(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये असर है मेरे प्यार का…“)
ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
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प्यार मेरी ज़रूरत नहीं , आपकी भी जरूरत है ये
दिल लगाना नहीं खेल है, मेरे रब की इबादत है ये
*
ये बढ़ावा सितमगर को है, ज़ुल्म पर मौन बैठे रहो
ये शरीफ़ों को जायज़ नहीं, तेरी कैसे शराफत है ये
*
ये असर है मेरे प्यार का, फल रही हर दुआ है मेरी
आइना तो ज़रा देखिये, क्या हसीं रुख पे रंगत है ये
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जिसकी मनमानियों से यहाँ, लोग अवसर की थे तांक में
हाथ मजबूत वो ही किये, यार कैसी बगावत है ये
*
सिद्क़ दिल से दुआ तुम जो दो, सूखता पेड़ जाए सँवर
आदमी को अता उसने की, वो ही शफ़क़त की ताकत है ये
*
ग़म कहें किससे परदेश में, दूसरे दर्ज़े के आदमी
हम मशीनें हैं इंसान से, अय वतन करके हिज़रत है ये
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लत लगी जो खराबात की, दस तबाही करे सच कहा
टूटे नाते सभी घर मिटा, आज बस साथ ग़ुरबत है ये
*
थूक लो सिर उठाकर मगर, दाग सूरज पे आता नहीं
पेश तुम क्यों सफाई करो, जानते लोग तुहमत है ये
*
फेंक पश्चिम के चश्मे को जब, पांव माँ के दबाया हूँ मैं
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मुंहफट ||”।)
अभी अभी # 308 ⇒ || मुंहफट ||… श्री प्रदीप शर्मा
Blunt
बोलचाल की भाषा में मुंह पर जवाब देने वाले को मुंहफट कहते हैं। तो क्या मुंह पर जवाब देना गलत है, मुंह फेरकर जवाब दिया जाए ! हमें जिस जवाब की उम्मीद ही नहीं हो, वे शब्द जब अचानक किसी के मुंह से फट पड़े, तो उसे आप मुंहफट कह सकते हैं। आप किसी की जबान को तो नहीं रोक सकते, लेकिन मुंहफट का तो आप मुंह भी बंद नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो खुलते ही फट पड़ता है।
जिसके शब्दों में ही विस्फोट हो, उसे आप मुंहफट कह सकते हैं।
जहां बोलने वाले का मुंह फटता नहीं, सिर्फ खुलता है, लेकिन जब शब्द फूटते हैं, तो सामने वाला अवाक् हो जाता है, उसकी आंखें विस्मय से फटी की फटी रह जाती हैं। आम परिस्थिति में तो पहले फुग्गा पहले फूलता है, लेकिन ज्यादा फुलाने पर फूट जाता है, लेकिन मुंहफट का मुंह तो बिना फूले ही फट पड़ता है।।
ईश्वर ने मुंह बोलने के लिए दिया है, संवाद के लिए दिया है। तर्क वितर्क, वाद विवाद और बहस के लिए दिया है। लेकिन मुंहफट तो आपको बोलने का ही अवसर नहीं देता। यहां सामने वाला अंखियों से गोली नहीं मारता, बिना सोचे विचारे, सीधे मुंह से ही फायरिंग शुरू हो जाती है।
यूं तो मुंहफट के लिए अंग्रेजी में outspoken और blunt जैसे शालीन शब्द हैं, हिन्दी उर्दू में भी बेबाक, बदजुबान, लड़ाका और ढीट जैसे शब्द हैं, लेकिन जो सहज ध्वनि मुंहफट में है, वह किसी और शब्द में नहीं। ऐसा लगता है, मुंह में शब्द रूपी दूध भरा हुआ हो, जो कड़वाहट के कारण फट गया हो और बाहर निकलते वक्त शब्द फटे हुए निकल रहे हों। याद रखिए, शब्द फटेंगे तो आवाज भी करेंगे।।
जो लोग मुंहफट नहीं होते, वे कपड़े फाड़ते हैं।
कपड़ा भी अगर फटेगा तो थोड़ी बहुत आवाज तो होगी ही। कपड़े भी अक्सर खुद के ही फाड़े जाते हैं, दूसरे के नहीं। लेकिन यह कहां की समझदारी है।
इससे तो मुंहफट रहना ही ठीक, क्योंकि मुंहफट के कोई मुंह नहीं लगता।
मुंहफट बनने के लिए हिम्मत लगती है, सारी तमीज और शालीनता को ताक में रखना पड़ता है।
जिनमें इतनी हिम्मत नहीं होती वे मुंहजोरी पर उतर आते हैं। मुंहजोरी में हाथ पांव नहीं चलते, केवल शब्दों के माध्यम से ही शक्ति प्रदर्शन हो जाता है।।
किसी भी मुंहफट का मुंहतोड़ जवाब देना संभव नहीं। और अगर आप अपना संयम त्याग क्रोध में उसका मुंह तोड़ने की बात करते हैं तो आप जैसा नादान कोई नहीं। लोग आप पर ही हंसेंगे क्योंकि मुंहफट का मुंह तो पहले से ही फटा हुआ है..!!
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 3“।)
अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया.
मैसेज :Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch?
Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.
अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी. घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.
जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.
तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय. महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था.
कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था
दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं
दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है
सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है
उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं
ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.
तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है. हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)
बहू शारदा ने अमित से कहा – “तुम्हारी मां के पास तो काम धाम रहता नहीं है रात में भी चिल्लाती रहती हैं और सुबह सुबह 5:00 बजे से घंटी बजा के हम सब को उठा देती हैं।
9:00 यदि बैंक में ना पहुंचे तो मैनेजर से डांट खानी पड़ती है।
बहू शारदा ऑफिस जाते जाते चिल्लाकर कहती है-
कान खोल कर सुन लीजिए?
जैसे ही एग्जाम खत्म हो जाएगा मैं विक्की को हॉस्टल में डाल दूंगी इनको वृंदावन के आश्रम में भेज देना या कहीं और इनकी व्यवस्था के विषय में सोचो?
तभी कमला जी कहती है नाश्ता तो कर लो चाय बन गई है।
वह गुस्से से अपने पति की ओर देखती है और कहती हैं आप ही मां बेटे नाश्ता करो!
उसके जाने के बाद कमला जी अपने बेटे से कहती है कि आखिर प्यार में कहां कमी रह गई?
घर की इज्जत का सवाल है उसे तो शर्म लिहाज नहीं है ?
तभी अमित के मोबाइल में फोन की घंटी बजती है अमित बाजार से कुछ मिठाइयां समोसे ले आओ शाम को मेरे ऑफिस के सहकर्मी घर में आ रहे हैं मां से कहना की कुछ अच्छा सा खाना बना लें।
अमित घर पर ही ऑनलाइन काम करता है वह अपनी मां से कहते हैं मां तुम चिंता मत करो मैं बाहर से कुछ लेकर आता हूं, तभी कमला अपने पति की तस्वीर देखकर कहती हैं, मुझे अपने ही घर में साथ घर में नहीं रख सकती?
चलो भाई ठीक ही है वहां चैन से भगवान का भजन करूंगी।
मेरे भजन पूजन में खर्चा होता है और बहू को यही कष्ट है कि मैं दान करती हूं।
अब इनका मतलब निकल गया है, बच्चा बड़ा हो गया है।
आखिर भाई वह नौकरी जो करती है, वह घमंड में चूर है लेकिन भाई अवस्था तो सबकी आनी है।
पुश्तो में भी ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आजकल के बच्चे सारे नए काम ही कर रहे हैं घोर कलयुग है मिलावटी सामान खाते-खाते रिश्ते भी जाने कब मिलावटी हो गए।
हा प्रसंग महाभारताच्या युध्दासारखा होता असं नाही. पण आपल्याच माणसांविरुध्द युद्ध करायचं हे अर्जुनाला पटत नव्हतं. आणि माझंही तसंच झालं होतं. विजय मिळणार याची खात्री अर्जुनाला होती. तरीही तो खूष नव्हता. आणि आपल्याला विजय मिळवणार नाही याची खात्री मला होती. म्हणूनही कदाचित मी नाखूष असेन. कारण… कारण समोर लढायला बायकोच होती. आणि तिच मला तु जिंकशील फक्त लढायला तयार हो असा सल्ला देत होती. शत्रु दिलदार असावा, हे बायकोकडे बघितल्यावर समजतं. खरंच ती दिलदार (शत्रु) असते.
लढायचं होतं ते बायकोने घातलेल्या नियम आणि अटिंविरुध्द. आता मी अटी मान्य केल्याशिवाय ती नियम सांगणार नव्हती. आणि नियम सांगितलेच तर ते पाळायची अट होती. इकडे आड आणि तिकडे विहीर…… या पध्दतीने मी इकडे नियम आणि तिकडे अटी या मध्ये अडकलो होतो. अटीतटीची परिस्थिती होती.
मी युद्ध न करता हार मानली तरीही काही नियम व अटी मान्य करण्याचा तह मला करावा लागणार होता. आणि हा तह कदाचित तहहयात सुरू राहिला असता.
माझा आळस झटकण्यासाठी, व वाढलेले पोट आटोक्यात आणण्यासाठी आहेत असा मुलामा त्या नियम व अटींना लावण्यात आला होता.
नियम पहिला… रोज सकाळी न चुकता सहा वाजता उठायचच. अट अशी होती की मी उठल्यावर सुध्दा बायकोला मात्र उठवायचं नाही.
नियम दुसरा… सकाळी उठल्यावर जिना उतरून खाली जायचं आणि दुध आणायचं. (कशाला हौसेने आठव्या मजल्यावर फ्लॅट घेतला असं वाटलं) लिफ्ट ने जायचं नाही. येतांना लिफ्ट वापरली तर चालेल. (कदाचित माझ्या व्यवस्थित पणामुळे दुधाची पिशवी पडून फुटेल का? असा विचार असावा) अट आपलं दुध आपणच आणायचं. पाचव्या मजल्यापर्यंत जाऊन अरे येतांना माझंही घेऊन ये असं मित्राला सांगायचं नाही. त्यांच्याकडे सुध्दा असेच नियम व अटी आहेत, त्यामुळे ते भेटू शकतात.
नियम तिसरा… कोणीही पहिल्यांदा उठलं तरी (नियमानुसार मीच पहिल्यांदा उठणं अपेक्षित होतं) चहा मात्र मीच करायचा. अट अशी की बायको उठल्याशिवाय चहा करायचा नाही. कारण तिला ताजा, आणि गरम चहा लागतो. नंतर गरम केलेल्या चहाला ताज्या चहाची चव नसते. आणि तो प्यायल्याचं समाधान पण नसतं. असं तिचं म्हणणं.
आता चहा मी करणार याचंच काय ते तिला समाधान. बाकी पदरी पडलं पवित्र झालं हिच भावना. कारण चहाची चव. असो.
स्वयंपाक घरातली अगणित आणि न संपणारी कामं तिला असतात म्हणून चहा माझ्याकडे. (तो प्यायल्यावर काम करायला उत्साह वाटला पाहिजे हि अट (कळ) होतीच.)
जीना उतरायचं, चालत जाऊन भाजी आणायचं समजू शकतो. पण मी चहा करण्याचा आणि पोट कमी होण्याचा काय संबंध? माझा (हळू आवाजात) प्रश्न.
चहा साखरेच्या डब्यांची आणि भांड्यांची जागा बदलली आहे. खाली वाकल्याशिवाय डबे आणि टाचा व हात उंच केल्याशिवाय भांड हाताला लागणार नाही. कपबशांच्या जागेचा विचार सुरू आहे. थोडक्यात समर्पक उत्तर.
सगळा गनिमी कावा ठरल्यामुळे भांडणात काही अर्थ नव्हता.
नियम चौथा… आठवड्याची भाजी आणून ठेवायची नाही. रोज एक आणि ताजी भाजी कोपऱ्यापर्यंत चालत जाऊन आणायची. अट फक्त भाजी आणायची मधे सुटे पैसे घेण्याच्या कारणाने पानाच्या दुकानात थांबायची गरज नाही. भाजीवाले देखील सुटे पैसे ठेवतात.
नियम पाचवा… स्वयंपाक घरात विनाकारण लुडबुड करायची नाही. तुम्ही आणलेली भाजीच घरात होते. काय केलं आहेस हे विचारायच नाही हा नियम. आणि अट अशी की घरातली भाजी आनंदाने खायची.
चेहरा वाकडा करुन काही बदलत नसतं हे लक्षात ठेवा. माझा अनुभव आहे. नाहीतर कधीच आणि बरंच काही बदललं असतं. पण आता ते कधीच बदलणार नाही. (हे सत्य परिस्थितीवर केलेलं दमदार भाष्य ऐकून माझा चेहरा पाहण्यासारखा झाला असावा.) पुढे मी मुद्दाम वाकड्यात शिरलो नाही.
नियम सहावा… बाहेर जाण्यासाठी कपाटातून कारण नसतांना दोन चार ड्रेस बाहेर काढायचे नाहीत. आणि अट बाहेर काढलेल्या ड्रेस पैकीच एक बऱ्यापैकी असणारा (मॅचिंग पाहून. उगाच खाली पॅंट आणि वर शर्ट असं घातलं की झालं हि वृत्ती नको) घालावा. नाहीतर कपाटातून दोन चार ड्रेस काढायचे, पण घालायचा मात्र दारामागे लटकवलेला. हे चालणार नाही. नंतर आवराआवरी करायला तुम्ही येत नाही. आणि आता माझ्याकडून ही जास्तीची कामं होणार नाही.
नियम सातवा… भाजी, दुध आणतांना गुडघेदुखी ची तक्रार वारंवार बोलून दाखवायची नाही. अट जर तक्रार करायचीच असेल तर गुडघ्याबरोबरच आम्हाला डोकंपण दिलं आहे हे लक्षात ठेवा. ते दोन्ही दुखतात. तुमचा सुर कायम तुमच्या गुडघेदुखी बद्दल असतो. (यावेळी डोक्याचा उल्लेख जाणिवपूर्वक टाळला होता.) त्यामुळे भान ठेऊन आमच्या पण तक्रारी तक्रार न करता ऐकाव्या लागतील. आम्हाला काही सोळावं लागलेलं नाही. (कितवं लागलं आहे आहे?…… हे विचारण्याच्या मोह मी आवरला…….)
लग्नात सप्तपदी वेळी काही वचनं असतात. त्यावेळी कदाचित विधीचा एक भाग म्हणून ती दिली असतील. पण आता या सप्तपदी सारख्याच सात नियम व अटी होत्या. आणि पावला पावलावर त्या वचनाप्रमाणे वदवून घेतल्या जात होत्या. यालाच विधिलिखित म्हणावं का……
अजूनही आहेत. पण नंतरचा नियम असा आहे, की बातम्यांसारखे नियम सांगत बसायचे नाहीत. ते गोपनीय आहेत. आणि गोपनीयतेची अट पाळायची आहे.
‘साडेसात वाजले, चला उठायला हवं ‘, असं म्हणत चित्रा बेडरूममधून बाहेर आली. काल रात्री कथा लिहून पूर्ण करता करता दोन वाजून गेले होते. लिहून लगेच ती वाॅटसप ग्रुप्सवर पाठवली आणि त्यानंतर काही वेळाने तिला झोप लागली. तिनं तोंड धुवून, चहा घेतला आणि मोबाईलचं नेटवर्क ऑन केलं,तसं धाडधाड प्रतिक्रिया यायलाच लागल्या तिच्या कथेबद्दल! तिलाही उत्सुकता होतीच, लोकांना आपली कथा कशी वाटली ते जाणून घेण्याची. नेहमीप्रमाणे बरेचसे छान छानचे इमोजी होतेच. पण कथा लक्षपूर्वक वाचून सविस्तर अभिप्राय देणारे चोखंदळ वाचकही होतेच की! चित्राला त्यातच जास्त इंटरेस्ट असायचा.
असेच एक वाचक होते श्री. रमाकांत लिंगायत. त्यांचा अभिप्राय वाचताना चित्राच्या चेहऱ्यावर समाधानाचं हास्य पसरलं.
‘नेहमीप्रमाणेच छान कथा. अगदी वास्तवदर्शी आणि वेगळ्या विषयावर भाष्य करणारी. कसं सुचतं तुम्हां लेखकांना काही कळत नाही बुवा! ग्रेट ! मैत्रिणी अशीच लिहित रहा. बाकी बोलूच प्रत्यक्ष भेटीत.’
मागच्या चार – पाच महिन्यांपासून त्यांचे सविस्तर अभिप्राय येत होते. त्याला वाॅटसपवर प्रतिसाद देता देता एकमेकांविषयी माहितीची देवाणघेवाणही झाली होती.
रमाकांत, साधारण ६५ च्या आसपासचं वय. मुंबईतल्या एका प्रख्यात इंजिनिअरिंग काॅलेजचे प्राचार्य म्हणून निवृत्त झालेले.शिवाय काही वर्षे नोकरीनिमित्त परदेशातही राहून आलेले.
पत्नी गृहिणी आणि दोन मुलं असा त्यांचा परिवार. दोन्ही मुलं विवाहित आणि नोकरीच्या गावी म्हणजे एक बेंगलोरला आणि दुसरा हैदराबादला, अशी स्थायिक झाली होती. संधिवातामुळे बायको आजारी, फारशी घराबाहेर पडत नव्हती. रमाकांत मात्र फिट अँड फाईन ! रोज अंबरनाथहून ठाण्याच्या स्पोर्ट्स क्लबमध्ये टेबल टेनिस खेळायला जायचे, सकाळी साडेपाचच्या लोकलने. अंबरनाथला त्यांनी बंगला बांधला होता.
‘मैत्रीण, आज वेळ आहे का तुला? सकाळी दहा-साडेदहा पर्यंत येऊ शकतो तुला भेटायला. बऱ्याच दिवसांपासून आपण भेटायचं ठरवतोय, पण काही ना काही कारणाने जमलंच नाही.’
चित्रानं घड्याळाकडे नजर टाकली, साडेआठ वाजून गेले होते. साडेदहा पर्यंत तिचं सहज आवरण्यासारखं होतं. शिक्षण क्षेत्रातल्या व्यक्तींबद्दल तिला विशेष आस्था होती. शालेय जीवनात ती एक हुशार विद्यार्थिनी होती. तिच्या अनेक शिक्षकांशी ती आजही संपर्क ठेवून होती. त्यांच्याबद्दल कायम आदराची भावनाच तिच्या मनात होती. एवढी मोठी, प्राचार्यपद भूषवलेली व्यक्ती आपल्या लिखाणाची दखल घेते, वेळ काढून आपल्याला भेटायला येतेय, आपल्याशी मैत्री करू इच्छिते, याचं तिला अप्रूप वाटत होतं. चला आज चांगली चर्चा आणि वैचारिक देवाणघेवाण होईल, असा विचार तिच्या मनात आला. ‘हो हो, या तुम्ही! मी तुम्हाला माझा पत्ता पाठवते हं! असं म्हणत तिने त्यांना पत्ता पाठवला देखील. कल्याणच्या खडकपाडा भागात होता तिचा फ्लॅट.
चित्रा सध्या एकटीच घरी होती. मुलगा इंजिनिअरिंगच्या शेवटच्या वर्षाला होता. तो चेन्नईला हाॅस्टेलला राहात होता. तीन वर्षांपूर्वीच एका अपघातात तिचा नवरा गेला होता. सासूबाई अधून-मधून असायच्या तिच्याकडे, पण जास्त काळ त्या नागपूरलाच असायच्या मोठ्या दिरांकडे! चित्रा एका नामांकित कंपनीत अधिकारी पदावर होती. पण मुलगा बारावीला असताना, पाच वर्षांपूर्वीच तिनं स्वेच्छा निवृत्ती घेतली होती.त्याचं खाण्यापिण्याकडे लक्ष द्यावं, म्हणजे रात्रंदिवस अभ्यासात गर्क असला तरी त्याची आबाळ होऊ नये, हा मुख्य उद्देश होता. निवृत्त होताना तिला भरपूर पैसा मिळणार होताच. एवढी वर्षे धावपळ करण्यात गेली, आता जरा दोघांनी सगळीकडे फिरायचं, मजा करायची असंही त्या नवरा-बायकोंनी ठरवलं होतं. पण विनयच्या अपघाती निधनामुळे ते सर्वच बेत निष्फळ ठरले होते.
आल्या प्रसंगाला धीराने तोंड देऊन , चित्रा आनंदाने जगण्याचा प्रयत्न करत होती. तिचा स्वभाव मनमिळाऊ, त्यामुळे नातेवाईक आणि मित्र-मैत्रिणींचा गोतावळाही भरपूर होता. माणसं जमा करण्याची आवडही होती. लेखनाचा छंद असल्याने, अनेक लेखक-वाचकांशीही ती फोनच्या, वाॅटसपच्या माध्यमातून जोडली गेली होती.
आयत्या वेळी आता पाहुण्यांसाठी कांदेपोहेच करावे असं तिनं ठरवलं. शिवाय घरात फळंही होतीच. स्वतःची अंघोळ वगैरे आवरून, तिनं पोह्यांची तयारी करून ठेवली. वेळेवर फोडणीला घातले की झालं. १०-४० झाले तरी रमाकांत आले नाहीत, म्हणून तिनं फोन केला. तिला वाटलं यांना घर शोधायला वेळ लागला की काय!’ ट्रॅफिकमधे अडकलो होतो. पोचतोय पाच मिनिटात!’ त्यांनी सांगितलं तसं तिनं पोहे फोडणीला घातले. तोवर बेल वाजलीच.
‘ग्लॅड टू मीटर यू डिअर’, असं म्हणून त्यांनी मिठी मारण्यासाठी हात पसरले. चित्रानं नमस्कार करून, त्यांना सोफ्यावर बसायला खुणावलं आणि ती पाणी आणायला कीचनमध्ये गेली. पाणी पिऊन होईस्तोवर पोहे झाले होतेच. ती प्लेटमध्ये पोहे घेऊन आली आणि त्यांना देऊन, आपली प्लेट घेऊन समोरच्या खुर्चीत बसली. बोलता बोलता पोहे कधी संपले, कळलंच नाही. रमाकांत परदेशातल्या गमती-जमती सांगत होते. चहा, फळं ते नाही म्हणाले, दूध चालेल. चित्रा कपभर दूध घेऊन आली. तशी ते म्हणाले, बेडरूम कुठेय तुझी?
चित्रा गोंधळली, ‘काय?तुम्हाला बरं वाटत नाहीये का? काय होतंय? ‘
‘नाही, नाही, आपण बेडवर पडूनच जरा गप्पा मारल्या असत्या. तुला संकोच वाटत असेल स्पष्ट बोलायला, म्हणून मीच सुचवलं.’
क्षणभर चित्राला कळेचना, त्यांना काय म्हणायचे आहे.
तेच पुढे म्हणाले, ‘ अग, एवढं घरी बोलावलंस ते त्यासाठीच ना!कालच्या तुझ्या कथेतली नायिका असंच वागते ना? मी एकदम फिट आहे हं! आता बघ दोघांची परिस्थिती अशी आहे. माझी बायको सदाआजारी आणि तुझा नवराच राहिला नाही. मग मित्र हवाच ना यासाठी! एकमेकांची सोय बघायला! ‘ असं म्हणत ते सोफ्यावरून उठले.
त्यांच्या म्हणण्याचा उद्देश आता तिच्या नीट ध्यानात आला. तिला विलक्षण संताप आला. पण ती घरात एकटी होती. हा प्रसंग संयमानेच हाताळायला हवा होता. आवाज केला तर शेजारी-पाजारी मदतीला आले असते, पण नंतर तिचीच अक्कल काढली असती त्यांनी. एकटी असताना परपुरूषाला घरी बोलवायचं कशाला? तिनं असा काही प्रकार होईल याची कधी कल्पनादेखील केली नव्हती.
तिने मनात दहा अंक मोजले. त्यांना सोफ्यावर बसण्याची खूण केली. ‘तुमचा काही तरी गैरसमज झाला आहे.एकतर लेखक जे लिहितो, त्याचा त्याच्या वैयक्तिक आयुष्याशी संबंध असेलच असं नाही ना! समाजात, आपल्या आजूबाजूला घडणाऱ्या घटनांचे पडसाद, एक माणूस म्हणून त्याच्या मनावर उमटणारच. त्याला कल्पकतेची जोड देऊन, कथेच्या रूपात तो व्यक्त करतो इतकंच! मला अशा प्रकारची मैत्री अजिबात अपेक्षित नाही. मी माझ्या नवऱ्यासोबत खूप छान संपन्न जीवन जगले. त्या आठवणी माझ्यासाठी पुरेशा आहेत. एक चांगला मित्र मिळेल या भावनेनं मी तुमच्याकडे बघत होते. पण तुम्ही मित्र या व्याख्येलाच धुळीस मिळवलंत. तुम्ही एक प्राचार्य म्हणून, ज्येष्ठ व्यक्ती म्हणून, माझ्या मनात जी आदराची भावना होती, तिला धक्का पोचवलात. स्त्री-पुरूषातही निखळ मैत्री असू शकते, पण तुम्ही हा विचारच केला नाही. फार संकुचित विचार आहेत तुमचे. मला गृहीत धरण्यात तुम्ही खूप मोठी चूक केलीत. ‘
‘ हे बोलायला ठीक आहे ग! पण तुलाही मनातून वाटत असेलच ना? मी तेच बोलून दाखवलं. ‘
‘ तुम्ही प्लीज जा आता. मला तुमच्याशी बोलण्याची अजिबात इच्छा नाही ‘,चित्रा म्हणाली. तिच्या मनाचा थरकाप उडाला होता. पण प्रयत्नपूर्वक तिनं चेहऱ्यावर ते दिसू दिलं नाही.
ते अजून सोफ्यावरून उठले नव्हते. आता या माणसाला कसं घराबाहेर काढायचं, असा विचार मनात करत असतानाच चित्राच्या फोनची बेल वाजली.
‘मुग्धा, अभिनंदन! तू तुझी स्वतःची कराटेची संस्था काढतेयस. आणि त्याच्या शुभारंभासाठी तुला तुझ्या गुरूची, म्हणजे माझी आठवण झाली हे ऐकून खूपच छान वाटलं. मी नक्की येणार तुला शुभेच्छा द्यायला.’ असं म्हणून चित्राने फोन ठेवला.
रमाकांत सोफ्यावरून उठून पायात बूट घालत होते.
तिकडे मुग्धा ही काय बोलतेय हे न कळल्याने अवाक् झाली होती.ती काही बोलण्याआधीच चित्राने बोलायला सुरुवात केली होती आणि आता फोनही ठेवून दिला होता.
तासाभराने चित्राने फोन करून तिला सगळं सांगितलं, तेव्हा तिला काय बोलावं हेच सुचेना. एकीकडे चित्रावर काय संकट ओढवलं होतं या जाणिवेनं तिला घाम फुटला होता तर दुसरीकडे तिच्या मैत्रिणीच्या खंबीरपणाचं,समयसूचकतेचं, प्रसंगावधानाचं कौतुक कोणत्या शब्दांत करावं हे मुग्धाला कळत नव्हतं.
चित्रानं मात्र समाजमाध्यमावरील अनोळखी व्यक्तीला आपली व्यक्तिगत माहिती न देण्याचा दृढ निश्चय केला होता. आजचा अनुभव ती कधीच विसरणार नव्हती.
☆ “स्त्री : एक उत्तम व्यवस्थापिका…” ☆ सौ. अंजोर चाफेकर ☆
स्त्रीला आचार्य अत्रे यांनी इस्त्रीची उपमा दिली कारण ती नवऱ्याच्या विस्कटलेल्या जीवनाला इस्त्री करते.
स्त्री एकाच वेळी अनेक भूमिका सफाईदारपणे बजावू शकते. माता, पत्नी, सून, मुलगी, बहिण, भावजय, नणंद आणि सखी, कधी दूर्गा, कधी सरस्वती तर कधी लक्ष्मी.
तिला उपजतच व्यवस्थापन कला, मल्टी टास्कींग, टाईम मॅनेजमेंट जमते.
घरातल्या सर्वांच्या वेळा सांभाळणे,सर्वांना समजून घेणे,नोकर माणसांकडून कामे करवून घेणे, त्यांच्या गैरहजेरीत ती कामे स्वतः उरकणे,सकाळी दूध गरम करण्यापासून ते रात्री झोपताना ओटा आवरेपर्यंत तिची मॅनेजमेंट चालूच असते.
हेच तिचे उपजत कौशल्य ती जेव्हा उद्योजक बनते तेव्हा तिला उपयोगी पडते.
ती मनाने हळवी असल्यामुळे, सासूबाई रागे भरल्या, नवरा तिच्यावर क्षुल्लक कारणासाठी चिडला तरी तिचे डोळे झरू लागतात. पण अश्रू हे दुर्बलता दर्शवितात.
व्यवसायात रोजचाच दिवस एक आव्हान असते. कधी कुठले संकट समोर येईल हे सांगता येत नाही.
अगदी छोट्या गोष्टी, कधी फॅक्टरीत ब्रेकडाऊन, कधी डिलीव्हरी अर्जंट असते आणि नेमकी वीज जाते.
कधी टेम्पोचा संप असतो. कधी कुणी कामगार नेमका गैरहजर असतो. कधी कच्चा माल वेळेवर पोहचत नाही. कधी कस्टममधे माल अडकतो व डॅमेरेज चढत जाते. कधी ग्राहकांच्या तक्रारी, तर कधी सरकारची शुक्लकाष्ठे, …. मारुतीच्या शेपटासारखी ही यादी संपणारी नाही.
अशावेळी रडून चालत नाही. संकटाशी सामना करायला शिकले पाहिजे.
मी माझ्या एका मोठ्या ग्राहकाकडे पेमेंट मागण्यासाठी गेले होते. मोठी रक्कम होती म्हणून स्वतः गेले होते.
त्याने मला बराच वेळ बाहेर बसवून ठेवले. त्याची कंपनी लाॅसमधे होती म्हणून तो कुणाचेच पेमेंट करत नव्हता असे समजले. कारण माझ्यासारखेच बरेच जण बाहेर ताटकळत बसले होते.
मी त्याच्या केबिनमधे गेल्यावर तो वसकन् मला म्हणाला, “ मी तुमचे पेमेंट देणार नाही, गेट आऊट प्लीज.”
मी बाहेर आले. पण माझे इतके पैसे बुडतात समजल्यावर,आणि माझा इतका अपमान त्याने केल्यावर मला रडू आले. लिफ्टमधून खाली उतरेपर्यंत, गाडीत बसेपर्यंत माझे डोळे झरत होते.
माझा सेल्स मॅनेजर म्हणाला, “ मॅडम तुमच्यासारख्या देवीचा त्याने अपमान केला.”
तीन दिवसांनी त्याचा पेपरमधे फोटो आला. त्याने केलेल्या स्कॅममुळे त्याला अटक झाली होती.
तेव्हापासून ठरवले ,आपण रडायचे नाही. आपले अश्रू इतके स्वस्त नाहीत.
संवाद साधण्याची कला
स्त्री ही मूळातच मृदू भाषिणी असते.याचा उपयोग तिने मार्केटिंग मधे करावा. आपली विकायची वस्तू ग्राहकाला आवडली पाहिजे. त्याची किंमत त्याला पटली पाहिजे.आणि ती वस्तू त्याने आपल्याकडूनच विकत घ्यावी असे त्याला वाटले पाहिजे यासाठी ग्राहकांबरोबर सुसंवाद साधण्याचे कौशल्य तिने वाढवावे.
तसेच आपल्या हाताखालच्या माणसांना सूचना देताना, दूरच्या साईटवर असणाऱ्यांना सुद्धा सूचना देताना त्या त्यांना नीट समजतील, संदिग्धता राहणार नाही याची काळजी घ्यावी.आपल्याला नेमके काय पाहिजे हे कम्यूनिकेट करता येणे फार महत्वाचे असते.
व्यवसायात आपल्याला कच्चा माल पुरवणारे सप्लायर्स, फायनान्स करणारी बॅन्क, ग्राहक,कामगार,पदोपदी वेगवेगळ्या पातळीवरच्या माणसांशी संबंध येणार. यांच्याशी परस्पर सुसंवाद साधता आला तर बरीच कामे सोपी होतात.
सुसंवाद म्हणजे नेमके काय?
समोरच्या व्यक्तीला न दुखावता,त्याच्या इगोला ठेच न पोहचवता, त्याची बाजू नीट ऐकून घेऊन,त्याला सन्मान देऊन बोलता येणे. तसेच पत्रव्यवहार करताना पत्रातील भाषा फार सांभाळून लिहीली पाहिजे. बोलताना एखादा शब्द इकडे तिकडे झाला तरी चालतो परंतु लिहिताना नेटके व मोजकेच लिहावे.
मलाही या गोष्टी शिकाव्या लागल्या.
आज व्यवसाय सुरू करून ४५वर्षे झाली. माझे जुने व नवे ग्राहक, आमचे संबंध सलोख्याचे आहेत.
जुने कामगार रिटायर व्हायला मागत नाहीत.
कायद्याचे ज्ञान…
उद्योजकाला प्रत्येक कायदा माहीत असतो असे नाही. परंतु माहिती जरूर करून घ्यावी.
उदा. दरवर्षी डिसेंबर महीन्यात फॅक्टरी लायसन्स रिन्यू करायचे असते. पहिल्या वर्षी मी विसरले.
जानेवारी महिन्यात रिन्यू करायला गेले तर ७०००रूपये दंड भरावा लागला.
मी अमेरिकेतून जाॅगिंग मशीन मागवली होती. कंपनीने मला मशीनसोबत एक बेल्ट फुकट पाठविला होता.म्हणून बिलात बेल्टची किंमत शून्य लिहिली होती. मी जेव्हा ड्यूटी भरायला गेले तेव्हा माझ्यावर अंडर इन्वाॅइसचा गुन्हा ठोकला. केवळ अज्ञानामुळे आपण कायद्याच्या कचाट्यात सापडू शकतो. छोट्या चुका सुद्धा महाग पडतात.
म्हणून कुठलीही गोष्ट करताना हे पडताळून पहावे
‘Is it legally right?’
स्वतःची उन्नती….
व्यवसायात प्रगती साधायची असेल तर प्रथम स्वतःला उन्नत करणे जरूरी आहे.
आपली कार्यक्षमता वाढवायची, आपली पोटेन्शियलस वाढवायची. स्वतःला अपग्रेड करत रहायचे.
वाचन, प्रवास व विविध क्षेत्रातील मान्यवरांशी संपर्क साधायचा. स्वतःच्या चुका सुधारायच्या.
चांगल्या गोष्टींचे अनुकरण, इतर व्यक्तींचे चांगले गुण टिपायचे.
मी माझ्या वडीलांचे निरीक्षण करून बऱ्याच गोष्टी शिकले. त्यांची फोनवर बोलायची पद्धत,डिक्टेशन द्यायची पद्धत, फायलिंग कसे करायचे, बिझिनेस पत्रे कशी लिहायची, दिलेली वेळ कशी पाळायची, नोट्स कशा लिहायच्या — अशा खूप गोष्टी…. ते माझे आदर्श होते.
ते म्हणायचे कुठलाही निर्णय घेताना आधी स्वतःच्या मनाशी संवाद साधायचा. स्वतःला अपराधीपणाची भावना असेल, स्वतःच्या नजरेतून आपण उतरणार असू तर तो निर्णय कितीही फायद्याचा असला तरी तो चुकीचाच.
☆ माझे आवडते साहित्यिक… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆
साहित्यिक प्रेमी, बंधू भागिनींनो 27 फेब्रुवारी रोजी महाराष्ट्राचे लाडके कवी , ” विष्णू वामन शिरवाडकर उर्फ कुसुमाग्रज” यांचा जन्मदिवस . त्यांची स्मृती म्हणून आजच्या मराठी भाषा गौरव दिन साजरा करण्यात येतो . कुसुमाग्रज यांनी महाराष्ट्राच्या सांस्कृतिक आणि साहित्य क्षेत्रात मोलाचे योगदान दिले असून मराठी भाषा ज्ञानभाषा होण्यासाठी अथक परिश्रम पण केले .
देश पातळीवर मराठीचा झेंडा फडकवण्यासाठी अनेक नामवंत संतापासून , पंतापर्यंत आणि पंतापासून तंतापर्यंत, तसेच अनेक नामवंत साहित्यिकानी यात मोलाची भर घातली . अनेक दिग्गज साहित्यिक होऊन गेलेत. त्यांनी पण मराठी भाषा समृध्द केलीच .
पण मला अलीकडच्या काळातील, पुण्यातील प्रसिद्ध साहित्यिक ,स्त्रीरोगतज्ज्ञ “प्रा. डॉ. निशिकांत श्रोत्री “यांच्या बद्दल आज तुम्हाला सांगायला आवडेल . व मराठी भाषेचा गौरव दिन , खऱ्या अर्थाने साजरा होईल असेच वाटते . हो ! पण माझी अवस्था आज काजव्याने सूर्याला ओवळण्या सारखी झाली आहे ! !
।। क्व च सूर्य वंश , क्व च अल्पा विषयामती ।।
मुळातच डॉ श्रोत्री यांचा जन्म पुण्यात पुण्य नगरीत झाला . सुसंस्कारीत , ऋजु आणि बुद्धिमान घराण्यात , श्रोत्री कुटुंबियांत 1945 ला झाला . जन्मजात कलेचा वारसा ज्यांना लाभला , ते डॉ निशिकांत श्रोत्री सर , साहित्य ,कला आणि नाट्य क्षेत्रात आपले नाव गाजवलेच . वैद्यकीय क्षेत्रातही त्यांनी जोरदार मुसंडी मारली . वैद्यकीय क्षेत्रात दुर्लक्ष नको म्हणून ह्या नाट्य क्षेत्रातील अभिनेत्याने , रंगभूमीवरून रजा घेतली !
कला क्षेत्राशी फारकत घेणे त्यांना रुचले नसावे . म्हणूनच आकाशवाणीवर नाटके , भावगीते रचना याद्वारे त्यांनी आपली चुणूक दाखवून दिली . प्रसिध्द संगीतकार श्री गजानन वाटावे यांनी , डॉ श्रोत्री सरांच्या भावगीताना चाली लावल्या . त्यांचे बालपणीचे किस्से पण असेच नवल वाटावे असे आहेत .
लहानपणीच त्यांचे पाय पाळण्यात दिसू लागले असे म्हटल्यास वावगे ठरू नये . मोंट्सरित असतानाच त्यांनी आपली बडबड गीत स्वतः रचून म्हणण्यास सुरुवात केली होतीच . घरीं त्यांचे आजोबा दादा भट ह्यांचे मार्गदर्शन पण होतेच . दादा भट हे कडक शिस्तीचे ! त्यांचा अभ्यास , व्यायाम , अन परवचा संस्कृत पाठांतर हे अगदी ठराविक वेळेत होत होते . एक शिस्तबद्ध वळण अन मुळात डॉ श्रोत्री हे अभ्यासू अन हुशार व्यक्तिमत्व आजोबांच्या देखरेखीखाली तावून सुलाखून निघालं . इयत्ता पाचवी मध्ये त्यांनी “कार्तिकस्वामीच लग्न ” ही विनोदी कथा लिहली . अन तेथूनच त्यांच्या काव्य साहित्याचा प्रवास सुरु झाला तो आजतागायत ! त्यांच्या सिध्द हस्त लेखणीला माता सरस्वतीचा वरद हस्त लाभला होता.
त्यांनी मेरिटमध्ये बी जे मेडिकल कॉलेज पुणे येथे प्रवेश मिळाला , अन त्यांचं साहित्य तसेच नाट्य क्षेत्र पण बहरून आलं . पु ल देशपांडे यांचे “तुझं आहे तुझपाशीं ” ह्या नाटकात श्यामची भूमिका केली . अशी पाखरे येती , वाजे पाउल आपले अश्या अनेक नाटकात भूमिका केल्या . अन येथेच पु ल देशपांडे ह्यांच्याशी ओळख झाली . नाटकानिमित्त डॉ श्रोत्री यांचे पु ल च्या घरी येणें जाणे सुरू झाले . काही नाटक पुणे रेडिओ स्टेशनवर पण प्रसारित झाली . बी जे आर्ट सर्कल हे त्यावेळी पुण्यातील सांस्कृतिक माहेरघर मिळाले खरे , पण डॉ श्रोत्री यांनी आपलं शैक्षणिक प्रगती सुध्दा उंचीवर नेऊन ठेवली .ते सतत विध्यापिठात प्रथम स्थान घेत , साहित्य क्रांती पण केली .
एम डी गायनाकोलोजी मध्ये त्यांनी सर्व विध्यापिठात सुध्दा प्रथम श्रेणी घेतली . पदवी उत्तर शिक्षणातच त्यांचा डॉ देशपांडे यांच्याशी ओळख झाली, ओळखीचे रूपांतर विवाहात कधी जाहले ते कळलं पण नाही .
त्यांची ग्रंथ संपदा पण तोंडात बोट घालणारी आहे .
कथा संग्रह , कथाकथन , काव्य संग्रह , लेख , ललीतलेख , कादंबऱ्या ह्या वाचनीय , सहज सुलभ प्रतिभेला गवसणी घालणाऱ्या वाटतात . हे सर्व कमी म्हणून की काय , त्यांनी संपूर्ण भगवद्गीता ह्यांचे काव्यमय भाषांतर तर केलेच त्याशिवाय , ऋग्वेद सारखा कठीण प्राय वेद सुध्दा काव्यमय भाषांतर करून प्रसिध्द गायका कडून गाऊन घेतला . ह्या सर्व ऋचांचे त्यांनी यु ट्यूब वर पण प्रक्षेपण केलं . विचार करण्यासारखी गोष्ट म्हणजे,रुक्ष अन क्लिष्ट अश्या वैद्यकीय क्षेत्रात राहून
जे कार्य केले ते खचितच , वखण्याण्यासारखे आहेच . शिवाय आचम्बीत करणारे आहे एवढे खरे . ऋजु स्वभावाचे असणारे डॉ . श्रोत्री ह्यांच्या प्रतिभेची गगन भरारी त्यांच्या काव्यातच नव्हेतर कथा , कथा सादरीकरण , कादंबरीत स्पष्टपणे दिसून येते . त्यांची ग्रंथ संपदा खाली दिलेली आहेच . त्यावर नुसता दृष्टी क्षेप टाकला तरी कल्पना येते . एवढी ग्रंथ संपदा असूनही ते आज पण साहित्य क्षेत्रात कार्यरत आहेत . साहित्यात नवनवीन प्रयोग पण करीत आहेत . त्यांच्या कार्याला माझा त्रिवार मुजरा तर आहेच . त्यांना दीर्घकाळ आयुआरोग्य मिळो व त्यांच्या हातून आणखी साहित्य सेवा घडो अशी मी ईश्वर चरणी प्रार्थना करून मी आपली रजा घेत आहे . खऱ्या अर्थाने मराठी भाषा गौरवंदिन साजरा केल्याचा आंनद आज मला मिळतो आहे हे पण नसे थोडके .