(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “त्रिकाल महादेव”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फुटपाथ और पार्किंग“।)
अभी अभी # 106 ⇒ फुटपाथ और पार्किंग… श्री प्रदीप शर्मा
बोलचाल के कुछ शब्दों के हम इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि उनकी भाषा हमें अपनी ही भाषा लगने लगती है। एक भाषा आम होती है जिसमें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, स्टेशन और लाइब्रेरी भी शामिल है। वहां भाषा विवाद और भेद बुद्धि काम नहीं करती। जो आपसी संवाद कायम करे, वही भाषा कहलाती है।
कभी हमारा शहर भी एक आदर्श शहर था, यहां सड़कें थीं, फुटपाथ थे। आज जब यही महानगर, स्मार्ट सिटी बनता हुआ, स्वच्छता के सातवें आसमान पर कदम रख रहा है, तब यहां का आम नागरिक आज ट्रैफिक जाम और पार्किंग जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ।
हमारे यहां पहले चौराहों का सौंदर्यीकरण होता है और उसके कुछ समय पश्चात् ही वहां ब्रिज निर्माण और मेट्रो का काम शुरू हो जाता है। कितनी बार इन सड़कों का मेक अप करना पड़ता है, शहर की सुंदरता और स्वच्छता को कायम रखने के लिए।
होते हैं कुछ लोग, जो बार बार घरों को रेनोवेट करते हैं, हर तीन साल में कार बदलते हैं।
आज के व्यस्ततम शहर में जब आम आदमी पैदल चल ही नहीं सकता तो फुटपाथ का क्या औचित्य ! लेकिन नगर विकास की कुछ मान्यताएं हैं, कुछ शर्तें हैं, यातायात की कुछ मजबूरियां हैं, जिनके कारण फुटपाथ का होना भी जरूरी है।
निकल पड़े हैं, खुली सड़क पे, अपना सीना ताने! भला ये कहां का ट्रैफिक सेंस। ।
हमारे शहर का प्रशासन और नगर निगम वाहनों की संख्या और यातायात की असुविधा भले ही कम नहीं कर सकता हो, लेकिन शहर के पूरे मोहल्लों और कॉलोनियों में उसने सुंदर फुटपाथ का जाल जरूर बिछा दिया है। शहर की प्रमुख कॉलोनियों में लोगों के घरों के बाहर सड़क के साथ आप एक फुटपाथ भी देख सकते हैं। लेकिन यह फुटपाथ भी चलने के लिए नहीं बना। यहां रहवासी अपनी कारें पार्क करने लगे हैं। अपने ही घर के सामने फुटपाथ पर अपनी कार। इसे ही तो कहते हैं अपनी सरकार।
बड़ा सपना होता था कभी अपना घर बनाने का। एक बंगला बने न्यारा। बंगले के साथ कार का भी सपना जुड़ा रहता था। कार के लिए बाकायदा गैरेज बनाया जाता था, ताकि हर मौसम में उनकी कार सुरक्षित रहे। तब शहर में इतनी खुली ज़मीन आसानी से उपलब्ध हो जाती थी। आज भी कुछ पुराने घरों में कार के दर्शन गैरेज में किए जा सकते हैं। ।
समय का फेर देखिए, जगह कम होती गई, मकान छोटे होते चले गए, दोपहिया और चौपहिया वाहनों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही चली गई और एक स्थिति ऐसी आ गई कि शहर में धड़ाधड़ ऑटो गैरेज खुलने लगे। जो कल के कार सेंटर थे, वे सर्विस सेंटर कहलाने लगे। आजकल कार भी सर्विस पर जाती है, जब वह घर में नहीं होती।
आज का फुटपाथ, चलने के लिए नहीं बना। कर्जा करके बड़ी मुश्किल से घर बनाया, फर्नीचर खरीदा, कर्जे पर ही कार खरीदी, कार हमें जान से प्यारी है, पूरे घर की सवारी है, लेकिन उसके लिए अलग से घर बनाने की हमारी हैसियत नहीं। टाउनशिप हो या कोई पॉश कॉलोनी, कार तो घर के बाहर फुटपाथ पर ही पार्क की हुई मिलेगी। अगर आज घर में गैरेज जितनी जगह अतिरिक्त होती तो क्या हम वह किराए से नहीं उठा देते। एटीएम वाले तो दो गज जमीन से ही काम चला लेते हैं। ।
आजकल हमने भी एक ऐसा चश्मा बना लिया है, जिससे हमें कहीं गरीबी नजर नहीं आती। हर घर के बाहर एक कार खड़ी है, फुटपाथ कहीं चलने लायक नहीं। बाजारों में तो आप फुटपाथ छोड़िए, सड़कों पर भी नहीं चल सकते। जो आदमी इतना व्यस्त है, क्या वह समस्याग्रस्त भी हो सकता है। उसे तो बस बहना है, विकास के बहाव में, विज्ञापनों का बाजारवाद आपको महंगाई से भी बचाए रखता है। एमेजॉन, फ्लिपकार्ट और बिग बास्केट चौबीस घण्टे आपकी सेवा में हाजिर है। ऑनलाइन पेमेंट में पैसा कहां जेब से जाता है। वैसे भी ईश्वर ने बहुत दिया है।
रहवासी एरिए में, घर के बाहर बने फुटपाथ अथवा सड़क पर कार रखना कोई अतिक्रमण नहीं, कानूनी जुर्म नहीं, आम नागरिक की मजबूरी है। रात दिन आपकी कार आपकी निगरानी में रहे, सुरक्षित रहे, हम तो यही प्रार्थना कर सकते हैं। बस अन्य लोगों की सुविधा का भी खयाल रखें, तो सोने में सुहागा।
पार्किंग की समस्या का कोई विकल्प हो या ना हो, दूसरी कार का संकल्प लोग फिर भी ले ही लेते हैं। ।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित “गायत्री मंत्र…” का हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कविता – “गायत्री मंत्र …” हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
कितीतरी लेखक दारिद्र्यातून जात असताना, लोकांची टीका सहन करत, करत एक दर्जेदार सिद्ध लेखक म्हणून नावारूपाला येतात. अशा अनेकांपैकी जॉर्ज ऑरवेल याचे नाव अग्रक्रमाने घ्यावे लागेल.
जॉर्ज ऑरवेलचे मूळ नाव एरिक आर्थर ब्लेयर. 25 जून 1903 मध्ये, भारतात बंगालमध्ये मोतीहरी येथे त्याचा जन्म झाला. त्याचे वडील सिविल सर्विसेस मध्ये नोकरी करीत होते .1907 साली त्यांचे कुटुंब इंग्लंडला गेले. 1911 मध्ये ससेक्स मधील बोर्डिंग स्कूलमध्ये आणि नंतर इंग्लंडमध्ये इटन येथे ( 1917 ते 21) स्कॉलरशिप मिळवून शिक्षण घेतले तेथे त्यांना अल्डस हक्सले हे शिक्षक लाभले. आणि तेथूनच त्यांचे लेखनाला सुरुवात झाली कॉलेजमध्ये असतानाच त्यांनी वेगवेगळ्या मॅगझिन्स मध्ये लेखन करायला सुरुवात केली त्यांची पहिली कविता “awake young men of england “. हे लिहिली तेव्हा तो फक्त अकरा वर्षाचा होता. 1922 मध्ये बर्मा मध्ये भारतीय इंपिरियल पोलीस दलात डिस्ट्रिक्ट सुपरीटेंडंट म्हणून पाच वर्षे नोकरी केली. त्या काळात त्याला 650 पाउंड इतका चांगला पगार होता. पण त्याचे मन नोकरीत रमेना. वडिलांचा विरोध पत्करूनही त्याने ती नोकरी सोडली .आणि लेखक होण्याचा निर्णय घेतला. त्यानंतर दोन वर्षे त्याला खूपच दारिद्र्यावस्थेत काढावी लागली. इंग्लंडला आल्यानंतर त्याने प्रसिद्ध लेखकांचा अभ्यास केला. आणि आपले लेखन विकसित करायला सुरुवात केली. उदारमतवादी आणि समाजवादी विचारांच्या संपर्कात तो आला. आणि तेथेच त्याच्या राजनैतिक विचारांना सुरुवात झाली. इंग्लंडला परत येण्यापूर्वी तो पॅरिस मध्ये दोन वर्षे राहिला होता. 1933 मध्ये त्याचे पहिले पुस्तक ” डाऊन अँड आऊट इन पॅरिस अंड लंडन ” मध्ये त्याने आपले अनुभव लिहिले. आणि या प्रकाशानापूर्वीच त्याने आपल्या नावात बदल करून, जॉर्ज ऑरवेल या टोपण नावाने लेखन करायला सुरुवात केली. इंग्लंडला परत येण्यापूर्वी तो पॅरिसमध्ये दोन वर्षे राहिला होता .तेथे खाजगी शिक्षक, शाळा शिक्षक, पुस्तकाच्या दुकानात काम करत होता .1936 मध्ये त्याला लंके शायर आणि आणि याँर्कशायर मधील बेरोजगारी असलेल्या भागांना भेट देण्यासाठी नियुक्त केले. आणि तेथील गरीबीवर त्यांनी पुस्तक लिहिले.( The road to vighan pear 1937.) 1936 साली तो रिपब्लिकन पक्षासाठी लढण्यासाठी स्पेनला गेला . तेथे तो जखमी झाला .नंतर तो पूर्ण तंदुरुस्त झालाच नाही . दुसऱ्या महायुद्धा दरम्यान त्याने होमगार्ड मध्येही काम केले .1941 ते 43 मध्ये बी. बी .सी .साठी प्रचाराचे काम केले. पुढे 1943 साली “ट्रिब्यून”, या साप्ताहिकाचे संपादक झाले .रशियन राज्यक्रांतीवरील उपरोध प्रचूर रूपक, अनेक टीकात्मक लेखसंग्रह , स्पेन मधील यादवी युद्धाचे अनुभव आणि कादंबऱ्या असे बरेच लिखाण झाले. त्याने लिखाणात कल्पनाधारीत, तत्वनिष्ठ पत्रकारिता, समीक्षा, काव्य असे अनेक लेखन प्रकार हाताळले.
17 ऑगस्ट 1945 साली , इंग्लंडमध्ये आणि एक वर्षानंतर अमेरिकेत , त्याची ” ॲनिमल फार्म ” ही (रुपक )कादंबरी प्रकाशित झाली. 1949 मधे एक दीड वर्ष खर्च करून “1984” हे कादंबरी प्रकाशित झाली .या दोन कादंबऱ्यांनी सर्वत्र खळबळ उडवून दिली. जर्मनीचा पाडाव झाला .आणि स्टॅलिनने रशियाला वाचवले. त्याविरुद्ध लिहिण्याची कोणाची ताकद नव्हती .सरकार आणि व्यवस्थेचा भीतीचा पगडा, विचारांची घुसमट त्याने प्रकट केली आहे. ” ॲनिमल फार्म ” हे एक भाष्य आहे. संपूर्ण कादंबरी रशियन राज्यक्रांतीचे हुबेहूब रूपक आहे. झारशाही विरुद्ध होणारे रशियन बंड उत्तमरीत्या साकार केले आहे .त्याचा एकाधिकारशाहीला विरोध होता. आणि सामाजिक विषमतेबद्दल प्रचंड चिड होती .लोकशाहीशी संलग्न असलेल्या समाजवादावर त्याचा विश्वास होता. एका शेतातली प्राण्यांची राजनीतिक कथा ,पण स्टॅलिनच्या राज्यक्रांती, जनतेचा विश्वासघात ,स्वार्थीपणा यावर ही रूपकात्मक कादंबरी आहे . स्टॅलीनचा
तो टीकाकार होता. ब्रिटिश बुद्धिजीवींनी, स्टॅलीनचा उच्च आदर केलेला त्याला पटला नव्हता . त्याचे लेखन तत्त्वज्ञान हे सत्या.चा शोध घेण्याची संबंधित होते. मार्क्सवाद्यांना त्याचे लेखन पटले नाही .या कादंबरीवर त्यांनी आक्रमण केले. आणि अनेक दिवस या कादंबरीवर बंदी आली. दोन कादंबऱ्यांनी त्याला जागतिक कीर्ती मिळवून दिली. 1995 मध्ये त्याला w. H. Smith अँड penguin बुक्स ऑफ द सेंचुरी पुरस्कार मिळाला.1950 पर्यंत इंग्लंड मध्ये 25 हजार 500 आणि अमेरिकेत पाच लाख 90 हजार प्रति होत्या. या आकडेवारीवरून या पुस्तकाचे यश लक्षात येते. टाईम मॅगेझिनने इंग्रजीतील सर्वोत्कृष्ट कादंबऱ्यांपैकी एक म्हणून ती निवडली. सर्व युरोपियन भाषा, पर्शियन, आइसलैंडिक, तेलगू भाषांमध्ये या कादंबरीचे भाषांतर झाले आहे. ” ॲनिमल फार्म ” आणि ” 1984 ” या दोन प्रसिद्ध साहित्य कृतीनी विसाव्या शतकात खपाचा उच्चांक गाठला होता. राजकीय आणि सामाजिक व्यवस्थेवरील अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली. जॉर्ज ऑरवेलला केवळ 46 वर्षांचे इतके अल्प आयुष्य लाभले . 21 जानेवारी 1950 मध्ये लंडनमध्ये त्याचे निधन झाले.
“गाडी का थांबवलीस रतन?” लॅपटॉपमध्ये डोकं खुपसून बसलेल्या डॉ. कोरडेनी गाडी थांबवल्याचं जाणवलं तस ड्रायव्हरकडे बघण्यासाठी मान वर करत आपल्याच तालात विचारलं. पण वर बघितल्यावर त्यांच्या लक्षात आलं की ड्रायव्हर जागेवर नाहीये. आणि गाडीच्या आजूबाजूला प्रचंड गर्दी आहे.
त्यांनी गाडीतून बाहेर पडण्याचा प्रयत्न केला तेंव्हा त्यांच्या लक्षात आलं की ते कधीचेच गाडीतून बाहेर पडले आहेत. आणि फक्त गाडीतूनच नव्हे तर त्यांच्या शरीरातूनही बाहेर पडले आहेत.
स्वतःला बसलेल्या धक्क्यातून सावरत त्यांनी आजूबाजूला बघितलं तर आजूबाजूला असलेल्या गर्दीकडे त्यांचं लक्ष गेलं. वारीसाठी जाणाऱ्या एका दिंडीतले वारकरी होते ते सगळे गर्दीतले लोक. जसे ते कोरडेंसाठी पूर्णपणे अनोळखी होते तसेच कोरडेही त्यांच्यासाठी पूर्णपणे अनोळखी होते. पण आता या क्षणी मात्र ते सगळेजण कोरडेना आणि त्यांच्या ड्रायव्हरला वाचवण्यासाठी धडपड करत होते. ड्रायव्हर कसा माहीत नाही पण गाडीच्या बाहेर फेकला गेला आणि वाचला होता. पण डॉक्टर मात्र गाडीतच होते.
काही वेळातच तिथे ऍम्ब्युलन्स आली. एम्ब्युलन्समधून उतरलेल्या कर्मचाऱ्यांनी दोघांनाही स्ट्रेचरवर घेत एम्ब्युलन्समध्ये ठेवलं. शरीर एम्ब्युलन्समध्ये ठेवताच कोरडेही तिकडे ओढले गेले, कदाचित अजून काही बंधन शिल्लक असावे.
त्या दोघांकडे त्यांचा जीव वाचावा ह्या आशेने बघणाऱ्या वारकऱ्यांच्याकडे जाता जाता कोरडेंच लक्ष गेलं. आणि त्यांना तो प्रसंग आठवला…..
‘भेटीचीया ओढ लागलीसे डोळा,
वाट ही विरळा दिसे मजला,
लाखो राउळाशी टेकवीला माथा,
देव कुठे माझा शोधू आता,
कुणी पाहिला पाहिला पाहिला हो,
माझा देव कुणी पाहिला..
कुणी पाहिला पाहिला पाहिला हो,
माझा देव कुणी पाहिला..
सावळे विठाई, कान्हाई कृष्णाई
सावळे विठाई, कान्हाई कृष्णाई’
गाण्याचे बोल आणि तो आवाज कोरडेंच्या मनात फेर धरून नाचू लागला. अन् ते सगळे चेहरे त्यांना आठवले.
डॉक्टर कोरडे प्रचंड सुदैवी होते. त्यांच्या घरात एकाच वेळी चार पिढ्या गुण्यागोविंदाने नांदत होत्या. डॉक्टर सोडले तर सगळेजण रूढार्थाने देवभोळे असे होते. डॉक्टरांना मात्र ते सगळे अजिबात आवडत नव्हते.
आताही त्यांना तो प्रसंग आठवला जेव्हा त्यांनी घरातल्या सगळ्यांना गाण्याच्या बोलावर हातात टाळ घेऊन वारकरी वेशात नाचणाऱ्या नातवाकडे कौतुकाने बघताना बघितले होते. कोरडेंचे आईवडील, बायको आणि डॉक्टर मुलगा, सूनही नातवाला कौतुकाने बघत होते. हे बघून त्यांचं डोकं फिरलं होतं. सगळ्यांवर चिडत त्यांनी नातवाच्या हातात असलेली टाळ फेकून दिली होती. कुठल्याही देवावर त्यांना इतका राग का आहे हे खुद्द त्यांनाही कळत नव्हतं.
डॉक्टर रूढार्थाने जरी स्वतःला नास्तिक म्हणवून घेत असले तरी त्यांची त्यांच्या कामावर प्रचंड निष्ठा होती. अडल्या नडल्या लोकांना मदत करण्यासाठी त्यांना वेळ काळ कशाचेही भान उरत नसे. आणि त्यांच्या ह्याच गुणाबद्दल घरात आणि आसपासही सगळ्यांना आदर होता. अन् त्यामुळेच त्यांचे आईवडीलही त्यांचा देवावरचा राग सहन करत असत. कारण त्यांना त्या रागाचं मूळ कळलं होतं.
एखाद्या पेशंटला इच्छा असूनही वाचवता आलं नाही की डॉक्टर हतबल होऊन चिडत असत. प्रॅक्टीसला इतकी वर्ष होऊनही अजूनही त्या गोष्टींचा त्यांच्या मनाला त्रास होत असे. सगळ्यात आधी उपचारासाठी दवाखान्यात आणण्याऐवजी देवळात, मशिदीत किंवा इतर कुठेतरी खेटे घालत बसलेल्या नातेवाईकांमुळे पेशंटला योग्य वेळी उपचार न मिळून तो दगावला की डॉक्टरांचा राग देवावर निघत असे. ते म्हणत असत की ‘तुमचा देव ह्या लोकांना ‘दवाखान्यात जा’ अशी बुद्धी का नाही देत? मग लोक पेशंटला काही झालं की डॉक्टर वर का चिडतात? देवावर का नाही चिडत?
आताही हा प्रसंग आठवताना त्यांना राग येत होता. मनातून वेगवेगळ्या गोष्टी समोर येत होत्या. पण अचानकच त्यांना आपल्या जवळ कुणीतरी उभं असल्याची जाणीव झाली. त्यांनी मान वळवून बघितलं तर एक व्यक्ती त्यांच्याकडे प्रेमळ हसत बघत होती.
आतापर्यंत कोरडेंना आपल्या अवस्थेची जाणीव झाली होती. त्यामुळे ही व्यक्ती आपल्याला कशी काय बघू शकतेय ह्याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं. त्यांनी प्रश्नार्थक चेहऱ्याने त्या व्यक्तीकडे बघितलं.
त्या व्यक्तीने हसून अगदी मित्रत्वाने बोलायला सुरुवात केली. “काय मग डॉक्टर, कसं वाटतंय? खूप सगळे प्रश्न आहेत न मनात? कळत नाहीये हे सगळं असं अचानक कसं घडलं? मी कोण आहे? तुम्हाला कसा काय बघू शकतो? वगैरे वगैरे… अहं…. असं अजिबात समजू नका की मी तुमची खिल्ली उडवतोय. मी तर तुमच्या मदतीसाठी इथे आलो आहे. तसा मी सगळ्यांनाच मदत करण्यासाठी येतो पण तुम्ही जरा जास्तच स्पेशल आहात.”
“कसं काय?”
“अहो तुम्ही प्रत्यक्ष देव आहात कित्येक लोकांसाठी. तुम्हाला कितीही चीड आली तरी तुम्ही स्वतः आमचं प्रतिरूप आहात पृथ्वीवर. हो बरोबर ऐकलत… मीच तो, ज्याचा तुम्हाला खूप राग येतो. पण मला तुमचा राग, त्यामागची भावना कळते, जशी ती तुमच्या आईवडिलांना पण कळली आहे. पण कसं आहे न डॉक्टर प्रत्येक माणूस हा त्याचं नशीब घेऊन जन्माला येतो. ते कसं घडवायचं हे त्यांचा हातात असतं. आमच्यासारखे तुम्हीही फक्त निमित्तमात्र ठरता.”
डॉक्टर मन लावून ऐकत होते.
“आता त्या दिवशीचच उदाहरण घ्या. त्या दिवशी तुमचे दोन पेशंट दगावले. पहिला पेशंट बऱ्याच उंचावरून पडून गेला आणि दुसरा सुद्धा एक्सिडेंट होता. पण त्या मागची गोष्ट तुम्हाला माहित नव्हती डॉक्टर.
पहिल्या पेशंटने आईवडिलांना, बायकोला जीव नकोसा केला होता. तो गेल्यावर तुम्हाला जे वाटलं ना की ह्याचं घर उघड्यावर पडेल, तसं काही होणार नव्हतं. कारण त्याच्यामागे उरलेले ते तिघे आणि अजून दोन निष्पाप जीव रोज अक्षरशः जीव मुठीत धरून जगत होते. त्या जीवांनी भलेही कधीच त्याच्या मृत्यूची कामना केली नसेल पण त्या जीवांना होणारा त्रास नियतीला दिसत होता. त्यामुळेच त्या दिवशी तो दारू पिऊन इकडे तिकडे भरकटत असताना ही गोष्ट घडली आणि तो मृत्यूच्या दारात पोहोचला. पाच जीवांच्या पुढे त्याला मिळालेली शिक्षा तशी कमीच आहे. पटलं नं ?”
डॉक्टरांनी होकारार्थी मान डोलावली. “आणि दुसरा? “
” त्याने स्वतःच्या आनंदासाठी बऱ्याच मुलींना फसवले होते. त्यापैकी दोघींनी ट्रकसमोर येऊन जीव दिला होता. त्या बिचाऱ्या अकाली गेल्या. आणि तुम्हाला वाटलं की त्याला नुकतीच नोकरी लागली होती, लग्न ठरलं होतं. पण डॉक्टर त्या मुलीचाही जीव वाचलाच. कारण ह्या मुलाच्या आईवडिलांना फक्त तो मुलगा आहे म्हणून त्याचे सगळे गुन्हे माफ करायची सवयच लागली होती. त्यांनाही शिक्षा होणं गरजेचं होतं.
असे कित्येक आईवडील आहेत जे आपल्या अपत्याची मग तो मुलगा असो वा मुलगी, चूक लपवतात, त्यांना पाठीशी घालतात. पण त्यामुळे दुसऱ्या कुणाला त्रास होतो आहे हे त्यांना समजूनही ते दुर्लक्ष करतात. एखाद्या जीवाला हेतुपुरस्सर त्रास देणे मग तो मानसिक असो किंवा शारीरिक हे सगळ्यात मोठं पापच आहे ना डॉक्टर?”
इतका वेळ शांतपणे ऐकणारे डॉक्टर बोलू लागले, ” बरोबर आहे तुमचं… मला फक्त नाण्याची एकच बाजू माहीत असायची त्यामुळे मी कित्येकदा तुमच्यावर आगपाखड केली. पण आज कळतंय की जाणारा जाण्यामागे बरीच कारणं असू शकतात. मी चुकलो, रागाच्या भरात खूपच चुकीचा वागलो. आईवडिलांना देवाचं करताना त्रास दिला. तुम्ही मला हवी ती शिक्षा देऊ शकता.” कोरडेंचे डोळे पाणावले होते.
” हं, शिक्षा तर होणार आहेच तुम्हाला.”, ते हसत हसत म्हणाले. तस कोरडेंना आश्चर्य वाटलं.
” तुम्हाला परत पृथ्वीवर जायचं आहे, अजून बरंच काम शिल्लक आहे. आमची एक छोटी मैत्रीण तुम्ही वाचावं म्हणून आम्हाला साकडं घालत आहे.”, असं म्हणत त्यांनी कोरडेंना एक दृश्य दाखवलं. त्या दृश्यातले चेहरे ओळखू येताच कोरडेना आठवलं की त्या मुलीच्या आईला त्यांच्याकडे आणलं होतं आणि तिचं दोन महिन्यांनी ऑपरेशन ठरलं होतं. ती मुलगी देवांना पाण्यात ठेवून ‘ डॉक्टर वाचूदे म्हणजे ते माझ्या आईला वाचवतील ‘ असं सांगत होती. ते बघून कोरडेंना जाणीव झाली की घरातील लोकांपेक्षा जास्त बाहेर लोकांना त्यांची किती गरज आहे.
आणि ते आठवताच कोरडेना घरच्यांची आठवण झाली.
“आहेत आहेत. ते सगळे इथेच ऑपरेशन थिएटरच्या बाहेर आहेत. पण एक वाईट बातमी आहे बुवा तुमच्यासाठी… तुम्हाला बरं वाटलं की बरेच नवस फेडावे लागणार आहेत.” असं म्हणत ते हसू लागले.
“आता तर माझी कुठलेही नवस फेडायची तयारी आहे देवा, तुम्ही फक्त माझं काम माझ्याकडून नीट करून घ्या, एवढं एकच मागणं. आणि माझे पाय जमिनीवर राहूदे.” डॉक्टर म्हणाले.
“तथास्तु” असं कानावर पडत असतांनाच कोरडेंना वेगाने खेचलं गेल्याची जाणीव झाली. मोठयाने श्वास घेत त्यांनी डोळे उघडले तसे आजूबाजूला असलेल्या चेहऱ्यावर उमटलेले हसू बघून त्याना आपण परत आपल्या शरीरात आलो आहोत ह्याची जाणीव झाली.
नर्सने बाहेर जाऊन सांगितलं तसं त्यांच्या कानावर आवाज आला, “देवा, पांडुरंगा, वाचवलंस रे बाबा.”, ते ऐकून डॉक्टर कोपऱ्यात उभं राहून त्यांच्याकडे बघत डोळे मिचकवणाऱ्या त्या व्यक्तीला बघून हसले. सगळे जण त्या दिशेने बघू लागले तर तिथे भिंतीवर असलेल्या फोटोशिवाय काहीच नव्हतं. पण तो तिथेच होता सदैव. मनापासून आस्तिक असलेल्या नास्तिकासाठी.
मंडळी पूजा, कर्मकांड करणारी प्रत्येक व्यक्ती मनापासून ते करत असतेच असे नाही. तसेच आयुष्यभर मंदिराची पायरीही न चढलेली व्यक्ती नास्तिक असते असं ही नाही. माणसाचं कर्म आणि त्यांचे परिणाम, माणसाचं भविष्य घडवत असतात. मग तुम्ही देवावर विश्वास ठेवा किंवा नका ठेऊ. मनाने, विचाराने आणि कर्माने तुम्ही काय आहात हे तुम्हाला माहीत असतं. आणि त्यालाही. बाकी कर्मसिद्धांत स्पष्ट करतोच. Always and forever.
लेखिका : सुश्री गौरी हर्षल कुलकर्णी
संग्राहक : श्री मेघ:श्याम सोनावणे.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ जमणार का तुम्हाला असा चातुर्मास? ☆ सुश्री सुनिता जोशी ☆
एक सहज सुचलेली संकल्पना. १५ दिवसात चातुर्मास चालू होत आहे. आणि आजच दैनिक सकाळ मध्ये वाचनात आले की चातुर्मासातील आरोग्य जपण्यासाठी दिलेला एक उपाय. आणि तो म्हणजे मौन पाळणे किंवा कमी बोलणे. पावसाळ्यात अग्नी मंद झालेला असतो आणि मुख्य म्हणजे चैतन्य मंदावले की ताकद कमी झालेली असते. हा खरा आरोग्याचा नियम आहे. म्हणजे आजकालच्या काळात जेवढे कामासाठी आवश्यक आहे असे बोलणे. तर मुख्य मुद्दा हा आहे की मौन पाळणे. या गोष्टीची सगळ्यात जास्त गरज आहे ती म्हणजे सध्याच्या राजकारणातील वायफळ बडबड करणा-या नेत्यांना. खास करून महाराष्ट्रातील राजकारणी लोकांना.
खरं बघायला गेलं तर आपण निवडून दिलेला नेता किंवा विरोधी नेता हा त्या त्या भागातील लोकांचे प्रश्न, तेथील समस्या, त्या भागातील विकास या सगळ्याशी निगडीत असला पाहिजे. दिवस रात्र त्याच्या मनात माझ्या जनतेने माझ्यावर विश्वास ठेवून दिलेल्या मताची किंमत हवी, जाणीव हवी, मदतीची म्हणजे योग्य सहकार्याची हमी असावी. परंतु कोणताही नेत्याला सध्या याचे काहीही पडलेले नाही. फक्त आणि फक्त तोंड उघडायचे आणि तोंडाला येईल ते बोलायचे. म्हणजे आपण काय बोलतो आहोत याचा विचारच नाही. खूप काही अभ्यास करता येण्याजोगे, काम करता येण्याजोग्या गोष्टी राजकारणी लोकांना करता येण्यासारख्या आहेत. पण त्या सोडून आपण प्रश्नाला उत्तर देत आपली बाजू मांडायची आणि पुन्हा दुस-याला प्रश्न विचारायचा. पुन्हा त्याने त्याचे उत्तर द्यायचे आणि परत प्रश्न. अरे काय चालू आहे हे?
तुम्ही फक्त जनतेला बांधील असले पाहिजे उत्तरे द्यायला आणि जनतेनेही त्यांना तसेच प्रश्न विचारले पाहिजेत. पण असो. सध्या आपला मुद्दा आहे तो मौनाचा. खरच आजचे गलिच्छ राजकारण टि.व्ही. चालू केला की– याने त्याला असे म्हंटले, त्याने त्याला असे म्हंटले हे ऐकवत नाही, पहावत नाही. मिडियालाही हेच हवे आहे. दिवसभर ब्रेकींग न्यूज म्हणून तेच दाखवत बसायचे आणि गैरसमज वाढवायचे. कोणताच पाचपोच उरलेला नाही. कोणतीच अभ्यासपूर्ण कृती नाही. विकासाची कोणतीच दिशा नाही आणि जनतेचे भले कुणालाच पचत नाही. अशी सगळी अवस्था झाली आहे. काय आदर्श ठेवणार आहोत आपण पुढच्या पिढीसाठी याची भिती वाटते आहे.
म्हणून माझी विठुरायाच्या चरणी आषाढी एकादशी निमित्त एकच प्रार्थना आहे की या बडबड करणा-या राजकारण्यांना निदान चातुर्मासातील चार महिने तरी मौन पाळायची बुध्दी दे. त्यामुळे मिडीयावालेही मौन पाळतील आणि आमच्यासारख्या आशेने त्यांच्या कडे पहाणा-या जनतेला थोडे दिवस तरी विकासाचे, सुखाचे येऊ देत.