English Literature – Poetry ☆ ‘या क्रियावान…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Industrious…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story ~ या क्रियावान..~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ??

बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।

उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Industrious ~ ??

Seminars and discussions were held on developing productivity in barren land. Campfires and ‘A Night in a Tent’ were enjoyed by pitching tents on the land to be cultivated. A huge amount of money was spent and a report was made by the experts. Then a committee was formed to review it and collect the new resources. Then the cycle of sub-committees and the teams formation continued.

On the other hand, a group of earthworms, descending into the womb of the same land, engaged day and night in efforts to make that part fertile.

Today, that part of land has a flourishing crop on it..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 57 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधा, घोड़ा और खच्चर।)  

? अभी अभी # 58 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक गधा एक घोड़ा कहावत।घोड़ा एक उच्च नस्ल का प्राणी है, मनुष्य जब उसकी सवारी करता है तब वह घुड़सवार कहलाता है। शादी के वक्त जीवन में एक बार तो हर दूल्हा घोड़ी चढ़ता ही है। यह सुख गधे के नसीब में नहीं। कोई समझदार इंसान गधे की सवारी नहीं करता ! कोई दूल्हा भूल से भी कभी एक गधी पर चढ़ तोरण नहीं मारता।

आखिर घोड़े गधे में फ़र्क होता है ! लेकिन यह भी सनातन सत्य है कि अगर गधे के सींग नहीं होते, तो घोड़े के भी नहीं होते। अगर गधा घास खाता है, तो घोड़ा कोई बिरयानी नहीं खाता। दोनों के एक एक पूँछ होती है। हाँ गधा हिनहिना नहीं सकता और सावन के घोड़े को सब जगह हरा नहीं दिखता।।

घोड़े को अश्व भी कहते हैं और महालक्ष्मी में घोड़े की ही रेस होती है, गधों की नहीं। इतिहास गवाह है कि पुराने ज़माने के राजाओं की सेना में युद्ध के लिए घोड़े, हाथी, और अश्व-युक्त रथ होते थे, लेकिन किसी भी सेना में गधे को स्थान नहीं मिला। जब कि यह कछुए जितना स्लो भी नहीं।

अंग्रेज़ घोड़ों की सवारी ही नहीं करते थे, उस पर बैठ पोलो भी खेलते थे। अंग्रेज़ चले गए, पोलोग्राउण्ड छोड़ गए। सेना में आज भी अच्छी नस्ल के घोड़ों की उपयोगिता है। बीएसएफ की ही तरह एसएएफ की बटालियन भी होती है, जिसे अश्ववाहिनी भी कहते हैं।।

गधे और घोड़े के बीच की एक नस्ल होती है, जिसे खच्चर कहते हैं। आप इसे दलित अश्व भी कह सकते हैं। यूँ तो गधे और खच्चर दोनों पर समान रूप से सामान लादा जा सकता है, लेकिन खच्चर पहाड़ों पर आसानी से बोझा ढो सकता है। गधा इसीलिए गधा रह गया कि वह कभी पहाड़ नहीं चढ़ा।।

जो खच्चर पहाड़ों पर बोझा ढो सकता है, वह सैलानियों और तीर्थ यात्रियों को भी  सवारी के लिए अपनी  आपातकालीन सेवाएं प्रस्तुत कर सकता है। पहाड़ पर यह खच्चर कई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है। तराई से पहाड़ों पर आवश्यक सामग्री पहुँचाने का काम ये खच्चर ही करते हैं।

मनुष्य बड़ा मतलबी इंसान है ! घोड़े और खच्चर को तो उसने अपना लिया लेकिन गधे को नहीं अपनाया। यहाँ तक तो चलो ठीक है। लेकिन जो इंसान भी उसके काम का नहीं, उसे भी गधा कहने में उसे कोई संकोच नहीं।

लेकिन वह यह भूल जाता है कि मतलब पड़ने पर गधे को ही बाप बनाया जाता है, घोड़े को नहीं।।

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 215 ☆ व्यंग्य – भोजन वैविध्य… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भोजन वैविध्य

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 215 ☆  

? व्यंग्य – भोजन वैविध्य?

इस देश में लोग चारा खा चुके हैं. दो प्रतिशत कमीशन ने पुल, नहरे और बांध के टुकड़े खाने वाले इंजीनियर बनाए हैं । सर्कस में ट्यूब लाइट और कांच, आलपीन खाते मिल ही जाते हैं । रेलवे स्टेशन पर बच्चे नशे के लिए पंचर जोड़ने का सॉल्यूशन चाव से खाते हैं ।

मंत्री, अफसर बाबू रुपए खाते हैं ।

किसी सह भोज में लोगो की प्लेट देख लें, लगता ही नहीं की ये अपने खुद के पेट में खा रहे हैं, और पेट की कोई सीमा भी होती है ।

घर जाकर एसिडिटी से भले निपटना पड़े पर सहभोज का आनंद तो ओवर डोज से ही मिलता है। बाद में हाजमोला प्रायः लोगो को लेना होता होगा ऐसा मेरा अनुमान है। मेरे जैसे दाल रोटी खाने वाले भी रसगुल्ला तो 2 पीस ले ही लेते हैं।

पीने के भी उदाहरण तरह तरह के मिलते हैं । लोग पार्टियों में जबरदस्ती पिलाने को शिष्टाचार मानते हैं । पिएं और होश में रहें तो मजा नहीं आता । हर बरस जहरीले मद्य पान से सैकड़ों जानें जाती हैं । पुरानी शराब का सुरूर गज़ल लिखवा सकता है।

आशय यह की खाने पीने की विविधता अजीबो गरीब है ।

कोई मांसाहारी हैं तो कोई शाकाहारी, कोई केवल अंडे खाने वाला सामिष भोजन लेता है तो कोई मंगलवार, शनिवार छोड़कर बाकी दिन नानवेज खा सकता है। नानवेज न खाने वाले भी डंके की चोट पर नानवेज चुटकुले सुनते सुनाते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #140 – “यात्रा वृतांत – दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”

मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”

मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।

मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”

“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।

मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।

मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।

यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।

इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”

मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।

इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।

चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।

मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।

इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”

मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।

चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।

किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।

मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”

तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।

वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।

अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”

समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए। 

जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।

“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”

“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।

इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।

चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।

मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।

यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-05-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 162 ☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 162 ☆

☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राधाकृष्णन थे गुरू, अदभुत उन का ज्ञान।

पाँच सितंबर जन्मदिन, करे देश सम्मान।।

 

श्रेष्ठ विचारक, वक्ता, रखा दार्शनिक ज्ञान।

उत्कृष्ट लेखनी से बने, मानव एक महान।।

 

ईश्वर के प्रिय भक्त थे, बाँटा जग को प्यार।

सत्य बोलकर ही सदा, कभी न मानी हार।।

 

शिक्षक बनकर देश का, सदा बढ़ाया मान।

किया समर्पित स्वयं को, बाँटा सबको ज्ञान।।

 

प्रतिभा की सदमूर्ति थे, नहीं किया अभियान।

सदा पुण्य करते रहे, और बढ़ाई शान।।

 

लड़े सदा अज्ञान से, किया दूर अँधकार।

मिटा कुरीति ज्ञान से, किया सदा उद्धार।।

 

खुशी, प्रेम सत बाँटकर, करें सभी हम याद।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सदा रहे निर्विवाद।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खु र्ची ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

🤠 खु र्ची ! 😎 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

गल्लीपासून दिल्लीपर्यंत

चाले माझाच बोलबाला,

जळी स्थळी काष्ठी पाषाणी

असे मजवर नेत्यांचा डोळा !

 

‘आराम’ नावाची माझी बहीण

कुठे हरवली कळत नाही,

आजच्या “गोल” भगिनींना

तिची कुठलीच सर नाही !

 

माझ्यावाचून सर्व नेत्यांचा

जीव सदा अडकतो घशात,

मज मिळवण्या जिवलगांचा

करती कधीही विश्वासघात !

 

रोज जगभरात मजसाठी

चाले नवे नवे राजकारण,

जनतेला कळणार नाही

त्या मागले खरे अर्थकारण !

 

सर्व जगात एकच भारी

आहे नशा माझी विखारी,

शेवटी उतरते एकदाची 

नेता जाता देवाघरी !

नेता जाता देवाघरी !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

११-०२-२०२३

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #163 ☆ संत कनक दास… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 163 ☆ संत पुरंदर दास☆ श्री सुजित कदम ☆

कर्नाटक पितामह

संत पुरंदर दास

व्यासराये गोरविले

हाची खरा  हरीदास..! १

 

शास्त्र शुद्ध संगीताचे

अवगत केले ज्ञान

आदिगुरू पितामह

प्राप्त केला बहुमान…! २

 

श्रीनिवास नायक हे

मुळ नाव या संतांचे

सराफीचा व्यवसाय

बडे व्यापारी मोत्यांचे…! ३

 

धनवान  असे जरी

वृत्ती कंजूष तयाची

आला पांडुरंग दारी

घेण्या परीक्षा दासाची…! ४

 

आला पांडुरंग दारी

नथ पत्नीची घेऊन

ब्राह्मणाच्या रूपांमध्ये

गेला परीक्षा घेऊन…! ५

 

दान देई ब्राम्हणाला

दास पत्नी सरस्वती

दान वस्तू विकूनीया

शिकविली जगरीती…! ६

 

केला दासां उपदेश

सोडी हव्यास धनाचा

दान केले धन सारे

मार्ग वैष्णव धर्माचा…! ७

 

आला विजय नगरी

पांडुरंग दुष्टांताने

पंथ वैष्णव माधव

वाटचाल संगीताने…! ८

 

ग्रंथ विठ्ठल विजय

कथा जीवनाची सारी

आत्मा चरीत्र सुरस

सुख दुःख घडे वारी..! ९

 

उगाभोग नी‌ सुळादी

काव्य प्रकार दासाचे

माया मालव गौळ हे

राग दैवी संगीताचे…! १०

 

भक्ती रचना विपुल

पदे कानडी भाषेत

भजनाचे अनुवाद

झाले विविध भाषेत…! ११

 

स्वरसाज अभंगाला

केले अभंग गायन

सुर ताल संगीताने 

मुग्ध होती प्रजाजन…! १२

 

 

राजा कृष्ण देवराय

भक्त झाला या संतांचा

केले कार्य सामाजिक

कळवळा गरीबांचा….! १३

 

दास मंडप  प्रसिद्ध

तिरूपती मंदिरात

देई मंडप बांधून

कृष्णदेव उत्साहात…! १४

 

कर्नाटक प्रांतांमध्ये

केला प्रचार प्रसार

संत पुरंदर दास

संकीर्तन सेवाधार….! १५

 

पुरंदर विठ्ठल ही

नाममुद्रा अभंगात

हंपी गावी कार्य थोर

ईश भक्ती अंतरात…! १६

 

आहे टपाल तिकीट

गौरवार्थ हा सन्मान

पुण्यतिथी या दासाची

हंपी गावी  सेवा दान…! १७

 

आहे जीवन संगीत

संत पुरंदर दास

संत साहित्य विश्वात

मोती अनमोल खास…! १८

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अनुभूती ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ अनुभूती ☆ सौ. अमृता देशपांडे 

आमच्या छकुलीचा १० वा वाढदिवस झाला परवा. हां हां म्हणता छकुली दहा वर्षाची झाली. काल परवा पर्यंत पिटुकली, सोनुकली होती… मलाच मी खूप मोठा झालो आहे, असं वाटलं, वयानंही आणि विचारानंही. त्यालाही दोन कारणं होती. गेल्या दहा वर्षात मुलांबरोबर त्यांच्याच वयाचे होऊन खेळता खेळता काळ कसा सरला कळलंच नाही.  मुलं मोठी होत होती,  आम्ही ही एक एक नवीन अनुभव घेत मोठे झालो.

दुसरं म्हणजे मला आणि नंदिताला , माझ्या पत्नीला, गेल्या दोन महिन्यात एका वेगळ्याच  प्रसंगाला सामोरे जावे लागले. नवीन वर्षाची सुरुवात झाली तीच टेन्शनमध्ये. आईची तब्येतीची तक्रार होती म्हणून चेकअप साठी हाॅस्पिटलमध्ये गेली आणि पाच वर्षांपूर्वी झालेल्या ह्रदयाच्या शस्त्रक्रियेनंतर परत तेच दुखणं,  आजारपण समोर ठाकलं . तिच्या ह्रदयावर परत शस्त्रक्रिया करणे गरजेचे होते. तीही ताबडतोब. 

मनात खूप गोंधळ माजला. वैद्यकीय शस्त्रक्रिया, उपचार याबाबतीत नेहमीच उलटसुलट मते असतात. चहू बाजूंनी लोक अनेक सल्ले देत असतात. खूपदा सर्वच वास्तवात आणणे शक्य नसते. त्यामुळे गोंधळ,  साशंकता निर्माण होते. मुख्य म्हणजे सल्ले द्यायला लोक एका पायावर तयार असतात. प्रत्यक्ष वेळ येते तेव्हा कोणीही जवळ नसतो. जवळचेही सोबतीला नसतात. हा सर्वसामान्य दुनियादारीचा अनुभव आम्हालाही आला.

मी आणि नंदितानं सगळा धीर एकवटला. आल्या प्रसंगाला सामोरे जाण्याची मनाची तयारी केली. 

शस्त्रक्रियेची तारीख ठरली. मन धास्तावलं होतंच. त्याला कारणही तसंच होतं.आईचं वय, नाजुक तब्येत,  दुस-यांदा शस्त्रक्रिया.  एकीकडे काळजी, जबाबदारी, तर दुसरीकडे अॅडमिट करण्याचे सोपस्कार. 

माझ्या ऑफिसचे माझे सहकारी सतत माझ्याबरोबर होते. रक्तपुरवठ्याची जुजबी तयारी केली होती. पण आदल्या दिवशी अठरा रक्तबाटल्यांची सोय करण्याची सूचना हाॅस्पिटलमधून देण्यात आली आणि पळापळ सुरू झाली. फोनवरून एकमेकांना निरोप सुरू झाले. 

तासाभरातच चार तरूणांचा ग्रुप आला मला शोधत, ” साहेब, रक्त द्यायला आलोय.” 

हाॅस्पिटलमध्ये फाॅर्म भरून रक्त घेण्याचे काम सुरू झाले. त्या चौघांचं संपता संपता आणखी दोघं आले. पाठोपाठ एका गाडीतून  सहा जणांचा ग्रूप आला. सर्व जण फाॅर्म भरत होते, रक्त देत होते. मी आणि नंदिता अक्षरशः अवाक् झालो. आम्ही या शहरात नवीन होतो. रोजच्या संपर्कात येणा-यांशिवाय इतरत्र ओळखी करायला वेळच नव्हता.  पण अनोळखी असूनही स्वयंस्फूर्तीनं स्वतःचं रक्त देणं, तेही कसलाही मोबदला न घेता. त्या फाॅर्म भरून घेणा-या नर्सताई मला तिथूनच हात हलवून सांगत होत्या, don’t worry,  everything will be good!  त्यांच्या डोळ्यांतही तेच भाव होते. मुलं घरी असल्याने नंदिता घरी चालली होती. जाताना त्या नर्सताईंना सांगायला गेली. तेव्हा त्या ” काळजी करू नका,  सर्व ठीक होईल ”  असं म्हणाल्या. कठीण परिस्थितीत ह्या एका शब्दाचा केव्हढा आधार वाटतो.

ज्या हाॅस्पिटलमध्ये  आठ-दहा लाखांची बिलं आधी भरल्याशिवाय इलाज, उपचार सुरू  होत नव्हते, तिथेच माणुसकीची ही श्रीमंती अनुभवली. शिवाय जाताना प्रत्येक जण प्रेमानं, आपुलकीनं आणि थोड्याशा प्रेमळ हक्कानं सांगत होते, ” काहीही, कसलीही गरज लागली तर लगेच फोन करा, फोन नंबर दिलाय. आम्ही आहोतच. ” जवळ जवळ रात्री १२ पर्यंत लोक रक्त द्यायला येत होते. गरजेपेक्षा जास्तच रक्त उपलब्ध झालं. 

गेले चार-सहा तास हे चालू होते. मी झपाटल्यासारखा दिग्मूढ झालो होतो. जणू काही रक्तदानाचा एक सोहळा घडत होता. सगळे वातावरण परमेश्वराच्या अस्तित्वाची प्रचीती देत होते.

उद्या आईचं ऑपरेशन.  पापणी मिटत नव्हती. मनात देवाचा धावा सुरू होता. नंदितानं देवाजवळ अखंड दिवा लावला होता. आम्हां दोघांना जाणवलं, ह्या सर्व मित्रांच्या रूपात ( हो, आता ते अनोळखी नव्हते, मित्र होते) देवच आमच्या बरोबर आहे.

दुसरे दिवशी ऑपरेशन व्यवस्थित झालं. डाॅक्टरनी बाहेर येऊन सांगितलं तेव्हा चार वाजले होते. दुपारनंतर अनेक रक्तदात्यांचे फोन आले आईची चौकशी करायला. आठ दहा दिवस झाले, आईची तब्ब्येतही दिवसागणिक सुधारू लागली.  आईसारखा positive minded पेशंट लवकर बरा होतो. पंधरा दिवसांनी ती घरी आली. 

मित्रांचे, त्या रक्तदात्यांचे आभार कसे मानू? त्यांची नावे माहीत नाहीत फक्त फोन नंबर आहेत माझ्याकडे. सर्वांना फोन करून छकुलीच्या वाढदिवसाच्या निमित्ताने बोलावले. छकुलीचे दोस्त होतेच, आमचे शेजारी,  माझे ऑफिस सहकारी बोलवले होते. नर्सताईंना बोलवायला मी हाॅस्पिटलमध्ये गेलो पण त्या भेटल्या नाहीत.  काऊंटरवर निरोप ठेवला. पण तो स्टाफ ” मी कोणाबद्दल बोलतोय?” अशा संभ्रमात दिसला.  

फूल ना फुलाची पाकळी म्हणून सर्वांना छोटीशी सस्नेह भेट दिली. सगळ्यांना Thank you म्हणताना माझ्या मनात एक विचार होता, इतक्या निस्वार्थी आणि निरपेक्षतेने दिलेल्या मदतीच्या ऋणातून आम्ही मुक्त होऊ का? नर्स ताई आल्या. मला खूपच बरं वाटलं. आईची सगळ्यांशी ओळख करून दिली.  नर्स ताईंची ओळख करून देणार होतो, पण त्या तिथे खुर्चीवर दिसल्या नाहीत.  

हळूहळू सर्व लोक परतू लागले.  त्यांना निरोप देता देता मी नर्सताईंना शोधत होतो. तिथे बसलेल्या एक दोघांना विचारले, त्या लाल साडी नेसलेल्या, आणि मोठ्ठं कुंकू लावलेल्या बाई गेल्या का? नंदिता पण त्या कुठे गेल्या म्हणून शोधू लागली. सेक्युरिटीला विचारले. त्यांना कळेना, कुठली लाल साडीवाली ताई? अशी कुणीच नव्हती. आम्हाला कळेना, कुठे गेल्या? त्यांनी फक्त गोड खीर खाल्याचे मी बघितले होते.  पण माझ्याशिवाय आणि नंदिताशिवाय दुस-या कुणीच त्यांना बघितलेच नव्हते…असं कसं?

 ……

मनाला चुट्पुट लागली……

त्या बसल्या होत्या त्या खुर्चीवर  आमच्या कुलदेवीचा फोटो आणि गुलाबाचं फूल होतं. ……

ते कसं तिथे आलं? त्यांना आमची कुलदेवी कशी माहीत?  शेजारचे ८५ वर्षाचे आजोबा म्हणाले, “ अहो, तुमची देवीच आली असणार…. किती भाग्यवान आहात तुम्ही ! “

आम्ही निःशब्द…..

देवीनं दिलेला फोटो आणि फूल घेऊन घरी आलो. ऊर भरून आला होता  देवासमोर हात जोडून दंडवत घातलं….

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सुपरहिरो – त्यांचा आणि त्याचे… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? जीवनरंग ❤️

☆ सुपरहिरो – त्यांचा आणि त्याचे… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆ 

आज गोरेगाव, मुंबईच्या सन्मित्र शाळेचे १९८६ च्या दहावीच्या बॅचचे सगळेजण खुशीत होते. फारा दिवसांनी आज त्यांचं नाशिकला गेट टुगेदर होतं. व्हॉट्सॲप ग्रुपवर मेसेजा-मेसेजी व्हायची नियमितपणे, पण प्रत्यक्ष भेटीचा आनंदच काही आगळा.

बऱ्याच जणांच्या विशेष खुशीचं कारणही तसंच विशेष होतं – आज त्यांचा सुपरहिरो त्यांना प्रत्यक्ष भेटणार होता – सुनील लुकतुके, डेप्युटी कलेक्टर – त्यांचा वर्गमित्र, आजच्या गेट टुगेदरला येणार होता.

त्याला भेटणं म्हणजे बौद्धिक मेजवानी असायची. सर्वसामान्य मध्यमवर्गातला मुलगा, मराठी माध्यमाच्या शाळेत शिक्षण घेतलेला, कोणतेही ट्युशन – क्लासेस न लावता, आपल्या मेहनतीने राज्य सेवा आयोगाची परीक्षा उत्तीर्ण झाला होता आणि टप्प्याटप्प्याने बढती घेत आज डेप्युटी कलेक्टर पदावर विराजमान झाला होता. आपल्या कर्तृत्वाने, निर्भीड, निस्पृह वागण्याने त्याच्या नावाचा डंका सर्वत्र गाजत होता आणि शाळामित्र – वर्गमित्र या नात्याने आपोआपच या सगळ्यांची कॉलर ताठ होत होती.

आजही तो लाल दिव्याची सरकारी गाडी न आणता, सगळ्यांबरोबर ग्रुपने केलेल्या बसने मुंबईहून नाशिकपर्यंत आला होता. गाण्याच्या भेंड्या, नकला – सगळ्या सगळ्यामध्ये सर्वसामान्य विद्यार्थ्याप्रमाणे तो सहभागी होत होता, खळखळून हसत होता, रुसत होता, फुरंगटत होता, मज्जा करत होता.

सर्व मित्र मैत्रिणींना स्वतःच्याच भाग्याचा हेवा वाटत होता. एवढा मोठा माणूस, पण कोणतीही शेखी न मिरवता चारचौघांप्रमाणे सगळ्यांच्यात मिसळत होता – जणू अजून सगळेच जण शाळकरी होते.

पण त्यांना कल्पना नव्हती की त्या सगळ्या मित्रमैत्रिणींइतकाच, किंबहुना त्यांच्यापेक्षाही जास्त खुश स्वतः सुनील होता. आणि यामागचं त्याचं कारण होतं की त्याचे सुपरहिरो त्याला आज प्रत्यक्ष भेटत होते.

वर्गातल्या अनेक जणांशी तो फोनवरून संपर्कात होता, काहीजण व्हॉट्सॲपमुळे संपर्कात होते. आणि यातूनच त्याच्या सुपर हिरोंचे विविध पैलू त्याला उमगत होते.

तो विनी फडणीसला भेटला होता. तिचा पहिला मुलगा normal होता, पण धाकटी मात्र स्पेशल चाइल्ड होती. विनीचं कौतुक हे होतं की ना तिनं “माझ्याच नशिबी हे का” म्हणून कधी दैवाला बोल लावला ना तिनं एकाकडे लक्ष देताना दुसऱ्याकडे दुर्लक्ष केलं. आज तिचा मुलगा तर कॉलेजात व्यवस्थित शिकत आहेच आणि तिची मुलगी भरतनाट्यम आणि स्विमिंगमध्ये, ती शिकत असलेल्या संस्थेला भारंभार सुवर्णपदकं मिळवून देत आहे. ज्यांची मुलं अशी शैक्षणिक दृष्ट्या challenged आहेत अशा पालकांना समुपदेशन करण्यासाठी विनीला त्यांच्याच सन्मित्र शाळेने नुकतेच बोलावले होते.

किशोर सरोदे हा त्याचा दुसरा हिरो. त्याचा मुलगा आता तेरा चौदा वर्षांचा आहे. आज सगळे स्पर्धात्मक युगात आपापल्या मुलांवर अभ्यास, tuitions या सगळ्यांची भारंभार ओझी लादत असताना, या पठ्ठ्याने मात्र लॉन टेनिसमध्ये प्राविण्य दाखवणाऱ्या आपल्या मुलाची शाळा बंद केली होती. त्याचा मुलगा – राघव आता पूर्णवेळ टेनिस खेळतो आणि आईवडिलांना विम्बल्डनच्या vip stand मध्ये बसवून सामना दाखवण्याचं स्वप्न उरी बाळगून आहे. आज राघव under 14 वयोगटात all India level च्या साठाव्या रँकिंगला पोचला आहे.

स्वतः इंजिनीयर असूनही, मुलाचे कौशल्य आणि मेहनत घेण्याची तयारी बघून एवढा मोठा निर्णय घेणारा किशोर सुनीलला स्तिमित करत होता.

स्वामी समर्थांवर निस्सीम श्रद्धा असलेली सुनंदा गोडबोले त्याला आज कित्येक वर्षांनी भेटत होती. तिचा नवरा पोलीस हवालदार होता. दारू पिऊन बायकोला मारहाण करणं हा त्याचा आवडता टाईमपास. आणि त्याच्या या छंदात त्याची आई आणि भाऊ सक्रिय सहभागी. माहेरची अति गरीबी असल्याने सुनंदाचे परतीचे दोर केव्हाच कापले गेले होते. पण सासरच्यांकडून इतका छळ होऊनही सुनंदा खचली नव्हती.

निरलस सेवा करून जेव्हा तिनं आजारपणात खितपत पडलेल्या सासूचे प्राण वाचवले, अपघातानंतर सेवा सुश्रुषा करून दिरांना शब्दशः आपल्या पायावर उभं केलं आणि नवरा नोकरीतून सस्पेंड झाल्यावर तिच्या पोळीभाजी केंद्राने जेव्हा घर चालवलं, तेव्हा कुठे तिच्या सासरच्यांचे डोळे उघडले आणि ती आता सन्मानानं सासरी रहात होती.

वयाच्या अवघ्या चाळीसाव्या वर्षी कर्करोगाचे निदान झाल्यावरही न खचणारा आणि करोना काळात नवरा बायको एकाच वेळी icu त असूनही निराश न होणारा प्रति टॉम क्रुझ मनिष …

विमान कंपनी दिवाळखोरीत निघाल्याने नोकरी गमावलेला, नंतर करोनामुळे घरी बसावे लागलेला, पण अशा सगळ्या प्रतिकूल परिस्थितीतही आपली सदाबहार विनोदबुद्धी कायम राखणारा हिमांशू …

सुनीलच्या स्वतःच्या जडणघडणीमध्ये, शाळेत असताना त्याचा अभ्यास घेण्यापासून त्याच्या आईची महत्त्वाची भूमिका होती. आज त्याच्या अनेक वर्गमैत्रिणी स्वतः करीअर करण्याची संधी व पात्रता असूनही मुलांना यशस्वी करण्यासाठी पूर्ण वेळ गृहिणी झाल्या होत्या आणि आपापल्या परीने सुनीलच्या आईची भूमिका निभावत होत्या.

बाकी मित्र मैत्रिणींपैकी कोणी सायबर गुन्हे तज्ञ, कोणी योगगुरू झाले होते. कोणी शरीराला प्रमाणबद्ध करणारा – वळण लावणारा बॉडी बिल्डर, तर कोणी मनाला वळण लावणारे शिक्षक, प्राध्यापक, मुख्याध्यापक, कीर्तनकार, कोणी डॉक्टर, वकील, चार्टर्ड अकाऊंटंट, उद्योगपती, आर्मी ऑफिसर, आणि या सगळ्यांचे रुसवे फुगवे सांभाळत, क्वचित कधी डोळे वटारून पण बरेचदा प्रेमाने सांगून – समजावून – चुचकारून सगळ्यांना एकत्र बांधून ठेवणारा all rounder निलेश … सुपर हिरोंची ही यादी न संपणारी होती.

त्याची बायको त्याला नेहमी विचारायची – “तुझे शाळा सोबती तुझे सुपर हिरो का आहेत ?” आणि त्याचं नेहमी उत्तर असायचं की “हे एका साध्यासुध्या सुनीलचे मित्र आहेत, लाल दिव्याच्या गाडीत फिरणाऱ्या सुनीलचे मतलबी, फायद्यासाठी झालेले तोंडदेखले मित्र नव्हेत. शाळा कॉलेजात लौकिक अर्थाने त्यांना कदाचित कमी गुण असतील, पण आयुष्याच्या परीक्षेत ते त्याच्याइतकेच, किंबहुना कांकणभर जास्तच यशस्वी होते.

ते आर्थिक दृष्ट्या किती यशस्वी झाले, त्यांचं नाव –  मानमरातब किती आहे हे त्याच्या लेखी महत्त्वाचं नव्हतं. पण त्यांची झुंजार सकारात्मक वृत्ती त्याला प्रेरणादायक होती.

गुरू ठाकूरने

“असे जगावे छाताडावर

आव्हानाचे लावून अत्तर,

नजर रोखुनी नजरेमध्ये

आयुष्याला द्यावे उत्तर”

ही कविता जणू या दोस्तमंडळींना बघून, अनुभवून आणि उद्देशून लिहिली होती आणि म्हणूनच ते सगळेच त्याचे सुपरहिरो होते, आहेत आणि राहतीलही.

आजच्या गेट टुगेदरच्या दिवशी, सगळेच जण आपापल्या सुपर हिरोंना भेटून जाम खुश होते.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड, पुणे.  मो 8698053215

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ सावित्री… लेखिका : सुश्री मानसी काणे ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ सावित्री… लेखिका : सुश्री मानसी काणे ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

यंदाची वटपौर्णिमा आता जवळ आलीय. यादिवशी प्रथेप्रमाणे वटसावित्रीची कथा वाचताना, दरवर्षी सावित्री मला नव्याने समजत जाते. खरं तर ही एक पुराण कथा! भोळ्या भाबड्या पतीभक्तीपरायण बायकांनी ती ऐकायची आणि श्रद्धेने माथा टेकवायचा.पतीचे प्राण यमाकडून परत आणणं म्हणजे का सोपी गोष्ट आहे? याबरोबरच सासऱ्यांचं अंधत्व दूर करणं, त्यांचं गेलेलं राज्य परत मिळवणं, आपल्या निपुत्रिक पित्यासाठी पुत्र लाभाचा वर मिळवणं…. हे सगळं त्या सावित्रीने केलं. आज तर्काच्या कसोटीवर घासून पाहिली तर यातली एकही गोष्ट आपल्याला पटणार नाही कदाचित.पण तरीही मी या कथेतले नवे नवे अर्थ शोधत राहते…आणि एका क्षणी मला समजतं ,की कोणतीही गोष्ट विपरीत परिस्थितीशी झगडून, आपल्या कुशाग्र बुद्धिमत्तेचा उपयोग करून, विनम्र भावाने, कधी विनवणी करून मिळवणं आणि मिळवलेल्या गोष्टीचा उपयोग संपूर्ण कुटुंबासाठी होईल, हे पाहणं म्हणजेच सावित्री असणं, सावित्री होणं !

सावित्री म्हणजे कोणी राजकन्या, राणी किंवा वनवासिनी नाही,तर प्रत्येक स्त्री म्हणजे सावित्री ! स्त्रीत्वाचं प्रखर तेज म्हणजे सावित्री! सत्यवान, वटवृक्ष किंवा यमधर्म ….हे सगळं निमित्तमात्र. अविरत प्रयत्न, आणि यशाचा ध्यास म्हणजे सावित्री !

सावित्री बुद्धिमान होती. पतिनिष्ठा, पातिव्रत्य, कर्तव्य, धर्म या बाबतीतली आपली मतं तिनं यमाला सांगितली. वेळप्रसंगी त्याची स्तुती केली आणि त्यामुळे प्रसन्न झालेल्या यमा कडून वेगवेगळे वर मिळवले. तिला केवळ आपल्या पतीचे प्राण नको होते ,तर त्यानं उत्तम प्रतीचं आयुष्य जगावं,असं वाटत होतं .मग आधी तिनं आपलं राज्य परत मिळवलं .मग सासऱ्यांची दृष्टी परत मिळवून राज्यकारभाराची व्यवस्था नीट राहील असं पाहिलं.पित्यासाठी पुत्र मागून त्याच्या राज्याचा भविष्यकाळ सुरक्षित केला. सत्यवानाचे प्राण परत नाही मिळाले तर पतीशिवाय आपणही जिवंत राहणार नाही म्हणून, आपल्याशिवाय जगणाऱ्या आपल्या लोकांसाठी तिनं हे वर मिळवले. मग यमाने सत्यवानाच्या प्राणाखेरीज कोणताही वर मागण्यास सांगितल्यावर मोठ्या चतुराईनं सत्यवानाला शंभर पुत्र व्हावेत, असा वर मागितला.आणि हा वर खरा होण्यासाठी यमाला सत्यवानाचे प्राण परत द्यावेच लागले.हा एक प्रकारचा गनिमी कावाच होता आणि या युद्धात ती जिंकली.

माझ्या आजूबाजूला असंख्य स्त्रिया वावरत असतात. आपल्या मनाला मुरड घालून मुलाबाळांच्या भवितव्यासाठी अनेक घरी उजाडल्यापासून मावळेपर्यंत धुणीभांडी, केरफरशी करणारी माझी कामवाली,जीवनाशी तिची  सुरू असलेली लढाई, मुलींना चांगलं सासर मिळवून देणं, त्यांची बाळंतपण करणं, मुलानं शिकावं म्हणून तिचा चाललेला अट्टाहास,हे सगळं मी रोज पाहते.तीस वर्षे नवऱ्याच्या दुर्धर आजारासह सर्व संसारिक जबाबदाऱ्या उत्तम पार पाडणाऱ्या माझ्या जिवलग मैत्रिणीचा संघर्ष मी पाहिला आहे. त्यासाठी अनेक सुखाच्या क्षणांचा तिने केलेला त्याग माझ्या डोळ्यासमोर आहे. अकाली गेलेल्या नवऱ्याच्या माघारी त्याची उरलेली जबाबदारी रात्रंदिवस कष्ट करून पार पडणारी माझी वहिनी तर माझ्यासमोरच आहे. या सर्वजणींना मी पाहते ,तेव्हा या  त्या सावित्रीपेक्षा कणभर ही कमी नाहीत, याबद्दल माझी खात्री पटते. आज नवऱ्याच्या बरोबरीने कष्ट करणाऱ्या मुली त्यांच्या ताणतणावाचा अर्धा भाग आपल्या खांद्यावर पेलतात, म्हणजेच त्या त्यांचं आयुष्य वाढवितात. मतिमंद, अपंग मुलांना मोठं करणाऱ्या मातांच्या कौतुकासाठी तर शब्दच अपुरे पडावेत.ज्या चिकाटीनं सत्यवानाचे प्राण परत मिळेपर्यंत सावित्री यमाच्या मागोमाग चालत राहिली, त्याच चिकाटीनं त्या इच्छित साध्य गाठण्यासाठी मुलांबरोबर रोज अग्निदिव्य करीत असतात.

सध्या सगळ्याच पुराणकथांना भाकडकथा समजण्याचा काळ आहे. त्यातले दृष्टांत काल्पनिक समजले जातात. पण, थोड्या वेगळ्या पद्धतीनं त्यांना  आधुनिक काळाशी जोडलं तर सत्ययुग,  द्वापारयुगातल्या या गोष्टी आजही लागू पडताना आपल्याला दिसतात. पुराणकालीन स्त्री सत्वाच्या, तपाच्या बळावर उभी असेल, तर आजची स्त्रीसुद्धा बुद्धी सामर्थ्याच्या आणि परिश्रमांच्या जोरावर आकाशाला गवसणी घालते आहे. आपल्याला जे हवे ते अविरत प्रयत्नांनी मिळवते आहे. आपल्या यशाने कुळाचे नाव वाढवते आहे. कोणतीही जबाबदारी स्वबळावर पार पाडण्याची ही कुवत म्हणजेच तर हे सावित्रीपण आहे.  आणि त्यासाठीचे प्रयत्न म्हणजेच वटसावित्रीचं व्रत आहे !

लेखिका : सुश्री मानसी काणे

संग्राहिका – सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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