या आयुष्याच्या झाडाला बालपणीची पहिली डहाळी सर्वात उंच उंच असते .माय पित्याच्या मायेच्या ढोलीत सख्या सोबत्यांच्या संगतीत किलबिल किलबिल गुजगोष्टीने, प्रत्येकाला रंगीबेरंगी फुलाप्रमाणे स्वप्नं पाहात, पंखातले बळ अजमावत गगनाला गवसणी घालण्याची इच्छा मनात येते. वेळ येते तेव्हा काहींचे मनसुबे पूर्ण होतात तर काहींचे मृगजळाचे रूप घेऊन हुलकावणी देत राहतात.. देव भेटत नाही आणि आशा सुटत नाही याचा प्रत्यय ठायी ठायी येतो. दमछाक होते. नाद सोडून दिला जातो.. आता एकटेपणाचा उबग येतो नि जीवन साथीची गरज भासते.. शांत, सरळ, एकमार्गी धोपट जीवन जगावेसे वाटणे स्वाभाविक असते.. ती आयुष्यातली गोड गुलाबी सल्लज कुजबूज, हितगुज आपल्या प्रियतमांच्या कानात सांगाविशी वाटते. मानवी जीवनातला हा सर्वात सुंदर सुवर्णकाळ असतो.. स्वप्नांच्या पूर्ततेचा हा टप्पा असतो..या संसाराच्या फांद्यावर आता आपलचं स्वतंत्र घरटं असतं.. आणि बालपणीचे सखेसोबतीत अंतर दुरावलेलं असतं.. इथं संबंध झाड हिरवेगार तजेलदार, पानाफुलाने नि फळांनी बहरून आलेलं असतं. मग हळूहळू तो बहर ओसरू लागतो, पानं पिवळी पडत जीर्ण शीर्ण होऊन गळू पाहतात, फुलं कोमेजू लागतात, फळ झाडापासून तुटून खाली पडू पाहतात… ही वार्धक्याची डहाळी झाडाच्या बुंध्याला येऊन टेकलेली असते.. बरेच उन्हाळे पावसाळे झेलून झालेले असल्याने आता कशाचीच असोशी उरलेली नसते.. अगदी जीवन साथीची जवळिकतेची सुद्धा.. केवळ अस्तित्वाने जवळ असणं पुरेसे वाटतं. संवादाला नाहीतरी विवादाला तरी सोबत असावी असचं वाटू लागतं ,मनाप्रमाणे शारिरीक अंतर पडू पाहतं..मावळतीचे काळे करडे राखाडी रंग तनामनावर उमटले जातात.. बालपणीचा किलबिलाट, तरूपणीची गुंजन हवेत कधीच विरून गेलेली असते, आणि आता वृद्धपणी ची कलकल हुंकारत असते.. गुणापेक्षा अवगुणाची एकमेंकाची उजळणी करत करत, एक दिवस विलयाचा येतो नि जगलेल्या जीवनातील आठवणींचा सुंगध मागे दरवळत राहतो.. अशी पाखरे येती नि स्मृती ठेवूनी जाती हेच खरे असते नव्हे काय?
कल एक फिल्म देखने गयी थी। मराठी फिल्म। वॉक्स ऑफिस पर हिट, इस फिल्म को देखने के लिए हमारे घर का सारा महिला मंडल मुझे भी साथ ले गया। थियेटर महिलाओं की भीड से खचाखच भरा था। फिल्म महिलाओं पर आधारित है। अच्छी लगी। नहीं नहीं, चिंता न करो मैं तुम्हें कोई फिल्म की कहानी बतानेवाली नहीं हूँ। बस कुछ एक प्रसंगों और संवादो ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया था। क्योंकि पहले ही मैं रिलेशनशिप को लेकर बात करती आयी हूँ तो उसी को थोडा आगे लेकर अपनी बात रखना चाहती हूँ। उस फिल्म में प्रसंग ऐसा है कि एक बहन दूसरी बहन का हाथ पकडे चल रही है, पहलेवाली बाथरूम जाने के लिए आगे बढ़ती है और पीछेवाली उसका हाथ छोडती नहीं बल्कि और अधिक ज़ोर से पकडती है, पहलेवाली बार बार उसे हाथ छोडने के लिए कहती है पीछेवाली हर बार उसका हाथ और अधिक मज़बूती से पकडकर अपनी ओर खींचती है और कहती है हाँ हाँ जाओ। तब पहलेवाली रोष में आकर इरिटेड होकर कहती है, ‘ छोडोगी तो मैं जाऊंगी न’ तब पहली वाली बहन उसे कहती है कि, ‘ तुमने ही तो पकड के रखा है। उसे छोड दो… जीने दो उसे… और खुद जीओ… तुम्हारे भीतर की स्वतंत्र स्त्री को बाहर आने दो…. ।’ फिल्म की थीम के अनुसार और भी कुछ था। पर यह प्रसंग बार बार मेरे मन में कौंध रहा था… मैं बहुत कुछ सोचे जा रही थी, लोग मुव ऑन कर जाते हैं… और पीछे वाला ख्वामखाह वहीं खड़ा रहता है… किस इंतजार में…।
सच कहूँ मेरे दिमाग में बहुत कुछ ज्वार भाटे की तरह उमड घुमड रहा है, मेरी स्मृति पटल पर कुछ तस्वीरें जींवत हो रही है, और मैं चुप नहीं बैठ पा रही हूँ, जो कुछ जैसा कुछ मेरे मन में उठ रहा है, लिख रही हूँ, जानती हूँ तुम मुझे कभी जज नहीं करते, हमारी शर्त याद है न… जंजमेंटल नहीं होना है…।
सोच रही हूँ, एक लंबा समय एक साथ बिताने के बाद माना कि एक दूसरे को एक दूसरे की आदत हो जाती है। उनके प्लस माइनस पॉइंट्स के अब कोई मायने नहीं होते हैं, उनकी भी तो आदत हो ही जाती होगी। एक दूसरे की आदत हो जाना अर्थात और दूसरे विकल्प का न होना ही है। मतलब उस रिश्ते को ढोने के लिये मजबूर होना या लब्बोलुआब ये कि अब इसी रिश्ते में जीवन भर बंधे रहना । ये आदत ही तो नहीं होना ही उसका गुलाम हो जाना है और जिस वक्त गुलामी हो गई तो रिश्ता कहाँ बचता है? रिश्ता तो हवा में फैली खुशबू है जितनी अपनी साँस में भर सको भर लो। उस खूशबू को रोकने की कोशिश करने का क्या मतलब… और खशबू भला कभी रोकी जा सकती है? आदत लग जाने से दूसरे पर निर्भरता बढ़ जाती है और यहीं निर्भरता दूसरे का बंधन बन जाती है। जहाँ बंधन बढ़ता है वहीं दरारें पड़नी शुरू होती है और रिश्ता ढहने लगता है। रिश्ता ऐसा हो जो स्वतंत्र तो हो ही साथ ही उसमें केयर भी होनी चाहिए । सम्मान हर रिश्ते की रीढ होती है। जो रिश्ता हमें सम्मान का अनुभव कराता हैं वह हमें आत्मिक संतुष्टि और खुशी प्रदान करता है।
प्यार एक सुंदर अनुभूति है, एक बेहद खूबसूरत रिश्ता है किंतु ये भी सम्मान के बिना मर जाता है। प्रेम शब्द हमारे जीवन का अहम हिस्सा है, पल पल को जीने के लिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम हर पल प्रेम की भूमिका को सही पहचान ले, क्योंकि हर रिश्ते में प्रेम का अवदान जरूरी है और बिना रिश्तों के जीवन भी अधूरा होता है। रिश्ते हमारे जीवन की धूरी है, इनका महत्व भी कम नहीं आंका जाना चाहिए। हालांकि आज के हालात, रिश्तों की अनचाही कहानियाँ बयान करते नजर आ रहे हैं। फिर भी, इस दुनिया के सारे कार्य-कलाप प्रेम और रिश्तों की आपसी समझ से ज्यादातर सम्पन्न किये जाते है।
रिश्ता उस नदी की धारा सा होता है जो प्यास बुझाने के साथ साथ अपने कल कल संगीत से हमें तरोताजा करता है, सक्रिय बनाये रखता है। यह रिश्ता विश्वास, समझदारी, सहयोग, और सम्मान के मूल्यों पर आधारित होता है। जब हम इन मूल्यों के साथ रिश्ते बनाते हैं, तो हम आपस में गहराई और प्रेम का अनुभव करते हैं। कहते हैं सच्चा प्रेम कभी बढ़ता भी नहीं और घटता भी नहीं और ना ही सच्चे प्रेम में कोई शर्त या उम्मीद होती है।
लेकिन जिन के बीच दरारें आ गयी हों, एक दूसरे प्रति कोई सम्मान ही नही रहा हो तो उस रिलेशनशिप का क्या? क्या उस रिश्ते को ढोना आवश्यक है? अगर पहले का समय होता तो शायद यही कहा गया होता कि नहीं नहीं इतने साल बीता दिए, अब और कितना समय रहा है, चलो एडजस्ट करके जीवन जी ही लेते हैं। आखिर परिवार की, व्यक्ति की मान मर्याद और प्रतिष्ठा का सवाल है! संबंधों में आयीं दरारों से पीडित व्यक्ति अपना मन मारकर चेहरे पर उधार की मुस्कुराहट सहेजकर जीवन को जीने बाध्य होता है.. किंतु वह अंदर खुश नहीं रह सकता, रिश्ते का बोझ कहीं न कहीं वह ढोता रहता है जिसकी प्रतिक्रिया कई रूपों में होती है, कभी तो वह हद से ज्यादा हँसता है, लाउड बोलता है, अधिक एकस्प्रेसिव होने की कोशिश करता है या फिर निरंतर शॉपिंग, आउटिंग, फैशन आदि में खुद को उलझाकर जीने का एक नया तरीका अपनाता है, शायद यह दिखाने के लिए कि मैं खुश हूँ.. एक बोझ लिए भी खुश हूँ। मनुष्य तो जीने को बाध्य है, और एक सच्चाई है कि आज के समय में ऐसे कितने ही लोग हैं जो ओढी हुई जिंदगी जी रहे हैं। यह दिखावा आज मनुष्य की फितरत में यह सब शामिल हो गया है। एक दुहरी जिन्दगी जीना उसकी किस्मत बन गयी है। कितनी जिंदगियाँ दोहरी जिदंगी जीते हुये तबाह हो गई और कितनी रोज रोज तबाह हो रही हैं.. इस सच से तो सारी दुनिया वाबस्ता है। हमारा सामाजिक ताना बाना ऐसा रहा है कि उसी में सब सिसक रहे हैं। जीवन में प्रेम विवश हो, तब रिश्तों को लोक लिहाज के लिए निभाने की कोशिश करता है, तो विश्वास कीजिये, वो आत्मग्लानि के अलावा कुछ भी नहीं झेल पाता। और हम यही सोचने लगते हैं कि, शहरयार के शब्दों में कहे तो,
सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।
यह बहुत ही सामान्य बात है कि हम जो नहीं है वह दिखाने की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। इसका एक कारण है कि हम अक्सर लोगों द्वारा जज किए जाने का डर पालते रहते हैं। शायद यही वजह भी है कि हम अक्सर लोगों की आँखों में जो जच जाता है उसे ही करते हैं। इन दिनों यह प्रवृत्ति तो कुछ अधिक ही बढ़ रही है।
हम भले ही किसी रिलेशनशिप से बाहर क्यों न आ गए हो पर यह ज़रूर चाहते हैं कि उस व्यक्ति तक मेरे खुश होने की खबर अवश्य पहूँचनी चाहिए, ताकि उसे यह लगे कि उसके बिना मैं बुहुत खुश हूँ… अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है मुझे… जी लेता/लेती हूँ मैं तुम्हारे बिना। और खुश भी रहता/ रहती हूँ। पर क्या वाकई यह ऐसा है?… हम ऐसा क्यों चाहते हैं? …. न जाने कैसा असुरी आनंद है इसमें! क्यों हम उसे भी अपने अहसासों से दूर नहीं रखते.. क्यों आज़ाद नहीं हो पाते या आजाद नहीं करते? रिश्ते में बंधन रिश्तों को सड़ा देते हैं…रिश्तें के दम पर अगर कोई बंधन डाल रहा है तो मान लिजिए कि व्यक्ति की आज़ादी खतम होती जा रही है। पहले पहले ये बंधन अलंकार लगते हैं.. पर एक समय बाद जंजीर…।
मेरे सामने फिर एक शब्द वह सवाल बनकर खड़ा हो गया है.. मोहब्बत! और इस शब्द के साथ मुझे अहमद फराज की दो पंक्तियाँ याद आयीं,
नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है।
सभी जानते हैं यह एक अहसास जिसमें मात्र समर्पण है, एक ऐसी अनुभूति जो शब्दों से परे होती है.. उम्मीद कुछ भी नहीं..बस चाहत है… कोई प्रतिबद्धता नहीं। इसमें एक दूसरे को स्पेस है… और स्पेस हमारे जीवन में बहुत महत्व रखता है… और हम वही नहीं देते…. और वहीं से शुरु होता है एक दबा दबा सा युद्ध अंदर… फिर कभी वह कई रूपों में आकार लेता है…। पर सच ये भी है कि किसी के न होने का अहसास सबको है पर मौजुदगी की कदर किसी को नहीं।
बोझ बने रिश्तों में जकड़ना वाकई स्वास्थकारक नहीं… छोडना भी ज़रुरी है…. कभी कभी जरूरी है हम अपनी कस्तुरी ढूँढ ले… वह कहीं और है भी नहीं….अपने ही भीतर है….और हम मारे मारे उसे बाहर ढूँढ रहे है… और वही सुगंध ही हमें वाकई में शांति देगी… कारण वही हमारी सही पहचान की चाबी है।
हम आज के जीवन पर गौर करे तो लगता है, सब कुछ होते हुए भी मौजूदा हालात हमें तन्हा कर रहे हैं। हम तन्हाई पसन्द हो रहे हैं। एक जगह पर दुष्यंत कुमार ने कहा है,
जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
चिंतन की बात यही है कि प्रेम एक सच्चाई है, जो रिश्तों को अपने आयाम तलाशने में मदद करती है। वरन् Joseph F Newton Men के विचार सही ही लगने लगते हैं कि “People are lonely because they build walls instead of bridges।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बारे उजियारा करे, बढ़े अंधेरा होय…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 158 ☆
☆ बारे उजियारा करे, बढ़े अंधेरा होय… ☆
भरी हुई गगरी से जल न छलका तो क्या छलका, छल, बल की तो रीत ही निराली है, एक से बढ़कर एक तजुर्बेकार भी रोते हुए देखे जा रहे हैं, अरे भई तकनीकी का युग है। गूगल महागुरु का ताज पहन शीर्ष पर और उसके अनुयायी उससे सीख कर ज्ञान बाटने लगते हैं, चेले तो पहले से ही तैयार बैठे हैं, जैसे ही उन्होंने कुछ अर्जित किया तुरन्त, लेना एक न देना दो खुद गुरु बन गए और एक नया समूह बना लिया सत्संग शाला का, शिष्यों को खुद ही जोड़ लिया, कुछ जुड़े रहे कुछ भाग निकले खूँटा तोड़कर।
जिसने ज्ञान की कुछ बूंदे पायीं उसने गागर में सागर को भी झुठलाते हुए अपनी गगरी लेकर चल पड़ा, औरों की ज्ञानरूपी प्यास बुझाने को, अब ये बात अलग है कि गगरी छलकती जा रही है, क्यों न छलके आधी जो भरी है।
इतना ही कम था क्या? कि यहाँ एक और महाशय भी आन टपके नाँच न जाने आँगन टेढ़ा को चरितार्थ करने। इस श्रेणी में तो बहुत मारा- मारी है बिल्कुल उसी तरह जैसे एक अनार सौ बीमार ।
खैर ये दुनिया बहुत भली है सबको समाहित कर लेती है कभी उफ तक नहीं करती। छुटभइये लोगों की तो बात ही न करें, यही तो असली विस्तारक होते हैं सभी योजनाओं के।
ऐसे में कोई रिश्तों की दुहाई देता हुआ कह उठता है –
रिश्ते पैसों की तरह होते हैं, गँवाना आसान है और कमाना मुश्किल है
गलती को सुधारना है तो नम्र बने।
मुझे दे दीजिए सँभालकर रखूँगा मैं पूँजी पर ज्यादा विश्वास करता हूँ, अब ये बात अलग है कि पूँजी न सही रिश्ते ही सही नए- नए बने गुरु ने अपनी खीस निपोरते हुए कहा ।
तभी रोनी सूरत बना कर रिपोर्टर महोदय हाजिर हुए और कहने लगे मेरा प्रेस कार्ड का बैक भी डिजाइन करवा दें, एवं कहीं सिग्नेचर भी हों, अपॉइंटिंग अथॉरिटी के, वरना किस काम का ???
कुछ काम निकल आये, अपने मुंह से क्या परिचय दूँ। लोग मुझे सिरियसली कम लेते हैं, कुछ गुर और सीखने होगें’ जिन्दगानी के।
गहरी आह भरते हुए कुछ दिन पुराने गुरू ने कहा आज तो हद ही हो गयी, उन्हें लगता है कि इस विधा में मेरे से काबिल कोई और हो ही नहीं सकता। जैसे गुरु वैसे चेला सब एक दूसरे को चने के झाड़ पर चढ़ाते जा रहे हैं। ज्ञानी महोदय जी ने उन्हें बहका रखा है।
शाला के प्रचारक सह प्रायोजक कहने लगे वो बच्चा है पर है मेहनती उसे माफ़ कर दीजिए मैंने भी कई बार माफ़ किया है। आप भी बड़े हैं, बड़ा दिल रखते हैं, बच्चों का काम है, शैतानी करना।
बड़ो का काम है माफ़ करना पर क्या करें ? कभी कभी दिल बहुत दुखी हो जाता है।
नए गुरू जी कह उठे हम तो रेतमार लेकर माँजते ही रहते हैं दिमाग को। पर ये ठस लोहे का बना है, ऊपर से बरसात का मौसम जंग लग जाती है।
सबसे ज्यादा पूछ- ताछ आम लोगों की होती है । अरे भई फल का राजा भी तो आम ही है इस समय तो सीजन चल रहा है।
खास हो जाईये ….
उसी के लिए तो दिनभर पढ़ते हैं फेसबुक पर और रात में ज्ञान बाट दिए, खास तो बाद में होंगे, अभी मैं भी प्रैक्टिस कर रहा हूँ। वहाँ से एवार्ड भी मिला है।
लड़ने में या गलती निकालने में …. ??
मुस्कुराते हुए अच्छा काम करने में।
प्रचारक महोदय ने गम्भीर होते हुए कहा समीक्षक की भी समीक्षा होती है, इसका भी ध्यान होना चाहिए। बीछी का मंत्र न जाने साँप के बिल में हाथ डाले वाली बात है। ये अथाह सागर है- इसमें हम एक बूँद भी नहीं हैं।
चलिए जाने दीजिए, यही सब तो जरूरी है इसी बहाने कुछ सीखने तो मिल रहा है, ज्ञान के अमृत की कुछ बूंदे ही सही… यही बूंदे एक दिन विशाल सागर बना सकतीं हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆
आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक…
कल मेरा बैंक जाना हुआ। एक बुजुर्ग अम्मा अपनी पास बुक में एंट्री करवाना चाहती थीं। काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उन्हें हिकारत की नजरों से देखते हुये कहा कि कल आना। इस संवेदनशील दृश्य ने मुझे यह लेख लिखने को विवश किया है। बैंको में निश्चित ही ढ़ेर सारी कथित जन कल्याणकारी वोट बटोरू योजनाओ के कारण काम की अधिकता है। प्रायः माह के पहले सप्ताह में बैंक कर्मी एंट्री या अन्य कार्यों को टालने के लिये प्रिंटर खराब होने, स्टाफ न होने, या अन्य बहाने बनाते आपको भी मिले होंगे, मुझे भी मिलते हैं।
बुजुर्गो के लिये बैंक आपके द्वार जैसी योजनायें इंटरनेट पर बड़ी लुभावन लगती हैं किन्तु वास्तविकता से कोसों दूर हैं। म प्र में तो सीनियर सिटिजन कार्ड्स तक नहीं बनाये गये हैं, उनके लाभों की बात तो बेमानी ही है। स्वयंभू मामा को वरिष्ठ नागरिको में वोट बैंक नही दिखना हास्यास्पद है। वे कुछ बुजुर्गों को तीर्थाटन में भेजते फोटो खिंचवाते प्रसन्न हैं। श्रीलंका की यात्रा से लौटकर यथा नियम वर्षो पहले विधिवत कलेक्टोरेट जबलपुर में आवेदन करने, सी एम हेल्पलाइन पर शिकायत करने पर भी यात्रा के किंचित व्यय की पूर्ति योजना अनुसार देयता होने पर भी आज तक न मिलने के उदाहरण मेरे सम्मुख हैं।
वरिष्ठ नागरिक समाज की जबाबदारी हैं एक दिन सबको वृद्ध होना ही है। सरकारों को अति वरिष्ठ नागरिकों की विशेष चिंता करनी होगी। देश के उच्च तथा मध्य वर्ग के बड़े समूह ने अपने बच्चो को सुशिक्षित करके विदेश भेज रखा है। अब एकाकी बुजुर्गो की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। अति वरिष्ठ बुजुर्गो के लिए कोई इंश्योरेंस नही है। अकेले धक्के खाने वाली चिकित्सा व्यवस्था से बुजुर्ग घबराते हैं, समाज में बुजुर्गो को सुरक्षा की कमी है, बैंक तथा शासकीय अधिकारी सही सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते, बच्चों के पास ये वरिष्ठ नागरिक विदेश जाना चाहते हैं किंतु वीजा तथा वहां मंहगी चिकित्सा की समस्याएं हैं। सरकार को देश में और विदेशी सरकारों से समझौते कर इन अति वरिष्ठ नागरिकों को सहज सरल जीवन व्यवस्था देनी चाहिए। यह समय की मांग है। किसी भी राजनैतिक पार्टी का ध्यान इस ओर अभी तक नही गया है।
अपने विदेश तथा अमेरिका प्रवास में मैंने देखा कि वहां बुजुर्गो के मनोरंजन हेतु, उनके दैनंदिनी जीवन में सहयोग, कार पार्किंग, आदि आदि ढ़ेरो सुविधायें निशुल्क सहज सुलभ हैं। भारत सरकार के पोर्टल के अनुसार बुजुर्गों को आयकर संबंधी कुछ छूट, बैंको के कुछ अधिक ब्याज के सिवा यहां कोई लाभ बुजुर्गों तक नहीं पहुंच रहे। कार्पोरेशन प्रापर्टी टैक्स में छूट, दोपहर और रात में जब मेट्रो खाली चलती हैं तब बुजुर्गों को सहज किराये में छूट दी जा सकती है . निजि क्षेत्रो के अस्पताल, एम्यूजमेंट पार्कस, सिनेमा आदि भी अंततोगत्वा सरकारी प्रावधानो के अंतर्गत स्थानीय प्रशासन में ही होते हैं, उन्हें भी बुजुर्गो के लिये सरल सस्ती व्यवस्थाये बनाने के लिये प्रेरित और बाध्य भी किया जा सकता है।
जेरियेट्रिक्स पर सरकारो को विश्व स्तर पर ध्यान देने की जरुरत है। जिनके बच्चे जिस देश में हैं उन्हें वहां के वीजा सहजता से मिलें, उन देशों की सरकारें वहां पहुंच रहे बुजुर्गो को मुफ्त स्वास्थ्य सेवायें, कैश लेस बीमा सेवायें सुलभ करवायें इस आशय के समझौते परस्पर सरकारों में किये जाने की पहल भारत को करनी जरूरी है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्याऊ और …“।)
अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और… श्री प्रदीप शर्मा
यह तब की बात है, जब मिल्टन के वॉटर कंटेनर और बिसलेरी की बॉटल का आविष्कार नहीं हुआ था, क्योंकि हमारे प्रदेश में कुएं, बावड़ी, नदी तालाब, ताल तलैया और सार्वजनिक प्याऊ की कोई कमी नहीं थी। शायद आपने भी सुना हो ;
मालव धरती गहन गंभीर,
डग डग रोटी, पग पग नीर
हम बचपन में, सरकारी स्कूल में कभी टिफिन बॉक्स और वॉटर बॉटल नहीं ले गए। कोई मध्यान्ह भोजन नहीं, बस बीच में पानी पेशाब की छुट्टी मिलती थी, जिसे बाद में इंटरवल कहा जाने लगा।
इतने बच्चे, कहां का पब्लिक टॉयलेट, मैदान की हरी घास में, किसी छायादार पेड़ की आड़ में, तो कहीं आसपास की किसी दीवार को ही निशाना बनाया जाता था। हर क्लास के बाहर, एक पानी का मटका भरा रहता था, तो कहीं कहीं, पीने के पानी की टंकी की भी व्यवस्था रहती थी। कुछ पैसे जेब खर्च के मिलते थे, चना चबैना, गोली बिस्किट से काम चल जाता था।
शहर में दानवीर सेठ साहूकारों ने कई धर्मशालाएं बनवाई और सार्वजनिक प्याऊ खुलवाई। हो सकता है, कई ने कुएं बावड़ी भी खुदवाए हों, लेकिन सार्वजनिक पेशाबघर की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन अथवा नगर पालिका की ही रहती थी। हो सकता है, नगरपाल से ही नगर पालिका शब्द अस्तित्व में आया हो। ।
आज भी शहर में आपको कई ऐसी धर्मशालाएं और सार्वजनिक प्याऊ नजर आ जाएंगी, जिनके साथ दानवीर सेठ साहूकार का नाम जुड़ा हो, लेकिन इनमें से किसी के भी नाम पर, शहर में कोई सार्वजनिक पेशाब घर अथवा शौचालय नजर नहीं आता। इतिहास गवाह है, केवल एक व्यक्ति की इन पर निगाह गई, और परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति, घर घर शौचालय, और सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर के निर्माण ने देश का कायाकल्प ही कर दिया।
इसके पूर्व सुलभ इंटरनेशनल ने पूरे देश में सुलभ शौचालयों का जाल जरूर बिछाया, लेकिन उसमें जन चेतना का अभाव ही नज़र आया।
पानी तो एक आम आदमी कहीं भी पी लेगा, लेकिन पेशाब या तो घर में ही की जा सकती है अथवा किसी पेशाब घर में। भाषा की अपनी एक सीमा होती है, और शर्म और हया की अपनी अपनी परिभाषा होती है। कुछ लोग इसे लघुशंका कहते हैं तो कुछ को टॉयलेट लग जाती है।
मौन की भाषा सर्वश्रेष्ठ है, बस हमारी छोटी उंगली कनिष्ठा का संकेत ही काफी होता है, अभिव्यक्ति के लिए। जिन्हें अधिक अंग्रेजी आती है वे इस हेतु पी (pee) शब्द का प्रयोग करते हैं। बच्चे तो आज भी सु सु ही करते हैं। खग ही जाने खग की भाषा। ।
एक समग्र शब्द प्रसाधन सभी को अपने आपमें समेट लेता है। बोलचाल की भाषा में आज भी इन्हें पब्लिक टॉयलेट कहा जाता है, पुरुष और महिला के भेद के साथ। प्रशासन ऐप द्वारा भी आजकल आपको सूचित करने लगा है, यह सुविधा आपसे कितनी दूरी पर है।
हर समस्या का हल सुविधा से ही होता है, लेकिन कुछ आदिम प्रवृत्ति आज भी पुरुष को स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और उच्छृंखल बनाए रखती है। सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान और मल मूत्र का विसर्जन वर्जित और दंडनीय अपराध है लेकिन उद्दंडता सदैव कानून कायदे और अनुशासन का उल्लंघन ही करती आ रही है। हद तो तब होती है, जब इनके कुछ शर्मनाक कृत्य लोक लाज और मान मर्यादा की सभी हदें पार कर जाते हैं, और कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आम भाषा में कांड की श्रेणी में शामिल हो जाता है, कभी तेजाब कांड तो कभी पेशाब कांड ! एक जानवर कभी अपनी कौम को शर्मिंदा नहीं करता, लेकिन एक इंसान ही अक्सर इंसानियत को शर्मिंदा करते देखा गया है। हम कब सुधरेंगे।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल कहानी –“स्वच्छता के महत्व”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 144 ☆
☆ बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।
एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।
“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”
“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”
“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”
लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।
“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”
“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”
“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”
लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”
“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”
लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”
और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।
एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।
“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”
छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”
छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।
“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”
छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।
लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।