काही घेण्यासाठी नाही आलो. मोठा मुलगा म्हणुन माझी जबाबदारी पार पाडण्यासाठी आलोय. चुकलं माझं, माफ कर मला” त्याच्या विरहाच्या दिवशी रडून-रडून डोळे सुजवून घेतलेली आईच्या डोळ्यांत आता मात्र एक थेंबही दिसत नव्हता. या आधीही त्याने अश्याच भावनिक गोष्टी बोलुन पार भिकेला लावलं होतं. म्हणुन त्याच्यावर विश्वास ठेवणं कठीण होतं. आणि म्हणुन ती गप्प होती. आईने कोणताही प्रतिसाद दिला नाही म्हणुन तो रोहित जवळ गेला. ” रोहित तू तरी सांग ना आईला. बघ ना ती कशी बोलतेय.” रोहितला मात्र त्याच्याबद्दल थोडीशीही तक्रार नव्हती. त्याने एक नजर आईकडे पाहिलं आणि भाऊकडे पाहून म्हटला. ” बाबा अजुन थोडेच दिवस………. ” अर्धवटचं बोलला आणि त्याचा अश्रंचा बांध फुटला. भाऊने त्याला मिठीत घेतले. आणि दोघेही ढसाढसा रडू लागले. दोघा भावांच्या कित्येक वर्षानंतरच्या भेटीने व त्या प्रेमळ मिठीने आईचेही डोळे पाणावले. ती ही निशब्द झाली होती.