हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #41 ☆ अंतस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  अंतस

महाभारत युद्ध के पूर्व सहयोगी के रूप में नारायण या नारायणी सेना चुनने का विकल्प दुर्योधन और अर्जुन के सामने था। मदांध दुर्योधन ने सेना को चुना। श्रीकृष्ण, पार्थसारथी हुए। महाभारत का परिणाम सर्वविदित है।

जो अंतस में है, उसे जागृत करने का अंतर्भूत सौभाग्य उपलब्ध  होते हुए भी जो बाहर दिख रहा है; मन भागता है उसकी ओर। वाह्य आडंबर न कभी सफलता दिलाते हैं न असफलता के कालखंड में न्यायसंगत मार्ग पर होने का सैद्धांतिक संतोष ही देते हैं।

सनद रहे, अंतस के सारथी के अनुरूप यात्रा करनेवाला पार्थ ही जीवन के महाभारत में विजयी होता है।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 26 – नमकीन नदी – स्त्रियां ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना ‘नमकीन नदी – स्त्रियाँ। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 26 – विशाखा की नज़र से

☆ नमकीन नदी – स्त्रियाँ ☆

स्त्रियाँ जानती हैं कीमियागिरी

वे धागे को मन्नत में

काजल को नज़र के टीके में

नमक को ड्योढ़ी में रख

इंतज़ार काटना जानती हैं

 

वे मिर्ची और झाडू से उतारतीं हैं बुरी बला

अपनी रसोई में खोज लेतीं हैं संजीवनी

कई बीमारियों का देतीं हैं रामबाण इलाज

अपनी दिनचर्या के वृत्त में भी

साध लेतीं हैं ईश्वर की परिक्रमा

माँग लेतीं हैं परिवार का सुख

कभी – कभी वे ओढ़तीं हैं कठोरता

दंड भी देतीं हैं अपने इष्ट को

रहते हैं वे कई प्रहर जल में मग्न

 

सारे संसार को झाड़ बुहार

आहत होतीं हैं अपनों के कटाक्षों से

तब , तरल हो रो लेतीं हैं कुछ क्षण

दिखावे के लिए काटतीं हैं ‘प्याज’*

है ना ! प्रिय स्वरांगी*

प्याज के अम्ल से तानों के क्षार की क्रिया कर

वे जल और नमक बनातीं हैं,

जिसमें तिरोहित करतीं हैं अपने दुःख

बनती जातीं हैं नमकीन

तुम पुरुष, जिसे लावण्य समझते हो !

* स्वरांगी साने की चर्चित कविता प्याज

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिंदी साहित्य – पुस्तक समीक्षा/आत्मकथ्य ☆ नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में  पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  प्रस्तुत है नवीन पुस्तक “नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) पर आत्मकथ्य श्री सुरेश पटवा जी के शब्दों में । )

☆ पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य  – नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)☆ 

विंध्य-सतपुड़ा मेखला की गगनचुंबी पर्वत श्रंखलाओं से घिरी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरी-महाराष्ट्र और दक्षिणी-गुजरात में जीवन दायिनी नर्मदा-घाटी मध्यभारत ही नहीं पूरे भारत के लिए प्रकृति के ऐसे वरदान स्वरुप मौजूद है कि करोड़ों मनुष्य व जीव-जन्तु के जीवन आदिकाल से आधुनिक काल तक यहाँ फलते फूलते रहे हैं। आदिमानव की पहली चीख पुकार से आधुनिक मनुष्यों के लोक-शास्त्रीय गायन का नाद-निनाद नर्मदा-घाटी  की वादियों में गूँजता रहा है। इनसे बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, गोंडवाना, मालवा और निमाड़ के इलाक़े बारिश के पानी, उपज, खनिज और वनोपज से मालामाल होते हैं। इन इलाक़ों के बाशिन्दों का जीवन आधार यही पर्वत मालाएँ हैं।

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नर्मदा-घाटी इन दोनो श्रंखलाओं के बीच भारत की जलवायु को दिशा देने वाली भौगोलिक स्थितियों का निर्माण करती है। विंध्य-सतपुड़ा के दामन में भारत के सबसे अधिक घने जंगल, जानवरों के विभिन्न प्रकार, क़िस्म-क़िस्म के पेड़ों-पौधों की प्रजातियाँ, मनभावन पक्षियों के झुंड और लुप्तप्रायः जानवरों की बहुतायत बान्धवगढ़, कान्हा-किसली, पेंच, पंचमढ़ी व मड़ई आरक्षित वनों में मौजूद हैं। विंध्य-सतपुड़ा के गगनचुंबी शिखर अण्डमान-निकोबार से आते दक्षिण-पूर्वी और केरल-लक्षद्वीप से उठते मानसूनी बादलों को जून से सितम्बर तक अपनी शत शिराओं में भरकर बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, मालवा, गोंडवाना और निमाड़ इलाक़े की प्यासी धरती और जीवों के प्यासे कंठों को पूरे साल तर रखते हैं। भारत के इन इलाक़ों में वर्ष भर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता सर्वाधिक है। इन पर्वत श्रंखलाओं के घने जंगल नवम्बर से जनवरी तक हिमालय से आती ठंडी हवाओं को रोक रबी फ़सल को नमी देकर अगहन की तीखी धूप से बचाते हुए पल्लवित-पुष्पित करते हैं। इनके साये से थोड़ी दूर जाकर देखेंगे तो बबूल के काँटेदार जंगलों से भरे राजस्थान-गुजरात के रेगिस्तान या खानदेश लातूर मराठवाड़ा का लू से तपता मृगतृष्णा बियाबांन पाएँगे।

सतपुड़ा न होता तो छत्तीसगढ़ धान का कटोरा नहीं होता। इनकी तराई में राजनांदगाँव, दुर्ग, बेमेतरा, बिलासपुर, अम्बिकापुर और शक्ति जिले हैं जो राजगढ़ के आगे छोटा नागपुर पहाड़ों से जुड़े हैं, पूर्व में कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर और कोंडागाँव में अबूझमाड़ पहाड़ों की श्रंखलाएँ होने से छत्तीसगढ़ का बिलासपुर, महासमुन्द, रायपुर, धमतरी, बेमेतरा, दुर्ग, भाटापारा, राजनांदगाँव जिलों का इलाक़ा धान का कटोरा कहलाता है जो महानदी को समृद्ध करके कटक और संबलपुर सहित उड़ीसा की जीवनरेखा बनाता है। विंध्य-सतपुड़ा से निकली नर्मदा-ताप्ती मध्यप्रदेश दक्षिणी-गुजरात और उत्तरी-महाराष्ट्र को सदानीरा रखतीं हैं। अतः मध्यप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की आबादी के जीवन का आधार विंध्य-सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाएँ हैं।

संस्कृत भाषा में नर्म का अर्थ है- आनंद और दा का अर्थ है- देने वाली याने नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली अर्थात आनंददायिनी। नर्मदा एक ऐसी अद्भुत अलौकिक नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा विकसित हुई है, आदि शंकराचार्य ने भी नर्मदा की परिक्रमा करते हुए इसके घाटों पर तपस्या, अध्ययन, चिंतन, मनन, शास्त्रों का संकलन और शास्त्रार्थ किया था। नर्मदा का अस्तित्व मध्य भारत की भौगोलिक संरचना से है जिस पर दार्शनिक, ऐतिहासिक, तात्त्विक और तार्किक दृष्टिकोण से लेखन नहीं हुआ है, यद्यपि भक्तिभाव से बहुत लिखा गया है। हिंदू धर्म के पौराणिक काल से भक्ति, वानप्रस्थ और सन्यास के साथ गृहस्थ परम्परा निभाव में नर्मदा अंचल का योगदान उल्लेखनीय रहा है लेकिन नर्मदा के इस पक्ष पर भी विस्तार पूर्वक प्रकाश नहीं डाला गया है। यह पुस्तक नर्मदा-अंचल की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उसी कमी को भरने का प्रयास है।

मैं सबसे पहले अपने विद्वान दोस्त श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के साथ जनवरी 2016 में नेमावर पंचकोशी नर्मदा परिक्रमा करने गया था, यात्रा  के दौरान  बड़ी  संख्या में लोगों को सामान सिर पर रखकर नंगे पैर लगभग दौड़ते हुए चलते देख कर दंग रह गया। उनकी श्रद्धा का स्रोत केवल अंधविश्वास नहीं हो सकता क्योंकि बिना जड़ का  पेड़ नहीं होता, आस्था की जड़ में ज़रूर कोई सनातन सत्य है, तय किया कि उसे ढूँढना है। वह सत्य नर्मदा परिक्रमा से ही उजागर होगा, और दो खंड परिक्रमाओं में होते दिख रहा है। आप नर्मदा परिक्रमा की परिपाटी  डालने वालों की दूरदृष्टि की प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रह पाएँगे कि किस तरह उन्होंने हिंदू दार्शनिक सिद्धांतों को तात्त्विक ऊँचाई से व्यावहारिक धरातल पर उतारकर जनमानस से जोड़ दिया।  इस पुस्तक में छः लोगों द्वारा अक्टूबर 2018 और नवम्बर 2019 में की गई पैदल नर्मदा परिक्रमा का यात्रा वृतांत प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें पढ़कर आपको पता चलेगा कि मनुष्यों की जानकारी, ज्ञान और मानसिकता का प्रभाव उनके नज़रिया और लेखन में झलकता है। मेरे लेखन में आपको पौराणिक संदर्भ के साथ धार्मिकता और आध्यात्मिकता के अंतर के साथ नर्मदा घाटी में बसावट के इतिहास से नर्मदा परिक्रमा की तार्किकता का पता चलेगा। अरुण भाई के लेखन में सामाजिक जागृति के सरोकार और प्रकृति के साथ ग्राम्य जीवन की सरसता के दर्शन होंगे। अविनाश भाई के विचारों में आपको प्राकृतिक वातावरण के साथ मानवीय संवेदनाओं के आयाम खुलते नज़र आएँगे और यात्रा में सहूलियत के लिहाज़ से बरती जाने वाली सावधानी पाएँगे। मुंशीलाल भाई धार्मिकता से पूरित सहज भक्ति भाव मय उद्गार व्यक्त करने में सिद्धहस्थ हैं वहीं प्रयास भाई ने कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं हैं। जगमोहन भाई ने पाँचों महानुभाव के विचारों के सम्बंध में समय-समय पर अपनी भावनाएँ स्वाभाविकता से व्यक्त की हैं।

आज़ादी के बाद मध्यप्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा की पहल पर नर्मदा घाटी प्राधिकरण गठित करके “नर्मदा घाटी परियोजना” बनाई थी जिसके अंतर्गत बरगी, तवा, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर बाँध और सरदार सरोवर बनाकर नर्मदा ने लोगों के लिए ख़ुशहाली के दरवाज़े खोलकर नर्मदा को सौंदर्य के साथ समृद्धि की नदी भी बना दिया। उज्जयिनी की समृद्ध संस्कृति ने भारत को सनातन वैराग्य का दर्शन दिया है।

सतपुड़ा पर्वत माला में वन्य-जीवन, पर्वतीय सौंदर्य, नदियों-झरनों, आदिवासी-जीवन, संरक्षित-अभ्यारण और नैसर्गिक सौंदर्य के पर्यटन की असीम सम्भावनाएँ निहित हैं। अमरकण्टक, बान्धवगढ़, कान्हा, पतालकोट, पंचमढ़ी, नागद्वारी, मड़ई, ओंकारेश्वर, महेश्वर के अलावा बरगी-बाँध, तवा-बाँध, इंदिरासागर-बाँध और ओंकारेश्वर-बाँध खेतिबारी के लिए पूरे साल पानी के साधन हैं। नर्मदा की महत्ता इससे समझी जा सकती है कि खेतों के सूखे कंठों को रसारस करने के बाद जबलपुर, होशंगाबाद, भोपाल, उज्जैन, देवास और इंदौर को जल आपूर्ति का साधन नर्मदा है। महाकाल की नगरी उज्जैन में जब कुम्भ का मेला भरता है तब पिता को जल चढ़ाने में पुत्री नर्मदा का जल उपयोग में लाया जाता है।

इस पुस्तक में “नर्मदा-अंचल” कई बार आएगा, उसका आशय स्पष्ट करना आवश्यक है। नर्मदा-अंचल में नर्मदा घाटी के साथ सतपुड़ा-विंध्याचल पर्वत श्रेणियों का वह भाग शामिल है जिसका जल-प्रवाह अंतत: नर्मदा में जाकर मिलता है। जहाँ के निवासियों का जीवन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नर्मदा से जुड़ा है। नर्मदा अंचल का विस्तार 98,796 वर्ग किलोमीटर में फैला है। देश की जलवायु को नम रखने वाली अत्यंत महत्वपूर्ण नदी नर्मदा पर विस्तृत जानकारी और हमारे दल की दो नर्मदा यात्राओं के रोचक संस्मरण के साथ यह पुस्तक प्रकाशित हो रही है ताकि इस महान नदी की आस्था व तर्क दोनों दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति में योगदान से लोगों को परिचित कराया जा सके। सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य मनुष्य की स्वाभाविक चाहत के विषय रहे हैं। नर्मदा घाटी में इन विषयों पर गहन चिंतन-मनन दार्शनिकता के स्तर तक हुआ है। आपको सतपुड़ा पर्वत और नर्मदा घाटी की महत्ता भक्तिभाव के साथ तर्क सम्मत दृष्टिकोण से बताने में यह किताब इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि आप नर्मदा के सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य दर्शन से अभिभूत हुए बग़ैर न रह सकेंगे।

मेरे दादा जी दौलतराम पटवा प्राथमिक शाला में शिक्षक थे परंतु पिताजी शंकर लाल पटवा निरक्षर रहे, दादा दौलतराम आदिवासी गाँव दूँड़ादेह से सोहागपुर की पाठशाला में पढ़ाने आते थे। पिता जी गौंड़ों के बच्चों के साथ जंगल के शिकारी बनते चले गए, आदिवासियों की स्वाभाविक अकड़ उनके व्यक्तित्व का मौलिक स्वभाव बनकर उन्हें पहलवानी की राह चलाकर अखाड़ों तक ले गई, पहलवानी अकड़ आजीवन उनकी पूँजी रही, विरासत में थोड़ी बहुत हमें भी मिली लेकिन अब ख़त्म होने की कगार पर है। दादा जी का ट्रांसफ़र दमोह हो गया तो उन्होंने नौकरी छोड़कर हमें पढ़ाने हेतु सोहागपुर ले आए, पिता जी रेल्वे स्टेशन पर खोमचे लगाने लगे। दादा जी के कमरे में एक मेज़ पर ग्रामोंफोन के बाजु में रहल के ऊपर लाल कपड़े में लिपटे शिवपुराण, विष्णुपुराण और भागवत पुराण रखे रहते थे, वे पुराणों का नियमित पाठ करते थे। जब किसी ऊधम पर पिता जी छड़ी लेकर हमारी सुताई को तैयार होते तब हम पुराण परायण में रत दादाजी के पास हाथ जोड़ और आँख बंद कर पुराण सुनने बैठ जाते। दादाजी पुराण पर नज़र रखे दाहिने हाथ की तर्ज़नी से पिता जी को इशारा कर हमारे रक्षाकवच बन जाते। गर्मी की छुट्टियों में दादाजी की ऐनक चढ़ाकर धीरे-धीरे हम भी तीनों पुराण पढ़ गए। मकरसंक्रान्ति और कार्तिक पूर्णिमा को दादाजी की छकड़ा गाड़ी में नर्मदा के पामली, रेवा बनखेड़ी और सांगाखेड़ा घाट जाते समय सोचा करते, नर्मदा आ कहाँ से रही है…………..और जा…….कहाँ रही है, इन पर्वतों के……..आगे क्या है। वही उत्सुकता हमें यायावर बना गई, यह घुमंतू क्षमता अंतिम यात्रा तक बनी रहे, यही अंतिम इच्छा है। इसी इच्छा से पैदल नर्मदा परिक्रमा द्वारा नर्मदा घाटी के अंदरूनी हिस्सों को देखकर लोकआस्था का मर्म महसूस करने की प्रेरणा विकसित हुई। अतः यह पुस्तक दादाजी दौलत राम पटवा को समर्पित है। पुस्तक की प्रूफ़-रीडिंग में हमारी नर्मदा परिक्रमा के साथी मेरे सगोत्रीय मुंशीलाल पाटकार एडवोकेट का सहयोग मिला है, वे धन्यवाद के पात्र हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा, भोपाल

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य ☆ डा. स्मृति शुक्ल

डा. स्मृति शुक्ल

 

डॉ स्मृति शुक्ल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  आप मानकुंवर बाई शासकीय महिला महाविद्यालय जबलपुर में प्रध्यापिका (हिन्दी विभाग)। यह आलेख सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत विमर्श। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।  आज प्रस्तुत है डॉ स्मृति शुक्ल जी का आलेख “समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य”।)

 ☆ समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य ☆ 

विवेक रंजन श्रीवस्तव व्यवसाय से इंजीनियर हैं, और हृदय से साहित्यकार। साहित्य में उनकी आत्मा बसती है, साहित्य के प्रति प्रेम उन्हें अपने परिवार से  विरासत में मिला है। उनके पिता श्री चित्रभूषण श्रीवास्तव जी हिन्दी के वरिष्ठ कवि, अनुवादक व चिंतक हैं। उनके पितामह स्व सी एल श्रीवास्तव आजादी के आंदोलन के सहभागी तथा मण्डला के सुपरिचित हस्ताक्षर रहे थे।

हिन्दी व्यंग्य विधा में विवेक रंजन श्रीवास्तव ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। वे एक अच्छे व्यंग्यकार इसलिये हैं क्योंकि वे एक अच्छे समाज दृष्टा हैं । परिवार, समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था जैसे विषयों की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पर वे सतत अपनी पैनी नजर रखते हैं। एक व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने संचित अनुभवों और समाज के प्रति प्रतिबद्धता तथा बहुत ही दोस्ताना शैली में समाज के प्रत्येक छद्म विषय पर अपनी लेखनी चलायी हैं। जब विवेक रंजन जी सामाजिक विसंगतियों पर, राजनैतिक छद्म पर, धार्मिक पाखंड पर अपनी रचनात्मक कलम चलाते हैं तब उनके मन में समाज को बदलने की बलवती स्पृहा होती है। उनकी इसी सकारात्मक परिवर्तनकामी दृष्टि से उनके व्यंग्यों का जन्म होता है। दरअसल व्यंग्य रचना एक गंभीर कर्म है। विवेक रंजन श्रीवास्तव बीस-पच्चीस वर्षो से अनवरत् व्यंग्य लिख रहे हैं। चाहे कोई भी घटना हो उनका ध्यान उस घटना के मूल कारणों पर जाता है और वे एक मारक, मार्मिक तथा तीखे व्यंग्य लेख की रचना कर देते हैं, जिसके अंत में प्रायः वे समस्या का समुचित समाधान भी सुझाते हैं, इस दृष्टि से वे अन्य हास्य व्यंग्य के कई लेखको से भिन्न हैं। विवेकरंजन के तीन व्यंग्य संग्रह ‘राम भरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, और ‘मेरे प्रिय व्यंग्य लेख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं। चौथा व्यंग्य संग्रह धन्नो बसंती और बसंत ई बुक के रूप में मोबाईल पर सुलभ है।

विवेक रंजन जी बहुत ही पारिवारिक अंदाज में अपने व्यंग्यों का प्रारंभ करते हैं बात पत्नी बच्चों से आरंभ होती है और देश की किसी बड़ी समस्या पर जाकर समाप्त होती है ‘भोजन-भजन’, फील गुड, आओ तहलका-तहलका खेलूँ, रामभरोसे की राजनैतिक सूझ-बूझ आदि ऐसे ही व्यंग्य लेख हैं । रामभरोसे जो इस देश का आम वोटर है, मिस्टर इंडिया जो गुमशुदा, सहज न दिखने वाला आम भारटिय नागरिक है तथा उनकी पत्नी उनके वे प्रतीक हैं जिनसे वे अपने व्यंग्य बुनते हैं। विवेक रंजन ने अपने व्यंग्य ‘आल इनडिसेंट इन ए डिसेंट वे’ में आज के युग में विवाह समारोहों में किये जा रहे वैभव प्रदर्शन, फूहड़ता, आत्मीयता का अभाव, अपव्ययता आदि पर विचार किया है। इस व्यंग्य के मूल में समाज-सुधार का भाव गहराई से निहित है।

‘नगदीकरण मृत्यु का’, ‘चले गये अंग्रेज’ आदि व्यंग्यों में व्यवस्था के तमाम अंतर्विरोध उजागर हुए हैं। आजादी के बाद भारत में जो स्थितियाँ बनी , सामाजिक राजनैतिक जीवन में जो विसंगत स्थितियाँ उपजीं, भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा, धर्म के क्षेत्र में पाखंडी बाबाओं का अतिचार बढ़ा अर्थात भारतीय समाज के सभी घटकों में इतनी असंगतियाँ बढ़ी कि तमाम साहित्यकारों का ध्यान इस ओर गया। हरीशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के.पी.सक्सेना, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी के साथ विवेक रंजन श्रीवास्तव ने जीवन यथार्थ के जटिलतम रूपों का बड़ी गहराई से अध्ययन करके अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक व्यंग्य लिखे। विवेक रंजन के व्यंग्य एक बुद्धिजीवी, सच्चे समाज दृष्टा, ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति तथा समाज सचेतक की कलम से निकले व्यंग्य है। इन व्यंग्यों में सदाशयता है तो विसंगतियों के प्रति तीव्र दायित्व बोध और आक्रामकता भी है ।

‘जरूरत एक कोप भवन की’ में भगवान राम के त्रेता युग से प्रारंभ करते हुए विवेक रंजन कोप भवन की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हुए वर्तमान युग में कोप भवन की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि – ‘आज कोप भवन पुनः प्रासंगिक हो चला है। अब खिचड़ी सरकारों का युग है। ………. अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधानसभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह का एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजकों को होगा। विभाग के बँटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही माँग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा वह कोप भवन में चला जायेगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुँचे, रूठे को मना लेंगे, फुसला लेंगे।

“लोकतंत्र पर छाया खतरा कोप भवन की वजह से टल जायेगा।“ इस उद्धरण में हास्य के पुट के साथ देश की राजनैतिक स्थिति पर बड़ा पैना व्यंग्य है। विवेक रंजन ने अपनी एक भाषा निर्मित की है। वे शब्द की स्वाभाविक अर्थवत्ता को आगे बढ़ाकर चुस्त बयानी तक ले जाते हैं। सही शब्दों का चयन उनका संयोजन, शब्दों के पारंपरिक अर्थों के साथ उनमें नये अर्थ भरने की सामथ्र्य ही उनकी व्यंग्य भाषा को विशिष्ट बनाती है। उदाहरण के लिये ‘पिछड़े होने का सुख व्यंग्य की ये पंक्तियाँ जो एक कहावत से प्रारंभ होती है –

‘‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम,

दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।’’

‘‘इन खेलों से हमारी युवा पीढ़ी पिछड़ेपन का महत्व समझकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर सकेगी । दुनिया के विकसित देश हमसे प्रतिस्पर्धा करने की अपेक्षा अपने चेरिटी मिशन से हमें अनुदान देंगे। बिना उपजाये ही हमें विदेशी अन्न खाने को मिलेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का हवाला देकर हम अन्य देशो के संसाधनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित कर सकेंगे। दुनिया हमसे डरेगी। हम यू.एन.ओ.में सेन्टर आफ अट्रेक्शन होंगे।’’ वस्तुतः यह व्यंग्य हमारे देश में आज तक जारी आरक्षण व्यवस्था पर है। अपने व्यंग्यों के माध्यम से विवेक रंजन जी आज के बदलते परिवेश और उपभोक्तावादी युग में मनुष्य के स्वयं एक वस्तु या उत्पाद में तब्दील होते जाने को, इस हाइटेक जमाने की एक-एक रग की बखूबी पकड़ा है। उनके शब्दों में निहित व्यंजना और विसंगतियों के प्रति क्षोभ एक साथ जिस कलात्मक संयम से व्यंग्यों में ढलता है वही उनके व्यंग्य लेखों को विषिश्ट बनाता है। विवेक रंजन के पास विवेक है जिसका उपयोग वे किसी घटना, व्यक्ति या स्थिति को समझने में करते हैं, सच कहने का साहस है जिससे बिना डरे वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति या असंगत के प्रति अपनी असहमति दर्ज कर सकते हैं, संत्रास बोध और तीव्र निरीक्षण शक्ति और संतुलित दृष्टि बोध है, परिहास और स्वयं को व्यंग्य के दायरे में लाकर स्वयं पर भी हँसने का माद्दा है। अनुभवों का ताप और संवेदना की तरलता के साथ सकारात्मक परिवर्तनकारी सोच तथा एक  धारदार भाषा है जो सीधे पाठक को संबोधित और संप्रेषित है।

निष्कर्शतः विवेक रंजन जी के व्यंग्य पाठक को सोचने के लिये  बाध्य करते है क्योंकि वे उपर से सहज दिखने वाली घटनाओं की तह में जाते हैं और भीतर छिपे हुए असली मकसद को पाठक के सामने लाने में सफल होते हैं। हाँ कुछ व्यंग्य लेखों में उतना पैनापन नहीं आ पाया है इस कारण वे हास्य लेख बन गये हैं। यद्यपि ऐसे व्यंग्य लेखों की संख्या कम ही है। उनके सफल व्यंग्यों में जीवन की जटिलता और परिवेशगत विसंगति अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ व्यक्त हुई। वे जितने कुशल सिविल इंजीनियर हैं उतने ही कुशल सोशियो इंजीनियर भी हैं। इसी सोशियो इंजीनियरी ने विवेक रंजन के व्यंग्यों को इतना सशक्त और धारदार बनाया है।वे अनवरत व्यंग्य लिख रहे हैं, अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर प्रायः उनकी उपस्थिति दर्ज हो रही है।  उनसे हिन्दी व्यंग्य को दीर्घकालिक आशायें हैं। .

 

डा. स्मृति शुक्ल

प्रध्यापिका , हिन्दी विभाग , मानकुंवर बाई शासकीय महिला महाविद्यालय जबलपुर

ए-16, पंचशील नगर, नर्मदा रोड, जबलपुर-482001

मो.नं. 9993416937

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – चांदण्यांची पाखरं ☆ ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “चांदण्यांची पाखरं“.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 2 ☆

☆ कविता – चांदण्यांची पाखरं ☆ 

 

चांदण्यांचे  पाय आभाळात ढगांनी बांधले

अवसेच्या चांदोबाचे डोळे झाले आंधळे

 

रात्रीच्या अंधारात गांधारी वसे

झाकलेल्या पापण्यांना सारं काही दिसे

 

रिमझिम पावसाची चादर पांघरली

मातीच्या सुगंधात धरती नहाली

 

स्वप्नांची आरास मुग्ध हसे गाली

धुक्यामध्ये लुप्त झाली प-यांच्या महाली

 

पहाटेच्या वा-याला जाग जशी आली

चांदण्यांची पाखरं भुर्र उडून गेली.

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 15 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 15 – कर्मपथ ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली किन परिस्थितियों से दो चार थी, किस प्रकार पहले नियति के क्रूर हाथों द्वारा नशे के चलते पति मरा।  फिर आतंकी घटना में उसका आखिरी सहारा पुत्र गौतम मारा गया जिसके दुख ने उसके चट्टान जैसे हौसले को तोड़ कर रख दिया। वह गम व पीड़ा की साक्षात मूर्ति   बन कर रह गई।  अब उस पर पागल  पन के दौरे पड़ने  लगे थे।  इसी बीच एक सामान्य सी घटना ने उसके दिल पर ऐसी चोट पहुचाई कि वह दर्द की पीड़ा से पुत्र की याद मे छटपटा उठी।  फिर एकाएक उसके जीवन में गोविन्द का आना उसके लिए किसी सुखद संयोग से कम न था।  इस मिलन ने जहाँ पगली के टूटे हृदय को सहारा दिया, वहीं गोविन्द के जीवन में माँ की कमी को पूरी कर दिया। अब आगे पढ़े——-—-)

गोविन्द जब पगली का हाथ थामे ग्राम प्रधान के अहाते में पहुंचा तो उसके साथ  दीन हीन अवस्था में एकअपरिचित स्त्री को देख सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों की आंखें आश्चर्य से फटी रह गई।

लेकिन जब ग्राम प्रधान ने पगली की दर्दनाक दास्ताँन लोगों को सुनाया, तो लोगों के हृदय में उसके प्रति दया तथा करूणा जाग पड़ी। उसी समय उन लोगों नें पगली को शहर ले जाने तथा इलाज करा उसे नव जीवन देने का संकल्प ले लिया था,तथा लोग गोविन्द के इस मानवीय व्यवहार की सराहना करते थकते नहीं थे।  सारे लोग भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे थे।

जब गोविन्द कैम्पस से घर लौटा तो वह अकेला नही, पगली केरूप में एक माँ की ममता भी उसके साथ थी। जहाँ एक तरफ पगली के जीवन में गौतम की कमी पूरी हो गई, वहीं एक माँ की निष्कपट ममता ने गोविन्द को निहाल कर दिया था

गोविन्द के साथ एक असहाय सा प्राणी देख तथा उसकी व्यथा कथा पर बादशाह खान तथा राबिया रो पड़े थे। लेकिन वे करते भी क्या?  लेकिन गोविन्द का इंसानियत के प्रति लगाव निष्ठा तथा खिदमतगारी ने राबिया तथा बादशाह खान के हृदय को आत्म गौरव से भर दिया था। उन्हें नाज हो आया था अपनी परवरिश पर।  गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया था । उन दोनों ने मिल कर पगली की देख रेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पगली की सेवा के बाद उन्हें वही आत्मशांति मिलती, जो लोगों को पूजा के बाद अथवा खुदाई खिदमत के बाद मिलती है।

अब पगली को सरकारी अस्पताल के मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखाया गया।  अब इसे दवा इलाज का प्रभाव कहें या बादशाह खान, राबिया, गोविन्द  तथा मित्रों के देख रेख सेवा सुश्रुषा का परिणाम।  पगली के स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर दिनों दिन बहुत तेजी से सुधार हो रहा था।

वे लोग पगली को एक नया जीवन देने में कामयाब हो गये थे।

मानसिक रूप से बिखरा व्यक्तित्व निखर उठाथा। अब पगली मानसिक पीड़ा के आघातों से उबर चुकी थी और एक बार फिर निकल पड़ी थी जिन्दगी की अंजान राहों पर अपनी नई मंजिल तलाशने अब उसने शेष जीवन मानवता की सेवा में दबे कुचले बेसहारा लोगों के बीच में बिताने का निर्णय ले लिया था, तथा मानवता की सेवा में ही जीने मरने का कठिन कठोर निर्णय ले लिया था। अपना शेष जीवन मानवता की सेवा में अर्पण कर दिया था।  अब उसका  ठिकाना बदल गया था।

वह उसी अस्पताल प्रांगण में बरगद के पेड़ के नीचे नया आशियाना बना कर रहती थी जहाँ से उसने नव जीवन पाया था।  अब वह “अहर्निश सेवा  महे” का भाव लिए रात दिन निष्काम भाव से बेसहारा रोगियों की सेवा में जुटी रहती।  उसने दीन दुखियों की सेवा को ही मालिक की बंदगी तथा भगवान की पूजा मान लिया था। अपनी सेवा के बदले जब वह रोगियों के चेहरे पर शांति संतुष्टि के भाव देखती तो उसे वही संतोष मिलता जो हमें मंदिर की पूजा के बाद मिलता है।

उसे उस अस्पताल परिसर में डाक्टरों नर्सों तथा रोगियों द्वारा जो कुछ भी खाने को मिलता उसी से वह नारायण का भोग लगा लेती तथा उसी जगह बैठ कर खा लेती। यही उसका दैनिक नियम बन गया था।  उसके द्वारा की गई निष्काम सेवा ने धीरे धीरे उसकी एक अलग पहचान गढ़ दी थी। वह निरंतर अपने कर्मपथ पर बढ़ती हुई त्याग तपस्या तथा करूणा की जीवंत मिशाल बन कर उभरी थी। मानों उसका जीवन अब समाज के दीन हीन लोगों के लिए ही था। अस्पताल के डाक्टर नर्स जहां मानवीय मूल्यों की तिलांजलि दे पैसों के लिए कार्य करते,  वहीं पगली अपने कार्य को अपनी पूजा समझ कर करती।  अस्पताल में जब भी कोई असहाय या निराश्रित व्यक्ति आवाज लगाता पगली के पांव अनायास उस दिशा में सेवा के लिए बढ़ जाते। वह सेवा में हर पल तत्पर दिखती।  अपनी सेवा के बदले उसने कभी किसी से कुछ नही मांगा।  वह जाति धर्म ऊंच नीच के भेद भाव से परे उठ चुकी थी। उसके हृदय में इंसानियत के लिए अपार श्रद्धा और प्रेम का भाव भर गया था। अगर सेवा से खुश हो कोई उसे कुछ देता तो उसे वह वहीं गरीबों में बांट देती तथा लोगों से कहती जैसी सेवा तुम्हें मिली है वैसी ही सेवा तुम औरों की करना।  इस प्रकार वह एक संत की भूमिका निर्वहन करते दिखती, अपनी अलग छवि के चलते उसके तमाम चाहने वाले बन गये थे, ना जाने वह कब पगली से पगली माई बन गयी कोई कुछ नही जान पाया। इस प्रकार उसे जीवन जीने की  नई राह मिल गई थी। जिसका दुख पीड़ा की परिस्थितियों से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था।


क्रमशः 
–—  अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 16 – उन्माद

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #19 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #19 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

 

धारे तो धर्म है, वरना कोरी बात ।

सूरज उगे प्रभात है, वरना काली रात ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (9) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन )

 

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌ ।। 9।।

 

संजय बोला –

ऐसा कह श्री कृष्ण ने किये रूप विस्तार

दिखलाये फिर पार्थ को निज ऐश्वर्य निखार ।। 9।।

भावार्थ :  संजय बोले- हे राजन्‌! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात अर्जुन को परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्यस्वरूप दिखलाया।। 9।।

 

Having thus spoken, O king, the great Lord of Yoga, Hari (Krishna), showed to Arjuna His supreme form as the Lord!।। 9।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्यौहार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज के ही अंक में प्रस्तुत है इस कविता का कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का अंग्रेजी भावानुवाद “Festival”कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी हिंदी, संस्कृत, उर्दू  एवं अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को इस अतिसुन्दर भावानुवाद के लिए साधुवाद।  

☆ संजय दृष्टि  – त्यौहार  ☆

सड़क घेरकर खड़ी

दंगा नियंत्रक दल की गाड़ी,
चहलकदमी करते
रैपिड एक्शन फोर्स के जवान,
गाड़ियों के कागज़ात
जाँचती पुलिस,
वातावरण में अभ्यस्त
पर अबूझ-सी गंध…,
फिर कोई त्योहार
आने वाला है क्या?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  एवं “ पुस्तक  – चर्चा ”   में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है, लोकतंत्र  के सजग एवं निष्पक्ष विचारधारा के नागरिक एवं जागरूक लेखक के रूप में  श्री विवेक रंजन  जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय आलेख  “म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी ”।  श्री विवेक रंजन जी  को इस समसामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए बधाई। इस आलेख  के सन्दर्भ में मैं  डॉ राजकुमार तिवारी  ‘सुमित्र ‘ जी की निम्न पंक्तिया  उद्धृत करना चाहूंगा, जिसका गंभीरता से पालन किया गया है । 

सजग नागरिक की तरह, जाहिर हो अभिव्यक्ति । 

सर्वोपरि है देशहित, उससे बड़ा न व्यक्ति ।। 

☆ आलेख – म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी  ☆

[श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी को विभिन्न सामाजिक विषयों पर लेखन के लिए राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार श्री विवेक रंजन जी के व्यक्तिगत विचार हैं।] 

हर छोटा बड़ा नेता जब तब संविधान की दुहाई देता है पर क्या हम सचमुच संवैधानिक व्यवस्था का पालन कर रहे हैं ? शायद बिलकुल नही। चुनाव को लेकर ही देखें, संवैधानिक व्यवस्था तो यह है कि पहले स्थानीय स्तर पर योग्य प्रतिनिधि चुने जावें, फिर वे प्रतिनिधि अपने अपने दलो में अपना मुखिया चुने। जो सबसे बड़ा दल हो उसका मुखिया सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करे। इस संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन करते हुये हमने शार्टकट यह प्रचलन में ला दिया है कि चुने गये प्रतिनिधियो का नेता चुना ही नही जाता। वह हाईकमान की मर्जी से थोपा जाता है या स्वयं अपने कद के चलते स्थापित हो जाता है। स्थानीय स्तर पर चुनाव उम्मीदवार की योग्यता पर नही इसी पूर्व घोषित मुखिया के व्यक्तित्व के नाम पर जीते जाते हैं।उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान जनता को सीधे प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार ही नही देता। यह सीधे राष्ट्रपति चुनने वाली व्यवस्था अमेरिकन संविधान में है। इस शार्टकट के चलते स्थानीय जन प्रतिनिधि पार्टी के टिकिट पर संभावित बड़े नेता के नाम पर  चुन लिया जाता है। ऐसे वेव से चुने गये अयोग्य जन प्रतिनिधि बाद में या तो संसद में सोते हैं या कुछ काला पीला करने में लिप्त रहते हैं वे स्थानीय मुद्दो पर जन आकांक्षाओ को पूरा करने में असफल रहते हैं।रातो रात पार्टी बदलकर आये लोग या सेलिब्रिटीज क्षेत्र में जनता के बीच अपनी जन सेवा से नही पूर्व नियोजित बड़े व्यक्तित्व के नाम पर ही चुनाव लड़ते देखे जाते हैं।

पिछले अनेक खण्डित चुनाव परिणामो से वर्तमान संवैधानिक प्रावधानो में संशोधन की जरूरत लगती है।  सरकार बनाने के लिये बड़ी पार्टी के मुखिया को नही वरन चुने गये सारे प्रतिनिधियो के द्वारा उनमें आपस में चुने गये मुखिया को बुलाया जाना चाहिये। आखिर हर पार्टी के चुने गये प्रतिनिधि  भले ही उनके क्षेत्र  के वोटरों के बहुमत से चुने जाते हैं किन्तु हारे हुये प्रतिनिधि को भी तो जनता के ही वोट मिलते हैं, और इस तरह वोट प्रतिशत की दृष्टि से हर पार्टी की सरकार में भागीदारी लोक के सच्चे प्रतिनिधित्व हेतु उचित लगती है।एक देश एक सरकार की दृष्टि से भी इस तरह का प्रतिनिधित्व तर्कसंगत लगता है। वर्तमान स्थितियो में राज्यपाल के विवेक पर छोड़े गये निर्णय ही हर बार विवादास्पद बनते हैं, व रातो रात सुप्रीम कोर्ट खोलने पर मजबूर करते हैं। किसी भी स्वस्थ्य समाज में कोर्ट का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये पर पिछले कुछ समय में जिस तरह से न्यायालयीन प्रकरण बढ़ रहे हैं वह इस तथ्य का द्योतक है कि कही न कही हमें बेहतर व्यवस्था की जरूरत है।

कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है। जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है। राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है एवं उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है। भारत में हमने लिखित संविधान अपनाया है। शासन तंत्र को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के उपखंडो में विभाजित कर एक सुदृढ लोकतंत्र की परिकल्पना की है। विधायिका लोकहितकारी नियमों को कानून का रूप देती है। कार्यपालिका उसका अनुपालन कराती है एवं कानून उल्लंघन करने  पर न्यायपालिका द्वारा दंड का प्रावधान है।

विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिको के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है किंतु हमारे देश में आजादी के बाद के अनुभव के आधार पर, मेरे मत में इस चुनाव के लिए पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद एवं विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बडी कमजोरी के रूप में सामने आई है।

सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाये या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाये विपक्ष उसका पुरजोर विरोध करता ही है। उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क कुतर्क करने में जरा भी पीछे नहीं रहता। ऐसा केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि वह विपक्ष में है। हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातो का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आया तो उन्होनें भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलो ने उन्हीं तथ्यों का पुरजोर विरोध किया जिनके  वे खुले समर्थन में थे। इसके लिये लच्छेदार शब्दो का मायाजाल फैलाया जाता है। ऐसा लोकतंत्र के नाम पर  बार-बार लगातार हो रहा है। अर्थात हमारे लोकतंत्र में यह धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिये। शायद इसके लिये स्कूलो से ही, वादविवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चो के मन में अधिरोपित की जाती है वही जिम्मेदार हो। वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता । सच्चा  लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता, पर ऐसा हो नही रहा है।

हमने देखा है कि अनेक राष्ट्रीय समस्या के मौको पर  किसी पार्टी या किसी लोकतांत्रिक संस्था के निर्वाचित जनप्रतिनिधी न होते हुये भी अन्ना या बाबा रामदेव जैसे तटस्थ जनो को जनहित एवं राष्ट्रहित के मुद्दो पर अनशन तथा भूख हडताल जैसे आंदोलन में व्यापक जन समर्थन मिला। समूचा शासनतंत्र तथा गुप्तचर संस्थायें इनके आंदोलनों को असफल बनाने में सक्रिय रही। यह लोकतंत्र की बडी विफलता है। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव को  उनके आंदोलनो में देश व्यापी जनसमर्थन मिला मतलब जनता भी यही चाहती थी  । मेरा मानना  यह है कि आदर्श लोकतंत्र तो यह होता कि मेरे जैसा कोई साधारण एक व्यक्ति भी यदि देशहित का एक सुविचार रखता तो उसे सत्ता एवं विपक्ष का खुला समर्थन मिल सकता।आखिर ग्राम सभा स्तर पर जो खुली प्रणाली हम विकास के लिये अपना रहे हैं उसे राष्ट्रीय स्तर पर क्यो नही अपनाया जा सकता। आम नागरिको में वोटिंग के प्रति हतोत्साही भावना का एक बड़ा कारण यह ही है कि वर्तमान व्यवस्था में उसकी सच्ची भागीदारी सरकार में है ही नही। इसीलिये लोग वोट की कीमत भी लगाने लगे हैं। नेताओ पर फब्तियां कसी जाती हैं कि वे जीतने के बाद  पांच सालो बाद ही दिखेंगे। न तो जनता को जन प्रतिनिधियो को वापस बुलाने का अधिकार है।

चुनावी घोषणाओ पर कोई किसी का कई नियंत्रण ही नही है। बजट में तो छोटी बड़ी हर घोषणा पर जन प्रतिनिधि बहस करके निर्णय करते हैं पर जनता के टैक्स के अनमोल खजाने को घोषणा पत्रो में ऐरा गैरा कोई भी नेता यूं ही लुटा देने की बड़ी बड़ी उल जलूल घोषणा करके वोट बटोरने को स्वतंत्र है। टैक्स पेयर का अपने दिये हुये रुपये पर कोई नियंत्रण नही है।टैक्स पेयर की भरपूर उपेक्षा सारी व्यवस्था में है। कहने को तो संविधान धर्म निरपेक्षता का वादा करता है पर सरे आम चुनाव धर्म और जाति के आधार पर लड़े जा रहे हैं, वोट की अपीलें जातिगत हो रही हैं, फतवे जारी हो रहे हैं और संविधान बेबस है।

आरक्षण जैसे संवेदन शील तथा आम नागरिको के आधारभूत विकास से जुड़े मुद्दो पर तक संविधान को ठेंगा दिखाकर  वोट के लिये सरकारो को निर्णय लेते, पार्टियो को आंदोलन करते हम देख रहे हैं।

इन अनुभवो से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है।  दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण एवं पक्ष विपक्ष से ऊपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका के निर्णय हो, ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की जरूरत है। इसके लिए जनशिक्षा को बढावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडने की आवश्यकता दिखती है। जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होगें तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दे पर भले ही विरोधी रहे हो साथ होगें तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेगें.

क्या हम निहित स्वार्थो से उपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ सकते है एवं संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते है. यह खुली बहस का एवं व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारो, स्कूल, कालेज, बार एसोसियेशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मजदूर संगठन आदि विभिन्न विभिन्न मंचो पर खुलकर बाते होने की जरूरत हैं, जिससे इस तरह के जनमत के परिणामो पर पुनर्चुनाव की अपेक्षा मुद्दो पर आधारित रचनात्मक सरकारें बन सकें जिनमें दलो की तोड़ फोड़, दल बदल या निर्दलीय जन प्रतिनिधियो की कथित खरीद फरोख्त घोड़ो की तरह न हो बल्कि वे मुद्दो पर अपनी सहमति के आधार पर सरकार का सकारात्मक हिस्सा बन सकें।गठबंधन का गणित  दलगत नही मुद्दो परआधारित हो।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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