हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 148 – “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अरविंद तिवारी जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह लोकतंत्र से टपकता हुआ लोकपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆

“लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक

अरविंद तिवारी

इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

मूल्य २२५ रु

पृष्ठ १२८

संस्करण २०२३

☆ “अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

अरविंद तिवारी तनिष्क के स्वर्ण आभूषणो के शो रूम में आयोजित समारोह में अपनी हास्य-व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं को प्रभावित कर चुके हैं। दरअसल उनकी रचनायें व्यंग्य की कसौटी पर किताबों के शोरूम में सोने सी खरी उतरती हैं। वे बहुविध लेखक हैं व्यंग्य के सिवाय उन्होंने कविता और उपन्यास भी लिखे हैं। मैं उन्हें निरंतर पढ़ता रहा हूं, उनकी कुछ किताबों पर पहले भी लिख चुका हूं। उन्हें पढ़ना भाता है क्योंकि वे उबाऊ और गरिष्ठ लेखन से परहेज करते हैं। शिक्षा विभाग के परिवेश में रहने से वे जानते हैं कि अपनी बात रोचक तरह से कैसे संप्रेषित की जानी चाहिये। परसाई ने लिखा है ” महज दरवाजा खटखटाने से जो मिलता है वह अक्सर अन्याय होता है, दरवाजा तोड़े बिना न्याय नहीं मिलता “, अरविंद तिवारी की व्यंग्य रचनायें दरवाजा तोड़ कथ्य उजागर करने वाली हैं।

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक किताब के शीर्षक व्यंग्य से ही उधृत कर रहा हूं ” हमारे देश में लोकतंत्र है, (यदि नहीं है तो संविधान के अनुसार होना चाहिये )। …. लोक साहित्य का हिस्सा रहा है, यह संवेदना से भरपूर है। सियासत इस लोक से वह हिस्सा निकालकर तंत्र में जोड़ लेती है जिसमें संवेदना नहीं है। … तंत्र पूरी तरह वैज्ञानिक नियमों से चलता है। …बहरहाल जब तब लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है, जब कहीं चुनाव आता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को खतरा पैदा होता है। इसी खतरे के बरबक्स नेता दल बदलते हैं। … नेता जी के चुनाव जीतते ही लोकतंत्र से खतरा टल जाता है। …”  लोकतंत्र पर हर व्यंग्यकार ने भरपूर लिखा है, लगातार लिख ही रहे हैं। राजनैतिक व्यंग्यों की श्रंखला में में लोकतंत्र ही केंद्रित विषय वस्तु होतेा है। इसका कारण यह है कि लोकतंत्र जहां एक अनिवार्य आदर्श शासन व्यवस्था है, वहीं वह विसंगतियों से लबरेज है। मनुष्य का चारित्र दोहरा है, वह आदर्श की बातें तो करता है, पर उसे आदर्श के बंधन पसंद नहीं है। परसाई ने लोकतंत्र की नौटंकी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, लोकतंत्र पर हावी भीड़ तंत्र, आदि आदि कालजयी रचनायें लिखी हैं। अरविंद तिवारी की रचना “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” भी बिल्कुल उसी श्रेणि का उत्कृष्ट व्यंग्य है, यह ऐसा विषय है जिस पर जाने कितना लिखा जा सकता था किन्तु इस व्यंग्य में सीमित शब्दों में मारक चोट करने में अरविंद जी सफल रहे हैं।

किताब की भूमिका प्रेम जनमेजय जी ने लिखी है। उन्होंने “व्यंग्य के समकाल में ” शीर्षक से संग्रह के चुनिंदा व्यंग्य लेखों की सविस्तार चर्चा की है। वे व्यंग्य तो निराकार है के बहाने बिल्कुल सही लिखते हैं कि ” इन दिनों जुट जाने से व्यंग्य लिख जाता है। परसाई और शरद जोशी के जमाने में जुट जाने की सुविधा नहीं थी। जिसने ठाना वह इन दिनों व्यंग्यकार बन जाता है उसका सामना भले ही विसंगतियों से न हुआ हो। विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर की जरूरत नहीं होती। ”  पर इस संग्रह के व्यंग्य लेखों में विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर सब मिलता है। समुचित मात्रा में पाठक तक कथ्य संप्रेषित करने के लिये जहां जो, जितना चाहिये, उतना विषय वस्तु के अनुरूप, मिलता है। अरविंद जी विधा पारंगत हैं।

संग्रह में राजनीति केंद्रित व्यंग्य नेता जी की तीर्थ यात्रा, चुनावी दुश्वारियां और हम, सियासत भी फर्जी विधवा है, लोकतंत्र और गणतंत्र की पिटाई, बाढ़ का हवा हवाई सर्वे, खादी का कारोबार, भैया जी को टिकिट चाहिये, गणतंत्र दिवस और कबूतर, आदि के सिवाय स्वयं लेखको की मानसिकता तथा साहित्य जगत की विसंगतियों पर लिखे गये व्यंग्य लेखों की बहुतायत है। उदाहरण स्वरूप संग्रह का पहला ही लेख गुमशुदा पाठक की तलाश है। वे लिखते हैं “इन दिनों साहित्य की दीवारों पर पाठकों की गुमशुदगी के इश्तिहार चस्पा हैं ” ….  “जब तक पाठक से पता नहीं चलता तब तक यह पता लगाना मुश्किल है कि किताब कैसी है। ” मुझे इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर आशा है कि अब जब साहित्य प्रकाशन जगत में प्रिंट आन डिमांड की सुविधा वाली प्रिंटिग मशीने छाई हुई हैं और १० किताबों के संस्करण छप रहे हैं, पाठको के बीच “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” लोकप्रिय साबित होगी। हिन्दी के पिटबुल डाग, सर इसे पढ़ने की इच्छा है, अब रायल्टी की कमी नहीं, साहित्य का ड्रोन युग, छपने के लिये सेटिंग, आपदा में टिप्पणी लिखने के अवसर, आ गई आ गई, उपन्यास मोटा बनाने के नुस्खे, वगैरह लेखकीय परिवेश के व्यंग्य हैं। संग्रह में समसामयिक घटनाओ पर लिखे गये कुछ व्यंग्य सामाजिक विषयों पर भी हैं। मसलन उनके कुत्ते से प्रेम, रुपये को धकियाता डालर, एट होम में शर्मसार शर्म, आदि मजेदार व्यंग्य हैं। ” डी एम साहब को पता नहीं होता कि उनके घर की किचन का खर्च कौन चलाता है ” … ऐसे सूक्ष्म आबजर्वेशन और उन्हेंसही मोके पर उजागर करने की शैली तिवारी जी की लेखकीय विशेषता तथा बृहद अनुभव का परिणाम है। संग्रह के प्रायः व्यंग्य नपी तुली शब्द सीमा में हैं, संभवतः मूल रूप से किसी कालम के लिये लिखे गये रहे होंगे जिन्हें अब किताब की शक्ल में संजोने का अच्छा कार्य इण्डिया नेटबुक्स ने कर डाला है। आफ्रीका से लाये गये चीतों पर अहा चीतामय देश हमारा संग्रह का अंतिम लेख है। अरविंद जी लिखते हैं ” उस दिन बहस करते हुये एक दूसरे से कुत्तों की तरह भिड़ गये ” … ” शेर से जब चीता टकराता है तो वह घायल हुये बिना नहीं रहता “।

परसाई की चिंता थी समाज की सत्ता की साहित्य की विसंगतियां। ये ही विसंगतियां इस संग्रह में भी मुखरित हैं। इस तरह व्यंग्य की रिले रेस में अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं। उन्होने लिखा है “अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग गलत जगह वोट डालेंगे तो चुनावों में शुचिता कैसे आयेगी ? किताब पढ़िये, समझिये कुछ करिये जिससे अगली पीढ़ी के व्यंग्य के विषयों में समीक्षकों को बदलाव मिल सकें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 166 – प्रेम प्याली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सर्वधर्म समभाव का संदेश देती एक सार्थक लघुकथा प्रेम प्याली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 166 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम प्याली

बहुत ही प्यारा सा नाम “प्याली” । परंतु केवल नाम ही काफी नहीं होता, वह कौन है, कहां से आई, माता पिता कौन है? किस बिरादरी की है उसे कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए? सारे सवालों को लेकर आज वह फिर पेड़ के नीचे बैठी अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी।

कैसे जानूँ? किससे पूछूं? यही सोच रही थी, कि सामने से पुतला दहन करने के लिए बीस पच्चीस नौजवान युवक तेज रफ्तार से सड़क से निकल कर जा रहे थे।

प्याली का घर यूँ कह लीजिए सड़क के किनारे एक पन्नी लगी टूटा फूटा कच्चा मिट्टी का ईट दिखाई देता दीवारों से घिरा एक कमरा। जिसमें प्याली में अपना बचपन देखा पालन-पोषण करने के हिसाब से उसने सिर्फ अपनी जिसे सभी वहाँ पर दादी कहते थे। उसी के साथ रहती थी।

आज प्याली बड़ी हो चुकी थी दादी से हर बार सवाल करती… “दादी अब तो बता दो मैं कौन हूं? मेरा बचपन, मेरी पहचान और मेरा धर्म क्या है?”

वह पास में ही सिलाई का काम सीखती थी। स्कूल का तो सिर्फ नाम सुना था पढ़ने लिखने की बात तो कोसों दूर थी।

अचानक जोर से हल्ला-गुल्ला गुल्ला मचने लगा। चौक पर पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती आने लगी पुतला दहन करने वाले तितर-बितर हो यहाँ वहाँ छुपने लगे।

एक बहुत ही खूबसूरत सा नौजवान युवक शायद चोट ज्यादा लगी थी। वह दौड़ कर जान बचाने प्याली की टूटी-फूटी झोपड़ी में घुस गया। थोड़ी देर बाद भीड़ शांत हो चुकी थी। पुलिस तहकीकात करती नौजवान युवकों को पकड़ – पकड़ कर ले जाने लगी। आँखों ने जाने क्या इशारा किया प्याली समझ नहीं सकी पर एक इंसानियत ममता, दया, बस वह बाहर खड़ी पुलिस वाले से बोली… “यहाँ कोई नहीं है। मैं तो दादी के साथ रहती हूं।” दादी जो अब तक देख रही थी। बाहर अपनी लकड़ी टेकते हुए निकली और बोली… “यह तो प्रेम प्याली की झोपड़ी है। साहब यहाँ जात-पात ऊंच नीच नहीं होता।”

 पुलिस वाले चले गए नौजवान जो छुपा बैठा था दर्द से कराह रहा था।

प्याली ने उसके सामने गरम-गरम चाय का कप और एक ब्रेड का टुकड़ा रख दिया। प्याली देख रही थी उसने कही… “छोड़ क्यों नहीं देते यह सारा लफड़ा, जिंदगी बहुत अनमोल है, खुश होकर जियो।”

नौजवान युवक धीरे से बोला… “यह शरीर और यह जान दोनों तुम्हारा हुआ। क्या? तुम प्रेम प्याली बनना चाहोगी?” दादी ने चश्मा आँखों पर ऊपर चढ़ाते हुए देख कर हंसने लगी.. “क्यों नहीं! “दादी ने बताया” मैं दूसरे धर्म की थी समाज की नहीं थी। इसके पैदा होते ही इसकी माँ ने सदा – सदा के लिए  मुझे छोड़ बेटे को लेकर चली गई थी। अब यह सिर्फ तुम्हारा प्रेम है।  ऊंच-नीच का भेद नहीं सिर्फ तुम दोनों बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ दो।” बरसों बाद उसका अपना बेटा नहीं पर पोता घर लौट आया था। प्याली, दादी के गले झूल गई। प्रेम उठकर दादी के पैरों गिर पड़ा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 46 – देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 46 ☆ देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र लाल कोठी क्षेत्र, जयपुर में स्थित “जन्म/ मृत्यु” पंजीयन कार्यालय का है। आगंतुकों के लिए बैठने की उपलब्ध बेंच को लेवल करने के लिए एक किनारे पर पत्थर लगाया हुआ हैं। दूसरा सिरा बहुत नीचे है। कुर्सी की बेंत भी नहीं है, ताकि गर्मी में पीठ से पसीना नहीं आए।

ये तो एक उदहारण है, डेढ़ वर्ष पूर्व भी ये ही दृश्य था। कौन इसका जिम्मेवार हैं? इस प्रकार के मनभावन दृश्य प्राय सभी सरकारी विभाग में मिल जाते हैं। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि यदि किसी जगह टूटा/ गंदा फर्नीचर पड़ा है, तो आप बिना गूगल की मदद से ये जान सकते है, कि ये ही सरकारी कार्यालय हैं। अनुपयोगी सामान से तो सामान का ना होना ही उचित होता हैं। सरकारी कर्मचारी खराब सामान को हटाने में डरते हैं, कि कहीं कुछ गलत ना हो जाए, वैसे गलत (रिश्वात इत्यादि) कार्य अधिकतर कर्मचारियों के प्रतिदिन का प्रमुख कार्य होता हैं।

करीब दो दशक पूर्व तक बैंकों में भी ग्राहकों के लिए पुराना/ टूटा हुआ फर्नीचर कुछ शाखाओं में मिल जाता था। वर्तमान में स्थिति बहुत बेहतर हैं। हालांकि मुख्य यंत्र सिस्टम, नेट प्रणाली, कंप्यूटर, प्रिंटर इत्यादि समय समय पर विश्राम में चले जाते हैं।

पुलिस थानों की स्थिति तो और भी भयावह हैं।  जब्त किए गए वाहन, न्यायालय के निर्णय/ आदेश की दशकों तक प्रतीक्षा करते हुए जंग( rust) से जंग लड़ते हुए, अपना अस्तित्व समाप्त कर लेते हैं।

कर उपदेश कुशल बहुतेरे” मेरे स्वयं के घर में भी ढेर सारी अनुपयोगी वस्तुओं उपलब्ध हैं।

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ स्व हरिशंकर परसाई जन्मशती पर ‘व्यंग्यम’ जबलपुर द्वारा एक समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न  ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 स्व हरिशंकर परसाई जन्मशती पर ‘व्यंग्यम’ जबलपुर द्वारा एक समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न 🌹 साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

व्यंग्य जगत के पितामह हरिशंकर परसाई जन्मशती पर ‘व्यंग्यम’ जबलपुर द्वारा एक समीक्षा गोष्ठी का आयोजन परसाई भवन में किया गया। जिसमें ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार, व्यंग्य धारा पत्रिका के सम्पादक डॉ प्रेम जनमेजय दिल्ली से पधारे।

व्यंग्यम के मंच पर श्री जयप्रकाश पांडेय के व्यंग्य संकलन ‘डांस इंडिया डांस’ और डॉ प्रेम जनमेजय के व्यंग्य संकलन ‘सींग वाले गधे’ पर विस्तृत चर्चा हुई। डॉ प्रेम जनमेजय जी के व्यंग्य संकलन पर डॉ कुंदन सिंह परिहार और श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी ने विस्तृत आलेख पढ़े और श्री सुरेश कुमार मिश्र विचित्र ने उनके संग्रह की एक व्यंग्य रचना का पाठ किया। श्री जयप्रकाश पांडेय के व्यंग्य संकलन पर श्री अभिमन्यु जैन और श्री राकेश सोहम जी ने आलेख पढ़े और श्री यशोवर्धन पाठक जी ने रचना पाठ किया। कुशल संचालन श्री रमेश सैनी का रहा और धन्यवाद ज्ञापन डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी ने दिया। इस कार्यक्रम में शहर के 18 से अधिक व्यंग्यकारों ने अपनी उपस्थिति देकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।

साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “एक पाऊस असा यावा…” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “एक पाऊस असा यावा” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

एक पाऊस असा यावा

मनातला कचरा वाहून जावा

झुळझुळ वहावा प्रवाह नवा…

 

एक पाऊस असा यावा

अहंकार सारा धुऊन जावा

पुन्हा बालपणातील मी आठवावा..

 

एक पाऊस असा यावा

निघून जावी नात्यातील कटुता

प्रेमाचा अखंड झरा खळखळावा ….

 

एक पाऊस असा यावा

मोह मायेचा गंध ना उरावा

निर्मळ मनाचा सुगंध पसरावा….

 

एक पाऊस असा यावा

तुझं माझं लवलेश न रहावा

साऱ्या विश्वाला एकरूप करून जावा ….

 

एक पाऊस असा यावा

प्रत्येक मनी श्रावणधारा

आयुष्याला हिरवागार पेहरावा….

💞शब्दकळी विजया💞

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ घाम… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ घाम…  ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

सांगा कुठे कुणाच्या वचनात राम आहे ?

केलेत कर्म त्यांचे पदरात दाम आहे

 

वाचाळ वीर सारे झालेत ठार वेडे

जनतेस रूप त्यांचे दिसले  तमाम आहे

 

होते हिरे कुणाचे लुटले कुणी कळेना

पण एकटा कसा हा बनला निजाम आहे

 

दिसतो वरून साधू मन आतले भिकारी

भरला मनात त्याच्या ठासून काम आहे

 

आहेत गोप गोपी साधेच भोवताली

त्यांच्यात गुंतलेला वेडाच शाम आहे

 

समता अजून नाही या द्वारकेत आली

घेवून दैन्य माथी फिरतो सुदाम आहे

 

देवा तुम्हीच सांगा तप साधना कराया

देशात आज कोठे आनंद धाम आहे

 

राबून खूप मेलो पोटात घास नाही

गळतो उगाच येथे फुकटात घाम आहे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #200 ☆ ‘वंदन मित्रा…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 200 ?

☆ वंदन मित्रा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तू नारायण तुझी स्मृतीतर चंदन मित्रा

गंगेहुनही तुझे भावते गुंजन मित्रा

 

वेडी बाभळ पायाखाली होती कायम

अन् पोटाला धावपळीने लंघन मित्रा

 

हात पसरले कधीच नाही दान घ्यायला

निर्धाराला तुझ्या करावे वंदन मित्रा

 

हसरा मुखडा घेउन फिरला तू जीवनभर

अन् मित्रांचे केले कायम रंजन मित्रा

 

दुःख वाटते सहवासाला मुकलो आम्ही

तू  तर होता मित्रांमधला कुंदन मित्रा

 

तू गेला पण कारण त्याचे कळले नाही

त्या घटनेचे कायम करतो चिंतन मित्रा

 

तुझी पालखी ज्या वाटेने गेली आहे

त्या मातीचे घेतो आहे चुंबन मित्रा

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “अजून ही आशा आहे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

🌸 विविधा 🌸

☆ “अजूनही आशा आहे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

(सुमारे पंधरा वर्षांपूर्वी मी लिहिलेले आणि नंतर गायब झालेले लिखाण आज अचानक जुनी कागदपत्रे चाळताना सापडले आणि वाचल्यानंतर हे जाणवले की त्यातील बहुतेक सारी मते आजही मला जशीच्या तशी मान्य आहेत)

लालयेत पंच वर्षाणि  दश वर्षाणि ताडयेत ।

प्राप्तेतु शोडषे वर्षे,  पुत्रं मित्रवदाचरैत ।।

 असे एक संस्कृत वचन आहे.  मुलांचे पाच वर्षे लाड करावेत, दहा वर्षे धाकात ठेवावे आणि सोळाव्या वर्षानंतर मुलांशी मित्राप्रमाणे वागावे असा सरळ अर्थ.

मूल झाल्यावर पहिली पाच वर्षे लाडाची असतात. त्यावेळी मुलं हा आपला आनंद असतो.  लाडाच्या या पाच वर्षात आपण मुलांपासून मिळवलेला आनंद अवर्णनीय असतो व आपल्या आयुष्याला तो अर्थ प्राप्त करून देत असतो.  नंतरची दहा वर्षे मुलांवर संस्कार करायचे असतात.  अशावेळी मुले ही आपली जबाबदारी असते.  त्यांना जबाबदार समाजघटक बनवण्यासाठी सुसंस्कारित करणे व उत्तम नागरिक म्हणून तयार करणे ही पालक म्हणून आपली जबाबदारी असतेच असते. त्यासाठी त्यांना धाक दाखवून का होईना परंतू सुसंस्कारित करणे व पुढील आयुष्यासाठी त्यांचा पाया भक्कम करणे ही जबाबदारी असते.  त्यानंतर मुले पालकांच्या ऐकण्याच्या पलिकडची असतात.  त्यामुळे त्यांच्याशी मित्रत्वाचे म्हणजेच सलोख्याचे संबंध प्रस्थापित केल्याशिवाय कौटुंबिक संबंध सुरळीत रहात नाहीत. जबाबदारीची दहा वर्षे संपल्यावर मुलांना त्यांच्या पायावर उभे राहून पुढील आयुष्याच्या वाटचालीत त्यांचे मित्र, साथीदार,  भागीदार या भूमिकेतून त्यांच्याशी वागून कौटुंबिक संतुलन टिकवणे हे आपल्या स्वतःच्या सुखा समाधानासाठी आवश्यक असते.

 मुलांच्या एकूण जडणघडणीत व पालन पोषणात कुठेही गुंतवणूक हा विचार करणे ही गोष्टच मला चुकीची वाटते.  मुलेही म्हातारपणाची काठी वगैरे जुने विचार आजच्या काळाच्या संदर्भात योग्य आहेत की नाही याचा विचार निश्चितच आवश्यक ठरेल.

पूर्वीच्या पालकांच्या व आत्ताच्या पालकांच्या परिस्थितीत, मनस्थितीत तसेच आजच्या सामाजिक परिस्थितीत खूपच फरक पडलेला आहे.  चिंतायुक्त पालक पूर्वीचेही होते व आजचेही आहेत.  परंतु त्यांच्या चिंतांमध्ये फरक आहे.  पूर्वी फक्त एकच माणूस कमावत असे.  त्याच्या कमाई मध्ये घरखर्च चालवणे ही तारेवरची कसरत असे. आवश्यक गोष्टींसाठी उत्पन्नाची तोंडमिळवणी करताना नाकीनऊ येत असत. त्यामुळे चैनीच्या गोष्टी करणे अशक्यच असे. आजचे पालक त्यामानाने जास्त कमावतात . बहुतांश घरात आई वडील दोघेही कमावते असतात. स्वतःच्या सुखात फारशी तडजोड न करता त्यामध्ये मुलांचेही कोड कौतुक करणे, सर्व कुटुंबाने मिळून काही किमान चैनीच्या गोष्टी करणे सर्वमान्य झाले आहे.

यामध्ये स्वतःच्या सुखाला मुरड घालून फक्त मुलांसाठीच काही करणारे पालक अपवादात्मकच.  त्यामुळे मुलांनी म्हातारपणाची काठी बनावी अशी अपेक्षा ठेवणे हीच चुकीच्या विचारांची गंगोत्री ठरावी.  जे पालक अशा गुंतवणुकीच्या अपेक्षेने मुलांसाठी काही करत असतील तर ही रिस्की गुंतवणूक आहे हे ध्यानात ठेवावे.  मुलांनी जर पुढे विचारले नाही तर ज्याप्रमाणे चुकीच्या पतपेढ्या, बँका वगैरे मधील अधिक व्याजाच्या अपेक्षेने केलेली गुंतवणूक कधीकधी बुडीत होते तशी ही गुंतवणूक सुद्धा बुडीत होण्याची शक्यताही गृहीत धरली पाहिजे. नातेसंबंधातील प्रेमळ सहजीवनाच्या विचारापेक्षा व्यावहारिक विचार जेव्हा प्रबळ होतात त्यावेळी त्यात व्यवहारांमधील रिस्क ही सुद्धा गृहित धरली पाहिजे. 

पुराण काळाचा विचार केल्यास मुले ही म्हातारपणाची काठी वगैरे विचार त्यावेळी नसावेत असे वाटते.  पंचवीस वर्षे गृहस्थाश्रमाची पूर्ण केल्यावर म्हणजे साधारणपणे मुले गृहस्थाश्रमाच्या टप्प्यावर आल्यावर पालकांनी वानप्रस्थाश्रम स्वीकारण्याची जी समाजव्यवस्था होती असे ऐकिवात आहे ती चांगलीच.   साधारण २५ ते ३० वर्षा दरम्यान गृहस्थाश्रम व 55 ते 60 वर्षा दरम्यान वानप्रस्थाश्रमात प्रवेश ही खरेतर आदर्श समाजव्यवस्था म्हटली पाहिजे.  आजच्या काळाच्या संदर्भात बोलायचे झाल्यास रिटायरमेंट नंतर पालकांनी वानप्रस्थ स्वीकारणे हे कौटुंबिक स्वास्थ्याच्या दृष्टीने हितावह ठरेल.  वानप्रस्थाश्रम म्हणजे आजच्या संदर्भात विचार करता मुलांच्या संसारात लुडबूड न करता स्वतंत्रपणे राहून समाजोपयोगी कार्यात स्वतःला गुंतवणे.  स्वतःचे अनुभव, जीवनाबद्दलचा दृष्टिकोन यावर आधारित एखादे  समाजोपयोगी कार्य निरपेक्ष बुद्धीने पत्करून समाजाचे ऋण फेडण्यासाठी आयुष्याची पुढील वाटचाल करणे.  आज अनेक समाजोपयोगी संस्था कार्यरत आहेत.  अनेक संस्था उत्तम कार्य करतात.  फार मोठ्या धनलाभाची अपेक्षा न ठेवता स्वतःच्या चरितार्थाच्या गरजेपुरते अर्थार्जन करून अशा संस्थांच्या कार्यात झोकून देण्याची आज गरज आहे.  अशा गरजांची पूर्तता या वानप्रस्थाश्रम संकल्पनेतून आजच्या काळात करता येणे शक्य आहे.  मुलांच्या संसारात लुडबूड न करता समाजोपयोगी कार्याचा आदर्श त्यांचे पुढे ठेवला तर त्यांनाही पालकांविषयी निश्चितच आदर वाटेल.

यावर कुणी असे म्हणतील की असले फालतू व्यवहारशून्य आदर्शवाद नकोत. 

प्रॅक्टिकली बोला.

ठीक आहे, प्रॅक्टिकली बोलू.

पहिली पाच वर्षे तुम्ही मुलांसाठी काय करता हो ? खरं म्हणजे तुम्ही मुलांच्या कौतुकात येवढे मग्न असता की, सर्व जगाचे भान विसरता.  जळी स्थळी  मुलांचा विषय व कौतुक याने तुमचे आयुष्य भरून व भारून गेलेले असते.  तो आनंद, ते भारलेपण व कौतुकाची नशा आयुष्यामध्ये येवढे विविध रंग भरते की,  तुमचे आयुष्य हे ‘आनंदाचे डोही आनंद तरंग’ असे झालेले असते. म्हणजे या पाच वर्षात तुम्ही मुलांसाठी जेवढे करता त्यापेक्षा किती तरी पटीने अधिक आयुष्यात सुख, आनंद मिळवता.  म्हणजे पहिली पाच वर्षे तुम्ही फायद्यातच असता.  पुढील दहा वर्षांचा विचार करता असे पहा की तुमच्या आयुष्याला दिशा देणाऱ्या, तुम्हाला अक्षय सुखाचा झरा देणाऱ्या कुटुंबाच्या सौख्यासाठी ( म्हणजे त्यात तुमचे सुख सुद्धा आहेच )  पडलेली जबाबदारी तुम्ही स्वीकारली, म्हणजे तुम्ही मुलांसाठी काय केलं ?  जे केलं ते स्वतःच्या कर्तव्य पूर्तीसाठी केलं. म्हणजे ही दहा वर्षे ना नफा ना तोटा या परिस्थितीत.  पंधरा वर्षानंतर आपण मुलांचे कौटुंबिक भागीदार म्हणजे पुन्हा बरोबरीतच. आता व्यावहारिक विचार असा की, तुम्ही गृहस्थाश्रमाच्या काळात जी काही संपत्ती मिळवली असेल तेवढाच तुमचा भाग. तो जर तुम्ही मुलांना दिलात तरच फक्त ती गुंतवणूक. यात काहीही वडिलोपार्जित इस्टेटीचा भाग नाही आणि जर तुम्ही वडिलोपार्जित इस्टेट सुद्धा खर्च केली असेल तर तुम्ही मुलांचे कर्जदारच.  अन् स्वकष्टार्जित संपत्ती मुलांना देतानाच जर तुम्ही तुमच्या अपेक्षा त्यांचे समोर मांडून अथवा लेखी एग्रीमेंट करूनच त्यांना दिली तर व्यवहाराचा भाग पूर्ण झाला.  आणि ही एवढीच फक्त तुमची म्हातारपणाची काठी झाली.  परंतु या पद्धतीने तुम्ही काही समाजसेवी संस्थांशीही एग्रीमेंट करू शकता. त्यासाठी ते मुलाशीच केले पाहिजे असेही बंधन कुठाय ?  मुलांशी पटत नसल्यास व तुमचे कडे संपत्ती असल्यास म्हातारपणी जगणे कठीण व अशक्य नाहीच.  त्यासाठी म्हातारपणाची काठी विकत घेण्याची तुमची क्षमता असतेच.  ज्यांची अशी काठी विकत घेण्याची क्षमता नाही त्यांनी पूर्णवेळ समाजकार्यात झोकून देण्याची गरज व आवश्यकता आहेच.  सहसा सध्या प्रत्येकजणच वृद्धापकाळाची सोय म्हणून काही उत्पन्नाची तजवीज करून ठेवत असतोच.  फक्त सर्वात दुर्दैवी असे पालक की जे दुर्धर रोगाने आजारी आहेत, मुले विचारत नाहीत अथवा प्रॅक्टिकली त्यांना ते शक्य होत नाही व जगण्यासाठी पुरेसे उत्पन्न नाही.  या व्यक्ती मात्र खरोखरच दुर्दैवी त्यांचेसाठी सरकारनेच काही सोय करावी.  एक पर्याय असा की त्यांचा वृद्धापकाळाचा खर्च सरकारने उचलावा.  अथवा त्यांचेसाठी इच्छामरणाचा कायदा करावा.  माझ्यामते मुले ही म्हातारपणाची काठी नव्हेतच  आणि ती गुंतवणूक तर अजिबातच नाही व जबाबदारी फक्त मर्यादित कालावधी पुरतीच. पालकत्व हे आव्हान नव्हे तर ती कौटुंबिक सुखांसाठी आपण होऊन स्वीकारलेली जबाबदारी आहे. ही जबाबदारी ज्यांना नको आहे व टाळताही येत नाही त्यांना वाटणारे आव्हान. 

शेवटी आपल्या पिढीने तरी असे काय भव्यदिव्य केलंय की ज्यामुळे पुढच्या पिढीने आपले उपकार मानावेत ?  म्हणूनच या एकविसाव्या शतकातील तरुणांना मी म्हणतो –

एकविसाव्या शतकातील तरुणांनो,

आम्ही तुमचे बाप आहोत,

म्हणूनच,

तुम्हाला मिळालेला जन्मसिद्ध शाप आहोत. आम्हीच दिले तुम्हाला,

भ्रष्ट स्वातंत्र्याचे वरदान ?

सामाजिक अराजकतेचे दान ?

ढासळत्या पर्यावरणाचे थैमान.

आम्हीही होतो तरुण एकेकाळी,

पण नाही थोपवू शकलो हा प्रवाह,

नाही परतवू शकलो या लाटा,

पराभूत अन्  प्रवाहपतिताचं जिणं, 

जरी जगलो तरी……….

नाही गेलो भोव-याच्या तळाशी. 

प्रवाहातील पत्थरांना चुकवत,

कपाळमोक्ष नाही होऊ दिला.

म्हणूनच अजूनही अशा आहे,

प्रवाह वळवता येईल,

बिघडलेलं सावंरता येईल,

सुकृताच्या अनुभूतीवर

विकृताचा आकृतिबंध सुधारता येईल.

खरंच येईल तरुणांनो,

आम्हाला आशा आहे.

आमच्या शापित जीवनाला,

शिव्या घालत बसण्यापेक्षा,

आमच्या सुकृताच्या अनुभूतीचं सार जाणून घ्या. विचार करा, कृती करा.

या कृतीत आमचं जीवन संपून जाणं

अनिवार्य असेल तरी कचरू नका,

पण प्रवाहपतित होऊ नका.

इतिहासाची पुनरावृत्ती करू नका.

भविष्यकाळाच्या भल्यासाठी,

भूतकाळाच्या छातीत खंजीर खुपसणं,

आवश्यकच असेल तर ………..

हे नव्या पिढीतील ब्रुटसांनो, 

हा वृद्ध सीझर, निशस्त्र होऊन,

तुमचा वार झेलण्यास सिद्ध आहे,

अन गर्जना करतोय,

देन सीझर मस्ट डाय.

देन सीझर मस्ट डाय.

©  श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘शिक्षक सेवक…’- भाग ३ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ ‘शिक्षक सेवक…’- भाग  ३ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर 

(मागील  भागात आपण पहिले –  पाटणकरांच्या लक्षात आले. आपले दोन सहकारी आहेत. सावंत आणि जांभळे. दोघेही परमनंट आहेत शिवाय जांभळेंची बायको शिक्षिका आहे. म्हणजे पैशाचा काही प्रॉब्लेम नाही. – आता इथून पुढे)

दुसर्‍या दिवशी त्यांनी सावंत सरांना गाठले. सावंत सरांना भेटताना त्यांच्या लक्षात आले, हे सर आता रिटायरमेंटला आले म्हणजे यांचा पगार एक लाखाच्या आजूबाजूला असणार. आपल्याला फत पाच हजाराची गरज आहे.

‘सावंत सर, माझं एक काम होतं. ’

‘होय काय. पैशाचे सोडून काही काम असेल तर सांगा.’

‘पैशाचेच होते. फत पाच हजार हवे होते. ’

‘‘नाय ओ. मीच कर्ज घेतलयं. त्याचे हप्ते भरतय आणि तुमच्या या सहा हजारात तुम्ही पैसे परत कशे करणार बाबा? नाही जमायचे.’

हिरमुसले होत पाटणकर बाहेर पडले. आता जांभळे सर म्हणजे नवरा बायकोचा पगार. म्हणजे किमान दीड लाख रुपये. हे नाही म्हणणार नाहीत असा पाटणकरांचा अंदाज होता.

‘जांभळे सर, थोडं काम होत. ’

‘बोला पाटणकर. ’

‘फत पाच हजाराची गरज होती. पगार झाला की तुमचे पैसे निश्चित देणार’

जांभळे सर खो-खो हसत म्हणाले, ‘पाटणकर शिक्षण सेवक कधी कुणाचे उधार घेतलेले पैसे देतो काय हो? तुमचे महिन्याचे मानधन वेळेत मिळत नाही म्हणजे तुम्ही अनेकांकडून पैसे उधार घेतलेले असणार. मग माझे देणार कसे? मी कधीच कुणाला पैसे देत नाही. पैसे कमवण्यास घाम गाळावा लागतो. पैसे काय झाडाला लागतात?’

‘‘हो सर, बरोबर आहे तुमचं.’ असं म्हणून पडेल चेहर्‍याने पाटणकर बाहेर आलेत. बाहेर पडता पडता शाळेचा प्यून मोहन ने त्यांना पाहिले. मोहनला पहिल्यादिवसापासून पाटणकरांची दया येत होती. गरीबीतून हा मुलगा नोकरीस लागला तो शिक्षण सेवक म्हणून. चार वर्षे आधी शिक्षण पुरे केले असते. तर एव्हाना साठ-सत्तर हजार मिळवले असते. मोहन ने पाटणकरांना बाजूला घेतले. ‘सर, काय प्रॉब्लेम होतो?’

‘काही नाही ओ. असंच. ’

‘असंच नाही. माझ्या कानात शब्द पडलेत. या जांभळ्याकडे पैशे मागूक गेलात. अहो जांभळो म्हणजे एक नंबर चिकटो.’ किती पैसे हवेत? मी देतलय. अहो माका चाळीस हजार रुपये पगार आसा माका खर्च कसलो? किती व्हयेत सांगा. उद्या आणून देतलय.

‘कसं सांगणार तुम्हाला. पण पाच हजाराची गरज होती. ’

‘उद्या तुमका पाच हजार रुपये मिळतले. ’

आणि खरोखरच मोहन ने पाटणकरांना पाच हजार रुपये दिले आणि वर सांगितल पाटणकर हे पैसे परत करु नकात आणि तुम्ही दिलात तरी मी घेवचय नाय.

‘पण मोहनराव असा कसा?’

मोहन तेथून दुसरीकडे निघून गेला होता. पाटणकरांचे मन भरुन आले. आपले पैसे मिळाले की मोहन चे पैसे परत करायचे हे त्यांनी मनोमन ठरविले.

पाटणकरांची बायको खुश झाली. या लग्नासाठी साड्या, ब्लाऊज, मुलासाठी कपडे आणि बळेबळे नवर्‍याला पण पॅन्ट-शर्ट घ्यायला लावले.

जानेवारी महिना उजाडला आणि अकरावी-बारावी ची सहल काढण्याच टूम निघाली. या वर्षी गोव्याला जायचे ठरले. एकंदर बावीस मुला-मुलींनी सहलीला येण्याची तयारी दाखविली. सोबत शिक्षक म्हणून पाटणकर आणि खालच्या वर्गात शिकवणार्‍या चव्हाण मॅडम जाणार होत्या. सकाळी सहा ला बस मधून जायचे आणि संध्याकाळपर्यंत परत यायचे असा कार्यक्रम ठरला. कणकवलीतून बस येणार होती. एकंदर बारा मुलगे, दहा मुली, दोन शिक्षक असे चोवीस जण सहलीला निघाले.     

पाटणकरांनी सहलीचा कार्यक्रम निश्चित केला आणि तसे ड्रायव्हरला सांगितले. गाडी साडे सहाला निघाली. गोव्यातील ओल्ड चर्च, शांतादुर्गा, मंगेशी देवस्थाने तसेच पणजी करत दुपारी तीन च्या सुमारास कळंगुट बीच वर आले. पाटणकरांनी आणि चव्हाण मॅडमनी मुलांना येथे एक तास दिला. समुद्रावरुन फिरुन चार वाजता पुन्हा बसकडे या. चार वाजता बस सुटेल असे निक्षून सांगितले. मुल-मुली खुशीत समुद्रावर धावली. पावणेचार झाले तसे पाटणकर आणि चव्हाण मॅडम बसकडे आले. चारला पाच मिनिटे असताना मुल-मुली गाडीकडे येऊ लागली. चार वाजले तसा ड्रायव्हर येऊन बसला. चव्हाण मॅडमनी मुल-मुली मोजली तर वीस मुल भरली. म्हणजे दोन मुल आली नव्हती. अजून पाच दहा मिनीटे थांबून पुन्हा पाटणकर खालीपर्यंत पाहून आले. दोन मुल आली नव्हती. कोण नाही आली याची चौकशी केली तर बारावीतील एक मुलगा आणि अकरावीतील एक मुलगी आली नव्हती. पाटणकर घाबरले. पाटणकरांनी मुलांकडे आणि चव्हाण बाईंनी मुलींकडे चौकशी केली तर मुल एकमेकांकडे बघून खुसुखुसु हसत राहिली. चव्हाण बाई पाटणकरांना म्हणाल्या, काहीतरी गडबड आहे. ही मुलं गेली कुठे? शेवटी जबाबदारी पाटकरांची होती. त्यांनी आपल्या जबाबदारीवर मुलांना एक तासा करिता सोडल होत. म्हणता म्हणता साडेचार वाजले तरी या दोन मुलांचा पत्ता नाही. पाटणकरांच्या घशाला कोरड पडली . काय कराव हे कळेना. त्यांनी शाळेत फोन केला आणि मुख्याध्यापकांना ही बातमी सांगितली. जोंधळे चिडले. ‘तुम्हाला मुलांना समुद्रावर मोकळ सोडायला कोणी सांगितल होत? आता काय जबाब देणार पालकांना? आता तेथल्या पोलिसांना तक्रार द्या. दुसरा काही उपाय दिसत नाही मला.’ अस म्हणून जोंधळेंनी खाड्कन फोन आपटला.

– क्रमश: भाग ३ 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मैत्र जीवाचे… ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

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☆ मैत्र जीवाचे… ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

तशी मैत्री तर जमते पुष्कळांशी 

पण जीवाचं मैत्र ….. ते जुळत नाही सर्वांशी ….. 

 

हे जीवाचं मैत्र ……. 

    याला ना स्थळकाळाचे .. ना वयाचे बंधन 

           ना कसल्या औपचारिकतेचं कुंपण …… 

    असे ना कुठलीही जातपात 

            त्याने फरकच पडत नाही त्यात …… 

     तो..की.. ती, हा प्रश्नच नसतो मुळात 

            कारण तो उगवतच नाही मनाच्या तळात …… 

     नाही अपेक्षा सततच्या भेटीगाठींची 

            नाही गरज सततच्या संवादाची …… 

      याला लागत नाही कुठलेच 

             व्यावहारिक देणे – घेणे …… 

कारण …… 

       कारण हे तर मनाच्या आत आत …. 

              “ प्रेमळ निरपेक्ष स्नेहाने नटलेले लेणे “ …. 

 

      मी तर सजलेय या लेण्याने …… 

               तू …? ……. 

© सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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