सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का आलेख चिट्ठियाँ हमें एक बीते युग का स्मरण कराती है जिसका महत्व वर्तमान पीढ़ी को नहीं है।  वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक पीढ़ी ने अपने जीवन के वे क्षण कैसे चिट्ठियों की प्रतीक्षा और लेंडलाइन पर कॉल की प्रतीक्षा में व्यतीत किए थे।  सुश्री ऋतु जी का पुनः आभार।)

 

✉ चिट्ठियाँ  ✉

 

जब मैं सोचती हूँ कि मुझे लिखने की आदत कैसे पड़ी तब जेहन में एक ही ख्याल आता है चिट्ठियां लिखने की वजह से। हाँ, यह सच है जब हम स्कूल मैं पढ़ते थे तब चिट्ठी ही तो इक जरिया थी दूर संदेश भेजने का। लैंडलाइन फोन होते थे लेकिन एसटीडी सुविधा हर जगह उपलब्ध नहीं होती थी। हर गाँव में तो लैंडलाइन फोन उपलब्ध भी नहीं होता था। मेरे कॉलेज से निकलने के भी बहुत दिन बाद मोबाइल आया है। उस वक्त पेजर चला था मैसेंजर के तौर पर।

अरे मैं तो बात कर रही थी चिट्ठियों की। दरअसल मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मेरी दादी जी के नौ बच्चे और फिर उनके बच्चे देश विदेशों में हर जगह फैले हुए हैं। मेरी दादी जी हमारे पास गाँव में ही रहती थीं। सब जगह घूम फिर तो आती पर मन वापिस आकर गाँव में ही लगता। हम चार बहन-भाइयों में से अकेली मैं अपने माँ-बाप के साथ रह गई और बाकी सब हॉस्टल में चले गए। पापा व्यापार के चक्कर में बाहर रहते। माँ गृहकार्य में व्यस्त रहती। दादी जी को मैं मिलती सब जगह चिट्ठी लिखवाने के लिए, कभी किसी ताऊजी, चाचाजी, बुआजी, मामाजी या किसी अन्य रिश्तेदार को । मैं पारांगत हो गई थी लिखने में। सब कहते बिट्टू (निक नेम) से चिट्ठी लिखवाया करो, सारे समाचार लिखती है। मैं इतना सुनकर ही बस फूली न समाती।

अब जब मेरे खुद के भाई-बहन हॉस्टल में थे तो रूटिन और बढ़ गई। मेरा उनसे इस तरह बात कर एकाकीपन दूर हो जाता। मेरे दोनों भाई अब विदेश में सैटल हो गये हैं, उनको राखी भेजने लगी तो मेरे छोटा भाई जो अमेरिका में है उसकी बात याद आ गई “पहले भी तो इतनी चिट्ठियां लिखती थी, और तू तो वैसे भी लिखती है, कम से कम चार लाइन तो राखी के साथ लिख कर भेज दिया कर”। जो मुझे हर बार ऐसे ही भावुक कर चिट्ठी लिखने को मजबूर कर देता है, मैंने उन दोनों को अपने हाथ से लिख राखी के साथ पोस्ट किया। आँखें भर आई उनको याद कर, सोच रही थी कि क्यों भगवान ने मुझे इतना अंतर्मुखी बना दिया जो उनसे खुल कर फोन पर बात भी नहीं कर सकती। जब चिट्ठी लिखती थी उनको तो हर बात कर लिया करती। फिर मुझे कहीं न कहीं चिट्ठियों के लगभग विलुप्त होते अस्तित्व पर अफसोस सा होता है। मेरी जिंदगी में अब चिट्ठियों की जगह डायरी ने लेना शुरु कर दिया था, लेकिन वह तो सिर्फ अपना दिल हल्का करने का माध्यम भर है। कई दफा वे दिन याद कर व जब बतौर याद रखी कुछ चिट्ठियां उठा पढ़ने लगती हूँ, तब लगता है काश! वह दौर फिर लौट आये।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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आशीष कुमार

Very nice… totally corelate with my childhood time…. Thanks