ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 37 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 37

 

मेरा सदैव प्रयत्न रहता है कि मैं ई-अभिव्यक्ति से जुड़े प्रत्येक सम्माननीय लेखक एवं पाठकों से संवाद बना सकूँ। मैं सीधे तो संवाद नहीं बना पाया किन्तु, सम्माननीय लेखकों की रचनाओं के माध्यम से अवश्य जुड़ा रहा।  एक कारण यह भी रहा कि हम  ई-अभिव्यक्ति को तकनीकी दृष्टि से और सशक्त बना सकें ताकि हैकिंग एवं संवेदनशील विज्ञापनों से बचा सकें। अंततः इस कार्य में आप सबकी सद्भावनाओं से हम सफल भी हुए।

ई-अभिव्यक्ति में बढ़ती हुई आगंतुकों की संख्या हमारे सम्माननीय लेखकों एवं हमें प्रोत्साहित करती हैं।  हम कटिबद्ध हैं आपको और अधिक उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध कराने  के लिए।

 

हम प्रयासरत हैं कि आपको तकनीकी रूप से आगामी अंकों को नए संवर्धित स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सके।

अब मेरा प्रयास रहेगा कि आपसे ई-संवाद अथवा अपनी रचनों के माध्यम से जुड़ा रहूँ ।

अंत में मैं पुनः इस यात्रा में आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ और मजरूह सुल्तानपुरी जी की निम्न पंक्तियाँ  दोहराना चाहता हूँ :

 

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बवानकर 

12 अगस्त 2019

 

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – क्षण-क्षण ⌚

मेरे इर्द-गिर्द
बिखरे पड़े हज़ारों क्षण,
हर क्षण खिलते
हर क्षण बुढ़ाते क्षण।
मैं उठा,
हर क्षण को तह कर
करीने से समेटने लगा,
कई जोड़ी आँखों में
प्रश्न भी तैरने लगा,
क्षण समेटने का
दुस्साहस कर रहा हूँ,
मैं यह क्या कर रहा हूँ…?
अजेय भाव से मुस्कराता
मैं निःशब्द
कुछ कह न सका,
समय साक्षी है
परास्त वही हुआ
अपने समय को जो
सहेज न सका।
आपका दिन विजयी हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 12 – लाल जोड़ा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लाल जोड़ा”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 12 ☆

 

☆ लाल जोड़ा ☆

 

बहुत बड़ी स्मार्ट सिटी। चारों तरफ से आवागमन के साधन। स्कूल, कॉलेज, सिनेमा घर, बाजार, अस्पताल, सभी प्रकार की सुविधा। सिटी से थोड़ी दूर बाहर करीब 50 किलोमीटर के पास एक छोटा सा तालाब वहां 60-65 मकान जो झुग्गी झोपड़ी नुमा। शहर के वातावरण से बिल्कुल अनजान। अपने में ही मस्त रहना। और चाहे दुख हो चाहे सुख, बस वही सभी को निपटना। गांव से शहर कोई आता, जरूरत का सामान ले जाता। गाय भी पाले परंतु दूध अपने उपयोग के लिए नहीं करना। शहर में बेच कर पैसे कमाना। किसी के यहां मुर्गी का दड़बा भी है। बकरियां भी पाल रखे हैं। छोटे- बड़े, बच्चे, महिला, लड़कियां, सभी आपस में ही मिलकर रहना यही उनकी जिंदगी है।

रोज शाम को काम से सभी लौटने के बाद खाना बनाने वाले खाना बनाते हैं बाकी सब एक गोल घेरा बनाकर बैठे दिन चर्चा करते। किसी की बेटी की शादी, किसी के बेटे का ब्याह, सभी आसपास ही होता था।

उन्हीं घरों में बैदेही अपने माता – पिता के साथ रहती थी। जैसा नाम वैसा ही उसका काम। सभी का काम करती। बड़े – बुजुर्गों के काम पर चले जाने के बाद खुद 14 साल की बच्ची परंतु, अपने से छोटे सभी का ध्यान रखती थी। स्कूल तो जैसे किसी ने देखा ही नहीं। कभी गए, कभी नहीं गए। क्योंकि, जाने पर घर का काम कौन करता। अक्षर ज्ञान सभी को आता था।

बैदेही पढ़ने में होशियार थी। उसके अपने साथ की सहेली उससे कहती “बैदेही तुम तो निश्चित ही शहर जाओगी।” परंतु बेहद ही कहती “अरे नहीं इस मिट्टी को छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। देखना इसी मिट्टी पर मेरा अपना घर होगा।”

दिन बीतते गया। बैदेही का ब्याह तय किया माँ बापू ने। एक लड़का पास के गांव में स्कूल में चौकीदार का काम करता था। सभी बस्ती के लोग बहुत खुश थे, बैदेही के ब्याह को लेकर। बाजे – गाजे बजने लगे, सुहाग का जोड़ा भी आ गया। बैदही के लिए सभी लाल सुर्ख जोड़े को देखकर प्रसन्न थे।

दिन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था बस्ती के सभी महिलाएं पुरुष पास में मंदिर गए हुए थे। छोटा सा पंडाल लगा था बैदही के घर। घर में कुछ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बैदेही को हल्दी लगनी थी।  सारी तैयारियां चल रही थी। खाना भी बन रहा था।

थोड़ी देर बाद अचानक आँधी चलने लगी। पंडाल जोर-जोर से हिलने लगा। मिट्टी का मकान सरकने की आवाज से बैदेही चौंक गई। तुरंत बच्चों को बाहर कर दिया और जरूरत का सामान बाहर लाने जा रही थी। हाथ में अपना लाल जोड़ा लेकर बैदेही बाहर दौड़ रही थी परंतु ये क्या! ऊपर से खपरैल वाला छत बैदेही के ऊपर आ गिरा। सैकड़ों लाल खपरैल से बैदेही दब गई। और जैसे आँधी एक बार में ही शांत हो गई। सभी आकर जल्दी-जल्दी बैदेही को निकालना शुरू किए। बहुत देर हो जाने के कारण बैदेही के प्राण- पखेरू उड़ चुके थे। बच्चों की जान बचाते बैदेही अपने सुहाग का जोड़ा हाथ में लिए सदा-सदा के लिए उसी मिट्टी में सो गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- आलेख – ✉ चिट्ठियाँ ✉ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का आलेख चिट्ठियाँ हमें एक बीते युग का स्मरण कराती है जिसका महत्व वर्तमान पीढ़ी को नहीं है।  वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक पीढ़ी ने अपने जीवन के वे क्षण कैसे चिट्ठियों की प्रतीक्षा और लेंडलाइन पर कॉल की प्रतीक्षा में व्यतीत किए थे।  सुश्री ऋतु जी का पुनः आभार।)

 

✉ चिट्ठियाँ  ✉

 

जब मैं सोचती हूँ कि मुझे लिखने की आदत कैसे पड़ी तब जेहन में एक ही ख्याल आता है चिट्ठियां लिखने की वजह से। हाँ, यह सच है जब हम स्कूल मैं पढ़ते थे तब चिट्ठी ही तो इक जरिया थी दूर संदेश भेजने का। लैंडलाइन फोन होते थे लेकिन एसटीडी सुविधा हर जगह उपलब्ध नहीं होती थी। हर गाँव में तो लैंडलाइन फोन उपलब्ध भी नहीं होता था। मेरे कॉलेज से निकलने के भी बहुत दिन बाद मोबाइल आया है। उस वक्त पेजर चला था मैसेंजर के तौर पर।

अरे मैं तो बात कर रही थी चिट्ठियों की। दरअसल मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मेरी दादी जी के नौ बच्चे और फिर उनके बच्चे देश विदेशों में हर जगह फैले हुए हैं। मेरी दादी जी हमारे पास गाँव में ही रहती थीं। सब जगह घूम फिर तो आती पर मन वापिस आकर गाँव में ही लगता। हम चार बहन-भाइयों में से अकेली मैं अपने माँ-बाप के साथ रह गई और बाकी सब हॉस्टल में चले गए। पापा व्यापार के चक्कर में बाहर रहते। माँ गृहकार्य में व्यस्त रहती। दादी जी को मैं मिलती सब जगह चिट्ठी लिखवाने के लिए, कभी किसी ताऊजी, चाचाजी, बुआजी, मामाजी या किसी अन्य रिश्तेदार को । मैं पारांगत हो गई थी लिखने में। सब कहते बिट्टू (निक नेम) से चिट्ठी लिखवाया करो, सारे समाचार लिखती है। मैं इतना सुनकर ही बस फूली न समाती।

अब जब मेरे खुद के भाई-बहन हॉस्टल में थे तो रूटिन और बढ़ गई। मेरा उनसे इस तरह बात कर एकाकीपन दूर हो जाता। मेरे दोनों भाई अब विदेश में सैटल हो गये हैं, उनको राखी भेजने लगी तो मेरे छोटा भाई जो अमेरिका में है उसकी बात याद आ गई “पहले भी तो इतनी चिट्ठियां लिखती थी, और तू तो वैसे भी लिखती है, कम से कम चार लाइन तो राखी के साथ लिख कर भेज दिया कर”। जो मुझे हर बार ऐसे ही भावुक कर चिट्ठी लिखने को मजबूर कर देता है, मैंने उन दोनों को अपने हाथ से लिख राखी के साथ पोस्ट किया। आँखें भर आई उनको याद कर, सोच रही थी कि क्यों भगवान ने मुझे इतना अंतर्मुखी बना दिया जो उनसे खुल कर फोन पर बात भी नहीं कर सकती। जब चिट्ठी लिखती थी उनको तो हर बात कर लिया करती। फिर मुझे कहीं न कहीं चिट्ठियों के लगभग विलुप्त होते अस्तित्व पर अफसोस सा होता है। मेरी जिंदगी में अब चिट्ठियों की जगह डायरी ने लेना शुरु कर दिया था, लेकिन वह तो सिर्फ अपना दिल हल्का करने का माध्यम भर है। कई दफा वे दिन याद कर व जब बतौर याद रखी कुछ चिट्ठियां उठा पढ़ने लगती हूँ, तब लगता है काश! वह दौर फिर लौट आये।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #12 – पोत माझा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता  “पोत माझा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 12 ☆

? पोत माझा ?

 

फक्त दिसतो मी मवाल्यासारखा

पोत माझा हा फुलांच्यासारखा

 

गंध व्हावे अन् फिरावे वाटता

धुंद वारा हा दिवाण्यासारखा

 

सहज येथे गायिला मल्हार मी

नाचला मग मेघ वेड्यासारखा

 

सागराची गाज माझ्यावर अशी

आणि दिसला तू किनाऱ्यासारखा

 

पेटलेला कोळसाही वागतो

ऊब देते त्या मिठीच्यासारखा

 

मोरपंखी पैठणी तू नेसता

पदर वाटे हा पिसाऱ्यासारखा

 

जीवनाचा सपक वाटे सार हा

जीवनी तू या  मसाल्यासारखा

 

गोड कोठे बोलणे शिकलास हे

गायकीच्या तू घराण्यासारखा

 

तख्त ना हे ताज येथे राहिले

ना अशोका तू नवाबासारखा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।7।।

 

जो योगी रखता स्वयं इंद्रियों पर अधिकार

सब कुछ करते हुये भी कोई न उस पर भार।।7।।

      

भावार्थ :  जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।।7।।

 

He who is devoted to the path of action, whose mind is quite pure, who has conquered the self, who has subdued his senses and who has realised his Self as the Self in all beings, though acting, he is not tainted. ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – तो चलूँ….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?संजय दृष्टि  – तो चलूँ….! ?

 

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने कागज़ के माथे पर

कलम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का लिख लूँ

तो चलूँ…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(कविता संग्रह ‘योंही’)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 – मोर के आँसू ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  नौवीं  कड़ी में उनकी  एक अद्भुत कविता   “मोर के आँसू ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 ☆

 

☆ मोर के आँसू ☆ 

 

जंगल में मोर नाचा …..

किसने देखा?

इसने देखा? उसने देखा?

 

पर अब पता चला कि-

किसी ने भी नहीं देखा।

 

काले-काले  मेघ देखकर,

मोरनी नाचती रहती है,

और

नाम मोर का लगता है।

 

मोरनी जब थक जाती है,

अपने पैर देखकर रोती है।

तब मोर को दया आती है,

और

वह भी आँसू बहा देता है।

 

सारा खेल यहीं हो जाता है,

फिर मोरनी आँसू पी लेती है,

एक जीवन की शुरुआत होती है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #12 – नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   बरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 12 ☆

 

☆ नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆

 

सदा से कोई भी गलत काम करने से समाज को कौन रोकता रहा है ? या तो राज सत्ता का डर या फिर मरने के बाद ऊपर वाले को मुंह दिखाने की धार्मिकता, या आत्म नियंत्रण अर्थात स्वयं अपना डर ! सही गलत की पहचान ! अर्थात नैतिकता.

वर्तमान में भले ही कानून बहुत बन गये हों किन्तु वर्दी वालों को खरीद सकने की हकीकत तथा विभिन्न श्रेणी की अदालतों की अति लम्बी प्रक्रियाओं के चलते कड़े से कड़े कानून नाकारा साबित हो रहे हैं. राजनैतिक या आर्थिक रूप से सुसंपन्न लोग कानून को जेब में रखते हैं. फिर बलात्कार जैसे अपराध जो स्त्री पुरुष के द्विपक्षीय संबंध हैं, उनके लिये गवाह जुटाना कठिन होता है और अपराधी बच निकलते हैं. इससे अन्य अपराधी वृत्ति के लोग प्रेरित भी होते हैं.

धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने विभिन्न धर्मों की जो अवमानना की है, उसका दुष्परिणाम भी समाज पर पड़ा है. अब लोग भगवान से नहीं डरते. धर्म को हमने व्यक्तिगत उत्थान के साधन की जगह सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का साधन बनाकर छोड़ दिया है. धर्म वोट बैंक बनकर रह गया है. अतः आम लोगों में बुरे काम करने से रोकने का धार्मिक डर नहीं रहा. एक बड़ी आबादी जो तमाम अनैतिक प्रलोभनों के बाद भी अपने काम आत्म नियंत्रण से करती थी अब मर्यादाहीन हो चली है.

पाश्चात्य संस्कृति के खुलेपन की सीमाओं व उसके लाभ को समझे बिना नारी मुक्ति आंदोलनो की आड़ में स्त्रियां स्वयं ही स्वेच्छा से फिल्मो व इंटरनेट पर बंधन की सारी सीमायें लांघ रही हैं. पैसे कमाने की चाह में इसे व्यवसाय बनाकर नारी देह को वस्तु बना दिया गया है.

ऐसे विषम समय में नारी शोषण की जो घटनाएँ रिपोर्ट हो रही हैं, उसके लिये मीडिया मात्र धन्यवाद का पात्र है. अभी भी ऐसे ढ़ेरों प्रकरण दबा दिये जाते हैं.

आज समाज नारी सम्मान हेतु जागृत हुआ है. जरूरी है कि आम लोगों का स्थाई चरित्र निर्माण हो. इसके लिये समवेत प्रयास किये जावें. धार्मिक भावना का विकास किया जाए. चरित्र निर्माण में तो एक पीढ़ी के विकास का समय लगेगा तब तक आवश्यक है कि कानूनी प्रक्रिया में असाधारण सुधार किया जाये. त्वरित न्याय हो. तुलसीदास जी ने लिखा है “भय बिन होय न प्रीत”..ऐसी सजा जरूरी लगती है जिससे दुराचार की भावना पर सजा का डर बलवती हो.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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सूचना – वर्जिन साहित्यपीठ: लघुकथा मंजूषा – 4 हेतु लघुकथाएं आमंत्रित

वर्जिन साहित्यपीठ: लघुकथा मंजूषा – 4 हेतु लघुकथाएं आमंत्रित

 

(पुस्तक पेपरबैक और ईबुक, दोनों रूपों में प्रकाशित की जाएगी।)

रॉयल्टी: 50% लेखकगण + 30% संपादन मंडल + 20% साहित्यपीठ (पहली 10 प्रति की बिक्री साहित्यपीठ के पास रहेगी)। रॉयल्टी 11वीं प्रति की बिक्री से प्रारंभ होगी।

पारदर्शिता हेतु गूगल, पोथी और अमेज़न की सेल रिपोर्ट यहीं प्रति माह के प्रथम सप्ताह में शेयर की जाएगी।

नमस्कार मित्रों। सार्थक लेखन हेतु सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

लघुकथा मंजूषा  – 1, 2 एवं 3 की सफलता के पश्चात वर्जिन साहित्यपीठ लघुकथाकारों  से लघुकथा मंजूषा – 4 हेतु लघुकथाएं आमंत्रित करता है। आप अपनी प्रकाशित/अप्रकाशित 2 बेहतरीन लघुकथाएं [email protected] पर भेज दें।  सब्जेक्ट में “लघुकथा मंजूषा – 4, 2019 हेतु” अवश्य लिखें।

प्लेटफॉर्म: ईबुक अमेज़न, गूगल प्ले स्टोर, और गूगल बुक्स के साथ सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी में उपलब्ध होगी जबकि पेपरबैक पोथी की वेबसाइट से अथवा हमसे मँगवा सकेंगे।

समय सीमा: लघुकथाएं भेजने की अंतिम तिथि है – 15 अगस्त, 2019।  31 अगस्त, 2019 तक संकलन प्रकाशित कर दिया जाएगा।

पाण्डुलिपि भेजने से पूर्व निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर अवश्य ध्यान दें:

  • लघुकथाएं मंगल/यूनिकोड फॉण्ट में भेजें
  • साथ में फोटो और संक्षिप्त परिचय भी अवश्य भेजें
  • भेजने से पूर्व अशुद्धि अवश्य जाँच लें। अधिक अशुद्धियाँ होने पर रचना अस्वीकृत की जा सकती है।
  • ईमेल में इसकी उद्घोषणा करें कि उनकी रचना मौलिक है और किसी भी तरह के कॉपीराइट विवाद के लिए वे जिम्मेवार होंगे।

सूची: चयनित लघुकथाकारों की सूची और अन्य सभी अपडेट 20 अगस्त को साहित्यपीठ के फेसबुक ग्रुप और पेज पर जारी की जाएगी। अतः पेज को फॉलो करें और ग्रुप जॉइन करें।

किसी भी तरह की जिज्ञासा अथवा शंका समाधान हेतु 9971275250 पर सम्पर्क करें।

धन्यवाद

वर्जिन साहित्यपीठ

9971275250

 

(टीप : www.e-abhivyakti.com  में  प्रकाशित उपरोक्त  सूचना  कोई  विज्ञापन नहीं  है। अपितु,  आपको एक  जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास है।)

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