हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आओ कुछ

पढ़ डालें चेहरे

फेंक दें उतार कर मुखौटे।

 

पहचानें पदचापें

समय की

कुल्हाड़ी से काटें जंजीरें

तमस के चरोखर में

खींच दें

उजली सी धूप की लकीरें

 

सूरज से

माँगें पल सुनहरे

तोड़ें रातों से समझौते ।

 

पत्थरों पर तराशें

संभावना

सूने नेपथ्य को जगाकर

उधड़े पैबंद से

चरित्रों को

मंचों से रख दें उठाकर

 

हुए सभी

सूत्रधार बहरे

जो हैं बस बोथरे सरौते।

 

ऊबड़-खाबड़ बंजर

ठूँठ से

उगते हैं जिनमें आक्रोश

बीज के भरोसे में

बैठे हैं

ओढ़ एक सपना मदहोश

 

चलो रटें

राहों के ककहरे

गए पाँव जिन पर न लौटे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स  ??

भीषण अग्निकांड में सब कुछ जलकर खाक हो गया। अच्छी बात यह रही कि जान की हानि नहीं हुई पर इमारत में रहने वाला हरेक फूट-फूटकर बिलख रहा था। किसी ने राख हाथ में लेकर कहा, ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ किसी ने राख उछालकर कहा, ‘उद्ध्वस्त, उद्ध्वस्त!’ किसी को राख के गुबार के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था। कोई शून्य में घूर रहा था। कोई अर्द्धमूर्च्छा में था तो कोई पूरी तरह बेहोश था।

एक लड़के ने ठंडी पड़ चुकी राख के ढेर पर अपनी अंगुली से उड़ते फीनिक्स का चित्र बनाया। समय साक्षी है कि आगे चलकर उस लड़के ने इसी जगह पर एक आलीशान इमारत बनवाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 42 ⇒ धुन और ध्यान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धुन और ध्यान।)  

? अभी अभी # 42 ⇒ धुन और ध्यान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो अपनी धुन में रहते हैं, उन्हें किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता ! तो क्या धुन में रहना ध्यान नहीं ? जब किसी फिल्मी गीत की धुन तो ज़ेहन में आ जाती है, लेकिन अगर शब्द याद नहीं आते, तो बड़ी बैचेनी होने लगती है ! सीधा आसमान से संपर्क साधा जाता है, ऐसा लगता है, शब्द उतरे, अभी उतरे। कभी कभी तो शब्द आसपास मंडरा कर वापस चले जाते हैं। याददाश्त पर ज़बरदस्त ज़ोर दिया जाता है और गाने के बोल याद आ जाने पर ही राहत महसूस होती है। इस अवस्था को आप ध्यान की अवस्था भी कह सकते हैं, क्योंकि उस वक्त आपका ध्यान और कहीं नहीं रहता।

धुन और ध्यान की इसी अवस्था में ही कविता रची जाती है, ग़ज़ल तैयार होती है। संगीत की धुन कंपोज की जाती है। सारे आविष्कार और डिस्कवरी धुन और ध्यान का ही परिणाम है। जिन्हें काम प्यारा होता है, वे भी धुन के पक्के होते हैं। जब तक हाथ में लिया काम समाप्त नहीं हो जाता, मन को राहत नहीं मिलती। ।

ध्यान साधना का भी अंग है।

किसी प्यारे से भजन की धुन, बांसुरी अथवा अन्य वाद्य संगीत की धुन, मन को एकाग्र करती है और ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है। आजकल आधुनिक दफ्तर हो, या सार्वजनिक स्थल, होटल हो या रेस्त्रां, और तो और अस्पतालों में भी वातावरण में धीमी आवाज़ में संगीत बजता रहता है। मद्धम संगीत वातावरण को शांत और सौम्य बनाता है।

धुन बनती नहीं, आसमान से उतरती है ! आपने फिल्म नागिन की वह प्रसिद्ध धुन तो सुनी ही होगी ;

मन डोले, मेरा तन डोले

मेरे दिल का गया करार

रे, ये कौन बजाए बांसुरिया।

गीत के शब्द देखिए, और धुन देखिए। आप जब यह गीत सुनते हैं, तो आपका मन डोलने लगता है। लगता है, बीन की धुन सुन, अभी कोई नागिन अपने तन की सुध बुध खो बैठेगी। कैसे कैसे राग थे, जिनसे दीपक जल जाते थे, मेघ वर्षा कर देते थे। संगीत की धुन में मन जब मगन होता है, तो गा उठता है ;

नाचे मन मोरा

मगन तिथ धा धी गी धी गी

बदरा घिर आए

रुत है भीगी भीगी

ऐसी प्यारी धुन हो, तो ध्यान तो क्या समाधि की अवस्था का अनुभव हो जाए, क्योंकि यह संगीत सीधा ऊपर से श्रोता के मन में उतरता है।

रवीन्द्र जैन धुन के पक्के थे।

वे जन्मांध थे, लेकिन प्रज्ञा चक्षु थे। घुंघरू की तरह, बजता ही रहा हूं मैं। कभी इस पग में, कभी उस पग में, सजता ही रहा हूं मैं। ।

इतना आसान नहीं होता, प्यार की धुन निकालना ! देखिए ;

सून साईबा सुन

प्यार की धुन !

मैंने तुझे चुन लिया

तू भी मुझे चुन।।

हम भी जीवन में अगर एक बार प्यार की धुन सुन लेंगे, हमारा ध्यान और कहीं नहीं भटकेगा। वही राम धुन है, वही कृष्ण धुन है। धुन से ही ध्यान है, धुन से ही समाधि है। कबीर भी कह गए हैं, कुछ लेना न देना, मगन रहना।

नारद भक्ति सूत्र में कीर्तन का महत्व बतलाया गया है। कुछ बोलों को धुन में संजोया जाता है और प्रभु की आराधना में गाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु हों या एस्कॉन के स्वामी प्रभुपाद।

नृत्य और कीर्तन ही इस युग का हरे रामा, हरे कृष्णा है। जगजीत सिंह की धुन सुनिए, मस्त हो जाइए ;

हरे रामा, हरे रामा

रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा

कृष्णा कृष्णा हरे हरे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 65 ☆ मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मातृ दिवस पर आपका एक स्नेहिल गीत – अनमोल प्यार

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 65 ✒️

?  मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मां तेरे अनमोल प्यार को,

आज समझ मैं पाई हूं ।

श्रद्धा सुमन क़दमों पर तेरे ,

अर्पित करने आई हूं  ।।

 

घर के काम सभी तू करती ,

चूड़ियां बजती थीं छन – छन ,

भोर से पहले तू उठ जाती ,

पायल बजती थी छन – छन ,

गोद में लेकर चक्की पीसती ,

मैं प्रेम सुधा से नहायी हूं ।

मां तेरे —————————- ।।

 

बादल गरजते बिजली चमकती ,

वह सीने से चिपकाना ,

आंखों में आंसुओं को छुपाना ,

मेरे दर्द से कराहना ,

याद आता है रह-रहकर ,

बचपन ,

कैसे तुम्हें सतायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

मैं हूं बाबूजी की बेटी ,

तू भी किसी की बेटी है ,

हम तो चहकते हैं चिड़ियों से ,

तू क्यों उदास बैठी है ,

तेरे क़दमों में बसे स्वर्ग को ,

आज देख मैं पायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

गर्भवती हुई पहली बार मैं ,

तब तेरा एहसास हुआ ,

नौ महीने कोख में संभाला ,

दुखों का ना आभास हुआ ,

सीने से सलमा को लगा लो ,

भले ही मैं पराई हूं ।।

मां तेरे —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके  ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार वसंत आबाजी डहाके जी के 1996 में प्रकाशित मराठी काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का सद्य प्रकाशित एवं लोकार्पित काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का हिन्दी भावानुवाद डॉ प्रेरणा उबाळे जी द्वारा किया गया है। इस भावानुवाद को साहित्य जगत में भरपूर स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त हो रहा है। आज प्रस्तुत है  ‘शुन:शेप’ डॉ प्रेरणा उबाळे जी का आत्मकथ्य।) 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके  ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे 

कविता : एक व्यास – ‘शुन:शेप’ के अनुवाद संदर्भ में – डॉ प्रेरणा उबाळे 

विगत पचास वर्षों से मराठी साहित्य जगत संपूर्णत: ‘डहाकेमय’ दिखाई देता है l मराठी कविता, आलोचना, संपादन, आदि साहित्य क्षेत्रों में सहज विचरण करते हुए वसंत आबाजी डहाके जी ने अपना बेजोड़ स्थान बनाया है l जनप्रिय साहित्यकार, भाषाविद, कोशकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं का अनुवाद करने का सुअवसर मुझे ‘शुन:शेप’ कविता-संग्रह के माध्यम से मिला।

वस्तुत: उनके जन्मदिन पर अर्थात 30 मार्च 2020 को मैंने उनकी कुछ मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद कर उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान किया था l उस समय उन्होंने अपनी कुछ अन्य कविताएँ भी भेजी और मैंने जब उनका अनुवाद किया तब पहली कविताओं के अनुवाद के समान ये भी अनुवाद उन्हें पसंद आया l संयोग से ही मनोज पाठक, वर्णमुद्रा पब्लिशर्स, महाराष्ट्र की ओर से वसंत आबाजी डहाके जी के ‘शुन:शेप’ कवितासंग्रह के अनुवाद का प्रस्ताव आया और मैंने तुरंत उसे स्वीकार किया।

वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं को पढ़ने के बाद उनका भाव मन-मस्तिष्क में गूंजता रहता है। वस्तुत: ‘शुन:शेप’ मराठी कविता-संग्रह का प्रकाशन सन 1996 में हुआ है लेकिन कविताएँ पढ़ने पर मैंने यह अत्यंत तीव्रता से अनुभव किया कि सभी कविताएँ वर्तमान समय की परिस्थितियां, जीवन की समस्याएँ, विचार, भावनाएँ, मन की कोमलताएं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करती हैं। आसपास की सामाजिक परिस्थितियाँ, उनका मनुष्य के मन- मस्तिष्क पर होनेवाला परिणाम, विचारों का जबरदस्त संघर्ष और द्वंद्वात्मकता को उद्घाटित करनेवाला यह कवितासंग्रह है। उदाहरण के लिए, ‘काला राजकुमार’ कविता की ये पंक्तियाँ-

“काले राजकुमार, तुम्हें सुकून नहीं है …शांति नहीं है

जख्मी कौवे के समान चोंच में ही तुम कराहना

मात्र

अश्र

उग्र

काला स्याह रंग”

‘शुन:शेप’ की कविताओं का अनुवाद करते समय डहाके जी की दार्शनिकता, चिंतनपरकता, काव्य-संवेदना, शैली को मैंने समझने का पूरा प्रयत्न किया है। मनुष्य में एक सहज प्रवृत्ति निहित होती है – मानवीय लोभ, बेईमानी, असत्य तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करते हुए नर से नारायण बनने की। दूसरे शब्दों में, मनुष्य स्वाभाविक रूप में बुराइयों पर जीत, बर्बरता से ऊपर उठना चाहता है। डहाके जी की ये कविताएँ इसी सकारात्मकता के रास्ते की खोज करने के लिए हमें नई दृष्टि प्रदान करती है। अनुवाद में भी इस सोच को लाना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। जैसे –

“मैं प्रार्थना करता हूँ आकाश से गिर पड़नेवाली मुसलियों के लिए

घर-घर में छिपा भय

रास्तों के अकस्मात धोखे,

निगल लेनेवाले संदेह की गुफाएँ

मैं प्रार्थना करता हूँ सहनशीलता के निर्माण के लिए

शांति से रह पाए इसलिए ….”

कवि, आलोचक वसंत आबाजी डहाके जी के व्यक्तित्व में समाज के प्रति सहानुभूति और उसके साथ तादात्म्य, प्रबुद्धता, न्यायपरकता का अद्भुत संगम हुआ है जो उनकी काव्यात्मकता को अधिक प्रखर और धारदार बना देता है और कविताओं में प्रस्तुत सामाजिक विश्लेषण अधिक गहन, विशिष्ट अनुभवजन्य, व्यापक और सत्य तक ले जानेवाला सिद्ध होता है। परिवर्तन की अटूट आकांक्षा भी इस संग्रह की अनेक कविताओं में रेखांकित होती है। ‘चरैवेति चरैवेति’ के संदेश को प्रवाहित करनेवाली ये कविताएँ विभिन्न वर्तमान संदर्भों के साथ प्रस्तुत हुई हैं।

सत्ता, मौकापरस्ती, तानाशाही, सत्ताधारी पक्षों के द्वारा लिए गए निर्णय आदि के प्रति व्यंग्य रूप में क्षोभ अभिव्यक्त हुआ है, वह सटीक रूप में अनूदित करने की मेरी कोशिश रही है। राजनीतिक आशय की कविताओं में सच को टटोलने का प्रयास कवि ने किया है अत: अनुवादक के रूप में उतनी ही समतुल्यता लाना मेरी प्रतिबद्धता बन गई। जैसे – ‘कौए’ कविता। यह कविता विभिन्न कोणों से राजनीतिक निर्णय और उनसे निर्मित स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में अंकित करती है। इसके अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ –

“लोग बोलते रहते हैं अविरत और एक भी शब्द अपना नहीं होता

गुलाम भूमि के लोग बोलते समय भी हमेशा दुविधा में रहते हैं। ….

 ……..

हम सबको इस कालकोठरी जैसी इमारत के अहाते में

क्यों बिठा लिया है उसे मालूम नहीं।

इस संग्रह में कुछ कविताएँ प्रेम तथा मनुष्य की कोमलताओं से संबंधित भी हैं। इन कविताओं के अनुवाद में उन कोमलताओं को उद्घाटित करने का प्रयास मैंने किया है। शब्दों के चयन में कुछ सतर्कता बरतते हुए अर्थ के निकट पहुँचने की भी मेरी कोशिश रही है।

अनुवाद पुन:सृजन की प्रक्रिया है और ‘शुन:शेप’ का अनुवाद करना मेरे लिए नवनिर्माण का आनंद प्रदान करनेवाला रहा, मानो लेखन का एक उत्सव।

मानवीय संवेदना, एहसासों को अभिव्यक्त करनेवाला विशाल परिधियुक्त यह संग्रह हिंदी और मराठी के पाठकों को निश्चय ही आकर्षित करेगा। ‘शुन:शेप’ के अनुवाद से पाठकों को निश्चय ही यह अनुभव होगा कि मूल कविता हो अथवा कविता का अनुवाद; उसका समय और व्यास कभी समाप्त नहीं होता; सच्चाई की प्रखरता और सगुणता उसे कालातीत बना देती है।

© डॉ प्रेरणा उबाळे

अनुवादक, पुणे 

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का कार्यदिवस चुनौतियों को टीमवर्क के द्वारा परास्त करने के रूप में सामने आया और विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद शाखा की हार्मोनी अखंड रही. इस दैनिक लक्ष्य को पाने के बाद स्टाफ विश्लेषण में व्यस्त हो गया. जो दैनिक अपडाउनर्स थे, उन्होंने अपराध बोध के बावजूद दोष रेल विभाग और राज्यपरिवहन को सुगमता से दान कर दिया. पर इस शाखा में एक लेखापाल महोदय भी थे. वैसे दैनिक तो नहीं पर साप्ताहिक अपडाउनर्स तो वो भी थे पर इसे असामान्य मानते हुये उन्होंने DUD याने डेली अपडाउनर्स से इशारों इशारों में बहुत कुछ कह भी दिया. अगर चाहते तो प्रशासनिक स्तर पर नंबर दो होते हुये समस्या के हल की दिशा में संवाद भी कर सकते थे पर उनका यह मानना था कि ये सब तब तक शाखाप्रबंधक के कार्यक्षेत्र में आता है जब तक कि यह दायित्व उनके मथ्थे नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति स्थायी रूप से उन्होंने कभी आने नहीं दी और स्थानापन्न की स्थिति में भी प्रदत्त फाइनेंशियल पॉवर्स का प्रयोग सिर्फ पेटीकेश के वाउचर्स पास करने तक ही सीमित रखा. लेखापाल के पद पर उन्होंने स्वयं ही अपना रोल स्ट्रांग रूम और अपनी सीट तक सीमित करके रखा था. याने उनका कार्यक्षेत्र अटारी और वाघा बार्डर के बीच ही सीमित था.                  

जब पुराने जमाने में शाखाप्रबंधक को बैंक ने “ऐजेंट”पदनाम नवाजा था तब उनका रुतबा किसी राजा के सूबेदार से कम नहीं होता था. बैंक परिसर के ऊपर ही उनका राजनिवास हुआ करता था और यह माना जाता था कि लंच/डिनर/शयन के समय के अलावा उनका रोल शाखा की देखरेख करना ही है. बैंक परिसर के बाहर अगर वे शहर और बाजार क्षेत्र में भी जायें तो उनका पहला उत्तरदायित्व बैंक के वाणिज्यिक हितों का संरक्षण और प्रमोशन ही होना चाहिए. उस जमाने में बैंक विशेषकर अपने बैंक के “ऐजेंट”का रुतबा जिले या तहसील के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों से कम नहीं माना जाता था. पर जब भारतीय जीवन निगम ने अपने घुमंतू बिजनेस खींचको को यही परिचय नाम दिया तो बैंक में ऐजेंट का पद भी रातोंरात “शाखाप्रबंधक” बन गया और बैंक के इस प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद की मानमर्यादा की रक्षा हुई. लगा जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर खत्म हुआ और ईस्ट टू वेस्ट और नार्थ टू साउथ सिर्फ और सिर्फ एक नाम से बैंकिंग के नये दौर की शुरुआत हुई जो आजादी के बाद बने भारत की तरह ही बेमिसाल और अतुलनीय थी. कश्मीर से कन्याकुमारी तक सिर्फ भारत ही नहीं हमारा बैंक भी एक ही है और हमारी कहानियां भले ही कुछ कुछ अलग लगती हों, हमारे धर्म, जाति, भाषा और प्रांतीयता के अलग होते हुये भी ये बैंक का मोनोग्राम ही है जिसके अंदर से हम जैसे ही गुजरते हैं, एक हो जाते हैं. आखिर हम सबकी सर्विस कंडीशन्स और वैतनिक लाभ भी तो एक से ही हैं. विभिन्नता पद और लेंथ ऑफ सर्विस में भले ही हो पर भावना में हमारे यहाँ बैंक के लिए जो मैसेंजर सोचता है, वही मैनेजर भी सोचता है कि यह विशाल वटवृक्ष सलामत रहे, मजबूत रहे और सबकी उम्मीदों को, सबके वर्तमान और भविष्य को संरक्षित करता रहे.

नोट: इस भावना में तालघाट शाखा के लेखापाल का परिचय अधूरा रह गया जो अगले भाग में सामने लाने की कोशिश करूंगा. इन महाशय के साथ का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था तो ये चरित्र काल्पनिक नहीं है, पर नाम की जरूरत भी नहीं है. हो सकता है हममें से बहुत लोग इस तरह की प्रतिभाओं से रूबरू हो चुके हों. पर उनके व्यक्तित्व को चुटीले और मनोरंजक रूप में पेश करना ही इस श्रंखला का एकमात्र उद्देश्य है. किस्साये तालघाट जारी तो रहेगा पर अगर आप सभी पढ़कर इसके साथ किसी न किसी तरह जुड़े तो प्रोत्साहन मिलेगा.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ – “I will meet you…” – ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

 ? – “I will meet you…” – ? ☆ Shri Ashish Mulay 

I see the boundaries

like a cactus sanctuaries

more is the desert dry

more the cactus grows by

 

Neither you could cross them

nor I could destroy them

they always grow high

through them only time flows by

 

But I will meet you…

 

meet you from the sky

when my words will fly high

I take the higher path

where time takes sabbath

 

When my poems rain

cactuses are in vain

and when I fall from the sky

what desert could keep you dry…

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 182 ☆ जगणे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 182 ?

💥 जगणे… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्याचे सिंहावलोकन करताना,

किती सुंदर भासतंय सारंच,

जन्म चांदीचा चमचा घेऊन,

लाडाकोडातलं बालपण,

मंतरलेली किशोरावस्था….

भारावलेलं तरूणपण!

समंजस प्रौढत्व

साठी कधीची उलटून गेली,

तरी आताशी लागलेली,

वृद्धत्वाची चाहूल!

सुंदर,सुखवस्तू,आरामशीर आयुष्य !

किंचित वाईट ही वाटतं,

काहीच कष्ट न केल्याचं,

वाळूतून तेल न काढल्याचं !

पदरात पडलेलं प्रतिभेचं,

अल्प स्वल्प दान…आणि

त्यासाठीच भाळावर लिहिलेल्या,

चार दोन व्यथा!

आणि कुणाविषयी कुठलीच ईर्षा

न बाळगताही,

स्वतःचं सामान्यत्व स्वीकारूनही,

स्वयंघोषितांकडून,

या कवितेच्या प्रांगणातही,

अनुभवलेली कुरघोडी,

निंदानालस्ती …..या वयातही !

पण हल्ली सुखदुःख,

समानच वाटायला लागलंय!

अखेर पर्यंत….

जगावं की मनःपूत,

मस्त कलंदरीत….

“उनको खुदा मिले,

खुदाकी है जिन्हे तलाश”..म्हणत !

मरेपर्यंत जिवंतच रहावे !

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मायिची कहाणी… ☆ श्री किशोर त्रिंबक भालेराव ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मायिची कहाणी… ☆ श्री किशोर त्रिंबक भालेराव ☆

तळ्यानं, खळ्यानं, मळ्यानं जपली

तोह्या पावलाची निषाणी

माय तु दिनरात,

कष्टाची वं धनी..

 

झाडपाला काड्याकुड्याचा

तोह्या डोक्यावर भारा

लुगड्याच्या पदराचा,

घाम पुसाला सहारा.

उन्हातान्हात ऊभी जशी,

येड्याबाभुळीवानी.

माय तु दिनरात

कष्टाची वं धनी…

 

पायात काटेकुटे, धस्कटाचं कुरुप

रक्ताळलेल्या भेगात चुन्या, गोट्याचं लेपं

मोडलेल्या घराला जुपते,

घाण्याच्या बैलावानी…

माय तु दिनरात

कष्टाची वं धनी…

© श्री किशोर त्रिंबक भालेराव

जालना

9168160528

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मातृदिनानिमित्त स्व आईस पत्र… ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆

?विविधा ?

☆ मातृदिनानिमित्त स्व आईस पत्र… ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆

ति. आई

तुझ्या त्या…. चतु:आयामी ते अनंतआयामी.. दिक्कालातीत अनादी अनंताच्या अतर्क्य, प्रवासाला निघून आज ऐहिक काल गणनेनुसार सहा वर्षे लोटली. एकेका ऐहिक क्षणाला तुम्हा दोघांच्या श्रीमंत स्मृतीची भिजलेली  झालर असते. बाबा गेले तेंव्हा कदाचित दु:खाची तीव्रता तुझ्यामुळे तेवढी जाणवली नाही. तूच ते दु:ख स्वतः च्या खांद्यावर उचलून आम्हा भावंडांना जाणवू दिले नाही. पण आता तुझी उणीव ही एक निर्वात पोकळीच आहे.

आजही तुझा आम्हाला आभास होतो. मला तर असे अनेक वेळा वाटते की, कुठून तरी गाण्याची ती लकेर ऐकायला येईल! ” तू जहा,जहा चलेगा मेरा साया साथ होगा…”  आणि खरंच सांगतो मी थोडा आश्वस्त होतो. ” तू कभी उदास होगा तो उदास होंगी मै भी..  नजर आवू या ना आऊ…  ” ही ओळ स्मरताच मी आतून ओलाचिंब होतो…. पापण्यांना अश्रूंचा भार सोसवत नाही…

वाटतं कुठून तरी अवचित  ” मिलू… मुकुंदा… मुचकुंदा.. म्हणून लाडिक हाक ऐकू येईल.. पण आभासी विश्व आणि व्यावहारिक विश्व ह्यात महत अंतर आहे नाही ? इहलोकातील क्षणभंगूर   वास्तव्य हा मानवी जीवनाचा पूर्णविराम म्हणायचा कि अर्धविराम ? हाच संभ्रम मला पडतो. तुझ्या स्मृतिदिनी अनेक अनादी प्रश्नांची पुनःपुन्हा उजळणी होते. जीवन म्हणजे काय ?  मृत्यूची आवश्यकता काय ? जीवनाची सार्थकता कशात ? इत्यादी सर्व अनुत्तरीत प्रश्न सभोवताल फेर धरून नाचतात.

आई…  जाणिवेच्या पल्याड,  त्या ज्ञात अज्ञाताच्या प्रदेशात…  तुझ्या त्या अनंताच्या अनाकलनीय गूढ प्रवासात सुख, दुःख असतात कां  गं ?  स्मृती तरी ? 

तुला स्मृती असो, नसो ! इहलोकात तुझ्या स्मृती ठायी ठायी आहेत.

ठेच लागली तरी, भिती वाटली तरी, विस्मय वाटला तरीही.. आई गं.. म्हणून आपसूकच उदगार बाहेर पडतो. आई , शिक्षणासाठी माय लेक एकाच कॉलेज मध्ये एकत्र जाण्याची उदाहरणे दुर्मिळच! पण ते उदाहरण बाबांच्या प्रेरणेने तु प्रस्तुत केले. ती तुझी ज्ञानपिपासा ! तुझे ते संस्कृत, मराठी, इंग्रजीवरील प्रभुत्व ! शब्दोच्चाराचे महत्व !! प्रसंगा प्रसंगावर समयोचित संस्कृत श्लोक उद्धृत करणारी प्रतिभा .. प्रेरक उदाहरणे, उद्बोधक प्रसंग आजही स्तिमित करून जातात..

त्या काळी.. संसार सांभाळून मराठीत एमए करणे.. हे एक  समाजापुढे आदर्श असे उदाहरणच  होते. आणिबाणीतील ति.बाबांच्या अटके विरूद्ध  केन्द्र सरकारला ऐतिहासिक  न्यायालयीन लढा देत नमवणे… एका नृशंस उन्मत्त मदांध पाशवी राजसत्तेला झुकवणे… कुठून आणलेस गं इतके धाडस ? इतके बळ..? कुठून आले हे सामर्थ्य?  एक कुटुंब वत्सल स्त्री ते उन्मत्त राजसत्तेच्या कराल दाढेतून बाबांना सोडविणारी सावित्री हा प्रवास कसा तू साधला ?

मला आजही आठवून अस्वस्थ व्हायला होतं.. तू असतीस तर मला सांगूच दिले नसतेस. पण बाबा जेंव्हा मिसा ( म्हणे मेंटेनन्स ऑफ सिक्युरिटी अॅमक्ट ) अंतर्गत तुरूंगात नुकतेच गेलेले असतांना आपल्या घराच्या बाहेर रस्त्यावर अश्लाघ्य शब्दांत गलिच्छ लिहिलेले मी पहाटे पहाटे तुला तुझ्या हातांनी पुसतांना बघितले … माझ्या अंगाची तर लाही लाही होत होती. पण  ” दे डोन्ट नो व्हॉट दे आर डुईंग ” असे म्हणत आपल्या क्षमाशील, उदार अंतःकरणाचा परिचय दिलास… अविश्वसनीय वाटतं सगळं. युद्धस्थ कथा रम्य..! ह्या उक्तीप्रमाणे हे सर्व स्मरतांना आज रोमांचक वाटतं … नाही ?

आई ! मध्यंतरी आपली कामठीची वास्तू बघायला जाण्यापासून मी स्वतःला परावृत्त करू शकलो नाही. पण आज तिथे तर फक्त श्रीमंत आठवणी आणि श्रीमंत वास्तूचे उदास भौतिकीय भग्नावशेषच उरलेत बघ. जेथे विद्यार्थ्यांचा एकेकाळी वावर होता … तेथे श्वापद ? मन अतिशय विदीर्ण आणि विषण्ण करणारा अनुभव होता तो !

आई ! तुझे ते प्रेयस आणि श्रेयस मधील फरक सांगणारे संस्काराचे तरल बंध आम्हाला अजूनही जखडून ठेवताहेत.. तसे ते दुर्दैवाने अव्यावहारिकच असतात. आज तुझ्या आणि ति. बाबांच्या संस्काराच्या श्रीमंत शिदोरीवर आम्हा सर्वांची ऐहिक दृष्ट्या यशस्वी वाटचाल सुरू आहे.

बाबांनी केलेले रेषांचे संस्कार, तू केलेले स्वरांचे, सुरांचे, शब्दांचे, सर्जनशील अक्षर संस्कार आज उपयोगी पडताहेत. शालेय निबंध लिहितांना तू केलेल्या तुझ्या सुचना आजही लिखाण करतांना उपयोगी पडतात. आज कलेच्या विस्तीर्ण प्रांगणात मी पदार्पण केलेले आहे. आई समाजाने तू केलेल्या सृजन संस्काराची माझ्या निमित्ताने का होईना पुरेशी दखल घेतलेली आहे. माझ्यावर पुरस्कारांची, सन्मानांची अक्षरशः लयलूट होत आहे. सन्मान स्विकारतांना, मी किती निमित्तमात्र आहे हे मनोमन  जाणवत राहतं.

पण  फक्त हे सर्व बघायला तू हवी होतीस.  बाबा असायला हवे होते.

 तुला ठावूक आहे ?तुमचे केवळ अस्तित्व सुद्धा आम्हा सर्वांनाच नव्हे तर शेकडो विद्यार्थ्यांना  उर्जादायी असेच होते.

आमच्या असंख्य चुका तुम्ही माफ केल्यात. आम्ही काही मागावे असे काहिच नाही.. पण तुम्ही दोघांनी थोडी घाई नसती केली तर..? मरण कल्पनेशी थांबे तर्क मानवाचा.. पराधिन आहे जगती पुत्र मानवाचा….

तुला प्राध्यापक ग्रेस ( प्रा. माणिक गोडघाटे ) तू मराठीत एमए करतांना, नागपूरला मॉरिस कॉलेज मध्ये शिकवीत होते. त्या ग्रेसनी, ” ती गेली तेंव्हा रिमझिम पाऊस निनादत होता..” ही कविता माझ्यासारख्या मातृवियोगींसाठीच लिहिली असावी.

तुझ्या मांडीवर डोके ठेऊन, तुझी खरखरीत बोटे जेंव्हा माझ्या केसांतून फिरताना जो रेशमी स्पर्श होत असे तो आता पुन्हा होणे नाही. असह्य आहे हे सारे ! एक मात्र खरंच की तू गेलीस आणि आमचे शैशव, बाल्य संपले.. आम्ही पोरके झालो.

आज खरोखरच मन पिळवटून  मातृभाव मनातून दाटून येतोय.. कृतज्ञता आहेच..  साश्रू नयनांनी श्रध्दांजली अर्पण करण्याखेरीज माझ्यासारखा मर्त्य मानव आणखी काय करू शकतो ?

तुझाच…

मिलू, मुकुंदा ..मुचकुंदा

© श्री मिलिंद रथकंठीवार

रेखाचित्रकार, पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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