English Literature – Poetry ☆ Festival ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “त्यौहार” published today as ☆ संजय  दृष्टि – त्यौहार   We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

☆  English Version  of  Poem of  Shri Sanjay Bhardwaj ☆ 

☆ Fesival – by Captain Pravin  Raghuwanshi

Roads surrounded with

Riot control team vehicles,

Rapid Action Force jawans,

Flag marching alertly,

Police examining the

vehicle papers,

Habitually adept with

impending scenario

Familiar yet  ominous smell

prevailing all-over…

Looks like,

some festival

is going to come

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 35 – मानव शरीर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “मानव शरीर। )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 35 ☆

☆ मानव शरीर

चक्र मूल रूप से एक से अधिक नाड़ियों के संयोजन या मिलन स्थल होते हैं । नाड़ियाँ सूचना या भौतिक प्रवाह के माध्यम हैं जो शरीर के विभिन्न भागों से बहती हैं । प्रत्येक चक्र एक विशेष दर और वेग पर कपंन करता है । ऊर्जा परिपथ (सर्किट) के निम्नतम बिंदु पर चक्र कम आवृत्ति पर कार्य करते हैं । निम्नतम बिंदु पर उनका तत्व स्थूल होता हैं और वह स्थूल जागरूकता की स्थिति बनाते हैं । ऊर्जा परिपथ के शीर्ष के चक्र उच्च आवृत्ति पर कार्य करते हैं, जैसे जैसे शरीर में नीचे से ऊपर की ओर बढ़ते है चक्रों की आवृति बढ़ती जाती है और जागरूकता उच्च बुद्धिमत्ता की ओर बढ़ती जाती है ।

पहले चक्र को आधार या ‘मूलाधार चक्र’ कहा जाता है । मूल का अर्थ है ‘जड़’ या ‘मुख्य’ और आधार का अर्थ ‘नींव’ है, इसलिए ‘मूलाधार चक्र’ अन्य चक्रों और पूरे प्राणिक शरीर के लिए आधार के रूप में कार्य करता है ।

आत्मा के बाहर शरीर के पाँच आवरण होते हैं और वे बाहर से अंदर की ओर अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश हैं । सभी चक्र ‘प्राणमय कोश’ के अधीन आते हैं क्योंकि ‘प्राणमय कोश’ शरीर के अंदर के सभी प्राणों के सभी कार्यों के लिए मंच का कार्य करता है जो कि ऊर्जा कि मूल इकाई है और सभी चक्र भी इस ऊर्जा के भंडार गृह का ही कार्य करते हैं । यदि आप विभिन्न कोशों के नाम देखते हैं तो वे अन्नमय कोश, प्राणमय कोश आदि हैं कोश का अर्थ है शरीर या आश्रय (आत्मा का) ।

अन्नमय दो शब्दों का संयोजन है, अन्न का अर्थ है शरीर और मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ और ‘मय’ या ‘माया’ का बहुत गहरा अर्थ है कि यह शरीर हमारी एक ‘झूठी’ या नकली पहचान है जो एक दिन समाप्त हो जानी है । तो अन्नमय कोश का अर्थ है एक ‘शरीर’, या बाहरी निकाय से निर्मित शरीर जो आकश-समय परिसर में दिखाई देता है या जिस शरीर को अन्य अनुभव कर सकते हैं या देख सकते हैं । तो अन्नमय कोश का अर्थ है अन्न (भोजन) से बना आश्रय, जो एक दिन नष्ट हो जाता है । प्राणमय कोश जैसे अन्य चार निकायों का भी लगभग समान अर्थ जैसे प्राणमय कोश के लिए एक दिन प्राण से बना शरीर नष्ट हो जाएगा इत्यादि अन्य कोशों के लिए । अंत में ‘आनंदमय कोश’ का अर्थ है कि एक दिन आनंद या खुशी का आश्रय समाप्त हो जाएगा और इस तरह जब ये सभी पाँचों आश्रय नष्ट हो जाएंगे, तब केवल शुद्ध आत्मा ही रहेगी और उसी को मोक्ष या निर्वाण या अनंत का ज्ञान कहा जाता है ।

विभिन्न प्रकार के कोशों ने हमारी आत्मा को पाँच अवास्तविक सीमाओं से ढक रखा है । एक-एक करके, जब हमारे विभिन्न कोशों से संबंधित कर्म जलते जाते हैं या हमारे कर्मों का असर ख़त्म हो जाता हैं, तो सभी कोश अदृश्य हो जाते हैं और केवल आत्मा बचती है जो ईश्वर में विलीन हो जाती है ।

हमारे शरीर में कई छोटी छोटी नाड़ियाँ होती हैं जो वाहक के रूप में कार्यकरती हैं और हमारे शरीर में सूचना को एक बिंदु से दूसरे बिंदुतक ले जाने का कार्य करती हैं । ये हमारे शरीर के अंदर विद्युत चुम्बकीय संकेतो के रूप में कार्य करते हैं । पुराने ऋषि हमारे शरीर के अंदर 72,000 नाड़ियों का उल्लेख करते हैं ताकि सूचनात्मक प्रवाह सक्रिय रह सके ।

नाड़िया हमारे शरीर की हर कोशिकाओं, और भागों को अपने विशालजाल-तंत्र के माध्यम से ऊर्जा प्रदान करती हैं और विभिन्न प्रकार के प्राणों को आगे और पीछे की दिशा में ले जाती हैं । शरीर के भीतर कुछ महत्वपूर्ण नाड़िया हैं, जिनमें तीन और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं । पहली को ईड़ा या गंगा या चंद्रमा या चुंबकीय नाड़ी कहा जाता है, दूसरी को पिंगला या यमुना या विद्युतीय नाड़ी कहा जाता है, और तीसरी सबसे महत्वपूर्ण है, जो सुषुम्ना या सरस्वती या अग्नि नाड़ी है ।

ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है । शिव स्वरोदय ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है । इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है । इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है – जो मेरुदण्ड में सबसे नीचे स्थित है । स्वरयोग के अनुसार जब श्वास का प्रवाह बाईँ नसिका-रंध्र में होता है तो वह मानसिक कार्यों के हेतु मनस शक्ति प्रदान करती है । इससे माँशपेशियों में शिथिलता आती है और शरीर का तापमान कम होता है । यह इस बात का भी संकेत है कि इस अवधि में मन अन्तर्मुखी तथा सृजनात्मक होता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य को थकाने वाले और परिश्रम के कार्य को टालना चाहिए ।

शरीर के दाये भाग में पिंगला नाड़ी होती है । इससे शरीर में प्राण शक्ति का वहन होता है जिसके फलस्वरूप शरीर में ताप बढ़ता है । इससे शरीर को श्रम, तनाव और थकावट सहने की क्षमता प्राप्त होती है। यह मनुष्य को बहिर्मुखी बनाती है । पिंगला नाड़ी में सूर्य का निवास रहता है । जिस समय पिंगला नाड़ी कार्य करती है उस समय साँस दाहिने नथने से निकलती है । प्रणतोषिणी में बहुत से कार्य गिनाए गए हैं जो यदि पिंगला नाड़ी के कार्यकाल में किए जायँ तो शुभ फल देते हैं—जैसे, कठिन विषयों का पठनपाठन, स्त्रीप्रसंग, नाव पर चढ़ना, सुरापान, शत्रु के नगर ढाना, पशु, बेचना, जुई खेलना, इत्यादि ।

सुषुम्ना नाड़ी वह नाड़ी है जो नाड़ी का जिस स्थान पर मिलन होता है, उसी स्थान से निकल कर आज्ञा-चक्र से होते हुए मूलाधार स्थित मूल में लिपटी हुई कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) रूप सर्पिणी के मस्तक पर जाकर लटक जाती है तत्पश्चात् यह नाड़ी कुण्डलिनी-शक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूरक-चक्र, अनाहत्-चक्र एवं विशुद्ध-चक्र होते हुए आज्ञा-चक्र में पहुँचकर ‘सः’ रूप आत्मा के स्थान पर खुली हुई पड़ी रहती है । दूसरे शब्दों में सुषुम्ना नाड़ी वह नाड़ी है जो आत्मा (सः) रूप चेतन शक्ति को जीव रूप अहम रूप में परिवर्तन हेतु कुण्डलिनी-शक्ति रूप आत्मा से एक-दूसरे को मिलने का मार्ग प्रशस्त करते हुए दोनों को जोड़ती है । सुषुम्ना नाड़ी की सांसारिक कोई उपयोगिता नहीं होती परन्तु (शिव और शक्ति से मिलने अर्थात) इसके बिना योग की कोई क्रिया नहीं की जा सकती ।

ग्रहस्थ वर्ग के लिए ईड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी नियत है परन्तु योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि के लिए सुषुम्ना नाड़ी ही नियत की गयी है । ईड़ा और पिंगला नाड़ी सुख, प्रसन्नता आदि के लिए हैं तो सुषुम्ना नाड़ी आनन्द और शान्ति के लिए नियत की गई है । ईड़ा और पिंगलानाड़ी सांसारिक सुखोपलब्धि कराने वाली होती हैं तो सुषुम्ना नाड़ी ब्रम्हानन्दोपलब्धि कराने वाली होती है । सुषुम्ना नाड़ी आत्मिक अथवा शाक्तिक कार्यों में जितनी ही सुगमता पूर्वक सफलता उपलब्ध कराती है, सांसारिक कार्यों में उतनी ही दुरूहता और विध्न उत्पन्न करती है । सांसारिक लाभ किसी भी रूप में इससे हासिल नहीं हो सकता है ।

प्रत्येक चक्र एक से अधिक नाड़ियों का मिलन स्थल होता है जैसे मूलाधार चक्र में चार नाड़ियों का मिलन होता हैं । ऋषियों ने इन नाड़ियों को कमल की पंखुड़ियों के रूप में बताया है । तो मूलाधार चक्र में चार कमल पंखुड़िया होती हैं ।

यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एक चक्र ऐसी नाड़ियों का मिलान स्थल होता है जो लगभग एक ही प्रकार के संकेतों को स्थानांतरित करता है । उदाहरण के लिए मूलाधार चक्र की ओर आने वाली और वहाँ से शरीर के अन्य भागों की ओर जाने वाली नाड़ियों में एक ही तरह की चेतना से युक्त संकेत होते हैं अर्थात पृथ्वी तत्व से संबंधित विभिन्न प्रकार की संवेदनाएं । इसी प्रकार दूसरे चक्र या स्वाधिष्ठान चक्र की छः नाड़ियों में जल तत्व से संबंधित संवेदनाएं होती है जो की मूलाधार चक्र के तत्व पृत्वी की संवेदनाओं की तुलना में पूर्णतया पृथक होती है । जैसा कि आप जानते हैं, प्रत्येक चक्र एक तत्व से संबंधित है । आज्ञा चक्र के बाद प्राण और चेतना के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता है और केवल ब्रह्माण्डीय जागरूकता ही शेष रहती है ।

मूलाधार चक्र और इसके तत्व पृथ्वी को लो । पृथ्वी तत्व में प्राण के कंपन शून्य या सबसे कम होते हैं । यह वास्तव में पदार्थ की ‘जड़ता’ की अवस्था है या आप इसे प्रकृति के ‘तामस’ गुण के रूप में बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । जैसे जैसे हम पहले से दूसरे से तीसरे चक्र तक जाते हैं इसी तरह, संबंधित तत्वों में प्राण के कंपन बढ़ते रहते हैं और आज्ञाचक्र में अधिकतम संभव हो जाते हैं । क्योंकि अंजना या आज्ञा चक्र में, प्राण के कंपन अधिकतम संभव होते हैं, इसलिए आप ब्रह्मांड के किसी भी कोनों से अधिकतम संभव दूरी से जानकारी को प्राप्त कर सकते हैं इसे ही दिव्य दृष्टि या अतिन्द्रिय दृष्टि (clairvoyance) कहा जाता है । अर्थात अगर हम अंजना चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो अंतर्ज्ञान संभव है ।

‘अनाहत चक्र’ जो की शरीर के सात चक्रों में मध्य का होता है, का तत्व वायु है और इस अनाहत चक्र में प्राण के कंपन नीचे के तीनों चक्रों से ज्यादा होते हैं, लेकिन अंजना और ‘सहस्रार चक्र’ से कम होते हैं, और यहाँ तत्व गतिशील रूप में या प्रकृति के ‘राजस’ गुण में होता है । इसी तरह से सातवें चक्र ‘सहस्रार’ की बात करें तो वहाँ पर प्राण के कंपन अनंत हो जाते हैं इसलिए यहाँ कोई फर्क नहीं पड़ता है की तत्व की अवस्था द्रव्य है या ऊर्जा, यहाँ केवल चमकदार चेतना का वास होता है । प्राण मूलाधार चक्र में उत्पन्न होता है, मणिपुर में संग्रहित, विशुद्धी में शुद्ध और अंजना से शरीर के विभिन्न भागों को वितरित किया जाता है । यहाँ मूलाधार चक्र में प्राण उत्पन्न होने का तात्पर्य है कि मूलाधार चक्र में प्राण उस रूप में आ जाता जैसे कि शरीर को आवश्यक होता है जैसे कि मैं पहले भीप्राणोंऔर उप-प्राणों के विषय में समझा चूका हूँ ।

मैं इसे आपको और विस्तार से समझाऊंगा । पदार्थ ऊर्जा की एक अभिव्यक्ति है । हम इसे प्रसिद्ध समीकरण ऊर्जा = द्रव्यमान x प्रकाश की गति का वर्ग या ‘सांख्य दर्शन’ से हम कह सकते हैं कि राजस  = तामस x प्रकाश की गति का वर्ग । इसी तरह ऊर्जा भी चेतना की एक अभिव्यक्ति है । हम उपरोक्त समान समीकरण बना सकते हैं और कह सकते हैं, चेतना = ऊर्जा x M, जहाँ M गुणांक है, जो विचारों की गति को दर्शाता है (मन की गति) ।

पूरे अभिव्यक्ति के लिए हम दोनों समीकरणों का गठबंधन कर सकते हैं अर्थात चेतना = ऊर्जा x M + द्रव्यमान x प्रकाश की गति लेकिन मन की गति M>>>>>प्रकाश की गति ।

तांत्रिक इस चेतना को शिव और ऊर्जा को शक्ति कहते हैं । संख्या दर्शन में, इस चेतना को ‘पुरुष’ कहा जाता है और ऊर्जा को ‘प्रकृति’ कहा जाता है और वेदांत के अनुसार, इसी चेतना को ‘ब्रह्म’ कहा जाता है और ऊर्जा को ‘माया’ कहा जाता है । तो हम कह सकते हैं कि चेतना, M के साथ सीधे आनुपातिक है, जो विचारों की गति है । क्या आप मन की गति के विषय में जानते हैं? यह आँखों की झपकी के भीतर ब्रह्मांड में कहीं भी यात्रा कर सकता है । हिंदू इतिहास में रथों के कई ऐसे उदाहरण हैं, जो विचारों की गति से उड़ सकते थे । यहाँ तक ​​कि जब भगवान राम ने रावण को हराकर उसका वध कर दिया, और लंका से अयोध्या जाने के लिए तैयार थे, तब मैंने उन्हें पुष्पक विमान से अयोध्या जाने का अनुरोध किया, जो मन की गति से कहीं भी यात्रा कर सकता था । अब यह उपरोक्त स्पष्टीकरण से बहुत स्पष्ट है कि मन की गति सीधे चेतना पर निर्भर करती है। उस स्थिति में, पुष्पक विमान की गति उस व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करती है जो उसे उड़ा रहा हो ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 26 ☆ स्वातंत्र्य ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी काव्य विधा चारोळी में रचित एक कविता  “स्वातंत्र्य ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 26 ☆

☆ स्वातंत्र्य ☆ 

(काव्य प्रकार:-चारोळी)

 

स्वातंत्र्य म्हणजे काय

स्वच्छंदीपणे आयुष्य

जगण्याचा अनुभव

अपेक्षितसे मनुष्य !!१!!

 

स्वातंत्र्य म्हणजे काय

हवं तेव्हा हव्याजागी

हिंडण्याची अनुमती

नको ती परवानगी!!२!!

 

स्वतंत्र्य म्हणजे स्वैर

नव्हे वागणं बोलणं

त्याने होतं  सारं सैल

आणि नको ते घडणं !!३!!

 

स्वातंत्र्य ही संकल्पना

हक्क  जाणीवेची जोड

हेच मनात रुजलं

स्वातंत्र्याला नाही तोड !!४!!

 

स्वातंत्र्यपूर्व काळात

सत्ता होती परकीय

जनतेची परवड

सारे पाहती स्वकीय!!५!!

 

मिळविण्यास स्वातंत्र्य

गेले फासावर नर

वेगे शत्रूसी झुंजत

झाले शहीद हो वीर !!६!!

 

काळ्या पाण्याची हो शिक्षा

भोगली नरवीरांनी

मिळविण्यास स्वातंत्र्य

झटले एकवटुनी !!७!!

 

त्यांचे करूया स्मरण

ज्यांनी देश घडविला

चरणी नमूया सारे

त्यांच्या अमर स्मृतीला !!८!!

 

©®उर्मिला इंगळे

सतारा

9028815585

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ कोरोना वायरस – सावधानी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव सामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है विश्व भर में फैली महामारी कोरोना वाइरस के संक्रमण से सावधानी बरतने का आह्वान करती एक समसामयिक, प्रेरक एवं विचारणीय कविता  “कोरोना वायरस – सावधानी )

 ☆ कोरोना वायरस – सावधानी ☆

कोरोनाची

आहे साथ

स्वच्छतेची

करा बात. . . !

 

विषाणूचा

प्रादुर्भाव

संसर्गाचा

अंतर्भाव.. . !

 

नको भिती

ठेवा धीर

उकळूनी

प्यावे नीर.. . . !

 

आयुर्वेद

योग्य मात्रा

अफवांची

नको यात्रा.. . . !

 

वैद्यकीय

सल्ला घेऊ

कोरोनाला

मात देऊ.. . . !

 

स्वच्छ ठेवू

घरदार

ठेवू रोग

सीमा पार. . . . !

 

प्रवासाचे

टाळू बेत

रोगी वारे

जाऊ देत. . . . !

 

आपणच

राहू  दक्ष

संसर्गाचा

नको पक्ष.. . !

 

रोग  असो

कोणताही

निष्काळजी

आता नाही. . . !

 

सावधानी

बाळगूया

आरोग्यास

सांभाळूया.. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #18 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #18 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

बाहर भीतर एक रस, सरल स्वच्छ व्यवहार ।

कथनी-करनी एक सी, यही धर्म का सार ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (8) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन )

 

न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।। 8।।

चर्म चक्षुओं से नही, देख सकोगे आर्य

दिव्य चक्षु देता तुम्हें सब लख सकने अनिवार्य  ।। 8।।

भावार्थ :  परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ, इससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख।। 8।।

 

But thou art not able to behold Me with these, thine own eyes; I give thee the divine eye; behold My lordly Yoga.।। 8।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 38 ☆ खामोश रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अतिसुंदर, विचारणीय  एवं सार्थक आलेख   “खामोश रिश्ते”.  डॉ मुक्ता जी का यह आलेख हमें  हम से ही रूबरू  कराता  है  एवं विवश करता है यह विचार करने के लिए कि – हम और हमारे सम्बन्ध या रिश्ते कितने स्वार्थी हैं और कितने निःस्वार्थी ।  इस  प्रेरणादायक आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 38 ☆

☆ खामोश रिश्ते 

‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु है कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह खामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं दर्द के संबंधों और संबंधों की हक़ीक़त। रिश्ते खामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अर्थात् आपके शब्दों की गूंज लौट आती है। आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। अधिकाधिक धन कमाना उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। यह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे यह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ दूसरों से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा में आदमी बाहर  निकल ही नहीं सकता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।

आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंधों को तो वह परमात्मा अथवा सृष्टि-नियंता बना कर भेजता है, इन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिसे आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल लोग ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इसका प्राधान्य है। इसलिए जब तक ज़रूरी है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए, उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण  हम गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी, माता-पिता का रिश्ता भी पावन नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह  दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के लिए विविध  ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में  फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।

आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई, सब सीमाओं को ताक पर रख, हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना, वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है औरत को… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है, पुरूष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।

आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव पुरूषों अर्थात् युवा से वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न-साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी डाका डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है… माता-पिता व गुरुजनों का बच्चों को  सुसंस्कारित न करना; उनकी गलत हरकतों पर  बचपन से अंकुश न लगाना, उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना… जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मनमाने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित है। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।

आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर चुकी हैं। प्रेम, सौहार्द, त्याग,सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार. नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं।वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फिक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा, एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख इससे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’  व विवाहेतर संबंध सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह-बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता-पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते, उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना, परिवार जनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

हैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है… तो हमारे लिए सुख-सुविधाएं जुटाना आपका प्राथमिक दायित्व था। हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में स्टोर-रूम आता है, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती,क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’,मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों से पल्लवित कर सकते हैं, जबकि वे तो माता-पिता के रूप में उनकी अहमियत स्वीकारने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं, अपनी तौहीन समझते हैं।

आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है, मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां, परिवार के लिए… करता है सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है…  ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’  और द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना’…इससे स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व चुप रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में  रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां स्पष्ट करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का…  जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं… ‘शायद ठंडी हो चुकी है अग्नि/ जो नहीं जला सकती इक्कीसवीं  सदी के/ रावण को।’ हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी   अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब पंक्तियां 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता की हैं, जो आज भी समसामयिक हैं।

विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपदा ही नहीं कमाना चाहता है…और प्रसिद्धि पाने के लिए वह ज़ुल्म करने व जीने का हक़ मिटाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता।

‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार करने व दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं।वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आजका फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर…हां! सब प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनो-मस्तिष्क में यह सब घूमता रहता है।

काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, पहले आप…पहले आप की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहतीऔर हमें मौन रूपी सन्नाटे का दंश नहीं झेलना पड़ता। रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में प्रतिस्थापित होते। हमें संबंधों को पुकारना अर्थात्  अपनत्व और ‘मैं हूं न’ का अहसास नहीं दिलाना पड़ता, न ही वे हमारी पुकार की गूंज के मोहताज होते अथवा उसे सुनकर चिरनिद्रा से जागते।

रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग  समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना ये रेत के कणों की भांति, पल भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो…यही सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब ये तहे-दिल से निकलें।   ‘खामोश सदाएं व दुआए, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन सन्नाटा पसर जाता है, जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने से, संदेह व शक़ को जीवन में दस्तक न देने से ही संबंध ज़िंदा रह सकते हैं, शाश्वत रूप ग्रहण कर सकते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 38 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  समसामयिक  “ भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 38 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  

 

मुझको फागुन में सरस, आती प्रिय की गंध।

गाल गुलाबी देखकर ,कर लेती अनुबंध।

 

होली के हर रंग में, मिला प्यार का रंग।

रंग बिरंगी हो गई, लगी पिया के अंग।

 

पिचकारी में भर रहा, पल पल का ये प्यार।

निकलेगी हर रंग से,  खुशियों की बौछार।

 

साजन से खुशियाँ सभी, साजन से हर रंग

डूबे रंग गुलाल में, सजनी साजन संग

 

फगुआ गाये फाग जब, बजे नगाडे ढोल।

झूम झूम सब गा रहे, मीठे तीखे बोल।

 

फगुहारे  मस्ती करें, हमजोली के संग।

होली की अनुभूति से, फड़क रहे सब अंग।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अभिव्यक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अभिव्यक्ति ☆

 

ऐसी लबालब

क्यों भर दी

अभिव्यक्ति तूने..?

बोलता हूँ तो

चर्चा होती है,

चुप रहता हूँ तो

और अधिक चर्चा होती है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 29 ☆ कविता लाती चेतना ……… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की काव्य विधा में निहित शक्ति पर आधारित  सशक्त कविता   “कविता लाती चेतना ………”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 29 ☆

☆ कविता लाती चेतना ………  ☆

 

कविता आँखे खोलती,कविता लड़ती जंग

कविता लाती चेतना,भरती हृदय उमंग

 

अंतस् में कविता उतर ,करती मार-प्रहार

दिल में जोश उभारती,कविता की तलवार

 

शस्त्र अकेले कर सकें,तन पर कड़क प्रहार

अंतर्मन झकझोरती,पर कविता की धार

 

जब जब कविता ने भरी,प्रबल प्रखर हुंकार

अर्जुन भी उठकर खड़ा ,करता है ललकार

 

दिला याद इतिहास की,फूँक रही उल्लास

कविता ही रण भूमि में,सदा जगाती आस

 

आजादी की जंग में,जब भी फूँकी जान

थर्राए अंग्रेज भी,सुन कविता की तान।।

 

लड़ती भ्रष्टाचार से,रह जन-जन के साथ

अनाचार से लड़ रही,थाम सत्य का हाथ

 

कविता ने ही देश को,दिया गर्व- सम्मान

कविता की फुफकार को,जाने सकल जहान

 

झुकी नहीं कविता कभी,हुआ नहीं अवसान

कविता से “संतोष” को,मिला सुखद सम्मान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares