English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 197 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 197 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 197) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 197 ?

☆☆☆☆☆

मुख़्तसर सा गुरूर भी

ज़रूरी है जीने के लिए

ज़्यादा  झुक  के मिलो

तो  दुनिया पीठ को ही

पायदान  बना लेती है…

☆☆

Some arrogance, too,  is

Necessary to live, if you

bend too much to meet

Then  the  world makes

your back a footmat only…

☆☆☆☆☆

माना  तेरी  उलझन हूँ  मैं

पर तेरी सुलझन भी हूँ  मैं…

थोड़ा दीवाना ही सही मैं

मगर  बड़ा दिलदार हूँ  मैं…

☆☆

Agreed I’m your riddle only…

But I’m your solution too…

Though I am  bit crazy

But a large-hearted one!

☆☆☆☆☆

क्या करोगे अब तुम

मेरे पास आकर भी..

खो दिया है तुमने मुझे

बार-बार आजमा कर…

☆☆

What will you do now

By coming close to me…

You’ve lost me for good

By trying again and again

☆☆☆☆☆

हर  वक़्त  फ़िजाओं  में,

महसूस करोगे तुम हमको…

हम दोस्ती की वो ख़ुशबू हैं,

जो महकते रहेंगे  उम्र भर…

☆☆

At all times in environment

You  will  always  feel  me

I’m fragrance of friendship

That will last the whole life

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 55 – “Paradise…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 55 ?

☆ – “Paradise ☆ Shri Ashish Mulay 

☆ 

Countless have perished

in search of a paradise

be not wasted

oh my dear wise!

 

There is no paradise

in deep so skies

it dwells not in space

but hides in the time

 

Child sees his mother

and mother her child

in their eyes

rainbows of heaven shine

 

Grown ups inhale

the exhale of father

blows in that moment

heavenly breeze of time

 

Only in his eyes,

ordinary girl is a nymph

what is it in that moment

if nothing but a paradise

 

Held by the moment

Doors of the Paradise

Time is tamed by Love

knows the wise!

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 429 ⇒ घराना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घराना।)

?अभी अभी # 429 ⇒ घराना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरा नाम राजू, घराना अनाम,

बहती है गंगा, जहां मेरा धाम …

लेकिन सभी जानते हैं, कपूर खानदान के इस चिराग का भी एक सेमी क्लासिकल फिल्म संगीत का घराना था, जिसमें शंकर जयकिशन, शैलेंद्र हसरत और मुकेश ने मिलकर जो गीतों की बरसात शुरू की थी, उसने मेरा नाम जोकर तक थकने का नाम नहीं लिया था। और जहां तक नाम का सवाल है, तो पृथ्वी थिएटर से शुरू इस कपूर परिवार के अभिनय का करिश्मा आज भी कायम है।

घराना गर्व और गौरव का विषय है, अच्छे घराने की बहू के लिए ही गृह लक्ष्मी जैसे विशेषणों का प्रयोग किया जाता था। राजघरानों में आज हम भले ही केवल होलकर और सिंधिया राजघरानों तक ही सिमटकर रह गए हों, लेकिन शास्त्रीय संगीत के घरानों की बात तो कुछ और ही है।।

नृत्य और संगीत हमें स्वर्ग की नहीं, गंधर्व लोक की देन हैं, सवाई गंधर्व और कुमार गंधर्व इनके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आप मानें या ना मानें, संगीत के घरानों और राजघरानों का आपसी संबंध बहुत पुराना है। आइए कुछ संगीत घरानों की चर्चा करें।

भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य की वह परंपरा है जो एक ही श्रेणी की कला को कुछ विशेषताओं के कारण दो या अनेक उप श्रेणियों में बाँटती है।।

घराना (परिवार, कुटुंब), हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विशिष्ट शैली है, क्योंकि हिंदुस्तानी संगीत बहुत विशाल भौगोलिक क्षेत्र में विस्तृत है, कालांतर में इसमें अनेक भाषाई तथा शैलीगत बदलाव आए हैं। घराना शब्द हिंदी शब्द ‘घर’ से आया है जिसका अर्थ है ‘घर’। यह आमतौर पर उस स्थान को संदर्भित करता है जहां संगीत विचारधारा की उत्पत्ति हुई; उदाहरण के लिए, ख्याल गायन के लिए प्रसिद्ध कुछ घराने हैं: दिल्ली, आगरा, ग्वालियर, इंदौर, अतरौली-जयपुर, किराना और पटियाला।

इसके अलावा शास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य परंपरा में प्रत्येक गुरु व उस्ताद अपने हाव-भाव अपने शिष्यों की जमात को देता जाता है। घराना किसी क्षेत्र विशेष का प्रतीक होने के अलावा, व्यक्तिगत आदतों की पहचान बन गया है, यह परंपरा ज़्यादातर संगीत शिक्षा के पारंपरिक तरीके तथा संचार सुविधाओं के अभाव के कारण फली-फूली, क्योंकि इन परिस्थितियों में शिष्यों की पहुँच संगीत की अन्य शैलियों तक बन नहीं पाती थी।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन के लिये प्रसिद्ध घरानों में से निम्न घराने शामिल होते हैं: आगरा, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, किराना, और पटियाला।

सबसे पुराना ग्वालियर घराना है। तानसेन भी ग्वालियर से ही आए थे। हस्सू हद्दू खाँ के दादा नत्थन पीरबख्श को इस घराने का जन्मदाता कहा जाता है। दिल्ली के राजा ने इनको अपने पास बुला लिया था।।

जरा इन गायकों और उनके घरानों पर भी गौर कर लिया जाए ;

१. मेवाती घराना पंडित जसराज

२.पटियाला घराना

उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, बेगम अख्तर, निर्मला देवी और परवीन सुल्ताना

३. जयपुर अंतरौली घराना ;

मल्लिकार्जुन मंसूर

किशोरी अमोनकर और

अश्विनी भिड़े।

४. भीमसेन जोशी किराना घराना,

५. आगरा घराना जितेंद्र अभिषेकी

इन घरानों की शुद्धता, मर्यादा और अनुशासन का पालन शिष्यों को भी करना पड़ता है। गुरु शिष्य परम्परा यूं ही फलीभूत नहीं होती। ना मिलावट ना खोट यही शास्त्रीय संगीत की पहचान है। एक भी सुर गलत नहीं।

धारवाड़, कर्नाटक से आए, घराने की बंदिश से अपने को मुक्त रखते हुए, लोक संगीत को शास्त्रीय संगीत की ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाले कुमार गंधर्व स्वयं अपने आपमें एक घराना हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “ख़बरें” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “ख़बरें“.)

☆ लघुकथा – ख़बरें ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

– बिस्कुट लेने गई लड़की का अपहरण। अबोध बच्ची के साथ बलात्कार।

– किसी लड़की के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार।

रोज-रोज अखबारों में ऐसी अनेकों ख़बरें पढ़ने मिल रही है पूरा माहौल गरमा गया है।

लोग कह रहे थे – यह क्या हो रहा है। सरकार क्या कर रही है आखिर?

बीच-बीच में कहीं से क्या यह खबर नहीं आना चाहिए – हम क्या कर रहे हैं? हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या? और क्या हम सब सबसे पहले इन खबरों को चटकारे लेकर नहीं पढ़ रहे हैं ?

यह प्रश्न चिन्ह हमारे सामने आकर क्यों नहीं खड़ा होता है आखिर आखिर!

* * * *

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 197 ☆ गीत – जितना दिखता है आँखों को… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – जितना दिखता है आँखों को…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 197 ☆

☆ गीत – जितना दिखता है आँखों को… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

ऐसा सोच न नयन मूँदना

खुली आँख सपने देखो

खुद को देखो, कौन कहाँ क्या

करता वह सब कम लेखो

कदम न रोको

लिखो, ठिठककर

सोचो, क्या मन में टिकता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

नहीं चिकित्सक ने बोला है

घिसना कलम जरूरी है

और न यह कानून बना है

लिखना कब मजबूरी है?

निज मन भाया

तभी कर रहीं

सोचो क्या मन को रुचता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

मन खुश है तो जग खुश मानो

अपना सत्य आप पहचानो

व्यर्थ न अपना मन भटकाओ

अनहद नाद झूमकर गाओ

झूठ सदा

बिकता बजार में

सत्य कभी देखा बिकता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०१९ 

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आषाढी एकादशीचे दंडवत ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

आषाढी एकादशीचे दंडवत…  श्री सुहास सोहोनी ☆

अक्कड बक्कड, सख्खे भाऊ

दोघांनी ठरवलं, फिरायला जाऊ

अक्कड म्हणाला, तू वाट दाखव

बक्कड म्हणाला, तू वाट दाखव

*

जायचं कुठे, ठरलंच नव्हतं

रस्ता चुकायचं, कारणच नव्हतं

चाल चाल, चालत राहिले

पाय थकले, मोडुन गेले

*

भरकटल्यावर, संवाद संपला

कारण नसता, विवाद झाला

अक्कड म्हणे, डावीकडची वाट

बक्कड म्हणे, उजवीकडचा घाट

*

चालतच राहिले, अक्कड बक्कड

वाटेत त्यांना भेटला कक्कड

डोळ्यात हुशारी, डोक्यात अक्कल

वागण्या-बोलण्यात एकदम फक्कड

*

थकलेल्या जीवांना आधी

कक्कड देई कांदा भाकर

सुकलेल्या कंठांना सुखवी

थंडगार पाणी लोटाभर

*

कक्कड झाला गुरू तयांचा

अक्कड बक्कड झाले चेले

कक्कड सांगे मेख आतली

अक्कड बक्कड बघत राहिले

*

प्रथम ओळखा स्वतः स्वतःला

जाणुन घ्या तुमच्या शक्तीला

अंतर्मन तू असशी अक्कड

बहिर्मनाचा धनि तू बक्कड

*

स्वभाव भारी चंचल तुमचे

एका जागी नाही बसणे

लगाम तोडून सैरावैरा

भरकटणे अन् धावत सुटणे

*

कुठे जायचे, ठाऊक नाही

वाट कोणती, माहित नाही

हात मिळवुनी जाल पुढे तर

दैवदत्त मग मिळेल काही

*

चालत गेले चालत गेले

रात्री सरल्या दिवस संपले

मैलोगणती अंतर सरले

दैवाने परि काहि न दिधले

*

निराश झाले भाऊ दोघे

तोच कानि ये ध्वनि लयकारी

मृदुंगासवे टाळ वाजला

विठुनामाची हो ललकारी

*

बघता बघता गुंतुनि गेले

नकळत दिंडित सामिल झाले

अबीर बुक्का कुणी लावला

उतावळी जाहली पाउले

*

मंदिरि येता मस्तक लवले

नेत्रामधुनी अश्रू झरले

एक विचारे, एक मनाने

दो बंधुंचे सख्य जाहले

*

दर्शन घेता मुखचंद्राचे

पारावार न आश्चर्यासी

अविश्वासे स्थितीहि अवघड

उभा विटेवरि साक्षात कक्कड !!

उभा विटेवरि साक्षात विठ्ठल !!!

☘️

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वागत… ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ स्वागत ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

स्वागत

वर्षाबाईचं लगीन ठरलं,

 वरूणराजाच्यासंग!

 सुपारी फुटली,आवतण देतो,

 मेघ,बिजलीच्या संग!

 गुलाल उधळीत,समीर जाहला

 पहा कसा बेधुंद!

 साथ देतसे धरती तयाला, दरवळतो मृदगंध!

 सुरू जाहली पहा तयारी,

 नटण्या-सजण्याची,

 आली टवटवी,अंगे धुवूनी,

   वेली-वृक्षांसी!

 अलंकार हिरे-मोत्यांचे,

 वैभव मिरविती,

 नाचत,डोलत आनंदाने,

 गुजगोष्टी करती.

 शालू पोपटी,नेसून सजली

  अवघी ही सृष्टी,

रूप खुलविते ,चोळीवरची,

 रंगबिरंगी नक्षी!

 किलबिल किलबिल करती पक्षी,वाजे शहनाई,

 तडतड तडतड घुमला ताशा ,

 घाई मुहुर्ताची!

 कडकड,चमचम,बिजली या, लवलवते  मंडपी !

 लगीन लागलं आकाशी अन्

  जलधारा अंगणी,

 स्वागत करूया,आनंदाने            

    झेलूया पावसाच्या सरी!

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ असताचे अस्तित्व… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सुश्री अपर्णा परांजपे

🌳 विविधा 🌳

✍️असताचे अस्तित्व… 💖🌹☆ सुश्री अपर्णा परांजपे

जाणीव नेणीव..

एक तरी ओवी अनुभवावी…

ये हृदयीचे ते हृदयी…

मोगरा फुलला..

गा रे कोकिळा गा….

अश्या असंख्य ओळी ह्या ओळी नसून आत्मस़ंतुष्टी आहे असे जाणवले व शाश्वत आनंदात परावर्तित झाल्या की आपल्याच ह्दयाचा सन्मान झाला असे समजण्यास हरकत नसावी.

पिंडी ते ब्रह्मांडी…या उक्तीप्रमाणे जे बाह्यजगत आहे तेच आत आहे निश्चितच.

व्यर्थ जमवाजमवी दु:खास आमंत्रण देते हे पक्के मनाला समजावयाचे.

“मन चिंती ते वैरि न चिंती” हे “सकारात्मक* घेतले तर मनासारखा सखा नाही. मनाने आपले ऐकावे, आपण मनाच्या आधीन होऊ नये. मग मनासारखा सखा नाही.

मन सत्याकडेच दृढ करावे‌ मग आपल्या अस्तित्वाची “जाणीव” होते, ज्यात हृदयास अग्रक्रम असतो.

“स्वत: च्या हृदयाची साक्ष व साक्षीदार आपण” वा वा वा काय हा दुर्मिळ योग.

नराचा नारायण तोच मी….

तोच मी….

🦋 सुरवंटाचे फुलपाखरात परिवर्तन 🦋

✨भगवंताने कशातच भेदभाव केला नाही. आपापल्या कर्मानुसार काही तरी सहन केल्याशिवाय काही प्राप्त होत नाही !! पूर्णत्व प्राप्त करण्यासाठी क्लेशदायक प्रक्रियेतून जावेच लागते याचे हे चालते बोलते उदाहरण आहे.

किती यातना होत असतील त्या जीवाला !! पण कोषातून बाहेर पडल्याशिवाय मोकळ्या  आसमंतात भरारी घेता येत नाही व सौदर्याची अफाट उधळणही शक्य नाही.

आपल्याच कोषात राहिलो तर त्याच कोषात मृत्यू अटळ आहे संधीचे सोने करण्यासाठी आपला तो कोष फाडूनच बाहेर पडावे लागते. हे सगळे निसर्ग आपल्याला शिकवत असतो. साप, गरूड अशी उदाहरणे आहेत ज्याकडे पाहून आपला comfort zone सोडणेच आवश्यक आहे हे कळते व मग तटातट पाश‌ तोडून स्वैर बागडण्यास ही सुवर्णसंधी आहे हे लक्षात येते.

या लहानशा जीवाला जर हे आपोआप जमते असे वाटते पण त्यासाठीही त्याचा पक्का निग्रह कारणीभूत ठरतो. त्यांना ती नैसर्गिक देणगी आहे त्याप्रमाणे ते वागतात. आपल्याला ही विशेष देणगी ईश्वराने प्रदान‌ केली आहे  फक्त त्याचा उपयोग करता यावा इतकेच!!

आपला वेगळा अनुभव आपल्याला मुक्तीचा मार्ग दाखवतो व इतरांना प्रेरणादायी ठरू शकतो.

सामान्य काम करत राहिलो तर असामान्य अद्भुत असे आपल्या जीवनात परिवर्तन होऊ शकणार नाही.

🥀…🌺🌺

कळ्यांची फुले होणे हेच झाडांचे ही ध्येय असते!!

क्लेशदायक प्रक्रिया पार करून अगदी तसेच परिवर्तन आपल्या जीवनात घडवून आणणे हेच आपले परमकर्तव्य आहे !!

मग सुरवंट फुलपाखरू झाल्यावरचा नितळ परमानंद शिल्लक राहतो..

भगवंत हृदयस्थ आहे 🙏

© सुश्री अपर्णा परांजपे

कात्रज, पुणे

मो. 9503045495

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन बोधकथा : प्रयत्नांती परमेश्वर… / करावे तसे भरावे… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? जीवनरंग ?

☆ दोन बोधकथा – प्रयत्नांती परमेश्वर… / करावे तसे भरावे… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

(१) प्रयत्नांती परमेश्वर…

अजय विजय दोघे मित्र. अभ्यासात खेळात अतिशय हुशार. दोघे मोठे झाल्यावर चांगले नाव कमावतील अशी सगळ्यांना खात्री. दहावी 90 टक्केपेक्षा जास्त मार्कांनी उत्तीर्ण झाले. दोघांनीही सायन्स निवडले.

परंतु 10 वी पर्यंत मराठी माध्यमातून शिकलेल्या दोघांनाही ते अवघड वाटू लागले. अजय प्रयत्नवादी असल्याने आजपर्यंतची घोकंपट्टी करून अभ्यास करायची पद्धत त्याने सोडून समजून घेऊन मग स्व अध्यनाची सवय लावून जिद्दीने आपल्या शिक्षण पूर्तीकडे पावले टाकू लागला.

विजय मात्र अवघड आहे… कसे जमणार… समजत नाहीये… अशी कारणे सांगून पहिल्या काही महिन्यातच त्याने शाखाच बदलून कॉमर्स निवडले आणि पुढील शिक्षण सुरु केले.तेथेही अकाउंट्स अवघड वाटल्याने क्लासला जाऊन तो बीकॉम झाला.

अजयही बी एस सी झाला. आवडू लागल्याने पुढे इंजिनिअर झाला. Ms करण्यासाठी परदेशात गेला.नोकरी करत शिक्षण  करत Ms पण पूर्ण केले आणि गलेलठ्ठ पगाराची चांगली नोकरी पण लागली.

विजय मात्र बीकॉम नंतर ca करावे म्हणून त्यासाठी प्रयत्न करू लागला. पण अवघड… जमेना… दिले सोडून. Mba साठी ऍडमिशन घेतली पण तेही जमेना… लॉ करावे वाटून तेही प्रयत्न केले पण ते सुद्धा जमले नाही.

शेवट खूप खटाटोप करून कोणाच्या तरी वशिल्याने एका खाजगी कंपनीत चिकटला एकदाचा. पण पगार कमी म्हणून जेमतेम महिनाखर्च भागवून जीवन जगू लागला.

गावातले सगळे आश्चर्य चकितच झाले. असे कसे झाले? का झाले? दोघेही बुद्धिमान समजत असताना एकावर अशी परिस्थिती का आली?

गावातली एक आजी म्हणाली पडलो झडलो तरी चालेल पण प्रयत्न कधीच सोडले नाही पाहिजेत. ओल्या झाडावर चढू पहाणारे माकड चार फूट वर गेले तर तीन फूट खाली येते. परत प्रयत्न केला तर तसाच अनुभव येऊनही ते दोन फूट वर पोहोचलेले असते. असेच प्रयत्न चालू ठेवले तरच ते शेंड्यावर पोहोचू शकते.

किंवा दह्यात पडलेल्या बेडका प्रमाणे जो प्रयत्न सोडतो तो दह्यात बुडून मरतो पण जो प्रयत्न करत रहातो तो दह्याचे ताक करून त्यावर निर्माण झालेल्या लोण्यावर उभे राहून उडी मारून बाहेर पडून स्वतःची सुटका करू शकतो.

येथे अजयने प्रयत्न सोडले नाहीत. अपार कष्ट घेतले त्याचे फळ म्हणून त्याचे चांगले झाले. तर विजयने प्रयत्नच सोडले दुसरा मार्ग निवडला त्या मार्गावर पण अडचणी येताच जाऊदे म्हणून सोडून देत गेला परिणामी तो त्याच्या ध्येयापर्यंत नाही पोहोचू शकला. त्याचे वाईट काही झाले नाही असे म्हटले तरी फार प्रगती झाली नाही ध्येयापासून भरकटला हे सत्यही कोणी नाकारू शकत नाही.

म्हणूनच कोणी कधीच प्रयत्न करणे सोडू नये. त्यामुळे नकळत का होईना थोडी थोडी प्रगती होत असते हे निश्चित. मग ध्येय साध्य होणारच. कितीही झाले तरी प्रयत्नांती परमेश्वर हे खरेच.

(२) करावे तसे भरावे…

राहुल आणि सचिन दोघे जिवलग मित्र. दोघांनाही एक एकच मुलगा. सारख्याच वयाचे. राहुल आणि त्याची बायको रागिणी दोघेही चांगल्या कंपनीत नोकरीला. त्यामुळे त्यांचा मुलगा रोहन लहानपनापासून पाळणाघरात राहिला. अगदी पहिली पासूनच त्याला बोर्डिंग स्कुलमध्ये घातले. अगदी अद्ययावत सुविधा त्याच्यासाठी नेहमीच उपलब्ध करून दिल्या. त्यामुळे खूप चांगले शिक्षण त्याने घेतले पण पुढील शिक्षणासाठी परदेशात गेला आणि आपल्या आवडीच्या मुलीशी विवाह करून तेथेच स्थायिक झाला.

सचिन पण चांगल्या हुद्द्यावर चांगल्या कंपनीत कामाला. त्याची बायको सुप्रिया पण सुशिक्षित चांगल्या नोकरीत होती. पण मुलगा सर्वेशच्या जन्मानंतर तिने नोकरी सोडली. काही दिवस ती घरीच होती. मग सर्वेश शाळेत जाऊ लागला आणि तिने ट्युशन घ्यायला सुरुवात केली. त्यामुळे ती घर तर सांभाळू शकत होतीच पण सर्वेशकडे लक्ष देतादेता आता अर्थार्जनही करू शकत होती.

सर्वेशही इंजिनियर होऊन अनेक छोटे मोठे कोर्सेस करून त्याने आधी काही वर्ष नोकरी करून स्वतःची इंडस्ट्री उभी केली. आई वडिलांच्या पसंतीच्या मुलीशी विवाह केला. ती पण त्याला व्यवसायात मदत करत होती.

अगदी दोन्ही मित्रांचे सगळेच उत्तम चालले होते.राहुल सचिन दोघेही रिटायर्ड झाले होते. राहुल रागिणीला मुलाबद्दल खूप अभिमान होता. पण रिटायर्ड झाल्यानंतर काही दिवस ते परदेशात जाऊन राहूनही आले पण परत आल्यावर त्यांना एकटेपण जाणवू लागले. मुलगा आपल्यापाशी नाही ही खंत सतावू लागली. रोहनला त्यांनी भारतात परत ये म्हणून सांगितले पण त्याने नकार दिला.

परंतु सचिन सुप्रिया अगदी समाधानाचे आनंदाचे जीवन जगत होते. नातवंडा बरोबर रमत होते. सर्वेश आई बाबांकडे विशेष लक्ष देत होता काळजी घेत होता.

राहुलला सचिनचा हेवा वाटू लागला. उगीचच मनात तणाव वाढून मैत्रीत अंतर पडू लागले.

काही दिवसात रागिणी देवाघरी गेली आणि राहुल याहूनच एकटा पडला. एकाकीपण खायला उठले तेव्हा रोहन काही दिवसांसाठी आला. त्याने राहुलला परदेशात या म्हटले पण राहुल तयार नसल्याने त्याने निर्विकारपने राहुलची व्यवस्था वृद्धाश्रमात केली आणि तो परदेशात जायला निघाला तेव्हा राहुल म्हटला नको रे रोहन मला असे येथे सोडून जाऊ. रोहन लगेच म्हणाला बाबा तुम्ही तुमच्या सोयीसाठी मला पाळणाघरात ठेवले होतेच की. नंतरही तुमच्या पार्ट्या, नोकऱ्या याच्या आड मी येऊ नये म्हणून मला बोर्डिंगमध्ये ठेवलेच होते की. मग मी माझ्या सोयीसाठी तुम्हाला वृद्धाश्रमात ठेवलं तर कुठं बिघडलं?

नाईलाजाने राहुल वृद्धाश्रमात राहू लागला.

सचिन पण वयानुसार अशक्त झाला होता. पडल्याचे निमित्त होऊन त्याचे दोन्ही पाय अधू झाले होते. पण सर्वेश रोज रात्री सचिनची सेवा करायचा सुट्टीच्या दिवशी महिन्यातून दोनदा तरी पाटकुली घेऊन बाहेर नेऊन आणत होता.एकदा राहुलला भेटायला सुद्धा घेऊन गेला . सर्वेश सगळे आनंदाने करत असल्याचे पाहून राहुलने विचारले तू कसे हे करतोस? तेव्हा सर्वेश म्हणाला मी लहान असताना बाबांनी नाही का मला शी शू साठी नेले? साफही केले? मला पाठकुली घेऊन इकडे तिकडे फिरवले? अगदी माझ्या मुलासाठी पण केले. मग आता मी तेच त्यांच्यासाठी केले तर कुठे बिघडलं?

सचिन राहुलला भेटून गेला आणि मग त्याला त्याच्या आयुष्यातली मोठी चूक समजली. न कळतं तो बोलून गेला करावं तसं भरावं हेच खरं…

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “मनातला पाऊस” – लेखक : श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

श्री मोहन निमोणकर 

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☆ “मनातला पाऊस” – लेखक : श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर

श्री मयुरेश उमाकांत डंके

॥मनातला पाऊस॥

(देवाला तुमच्या इच्छा पूर्ण करण्याच्या कामाला लावू नका ***) 

काल रात्री १ वाजेपर्यंत हवेत गारवा होता, आभाळ गच्च भरलेलं, अगदी कुंद वातावरण होतं. पण, दीड वाजता जो पाऊस सुरू झाला, त्यानं पार दैनाच करून टाकली. रात्री दीड वाजल्यापासून रस्त्यावर, रस्त्याच्या कडेला, फुटपाथवर, दुकानाच्या पायऱ्यांवर, थोडक्यात म्हणजे जिथं जागा मिळेल तिथं, भर पावसात कुडकुडत बसून राहिलेले वारकरी मी पाहतोय. त्यांना झोपायलासुद्धा जागा उरली नाही. दिवसभर पायी चालून थकून गेलेली ती माणसं तशीच बसून राहिली होती. 

अंथरूण म्हणून एखादं प्लॅस्टिकचं इरलं, उशाला एखादी पिशवी किंवा बोचकं आणि पांघरायला साधी शाल.. त्या प्लॅस्टिकच्या कागदावर संपूर्ण शरीर कुठलं मावतंय? पण, जागा मिळेल तिथं, कसलीही तक्रार न करता माणसांनी पथाऱ्या टाकलेल्या.. डोकं आणि पाय एकाचवेळी झाकलेच जाऊ शकत नाहीत अशी ती शाल.. त्यामुळे, कित्येकांचे पायांचे तळवे आणि त्यांना पडलेल्या भेगा दिसत होत्या.

पहाटे साडेतीन च्या सुमारास भर पावसातच त्यांची आवरा-आवरीची लगबग सुरू झाली. ज्यांची साठी-पासष्ठी केव्हाच उलटून गेली आहे, अशी माणसं अशा वातावरणात रात्री साडेतीन वाजता रस्त्याच्या कडेला असलेल्या सार्वजनिक नळावर आंघोळ करतात, आणि तशीच थंडीनं गारठत पहाटे दर्शनाच्या रांगेत जाऊन उभी राहतात. त्यांच्या आर्थिक परिस्थितीविषयी आपण न बोललेलंच बरं. कारण, मी पाहिलेल्या अशा व्यक्तींपैकी काही जण पंचवीस-पंचवीस एकर शेतीचे मालक होते. त्यांच्या अंगावरची तुळशीची माळ म्हणजे सोन्याइतकीच मौल्यवान. त्यामुळे, ‘जे आहे ते भगवंताचंच आहे’ अशाच धारणेनं ही माणसं जगतात. (आपण स्वत:ला पांढरपेशे म्हणवून घेण्यातच धन्यता मानतो. मग त्या पेशाचे सगळे गुणावगुण चिकटतातच आपल्याला)

पण, वारकरी होणं सोपं नाही, हे त्यांच्याकडं पाहिलं की, लगेच समजतं. वारी करणं ही गोष्टच निराळी आहे. अगदी वेगळ्या दृष्टीकोनातून पाहिलं तर, वारी हे २५ दिवसांचं, ६०० तासांचं काऊन्सेलिंग सेशनच आहे. आणि, मानसशास्त्राचा पुस्तकी अभ्यास अजिबात नसलेले अनेकजण केवळ स्वसंवादातून, स्वत:करिता उत्तम वेळ देऊन, स्वत:चे व इतरांचे प्रश्न सोडवतात, हा अनेक अभ्यासकांचा अनुभव आहे. 

कोणती गोष्ट मनाला लावून घ्यावी आणि कोणती गोष्ट फार विचार न करता सोडून द्यावी, हे या माणसांकडून खरोखर शिकण्यासारखं आहे. त्यांना महागड्या वस्तू, ब्रॅंडेड कपडे, प्राॅपर्टी, बॅंक बॅलन्स, खेळता पैसा, दागदागिने, परदेशी सहली यांतल्या एकाही गोष्टीत रस नसतो. दरवर्षी सगळा संसार महिन्याभरासाठी अन्य कुटुंबियांवर सोपवून माणसं निर्धास्तपणे वारीला येतात, म्हणजे त्यांची कुटुंबियांविषयीची मतं काय असतील याचा आपण विचार करायला हवा. “कुणी दिलाच दगा, तर माझा पांडुरंग बघून घेईल” असं अगदी बिनधास्त म्हणणं आपल्याला इतकं सहज जमेल का? 

काल रात्री एका काकांशी बोलत होतो. घराचा विषय निघाला. 

“आता पुतण्या म्हणाला, काका मी हीच जमीन कसणार. मला द्या. माझाही हक्क आहेच जमिनीवर. माझा वाटा मला द्या.” 

“मग?”

“माझा भाऊ होता तिथंच. पण तो काहीच बोलला नाही.”

“मग तुम्ही काय केलंत?”

“आता पुतण्याला नाही कसं म्हणायचं? अंगाखांद्यावर खेळवलेलं पोर. त्याचं मन कशाला मोडायचं? दिली जमीन.”

“मग आता?”

“उरलेली जमीन कमी कसाची आहे. पण, माझा पांडुरंग बघून घेईल सगळं. अहो, जमिनीपायी घर मोडलं तर हातात काय राहणार? त्यापेक्षा हे बरं.”

त्यांच्या घरात जे घडलं, तेच जर आपल्या घरात घडलं असतं तर मालमत्तेच्या वाटण्यांवरून किती रामायणं-महाभारतं झाली असती, असा विचार कदाचित माझ्या चेहऱ्यावर स्पष्ट दिसत असावा. पण, त्यांच्या चेहऱ्यावर दु:ख दिसत नव्हतं. 

“एखाद्या गोष्टीत गुंतलेला जीव अलगद काढून घेता आला पाहिजे” ते म्हणाले. मला काहीच सुचेना. मी अक्षरश: क्लिन बोल्ड झालो होतो. 

ते म्हणाले, “एखाद्या गोष्टीवरचा हक्क सहजपणे सोडून देता आला पाहिजे. आपल्याला तेच तर जमत नाही. म्हणूनच, प्रश्न आहे. तुमच्या पिढीला फार पुढं जायचंय, मोठं व्हायचंय, म्हणून तुम्ही दिवसरात्र पैसे कमावता. पण, बिल्डींगच्या १५ व्या मजल्यावरच्या घरात राहणाऱ्या माणसाला दारात आलेल्याला पाणी सुद्धा विचारावंसं वाटत नसेल तर, त्या पैशाचा काय उपयोग?”

“मग काय, पैसे कमवू नयेत का?”

“माझं तसं म्हणणं नाही. पण जीव माणसातच गुंतवला तर बरं असतं. पैशात गुंतवला तर माणसाला त्याच्याशिवाय दुसरं काहीच सुचत नाही.”

“पण माणसं फसवणार नाहीत कशावरून?” मी. 

“ पण, ती फसवतीलच हे कशावरून?”

मी पुन्हा सपशेल आडवा. 

“अरे, तुमच्या वयाच्या पोरांचं इथंच चुकतं. तुम्ही भावाला भाऊ मानत नाही, बहिणीला बहीण मानत नाही, आईवडीलांच्या मनाचा विचार करत नाही. तुम्ही कुणाचाच विचार केला नाहीत तर उद्या तुम्हाला तरी कोण विचारील? तुम्ही सगळ्या गोष्टीत फायदा-नुकसान बघत बसता. म्हणून तुम्हाला माणूस बघितला की आधी त्याचा संशयच येतो. मग कशाला राहतंय तुमचं मन स्वच्छ?”

शाळेतच न गेलेल्या त्या माणसाकडे इतकी वैचारिक सुस्पष्टता असेल, असं मला वाटलंच नव्हतं. 

“राजगिऱ्याचा लाडू खाणार का?” त्यांनी विचारलं. 

मी विचारात पडलो. रात्रीचे साडेतीन वाजून गेले होते, पोटात भूक तर उसळ्या मारत होती. पण एकदम हो कसं म्हणायचं, म्हणून मी नको म्हटलं. 

“हे बघा देवा. पुन्हा आहेच तुमच्या मनात संशय.” ते म्हणाले. 

“तुम्हाला वाटणारच, हा कोण कुठला माणूस आहे, हे ठाऊक नसताना याच्याकडून असं काही कसं काय घ्यायचं? आणि तेही रस्त्यावर बसून?” 

“तसं नाही हो.” मी म्हणालो खरा. पण खरोखरच माझ्या मनात तीच शंका आली होती. 

“यामुळेच माणसं कायम अस्वस्थ असतात. ती त्यांच्या मनातलं खरं काय ते सांगतच नाहीत. सगळा लपवालपवीचा कारभार..!”

आता यावर काय बोलणार? लाडू घेतला. लाडू खाऊन त्यांच्याचकडच्या बाटलीतलं पाणी प्यायलो. 

“चला माऊली, निघू का आता? पाऊस कमी झालाय.” मी म्हटलं. 

“थांबा देवा.” काका म्हणाले. पिशवी उघडली, आतून एक तुळशीची माळ काढली, माझ्या गळ्यात घातली. “देवा, पांडुरंगाला सोडू नका, तो तुम्हाला सोडणार नाही. पण त्याला तुमच्या इच्छा पूर्ण करण्याच्या कामाला लावू नका. माऊलींनी सुद्धा तसं कधी केलेलं नाही, स्वत:करता काही मागितलं नाही, हे विसरू नका. मोठं होण्याच्या इतकंही मागं लागू नका की, आपल्या माणसानं मारलेली हाक तुम्हाला ऐकू येणार नाही. तुम्ही माझ्या नातवाच्या वयाचे म्हणून बोललो, राग मानू नका..”

त्या काकांना नमस्कार करून निघालो. बाहेरचा पाऊस थांबलाय, पण मनातला मात्र सुरू झालाय.. आता तो थांबणं कठीण आहे !

© श्री मयुरेश उमाकांत डंके

मानस तज्ज्ञ, संचालक- प्रमुख, आस्था काऊन्सेलिंग सेंटर, पुणे. 

मो 8905199711

प्रस्तुती : मोहन निमोणकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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