(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of n
ational and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “तुम लिखो कविता! ”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा…”।)
अभी अभी # 253 ⇒ श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा… श्री प्रदीप शर्मा
श्रद्धा चित्त का वह भाव है, जहां बहता पानी निर्मला है। जल में अशुद्धि, चित्त में अशुद्धि के समान है। अगर जल में अशुद्धि है, तो वह जल पीने योग्य नहीं है। उसके पीने से स्वास्थ्य खराब होने का खतरा बना रहता है। पानी पीयो छानकर और सोओ चादर तानकर।
जल की शुद्धि जितनी आसान है, चित्त की शुद्धि उतनी आसान नहीं। भरोसा, विश्वास और आस्था वे सात्विक गुण हैं, जो किसी भी वस्तु, पदार्थ अथवा व्यक्ति के प्रति हमारे मन में राग उत्पन्न कर सकते हैं। राग आसक्ति का प्रतीक है।
उपयोगी वस्तुओं के प्रति हमारा विशेष लगाव रहता है, और अनुपयोगी वस्तुओं से हम पल्ला झाड़ना चाहते हैं।।
जिस वस्तु अथवा व्यक्ति से हमारा प्रेम हो जाता है, उससे हमारा जाने अनजाने ही लगाव होना शुरू हो जाता है। बिना प्रेम, आस्था, भरोसे एवं विश्वास के श्रद्धा का जन्म ही नहीं हो सकता। एक भरोसा तेरा ही सच्ची श्रद्धा है।
आध्यात्मिक यात्रा में राग द्वेष और आसक्ति को भी व्यवधान माना गया है।
किसी के प्रति अश्रद्धा अगर मन में द्वेष उत्पन्न करती है तो आसक्ति भी आत्म कल्याण के लिए बाधक है। अक्सर जड़ भरत का उदाहरण इस संदर्भ में दिया जाता है।।
अगर भोजन की थाली में मक्खी गिर गई तो उसे निकाल फेंकना, भोजन का अपमान अथवा अश्रद्धा का द्योतक नहीं, जागरूकता और विवेक का प्रतीक है लेकिन जमीन पर गिरे हुए प्रसाद को श्रद्धापूर्वक उठाकर ग्रहण करना अंध श्रद्धा का प्रतीक भी नहीं।
श्रद्धा और अंध श्रद्धा अगर मुंहबोली बहनें हैं, तो अश्रद्धा उनकी सौतेली बहनें, जिनसे उनकी बिल्कुल नहीं बनती। श्रद्धा, अंध श्रद्धा एक दूसरे पर जान छिड़कती हैं, जब कि अश्रद्धा उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाती।।
जब आस्था पर गहरी चोट पहुंचती है तो अच्छे से अच्छे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा, अश्रद्धा में परिवर्तित हो जाती है। श्रद्धा के टूटते ही व्यक्ति बिखर सा जाता है। अगर व्यक्ति विवेकवान हुआ तो ठीक, वर्ना उसका तो भगवान ही मालिक है।
श्रद्धा और अंध श्रद्धा में बड़ा महीन सा अंतर है। कब आपकी श्रद्धा, अंध श्रद्धा में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। श्रद्धा शाश्वत होती है, जब कि अंध श्रद्धा की एक्सपायरी का कोई भरोसा नहीं। चल जाए तो सालों साल चल जाए, और अगर बिखर जाए, तो एक झटके में बिखर जाए। यह अंध श्रद्धा ही तो है, जो अज्ञान और अंध विश्वास को पाल पोसकर बड़ा करती है।।
आपको अपने तरीके से जीवन जीने का अधिकार है। आपकी अपनी पसंद नापसंद है, श्रद्धा अश्रद्धा है। अगर मैने मतलब के लिए किसी गधे को अपना बाप बना लिया, तो आपको क्या आपत्ति है। मैं धोती कुर्ता पहनना चाहता हूं और आप सफारी सूट, इससे अगर हमारी आपकी दोस्ती में अंतर नहीं आता, तो श्रद्धा और अंध श्रद्धा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। आप किशोर कुमार के प्रशंसक तो हम मुकेश के।
अगर यह अंध श्रद्धा बीच में से हट जाए, तो शायद श्रद्धा और अश्रद्धा के बीच की खाई भी भर जाए। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना। आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते ! जब भी रास्ते में मिलें, प्रेम से बोलें नमस्ते।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका आलेख – श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆
श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक
स्व. रवि रतलामी
(जन्म ५ अगस्त १९५८, देहावसान ७ जनवरी २०२४)
वर्ष 2006 में ‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग’ को माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग के रूप में सम्मानित किया था। यह समाचार मैंने टी वी पर देखा था। यह समय था जब हिन्दी ब्लागिंग अपने शैशव काल में थी। मैं मण्डला जैसे छोटे स्थान से बी एस एन एल के नेटवन फोन कनेक्शन से रात रात भर हिन्दी ब्लाग लिखा करता था, रात में इसलिये क्योंकि तब इंटरनेट की स्पीड कुछ बेहतर होती थी। स्वाभाविक था कि मेरा ध्यान भोपाल के इस माइक्रो साफ्ट से सम्मानित ब्लागर की ओर गया। इंटरनेट के जरिये उनका फोन ढ़ूंढ़ना सरल था, मैंने उन्हें फोन किया और हम ऐसे मित्र बन गये मानो बरसों से परस्पर परिचित हों। मैं तब विद्युत मण्डल में कार्यपालन अभियंता था, और रवि जी विद्युत मण्डल से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर इंटरनेट में हिन्दी के क्षेत्र में भोपाल से फ्री लांस कार्य कर रहे थे। सरस्वती के पुजारियों की यह खासियत होती है कि वे पल भर में एक दूसरे से आत्मीयता के रिश्ते बना लेते हैं। मैं रवि जी से व्यक्तिगत रूप से बहुत अधिक नहीं मिला हूं पर हिन्दी ब्लागिंग के चलते हम ई संपर्क में बने रहे हैं। रवि जी रचनाकार नामक हिन्दी ब्लाग चलाते थे, जिसमें बाल कथा, लघुकथा, व्यंग्य, हास्य, कविता, आलेख, गजलें, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, लोककथा, समीक्षा, कहानी, चुटकुले, ई बुक्स, विज्ञान कथा आदि शामिल होते थे। मेरी कुछ किताबें, नाटक, व्यंग्य, कवितायें, लेख, संस्मरण आदि रचनाकार में प्रकाशित हैं। प्रारंभ में रचनाकार में रवि जी ने यह व्यवस्था रखी थी की एक रचना जो नेट पर कहीं एक बार छपे उसका लिंक ही अन्य जगह दिया जाये बनिस्पत इसके कि अनेक जगह वही रचना बार बार प्रकाशित की जाये। पर बाद में इस द्वंद में माथा पच्ची करना बंद कर दिया गया था। रचनाकार का ट्रेफिक बढ़ाने के लिये हमने व्यंग्य लेखन को लेकर कुछ प्रतियोगितायें भी आयोजित कीं। पुरस्कार स्वरूप मेरी, मेरे पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की तथा अन्य लेखको की किताबें विजेताओ को प्रदान की गईं।
रवि जी ने कहीं लिखा है “जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?”। वे स्वयं इतने सिद्ध कम्प्यूटर टेक्नोक्रेट थे कि उनका विकी पीडिया पेज तो सहज में होना ही चाहिये था, पर आत्म प्रशंसा और स्व केंद्रित व्यक्तित्व नहीं था उनका। वे सहज, सरल, और उदार व्यक्तित्व के सुलभ इंटेलेक्चुल मनुष्य थे। वे अचानक चले गये हैं, उनके साथ ही उनके मन में चल रहे ढ़ेरों कार्यो का भ्रूण पतन हो गया है। उनके अनेकानेक तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आईटी तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन उनकी रुचि की विधायें थीं। उनकी रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखक रह चुके हैं। वे अभिव्यक्ति पोर्टल के लिए विशेष रूप से ‘प्रौद्योगिकी’ स्तंभ लिखते रहे हैं। हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध आनलाइन वर्गपहेली का सृजन भी उनका महत्वपूर्ण कार्य था।
आन लाइन सोशल मीडिया पर स्व संपादसित लेखन का सफर आरकुट, हिन्दी ब्लागिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम वगैरह वगैरह प्लेटफार्म से शिफ्ट होते हुये व्हाट्सअप तक आ पहुंचा है। पर बोलकर लिखने की सुविधा, यूनीकोड हिन्दी के अंतर्निहित तकनीकी पक्षो को जिन कुछ लोगों ने आकार दिया है उनमें रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का भी बड़ा योगदान रहा है। वे जितने योग्य तकनीकज्ञ थे उससे ज्यादा समर्थ संपादक भी थे, और कहीं ज्यादा बड़े व्यंग्यकार। रचनाकार में उन्होंने समकालीन अनेकानेक व्यंग्यकारो को समय समय पर प्रकाशित किया है। रचनाकार में प्रकाशित व्यंग्यकारो कि सूची में राकेश सोहम, हनुमान मुक्त, प्रदीप उपाध्याय, राम नरेश, अनीता यादव, राजीव पाण्डेय, सुरेश उरतृप्त, वीरेंद्र सरल, ओम वर्मा, विवेक रंजन श्रीवास्तव से लेकर नरेंद्र कोहली, यशवंत कोठारी, प्रेम जनमेजय तक कौन शामिल नहीं है। जहां तक रवि जी के व्यंग्य लेखन का प्रश्न है उन्होंने सक्षम व्यंग्यकार के रूप में अपनी छबि बनाई थी। उनकी किताब व्यंग्य की जुगलबंदी अमेजन किंडल पर उपलब्ध है। जिसमें शामिल कुछ व्यंग्य शीर्षक हैं ” आपका मोबाइल ही आपका परिचय है, बापू की लखटकिया लंगोटी, नोटबंदी, जीडीपी और आर्थिक विकास, बाबागिरी, तकनीक और हवापानी, असली अफवाह, गठबंधन की बाढ़, चीनी यात्री ट्रेनत्सांग की वर्ष 2000 की भारत यात्रा, जीएसटी बनाम, भारतीय खेती की असली कहानी, साहित्यिक खेती, टॉपरों से भयभीत, मानहानि के देश में, बिना शीर्षक, मेरा स्मार्टफोन कैसा हो? बिलकुल इसके जैसा हो…., कड़ी निंदा पर कुछ नोट शीट्स, लाल बत्ती में परकाया प्रवेश, ईवीएम में छेड़छाड़ के ये है पूरी आईटीयाना तरीके, लेखकीय और साहित्यकीय मूर्खता, आपने कभी गरमी खाई है ?, जम्बूद्वीप में सन् ३०५० के चुनाव के बाद, आधुनिक अभिव्यक्ति और एक व्यंग्य है “बुढ़ापे या बीमारी से नहीं मैं मरा अपनी शराफत से” सचमुच उनका दुखद देहावसान बुढ़ापे या बीमारी से नही अचानक हार्ट अरेस्ट से हो गया . रवि रतलामी जी के कार्यों का मूल्यांकन हिन्दी जगत को करना शेष ही रह गया और वे हमसे बिछड़ गये। उन्हें तकनीकी जगत, ब्लागिंग की दुनियां, व्यंग्य जगत और हिन्दी जगत के नमन।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 66 ☆ देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज पंद्रह जनवरी को प्रतिवर्षनुसार देश में सेना दिवस मनाया जाता हैं। आज के ही दिन 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी।
हमारे निकट परिवार के सदस्यों में से कोई भी सुरक्षा बलों की सेवा में तो नहीं है, परंतु बैंक सेवा के आरंभिक दशक में प्रतिदिन हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का मौका अवश्य मिला। सेना की सभी यूनिट्स के खाते जबलपुर मुख्य शाखा में ही थे।
सैनिकों का भोलापन, कृतज्ञता की भावना उनके व्यवहार में झलकती है, इस सब को बहुत करीब से देखने और अनुभव करने का अवसर कुछ वर्षों तक रहा।
बैंक के बाहर भी जब कभी सेना का कोई सदस्य अचानक मिल जाता था, तो उतना ही आदर और सम्मान देता था, जितना वो बैंक में देता था। अनेक बार हम उनको सिविल ड्रेस में पहचान नहीं पाते थे, लेकिन वो आगे बढ़ कर हमेशा “जय हिंद” से अभिवादन करते थे। बैंक के साथियों के विवाह में आर्मी कैंटीन से ही वीआईपी सूटकेस और बिजली के पंखे क्रय कर साथियों को सामूहिक भेंट स्वरूप दी जाती थी।
कुछ दिन पूर्व फील्ड मार्शल मानेक शॉ की बायोपिक्स (फिल्म) देखी तो सेना के बारे में नई जानकारियां भी मिली।
ग्रामीण शाखा अंधेरी देवरी (ब्यावर) राजस्थान में पदस्थापना के समय शाखा में बैंक गार्ड श्री पुखराज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई कि सेना में उन्होंने मानेक शॉ के निजी वाहन चालक के रूप में तीन वर्ष की सेवाएं देने के पश्चात प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के लिए एंबेसडर कार कुछ वर्ष तक चलाई थी।
पुखराज जी से मानेक शॉ के बहुत सारे किस्से और जानकारियों का आनंद भी लिया। पुखराज जी के शब्दों में मानेक शॉ बहुत ही सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। जब सैनिक मेस में भोजन कर रहे होते थे, और यदि वो भी भोजन के समय वहां आ जाते, तो किसी भी सैनिक को खड़े होकर सम्मान या भोजन के मध्य में जय हिंद कहने की भी मनाही थी। उनका सिद्धांत था, कि भोजन ग्रहण के समय सब बराबर होते हैं।
आज सेना दिवस पर देश के सभी सुरक्षा बलों को आदर सहित नमन और अभिवादन।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “उतारा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 177 ☆
☆ लघुकथा – 🌹 उतारा 🌹☆
अपने घर में सदैव मकर संक्रांति पर्व पर तिल गुड़ की मिठास, लिए पूरनचंद और कुसुम सदा दान धर्म करते तिल लड्डू खिचड़ी बाँटते, कभी कपड़ों का दान, कभी जरूरत का सामान, घर के सामने पंक्ति बनाये लोग खड़े रहते थे।
कहते हैं समय बड़ा बलवान और शरीर नश्वर होता है। बुढ़ापा शरीर, बेटे बहू का घर परिवार बड़ा होना, खुशी से आँखें चमकती तो रहती थी, परंतु कहीं ना कहीं, बहू जो दूसरे घर की थी… अपने सास ससुर को ज्यादा महत्व नहीं देती। उसे लगता वह सिर्फ अपने पति और दो बच्चों के साथ ही रहती तो ज्यादा अच्छा होता।
धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ने लगी और एक कमरे में सिमट कर रह गए पुरनचंद और कुसुम। ठंड अपनी चरम सीमा पर, मकर संक्रांति का पर्व और चारों तरफ हर्ष उल्लास का वातावरण। कई दिनों से पूरनचंद बहू को अपने ओढ़ने के लिए कंबल मांग रहा था।
शायद पुराने कंबलों से ठंड नहीं जा रही थी। बढ़ती ठंड में पुराने कंबल काम नहीं आ रहे थे। आज पति को साथ लेकर बहू बाजार गई। उसने कहा… आपका स्वास्थ्य और कारोबार दिनों दिन खराब होते जा रहा है। मुझे किसी ने बताया है.. कि शरीर से उतारा करके किसी गरीब या जरुरतमंद को कंबल या गर्म कपड़े दान कर देना।
बेटा भी खुश था.. चलो इसके मन में दान धर्म जैसी कोई भावना आई तो सही। घर आने पर पत्नी ने अपने पति के शरीर, सिर से उतारा करके कंबल पर काली तीली रख के एक किनारे रख दिया।
पतिदेव काम में फिर से चले गए। शाम को आते ही देखा। पिताजी और माँ नए कंबल को ओढ़े बैठे मुस्कुरा रहे थे। इसके पहले वह कुछ बोलता।
पत्नी हाथ पकड़ कर कमरे में ले गई और बोली… अब उतारा तो करना ही था और किसी जरूरतमंद को देना था।
इस समय तुम्हारे माँ- पिताजी को कंबल की जरूरत थी। मुझे इससे अच्छा और कुछ नहीं सूझा। अब जो भी हो हमारी बला से। हमने तो उतारा दे दिया।
कानों में माँ की लोरी की आवाज आ रही थी। मकर संक्रांति, आई मकर संक्रांति आई।
🌸 मॉडर्न कॉलेज, पुणे (हिंदी विभाग) द्वारा विश्व हिंदी दिवस और हिंदी फिल्म फेस्टिवल आयोजित 🌸
हिंदी विभाग की ओर से विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित हिंदी फिल्म फेस्टिवल 10 और 11 जनवरी 2024 को मॉडर्न महाविद्यालय (स्वायत्त), छत्रपति शिवाजीनगर, पुणे 05 स्वरसम्राज्ञी लता मंगेशकर सभागृह में संपन्न हुआ l दो दिन के हिंदी फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन प्रो. सुमित पॉल (भाषावेत्ता, लंदन) के करकमलों से संपन्न हुआ l विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर प्रो. सुमित पॉल का “हिंदी फिल्मों का हिंदी भाषा के वैश्विक प्रचार-प्रसार में योगदान” विषय पर प्रासंगिक व्याख्यान हुआ l हिंदी फिल्म और गीतों के अनेक उदाहरण देते हुए हिंदी भाषा कैसे सबकी जुबान पर चढ़ गई और वह व्याप्त हो गई, इसका सरस वर्णन प्रो. सुमित पॉल ने किया l विभिन्न देशों में हिंदी फिल्में देखी जाती हैं l कुछ लोग भाषा से अनभिज्ञ होने पर भी बार-बार गीत सुनकर उसे सीखते हैं l बी.बी.सी. के लिए दिलीपकुमार का साक्षात्कार लेते समय प्रो. सुमित पॉल ने यह जाना कि भाषा सीखने के लिए भाषा एक सरल और प्रभावी माध्यम है l दिलीपकुमार को हिंदी फिल्में मिलना शुरू होने के बाद वे हिंदी भाषा सीखे तब तक वे उर्दू भाषा ही बोलते थे l परंतु हिंदी फिल्म देखकर उन्होंने भाषा अवगत की l इस प्रकार के कई उदाहरण प्रो. पॉल ने बताए l इसके अतिरिक्त मुहम्मद रफ़ी के गीतों में भाषा का प्रयोग, फिल्मों में संवाद लेखन आदि प्रो. पॉल ने प्रकाश डाला l दूसरी तरफ हिंदी फिल्मों ने भाषा के व्याकरण और भाषा की संरचना को कैसे गलत रूप में प्रभावित किया यह भी व्याख्यान में बताया l
10 जनवरी को इस व्याख्यान के अतिरिक्त हिंदी विभाग, मॉडर्न महाविद्यालय द्वारा हिंदी फिल्म फेस्टिवल में ‘ आई ऍम कलाम’ और 11 जनवरी को ‘ हिचकी ’ फिल्में दिखाई गई l शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान देनेवाली दो फिल्में देखकर छात्रों को प्रसन्नता हुई , उन्होंने दोनों फिल्मों पर समीक्षाएं भी लिखीं l
दोनों दिनों के कार्यक्रम के लिए मॉडर्न महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. राजेंद्र झुंजारराव उपस्थित थे l उन्होंने प्रासंगिक व्याख्यान और हिंदी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन की प्रशंसा की और छात्रों को विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी के उपयोग की जानकारी देना आवश्यक माना l उन्होंने विद्यार्थी जीवन में अध्ययन और अन्य गतिविधियों करना उपयुक्त प्रतिपादित किया l प्रोग्रेसिव एज्युकेशन सोसायटी के सचिव और उपप्राचार्य प्रा. शामकांत देशमुख ने हिंदी के साहिर लुधियानवी, गुलजार, जावेद अख्तर के गीतों की भाषा का स्मरण कराया साथ ही विभिन्न अभिनेताओं के संवाद कहने की पद्धति की विशेषताओं पर प्रकाश डाला l कुछ वर्षों पहले फिल्मों के संवादों के कैसेट्स निर्माण होते थे l संवादों का प्रभाव दर्शकों पर गहरा होता था l वाणिज्य शाखा के उपप्राचार्य डॉ. विजय गायकवाड ने वाणिज्य के क्षेत्र में हिंदी भाषा के प्रयोग का महत्त्व प्रतिपादित किया l साथ ही फिल्मों में हिंदी के छात्रों के लिए विभिन्न अवसरों की जानकारी दी l
हिंदी विभागाध्यक्षा डॉ. प्रेरणा उबाळे ने विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित दो दिवसीय हिंदी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया था l उन्होंने अपनी भूमिका में बताया कि 2016 से हिंदी विभाग द्वारा हिंदी फिल्म क्लब के अंतर्गत प्रति वर्ष 02 फिल्म दिखाई जाती हैं जो हिंदी साहित्य से निर्मित हुई हैं l फिल्म निर्माण पर आधारित कुछ कार्यशालाओं का आयोजन भी हिंदी फिल्म क्लब निरंतर करता है l कार्यक्रम का मंच संचालन हिंदी विभाग की प्राध्यापिका सारिका मुंदड़ा ने किया तथा आभार ज्ञापन प्रा. सूरज बिरादर और प्रा. मुमताज पठान ने किया l विभिन्न शाखाओं के छात्रों ने दोनों दिन बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्शाई l
साभार – डॉ. प्रेरणा उबाळे
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर, पुणे ०५
कार्तिक महिन्यातील दिवाळीला सुरू झालेली थंडी पौष महिन्यात अजूनच वाढायची.
ठिकठिकाणी पहाटे पहाटे शेकोट्या पेटायच्या.पावट्यांच्या मोहराचा अन शेंगांचा घमघमाट सगळ्या रानातून दरवळत असायचा.करड्याची लुसलूस रोपे टच्च भरलेल्या हरभऱ्याच्या डहाळ्याना सोबत करायचे.दाट धुक्यात शेते शिवारे गुडूप व्हायची,गव्हाची शेते हिरव्यागार ओंब्या डोक्यावर घेऊन आनंदात डोलायची,शाळूची हिरवीगार ताटे एका पानावर येऊन टपोरी कणसे प्रसवायच्या तयारीत असायची,आंब्याचे मोहोर मधमाशांना न् कीटकांना धुंद करायचे आणि या निसर्गाच्या आगळ्या वेगळ्या सोहळ्यात हळूच संक्रांत सामील व्हायची.
संक्रांतीला पंधरा तीन आठवडे राहिले असताना कोकणपट्ट्यातून (बहुतेक)संक्रातीच्या(नव्या मडक्याच्या)बैलगाड्या भिलवडी नाक्यातून गावात प्रवेश करायच्या.भिलवडी नाक्यातच आमची शाळा असल्याने आम्हाला त्या येताना दिसायच्या आणि संक्रांत जवळ आल्याची जाणीव व्हायची. खूप खूप आनंद व्हायचा.
तीन -चार गाड्या शिगोशिग भरून त्यावर भाताचे काड आणि जाळी लावून हळू हळू चालत चालत त्या इतक्या लांब प्रवास करत.गाडीच्या उभ्या दांडीवर गाडीवान बसायचे,त्याच दांडीखाली कापडाची किंवा पोत्याची मोठी खोळ ,त्यात चार स्वैपाकाची भांडी असायची .बाजूला एक कंदील लटकवलेला असायचा आणि कधी पुढं तर कधी बरोबर त्यांचे पाळीव कुत्रेही इतक्या लांबून चालत चालत यायचे. बैलांच्या गळ्यातील घुंगरू संथ चालीत खूळ खूळ नाद करत वाजायची. एक गाडी नाक्यातच मोकळ्या मैदानात उतरायची,एक आमच्या घरामागच्या मोकळ्या मैदानात आणि दोन गावात कुठेतरी थांबत असत.आम्ही लहान असल्याने त्यांचे नेमके ठिकाण माहीत नाही.वर्षानुवर्षे या गाड्या त्याच ठराविक ठिकाणी थांबायच्या; किती वर्षांपासून त्या येत होत्या माहीत नाही पण कळत्या वयापासून आम्ही त्या पहात होतो.
आमची शाळा सकाळ सत्रात असायची .शाळा सुटून घरी आलो की दप्तर टाकून गाडीजवळ जायचो.भाताच्या काडात अलवार शिगोशिग भरलेल्या गाडीवर जाळे लावून करकचून बांधलेलं असायचं जेणेकरून मडक्यांना तडा जाऊ नये.इतक्या लांबून बिचारे जपून गाडी हळुवार चालवत येत असणार कारण वर्षभराचे पोटाचे साधन होते त्यांचे.सहा-सात महिने खपून,गाळलेला घाम होता तो.गाडी सोडून, बैल बांधून कुंभार विश्रांती घेई.गाडीशेजारीच कुत्रे धापा टाकत बसून असे.कुंभारासोबत अजून एखादे नातेवाईक असे.क्वचितच एखादे ७-८वर्षाचे पोर असे पण स्त्रिया कधीच येत नसत.एका गाडीबरोबर दोन किंवा तीन पुरुष असत.हडकुळी शरीरयष्टी ,पांढरा ढगळा अंगरखा,गुडघ्यापर्यंत घातलेली खाकी ढगळ चड्डी आणि पांढरी टोपी इतकाच वेष असायचा त्यांचा.
उन्ह कलतीला लागली की गाडीवरील जाळी हळुवार काढून काड बाजूला सारत एक एक मडके बाजूला काढून गाडीजवळ मांडून ठेवत.पाच पाच छोट्या मोठ्या संक्रांतीचे(मडक्यांचे)गट,तांबड्या मातीच्या,काळ्या मातीच्या चुली,उभट -गोल करंड्या ,बिश्या(पैसे साठवण्यासाठी मातीची वस्तू) अशी कितीतरी आकाराची वेगवेगळी मातीची भांडी त्यांनी आणलेली असत.मडक्यांची काळी सोनेरी झाग सगळ्या हाताला लागायची.मला उत्सुकता असायची ती बोळकी,बिशी आणि छोट्या पाणी भरायच्या कळशीची.
मडकी मांडून झाली की मग शेजारीच ते तीन दगडांची चूल मांडत.चिपाड,चगाळ घालून चूल पेटवत.गाडीला केलेल्या खोळीतून जर्मनची पातेली, ताटल्या,बाजूला काढून घेत ;मग चुलीवर चहा ठेवत.चहा पिऊन त्याच चुलीवर एका पातेल्यात भात शिजत घालत आणि आसपासच्या चार घरातून कालवण मागून आणत. भातात ते कालवण कालवून खात आणि शेजारच्याच गोठ्यात झोप न विश्रांती घेत.
गाडी आलेली माहिती झाली की बायका खण (५मडक्यांचा समूह)ठरवायला यायच्या.खणाव्यतिरिक्तही बरेच काही घ्यायच्या.बेटकं घालायला उभट बरणी,बी बेवळा राखेत घालायला मोठं गाडगं, चूल जुनी झाली असेल तर चूल. गरजेनुसार वस्तूंची बेरीज व्हायची मग सौदा व्हायचा.हा सौदा पैशावर नसायचा तर ज्वारीवर असायचा,अडशिरी पासून पायली,दीड पायली,दोन पायली.वस्तूच्या संख्या व आकारावर हा सौदा असे.
हे लोक कधीच पैसे घेऊन खण किंवा इतर वस्तू विकत नसत.चुकूनच ज्यांच्याकडे ज्वारी मिळणार नाही अशांकडून पैसे स्वीकारत.जसजशी संक्रात जवळ येई तसतशी बायकांची खरेदीला लगबग सुरू व्हायची.
आठ दिवसांवर संक्रांत आली म्हणजे कासारीण बांगड्या विकायला गल्लोगल्ली फिरायची.संक्रातीला नवीन बांगड्या मिळायच्याच हमखास! त्याआधी कुठल्या आवडल्यात त्या हेरून ठेवायच्या आणि मग तिला बोलावून त्या आवडीच्या बांगड्या घ्यायच्या.
ववसायला नवी काकण पायजेतच! म्हणून बायका हातभर बांगडया चढवायच्याच.अगोदरच्या नवीन असल्या तर मग दोन रेशमी का होईना पण नवीन बांगड्या संक्रातीला चढवायच्याच .
संक्रात आली की शाळेतल्या पोरी आपापल्या मैत्रिणींना संक्रात भेट द्यायच्या.गंधांची गोल बाटली,प्लास्टिक टिकल्या,रंगीत चाप ,डिस्को रबर.ही देवाणघेवाण फक्त आपल्याला कुणी भेट दिली तरच तिला द्यायची, नाही दिली तर आपली भेट मग परत मागून घ्यायची! किती मजेशीर शाळकरी दिवस होते ते!
संक्रांत दोन दिवसांवर येऊन ठेपायची.दुकानातून चार आणे किंवा आठ अण्यांची मेंदी आणायची मग लिंबू ,काथ घालून मेंदी भिजत घालायची आणि रात्री डाव्या हाताने उजव्या आणि उजव्याने डाव्या तळहातावर गुलाच्या काडीने मेंदीचे गोल गोल ठिपके द्यायचे.सकाळी उठल्यावर त्यातली निम्मिअर्धी सुकून पडलेली असायची.उरलेल्या मेंदीवर खोबरेल तेलाचे थेंब टाकून दोन्ही तळहात एकमेकांवर चोळून उरलेली मेंदी पण काढून टाकायची मग हात लालभडक दिसायचे.
भोगीच्या आदल्या दिवशी मग कुणाच्यात पावटा ,कुणाच्यातला हरभरा ,ऊस ,शेतातले तीळ,राळे,बोरे,गाजरे, कांदा-लसणाची पात एकमेकींना देवाणघेवाणवाण करायच्या.तिघी चौघी मिळून अंगणात गप्पा मारत पावटा ,हरभरा सोलत बसायच्या.शेतातून हरभऱ्याचे भारेच्या भारे आणायचे आणि शेजारी पाजारी वाटायचे.आंबट गोड गोल गोल बोरे म्हणजे आमचे विक पॉईंट! बांधावरच्या बोरी सर्वांगावर बोरांचे भार वागवत झुकून जात.हिरवी -पिकली बोरे पाटीने असायची त्यातली पसा पसा बोरे आसपास सगळ्यांनाच मिळायची.शेतातल्या असल्या सगळ्या वस्तुंचीच देवाण घेवाण व्हायची.प्लास्टिक वस्तू आणि इतर गोष्टींचे वाण लुटायची पद्धत नैसर्गिक वस्तूंच्या देवाणघेवाणीत कधी घुसली काय माहीत!
भोगी दिवशी मग पहाटे लवकर उठून सवाष्णी न्हाऊन एकमेकींच्या घरात जाऊन हळदी कुंकू लावून यायच्या आणि मग भोगीच्या कालवणाला चुलीवर फोडणी बसायची.बाजरीची भाकरी,भोगी आणि राळ्याचा भात खाऊन सुस्ती यायची.
ज्या दिवसाची वाट पहात असू तो संक्रांतीचा दिवस शेवटी यायचाच. पोळ्या करून,ठेवणीतली पातळ नेसून बायकांच्या झुंडीच्या झुंडी हातात एकावर एक मडकं घेऊन ववसायला गल्लीभर फिरायच्या .प्रत्तेकीच्या अंगणात तुळशीपाशी जाऊन एकमेकींना ववसायच्या .तिळगुळाची देवाणघेवाण व्हायची .गुलालाने भांग भरून केस गुलाबी रंगात न्हाऊन निघायचे.
दिवसभर गल्लीत हिंडून संध्याकाळी खिशात तिळगुळाची डबी घेऊन सगळ्या बाई आणि गुरुजींची घरे पालथी घालून तिळगुळ देऊन मगच घरला यायचे.शाळेत मारणारे,ओरडणारे बाई -गुरुजी तिळगुळ द्यायला गेल्यावर मात्र गोड-मवाळ व्हायचे.
दुसऱ्या दिवशी वर्गातल्या मुलींना आणि उरल्यासुरल्या शिक्षकांना तिळगुळ देऊन राहिलेले तिळगुळ स्वाहा व्हायचे.सगळ्या वरांड्यात ,वर्गात इथंतिथं सांडलेले तिळगुळ संक्रात संपल्याची जाणीव करून देत.
संक्रांत झाली की मैदानात उतरलेली ती संक्रातीची गाडी आवराआवर करू लागायची.उरली सुरली,तडा गेलेली मडकी,जमा झालेली ज्वारीची पोती गाडीत घालून गाड्या परतीच्या प्रवासाला लागायच्या.
काळ बदलला.घरे आधुनिक झाली .चुली जाऊन गॅस आले.मडक्यांची उतरंड अडगळ होऊन हद्दपार झाली.पारंपरिक शेती संपली. चूल गेली ,राख नाही आणि मग उतरंडीतला राखेत ठेवलेला बी बेवळा पण इतिहास जमा झाला.
संक्रातीच्या गाड्या कधीपासून यायच्या बंद झाल्या काही कळलेच नाही.काकणांची दुकाने ठिकठिकाणी झाली,कासारणीकडून काकण घालून घ्यायची गरज उरली नाही.हातभर काकण भरायची पद्धत जुनी झाली आणि आपसूकच संक्रातीला नवीन बांगड्या भरायची पद्धतही जुनी झाली.
भोगीच्या वस्तूंचे बाजार भरू लागले,शेते आधुनिक झाली ,मने संकुचित झाली.शेजार पाजार आकसला. पावटा, हरभरा, ऊस ,बोरे,तीळ देवाण घेवाण बंद झाली. तीळ तर शेतात लावणेच बंद झाले !
प्लास्टिक वस्तू आणि तशीच छोटी स्टील भांडी वाण म्हणून दिली घेतली जाऊ लागली आणि संक्रातीच्या सणातला नैसर्गिक गुळाचा गोडवा जाऊन कृत्रिम साखरेच्या गोडीने प्रवेश केला.