विशेष – छंद – वाचन, लेखन. सद्या लहान मुलांचे क्लासेस घेते.
पुस्तकावर बोलू काही
☆ “वन पेज स्टोरी” – डॉ. विक्रम लोखंडे ☆ परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆
पुस्तक – वन पेज स्टोरी
लेखक – डॉ विक्रम लोखंडे
प्रकाशक – साकेत प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, औरंगाबाद
पृष्ठ संख्या – 128
आयुष्य हे एक अनुभवांचे पुस्तकच तर आहे असं आपण सहजच म्हणतो तसंच डॉ विक्रम लोखंडे यांनी आपल्या हॉस्पिटलमध्ये तसेच इतर वेगवेगळ्या ठिकाणी आपले काम करताना येणारे अनुभव या पुस्तकातून आपल्यापर्यंत अतिशय सुंदर पद्धतीने पोहचवले आहेत . रोज नवनवीन लोकांशी भेटी वेगवेगळ्या गोष्टी शिकवून जातात ,पेशंटच्या तसेच त्याच्या नातेवाईकांच्या भावना समजून घेताना डॉक्टरांना काय वाटतं होतं,त्यांच्या मनात कोणकोणते विचार येत होते आणि त्यातून जी कथा सुचत गेली त्याचे हे पुस्तक..वन पेज स्टोरी या नावातच पुस्तकाचं मोठं गुपित आणि यश दडलेले आहे कारण प्रत्येक कथा एका पानातच संपते. कथा एका पानावर संपते म्हणून ती कुठंही अर्धवट किंवा अर्थहीन,बोधविरहित मात्र नक्कीच वाटत नाही तर अगदी कमी वेळात बसल्या बसल्या एखादी कथा खूप काही सांगून जाते,एखादा छानसा बोध आणि वाचनाचा आनंद ,समाधान देवून जाते. आपल्या मनोगतात लेखक म्हणतात की, नवीन पिढी खूप फास्ट आहे, त्यांचा संयम कमी आहे, लांबलचक लेख वाचायला खूप कमी लोकांना आवडते. जास्त वेळ एकाग्र न राहू शकणाऱ्या,सगळं झटपट,थोडक्यात पटकन हवं असणाऱ्या या पिढीची आकलन क्षमता मात्र खूप जास्त आहे.नेमकं सांगितलेलं त्यांना पटकन समजतं आणि आवडतही. म्हणून हा लेखन प्रयोग. नेमका आशय,भावना पोहचवताना शब्दांची जी कसरत करावी लागत होती ती रोमांचक होती. लेखकाचे हे पुस्तक लिहितानाचे अनुभव वाचून खूप छान वाटले पेक्षा बऱ्याच गोष्टींची खरोखर गंमत वाटली. लिहणं ही मला सर्वोत्तम क्रियेटीव्हीटी वाटते . यात तुम्ही न जगलेली खूप सारी आयुष्यं जगता येतात. लेखकाचे हे वाक्य वाचून आपण जे थोडफार तोडकं मोडकं काहीतरी लिहिण्याचा प्रयत्न करतो याबद्दल कौतुक वाटले.
या पुस्तकांत काही बोलक्या चित्रांसहित तब्बल 42 कथा आहेत. सर्वच्या सर्व हृदयस्पर्शी.
कथांमधून नाती, त्यातून निर्माण होणाऱ्या अपेक्षा आणि आपेक्षाभंग याचं दर्शन लेखक करून देतात. प्रत्येक कथेतून लेखकाचा व्यापक दृष्टीकोन लक्षात येतोच पण कथेकडे पाहण्याच्या आपल्या दृष्टिकोनातून प्रत्येक कथा आपल्याला आपल्या आयुष्याचा एक भाग वाटू लागते. एक एक छोट्या कथांमधून लेखक आपल्याला वेगळ्याच मार्गावर घेवून जात आहे हे आपल्या लक्षात ही येते आणि या कथा म्हणजे लेखकाने आपली केलेली आनंददायी फसवणूक वाटू लागते. एक डॉक्टर म्हणून आपली जबाबदारी पार पाडत असताना एक लेखक म्हणून प्रत्येक गोष्टीकडे पाहण्याचा लेखकाचा दृष्टीकोन खरोखर खूप कौतुकास्पद वाटतो. या पुस्तकातून मला काय मिळालं हे सांगणं अवघड आहे कारण 42 कथा 42 नव्या गोष्टी सांगून गेल्या त्यातल्या नेमक्या एक एक बाबी सांगणं म्हणजे वाचकाची सत्वपरीक्षा ठरेल म्हणूनच मला इथे कथांचा सारांश देणे उचित वाटत नाही. शिवाय लेखकाने पुस्तकांत इतक्या कमी शब्दांत आपल्या भेटीला इतक्या छोट्या पण छान कथा आणल्या आहेत तर प्रत्येकीने त्या वाचूनच पाहायला काहीच हरकत नाही.. हो ना?
क्षणक्षणात नवं आयुष्य
पुस्तकाच्या पानापानांत
उलगडताना दिसतं
प्रत्येक पानावर नवं काहीतरी भेटतं..
प्रत्येक दिवशी नवं जगणं
नव्या अनुभवातून नवं शिकणं
रोज नवं कोणी भेटणं
भेटीतूनच एक कथा फुलणं…
त्याचं सुंदर पुस्तक बनलं
नाव त्याचं वन पेज स्टोरी ठरलं
एकाच पानात एक कथा
कधी आनंदी गाथा तर कधी सांगे व्यथा….
परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ
पत्ता – संवादिनी ,सांगली
मोबा. – 95117 62351
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चिन्ता बनाम पूजा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 185 ☆
☆ चिन्ता बनाम पूजा☆
‘जब आप अपनी चिन्ता को पूजा, आराधना व उपासना में बदल देते हैं, तो संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाता है।’ चिन्ता तनाव की जनक व आत्मकेंद्रितता की प्रतीक है, जो हमारे हृदय में अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है। इसके कारण ज़माने भर की ख़ुशियाँ हमें अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं और उसके परिणाम-स्वरूप हम घिर जाते हैं– चिन्ता, तनाव व अवसाद के घने अंधकार में–जहां हमें मंज़िल तक पहुंचाने वाली कोई भी राह नज़र नहीं आती।’
वैसे भी चिन्ता को चिता समान कहा गया है, जो हमें कहीं का नहीं छोड़ती और हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई भी हमसे बात तक करना पसंद नहीं करता, क्योंकि सब सुख के साथी होते हैं और दु:ख में तो अपना साया तक भी साथ नहीं देता। सुख और दु:ख एक-दूसरे के विरोधी हैं; शत्रु हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देने का साहस जुटा पाता है…तो क्यों न इन दोनों का स्वागत किया जाए? ‘अतिथि देवो भव:’ हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है, आस्था है, विश्वास है, जो सुसंस्कारों से पल्लवित व पोषित होती है। आस्था व श्रद्धा से तो धन्ना भगत ने पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर दिया था। हाँ! जब हम चिन्ता को पूजा में परिवर्तित कर लेते हैं अर्थात् सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं, तो वह प्रभु की चिन्ता बन जाती है, क्योंकि वे हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानते हैं। सो आइए! अपनी चिन्ताओं को सृष्टि-नियंता को समर्पित कर सुक़ून से ज़िंदगी बसर करें।
‘बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय’ इस उक्ति से तो आप सब परिचित होंगे कि जिस मनुष्य पर प्रभु का वरद्हस्त रहता है, उसे कोई लेशमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सकता; उसका अहित नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं कि अब तो सब कुछ प्रभु ही करेगा। जो भाग्य में लिखा है; अवश्य होकर अर्थात् मिल कर रहेगा क्योंकि ‘कर्म गति टारै नहीं टरै।’ गीता मेंं भी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का संदेश दिया है तथा उसे ‘सार्थक कर्म’ की संज्ञा दी है। उसके साथ ही वे परोपकार का संदेश हुए मानव-मात्र के हितों का ख्याल रखने को कहते हैं। दूसरे शब्दों में वे हाशिये के उस पार के नि:सहाय लोगों के लिए मंगल-कामना करते हैं, ताकि समाज में सामंजस्यता व समरसता की स्थापना हो सके। वास्तव में यही है–सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम राह, जिस पर चल कर हम कैवल्य की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
संघर्ष को दुआओं में बदलने की स्थिति जीवन में तभी आती है, जब आपके संघर्ष करने से दूसरों का हित होता है और असहाय व पराश्रित लोग अभिभूत हो आप पर दुआओं की वर्षा करनी प्रारंभ कर देते हैं। दुआ दवा से भी अधिक श्रेयस्कर व कारग़र होती है, जो मीलों का फ़ासला पल-भर में तय कर प्रार्थी तक पहुँच अपना करिश्मा दिखा देती है तथा उसका प्रभाव अक्षुण्ण होता है…रेकी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आजकल तो वैज्ञानिक भी गायत्री मंत्र के अलौकिक प्रभाव देख कर अचंभित हैं। वे इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि दुआओं व वैदिक मंत्रों में विलक्षण व अलौकिक शक्ति होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं– स्वरचित मुक्तक-संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की चंद पंक्तियां… जो जीवन मे एहसासों की महत्ता व प्रभुता को दर्शाती हैं– ‘एहसास से रोशन होती है ज़िंदगी की शमा/ एहसास कभी ग़म, कभी खुशी दे जाता है/ एहसास की धरोहर को सदा संजोए रखना/ एहसास ही इंसान को बुलंदियों पर पहुँचाता है।’ एहसास व मन के भावों में असीम शक्ति है, जो असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं।
उक्त संग्रह की यह पंक्तियां सर्वस्व समर्पण के भाव को अभिव्यक्त करती है…’मैं मन को मंदिर कर लूं / देह को मैं चंदन कर लूं / तुम आन बसो मेरे मन में / मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’…जी हाँ! यह है समर्पण व मानसिक उपासना की स्थिति… जहां मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है और मन मंदिर हो जाता है। भक्त को प्रभु को तलाशने के लिए मंदिर-मस्जिद व अन्य धार्मिक-स्थलों में माथा रगड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उसकी देह चंदन-सम हो जाती है, जिसे घिस-घिस कर अर्थात् जीवन को साधना में लगा कर वह प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त करना चाहता है। उसकी एकमात्र उत्कट इच्छा यही होती है कि परमात्मा उसके मन में रच-बस जाएं और वह हर पल उनका वंदन करता रहे अर्थात् एक भी सांस बिना सिमरन के व्यर्थ न जाए। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है–महाभारत का वह प्रसंग, जब भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेटे थे। दुर्योधन पहले आकर उनके शीश की ओर स्थान प्राप्त कर स्वयं को गर्वित व हर्षित महसूसता है और कृष्ण उनके चरणों में बैठ कर संतोष का अनुभव करते हैं। सो! वह कृष्ण से प्रसन्नता का कारण पूछता है और अपने प्रश्न का उत्तर पाकर हतप्रभ रह जाता है कि ‘मानव की दृष्टि सबसे पहले सामने वाले अर्थात् चरणों की ओर बैठे व्यक्ति पर पड़ती है, शीश की ओर बैठे व्यक्ति पर नहीं।’ भीष्म पितामह भी पहले कृष्ण से संवाद करते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि मेरी दृष्टि तो पहले वासुदेव कृष्ण पर पड़ी है। इससे संदेश मिलता है कि यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो, तो अहं को त्याग, विनम्र बन कर रहो, क्योंकि जो व्यक्ति ज़मीन से जुड़कर रहता है; फलदार वृक्ष की भांति झुक कर रहता है… सदैव उन्नति के शिखर पर पहुंच सूक़ून व प्रसिद्धि पाता है।’
सो! प्रभु का कृपा-प्रसाद पाने के लिए उनकी चरण-वंदना करनी चाहिए… जो इस कथन को सार्थकता प्रदान करता है कि ‘यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो अथवा उन्नति के शिखर को छूना चाहते हो, तो किसी काम को छोटा मत समझो। जीवन में खूब परिश्रम करके सदैव नंबर ‘वन’ पर बने रहो और उस कार्य को इतनी एकाग्रता व तल्लीनता से करो कि तुम से श्रेष्ठ कोई कर ही न सके। सदैव विनम्रता का दामन थामे रखो, क्योंकि फलदार वृक्ष व सुसंस्कृत मानव सदैव झुक कर रहता है।’ सो! अहं मिटाने के पश्चात् ही आपको करुणा-सागर के निज़ाम में प्रवेश पाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अहंनिष्ठ मानव का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं। वह कहीं का भी नहीं रहता और न वह इस लोक में सबका प्रिय बन पाता है; न ही उसका भविष्य संवर सकता है अर्थात् उसे कहीं भी सुख-चैन की प्राप्ति नहीं होती।
इसलिए भारतीय संस्कृति में नमन को महत्व दिया गया है अर्थात् अपने मन से नत अथवा झुक कर रहिए, क्योंकि अहं को विगलित करने के पश्चात् ही मानव के लिए प्रभु के चरणों में स्थान पाना संभव है। नमन व मनन दोनों का संबंध मन से होता है। नमन में मन से पहले न लगा देने से और मनन में मन के पश्चात् न लगा देने से मनन बन जाता है। दोनों स्थितियों का प्रभाव अद्भुत व विलक्षण होता है, जो मानव को कैवल्य की ओर ले जाती हैं। सो! नमन व मनन वही व्यक्ति कर पाता है, जिसमें अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव विगलित हो जाता है और वह विनम्र प्राणी निरहंकार की स्थिति में आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रखता है।
‘यदि मानव में प्रेम, प्रार्थना व क्षमा भाव व्याप्त हैं, तो उसमें शक्ति, साहस व सामर्थ्य स्वत: प्रकट हो जाते हैं, जो जीवन को उज्ज्वल बनाने में सक्षम हैं।’ इसलिए मानव में सब से प्रेम करने से सहयोग व सौहार्द बना रहेगा और उसके हृदय में प्रार्थना भाव जाग्रत हो जायेगा … वह मानव-मात्र के हित व मंगल की कामना करना प्रारंभ कर देगा। इस स्थिति में अहं व क्रोध का भाव विलीन हो जाने पर करुणा भाव का जाग्रत हो जाना स्वाभाविक है। महात्मा बुद्ध ने भी प्रेम, करुणा व क्षमा को सर्वोत्तम भाव स्वीकारते हुए उसे क्रोध पर नियंत्रित पाने के अचूक साधन व उपाय के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। इन परिस्थितियों में मानव शक्ति व साहस के होते हुए भी अपने क्रोध पर नियंत्रण कर निर्बल पर वीरता का प्रदर्शन नहीं करता, क्योंकि वह ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् वह बड़ों में क्षमा भाव की उपयोगिता, आवश्यकता, सार्थकता व महत्ता को समझता-स्वीकारता है। महात्मा बुद्ध भी प्रेम व करुणा का संदेश देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वास्तव में ‘जब आप शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल पर प्रहार नहीं करते– श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है।’ इसके विपरीत यदि आप में शत्रु का सामना करने की सामर्थ्य व शक्ति ही नहीं है, तो चुप रहना आप की विवशता है, मजबूरी है; करुणा नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है, शिशुपाल प्रसंग …जब शिशुपाल ने क्रोधित होकर भगवान कृष्ण को 99 बार गालियां दीं और वे शांत भाव से मुस्कराते रहे। परंतु उसके 100वीं बार वही सब दोहराने पर, उन्होंने उसके दुष्कर्मों की सज़ा देकर उसके अस्तित्व को मिटा डाला।
सो! कृष्ण की भांति क्षमाशील बनिए। विषम व असामान्य परिस्थितियों में धैर्य का दामन थामे रखें, क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया देने से जीवन में केवल तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती, बल्कि ज्वालामुखी पर्वत की भांति विस्फोट होने की संभावना बनी रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी जीवन में सुनामी जीवन की समस्त खुशियों को लील जाता है। इसलिए थोड़ी देर के लिए उस स्थान को त्यागना श्रेयस्कर है, क्योंकि क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति पूर्ण वेग से आता है और पल-भर में शांत हो जाता है। सो! जीवन में अहं का प्रवेश निषिद्घ कर दीजिए, क्रोध अपना ठिकाना स्वत: बदल लेगा।
वास्तव में दो वस्तुओं के द्वंद्व अर्थात् अहं के टकराने से संघर्ष का जन्म होता है। सो! पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अहं का त्याग अपेक्षित है, क्योंकि संघर्ष व पारस्परिक टकराव से पति-पत्नी के मध्य अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका ख़ामियाज़ा बच्चों को एकांत की त्रासदी के दंश रूप में झेलना पड़ता है। सो! संयुक्त परिवार-व्यवस्था के पुन: प्रचलन से जीवन में खुशहाली छा जाएगी। सत्संग, सेवा व सिमरन का भाव पुन: जाग्रत हो जाएगा अर्थात् जहां सत्संगति है, सहयोग व सेवा भाव अवश्य होगा, जिसका उद्गम-स्थल समर्पण है। सो! जहां समर्पण है, वहां अहं नहीं और जहां अहं नहीं, वहां क्रोध व द्वंद्व नहीं– टकराव नहीं, संघर्ष नहीं, क्योंकि द्वंद्व ही संघर्ष का जनक है। यह स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, विश्वास, सहनशीलता व सहानुभूति के दैवीय भावों को लील जाता है और मानव चिन्ता, तनाव व अवसाद के मकड़जाल में फंस कर रह जाता है… जो उसे जीते-जी नरक के द्वार तक ले जाते हैं। आइए! चिंता को त्याग व अहं भाव को मिटा कर संपूर्ण समर्पण करें, ताकि संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाए और जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने की राह सहज व सुगम हो जाए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय कविताएं – जंगल: दो कविताएँ-।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए
अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अमृत वेला”।)
अभी अभी # 58 ⇒ अमृत वेला… श्री प्रदीप शर्मा
रात्रि के चौथे पहर को अमृत वेला कहते हैं। परीक्षा समय में कुछ बच्चे रात रात भर जागकर पढ़ते थे, तो कुछ केवल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर ही अपना पाठ याद कर लेते थे। ब्रह्म मुहूर्त सुबह ४ से ५.३० का माना गया है, जब कि अमृत वेला का समय सुबह ३ से ६ का माना गया है।
ऐसी धारणा है कि अमृत वेला योगियों के जागने की वेला है। गुरु ग्रंथ साहब के अनुसार अमृत वेला नाम से जुड़ने की वेला है। सतनाम वाहे गुरु। ।
फिलहाल हम भरत वंशियों का वैसे भी अमृत काल ही चल रहा है। अमृत वचन, अमृत कुण्ड और अमृत धारा किसी संजीवनी से कम नहीं।
समुद्र मंथन भी अमृत प्राप्ति के लिए ही हुआ था। जिसे बल से अगर असुर प्राप्त करना चाहते थे, तो छल से देवता। कभी मोहिनी अवतार तो कभी वामन अवतार, देवताओं को स्वर्ग भी चाहिए और अमृत भी। बस एक भोलेनाथ शिव शंकर ही तो नीलकंठ हैं। अमृत की एक बूंद के लिए तो कुंभ स्नान भी बुरा नहीं।
यह अभी अभी भी अमृत वेला की ही प्रेरणा है, कुछ अमृत बूंदें हैं विचार प्रवाह की। यह सिलसिला कब शुरू हुआ, रब ही जाने। कोई अलार्म नहीं, बस सुबह तीन बजे आंखें खुल जाना, और आदेश, अमृत वेला में सुबह पांच बजे तक जो विचार आए, वह अभी अभी का हिस्सा बन जाए। अमृत वेला, इस परीक्षार्थी के लिए मानो परीक्षा काल हो गई हो। ठीक पांच बजे, आपसे उत्तर पुस्तिका छीन ली जाएगी, जो आप लिख पाए, वही आपकी परीक्षा। अब आप दो शब्द लिखें अथवा सौ शब्द।।
धीरे धीरे यह अमृत वेला मेरी नियमित दिनचर्या में शामिल हो गई। कोई प्रश्न नहीं, कोई पाठ्य पुस्तक नहीं, कोई कोर्स नहीं, कोई पूर्व तैयारी नहीं। ध्यान कहें, धारणा कहें, ईश्वर प्राणिधान कहें, विचार कहें, सब कुछ अमृत वेला में घटित होता रहता है। जो बूंदें शब्द बन स्क्रीन पर प्रकट हो गईं, वे ही अभी अभी है, एक ऐसी उत्तर पुस्तिका है, जिसे रोज कौन जांचता है, उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण का परीक्षा फल घोषित करता है, मुझे नहीं पता, क्योंकि अमृत वेला में मेरा कुछ नहीं, तेरा तुझको अर्पण। तू तो बस इस बहाने अमृत वेला में, नाम जप में, धारा सदगुरु में स्नान कर ले, डूब जा।
अभी अभी एक जागता हुआ सपना है, आधी हकीकत है, आधा फसाना है, तेरी मेरी बात है, तो कभी व्यर्थ का उत्पात है। बस जो भी है, जैसा भी है, अगर कुछ अच्छा है, तो अमृत वेला का प्रसाद है, अगर नापसंद है तो बस वही इस परीक्षार्थी का परिश्रम है, पुरुषार्थ है, गुस्ताखी है।।
ठीक पांच बजे आदेश हो जाएगा, आपका समय समाप्त हुआ, अपनी उत्तर पुस्तिका परीक्षक के हाथों सौंप परीक्षा हॉल के बाहर। और मेरी अभी अभी की उत्तर पुस्तिका, जो मैने अमृत वेला को समर्पित की थी, आप सुधी पाठक, उसके परीक्षक बन बैठते हैं। मुझे तो यह परीक्षा अमृत वेला में रोज देनी है, जब तक सांस है, शुभ संकल्प है, ईश्वर और सदगुरु की कृपा है, और अकर्ता का भाव है।
कौन सुबह मुझे मेरी मां की तरह नींद से, प्यार से रोज नियमित रूप से, अमृत वेला में जगाता है, कौन वेद व्यास मुझ गोबर गणेश से कुछ लिखवाते हैं। जब वेद व्यास लिखवाते हैं, तो मैं भी श्रीगणेश कर ही देता हूं, लेकिन जब मैं कुछ लिखता हूं, तो गुड़ गोबर तो होना ही है। लेकिन मुझे भरोसा है, पूरा यकीन है, अमृत वेला ब्रह्म मुहूर्त की वह वेला है, जब आकाश से, और चिदाकाश से अमृत ही बरसता है, फूल ही बरसते हैं, अमृत धारा ही बहती है। ।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना की कुंडलियाँ…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “एक पूर्णिका … बेटा”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
पाथेय संस्था की आयोजना – डॉ.राजकुमार सुमित्र की दो कृतियों का विमोचन
सार्थक सृजन से मिलती है समाज को प्रेरणा
जबलपुर। डॉ.राजकुमार सुमित्र की कविताऐं मुक्त भावधारा की होते हुए भी छंद के सौंदर्य से रची बसी हैं। आस पास के वातावरण के साथ व्यक्ति के मन की विविधताओं से जुड़ी इन कविताओं का प्रभाव मन को गहरे तक स्पंदित करते हुए सोचने को विवश करता है। ऐसा सृजन जो पाठकों की विचारशीलता को नई दृष्टि प्रदान करे वही सार्थक सृजन होता है। तदाशय के उद्गार कला,साहित्य, संस्कृति को समर्पित पाथेय संस्था के तत्वावधान में कला वीथिका में आयोजित डॉ. सुमित्र की दो कृतियां ‘शब्द अब नहीं रहे शब्द’ एवं ‘आदमी तोता नहीं’ के विमोचन अवसर पर अतिथियों ने व्यक्त किए। समारोह की अध्यक्षता प्रतिष्ठित महाकवि आचार्य भगवत दुबे ने की। मुख्य अतिथि भाजपा नगर अध्यक्ष, पूर्व महापौर प्रभात साहू थे। विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार संजीव वर्मा सलिल एवं अर्चना मलैया रहीं। जिन्होंने कृतियों पर प्रेरक एवं सार्थक समीक्षा की।
प्रारंभ में आयोजन संयोजक राजेश पाठक प्रवीण ने डॉक्टर सुमित्र के व्यक्तित्व कृतित्व पर प्रकाश डाला सरस्वती वंदना सुश्रीअस्मिता शैली ने प्रस्तुत की। अतिथि स्वागत डॉ.मोहिनी तिवारी, राकेश श्रीवास, डॉ.हर्ष तिवारी, यशोवर्धन पाठक, राजीव गुप्ता ने किया। इस अवसर पर वर्तिका से विजय नेमा अनुज, अमरेंद्र नारायण, अनेकांत से राजेंद्र मिश्रा, डॉ.संध्या जैन श्रुति, आशुतोष तिवारी, हिंदी सेवा समिति से डॉ. सलमा जमाल, मनीषा गौतम, त्रिवेणी परिषद से साधना उपाध्याय, अलका मधुसूदन, चंद्रप्रकाश वेश, बुंदेली संस्कृति परिषद से प्रभा विश्वकर्मा, गुप्तेश्वर गुप्त, गीत पराग डॉ. गीता गीत, से प्रयाग से सशक्त हस्ताक्षर से गणेश प्यासा पाथेय से एच. बी.पालन, डॉ. सुरेन्द्रलाल साहू, डॉ.छाया सिंह, अनिता श्रीवास्तव, आलोक पाठक ने प्रथक-प्रथक मांनपत्र देकर डॉ. सुमित्र को सम्मानित किया। वक्ताओं ने कहा कि काव्य की अनुभूति मंत्र जैसी होती है। मंत्र की जो शक्ति है वैसी ही शक्ति काव्य में होती है। डॉ. सुमित्र ने समसामयिक घटनाओं पर कविताओं के माध्यम से मन की सुप्त चेतना को जागृत किया है। उनका सृजन पीढ़ियों के लिए दिशा बोधक है।
आयोजन की विशेषता रही कि रचनाकार ने दर्शक दीर्घा में उपस्थित होकर अपनी कविताओं के संदर्भ में सुना। समारोह में डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे, डॉ. सलपनाथ यादव, डॉ.अरुण शुक्ल, सुरेश विचित्र, राघुवीर अम्बर, प्रतिमा अखिलेश, अर्चना द्विवेदी, चंदादेवी स्वर्णकार, एम. एल. बहोरिया, कालिदास ताम्रकार, प्रवीण मिश्रा, अनिमेष शुक्ला, मृदुला दीवान, दीनदयाल तिवारी निरंजन द्विवेदी भी उपस्थित थे।
साभार – डॉ हर्ष तिवारी
जबलपुर, मध्यप्रदेश
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