(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सहमत का बहुमत…“।)
अभी अभी # 302 ⇒ सहमत का बहुमत… श्री प्रदीप शर्मा
जब कलयुग में सतयुग प्रवेश करता है तो बहुमत भी मूर्खो का नहीं सहमतों का हो जाता है, जीवन में नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता का प्रवेश हो जाता है। पैसा ही धर्म हो जाता है, और सनातन संस्कृति का पोषक हो जाता है। जिंदगी बोझ नहीं रह जाती, दुख भरे दिन बीत जाते हैं, अचानक ही अच्छे दिनों का जीवन में प्रवेश हो जाता है।
एक समय ऐसा भी था जब बहुमत से असहमत होने का मन करता था, अच्छाई मुट्ठी भर थी और चारों तरफ बुराई का ही साम्राज्य था, और असंतुष्ट लोग उसे कांग्रेस का राज कहते थे। ऐसी कैसी साढ़े साती जो साठ साल तक उतरने का नाम ही ना ले।
लेकिन ईश्वर के यहां देर भले ही है, अंधेर नहीं और जो आशा का दीपक कभी भारतीय जनसंघ ने जलाया था, समय के साथ वह कमल की तरह खिल उठा और भारत माता के चेहरे पर अचानक मुस्कान आ गई। सबसे पहले इसे ज्ञानपीठ से पुरस्कृत आचार्य गुलजार ने अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त भी किया ;
जंगल जंगल पता चला है।
चड्डी पहन के फूल खिला है।।
तब से अब तक तो सरयू में बहुत पानी बह चुका है। कई लोग बहती गंगा में हाथ धो बैठे हैं, और सभी के मन भी चंगे हो चुके हैं।
जो कभी भारत रत्न लता का कोकिल स्वर था, वह करोड़ों सनातन प्रेमी भक्तों का स्वर हो गया ;
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु
किरपा कर अपनायो।।
हर गरीब की झोपड़ी में राम ही नहीं पधारे, महलों में भी सनातन संस्कृति का बोलबाला हो गया। २२ जनवरी की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा क्या हुई, राष्ट्र कवि कुमार विश्वास भी बागेश्वर धाम पहुंच गए और भक्ति और ज्ञान की अलख जगा दी। कविता में भी एक और दिनकर का उदय हो गया।
अब यह सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं, कि भारत विश्व गुरु है अथवा नहीं, बस जरा जामनगर की ओर रुख कर लीजिए।
ऐश्वर्य, सुख वैभव और सनातन संस्कार के अगर साक्षात् दर्शन करने हों तो एक अंबानी परिवार में ही सब कुछ समाया हुआ प्रतीत होता है। क्या आपको नहीं लगता कुछ दिनों के लिए जामनगर रामनगर नहीं बन गया जहां राम जी अपने ही रामराज्य का विस्तार कर रहे हों।।
दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। हरि अनंत हरि कथा अनंता। आज अनंत की कथा का सर्वत्र गुणगान हो रहा है, और नव अंबानी दंपति को आशीर्वाद देने पूरी दुनिया उमड़ पड़ी है। जामनगर ने ना केवल बिल गेट्स सहित दुनिया के कई धन कुबेरों के लिए द्वार खोले, कल सतगुरु जग्गी वासुदेव भी वहां प्रकट हो गए। इतने बॉलीवुड सितारों को एक साथ एक जगह नचाना इतना आसान भी नहीं होता। यहां सब अपनी खुशी से आए हैं, यह कोई राजनीतिक रोड शो नहीं है, यहां लोगों को धीरू भाई अंबानी परिवार का परिश्रम और पसीना नजर आ रहा है। यह परिवार वाद नहीं राष्ट्र वाद है। असंतुष्ट अपने चश्मे का नंबर चेक कराएं।
यह वक्त है बहुमत से सहमत होने का, असंतुष्ट से संतुष्ट होने का, विपक्ष का साथ छोड़ सत्ता पक्ष का साथ देने का, विकास की गति को आगे बढ़ाने का,
स्मार्ट फोन के बाद हर शहर की स्मार्ट सिटी बनाने का, स्वदेशी की अलख जगाने का।।
अंबानी का प्री वेडिंग जश्न कोई पैसे की फिजूल खर्ची अथवा झूठा दिखावा नहीं, इसमें राष्ट्र का गौरव और वैभव नजर आता है, जहां संस्कार भी है और सादगी भी, भक्ति भी और समर्पण भी। राधिका अनंत देश की युवा पीढ़ी के प्रेरणा स्त्रोत हैं। कल देश की बागडोर ऐसे ही हाथों में आनी है।
आज से सहमत हों, संतुष्ट हों। जब झोपड़ी के भाग भी जाग गए, तो आप तो इंसान हो। इससे और अच्छे दिन क्या होंगे। आज का आयुष्मान भारत ही वह रामराज्य है जहां ;
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 2“।)
अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.
यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी. धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.
शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि “हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुम लोगों को समझा रहे हैं.” इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे.
गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे.
जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा. शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोट।)
☆ लघुकथा – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
अमित की मां शारदा को ऐसी नजरों से देखा रही थी जाने वह क्या करेगी ?
परंतु शारदा मां बेटे दोनों को इग्नोर करती हुई, गेट खोल कर ऑफिस चली गई।
अमित की मां कमला सोफे के कवर ठीक करती हुई जोर से चिल्ला उठी “कैसी चंड़ी है? पता नहीं स्कूल में लड़कियों को क्या पढ़ाती होगी ? गालियां तो ऐसा देती है, इससे ठीक तो मोहल्ले के अनपढ़ हैं।
यह उच्च शिक्षा प्राप्त है और स्वयं को शिक्षिका कहती है।”
“अमित तुझको सारे जमाने में बस यही लड़की मिली थी? इसी से शादी करने के लिए तू मरा जा रहा था।” क्रोध में कमला ने अपनी बेटे को एक असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी। चश्मा उतार अपने बेटे को गले से लगा लिया ।
उसने कहा “बेटा तुझ में कोई खोट नहीं है, कोसने का प्रश्न ही कहां उठाता है पर तूने यह किस मिट्टी को चुन लिया?”
“कोई बात नहीं अपने मन को स्थिर रखो मां स्वयं में ही खोट निकालकर ही रंग रोगन करना पड़ेगा।”
☆ महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा श्री संजय भारद्वाज को छत्रपति शिवाजी महाराज राष्ट्रीय एकता सम्मान – अभिनंदन ☆
पुणे के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार, स्तंभलेखक एवं समाजसेवी श्री संजय भारद्वाज जी को महाराष्ट्र सरकार की महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने वर्ष 2023-24 का छत्रपति शिवाजी महाराज राष्ट्रीय एकता पुरस्कार देने की घोषणा की है।
उल्लेखनीय है कि श्री संजय भारद्वाज जी हिंदी आंदोलन परिवार के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। हिंदी आंदोलन परिवार विगत तीस वर्ष से पुणे में हिंदी और भारतीय भाषाओं के विभिन्न साहित्यिक आयोजनों द्वारा राष्ट्रीय एकता के लिए अनवरत कार्य कर रहा है। हिंआंप अब तक लगभग 300 ऐसे कार्यक्रम कर चुका।
कवि, लेखक, नाटककार, समीक्षक, रंगकर्मी, संचालक, हिंदी प्रचारक, अनुवादक, संपादक के रूप में संजय भारद्वाज की विशिष्ट सेवाएँ हैं। विभिन्न विधाओं में उनकी 9 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। गत पाँच वर्ष से देश के चार समाचारपत्रों में अविराम प्रकाशित उनका साप्ताहिक स्तंभ ‘संजय उवाच’ विशेष लोकप्रिय है। ‘संजय दृष्टि’ नामक उनका दैनिक स्तंभ भी लगभग पाँच वर्ष से जारी है। ऑस्कर अवार्ड कमेटी की दो तकनीकी पुस्तकों का आपने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं। आकाशवाणी के लिए रेडियो.नाटक और रूपकों का लेखन आपने किया है। आपके बड़ी संख्या में नाटक और एकांकी लिखे हैं। 30 से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में आपने लिखी हैं।
श्री संजय भारद्वाज जी सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी मंडल, महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिति महामंडल के हिंदी विषयक कार्यसमूह, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। डीडी सह्याद्रि के ‘साहित्य सरिता’ कार्यक्रम के अनेक अंकों के लिए अतिथि संचालन किया। आप एक वृद्धाश्रम के न्यासी भी हैं।
श्री संजय भारद्वाज जी को 50 से अधिक सम्मान मिल चुके हैं। इनमें हिन्दी साहित्य तथा रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी पाटील के हाथों ‘ विश्व वागीश्वरी सम्मान’, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ द्वारा ज्ञानपीठ विजेता डॉ. निर्मल वर्मा के हाथों ‘सम्मेलन सम्मान’, श्रेष्ठ हिंदी साहित्य और समाज सेवा के लिए पद्मभूषण पं झाबरमल शर्मा राष्ट्रीय पुरस्कार कोलकाता, हिंदी साहित्य की सेवा के लिए महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा ‘साहित्य सेवा सम्मान’, साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा साहित्य सेवा सम्मान, विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच सेतु का काम करने के लिए गुरुकुल प्रतिष्ठान, पुणे द्वारा ‘अंतरभारती सम्मान’, हिंदी-उर्दू के बीच पुल का काम करने के लिए ‘अमीने- अदब’ सम्मान आदि प्रमुख हैं।
श्री संजय भारद्वाज जी ने इस पुरस्कार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह वागीश्वरी माँ सरस्वती की अनुकंपा, माँ-पिता के आशीर्वाद और परिजनों- आत्मीयजनों की स्वस्तिकामनाओं का परिणाम है। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
सचिव
हिंदी आंदोलन परिवार
💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री संजय भारद्वाज जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
तुला काय आणि कसं सांगू ? मला ना गेले सात-आठ दिवस सारखी हुरहूर लागून राहिलीय. अरे तू आता जाणार ना रे आम्हाला सोडून? खरं तर तू खूप मोठं सत्कार्य करायला निघालायस. आपल्या देशाच्या बॉर्डरचं रक्षण करायला निघालायस. केवढं मोठं जबाबदारीच आणि धाडसाचं काम आहे ना रे! पण तू शूरवीर आहेसच. म्हणूनच तर तुझं नाव रणवीर ठेवलय ना! तू मोठं आणि अवघड काम करायला निघालायस. तरीपण आपली ताटातूट होणार, हा विचारही बेचैन करतोय. सारखं डोळ्यातून पाणी येतय रे. किती लळा लावलायस आम्हाला सगळ्यांना. रोज तुझ्या आवडीचे काही ना काही करते, आणि तू आवडीने खातोयस ना, बरं वाटतंय बघ मला. अरे, रणवीर परवा आपल्याकडे ते बॉस आले होते ना, ते तुला किती काम सांगत होते. आणि खरंच त्यांनी सांगितलेली कामं तू अगदी मनापासून करत होतास. त्यामुळे तुझ्यावर बेहद खुश झालेत ते. तेही येतील तुझ्याबरोबर कदाचित. खरं तर तुला सांगायची गरज नाहीये. पण तरीही सांगावसं वाटतं ना!
हे बघ ,भारत मातेचे नाव घ्यायचं . ” भारत माता की जय” म्हणायचं .आणि जोरदार आक्रमण करून ,आतंकवाद्यांना चांगलं लोळवायचं .वीरचक्र ,शौर्य चक्र मिळवायचं. आणि तुझं ‘रणवीर ‘ हे नाव सार्थकी करायचं. तुझी शौर्याचे गाथा आम्ही ऐकली ना ,की ऊर भरून येईल आमचा. अभिमान वाटेल तुझा आम्हाला
आता तुला बरोबर काय काय द्यायच बरं? इकड ये जरा. मला ना तुझ्या चेहऱ्यावरून ,पाठीवरून हात फिरवायचाय . आशीर्वाद देणार आहेत सगळेजण तुला. तू असा गप्प गप्प का रे? तुला पण आता आम्हाला सोडून जाणार, म्हणून कसं तरी वाटतंय का ? आता काही नाही . हसत हसत सगळ्यांशी बोल बघू.
उँ, उँ , उँ, हं ,हं,भुः, भुः, भुःभुः
आमचे स्नेही आचार्य यांनी आपले तीन महिन्यांचे लाब्राडोर जातीचे पिल्लू, देश कार्यासाठी आर्मीच्या डॉग स्कॉड कडे सुपूर्त केले . त्यांची पत्नी श्री रंजनी हिच्या मनातल्या निरोपाच्या प्रेमळ भावभावना.
पत्र म्हणजे अलगद उलगडत जाणार्या एकाद्या रेशमी भावबंधाचा सांगावा असतो…. अशी पत्रे कधी नवी उमेद व अनामिक भावनिक बळ देऊन जातात तर कधी डोळ्यांतून अलगद आसवं ओघळायला लावतात. कधी भूतकाळात डोकावयाला लावतात. कालमानाप्रमाणे त्यात विविध तरंग उमटलेले असतात. अशी बरीच हस्तलिखित पत्रे मी जपून ठेवलेली आहेत. फुरसतीच्या वेळेत ती पत्रं चाळताना कितीतरी वेळ निघून जातो.
गेल्या रविवारी असंच चाळताना वसंताचे पत्र आणि मी लिहिलेल्या उत्तराची छायांकित प्रत सापडली. त्या पत्राला तब्बल पस्तीस वर्षे झाली आहेत.
नोकरीच्या निमित्ताने वसंताची पोस्टिंग सोलापूरला झाली होती. कामाव्यतिरिक्त ऑफिसात तो कुणाशी बोलायचा नाही. शांत व गंभीर प्रकृतीचा वसंता आणि मी समवयस्क असल्याने आमची लवकरच गट्टी जमली. नोकरीत कायम झाल्यावर वसंताला स्थळं सांगून येत होती. अखेर त्याच्याच नात्यातल्या एका मुलीशी त्याचं लग्न जमलं. त्यांची एकमेकांशी ओळख होती पण घनिष्ठ परिचय नव्हता.
वाङनिश्चय झाल्यानंतर वसुधा वहिनींचे प्रेमाने ओथंबलेले एक पत्र त्याने मला दाखवले. दुसर्यांची प्रेमपत्रे वाचणे म्हणजे दुसर्यांच्या बेडरूममध्ये डोकावण्यासारखे आहे, असं म्हणत मी वाचायला नकार दिला. मी त्याला म्हटलं, “तू ही एक छानसे प्रेमपत्र लिही. कवितेतल्या काही सुंदर ओळी अधून मधून पेरून टाक. मध्येच कुणाची तरी एखादी चारोळी लिही आणि अत्तर शिंपडलेल्या एखाद्या गुलाबी पाकिटातून पाठवून दे.”
वसंता हिरमुसला चेहरा करून म्हणाला, “ते आपलं काम नाही गड्या. मला तसं लिहिता आलं असतं तर वसुधेचं पत्र तुला कशाला दाखवलं असतं? या पत्राचं उत्तर तू लिहावं, म्हणून मी तुला देतोय. तू कच्चं ड्राफ्ट लिहून दे, मी फेअर करून पाठवतो.”
झालं, त्यानंतर मी वसंताच्या प्रेमपत्रांचा घोस्ट रायटर झालो. खरं तर, दुसर्याची मदत घेऊन प्रेमपत्रे लिहिणे आणि फुकटचा भाव मारावा हे वसंताच्या स्वभावाला अनुसरून नव्हतं. ‘हम भी कुछ कम नही’ असं वसुधा वहिनींना दाखवणं एवढाच माफक विचार त्याच्या पत्र लेखनामागे असायचा.
एकमेकांच्या मनाला भुरळ पाडणार्या, पुढच्या पत्रासाठी हुरहूर लावणार्या, उत्सुकता शिगेला नेणार्या या पत्रांच्या आधाराने ते दोघेही काही महिने काव्यात्मक स्वप्निल विश्वात तरंगत होते. आजच्या ईमेलच्या, टेक्स्टींगच्या जमान्यात हस्तलिखित पत्र लिहिणे म्हणजे वेडेपणा वाटेल. परंतु हा वेडेपणा चिरंतन आनंद देणारा असतो एवढं मात्र नक्की.
एका शुभदिनी त्या दोघांचा या भूमंडली शुभमंगल विवाह संपन्न झाला. काव्यात्मक पत्रे लिहिणारा भावुक नवरा थोड्याच दिवसात सौ. वसुधा वहिनींना एकदम रूक्ष वाटू लागला. त्याकाळी शब्दागणिक पैसे लागायचे म्हणून टेलिग्रामचे मजकूर कमीत कमी शब्दांत लिहायचे. अगदी तसंच वसंताचे संभाषण त्रोटक असायचे. ‘चहा दे. जेवायला वाढ, पाणी दे, ऑफिसला निघालोय. किराणा माल शेजारच्या दुकानातून घे.’ या पलीकडे काही नाही. पत्रांतून रसिक वाटलेल्या वसंताचं असं वागणं वहिनींना अगदी अनपेक्षित होतं.
वसंताच्या देखतच सौ. वहिनींनी एकदा ही व्यथा माझ्यासमोर निराळ्या पद्धतीने बोलून दाखवली. वसंताच्या अशा वागण्यामागे त्याचं स्वत:चं असं एक तत्वज्ञान होतं. ‘जास्त बोललो तर ती उगाच डोक्यावर बसायला नको!’ त्या तत्वज्ञानाला मी सुरूंग लावला. मी त्याला खूप सुनावलं. त्यानंतर थोडा अपेक्षित बदल झाला असावा.
इथे असतांनाच त्यांना एक मुलगा झाला. वसंताच्या वागण्यावरून वहिनींचं लक्ष विकेंद्रित झालं. बाळाच्या नादात ते सुखी कुटुंब आनंदात होतं. एका वर्षानंतर त्यांची बदली नागपूरकडे झाली. त्यानंतर आमच्यात खूप मोठी कम्युनिकेशन गॅप राहिली. आणि अचानक एके दिवशी एखादा विद्ध पक्षी पुढ्यात येऊन पडावा तसं वसंताचं पत्र टाकून पोस्टमन निघून गेला. माझ्या संग्रहातले ते पत्र हेच,
प्रिय वेंकी,
आपण जवळचे मित्र म्हणवत होतो. दिवाळीच्या ग्रीटींग्जशिवाय आपण एकमेकांना कधी पत्र पाठवतच नाही. पत्र लिहिण्याविषयी माझा ‘उत्साह’ तुला माहीतच आहे. त्यातून मराठीतून लिहिणं तर जवळपास संपल्यातच जमा झाले आहे. असो.
मध्यंतरी सुनील भेटला होता. त्यानं तुझ्याबद्दल सांगितलं. तू कुठल्यातरी क्लबचा चार्टर्ड प्रेसिंडेट झाला आहेस. एका शाळेच्या बक्षीस समारंभाला तू प्रमुख पाहुणा होतास म्हणे. हे ऐकून मला तुझा अभिमान वाटला. एकंदरीत तू ग्रेटच आहेस. असो.
मला तुझ्याकडून एक बहुमोल ‘सल्ला’ हवा आहे. तू योग्य सल्ला देशील ह्याची मला खात्री आहे.
हल्ली तुझ्या वहिनींचे आणि माझे बर्याच गोष्टींवर मतभेद होत असतात, त्यामुळे वारंवार खटके उडत असतात. साध्या साध्या गोष्टीवरून ती चिडचिड करते. मुलांनी उच्छाद मांडला आहे. अभ्यासाच्या नावाने बोंब आहे. ऑफिसमधून येऊन ती मुलांचा तासभर अभ्यास घेते परंतु त्यांच्या प्रगतीत फरक नाही.
माझा स्वभाव तुला माहीतच आहे. वादविवाद टाळण्यासाठी म्हणून मी मूग गिळून बसतो त्यामुळे तिचा त्रागा आणखीनच वाढतो. आम्ही दोघेही कमावतो पण घरात मात्र सुखशांती नाही.
कृपा करून एक सविस्तर पत्र अवश्य लिही, जेणेकरून तुझ्या वहिनींचा नूर पालटेल व आमच्या संसाराचा गाडा सुरळीत चालेल… वगैरे.
लगेच समोरचा पॅड घेऊन एक सुदीर्घ पत्र लिहिलं, त्यातील हा मजकूर:
प्रिय वसंता,
एवढ्या काळानंतर तुझे अशा तर्हेचे पत्र येईल अशी अपेक्षानव्हती. मला काही लिहिण्यासाठी माझ्याबद्दल खोट्या कौतुकाच्या प्रस्तावनेची आवश्यकता निश्चितच नव्हती. असो.
कदाचित माझ्यासारख्या सामान्य माणसाच्या कुंडलीत देखील उच्चीचे ग्रह आले असतील. तालुक्यातल्या का असेना एका शाळेच्या बक्षिस समारंभाला प्रमुख पाहुणा होतो. एका वाटणीच्या संदर्भात एक पंच म्हणून गेलो होतो आणि भरीस भर म्हणून ह्याच दरम्यान माझा ‘सल्ला’ मागण्यासाठी तू हे पत्र लिहालंस. नाही तर अस्मादिकांस कोण विचारतो? असो.
☆ वाई, पाचगणी व महाबळेश्वरचे कलापर्यटन – भाग – २ ☆ श्री सुनील काळे☆
(लोकसत्ता – 24 फेब्रूवारी 2024 . पर्यटन विशेषांक)
विश्वकोषासाठी विशेष नोंदी करण्यासाठी आलेले चित्रकार सुहास बहुळकर तर वाईच्या प्रेमातच पडले . त्याचे सुंदर वर्णन त्यांनी वाई कलासंस्कृती या पुस्तकात केले आहे . पेशवेकालीन पुण्याचे वास्तुवैभव , महिरपी खिडक्या , वाडयांचे दरवाजे , चौकटी , कोनाडे हे त्यांच्या चित्रांचे विषय आहेत . या विषयांची प्रेरणा घेऊन आकारसंस्कृती नावाचे त्यांनी केलेले प्रदर्शन खूप गाजले आहे .
वाईच्या घाटाची तर अनेकांनी चित्रे काढलेली आहेत त्यापैकी ना. श्री . बेन्द्रे यांच्या आत्मचरित्रात वाईच्या घाटाचे पेनने चित्र रेखाटलेले पाहता येते . वि .मा . बाचल मूळचे वाईचे . काही वर्ष त्यांनी फर्ग्युसन महाविद्यालयाचे प्राचार्य म्हणून काम केले आहे . त्यांनी काढलेली रेखाटने व घाटाची चित्रे फर्ग्युसनच्या शताब्दी स्मरणिकेत पाहायला मिळतात .
वाईचे सु .पि .अष्टपुत्रे सर व गजानन वंजारी सर हे दोघेही वाईच्या द्रविड हायस्कूलमध्ये कलाशिक्षक होते . त्यांना ज्यावेळी वेळ मिळत असे तेव्हा ते गणपती घाटावर चित्रे काढायला यायचे . अष्टपुत्रेसर अपारदर्शक कलर्स म्हणजे पोस्टर कलरमध्ये व वंजारीसर तैलरंगमध्ये निसर्गचित्रे रेखाटतात . मूळचे पसरणी गावाचे पण सध्या इंग्लडमध्ये वास्तव्य असणारे तुषार साबळे यांनीही वाई घाटपरिसरातील , मेणवली घाटाची चित्रे रेखाटली आहेत .
सुप्रसिद्ध सिनेनट चंद्रकांत मांडरे , चित्रकार पी एस कांबळे , दिवाकर प्रभाकर, या जुन्या पिढीतील कलावतांनी वाईची चित्रे साकारलेली आहेत . बाळासाहेब कोलार , श्रीमंत होनराव (वाई) , यांच्या बरोबरच मिलींद मुळीक , संजय देसाई , शलैश मेश्राम , कविता साळुंखे , दिवगंत सचीन नाईक , कुडलय्या हिरेमठ (पुणे) , प्रफुल्ल सावंत , सागर गायकवाड (सातारा ) , संदीप यादव ( पुणे), अमोल पवार , निशिकांत पलांडे (मुंबई ), गणेश कोकरे (सातारा) विजयराज बोधनकर (ठाणे ) सुनील काळे अशा नव्या दमाच्या चित्रकारांनी वाई परिसरातील अनेक चित्रे काढलेली आहेत .
एडवर्ड लियर या ब्रिटीश चित्रकाराने वाईच्या घाटाचे केलेले सुरेख रेखाटन अरुण टिकेकर यांच्या ‘ स्थलकाल ‘ या पुस्तकात पाहायला मिळते . त्याचबरोबर जॉन फेड्रीक लिस्टर 1871 याने एलफिस्टन पॉईंटची व्हॅली रंगवलेली आहे . तर 1850 साली विल्यम कारपेंटर या चित्रकाराने प्रतापगडाचे विहंगम दृश्य रंगवल्याचे गुगलसर्च केल्यावर सापडले . एम.के . परांडेकर यांनी रेखाटलेल्या ऑर्थरसीट पॉईंटचे चित्र खूप प्रसिद्ध आहे . त्याचबरोबर अभिनव कला महाविद्यालयाचे माजी प्राचार्य दिवंगत श्री . दिवाकर डेंगळे यांनीही पांचगणी वाई महाबळेश्वर येथील चित्रे जलरंगात रेखाटलेली आहेत .
प्रसिद्ध चित्रकार जहाँगीर साबावाला याचां महाबळेश्वरमध्ये बालचेस्टर नावाचा बंगला आहे . त्यामुळे त्यांनी महाबळेश्वरच्या सह्याद्रीच्या पर्वतरांगा त्यांच्या अमूर्त शैलीत ऑईलकलर मध्ये साकारले आहे . नाशिकचे शिवाजी तुपे यांनी घोड्यांचे पार्कींग असलेले इमारतीचे चित्र काढले आहे तर रवि परांजपे यांनी प्रसिद्ध पंचगंगेच्या मंदिराचे प्रवेशद्वार त्यांच्या शैलीत रेखाटले आहे .वासुदेव कामत यांनीही या परिसरात चित्रांकन केलेले आहे .
मेणवली घाट , धोमचे नरसिंहाचे मंदीर , गणपती घाट , गंगापुरी घाट , मधलीआळी घाट , भीमकुंडआळीचा घाट , असा घाटांचा परिसर व मंदिराचे गाव म्हणून जरी वाई प्रसिद्ध असले तरी या घाटांच्या आजूबाजूला वाढलेले स्टॉल्स , टपऱ्या , दुकाने , कातकऱ्यांच्या वस्त्या , स्थानिक नगरपालीकेचे व सर्व घरांचे नदीपात्रात सोडण्यात येत असलेले दुषित सांडपाणी उघडपणे कृष्णा नदीत राजेरोसपणे सोडले जाते . त्यामुळे ट्रॅफिकची प्रचंड वर्दळ , गोंगाट , उघडी नागडी नदीत अंघोळ करणारी माणसे, भांडीकुडी कपडे धुणारी व हागणदारी करत नदीशेजारीच झोपड्यात राहणारी माणसे प्रदुर्षण करतात . मंदिराशेजारची वाढणारी गलीच्छ वस्ती पाहीली की चित्र काढण्याचा चित्रकाराचा मूड जाण्याचीच जास्त शक्यता असते . त्यावर कोणाचेच नियंत्रण नाही . भंगारवाल्याच्या टपऱ्या , मेणवली जोर रस्त्यावर जाणाऱ्या जीपगाडया , छोट्या पुलावर बसणारे छोटे व्यावसायिक पाहीले की रस्त्यातून गाडया चालवणे किंब चालत जाणे एक मोठे संकट आहे . तरीही कलामहाविद्यालयाचे विद्यार्थी व चित्रकार येथे येऊन चित्र काढत बसतात . मेणवली घाटावर लेखी परवानगी घेऊन फी देऊन फोटो व चित्र काढावे लागते . मेणवली घाटावर उतरत असताना डाव्या बाजूला जवळच स्मशानभूमीची जागा आहे व त्याशेजारी उघड्यावरची हागणदारी पाहीली की येथे पैसे देऊन चित्र का काढावे असा प्रश्न पडतो . तेथे बसून चित्र काढावे असे कधीकधी वाटत नाही .
खूप वर्षांपूर्वी एकदा फलटणचे रघुनाथराजे निंबाळकर यांच्या घरी राहण्याचा योग आला होता . त्यावेळी औंधचे कलाप्रेमी बाळासाहेब पंतनिधी महाराज यांचे तैलरंगातील २ फूट बाय ३ फूट आकारातील एक मेणवलीच्या घाटाचे चित्र पाहायला मिळाले . त्या चित्रातील वातावरण व शांतता आता कधीच अनुभवता येईल असे वाटत नाही . सगळीकडे व्यापारीकरण सुरु आहे .
पाचगणीच्या टेबललॅन्डच्या पठारावर आता मोठी तटबंदी बांधली आहे . त्याच्या सभोवताली खाण्याच्या टपऱ्या व घोडागाडीची रेलचेल पाहीली की चित्र काढणाराच चकीत होतो . सगळीकडे हॉटेल्स व त्यांच्या जाहीरातीचे फ्लेक्स दिसतात त्यातून निसर्ग शोधावा लागतो . शिवाय अति गर्दीमुळे पर्यटकांचा त्रास असतोच . महाबळेश्वरला शनिवार रविवारी जायचे असेल तर घाटातच ट्रॅफीक जामचा अनुभव येऊन ड्रायव्हींग करताना मुंबई पुण्यासारखा इंच इंच लढवावा लागतो . प्रसिद्ध पॉईंटसवर चित्रे काढणाऱ्या चित्रकारानां परवानगी घ्यावी लागते अन्यथा तुमचे रेखाटलेले चित्र खोडणारे नतद्रष्ट येथे आहेत . नियमांचा बडगा दाखवून कलाप्रेमीनां काम करताना बंद पाडणारे हाकलून देणारे महाभाग येथे आहेत . त्यामुळे कलेविषयी सातारा जिल्हयात अनास्था भरपूर आहे .
संपूर्ण सातारा जिल्हयात एकही कलादालन नसल्याने चित्रकारांनी काढलेली चित्रे प्रदर्शित करण्यासाठी कोठेही जागा नाही . कापडाच्या बांबूच्या कनाती बांधून नाटक असल्यासारखे प्रदर्शन करावे लागते . येथे अनेक व्यावसायिक मंडळी , राजकीय पुढारी , मुख्यमंत्री , आमदार ,खासदार , शिवरायांचे वशंज राजेमंडळी आहेत पण जिल्ह्यात वाई ,पाचगणी ,महाबळेश्वर , सातारा , कराड येथे कोठेही सुसज्ज चित्रप्रदर्शनासाठी कलादालन नाही आणि याची कोणाला लाज वाटत नाही . सगळ्या चित्रकारानां नाईलाजाने पुण्यामुंबईत प्रदर्शनासाठी जावे लागते . एकंदर कलेविषयी खूप लाचार अनास्था या पर्यटनस्थळी आहे . त्यामुळे प्रदर्शने भरत नाहीत , कलाप्रेमी तयार होत नाहीत व कलारसिकही नाहीत .
एकंदर परिस्थिती गंभीर आहे पण चित्रकार मात्र मनाने खंबीर आहेत .
आजही चित्रकार मनापासून चित्रे रेखाटत आहेत व भावी पिढीचेही नवे चित्रकार भविष्यातही चित्रे रेखाटत राहतील कारण निसर्गाची ओढ, जुन्या स्थापत्यशैलीतील मंदीरे,घाट, सहयाद्री पर्वताच्या डोंगरांच्या दूर पसरलेल्या रांगा , भव्य सपाट टेबललॅन्डची पठारे कायम चित्रकारानां प्रेरणा देत राहणारच आहेत . चित्रकारांची ही चित्रे आणखी काही वर्षांनी इतकी महत्वाची असतील कारण जे वेगाने बदल होत आहेत त्या बदलांचे हे एक प्रकारे दस्तीकरण होत असते .निसर्गदेव सदैव दोन्ही हातांनी भरभरून देत राहणार आहे . माणूस नावाचा प्राणी मात्र निसर्गाची वाट लावायला रोज नवी यंत्रणा राबवतो , त्याच्या कुठे तरी भलताच ‘ विकास ‘ करण्याच्या प्रयत्नांनां मात्र लगाम घातला पाहीजे .