(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ जब सारा विश्व राममय हो रहा है, तब प्रासंगिक कृति – “रघुवंशम” – श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ पुस्तक चर्चा – आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी ☆
कृति चर्चा
पुस्तक. . . महा कवि कालिदास कृत महा काव्य रघुवंश का हिन्दी पद्यानुवाद
पद्यानुवादक. . प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध
प्रकाशक. . . अर्पित पब्लीकेशन कैथल
मूल्य. . १५० रु
पुस्तक उपलब्ध.. ए २३३ , ओल्ड मिनाल रेजिडेंसी, जे के रोड, भोपाल ४६२०२३
☆ पुस्तक चर्चा – महा कवि कालिदास कृत महा काव्य रघुवंश का हिन्दी पद्यानुवाद… आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी ☆
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध कृत महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद एक उल्लेखनीय रचनाधर्मी कृति है. महाकाव्य की दृष्टि से और लयात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से रघुवंश मे १९०० से अधिक श्लोक हैं जिनका श्लोकशः छंद बद्ध हिन्दी काव्य अनुवाद कर प्रो श्रीवास्तव ने संस्कृत न जानने वाले , राम कथा में अभिरुचि रखने वाले करोड़ो हिनदी पाठको के लिये बहुमूल्य सामग्री सुलभ की है. अनूदित साहित्य सदैव भाषा की श्रीवृद्धि करता है. फिर यह अनुवाद इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो गया है कि विदग्ध जी के इस हिन्दी अनुवाद को आधार बनाकर अंगिका भअषा में रघुवंश का पद्यानुवाद भि किया गया है.
प्रो श्रीवास्तव की कृतियो में विषय प्रतिपादक के रूप मे उनके व्यक्तितत्व की अनेक धाराओ का दर्शन होता है. वे भारत की सांस्कृतिक वाणी संस्कृत के ज्ञानी , अच्छे पाठक और सहृदय भाव प्रवण अनुवादक है. मेघदूत का काव्यानुवाद वे पहले ही कर चुके है. उनके द्वारा किया गया भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद के कई संस्करण छप चुके हैं.
मूलतः रघुवंश बहुनायक महाकाव्य है. इसे अपूर्ण महाकाव्य कहा गया है. ऐसी जगह काव्य रूक गया है जहां के अनुभव बडे तिक्त और कटु है. महाकवि ने पुराण और महाभारत की वस्तु प्रतिपादन शैली का अवलंब लेकर रघु के वंश के प्रमुख चरित्रो पर यह काव्य रचना की है. रघु दिलीप अज दशरथ और राम के चरित्रो तक उज्जवलतम दीप मालिका राम के चरित्र के दीपस्तभं के रूप मे शिखर तक पहुचंती है. वही अग्निवर्ण जैसे घृणित राजसत्ता के उपजीव्य तक पहुचंते पहुंचते अधंकारमय हो जाती है. महाकवि कालिदास ने वहा पर ही महाकाव्य क्यों समाप्त किया इस पर भी एतिहासिक सामाजिक अकाल मृत्यु आदि आधारो पर विद्वानो ने अपने तर्क दिये है जो भी हो रघुवंश अपने वर्तमान रूप मे हमारे सामने है जो संपूर्ण संस्कृत महाकाव्य परंपरा से पृथक और विलक्षण है.
जहां तक काव्य सौष्ठव और भाव संपदा का प्रश्न है रघुवंशम संस्कृत वांगमय मे सर्वोत्तम और अद्वितीय है. अनुष्टुप जैसे छोटे छंदो में भी गहरी काव्य अनुभूति करना केवल महाकवि कालिदास के ही वश की बात थी. यही कारण है कि विश्व साहित्य में मेघदूत , अभिज्ञान शांकुलतम और रघुवंश का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने अपने स्वाध्याय प्रेमी व्यक्तित्व के कारण महाकवि कालिदास का पूरा साहित्य पढा और मुक्तको में श्रेष्ट मेघदूत तथा महाकाव्य में श्रेष्ठ रघुवंश को अनुवाद के लिये चुना. प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी की सहृदयता और वर्तमान विद्रूपता विशेषतः राजसत्ता की निरकुंश व्यवहार शैली ने उन्हें रघुवंश को हिंदी में अनुवाद करने के लिये चुनने हेतु प्रेरित किया होगा.
अनुवाद करना मूल रचनाकर्म से अधिक गूढ कार्य है. मूल रचना मे आपके काव्य संसार कविदेक प्रजापतिः यथास्मै रोचते विश्वं तथेंव परिवर्ततः अर्थात अपार काव्य संसार की सृष्टि करने के लिये कवि ही एकमात्र ब्रम्हा है. नये काव्य में स्वयं कवि ब्रह्मा जी की सृष्टि से भिन्न भी अपने संसार को जैसा रूप देना चाहता है वह देने मे समर्थ है. किंतु अनुवादक की सीमायें मूलकाव्य में बंधी होती हैं. बहुत भावाकुल होने पर भी उसे अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति को रोकना पडता है. दूसरी ओर कवि की आत्मा मे पर देह प्रवेश भी करना पडता है. यह परव्यक्ति अनुभव के तादाम्य मे समाधि की तरह है. वहां तक पहुंचना फिर योग्य शैली, पद्यति , पदावली और भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने मे कुशलता काव्य भाव अनुवाद से की जाने वाली महति अपेक्षाये है.
वैसे तो मेघदूत और रघुवंश के और भी अनुवाद हुये हैं, किंतु प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध की तन्मयता और अनुवाद कुशलता प्रशंसनीय है. कालिदास की कृतियो में एक गहरी दार्शनिकता भी है. जिसे उसी तरह भाव अनुदित करना दुष्कर कार्य है. अपने विशद अध्ययन से ही इसका समुचित निर्वाह करने में विदग्ध जी सफल हुये हैं. रघुवंश का प्रथम पद्य इसका उत्तम उदाहरण है. छोटे छंद अनुष्टुप में किया गया मंगलाचरण का अनुवाद करते हुये प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने लिखा है
जग के माता पिता जो पार्वती शिव नाम
शब्द अर्थ समएक जो उनको विनत प्रणाम
इसी भांति महाकवि कालिदास द्वारा दिलीप की गौसेवा का जो सुरम्य वर्णन किया गया है उसका अनुवाद भी दृष्टव्य है.
व्रत हेतु उस अनुयायी ने आत्म, अनुयायियो को न वनसाथ लाया
अपनी सुरक्षा स्वतः कर सके हर मुनज इस तरह से गया है बनाया
जब बैठती गाय तब बैठ जाते रूकने पे रूकते और चलने पे चलते
जलपान करती तो जलपान करते यूं छाया सृदश भूप व्यवहार करते.
रघु के द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अश्व की रक्षा के प्रसंग मे इंद्र से युद्ध करते हुये उसके महत्व को स्वंय इंद्र रेखांकित करते हुये कहते हैं. .
वज्राहत रघु के पराक्रम और साहस से
होकर प्रभावित लगे इंद्र कहने
सच है सदा सद्गुणो में ही होती है ताकत
सदा सभी को करने सदा वश मे
रघु की दिग्विजय के संदर्भ में कलिंग के संबंध मे अनुवाद की सहजता देखे
बंदी कर छोडे गये झुके कलिंग के नाथ
धर्मी रघु ने धन लिया रखी न धरती साथ
कौरव की गुरूदक्षिणा का संदर्भ देखें. . .
पर मेरे फिर फिर दुराग्रह से क्रोधित हो
मेरी गरीबी को बिन ध्यान लाये
दी चौदह विद्या को ध्यान रख
मुझसे चौदह करोड स्वर्ण मुद्रा मंगाये
अज अब इंदुमती के स्वंयवर के लिये आये है रात्रि विश्राम के बाद प्राप्त बंदिगण स्तुति कर रहे है. . .
मुरझा. चले हे पुष्प के हार कोमल औं फीकी हुई जिसकी दीप्त आभा
पिंजरे मे बैठा हुआ छीर भी यह जगाता तुम्हें कह हमारी ही भाषा
रघुवंश का छटवा संर्ग अत्यंत लोकप्रिय एवं आकर्षक है. इसकी उपमायें उत्प्रेक्षाये एवं उपमानो का अनुवाद अदभुत एवं पूर्णतः सार्थक है. इसी सर्ग के दीपशिखा के उपमान के कारण महाकवि कालिदास को दीपशिखा कालिदास कहा जाता है. इंदुमती के स्वंयवर में आये राजाओ का मनोरम वर्णन विज्ञ चारणो के द्वारा किया जा रहा है. उसके बाद इंदुमती की सखी एक एक राजाओ की वरण योग्य विशेषताये बता रही है.
तभी सुनंदा ने इंदुमती को मगध के नृप के समीप लाकर
सभी नृपो की कुलशील ज्ञाता प्रतिहारिणी ने कहा सुनाकर
महिष्मति के राजा प्रदीप का उसके पूर्वजो अनूप और सहस्त्रबाहु सहस्त्रार्जुन का परिचय देते हुये अंत मे सुनंदा ने कहा
इस दीर्घ बाहु की बन तू लक्ष्मी यदि राजमहलो की जालियो से
माहिष्मति की जलोर्मि रचना सी रेवा जो लखने की कामना है
इन छह पद्यो का अनुवाद श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ने बडे मनोयोग एवं भाव प्रबलता के साथ किया है. महाकवि कालिदास का उज्जयनी प्रेम प्रसिद्ध है. अनुवादक कवि विदग्ध भी इससे अछूते नही है.
अनुवाद दृष्टव्य है.
ये विशाल बाहु प्रशस्त छाती सुगढ बदन है अवंतिराजा
जिसे चढा शान पर सूर्य सी दीप्ति के गढता रहा है जिसको विधाता
इन पद्यो के द्वारा अनुवादक का संस्कृत भाषा का गहरा ज्ञान , काव्य का उत्तम अभ्यास और भाषातंर करने की प्रशंसनीय क्षमता का परिचय मिलता है. इसके अतिरिक्त ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो में दिये गये उनके योगदान से भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अनुभव होता है. इस परिपक्व वय मे ऐसी जिज्ञासा बौद्धिक प्रभाव और गतिशीलता दुलर्भ है. वे आज भी तरूण की भांति नगर की सांस्कृतिक एवं साहित्यीक गतिविधियों का गौरव बढा रहे है.
मै प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध को उनकी इस अनूदित कृति के लिये हृदय से बधाई देता हॅू. मुझे पूरा विश्वास है कि रघुवंश हिंदी पद्यानुवाद सुधिजनो को आल्हादित एवं उनकी ज्ञान पिपासा को संतुष्ट करेगी.
पुस्तक चर्चा – आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी
पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी उज्जैन
नर्मदा पुरम , जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वांतः सुखाय…“।)
अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे ढाई अक्षर प्रेम के आते हैं, और एक दो शब्द संस्कृत के भी आते हैं। पंडित बनने के लिए बस इतना ही काफी है। कुछ शब्द पूरे वाक्य का भी काम कर जाते हैं, जब कि होते वे केवल दो शब्द ही हैं। जय हो। नमो नमो और वन्दे मातरम्।
संस्कृत के दो शब्द जो मुझे संस्कृत का प्रकांड पंडित बनाते हैं, वे हैं स्वांतः सुखाय और वसुधैव कुटुंबकम् ! वैसे इन शब्दों का हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है, लेकिन वह प्रचलन के बाहर है। जो अपने कपड़े स्वयं धोकर सुखाए, वह स्वावलंबी कहलाता है और जो जगत को कृष्णमय देखता है, उसके लिए वासुदेव कुटुंबकम् है।।
कौन सुख के लिए नहीं जीता ! सुख की खोज ही मनुष्य का गंतव्य है। वह कर्म कैसे भी करे, वह जीता भी स्वर्गिक सुख के लिए है और मरने के बाद भी स्वर्ग की ही इच्छा रखता है। केवल सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है, दुख तो अपना साथी है।
पंडित भीमसेन जोशी तो कह गए हैं, जो भजे हरि को सदा, वो ही परम पद पाएगा ! हां अगर वे यह कहते, जो भजे हरि को सदा, वो ही प्रधानमंत्री का पद पाएगा, तो सभी राजनीतिज्ञ छलकपट, राग द्वेष और उठापटक छोड़ हरि का भजन करने लग जाते। वे यह अच्छी तरह से जानते हैं, प्रधानमंत्री का पद, परम पद से बहुत बड़ा है।।
जो अपने सुख की चिंता नहीं करते, वे सभी कार्य सर्व जन हिताय करते हैं ! उनका जीना, मरना, उठना बैठना, सब देश की अमानत होता है। वे अपने सुख की कभी परवाह नहीं करते। अपना पूरा जीवन चुनावी दौरों, विदशी दौरों, और सूखा और बाढ़ग्रस्त इलाकों के दौरों में गुजार देते हैं। न उनका कोई परिवार होता है, न सगा संबंधी।
अपने लिए, जीये तो क्या जीये, तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए। होते हैं कुछ सहित्यानुरागी, जिनका सृजन समाज को अर्पित होता है। वे अपने सुख के लिए नहीं लिखते, उनके लेखन में आम आदमी का दर्द झलकता है।
यही दर्द इन्हें विदेशों में हो रही साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है।जहां केवल आम आदमी की चर्चा होती है। वे किसी पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। लेकिन अगर उन्हें पुरस्कृत किया जाए, तो वे पुरस्कार का तिरस्कार भी नहीं करते।।
पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना ! आप अपने सुख के लिए ज़िन्दगी जीयें, अथवा समाज के लिए, सृजन आपका स्वयं के सुख के लिए हो या जन कल्याण के, आप अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। बस इतना जान लें, स्वांतः सुखाय में कोई प्रसिद्धि नहीं है, कोई पुरस्कार नहीं है, तालियां और हार सम्मान नहीं है …!!!
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “गंदगी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 159 ☆
☆ लघुकथा- गंदगी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” गंदगी तेरे घर के सामने हैं इसलिए तू उठाएगी।”
” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”
” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”
अभी दोनों आपस में तू तू – मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”
यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।
🙏 💐 जुझारू साहित्यकार डॉ.राजकुमार शर्मा अनंत में विलीन – विनम्र श्रद्धांजलि 💐🙏
28/1/24 को शाम 8 बजे, डॉ. राजकुमार शर्मा, जो प्रयागराज के विख्यात साहित्यकार थे, हमें छोड़कर चले गए। उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित किया और उनका योगदान अविस्मरणीय है। हमें एक महान साहित्यिक की कमी महसूस होगी, परंतु उनकी यादें हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेंगी।
डॉ राजकुमार शर्मा प्रयागराज के उन वयोवृद्ध साहित्यकारों में से थे जिन्होने अपना पूरा जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित कर दिया। देवबंद सहारनपुर से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए संभवत: 1956 में आए थे, इनको इलाहाबाद का साहित्यिक वातावरण इतना रुचा कि फिर यहीं के होकर रह गए। उन्होंने त्रिवेणी प्रकाशन की स्थापना की और अनेक लेखकों साहित्यकारों की पुस्तकों का प्रकाशन किया।
उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के संस्मरण पुस्तक लिखी। इसके अलावा देवता नहीं हूं मैं, मुक्तक शतक, रावण की निगाहें उनकी कहानियों और कविताओं के संकलन भी प्रकाशित हुये । वे जीवन पर्यन्त निःस्वार्थ भाव से साहित्यसेवा में निरंतर लगे रहे।
उन्होंने अखिल भारतीय हिन्दी सेवी संस्थान की स्थापना की जिसके माध्यम से वे अनेक वर्षो से इलाहाबाद में साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन करते रहे। महादेवी वर्मा के साथ साहित्यकार पत्रिका का सम्पादन भी किया।
उनकी धर्मपत्नी, श्रीमती सरोज शर्मा, भी एक उत्कृष्ट कवयित्री और लेखिका थीं। गत वर्ष 5 अक्टूबर को उनका भी देहांत हो गया था। उनके परिवार तीन बेटियां और एक पुत्र है।
🙏 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ राजकुमार शर्मा जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ “माझ्या मनांतील राम” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
22 जानेवारी 2024 हा ऐतिहासिक दिवस म्हणून संपूर्ण विश्वात नोंदवला गेला. पाचशे वर्षापासून प्रलंबित असलेले राममंदिर अखेर पूर्ण होऊन त्यात प्रभू श्रीरामचंद्रांच्या मनमोहक, सुहास्यवदन, राजीव लोचन असलेली रामलल्ला बालमूर्तिची प्राणप्रतिष्ठा करण्यात आली.या अशा एका ऐतिहासिक क्षणाने दाखवून दिले आहे की धर्म आणि श्रध्दा कधीही तसूभर कमी होत नाही.सत्य आणि न्याय यांचाच विजय होत असतो.
ज्याला शब्दरूपी चित्रित केलं महर्षी वाल्मिकींनी, ज्याला मोठ्या कौतुकाने, प्रेमानं गायलं तुलसीदासांनी, समर्थांनी ज्याला आळवलं असा प्रभू श्रीराम, ज्याने शबरीची उष्टी बोरं खाल्ली, रावणाचा तसाच कित्येक राक्षसांचा वध केला असा प्रभू श्रीरामचंद्र, सृष्टीवरच्या अवघ्या जीव-जंतुना ज्याने कृतार्थ केले आणि करत राहतो असा प्रभू श्रीरामचंद्र. कित्येक जणांनी त्यावर लिहिलं, गायलं, चित्रित केलं, त्यावर लिहिण्याचा, त्याचा नाम गाण्याचा, त्याच रूप चितरण्याचा तसा कित्येक माध्यमातून अनेक प्रकारे अनुपम आनंद लुटला, तरी तो नेहमीपेक्षा फार फार वेगळा उरतो. त्याच्या नामाची ओढ खुणावत राहते, रूपाची माधुरी भुरळ घालत राहते. दरवेळी नव्याने…
ज्याची तुलनाच होऊ शकत नाही अस सौंदर्य, पराक्रम, कृपा, असणारा प्रभू श्रीरामचंद्र तो मुळी दिसतोच रामासाररखा…
अनेक संत, महात्मे, भक्तांच्या मांदियाळीने ही रामकथा ओघवती प्रवाही नि जीवंत ठेवली. त्यात तुलसीराम, एकनाथ भागवत, समर्थ रामदास, गोंदवलेकर महाराज या सारखे अनेक रामभक्तांचं अपूर्व योगदान आहे.श्री प्रभू रामचंद्रांच्या जीवनावर तर अनेक ग्रंथ पूर्वीपासून उपलब्ध आहेत आणि आजही त्यात नव्याने भर पडत असतेच.आजच्या काळाशी, समाजमनाशी, त्यांच्या जीवनव्यवहाराशी सुसंगत जोडली जाते.ते अभ्यासक, लेखक, संशोधक, प्रवचनकार, कीर्तनकार, प्रभूर्ती आपआपले विचार जेव्हा मांडतात तेव्हा तुमच्या आमच्या जीवनाला एक निश्चित आयाम, दिशा मिळून जाते.इतकच नाही तर त्या प्रभावाने काही वेळा तर जीवनाची दिशा सुध्दा बदलते.आता माझीच बदललेली पहाना…
सर्वसामान्य माणसांप्रमाणेच मी देखील सर्व षड्ररिपुयुक्त, शीघ्रकोपी, संयमाचा अभाव…तरी बर्यापैकी वाचन, मनन, असून मन अशांत, अस्वस्थ राहिले होते. एक दिवस सद्गुरुंच्या दर्शनाचा योग आला, त्यांच्या सानिध्यात असताना श्री प्रभू रामचंद्रांच्या जीवनातल्या अनेक घटनां ते सांगताना म्हणाले,
“सात हजार वर्षानंतरही रामाचे स्मरण केले जात आहे, कारण त्यांनी हजारो पिढ्यांपासून लोकांना चांगुलपणा जोपासण्यासाठी, सत्याला धरून राहण्यासाठी आणि एकमेंकासोबत प्रेमाने राहण्यासाठी प्रेरित केले. रामाचे जीवन आपत्तींची एक शृंखलाच होती. तरी देखील तो अविचल राहिला. त्याने कधीही कोणत्याही परिस्थितीत त्याच्या आत राग, संताप, किंवा द्वेष येऊ दिला नाही. राम जगात कृतीशील होता, लढाई देखील लढला, त्यात त्याने हेच दाखवून दिले. त्याच्या याच गुणापुढे आपण नतमस्तक आहोत.म्हणूनच त्याला एक अतिशय श्रेष्ठ मनुष्य, ‘मर्यादा पुरोषत्तम’ म्हणतो, देव म्हणत नाही.त्याचे गुण असे आहेत की तुम्हाला त्याचा आदर करावाच लागेल . तुम्ही सुध्दा तुमच्या जीवनात असे होऊ शकलात, तर तुम्हीही मर्यादा पुरुषोत्तम व्हाल. ही एक अशी संस्कृती आहे जिथे कोणीही स्वर्गातून उतरले नाही, जिथे मानव दैवी बनू शकतो. कुठेतरी एक देव आहे जो आपल्या सगळ्या गोष्टींची काळजी घेईल.या ढोबळ विश्वास प्रणालीपासून मनुष्यानी स्वतःच्या मुक्तीसाठी प्रयत्न करण्यासाठी आपल्या शारीरिक आणि मानसिक मर्यादा ओलांडण्याचा प्रयत्न केल्यास तुम्हीही मर्यादा पुरुषोत्तम व्हाल. राम आणि रामायण भारतीय परंपरेचे अविभाज्य भाग आहेत. ही अशी एक संस्कृती आहे जिने मुक्तीला सर्वोच्च महत्व दिले आहे. याचा अर्थ जिवंत असताना सर्व गोष्टीपासून मुक्त होणे.तुम्ही रोजच्या जीवनातून माघार घेतली आहे असे नाही, तुम्ही सक्रिय आहात पण मुक्त आहात, तुम्ही संरक्षित कोषामध्ये नाही.’
कालपर्यंत रामायाणातील ढोबळ कथानक ऐकून नि वाचून माहीत असलेल्या माझ्या मनाला या सद्गुरूंच्या आश्वासक विचारांनी मोहिनी घातली नाही तरच नवल.माझ्यासारख्या कैक दिशा भरकटलेल्या युवकांना देशापुढे असलेली आव्हाने पेलण्याची शक्ति आणि बुध्दी श्रीराम देवो.राष्ट्रधर्म, कर्तव्य, नेतृत्व, संवेदनशीलता,
स्वपराक्रम, स्वाभिमान याबाबत तत्वाला मुरड घालून क्षणिक लाभासाठी स्वत्व पणाला लावण्याचा धोका पत्करत असेल, तर तेथे श्री.रामांच्या प्रामुख्याने वनवास काळातील जीवनाचा अभ्यास, युवा पिढीला योग्य मार्गावर आणू शकेल हा माझ्या मनातल्या रामाने दिलेला संदेशच आहे असच म्हणायला हवं.