हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 294 ⇒ हालचाल ठीक ठाक हैं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 294 हालचाल ठीक ठाक हैं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक दफ्तर में काम करते रहे, साहब की गुड मॉर्निंग का जवाब, गुड मॉर्निंग से देते रहे, जिसने राम राम किया, उसको राम राम किया और जिसने जय श्री कृष्ण किया, उनसे जय श्री कृष्ण भी किया। इक्के दुक्के जय जिनेन्द्र वाले भी होते थे। आप इसे सामान्य अभिवादन का एक सर्वमान्य तरीका भी कह सकते हैं।

बहुत कम ऐसा होता है कि अभिवादन का जवाब नहीं दिया जाए। कहीं अभिवादन की पहल होती है और कहीं उसका जवाब दिया जाता है। जहां भी साधारण परिचय है, वहां मिलने पर इसे आप एक सहज अभिव्यक्ति कह सकते हैं। औपचारिक होते हुए भी आप इसे व्यावहारिक जगत का एक अभिन्न अंग कह सकते हैं।।

मुझे नमस्ते अभिवादन में उतनी ही सहज लगी, जितनी लोगों को गुड मॉर्निंग, राम राम, जय श्री कृष्ण अथवा जय श्री राम लगती है। लेकिन राम राम का जवाब राम राम से देना और जय श्री कृष्ण का जवाब जय श्री कृष्ण से देना ही ज्यादा उचित होता है।

तकिया कलाम की तरह सबके अपने अपने अभिवादन होते हैं। कहीं जय माता दी तो कहीं जय बजरंग बली। जय सियाराम से चलकर आज यह कहीं जय श्री राम, तो कहीं जय साईं राम तक पहुंच गई है। कहीं कहीं तो अभी भी भोले, गुरु और उस्ताद से ही काम चल रहा है।।

कुछ लोगों का तो यह भी आग्रह रहता है कि फोन पर हेलो की जगह भगवान अथवा अपने इष्ट का नाम ही लिया जाए। आजकल व्हाट्सएप और मैसेंजर पर गुड मॉर्निंग के रंग बिरंगे, सूर्योदय, नदी पहाड़ और फूल पत्तियों से सुजज्जित हिंदी अंग्रेजी में फॉरवर्डेड मैसेज आते हैं, जिन्हें गमले की तरह, सिर्फ इधर से उठाकर उधर रख दिया जाता है। कुछ लोगों को यह औपचारिकता भी पसंद नहीं आती।

व्यावसायिक की तुलना में, एक उम्र के बाद, व्यक्तिगत फोन वैसे भी कम ही आते हैं। जहां बाल बच्चे और परिजन परदेस में होते हैं, वहां नियमित समय बंधा रहता है, वीडियो कॉल पर ही बात होती है। मन फिर भी नहीं भरता। लेकिन दुनिया में ऐसा कहां, सबका नसीब है।।

कहीं कहीं परिस्थितिवश स्थिति एकांगी हो जाती है। यानी मिलने जुलने वाले लोगों का आना जाना कम हो जाता है और फोन कॉल्स भी इक्के दुक्के ही आते हैं। सामान्य तरीके से हालचाल पूछे जाते हैं, जिसका जवाब भी ठीक ठाक ही देना पड़ता है। आप कैसे हैं, हां ठीक है। सामने वाले को तसल्ली हो जाती है। जब कि दिल का हाल तो अपनों को ही सुनाया जाता है।

ज्ञानपीठ वाले गुलजार के ही शब्द हैं, जो ऐसे लोगों का दर्द बयां कर जाते हैं ;

कोई होता जिसको अपना

हम अपना कह लेते यारों।

पास नहीं तो दूर ही होता

लेकिन कोई मेरा अपना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 261 ☆ आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 261 ☆

? आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ?

पाठक लेखक के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त वैचारिक  प्रवाह की दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के रचना विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को  रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डाक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से रचनाकार को भी सुख मिलता है। लेखक समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबरेज है।

पुस्तक दीर्घ जीवी होती हैं। वे संदर्भ बनती हैं। आज या तो डोर स्टेप पर ई कामर्स से पुस्तकें मिल जाती हैं, या एक ही स्थान पर विभिन्न पुस्तकें लाइब्रेरी या पुस्तक मेले में ही मिल पाती हैं। अतः पुस्तक मेलों की उत्सव धर्मिता बहु उपयोगी है। और नई किताबों से पाठको को जोड़े रखने में हमेशा बनी रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182 – लघुकथा – पैती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पैती”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182  ☆

☆ लघुकथा ❤️ पैती ❤️

सनातन धर्म के अनुसार कुश  को साफ सुथरा कर मंत्र उच्चारण कर उसे छल्ले नुमा अंगूठी के रूप में बनाया जाना ही पैती कहलाता है। जिसे हर पूजा पाठ में सबसे पहले पंडित जी द्वारा, उंगली पर पहनाया जाता है और इसके बाद ही पूजन का कार्य चाहे, कोई भी संस्कार हो किया जाता है।

सुधा और हरीश यूँ तो जीवन में किसी प्रकार की कोई चीज की कमी नहीं थीं। धन-धान्य और सुखी -परिवार से समृद्ध घर- कारोबार और अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे।

सृष्टि की रचना कब कहाँ किस और मोड़ लेती है कहा नहीं जाता।

सुखद वैवाहिक जीवन के कई वर्षों के बीत जाने पर भी संतान की इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी।

कहते देर नहीं लगी की कोई दोष होगा। घर की शांति पूजा – पाठ नाना प्रकार के उपाय करते-करते जीवन आगे बढ़ रहा था। कहीं ना कहीं मन में टीस  बनी थी।

क्योंकि सांसारिक जीवन में सबसे पहले.. अरे आपके कितने… बाल गोपाल और कैसे हैं? समाज में यही सवाल सबसे पहले पूछा जाता है।

फिर भी अपने खुशहाल जिंदगी में मस्त दोस्तों से मेलजोल अपनों से मुलाकात और रोजमर्रा की बातें चलती जा रही थी।

समय पंख लगाकर उड़ता चला जा रहा था। कहते हैं देर होती है पर अंधेर नहीं। आज सुधा का घर फूलों की सजावट से महक रहा था।

चारों तरफ निमंत्रण से घर में सभी मेहमान आए थे। सभी को पता चला कि आज कुछ खास कार्यक्रम है।

पीले फूलों की पट्टी और उस पर छल्ले नुमा कुश से बने…. नाम लिखा था पैती।

नए जोड़ों की तरह दोनों का रूप निखर रहा था। मंत्र उच्चारण आरंभ हुआ। गोद में नन्हा सा बालक रंग तो बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। पर नाक नक्श और सुंदर कपड़ों से सजे बच्चों को लेकर सुधा छम छम करती निकली।

फूलों की बरसात होने लगी सभी को समझते देर ना लगी कि सुधा और हरीश ने किसी अनाथ बच्चों को गोद लेकर उसे अपने पवित्र घर मंदिर और अपने हाथों की पैती बना लिया।

जितने लोग उतनी बातें परंतु पैती आज अपने मम्मी- पापा के हाथों में पवित्र और निर्मल दिखाई दे रहा था।

सुधा की सुंदरता बच्चे के साथ देव लोक में अप्सरा की तरह दिखाई दे रही थी। ममता और वात्सल्य से गदगद वह सुर्ख लाल छुई-मुई लग रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 ☆ देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रत्येक चार वर्ष के पश्चात लीप वर्ष याने वर्ष का सबसे छोटा माह फरवरी भी थोड़ा सा बड़ा हो जाता हैं।

कुछ दिन पूर्व एक पेंशनर साथी ने फोन कर जानकारी मांगी थी, क्या फरवरी की पेंशन दो/ तीन जल्दी याने कि हर माह साताईस को मिलती है, तो क्या इस बार पच्चीस तारीख को मिलेगी ना। उनके तर्क में दम हैं।

मन में विचार आया कि जो दिहाड़ी/ दैनिक वेतन पर भुगतान प्राप्त करते हैं, उनका तो इस माह नुकसान रहेगा।

पेपर में उपभोक्ता सामान पर लीप डिस्काउंट भी आरंभ हो गया हैं। रेडीमेड शर्ट विक्रेता एक के साथ तीन शर्ट और खरीदने पर छूट के लुभाने ऑफर दे रहें हैं।

होटल वाले भी आपके लिए ” लीप की शाम” का ऐलान करने लगे हैं। पैसा फैंक तमाशा देख।

आज एक मित्र का मैसेज आया कि उन्नतीस को क्या कार्यक्रम हैं। हमने कहा कुछ नहीं घर पर ही रहेंगे, आ जाओ। मित्र बोला इस बार की उन्नतीस कुछ खास है, चार वर्ष के बाद फरवरी में ये तारीख़ आती है। सर्दी भी वापस हो रही है, कहीं आस पास सब मित्र भ्रमण हेतु चलते हैं। मज़ाक में बोला क्या पता हम लोग की ये आखरी उन्नतीस फरवरी हो।

हमारे ये मित्र भी जिंदादिल है, मौका ढूंढते रहते है, सब को साथ मिल कर कुछ नया करने का कार्यक्रम जमा देते हैं।

आपने, अपने मित्र/ परिवार के साथ कोई कार्यक्रम बनाया या  नहीं ? हमारा काम तो, था आपको आगाह करने का, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ धन्य उपाधी… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ धन्य उपाधी… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

मराठी उपाधी / भाषेचे आराध्य /

साधका उपाध्य /प्रज्ञावंत //

बहुमान शब्द / ज्ञानात प्रारब्ध /

गोपानाचे दुग्ध / ज्ञानसंत//

वैराग्य प्रदोष/मनाचे संतोष /

फुकाचे आक्रोश/ भाषेविन //

सुखाचे गगन /दिक्षेचे सदन /

अध्याय चंदन /भाषागंध //

अक्षरांची प्राप्ती /त्रिखंडात व्याप्ती /

तत्वनिष्ठ तृप्ती /मराठीच //

सन्मान निमीत्त / गौरवऔचित्य/

मनाचा अमात्य /आत्मानंद //

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #226 ☆ पाचर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 226 ?

☆ पाचर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

शांत वाटला प्रशांत सागर

तांडव करतो माझा शेखर

*

आमिष मोठे दाखवितो अन

हाती देतो नुसते गाजर

*

हलावयाला जागा नाही

अशी ठोकली त्याने पाचर

*

संस्काराचे कुळ फाशीला

लोक बेगडी त्यांचा आदर

*

सोबत सागर असून माझ्या

तहानलेली माझी घागर

*

हरामखोरी कोठे पचते

कष्ट करूनी खावी भाकर

*

मूषक दिसता दूध सोडुनी

मागे धावत सुटली मांजर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ माझी मराठी… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

सौ.वनिता संभाजी जांगळे

🌸 विविधा 🌸

☆ माझी मराठी… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

मराठीचा उगम आणि इतिहास –

पुर्वीच्या काळी मानव जेव्हापासून समुह करून राहू लागला तेंव्हा आपले विचार ,भावना समोरच्या पर्यंत पोहचविण्याकरिता विशिष्ठ हावभाव , कृती, बोली यांचा वापर करू लागला. यातूनच पुढे भाषेचा उगम झाला. अशीच आर्य समाजाची भाषा म्हणजे आपली मुळ मराठी. संस्कृत भाषेच्या प्रभावातून निर्माण झालेल्या प्राकृत भाषेच्या महाराष्ट्र या बोलीभाषेतून मराठी भाषेचा उदय झाला. प्रदेशानुसार संस्कृत भाषेचा अपभ्रंश होऊन नविन भाषांनी जन्म घेतला त्यातील एक म्हणजे आपली मातृभाषा मराठी आहे. तसे पाहता मराठी भाषेचा इतिहास हजारों वर्षापूर्वीचा मानला जातो. संस्कृत भाषेला मराठी भाषेची जननी मानले जाते. मराठी भाषेतील पहिले वाक्य ‘श्रवणबळ येथील शिलालेखावर ‘ सापडले . तसेच ज्ञानेश्वरांना मराठीतील आद्यकवी मानले जातात. त्यांनी भगवदगीता सर्वसामान्य मराठी माणसाला कळावी यासाठी तिचे मराठीत रूपांतर केले. ती ज्ञानेश्वरी म्हणून हजारों लोक आजही वाचतात.

मराठीचा प्रवास –

आपल्या मराठी भाषेला सुसंस्कृत ,समृद्ध  ,आणि श्रीमंत मानले जाते. कितीतरी कोटी लोक आज मराठी भाषा बोलतात. मराठी ही महाराष्ट्रातील संस्कृतीचा जणू मुकूटच आहे.  देशाच्या उत्तरेकडील प्रदेशात अस्तित्वात आलेली ही बोली आज सातपुडा पर्वत ते कावेरी प्रांत आणि दक्षिणेकडील गोवा इथपर्यंत मराठी भाषा बोलली जाते. आणि तिचा विकास झाला आहे. मराठी भाषेत  कोकणी मराठी  ,ऐराणी मराठी ,घाटी मराठी,  पुणेरी मराठी,  विदर्भ- मराठवाड्यात बोलली जाणारी मराठी असे बरेच पोटप्रकार आहेत. म्हणतात ‘ मराठी ही अशी बोली आहे ती प्रत्येक दहा मैलावर बदलते.’ संत ज्ञानेश्वर यांना मराठीतील पहिले आद्यकवी मानले जाते. त्यानंतर चक्रधर स्वामींनी लिळाग्रंथ हा पहिला पद्य चरित्रग्रंथ लिहला. तेथून पुढे पद्य लिखाणास सुरुवात झाली. त्यानंतर संत एकनाथ, संत तुकाराम याच्यापासून ते आतापर्यंतच्या अनेक लेखक आणि कवींनी त्यांचे कितीतरी लिखाण मराठी साहित्याला बहाल केले आहे.संत ज्ञानदेव, संत तुकाराम ,संत एकनाथ त्यानंतर ग.दि.मा.,कुसुमाग्रज  ,पु.ल देशपांडे, प्र.के. अत्रे इत्यादि व आताचे सर्व जेष्ठ साहित्यीक यांनी मराठी भाषेलाअलंकारीक करून अधीक समृद्ध केली आहे. मराठी भाषेचा उत्कर्ष आणि विकास होण्यास या सर्वांचे मोलाचे योगदान आहे.  संतानी आपल्या माय मराठीचे बीज रूजविले . तिचा वटवृक्ष करण्याचे काम ग.दि.मा. ,कुसुमाग्रज ,पु.ल देशपांडे ,प्र. के. अत्रे

बालकवी,वि.स.खांडेकर इत्यादि नामांकित साहित्यीक व आताचे जेष्ठ आणि नवोदित साहित्यीक यांनी केले आहे. या सर्वांनी आपल्या साहित्याचा ठसा मराठी मनात रूजविला आहे. अनेक ग्रंथ  ,कथासंग्रह ,नाट्यसंग्रह ,काव्यसंग्रह यातून  ‘माय मराठीचे ‘बीज रूजविले आहे आणि आजही ते कार्य चालूच आहेत. विशेष म्हणजे अनेक लोकगीते,कोळी गीते ,लावण्या हे तर आपल्या मराठी संस्कृतीचे खास आकर्षण ठरले आहे. सर्वच साहित्यातून मराठी संस्कृतीचे दर्शन , जडण-घडण ,आणि वारसा अखंडितपणे पुढे चालत आहे. काळाप्रमाणे पाहिले तर मराठीचा उगम ते आतापर्यंतचा मराठीचा प्रवास खूपच चांगला चालला आहे. मराठी भाषा ही मराठी माणसाचा अभिमान  आणि ओळख आहे.

माय मराठीची सद्यस्थिती आणि भविष्य

अनेक साहित्यीकांच्या अमुल्य योगदानातून मराठी भाषेची मुळे खुपच खोलवर गेली आहेत. पण येणाऱ्या मराठी भाषिकांच्या आणि नवोदित साहित्यीकांच्या मराठी बद्दलची भावना व प्रेम यातूनच तिची खोलवर गेलेली मुळे तग धरून राहतील. तसे पाहिले तर आज नवोदितांचे लिखाण पण मोठ्या प्रमाणात समोर येत आहे. छोट्या-मोठ्या खेड्यातून सुध्दा  ‘ मराठी साहित्य संमेलन ‘आयोजित केली जात आहेत. मराठी ही महाराष्ट्राची अधिकृत भाषा मानली जाते. आज सर्वच शाळांतून सुध्दा मराठी भाषा हा सक्तीचा विषय केला जात आहे आणि तो असावाच. त्यामुळे बालवयापासूनच मुलांच्या मनावर मराठी रूजत आहे . मराठी भाषेला अखंडित आणि माय मराठीची ज्योत सदैव तेवत ठेवण्याचे काम हे मराठी साहित्यिक आणि प्रत्येक मराठी माणसाचे आहे. आणि  ‘महाराष्ट्राला अखंडित ठेवण्याचे बळ हे माय मराठी बोलीतच आहे ‘  मराठी भाषा ही भारतात तिसर्‍या क्रमांकावर बोलली जाणारी भाषा आहे.  माय मराठी भाषा महान ,अधिक दर्जेदार व्हावी  हे प्रत्येक मराठी साहित्यीकाचे आद्यकर्तव्य आहे. मराठी वाचकांनी चांगला प्रतिसाद देऊन मराठी भाषा टिकवून ठेवणे ही काळाची गरज आहे. आपल्यानंतर येणाऱ्या प्रत्येक पिढीला मराठी भाषेचे ज्ञान अवगत असावे. आपल्या माय मराठीचा वारसा त्यांनी सहजतेने जपला जावा याकरिता आपण माय मराठीचा जागर सदैव चालू ठेवावा. मराठी भाषेचे मानाचे स्थान सुनिश्चित व चिरकाल टिकून रहावे याकरिता प्रत्येक मराठी माणसाने सदैव प्रयत्नशील रहावे.  ‘आपल्या मराठीच्या वटवृक्षावर बांडगुळ म्हणून वाढणाऱ्या परप्रांतीय भाषांना महत्त्व न देता , मी महाराष्ट्राचा आणि मराठी बोलीचा ‘हेच तत्व अंगीकारावे. आज महाराष्ट्रा बाहेर सुध्दा अनेक मराठी साहित्य संमेलन घडून येतात ही महाराष्ट्रासाठी गौरवास्पद गोष्ट आहे. महाराष्ट्राला अखंडित ठेवण्याकरिता चला मराठी बोलूया  ,चला मराठी गावूया  ,चला मराठी जगूया आणि चला मराठीला जगवूया.

“सह्याद्रीच्या रांगांमधून

नाद घुमावा मराठी बोलीचा

महाराष्ट्राच्या मनामनातून

शब्द रूजावा माय मराठीचा “

© सौ.वनिता संभाजी जांगळे

जांभुळवाडी-पेठ, ता. वाळवा, जि. सांगली, दुरभाष्य क्रमांक-९९२२७३०८१५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘मराठी राजभाषा गौरव दिन’ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? विविधा ?

☆ ‘मराठी राजभाषा गौरव दिन’ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

“माझा मराठी चा बोल कौतुके।

परि अमृताते  ही  पैजा जिंके।

ऐसी अक्षरे रसिके।

मेळवीन ।।”

(ज्ञानेश्वरी-अध्याय सहावा)

नमस्कार मैत्रांनो,

२७ फेब्रुवारी हा मराठी भाषेला गौरवान्वित करणारा सुवर्णदिन! २०१३ पासून हा दिवस ‘मराठी राजभाषा गौरव दिन’ म्हणून साजरा केला जात आहे. विष्णू वामन शिरवाडकर उर्फ तात्यासाहेब शिरवाडकर (२७ फेब्रुवारी १९१२ – १० मार्च १९९९) हे मराठी भाषेतील अग्रगण्य कवी, लेखक, नाटककार, कथाकार व समीक्षक होते. त्यांनी कुसुमाग्रज या टोपणनावाने कवितालेखन केले. कुसुमाग्रजांना सहा भाऊ आणि कुसुम नावाची एक लहान बहीण होती, ही एकुलती एक बहीण सर्व भावांना जीव की प्राण सर्वांची लाडकी, म्हणून कुसुमचे अग्रज   अर्थात  ‘कुसुमाग्रज’ असे नाव त्यांनी धारण केले.समाजाभिमुख लेखन करणाऱ्या मराठी लेखकांमधील हे शिखरस्थ नाव! बहुउद्देशीय आणि बहुरंगी लेखनकलेचे उद्गाते असे कुसुमाग्रज जितक्या ताकदीने समीक्षा करीत इतक्याच हळुवारपणे कविता रचित. रसिकांच्या मनात ज्या नाटकाचे संवाद घर (उदाहरण द्यायचे तर ‘कुणी घर देता का घर) करून आहेत, असे ‘नटसम्राट’ नाटक, ज्याच्या लेखनाने कुसुमाग्रज ज्ञानपीठ विजेते (१९८७) ठरले! शिरवाडकरांचे वर्णन सरस्वतीच्या मंदिरातील देदीप्यमान रत्न असे केल्या गेले आहे. वि.स. खांडेकर (त्यांना ययाती कादंबरीकरता हा १९७४ मध्ये हा सर्वोच्च पुरस्कार मिळाला) यांच्यानंतर मराठी साहित्यात ज्ञानपीठ पुरस्कार मिळवणारे ते दुसरे साहित्यिक होते. त्यांचा जन्म दिवस (२७ फेब्रुवारी) हा मराठी भाषा गौरव दिन अथवा मराठी राजभाषा दिवस म्हणून साजरा केला जातो. संतसाहित्यात तर संत ज्ञानेश्वरांनी (१२९०) वरीलप्रमाणे मऱ्हाटी भाषेचे केलेलं हे कौतुक! आपली मराठी भाषासुंदरी म्हणजे ‘सुंदरा मनामधिं भरलि’ अशी रामजोशींच्या स्वप्नातील लावण्यखणीच जणू! अमृताहुनी गोड अशा ईश्वराचे नामःस्मरण करतांना मराठीची अमृतवाणी ऐकायला आणि बोलायला किती गोड, बघा ना: ‘तिन्ही लोक आनंदाने आनंदाने भरुन गाउ दे रे, तुझे गीत गाण्यासाठी सूर लावु दे रे!’    

या महाराष्ट्रात निर्माण झालेले साहित्य म्हणजे साक्षात अमृत ठेवाच! ज्या महाराष्ट्रात गर्भश्रीमंत सुविचारांची अन अभिजात संस्कारांची स्वर्णकमळे प्रफुल्लित आहेत, जिथे भक्तिरसाने ओतप्रोत अभंग अन शृंगाररसाने मुसमुसलेली लावण्यखणी लावणी ही बहुमोल रत्ने एकाच इतिहासाच्या पेटिकेत सुखाने नांदतात, तिथेच रसिकतेच्या संपन्नतेचे नित्य नूतन अध्याय लिहिले जातात. या अभिजात साहित्याचे सोने जितके लुटावे तितके वृद्धिंगत होणारे! म्हणूनच प्रश्न पडतो की मराठीला ‘अभिजात भाषा’ म्हणून सरकारदरबारी मान्यता मिळायला आणखी किती समृद्ध व्हावे लागेल? पैठणीसारखे महावस्त्र नेसल्यावर आणखी कुठले वस्त्र ल्यायचे तिने?

मराठी भाषेचे पोवाडे गायला, तिच्या लावण्याच्या लावण्या गायला आणि तिच्यावरील भक्ती दर्शवण्याकरता अभंग म्हणायला मराठीच हवी. तिचे स्तवन, कीर्तन, पूजन, अर्चन इत्यादी करणारे महान साहित्यिकच नाही तर सामान्य माणसे कुठे हरवली? शब्दपुष्पांच्या असंख्य माळा कंठात लेऊन सजलेली आपली अभिजात मायमराठी आज आठशे खिडक्या नऊशे दारं यांतून कुठं बरं बाहेर पडली असावी? ‘मराठी इज अ व्हेरी ब्युटीफुल ल्यांगवेज!’ असे कानावर पडले की संस्कृतीचे माहेरघर अशी मराठी असूनही, तिच्या हृदयाला घरे पडतील अशी मराठी ऐकून! सगळं ‘चालतंय की’ असे म्हणत म्हणत ‘ती मराठी’ शासकीय आदेशांत बंदिस्त झाली. 

‘मी मराठी’ चा गजर करणारे आपण मराठी साहित्य विकत घेऊन मुलांना ते वाचण्याकरिता किती प्रवृत्त करतो? मराठी सिनेमे घरीच बघत का आनंद मानतो? मराठी नाटकसुंदरीची खरी रंगशोभा रंगमंचावर! कुठलीही भाषा शिकण्याचा प्रारंभ पाळण्यातून होतो. (गर्भसंस्कार विचारात घेतले तर गर्भावस्थेतच) बाळ जन्माला आल्यावर त्याच्या कणावर जे पडते ते अति महत्वपूर्ण शिक्षण! हे बाळ भाषेचा पहिला उच्चार ‘आई’ म्हणून करते का ‘मम्मी’ म्हणून? थोडा मोठा झाला की ते ‘nursary rhymes’ शिकते की रामरक्षा अथवा शुभंकरोती?

बरे, मराठी माध्यमात आपल्या मुलांना शिकवण्याची उर्मी कुणात आहे? मराठी माध्यमातील शाळेत मुलाने जावे हे बऱ्याच पालकांना पटणार नाही. मात्र एक भाषा म्हणून मराठीची निवड करणे अत्यावश्यक आहे. सरकारी पातळीवर हे कार्य सुरु आहेच. मराठी भाषेची गोडी निर्माण होईल असे मराठी भाषेतील साहित्य, नाटके, सिनेमे पालकांनी आणि शिक्षकांनी मुलांना उपलब्ध करून द्यावेत. मला याहीपेक्षा महत्वाचा मुद्दा असा वाटतो की, पालक, आजी, आजोबा आणि शिक्षकांनी यांनी मुलांशी मराठी भाषेतून संवाद साधावा. प्रत्येक मराठी घराघराने किमान एक तास आपल्या भाषेला समर्पित करावा. त्यात अस्खलित मराठी बोलणे, अभिजात मराठी साहित्य वाचणे, सुंदर मराठीत जे असेल ते श्राव्य साहित्य ऐकणे, हे उपक्रम राबवावेत. यात टी व्ही/ ओ टी टी या माध्यमातील मराठी सिरीयल/ सिनेमे इत्यादींचा समावेश नसावा. रोज रोज ती भाषा कानावर पडल्यावर अथवा नजरेखालून गेल्यावर मुलांना आपोआपच ‘मराठी भाषेतून विचार करण्याची’ सवय लागेल. मराठी शुद्धलेखन शिकायचे तर कुठल्याही (शाळेतील पाठ्यक्रम सोडून) अवांतर विषयावर मुलांनी रोज पानभर मजकूर लिहावा किंवा रोजनिशी लिहिण्यास मराठीचा वापर करणे अत्युत्तम!

मात्र यात पालक कुटुंबातील सदस्य, समाजातील व्यक्ती आणि महाराष्ट्र सरकार, या सर्वांच्या सहकार्याशिवाय मराठी भाषेचे संस्कार मुलांवर होणार नाहीत. यासाठी हृदयातून साद यायला हवी ‘माझी माय मराठी!’

या लेखाची सांगता कविवर्य सुरेश भटांच्या प्रेरणादायी मराठी गौरव गीताने करते.

लाभले आम्हास भाग्य बोलतो मराठी

लाभले आम्हास भाग्य बोलतो मराठी, जाहलो खरेच धन्य ऐकतो मराठी,

धर्म, पंथ, जात एक जाणतो मराठी, एवढ्या जगात माय मानतो मराठी,

आमुच्या मनामनात दंगते मराठी, आमुच्या रगारगात रंगते मराठी,

आमुच्या उरा उरात स्पंदते मराठी, आमुच्या नसानसात नाचते मराठी

आमुच्या पिलापिलात जन्मते मराठी, आमुच्या लहानग्यात रांगते मराठी

आमुच्या मुलामुलीत खेळते मराठी, आमुच्या घराघरात वाढते मराठी

आमुच्या कुलाकुलात नांदते मराठी, येथल्या फुलाफुलात हासते मराठी

येथल्या दिशादिशात दाटते मराठी, येथल्या नगानगात गर्जते मराठी

येथल्या दरीदरीत हिंडते मराठी, येथल्या वनावनात गुंजते मराठी

येथल्या तरुलतात साजते मराठी, येथल्या कळीकळीत लाजते मराठी

येथल्या नभामधून वर्षते मराठी, येथल्या पिकांमधून डोलते मराठी

येथल्या नद्यांमधून वाहते मराठी, येथल्या चराचरात राहते मराठी

पाहुणे जरी असंख्य पोसते मराठी, आपुल्या घरात हाल सोसते मराठी

हे असे कितीक खेळ पाहते मराठी, शेवटी मदांध तख्त फोडते मराठी

सुरेश भट

प्रिय वाचकांनो, मराठी भाषेच्या अभिजात सौंदर्याला नटवणाऱ्या आणि सजवणाऱ्या काना, मात्रा अन वेलांट्यांची शप्पथ, माझी अमृताहुनी गोड मराठी मला अतिप्रिय आणि तुम्हाला? 

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक – २७ फेब्रुवारी २०२४

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ आला किनारा… कुसुमाग्रज ☆ रसग्रहण – सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

? काव्यानंद ?

☆ आला किनारा… कुसुमाग्रज  ☆ रसग्रहण – सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

२७ फेब्रुवारी, कुसुमाग्रज यांच्या जन्म दिवसाच्या निमित्ताने

कुसुमाग्रज म्हणजे शब्दांची, कल्पनांची मुक्त उधळण करणारा अवलिया! मराठी वरचं प्रेम, देशावरचं प्रेम, समाजावरचं प्रेम, निसर्गावरचं प्रेम अशा अनेक अंगांनी वाहणारा कवितांचा अखंड झरा! समाजातील विषमता, जाती – जातीतले भेद, अस्पृश्यतेचा कलंक यावर कवितांतून कोरडे ओढणारा समाजवादी! हा तर सरस्वतीच्या मुकुटातला लखलखणारा हिरा!

अशा या शब्दप्रभू च्या स्मृती जागविण्याचा आजचा दिवस! अर्थात कधी एखाद्या दिवसासाठी सुध्दा विस्मरणात जावा, असा हा माणूसच नाही.किमान पक्षी रोज त्यानं पाठीवर हात ठेऊन “लढ” म्हणावं, असं तरी प्रत्येकाला वाटतंच. मी आज त्यांच्या विस्मरणात चाललेल्या सुंदर कवितेची आठवण करून देणार आहे.विस्मरणात चाललेली असं म्हणायचं एकच कारण, मला ही कविता गुगल गुरू कडे मिळाली नाही, त्यावरचा एकही लेख, आठवण काहीही मिळालं नाही. आठवणीतील गाणी यावर सुध्दा मिळाली नाही. शेवटी ती मला टाईप करावी लागली.

मी कधीच ही कविता विसरू शकणार नाही. आम्ही मैत्रिणी सांगलीतील गायिका स्मिता कारखानीस यांच्याकडे गाण्याच्या क्लासला जात होतो.रिटायरमेंट नंतर सुचलेली कला असल्यामुळे त्या सोपी सोपी गाणी शिकवतील आणि निदान गुणगुणण्या एवढं तरी गाणं यायला लागेल अशी माफक अपेक्षा होती. त्या जरा धाडसी शिक्षिका निघाल्या. त्यांनी आम्हाला ही कुसुमाग्रजांची कविता, आम्ही कुठेही कधीही न ऐकलेली, त्यांनी स्वतः चाल लावलेली, शिकविली.तशी चाल अवघड होती, त्यामुळं गाणं चांगलं म्हणायला जमलं नाही, पण इतकी सुंदर कविता कळली, गुणगुणता आली, त्यामुळे पाठ झाली, याचा प्रचंड आनंद होता. त्यासाठी स्मिताला मनापासून  धन्यवाद!

कुसुमाग्रज हे स्वातंत्र्य संग्रमाचा दाह सोसलेले आणि नंतर स्वातंत्र्याचा आनंद अनुभवलेले होते. त्यांच्या बऱ्याच कविता या विषयावरच्या आहेत. त्यांनी हताश होवून सुवर्ण महोत्सवाच्या वेळी लिहिलेली ‘स्वातंत्र्य देवीची विनवणी ‘ ही कविता आज अमृत महोत्सव साजरा झाला असला तरी वर्तमानाला साजेशीच वाटते. कवितेमधून सत्य परखडपणे मांडण्याचं कसब आणि तो सच्चेपणा त्यांच्यात होता.

मी घेतलेली आजची कविता स्वातंत्र्य संग्रामाशी निगडित असली तरी आनंद घेऊन आली आहे. ज्या क्षणाची सगळे वाट पहाट होते तो क्षण जवळ येऊन ठेपला आहे, हे सांगणारी ही कविता आहे.भारतमातेच्या सुपुत्रानी एक खूप मोठ्ठं स्वप्न पाहिलं. त्याच्या पूर्ततेसाठी लाखो लोकांनी अनेक तपे अथक परिश्रम केले. या मार्गात असंख्य अडचणी, अगणित वेदना आहेत हे ठाऊक असूनही, मार्ग सोडला नाही. कारावास भोगला, प्राणांची आहुती दिली, कुटुंबाची होळी केली. जीवाची पर्वा न करता या खवळलेल्या सागरात उडी घेऊन आयुष्य पणाला लावलं. आता किनारा जवळ आला आहे, तो स्वप्नपूर्तीचा क्षण जवळ आला आहे. आता सगळे श्रम संपणार आहेत. ज्यांच्या समर्पणाने आजच्या या क्षणाला आकार दिला त्यांच्या स्मृतीला गौरवाने वंदन करुया आणि किनाऱ्यावर जयाचे झेंडे उभारुया. या अर्थाची सुंदर कविता तुम्हाला स्मिताच्या You tube channel वर त्यांच्या गोड आवाजात ऐकायला मिळेल.

निनादे नभी नाविकांनो इशारा,

आला किनारा, आला किनारा

*

उद्दाम दर्यामध्ये वादळी,

जहाजे शिडावून ही घातली

जुमानित ना पामरांचा हाकारा

आला किनारा, आला किनारा

*

सरायास संग्राम आला आता

तपांची समोरी उभी सांगता

युगांच्या श्रमांचा दिसे हा निवारा

आला किनारा, आला किनारा

*

प्रकाशे दिव्यांची पहा माळ ती

शलाका निळ्या लाल हिंदोळती

तमाला जणू अग्निचा ये फुलोरा

आला किनारा, आला किनारा

*

जयांनी दले येथ हाकारली

क्षणासाठी या जीवने जाळली

सुखेनैव स्विकारुनि शूल – कारा

आला किनारा, आला किनारा

*

तयांच्या स्मृती गौरवे वंदुनी

उभे अंतीच्या संगरा राहुनी

किनाऱ्यास झेंडे जयाचे उभारा

आला किनारा, आला किनारा

*

अशा या शब्दप्रभूला त्रिवार वंदन!!!

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ किंमत – भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

? जीवनरंग ?

☆ किंमत – भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी

(नशिबाने शेठजींना दुसरा माणूस मिळाला.पण तो चार हजार पगारावर अडून बसला.शेवटी राजूशेठना त्याचं ऐकावं लागलं.येत्या सोमवारपासून तो कामावर येणार होता.) – इथून पुढे 

सोमवार उजाडला.शेठजी दुकानात आले.अजून ग्राहकांची वर्दळ सुरु व्हायची होती.प्रदीपला दुकानात पाहून त्यांना आश्चर्य वाटलं

“काय रे विचार बदलला की काय तुझा?”

प्रदीप हसून म्हणाला

“नाही शेठजी.या नवीन दादांना काम समजावून सांगायला आणि सगळ्यांना शेवटचं भेटून घ्यायला आलोय”

“बरं बरं” 

प्रदीप आणि तो नवीन माणूस आत गेला.शेठजी खुर्चीवर बसत नाही तो एक आलिशान कार दुकानासमोर उभी राहिली.आजची सकाळ एका दांडग्या ग्राहकाने सुरु होणार याचा शेठजींना आनंद झाला.

” बोला साहेब “ती व्यक्ती आत आल्यावर शेठजी म्हणाले

” प्रदीपला घ्यायला आलोय”

शेठजींनी एकदा कारकडे पाहिलं.एका मामुली सफाईकामगाराला घेण्यासाठी हा देखणा माणूस एवढी आलिशान कार घेऊन यावा याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं.या माणसाकडे तर प्रदीप कामाला लागला नाही?

“प्रदीप कोण आपला?”त्यांनी साशंक मनाने विचारलं

” प्रदीप मुलगा आहे माझा”

“काय्यsssप्रदीप तुमचा मुलगा?”

तेवढ्यात प्रदीप बाहेर आला.आल्याआल्या त्याने वेगाने धावत जाऊन त्या माणसाला मिठी मारली

” पप्पाsss” असं त्याने म्हणताच 

त्या माणसाने त्याला मिठीत घेतलं आणि तो ढसाढसा रडू लागला.सगळे सेल्समन,नोकर जमा झाले.प्रदीपही रडत होता.हे काय गौडबंगाल आहे हे कुणाला कळेना.थोडा वेळाने प्रदीप जरा बाजुला झाला तसा तो माणूस म्हणाला.

” शेठजी मी ओंकारनाथ.माझी धुळ्यात चटईची फँक्टरी आहे.दोन इंडस्ट्रीयल वर्कशाँप आहेत.अगोदर मीही एक कामगार होतो.मेहनतीने आणि देवक्रुपेने फँक्टरीचा मालक झालो.मी गरीबी पाहिली आहे.कित्येक दिवस उपाशी राहून आयुष्य काढलं आहे.पण आमची मुलं तोंडात चांदीचा चमचा घेऊन आली आहेत.त्यांना पैशाची,श्रमाची,माणसांची किंमत नाही.हा माझा अति लाडावलेला मुलगा माझ्या फँक्टरीत यायचा.तिथल्या कामगारांवर रुबाब करायचा.लहानमोठा बघायचा नाही.वाटेल ते बोलायचा.माझ्या कानावर आलं होतं पण एकूलत्या एक मुलावरच्या प्रेमापोटी मी चुप बसायचो.एक दिवस त्याने लिमीट क्राँस केली. आमच्या सफाई कामगाराला वाँशरुम नीट साफ केलं नाही म्हणून सगळ्या कामगारांसमोर शिव्या दिल्या.साठी उलटलेला तो माणूस.त्याच्या मनाला ते लागलं.तो माझ्याकडे रडत आला आणि “माझा हिशोब करुन टाका.मला आता इथे रहायचं नाही “असं म्हणू लागला.माझं डोकं सरकलं.मी याला बोलावलं.म्हाताऱ्याची माफी मागायला लावली तर हा आपल्या मस्तीत.सरळ माफी मागणार नाही म्हणाला.मी उठून त्याच्या मुस्काटात मारली आणि त्याला म्हणालो की तुझ्यात एवढी मग्रुरी आहे ना तर तू मला महिनाभर सफाईचं काम करुनच दाखव.त्याने माझं चँलेंज स्विकारलं पण आपल्याच फँक्टरीत सफाई करण्याची त्याला लाज वाटत होती.मला म्हणाला मी जळगांवला जातो आणि तिथे काम पहातो.मीही संतापात होतो म्हणालो तू कुठेही जा.पण हेच काम करायचं आणि महिन्याने मला सांगायचं कसं वाटतं ते!त्याचा एक गरीब शाळकरी मित्र जळगांवच्या समता नगरात रहातो.त्याच्याकडे तो आला.तुमच्या दुकानात कामाला लागला.मला फोन करुन त्याने हे सांगितलं. मला वाईट वाटलं.शेवटी बापाचं मन ते.पण म्हंटलं उतरु द्या याची मस्ती.अशीही त्याला सुटीच होती.रिकाम्या टवाळक्या करण्यापेक्षा आयुष्य किती खडतर आहे हे तरी शिकेल.म्हणून मी काहीही चौकशी केली नाही.मागच्या आठवड्यात त्याचा फोन आला खुप रडला.म्हणाला ‘मी आता खुप सुधारलो आहे.मी आठवड्याने परत येतो घरी’ मी म्हंटलं ‘मीच येतो.बघतो तुझं दुकान आणि तू कायकाय काम करत होतास ते’ म्हणून आज मी ते बघायला आणि त्याला घ्यायला आलोय”

राजूशेठ ते ऐकून अवाक झाले. म्हणाले

” तरीच मला वाटत होतं की हा मुलगा सफाईच्या कामाला योग्य नाहिये.पण हा काम तर छान करत होता”

प्रदीप हसला

“नाही शेठजी.मला सुरवातीला काम जमत नव्हतं पण या सगळ्या काकांनी मला खुप मदत केली.मी डबा आणत नव्हतो कारण मित्राची आई खरंच आजारी असायची पण महिनाभर यांनी त्यांच्या घासातला घास मला भरवला.माझ्याकडून खुप चुका व्हायच्या पण ते माझ्यावर कधी रागावले नाहीत.मला त्यांनी खुप सांभाळून घेतलं”

प्रदीप परत रडायला लागला तसं भास्करने त्याला जवळ घेतलं.

“अरे बेटा आपण सगळेच पोटापाण्यासाठी नोकरी करतो ना?मग आपण एकमेकांना सांभाळून घ्यायला नको?”

” हो काका.पण मला हे समजत नव्हतं.आता ते कळायला लागलं.पप्पा तुम्ही मला म्हणत होते ना की मला पैशाची, श्रमांची किंमत नाही म्हणून.मला इथं आल्यावर मेहनतीची ,पैशांची,माणसांची,अन्नाची सगळ्यांची किंमत कळायला लागलीये.पप्पा शेठजींची तीन मोठी दुकानं आहेत जळगांवात, पण त्यांना कसलाही गर्व नाही.ते कुणाशीच कधीही वाईट वागले नाहीत.कारण त्यांना माणसाच्या कष्टाची जाणीव आहे.त्यांच्या घरी काहीही कार्यक्रम झाला की ते दुकानात सगळ्यांना मिठाई वाटायचे.कधीही गरीब -श्रीमंत असा भेदभाव त्यांनी केला नाही “

“बेटा हेच मला हवं होतं.तुला ते शेवटी कळलं यातच मला समाधान वाटतंय” 

” चला साहेब तुम्हांला दुकान दाखवतो” राजूशेठ प्रदीपच्या वडिलांना म्हणाले “आणि भास्कर जरा सगळ्यांसाठी मिठाई घेऊन यायला सांग.आज एक बिघडलेला मुलगा माणसात आलाय याचा मलाही खुप आनंद होतोय” 

ते तीन मजली भव्य दुकान पाहून प्रदीपच्या वडिलांना प्रदीपच्या मेहनतीची कल्पना आली.त्यांचे डोळे भरुन आले.आलेली मिठाई खाऊन झाल्यावर ते म्हणाले.

“चला मंडळी.आता निघायची वेळ आली.तुम्ही सर्वांनी माझ्या या नाठाळ मुलाला सांभाळून घेतलं त्याबद्दल तुमचे मनापासून आभार.आणि हो पुढच्या महिन्यात प्रदीपचा वाढदिवस आहे.तुम्ही सगळ्यांनी धुळ्याला पार्टीला जरुर यायचं आहे.गाडी करुनच या सगळे.खर्चाची काळजी करु नका.गाडीचा खर्च मी करेन.”

प्रदीप उठला .सगळ्या सेल्समन आणि नोकरांच्या पाया पडला.मग शेठजींकडे आला तसं शेठजी त्याला जवळ घेऊन म्हणाले

“बेटा तुझ्या वडिलांनी आणि तु ही नव्या पिढिसाठी एक आदर्श घालून दिलाय”

प्रदीप आणि त्याचे वडील गाडीत जाऊन बसले तसे सर्वजण त्यांना निरोप द्यायला बाहेर आले.गाडी निघाली.निरोपाचे हात हलले.

प्रत्येकजण आत येऊन आपापल्या कामाला लागला.शेठजींना काऊंटरवर  बसल्यावर आपल्या अशाच बिघडलेल्या मुलाची आठवण झाली. सध्या तो पुण्यात इंजीनियरींग करत होता.तो करत असलेले रंगढंग,त्याला लागलेली व्यसनं त्यांच्या कानावर आली होती.त्याला सुधारण्यासाठी प्रदीपसारखं काही करता येईल का याच्या विचारात ते गढून गेले.

– समाप्त – 

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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