हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मित्रता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मित्रता ??

जब मैं आर्थिक अभावों से जूझ रहा था, वह चुपचाप कुछ नोट मेरे बटुए में रख रहा था।…जब मैं रास्तों की भुलभुलैया पर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था, वह मेरे लिए सही राह चुनने की जुगत कर रहा था।…जब दुनियावी मसलों से मेरा माथा फटा जा रहा था, वह मेरे सिर पर ठंडा तेल लगा रहा था।…मेरे चारों ओर जब ‘स्वार्थ’ लिखा जा रहा था, हर लिखे के आगे वह ‘नि’ उपसर्ग लगा रहा था।

….और आज मैं उससे कह रहा हूँ, ‘मित्रता दिवस की औपचारिक शुभकामनाएँ!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 19 ☆ भरोसा है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भरोसा है…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 19 ☆ भरोसा है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

नदी को भरोसा है

आयेगी कोई लहर

भीगेंगे रेतीले मन।

 

जमे अँधेरों पर

छायेगी धूप

ढके पहाड़ों का

निखरेगा रूप

 

धुंध के मचानों से

सूरज का उजला घर

पिघलेंगे बर्फ़ीले मन।

 

तनकर पगडंडी

सड़क रही टेर

साँझ नदी तट पर

मुँह ठाड़ी फेर

 

गोधूली बेला में

लौटेंगे पाँव सभी

टूटेंगे पथरीले मन।

 

रात के बिछौने

धूप ने भिगोए

कलियों के होंठ

ओस ने निचोए

 

भोर के उजाले में

बहकेंगे आँखों में

काजल सँग सपनीले मन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ख्वाहिशें इंसान की जीने नहीं देती है जब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ख्वाहिशें इंसान की जीने नहीं देती है जब“)

✍ ख्वाहिशें इंसान की जीने नहीं देती है जब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

आपके जीवन में होती तीरगी कैसे भला

दूर रहती नेकियों की रोशनी कैसे भला

 

परवरिश में मां पिता ने सीख दीं अच्छी सभी

आपके किरदार में रहती कमी कैसे भला

 

रौब रुतबे के नशे में  डूबकर जब जी रहे

आपकी फितरत में होती आज़जी कैसे भला

 

ख्वाहिशें इंसान की जीने नहीं देती है जब

कट रही संजीदगी से ज़िन्दगीं कैसे भला

 

रच रहे फ़ितने भ्रमर उनका है हामी बागवां

रह सके महफ़ूज़ गुलशन में कली कैसे भला

 

भाई भाई का बना दुश्मन फ़ज़ा बिगड़ी हुई

खून की बहती नहीं ऐसी नदी कैसे भला

 

ऐ अरुण तुम रहनुमा को राहजन बतला रहे

वो करेगा अब तुम्हारी रहबरी कैसे भला

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिंतन मनन।) 

? अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इस सृष्टि में सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो न केवल बोल सकता है, अपितु सोच विचार कर सकता है, अपना अच्छा बुरा और हित अहित भी समझ सकता है। वह आहार, भय, निद्रा के वशीभूत होकर भी यह अच्छी तरह से जानता है कि चिंता से चिंतन भला, चिंता चिता समान।

जहां सोचने विचारने की शक्ति है, वहां मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी मौजूद हैं। भला बुरा और पाप पुण्य तराजू के दो पलड़े हैं और उनका हिसाब रखने वाला कोई तीसरा ही है। ।

कहते रहें इसे ईश्वर की माया, जीव ने अगर जन्म लिया है तो इस संसार को उसे तैरकर ही पार करना है। कब तक चलेंगे किनारे किनारे, जरा सा पांव फिसला और हर हर गंगे।

जहां मनुष्य में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार है, वहीं उसके पास ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वैराग्य की बैसाखी भी है। वह पढ़ लिखकर एक अच्छा इंसान बन सकता है। सभी अवतार इस धरती पर ही प्रकट होते हैं, हे भगवान ! कितने भगवान हैं इस धरती पर, कुछ स्वयंभू और कुछ स्वयंसिद्ध। ।

हम जो पढ़ते, सुनते और समझते हैं वह हमारे चित्त में प्रवेश कर जाता है, बुद्धि उसे ग्रहण कर लेती है, और वह हमारी चिंतन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन जाता है। हम जो पढ़ते हैं, हमें याद हो जाता है, जो सुनते हैं, मन में बैठ जाता है, और जो सुनते हैं, वह भी स्मृति कोष में एकत्रित होता चला जाता है। किसी भंडार से कम नहीं हमारा चित्त।

चिंतन से आगे की प्रक्रिया मनन कहलाती है। जो पढ़ा अथवा सुना है, उस पर बार बार मनन भी आवश्यक है, वर्ना आगे पाट और पीछे सपाट वाली स्थिति बन जाती है। मनन को पढ़े अथवा सुने हुए को हम बार बार दोहराना भी कह सकते हैं। बचपन से ही हमें हर पाठ को दोहराने का अभ्यास कराया जाता है।।

जिस विषय में हम कमजोर होते थे, वह सबक पच्चीस बार दोहराने का सबक किसे याद नहीं। हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है cotemplation !

बार बार का अभ्यास ही अध्ययन है, स्वाध्याय है, चिंतन मनन है। सभी तत्वज्ञ, योगी महात्मा और वैज्ञानिक इसी चिंतन, मनन, contemplation और मेडिटेशन की राह से गुजरे हैं। जो प्रकट है, वह प्रत्यक्ष है, जो अप्रकट है, उसका प्रकट होना शेष है। धारणा, ध्यान और समाधि केवल शब्दांडर नहीं, एक जन्म की उपलब्धि नहीं, कई जन्मों के चिंतन मनन का परिणाम है। जानिये, जितना जान सकते हैं, सीमाएं अनंत आकाश है। सितारों के आगे जहान और भी हैं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्थानांतरण याने ट्रांसफर जो हिंदी में लिखा जाय या इंग्लिश में, सौ में से अस्सी बार तनाव देता है, नया माहौल, अपरिचित लोग, नया शहर/गाँव बहुत कुछ नया नया पर दुख दर्द पुराना पुराना. ये कोविड संक्रमण के समान देश व्यापी है जिसमें कोविशील्ड और कोवैक्सीन भी निष्फल हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि कभी कभी “को ब्रदर और को सिस्टर” नामक वैक्सीन रोग की व्यथा कम या दूर कर देती है. वांछित स्थान के स्थानांतरण आदेश प्रेमपत्र जैसे अजीज लगते हैं और दुर्गम स्थान के आदेश चार्जशीट के समान, जो पाने वाले का सुकून डिस्चार्ज कर देते हैं. पानीपत सदृश्य शाखा के मुख्य प्रबंधक “घर वापसी” का आदेश सपनों में अक्सर देखा करते थे और सपनीली खुशी के कारण आंख खुलने पर “मेरा सुंदर सपना टूट गया ” मद्धम सुर में गाते थे.

फिर कुछ दिनों बाद चुनावों का मौसम आया. ये विधानसभा या संसद के चुनाव नहीं थे बल्कि अधिकारी संघ के चुनाव थे. महासचिव पद के प्रत्याशी अपने अगले टर्म के लिये दलबल सहित शाखा में पधारने वाले थे. रात में रुकने की व्यवस्था और समीपस्थ सारी शाखाओं के अधिकारियों को शाम 5 बजे के बाद संबोधित करने के निर्देश, इन्हें प्राप्त हो चुके थे. शाखाओं के कुछ प्रवीण अधिकारी रुकने और सभा की व्यवस्था में लग चुके थे. उपस्थिति के हिसाब से सभा के लिये नगर के ही प्रसिद्ध होटल के मीटिंग हाल का चयन किया जा चुका था. आने वाले मेहमान जो मंचासीन होंगे, की संख्या ज्ञात करने के पश्चात एक सैकड़ा पुष्प मालायें और पुष्प गुच्छ आ चुके थे. पहले वेलकम शीतल पेय से और फिर संबोधन के पश्चात हाई टी की बेहतरीन व्यवस्था की गई थी. समयानुसार महासचिव की अगुवाई में उनके नौ सहयोगी सभाकक्ष में प्रविष्ट हुये. सारे अधिकारी गण पहले ही आ चुके थे. जो आपसी बातचीत में मगन थे, यह दृश्य देखकर उठ खड़े हुये और करतल ध्वनि से स्वागत करने की प्रतियोगिता में नज़र आने का प्रयास करते दिखे. महासचिव पद के प्रत्याशी, जिनका फिर से चुना जाना भी सुनिश्चित ही था, उड़ती नजरों से उपस्थित जनों को देखते हुये, सभाकक्ष की पहली पंक्ति में स्थान ग्रहण करने के लिये बढ़ रहे थे. जिन्हें पहचानते थे, उनकी ओर हल्की सी मुस्कान फेंकते और परिचित निहाल हो जाता. इसके पहले कि वे प्रथम पंक्ति में बैठते, हमारे मुख्य प्रबंधक उन्हें शालीनता के साथ मंच की ओर ले गये और सम्मान के साथ मध्य में बिठाया. टीम के शेष सदस्य, निर्देशानुसार पहली पंक्ति में ही बैठ गये. मीटिंग हॉल रोशनी से जगमगा रहा था, ब्लैक सफारी में सुसज्जित, क्लीन शेव, अत्यंत गौर वर्ण के महासचिव के चेहरे का तेज और व्यक्तित्व का प्रताप, स्टेज से भी ज्यादा दीपायमान था. उपस्थित जन उनकी सुंदर काया से चमत्कृत थे और तुरंत वोट देने को तैयार भी. मंच संचालन, इस कार्य के विशेषज्ञ युवा अधिकारी द्वारा किया जा रहा था और पर्याप्त समय और पर्याप्त से भी अधिक शब्दों के साथ प्रशस्तिगान चल रहा था. फिर उनकी टीम के शेष सदस्य एक एक करके पहले मंच संचालक द्वारा और फिर स्वयं भी अपना परिचय देते हुये विराजित होते गये. स्वागत भाषण के बाद और कुछ वक्ताओं के संक्षिप्त उदबोधन के पश्चात, शाखा के मुख्य प्रबंधक को सुपरसीड करते हुये, महासचिव जी ने संबोधन की डोर संभाली. उनके भाषण के कुछ रोचक अंश:

  1. पानीपत शाखा के मुख्य प्रबंधक (नाम लिया था) तो खुश होंगे कि आज फिर, … वे बोलने से बच गये. मेरे अनुज के साथी हैं और यहाँ इनकी पदस्थापना से पहली बार मुझे लगा कि बैंक सिर्फ बोलने वालों को नहीं बल्कि कभी कभी साइलेंट वर्कर्स को भी नोटिस कर लेती है.
  2. ये आखिरी चुनाव होगा, यह सुनकर हाल में उत्तेजक खामोशी छा गई. फिर थोड़ा समय लेकर और अपनी लोकप्रिय मुस्कान से उन्होंने हॉल को आलोकित किया और बोले: मित्रों, अभी मैं रिटायर होने वाला नहीं हूँ और मेरा स्वास्थ्य भी टनाटन है. (ये उनकी बोलने की शैली थी और सब इस शैली के हास्यरस से परिचित थे) उनकी जीत का एक फैक्टर उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी था जिसे वो गाहे बगाहे इस्तेमाल करते रहते थे. उनकी हाजिरजवाबी से बहुत सी डिमांड, हंसी के माहौल में ही सैटल हो जाती थीं. फिर उन्होंने कहा कि हम सब एक संस्था से जुड़े हैं और आपकी समस्याओं के लिये आवाज उठाना और अधिकतम प्रकरणों में निदान पाना, हम सबकी लड़ाई है. जब हम सब एक हैं तो फिर इलेक्शन क्यों. वो मेरा आदमी है और ये उसका, मैं इस पर नहीं जाता. चुनाव माहौल बिगाड़ता है और हमारी एकता को खंडित करता है, इस कारण ही उच्च प्रबंधन दूर से मजे लेता है. एक बागी तेवर वाला नौजवान मेरे पास आया था. मैंने यही समझाया कि आपस में लड़ने से बेहतर मेरा साथ दो. मेरी पारखी नजरें तुम्हारे भीतर एक उप महासचिव बनने की संभावनाएं देख रही हैं, थोड़ा धीरज रखो. समझदार बंदा था मान गया.
  3. भोपाल का पानी, अपने फायदे की राजनीति सिखा देता है. भोपाल घरवापसी के लिये इतने लोग मिलने आते हैं कि सुकमा, बीजापुर, पखांजूर, अंतागढ़, कमलेश्वरपुर वालों के बारे में सोचना भी भूल जाते हैं. ये नाम तक मुझे याद नहीं हैं, लिखकर लाना पड़ा.

इस तरह हंसी मजाक के बीच में सहजता के माहौल में मीटिंग समाप्त हुई. बाद में उनसे भेंट के दौरान ही और एकांत पाने पर मुख्य प्रबंधक जी ने अपनी घरवापसी के लिये मदद करने की बात कही. महासचिव जानते थे कि इन्हें तो अभी एक साल भी नहीं हुआ है. तो उनका ह्यूमर फिर से बाहर आया “अरे एक साल में तो मैं अपना ट्रांसफर भी नहीं करा सकता. हमारे भी स्थानांतरण हुये हैं अच्छे भी और बुरे भी. अभी भी हमारे दो ट्रांसफर तो होते ही होते हैं. एक हारने पर और दूसरा घर वापसी याने जीतने पर. पास खड़े लोग मुस्कान बिखेर रहे थे. फिर बाद में महासचिव महोदय अपने परिचितों के साथ अआगे की नीति बनाने में व्यस्त हो गये.

कथा में वर्णित सारे पात्र काल्पनिक हैं और यहाँ से कोस कोस दूर तक उनका किसी वास्तविक पात्र से कोई संबंध नहीं है. इंज्वॉय कीजिए क्योंकि अब तो यही करना चाहिए. डॉक्टर मनमोहनसिंह जी की नकल प्रधानमंत्री नहीं बना सकती इसलिए “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल.”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – “मित्रता के दोहे…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ कविता – “मित्रता के दोहे…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

नेहिल होती मित्रता, होती सदा पवित्र।

दुख में कर ना छोड़ता, हो यदि सच्चा मित्र ।।

वही मित्र है ख़ास जो, कह दे चोखी बात।

रहे संग वह नित मगर, बनकर के सौगात।।

कृष्ण-सुदामा से सखा, नहीं मिलेंगे और।

ऐसा ही चलता रहे, सख्य भाव का दौर।।

पावनता का तेज हो, निश्छल हों सम्बंध।

बनें सखा मजबूत कर, अनुपम यह संबंध।।

अंतर्मन था निष्कलुष, गहन चेतना भाव।

अमर बने तब मैत्री, होगा नहीं अभाव।।

कृष्ण-सुदामा मैत्री, ने पाया सम्मान।

पनपे ना कोई कपट, केवल मंगलगान।।

एक देव था, एक नर, पर थे चोखे यार।

सख्य भाव देता सदा, हर युग में उजियार।।

ऊँचनीच को भूलकर, बनना चोखे यार।

तब ही यह रिश्ता बने, आजीवन उपहार।।

मित्र करे ग़ल्ती अगर, बतला देना भूल।

पर तजकर के साथ तुम, नहीं चुभाना शूल।।

 रखना हित का भाव नित, रखना उर में प्रीत।

जय होगी तब मित्रता, जय हो ऐसी रीत।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ निवेदन दुरूस्ती ☆ सम्पादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

💐 निवेदन दुरूस्ती 💐

शुक्रवार दि.28/07/2023 रोजी दिलेल्या संपादकीय निवेदनात ई अभिव्यक्ती सुरू झाल्याची तारीख नजरचुकीने 15/08/2021 अशी दिली गेली होती.

परंतू ही तारीख 15/08/2020 अशी हवी आहे.  क्षमस्व! 🙏

आपल्या ई-अभिव्यक्तीला येत्या 15 तारखेला तीन वर्षे पूर्ण होत आहेत. दुरूस्तीची कृपया नोंद घ्यावी.

आपल्या समुहातील ज्येष्ठ साहित्यिका सुनीता गद्रे यांनी ही चूक निदर्शनास आणून दिली आहे.त्यांना मनापासून धन्यवाद.

संपादक मंडळ

ई-अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “काचेमागचा पाऊस…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “काचेमागचा पाऊस…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

(२८ जून २०२३)

पंचतारांकित हॉटेलच्या

फ्रेंच विंडोतून पाऊस

मला वाकुल्या दाखवत होता

म्हणाला “बाहेर ये” घालू धुडगूस

 

काचेतून पाहत होते सागराला

 पावसामध्ये  तोही होता उधाणला

 लाटांवर लाटा उंच उंच लाटा

फुगड्या सरींशी घालत तोही रमला

 

 काचेने  अडवला पावसाचा आवाज

वारा झाडे लाटांचा वाद्यवृंद

बाहेर मैफल रंगली होती

पारदर्शी  पावसाने मन झाले धुंद

 

गावाकडचं आठवलं घर कौलारू

 टप टप छिद्रांतून  थेंबांची  गळती

 घराभोवती  तळी किती साठायची

 त्यात होड्या  कागदाच्या तरंगती 

 

 काचे मधला पाऊस कसा वेटरसारखा

 हाऊ कॅन आय हेल्प यू म्हणणारा

 पण गावाकडचा रानातला पाऊस

सखा माझा कानाशी गाणारा

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 194 ☆ कस्तुरी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 194 ?

☆ कस्तुरी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

यंदाच्या मोसमात

बहरलाच भरघोस,

मोगरा माझ्यासाठी !

 

त्याची कंच हिरवाई

डोळ्यात भरून राहिलेली

आणि शुभ्र दरवळ

आत खोलवर

प्राणापर्यंत !

 

मग मी ही

चंदनासारख्या

उगाळत राहिले

त्या ऋतुबहराच्या आठवणी….

 

काही घाव

दुख-या जखमा

घेतल्या लिंपून

त्या शीतल सुगंधाने !

 

आता मोगरा

फुललाय अंगोपांगी

आणि अवघा देह

कस्तुरी झालाय!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पश्चात्ताप…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पश्चात्ताप…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

दिली जीभ म्हणून चालवत गेलो

अजाणतेपणी भावना कापत गेलो

हेतू निराळा पण दिसत वेगळा गेलो

पश्चात बुद्धी दग्ध पश्चातापे झालो

 

बळावर बुद्धीच्या जिंकण्यासाठी

भावना तुमच्या विसरत गेलो

वरती जायच्या नादात

नकळत त्या चुरडत गेलो

 

विषयाशी एकरूप होता होता

परिस्थितीशी फारकत घेत गेलो

काळाच्या पुढे धावता धावता

वेळेचे महत्व विसरत गेलो

 

दुखवायचा कधीच हेतू नव्हता

इर्श्येचा लवलेश नव्हता

मात्सर्याचा तर पिंडच नव्हता

बुध्दीचा मात्र गर्व होता

 

तरी मूर्खपणा करत गेलो

जिंकायच्या नादात हरत गेलो

बोलत असलो सत्य तरी

बनत फाटक्या-तोंडाचा गेलो

 

चूक माझी मला मान्य आहे

सजा द्याल ती मंजूर आहे

बंदुकी साठी या तुमच्या

चिलखत आज उतरवले आहे

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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