हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत गुरुवार के दिन यहां विदेश में किसान बाज़ार जाने का अवसर मिला तो लगा की अपने देश के समान छोटे किसान गठरी में अपने उत्पाद विक्रय करने आते होंगे। जो अधिकतर मुख्य सब्जी मंडी के आस पास सुबह के समय आकर ताज़ी सब्जियां सस्ते में विक्रय कर देते हैं।

यहां का माहौल कुछ अलग ही है। किसान अपने-अपने तंबू नुमा काउंटर में कुर्सी पर बैठ कर सब्जियों, अंडे, शहद इत्यादि विक्रय कर रहे थे। उनका विक्रय मूल्य सामान्य से कुछ अधिक था। बाज़ार बंद होने के समय उनसे पूरा ढेर के लिए छूट पूछी तो बताया यहां के भाव तय हैं। सभी किसान अपने समान सहित छोटे वातानुकूलित ट्रक/वैन इत्यादि में भरकर रवाना हो गए। हमारे किसान तो लाए गए उत्पाद को औने पौने दाम में विक्रय कर ही वापिस जातें हैं। यहां के किसान के पास वातानुकूलित स्टोरेज की उत्तम व्यवस्था जो उपलब्ध हैं।

किसान बाज़ार के प्रचार में भी “स्थानीय खरीद को प्राथमिकता दिए जाने ” का संदेश है,हमारे देश में भी आजकल “Vocal for Local” की ही बात हो रही हैं।

एक चीज़ और हमारे देश जैसी अवश्य देखने को मिली,यहां भी एक वृद्ध सज्जन अपने तंबू में चाकू/ छुरियां की धार तेज कर रहे थे। उनसे बातचीत हुई तो जानकारी मिली कि वे एक सेवानिवृत हैं, और अपने को व्यस्त रखने के लिए ये रोज़गार अपना लिया है। वो भी अपना ताम झाम समेट अपनी वैन से चले गए। हमारे देश में तो चाकू तेज़ करने वाले पैदल या साइकिल का ही उपयोग कर अपना जीवकोपार्जन करते हैं। यहां पर जीवन और व्यवसाय में सुविधायुक्त साधन उपलब्ध है,इसलिए श्रम का उपयोग सीमित हैं। विदेश में श्रम को सबसे मूल्यवान माना जाता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 155 – माता की चुनरी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “माता की चुनरी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 155 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 🚩 माता की चुनरी 🚩❤️

सुशील अपनी धर्मपत्नी सुरेखा के साथ बहुत ही सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था। सदा अच्छा बोलना सब के हित की बातें सोचना, उसके व्यक्तित्व की पहचान थी।

दोनों पति-पत्नी अपने घर परिवार की सारी जरूरतें भी पूरी करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ सहयोग की भावना से भरपूर जीवन बहुत ही आनंदित था। परंतु कहीं ना कहीं कहते हैं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर होता है। विवाह के कई वर्षों के उपरांत भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सका था।. 

सुशील का प्रतिदिन का नियम था ऑफिस से छुट्टी होते ही गाड़ी पार्किंग के पास पहुंचने से पहले बैठी फल वाली एक सयानी बूढ़ी अम्मा से चाहे थोड़ा सा फल लेता, परंतु लेता जरूर था। बदले में उसे दुआएँ मिलती थी और वह उसे पैसे देकर चला जाता।

आज महागौरी का पूजन था। जल्दी-जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। अम्मा ने देखा कि आज वह बिना फल लिए जा रहा है उसने झट आवाज लगाई… “बेटा ओ बेटा आज बूढ़ी माँ से कुछ फल लिए बिना ही जा रहा है।” विचारों का ताना-बाना चल रहा था सुशील ने कहा…. “आज कन्या भोज है मुझे जल्दी जाना है कल ले लूंगा।”

अम्मा ने कहा… “फल तो लेता जा कन्या भोज में बांट देना।” पन्नी में दो तीन दर्जन केले वह देने लगी सुशील झुक कर लेने लगा और मजाक से बोला…. “इतने सालों से आप आशीर्वाद दे रही हो पर मुझे आज तक नहीं लगा।” कह कर वह हँसने लगा।

उसने देखा अम्मा की साड़ी का आँचल जगह-जगह से फटा हुआ है। और वह कह रही थी… “तेरी मनोकामना पूरी होते ही माता को चुनरी जरूर चढ़ा देना।”

जल्दी-जल्दी वह फल लेकर घर की ओर बढ़ चला। घर पहुँचने पर घर में कन्याएँ दिखाई दे रही थी और साथ में कुछ उनके रिश्तेदार भी दिखाई दे रहे थे।

माँ और पिताजी सामने बैठे बातें कर रहे थे और सभी को हँसते हुए मिठाई खिला रहे थे।” क्या बात है? आज इतनी खुशी हमेशा तो कन्या भोजन होता है परंतु आज इतनी सजावट और खुशहाली क्यों?” अंदर गया बधाइयों का तांता लग गया।

“बधाई हो तुम पापा बनने वाले हो!” सुशील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा सुरेखा ने हाँ में सिर हिलाया। शाम ढलने वाली थी सुशील की भावना को समझ सुरेखा ने मन ही मन हाँ कह कर तैयारी में जुट गई।

 सुशील बाहर निकल कर गया। साड़ी की दुकान से साड़ी चुनरी और जरूरत का सामान ले वह फल वाली अम्मा के पास पहुँचा और कहा… “अभी घर पर आपको फलों की टोकरी सहित बुलाया है। चलो।” अम्मा ने कहा… “थोड़े से फल बच्चे हैं बेटा बेंच लूं।” सुशील ने कहा….. “नहीं इसी को टोकरी में डाल लो और अभी मेरे साथ गाड़ी में चलो।” उसने सोचा नेक दिल इंसान है और प्रतिदिन मेरे से सौदा लेता है। हमेशा आने को कहता है आज चली जाती हूं उनके घर।

दरवाजे पर पहुँचते ही उसकी टोकरी को रख सुशील उसे दरवाजे पर ले आया। सामने चौकी बिछी थी उसमें बिठाने लगा। वह आश्चर्यचकित थी परंतु हाथ पकड़कर उसने उसे बिठा दिया। फूलों का हार और सुंदर सी साड़ी चुनर लिए सुरेखा आई।

साड़ी भेंट कर वह हार पहना चुनर ओढा रही थी। अब तो अम्मा को सब समझ में आ गया। खुशी से वह नाचने लगी। सभी की आँखें खुशी से नम थी। सुशील की आँखों से बहते आँसू देख, अपने हथेलियों पर वह रखते हुए बोली… “मोती है इसे बचा कर रखना बिदाई पर देने पड़ेंगे।” आशय समझकर सुशील हंसने लगा। माता रानी के जयकारे लगने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17 – अध्याय – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

साधु सन्त के तुम रखवारे ।

असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।

अस बर दीन जानकी माता ।।

अर्थ:– आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं।

आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं। आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान करने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।

भावार्थ:- श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं।श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है। साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं। श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे कोई बात मनवानी हो तो आप श्री हनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं।

माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है। इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं।

संदेश:- अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

1-साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से दुष्टों का नाश होता है, आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।

विवेचना:- पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे साधु और संतों के रखवाले हैं। असुरों के संहारक हैं और रामचंद्र जी के दुलारे हैं।

 इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं। पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन संत है। इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा।

साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है:-

 ‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः’ (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।)।

वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है। आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर साफ करके गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं। यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है। वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है।

 एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें। वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं।‘

 ‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है। वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है। जादू टोने का कार्य करने वाले कोई जादूगर आदि हो सकते हैं सच्चे साधु सन्यासी नहीं। ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे। उनको निरंतर द्रव्य प्रदान करती रहे।

इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता। आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।

कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं। यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है।परंतु यह परिभाषा मेरे विचार से सही नहीं है। साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है। उसे विद्वान होना ही चाहिए। आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं।

 कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है।

 आईये अब हम साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं। साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति। इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है। साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे।

आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं। इस शब्द का अर्थ है सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति। प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं। सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को संत कह दिया जाता है। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं।

मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं। उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है। वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है।

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं। उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं। उनके हर दुखों को दूर करते हैं। यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए। उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं। एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो। जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे।

यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है। इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं।

श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं। जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें। उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है। हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है।

आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है। यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं। अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं। इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है। दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है। हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है। उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड / लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।

सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं।

1-सिंहिका वध -जब श्री हनुमान जी माता सीता का पता लगाने के लिए समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था। उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी। जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी। इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी। हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया। हनुमान जी की गति रुक गई। गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है। इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण,श्रीरामचरितमानस और हनुमत पुराण में अलग-अलग है।

हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेग पूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े। भूधराकार, महा तेजस्वी महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका पिसकर चूर चूर हो गई।

वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है। इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।

ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।

उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)

रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था। यह आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था।हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया। परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए।

किंकर राक्षसों का वध –

देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए। वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे। उनको रोकने के लिए कींकर राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया। जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।

स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।

स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)

विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।

स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।।

युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)

रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है।

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।

फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखवारे।

कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा-

सुनि रावन पठए भट नाना।

तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥

सब रजनीचर कपि संघारे।

गए पुकारत कछु अधमारे॥

भावार्थ:— यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की।

हनुमानजी ने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए॥

चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों की हत्या-

अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये। एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे। वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है-

दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।

स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।।

(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)

जम्बुमाली वध – इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।

जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।

चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।।

स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।

अमात्यपुत्त्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/44/19-20)

प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।

परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्नानुसार हैं-

1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध

2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध

इसके बाद रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी हनुमान जी द्वारा मारे गए।

3-रावणपुत्र अक्षकुमार का वध

स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।

सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/47/36)

नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनकी धारा बहने लगी, शरीरकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियोंके जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियोंके बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान्जीके हाथसे मारा गया॥

4-लंका दहन

5-धूम्राक्ष का वध

5-अकम्पन का वध

6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध

7-निकुम्भ का वध

8-अहिरावण का वध

महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे।

इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया।

 अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है। ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।

करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।

निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।”

पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

इस प्रकार असुरों को समाप्त करके हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए। रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये।

 अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं :-

 “अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,

 अस बर दीन जानकी माता”

 मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं। इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां थीं परंतु इनको वे किसी को दे नहीं सकते थे। माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं।

 भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों की और 9 निधियों की बहुत महत्व है। अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है।

अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।

प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

अर्थ – अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां “अष्टसिद्धि” कहलाती हैं।

ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ज्यादा प्रसिद्ध हैं।

1-अणिमा – अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे। हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था। यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।

2-महिमा – शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है। सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था। यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे।

3-गरिमा – शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है। यह व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है। महाभारत काल में,भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के, आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे। भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी। भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं। उठ नहीं पाता हूं। आप हटा दीजिए। भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए। इस प्रकार भीम जी का अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया।

4- लघिमा – शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है। इसमें शरीर का माप वही रहता है परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है। इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं।

5- प्राप्ति – बिना रोक टोक के किसी भी स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता। प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है। एक पुस्तक है Living with Himalayan masters . इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है। इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे। मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी, मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के कार्यपालन यंत्री श्री एमडी दुबे साहब से हुई थी। उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है। इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री तत्काल बुला देते थे। मुझको उन्होंने एक शिवलिंग बुलाकर दिया था। वर्तमान में वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं। मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक श्री हिमांशु तिवारी द्वारा श्री यंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्री यंत्र अर्पण किया था।

6- प्राकाम्य – इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है। कई लोगों ने वाराणसी में गंगा नदी को चलकर के पार किया है।

7- ईशित्व – प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने बस में कर सकता है। अगर वह चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी।

8- वशित्व – प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है। हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की सिद्धि होती है।

अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।

परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती। अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए। भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं। एकबार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता। उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है।

कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है। एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी। उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की। उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये। थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’

तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी। मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया। उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी। मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी। जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही। कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।

हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है। गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता। मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती। ऐसे ही मन का भी है। गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है। इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।

इस अध्याय का शेष भाग अगले अंक में …

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पालवी…. ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पालवी… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

माझ्या रानात,रानात

तुझ्या झाडाची पालवी

गर्द सावल्या,सावल्या

माझ्या मनाला झुलवी

 

जस सपान, सपानं

एक असाव घरटं

दोन पाखरं,पाखरं

गुज प्रेमाच चावट.

 

गं तुझ हिरवं लेण

माझ्या काळजात ठाण

काळी पांघर हलते

तुला जल्माचीच आण.

 

वारा धावतो,धावतो

सुसाट पिसाट खुळा

वर आभाळ,आभाळ

चुंबते ओढ्याच्या जळा.

 

आता बांधात,बांधात

सळसळ चाल धुंद

झाली चाहुल-चाहुल

सांज येळची ही मंद.

 

पुन्हा भेटशी भेटशी

अशी दुपार वकत

तुझ्या पालवीत जीव

आयुष्य गेले थकत..

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #181 ☆ यादवी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 181 ?

☆ यादवी… ☆

नको झोपताना उगा यादवी

इथे श्वास गातात रे भैरवी

 

पतीदेव मानून भजते तुला

तुझे वागणे का असे दानवी

 

प्रशंसा करावी अशा या कळ्या

स्वतःची न गातात त्या थोरवी

 

जरी रुक्ष आहे इथे खोड हे

जपे ओल शेंड्यावरी पालवी

 

किती विरह रात्री धरा सोसते

सकाळी धरेला रवी चाळवी

 

प्रकाशा तुझा चेहरा देखणा

हवा तीव्र होता दिवा मालवी

 

पहाटे पडावा सडा अंगणी

अपेक्षा इथे मातिची वाजवी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “चुटपूट…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “चुटपूट” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

व्हाट्सएपचं वेगवेगळ्या समुहाचं एक आगळंवेगळं जग असतं,नव्हे आहे. ह्या जगात नानाविध लोक,काही त्यांनी लिहीलेल्या,काही फाँरवर्डेड पोस्ट ह्या निरनिराळ्या विषयांवर असतात. कधी कधी एकच पोस्ट फिरतफिरत वेगवेगळ्या समुहांवरुन अनेकदा येते. मला हे जग बघितलं की आमच्या शेतातील धान्य निघतांना एक शेवटचा टप्पा असतो,ज्याला “खडवण” असं म्हणतात त्याचीच आठवण येते. ह्या खडवणीत जरा बारीक माती,खडे ह्यांच प्रमाण जास्त आणि धान्याचं प्रमाण कमी असं असतं.शेतकऱ्यांचं एक ब्रीद वाक्य असतं “खाऊन माजावं पण टाकून माजू नये”ह्यानुसार प्रत्येक शेतकरी अगदी निगूतीने ती खडवण निवडून धान्य बाजूला काढून अन्नदात्याप्रती कृतज्ञता व्यक्त करतो. कुठलाही शेतकरी धान्याचा शक्यतो एकही दाणा वाया जाऊ देत नाही. ह्या व्हाट्सएपचं च्या जगात पण आपल्या प्रत्येकाला ही शेतकऱ्यांची भुमिका बजवावी लागते. चांगल्या,दर्जेदार, वाचनीय, ज्यामुळे आपल्या पुढील आयुष्यात नक्कीच काही तरी चांगले शिकू,आचरणात आणू. अर्थातच  हे व्हाट्सएप समुह जरा निवांत वेळ असणाऱ्या, जबाबदा-या पार पाडलेल्या मंडळींसाठी मात्र खूप चांगले हे ही खरेच.

अशाच एका व्हाट्सएप ग्रुपवर जळगावच्या डॉ. श्रीकांत तारे ह्यांचे स्वतःचे “चुटपुट”नावाचे अनुभव कथन खूप जास्त भावले आणि त्या लिखाणाने विचारात देखील पाडले. ह्या लेखात आपलं माणूस असेपर्यंत त्याच्या आवडीच्या सोयीच्या गोष्टी करणं हे आपल्याला खूप जास्त समाधान देऊन जातं आणि कदाचित चुकून, अनवधानाने आपल्या हातून ती व्यक्ती असेपर्यंत ह्या गोष्टी करणं झाल्या नाहीत तर कायमची न संपणारी, आपल्या शेवटपर्यंत स्मरणात राहणारी ही एक “चुटपुट” लागून जाते ह्याबद्दल खूप छान लिहीलयं.प्रत्येकाने वाचावीच अशी ती पोस्ट. संपूर्ण पोस्ट तर  येथे पाठवू शकत नाही त्यामुळे फेसबुक वर कदाचित त्यांच्या वाँलवर ती आपल्या सर्वांना वाचायला मिळेल. आपल्याला पटलेल्या,दर्जेदार गोष्टी आपण वाचून त्या इतरांना वाचायला सांगण ह्यामध्ये पण एक आनंद असतो.

बरेचवेळा आपण आपल्या लोकांना गृहीत धरतो,त्यामुळे त्यांच्या मनातलं जाणून घ्यायचा प्रयत्न आपण करीतच नाही, आणि मग इथेच आपले सगळे सुखाचे कँल्यक्युलेशन चुकायला सुरवात होते. सध्या आपल्या सगळ्यांचच जीवनमान हे अतिशय वेगवान झालयं. जी गोष्ट परस्परांना देण्याघेण्यासाठी अतिशय मौल्यवान असते ती म्हणजे परस्परांनी एकमेकांना दिलेला आपला स्वतःचा वेळ,आणि आज बहुतेक आपल्या सगळ्यांना देण्यासाठी वेळ नाही ही एक शोकांतिकाच. ह्या परस्परांना वेळ देण्यामधूनच एकमेकांच्या मनातील भाव,ईच्छा ह्या न बोलता, सांगता एकमेकांना आपोआप कळायच्या मात्र आता वेळेचा अभावी एकमेकांना समजून घेणे ही गोष्ट अभावानेच आढळणारं, म्हणून आपण त्यावर तोडगा म्हणून आपली भुमिका गुळमुळीत न राहता दुसऱ्या व्यक्तीला सडेतोड सांगणं हे कौटुंबिक स्वास्थ्य टिकविण्यासाठी अत्यावश्यक ह्या सदरात मोडतं.मग हे नातं पालक अपत्यांमधील असो वा जोडीदारांमधील.आपली आवडनिवड, आपली स्वप्नं, आपल्या ईच्छा,आपल्या गरजा  ह्या परस्परांना स्पष्टपणे सांगून ,त्यावर विचारविनिमय करुन तोडगा काढल्यास कुणाही एका व्यक्तीला कायम तडजोड वा कायम मनं मारुन,ईच्छा ,गरजा अपूर्ण ठेऊन जगावं लागणार नाही. आणि मग परस्परांना निदान एक माणूस म्हणून आपण समजावून घेऊ शकू.

एका अनुभवामुळे मनात असे अनेक विचार आलेत, असेच अजून कितीतरी वेगवेगळे विचार आपल्या सगळ्यांच्या मनात येतीलच ही खात्री. त्यामुळे वाचत रहा बरेच वेळा आपल्या वाचनातूनच,वेगवेगळे अनुभव जाणून घेउनच आपल्याला आपल्या प्रश्नांची उत्तरं ही मिळायला मदत होते हे नक्की.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पाठवणी… – लेखिका- सुश्री अनघा किल्लेदार ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆ पाठवणी… – लेखिका- सुश्री अनघा किल्लेदार ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆ 

फाल्गुनीचे लग्न ठरल्याची बातमी नातेवाईकात पसरली. तसे लपवण्यासारखे काही नव्हतेच. चारचौघासारखे पत्रिका बघून , दोघांच्या पसंतीने ठरलेल लग्न होते. शीतलच्या डोक्यावरचे ओझे उतरले अशी एक सर्वसाधारण प्रतिक्रिया नातेवाईक, शेजारीपाजारी होती.

फाल्गुनीला मोठं करताना, तिचे शिक्षण,  संस्कार याची जबाबदारी एकट्या शीतलनेच पार पाडली होती. प्रसाद बाबा म्हणून घरात होता. तसे तर चारचौघात दाखवण्यापुरता एक बिझनेस होता. जेमतेम उत्पन्न ही होते. पण तरी संसारात शीतल एकटीच होती.

फाल्गुनीचा नवरा ओजस एका साॅफ्टवेअर कंपनीत नोकरीला आहे. सहा आकडी गलेलठ्ठ पगार, घर गाडी कशालाच कमी नाही. मोठ्या बहीणीचे लग्न होऊन ती तिच्या संसारात रमली आहे. त्याचे आईवडील रत्नागिरीत नोकरी करत असल्याने घरात कायम दोघेच राजाराणी.. हे समजल्यावर शीतलचा प्रवास बघणारे म्हणाले, “पोरीने नशीब काढले.. आईच्या कष्टाचे चीज झाले.”

शीतलला फाल्गुनीचे लग्न वेळेत ठरल्याचा फार आनंद झाला होता. फाल्गुनीचे सासर माहेर यात फारसे अंतर नव्हते ही अजून एक जमेची बाजू होती. शीतलला वाटले आपले माहेर पण जवळ असते तर परिस्थितीत खूप बदल झाला असता.

प्रसादशी लग्न होऊन शीतल पुण्यात आली. तिचे माहेर कोकणातले कुडाळचे. शीतलला लहानपणापासून शहराचे आकर्षण. तिचे शिक्षण झाले. तिच्या आईबाबांनी तिच्याकरता स्थळे बघायला सुरुवात केली.

मध्यम उंचीची, चारचौघींसारखी, सावळा रंग नि तरतरीत नाकाची शीतल स्वभावाने नावासारखीच शीतल होती. तिला वाटायचे, शहरातला नोकरदार मिळाला तर टुकीने संसार करता येईल. छोट्या गावात मोठ्या गावाची काय मजा असणार?

एका मध्यस्थाने पुण्यात रहाणाऱ्या प्रसादचे स्थळ आणले. स्वतःचा रहाता वाडा, सरकारी नोकरीतून निवृत्त झालेले वडील, दोन विवाहीत भाऊ, लग्न झालेली एक बहिण ही माहिती घरच्यांना पुरेशी वाटली. पुढे चारेक महिन्यात चांगल्या मुहूर्तावर लग्न करून ती पुण्यात आली.

लग्नाआधी प्रसादचा स्वतःचा फॅब्रिकेशनचा व्यवसाय आहे एवढच तिला माहिती होते. ती एका शाळेत ज्युनियर शिक्षक म्हणून कामास होती. लग्नाआधी दोघे फारसे भेटलेच नाहीत त्यामुळे मनात रंगवलेले चित्र गृहीत धरून शीतलने प्रसादच्या घराचे माप ओलांडले.

हातावरच्या मेंदीचा रंग उतरण्यापूर्वीच तिला जाणीव झाली प्रसादच्या बेफिकीर स्वभावाची. त्याचा व्यवसाय होता पण तो मनापासून काम करत नसे. पोटापुरते मिळेल एवढ्यावर तो मात्र तो नक्कीच कमवत होता.

घरातली कोणतीच जबाबदारी घ्यायला प्रसाद तयार नसे. चार मित्र गोळा करावेत, गप्पा माराव्यात, बाहेर खावे प्यावे हेच त्याचे शौक होते. त्याच्या या बेफिकीर, लहरी वागण्यामुळे त्याला घरीदारी फारशी किंमत नव्हती.

शीतलच्या सगळ्या स्वप्नांवर पाणी फिरले. तिने प्रसादला समजवायचा हरप्रकारे प्रयत्न केला पण काही उपयोग झाला नाही.

तिने आधीच्या नोकरीच्या अनुभवाच्या जोरावर एका शाळेत नोकरी करायला सुरुवात केली. तिचे नियमीत पैसे येऊ लागल्यावर प्रसाद अधिक बेजबाबदार झाला. दोन वर्षांनी फाल्गुनीचे आगमन त्यांच्या संसारात झाले. जबाबदारी वाढली ती शीतलची! प्रसादच्या वागणूकीत फारसा फरक पडला नाही.

फाल्गुनीच्या तिसऱ्या वाढदिवसाला शीतलच्या मनात फाल्गुनीला सोन्याचे डूल करावे असे होते. तिने हौसेने पगारातून पैसे साठवले होते. बँकेत पैसे काढायला गेली तेव्हा प्रसादने खात्यातून काही पैसे काढले होते. उरलेल्या पैशात फाल्गुनीचे कानातले झाले नसते. शीतलचा पारा चढला. तिने घरी येऊन खूप आदळआपट केली. फाल्गुनीचे कानातले होणार नाही याचे प्रसादला वाईट वाटले पण हे वाईट वाटणे फोल असणार हे तिला समजून चुकले होते.

तिच्या सासूबाई तर हरल्या होत्या मुलासमोर. सासऱ्यांच्या सांगण्यावरून तिने प्रसादच्या नकळत दुसरे खाते काढले. त्याचे चेकबुक,  पासबुक सासूबाईंकडे ठेवले. दर महिन्यात त्या खात्यात ती पैसे साठवू लागली.

प्रसादने चौकशी केली. “एवढे पैसे कशाला लागतात काढायला?” त्याने पासबुक बघत विचारले.

“सलग दोन महिने घर चालवून बघा. किती नि कुठे पैसे लागतात हे समजेल.” तिने पोळी लाटता लाटता त्याला ठणकावून सांगितले.

“जास्त ऐट करू नको पैशाची..”

“पैशाची ऐट म्हणता? माझ्या पैशावर चाललय घर. ना गाठीशी पैसा ना अंगावर दागिना. नवऱ्याच्या जीवावर बायकोला आवडते ऐट करायला, ज्यादिवशी तुम्ही माझी हौस पुरवाल तेव्हा करेन ऐट! समजले? ” तिने हल्ला परतवला.

प्रसाद समजून चुकला होता. बायको बदलू लागली आहे. प्रसंगी उलट उत्तर देऊ लागली आहे. याकरता तोच जबाबदार होता.

मे महिन्याच्या सुट्टीत प्रसादच्या फॅब्रिकेशन युनिटचा एक माणूस प्रसादला शोधत घरी आला. तो घरी नव्हताच. शीतलने फाल्गुनीला घेतले नि गाडीवर काढून ती तिकडे पोचली. यापूर्वी ती तिकडे आली होती. तिला आलेले बघून कामगार चपापले. तिने तिथेच शेडमध्ये बसून काय प्राॅब्लेम झाला आहे हे समजून घेतले. अर्ध्या तासात तिने प्रश्न सोडवला. युनिटचे लाईट बिल भरायचे होते. एकदोघांचे पगार राहिले होते. तिने येणी किती आहेत ते तपासले नि कपाळावर हात मारून घेतला. पुढल्था दोन दिवसात तिने तिथली व्यवस्था लावून दिली. प्रसादला समजले तेव्हा तो खजील झाला. पुढचे दोनचार महिने चांगले गेले. शीतलला वाटले सुधारली परिस्थिती पण अशी इतक्यात तिची सुटका नव्हती.

फाल्गुनी आईची तारांबळ बघत मोठी झाली. ती हुशार होती, मेहनती होती. भरभर शिकत गेली. आईला त्रास होऊ नये याचा फाल्गुनीचा प्रयत्न बघितला की शीतलला रडू यायचे. ‘इतके समंजस बाळ दिलंय देवाने पोटी.. मी कमी पडले आई म्हणून!’ ती सर्वांना डोळ्यात पाणी आणून सांगायची.

फाल्गुनी शिकत असताना शीतलने तिचे पदव्युत्तर शिक्षण पूर्ण केले. मायलेकींच्या जगात प्रसाद आता कुठेच नसायचा. त्याचेही वय होऊ लागले होते पण सवयी, बेफिकीरीत फारसा फरक नव्हता. घरात दोन तट पडल्यासारखे झाले होते. प्रसाद एकाकी झाला होता.

फाल्गुनीचे घरचे केळवण म्हणून घरचे सगळे जमले होते. पंचपक्वान्नाचा बेत होता. लाल रंगाचा सोनेरी जरतारी काम असलेला अनारकली घातलेली फाल्गुनी खरच सुंदर दिसत होती. तिच्या थट्टेला उत आला होता. तिचे हसणे, लाजणे बघून शीतलला भरून येत होते. ही सासरी गेली की मी एकटी पडणार या विचाराने तिचे डोळे पाण्याने भरून येत. तिच्या जावेने तिच्या पाठीवर थोपटताच शीतल तिच्या गळ्यात पडून हुंदके देऊन रडू लागली. हसरे वातावरण एकदम तंग झाले.

“बाई गं, लेकीची पाठवणी सोपी नसते आईला. जगरहाटी आहे ती. पोटात किती तुटते ते लग्न झालेल्या मुलीची आईच फक्त जाणे.” सासूबाईनी तिची समजूत घालायचा प्रयत्न केला. शीतलने समजून पदराने डोळे पुसले. कोणीतरी पाण्याचा ग्लास आणून दिला त्यातले पाणी प्यायली.

एवढ्यात फाल्गुनी पुढे आली म्हणाली, “आई, आजी, काहीतरी बोलायचंय मला. पाठवणी माझी एकटीची नाही आईची पण होणार आहे..पण ती तयार झाली तर..” सगळे फाल्गुनीकडे आश्चर्याने बघू लागले.

“म्हणजे ग काय? ” शीतलने विचारले.

“आई, पंधरा दिवसांपूर्वी आपण कुडाळला गेलो होतो. तेव्हा तु शिकवायचीस ती शाळा दाखवलीस. मी संध्याकाळी देवीचे दर्शन घेऊन येताना सहजच शाळेत गेले. तिथे योगायोगाने माझी भेट तिथल्या मुख्याध्यापिकांशी झाली. त्यांना वाटले मी शाळेची माजी विद्यार्थीनी आहे. त्यांना तुझ्याबद्दल सांगितले तेव्हा त्यांना तुझी प्रगती ऐकून खूप छान वाटले.

त्यांनी रस दाखवला तेव्हा तुझा बायोडेटा माझ्या मोबाईलमधे होता तो दाखवला. तुझ्या इतका अनुभव असणारे शिक्षक शाळेला हवे आहेत असे त्या म्हणाल्या. तु तयार झालीस तर शाळेची दुसरी शाखा या जूनपासून सुरू होते आहे तिकडे तुला पर्यवेक्षिका म्हणून रूजू होता येणार आहे. पगार, महागाई भत्त्यात वाढ आहेच, पण मानही वाढेल.” फाल्गुनी सांगत होती आणि ऐकणारे चकित होत होते.

“आई, खूप केलस घराकरता नि माझ्याकरता. आता स्वतःकरता जगून घे, नवे अनुभव घे. नाही आवडले तिकडे तर मोकळ्या मनाने इकडे परत ये.. पण आलेली संधी घालवू नकोस. तुझ्या माहेरच्या माणसात, तुझ्या लाल मातीत मनमुराद आनंद लुट. तुझा हक्क आहे त्यावर.” फाल्गुनी मनातले बोलत होती.

“कुडाळला? मी अजिबात जाणार नाही. किती छोटे गाव आहे ते.” प्रसाद म्हणाला.

“बाबा, या सीनमध्ये तुम्ही तुमच्या कारखान्यासकट पुण्यातच रहा. आईला एकटीलाच जाऊ दे.” हे ऐकताच प्रसादला खूप राग आला.

फाल्गुनी आणि शीतल वगळून त्याला फारसे कोणी कधी मोजलेच नव्हते. त्याला अजून एकटेपणाच्या झळांची जाणीव नव्हती. शीतल थक्क झाली. जे घडत होते ते अविश्वसनीय  होते. शीतलचे सासूबाई नि सासरे यावेळीही तिच्या पाठीशी होते. ते दोघे फार थकले होते. सूनेने आनंदी रहावे असे मात्र त्यांना वाटत होते.

फाल्गुनीच्या लग्नाबरोबरीने शीतलच्या पाठवणीची पण तयारी सुरू झाली. नव्या जोमाने शीतलने जमवाजमव केली.

फाल्गुनी आणि ओजस पुण्यात परत आल्यावर मे महिन्याच्या  शेवटच्या आठवड्यात शीतलने पुणे सोडले नि डोळ्यात स्वप्न घेऊन कुडाळच्या गाडीत पाऊल ठेवले.

लेखिका- सुश्री अनघा किल्लेदार

 पुणे, २४/०२/२०२३

संग्राहक – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘बाई आणि मुलं ’ – सुश्री संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

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☆ ‘बाई आणि मुलं ’ – सुश्री संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

मुलं विसरतात आईला

मुलं विसरतात बाईंना…… 

 

कोणे एके काळी, 

जी त्यांच्यासाठी आणतात फुलं

शिक्षकदिनाच्या दिवशी.. 

आणतात केक 

वाढदिवसाच्या दिवशी…… 

 

लिहितात ‘माझे आवडते शिक्षक’ विषयावरचा निबंध.                                       

डोळ्यांतून ओसंडतो

भक्तिभाव त्यांच्यासाठी…… 

 

करतात वर्णन आईजवळ

त्यांच्या ‘कित्ती कित्ती

सुंदर शिकवण्याचे,

पुस्तकापलीकडची आयुष्यभराची 

शिदोरी दिल्याचे’…… 

 

कधी कधी 

वयस्क असूनही

तशा न दिसण्याचे…… 

 

‘सेंड ऑफ’च्या दिवशी

डिश संपवून जाताना

पाया वगैरे पडतात

कोणी कोणी थांबून

गिफ्ट बिफ्ट देतात…… 

 

मग परीक्षा होतात..

रिझल्ट लागतात..

वर्षे उलटतात..

कॅलेंडरे बदलतात..

लग्ने वगैरे सुद्धा होतात

एखाद-दुस-याची आमंत्रणेही येतात…… 

 

कधी तरी कोणी भेटतं

रस्त्यातच वाकून पाया पडतं

कधी तरी कळतं

अमकी परदेशी गेली

तमका सायंटिस्ट झाला

तमकी डॉक्टर झाली

तमका ॲक्टर झाला….. 

 

बाई थकतात

फोनच्या रिंग्ज 

वाजेनाशा होतात

बाई कुठेतरी नाव वाचतात

मा. अमुक.. सुप्रसिद्ध तमुक..

बाई फोन नंबर शोधतात

मिळाला नाही तर मिळवतात

मेसेज की फोन.. विचार करतात…. 

 

तिकडची रिंग वाजत रहाते

“येईलच फोन त्याचा उलट!”

बाईंना वाटत रहाते

किती जाईल हरखून,

करेल चौकशी भरभरून,

आठवतील वर्गातले सगळे हास्यविनोद

त्यालाही फिरून फिरून!

म्हणेल, “आता भेटायलाच येतो

बायकोला दाखवायला आणतो.”

बेल वाजल्याचे भास होतात

बाई कितीदा तरी फोन बघतात….. 

 

तास, दिवस, वर्षॆ उलटतात

अनेक काळे केस पांढरे होतात…

मग कुठल्याश्या वृत्तपत्राच्या कोप-यात

श्रद्धांजलीच्या रकान्यात

लहानशा चौकोनात

येते छापून – ज्येष्ठ.. प्रसिद्ध वगैरे

यांचे दु:खद निधन झाल्याचे

बाईंचा काळापांढरा फोटो

आणि मागे कोणी नसल्याचे….. 

 

मग घणघणू लागतात फोन हातातले

याचे त्याला, त्याचे याला

कोणाकोणाचे कोणाकोणाला

‘किती छान शिकवायच्या बाई!

किती कडक होत्या बाई

तरी किती हसवायच्या बाई!’

कोणाकोणाला आवंढे येतात

कोणाच्या डोळ्यात अश्रू येतात

कोणीकोणी तर ढसाढसा रडतात…

 

कोणी एक घरी जातो

बाईंच्या फोटोला हार घालतो

उदास तसाच बसून राहतो…. 

 

भिंतीवरच्या फोटोत

आता बाई शांत असतात

त्यांच्या पिंडाला लगेच

कितीतरी कावळे शिवतात…. 

लेखिका :  संजीवनी बोकील

संग्राहिका : सुश्री सुलू साबणे जोशी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीपती (इ.स.१०१९ ते १०६६)… लेखिका – सुश्री लीना दामले(खगोलीना) ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीपती (इ.स.१०१९ ते १०६६)… लेखिका – सुश्री लीना दामले(खगोलीना) ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले

श्रीपती (इ.स.१०१९ ते १०६६)

(प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्रज्ञ, ज्योतिष जाणकार आणि गणिती.)

श्रीपती यांचा जन्म रोहिणीखंड या आताच्या महाराष्ट्रातील गावात झाला. त्यांच्या वडिलांचे नाव नागादेवा/ नामादेवा असे होते तर त्यांच्या आजोबांचे नाव केशव. ( जन्मदात्रीचे नाव माहीत नाही.)

श्रीपती यांनी श्री. लल्ला यांच्या शिकवणीनुसार अभ्यास केला. त्यांचा मुख्य भर ज्योतिषशास्त्रावर होता. त्यांनी खगोलशास्त्राचा अभ्यास त्यांच्या ज्योतिषशास्त्रावरच्या संशोधनासाठी केला. आणि गणिताचा अभ्यास किंवा त्यातील संशोधन खगोलशास्त्रावरच्या त्यांच्या संशोधनाला पुष्टी देण्यासाठी केला. उदाहरणार्थ ग्रहगोलांचा अभ्यास.

श्रीपती यांनी ज्योतिषशास्त्रातील कुंडलीतील घरांच्या विभाजनाची पद्धत शोधून काढली, त्याला ‘ श्रीपती भव पद्धती’ म्हणतात.

श्रीपती यांची ग्रंथ संपदा :

धिकोटीडा- करणं 

धिकोटीडा- करणं (१०३९) या ग्रंथात एकंदर २० श्लोक आहेत ज्यात सूर्यग्रहण आणि चंद्रग्रहणा संबंधी माहिती आहे.

या ग्रंथावर रामकृष्ण भट्ट (१६१०) आणि दिनकर (१८२३) यांनी टीका ग्रंथ लिहिले आहेत.

ध्रुव- मानस

ध्रुव- मानस (१०५६) यात १०५ श्लोक असून त्यात ग्रहांचे अक्षांश, ग्रहणे आणि ग्रहांची अधीक्रमणे यावर भाष्य केले आहे.

सिद्धांत-शेखर

सिद्धांत-शेखर यात त्यांचं6अ खगोलशास्त्रा वरील महत्वाच्या कामाचा उहापोह १९ प्रकरणांमध्ये केला आहे. त्यातली काही महत्वाची प्रकरणे :

प्रकरण १३: Arithmetic (अंकगणित) यावर ५५ श्लोक आहेत.

प्रकरण १४: Algebra (बीजगणित)

 यात बीजगणिताच्या अनेज नियमांची चर्चा केली आहे. पण त्यात सिद्धता किंवा प्रमाण असे दिलेले नाही आणि बीजगणिताची चिन्हे वापरलेली नाहीत.

ऋण आणि धन संख्यांची बेरीज ,वजाबाकी, गुणाकार, भागाकार, वर्ग, वर्गमूळ, घन, घनमूळ इ. बद्दल माहिती आहे.

Quadratic समिकरणे सोडवण्याचे नियम इथे दिले आहेत.

प्रकरण १५: Sphere

 Simultaneous indeterminate equations सोडवण्याचे नियम यात दिले आहेत. हे नियम ब्रह्मगुप्ताने दिलेल्या नियमामप्रमाणे आहेत.  

गणित- तिलक

गणित- तिलक हा एक अपूर्ण असा ग्रंथ आहे. हा अंकगणितावरील १२५ श्लोकांचा प्रबंध आहे जो ‘श्रीधर’ यांच्या कामावर आधारित आहे. याच्या न सापडलेल्या भागात सिद्धांत शेखरच्या १३ व्या प्रकरणातील १९ ते ५५ श्लोकांपर्यंतचा भाग असावा.

ज्योतिष-रत्न-माला

ज्योतिष-रत्न-माला हा ज्योतिषशास्त्रावरचा २० प्रकरणे असलेला ग्रंथ असून लल्ला यांच्या ज्योतिष-रत्ना-कोषा वर आधारित आहे. श्रीपती यांनी या ग्रंथावर मराठीत टीका लिहिली आहे. मराठी भाषेतील हा सगळ्यात जुना ग्रंथ आहे असे मानले जाते. या ग्रंथावर अनेकांचे टीका ग्रंथ आहेत.

जातक- पद्धती

जातक- पद्धती यालाच श्रीपती पद्धती असेही म्हटले जाते. हा एक ८ प्रकरणे असलेला ज्योतिषशास्त्रावरचा ग्रंथ आहे. हा अतिशय प्रसिद्ध असा ग्रंथ असून त्यावर अनेक टीका ग्रंथ आहेत.

दैवज्ञ – वल्लभ 

हा ग्रंथही ज्योतिषशास्त्रावर आहे, ज्यात शेवटाला वराहमिहिरांच्या ग्रंथातील उतारे आहेत. दैवज्ञ – वल्लभ  याची हिंदी आवृत्ती श्री. नारायण यांनी लिहिली आहे.

कल्याण ऋषी यांच्या नावे असलेल्या ‘मानसगिरी किंवा जन्म-पत्रिका-पद्धती’ या ग्रंथात श्रीपती यांच्या ‘रत्नमाला’ ‘श्रीपती पद्धती’ या ग्रंथातील असंख्य उतारे आणि अवतरणे आलेली आहेत.

लेखिका : सुश्री लीना दामले (खगोलीना). 

संग्रहिका : अंजली दिलीप गोखले 

मोबाईल नंबर 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अगरबत्ती… ☆ प्रस्तुती – सौ. प्रज्ञा गाडेकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

⭐ अगरबत्ती… ☆ प्रस्तुती – सौ. प्रज्ञा गाडेकर ⭐

लग्नानंतर प्रथमच माहेरी आलेल्या मुलीचे माहेरपण आठवडाभर चालले. सगळा आठवडा तिला हवं ते करण्यात सरला.

परत सासरी जातांना वडिलांनी तिला एक सुगंधी अगरबत्ती पुडा दिला.  “जेव्हा सकाळी पुजेला बसशील तेव्हा ही अगरबत्ती लाव बेटा”, असं आठवणीने सांगितले.

आई म्हणाली “असं अगरबत्ती देतं का कुणी? ती प्रथमच माहेरपण करून सासरी जाते आहे, काहीतरी मोठं द्यायला हवे होतं. “

तसं वडिलांनी खिशात हात घातला अन् असतील तेवढे पैसे तिच्या हातात दिले.

सासरी पोहचल्यावर सासूने, सुनेच्या आईने दिलेल्या सगळ्या वस्तू बघितल्या. बाबांनी दिलेला अगरबत्ती पुडा बघून नाक मुरडले.

सकाळी मुलीने अगरबत्तीचा पुडा उघडला. आत एक चिठ्ठी होती.

“बेटा, ही अगरबत्ती स्वतः जळते, पण संपूर्ण घराला सुगंधी करून जाते. एवढंच नाही तर आजूबाजूचा परिसरही दरवळून टाकते. तू काही वेळा नवऱ्यावर रुसशील, कधी सासू-सासऱ्यांवर नाराज होशील, कधीतरी नणंद किंवा जावेचं बोलणं ऐकून घ्यावं लागेल, तर कधी शेजाऱ्यांच्या वर्तनावर खट्टू होशील, तेव्हा माझी भेट लक्षात ठेव. स्वतः जळताना अगरबत्ती जसं संपुर्ण घर आणि परिसर सुंगधी बनवते, तशी तू सासरला बनव…”

मुलगी चिठ्ठी वाचुन रडू लागली. सासू धावतच जवळ आली. नवरा, सासरे देवघरात डोकावले.

ती फक्त रडत होती.

“अगं ! हात पोळला का?” नवऱ्याने विचारले.

“काय झालं ते तरी सांग,” सासरे म्हणाले.

सासू आजुबाजुचे सामानात काही आहे का, ते बघू लागली.

तेव्हा ती वळणदार अक्षरातील चिठ्ठी नजरेला पडली. ती वाचून तिने सुनेला मिठीत घेतले. चिठ्ठी स्वतःच्या नवऱ्याच्या हातात दिली. सासरे चष्मा नसल्याने मुलाला म्हणाले , “बघ काय आहे.”

सारे कळल्यावर संपूर्ण घर स्तब्ध झाले.

“अरे, ही चिठ्ठी फ्रेम कर, ही माझ्या मुलीला मिळालेली सर्वात महागडी भेट आहे. देवघराच्या बाजूलाच याची फ्रेम लाव,”  सासू म्हणाली.

अन् त्यानंतर ती फ्रेम सातत्याने दरवळत राहिली, पुडा संपला तरीही…..

यालाच म्हणतात संस्कार…

संग्राहिका :सौ. प्रज्ञा गाडेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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