झेंडू फुले जी त्यादिवशी अगदी १०० रुपये किलो दराने आणली ती दुसऱ्या दिवशी आपण फेकून देणार ,हो न? आपण याचे अनेक उपयोग करू शकतो. नक्की वाचा आणि एखादा तरी उपयोग करून बघा.
१.काल तोरणासाठी आणि पूजेसाठी आणलेले झेंडू दोन दिवसात कचऱ्यात जातील, ही झेंडूची फुलं वाळवली तर रोप तयार करता येतील.
२. झेंडूची फुलं ही कडू वासाची असल्याने चुरडून कुंडीमध्ये टाकली तर कीटकांना परावृत्त करतात.
३. लिंबू ,संत्री सालींपासून जसे बायो एन्झाईम बनवतात तसेच झेंडूच्या फुलांपासून देखील बनवता येते.
ते कीटकनाशक म्हणून वापरता येते.
(फुले ,गूळ आणि पाणी यांचे प्रमाण ३:१:१०)
४. फक्त झेंडूच्या फुलांचे कंपोस्ट देखील करू शकता. अशा प्रकारच्या कंपोस्टमध्ये फुलझाडे लावली तर कीटकनाशक घालायची गरजही कमी भासते.
५. झेंडू फुले वाळवून त्याचा प्राकृतिक रंग देखील बनवतात.
६. तोरणामध्ये लावलेली आंब्याची पाने काढून फेकून न देता ती मिक्सरमधून काढून किंवा बारीक चुरडून पाण्यामध्ये घालून तीन दिवस ठेवावी, आणि असे पाणी डायल्युट करून झाडांवर फवारल्यास मुंग्या कमी होतात.
(ही मलाही नवीन कळलेली गोष्ट आहे. मी पण करून बघणार आहे, तुम्हीही करून बघा आणि रिझल्ट शेअर करा.)
लेखिका : सुश्री स्नेहल गोखले
संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ ज्याची जेवढी कुवत, तेवढा त्याचा विचार… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री माधव केळकर ☆
आमच्याकडे त्यावेळी मारुती 800 ही गाडी होती. बहिणीच्या गावाहून येताना गाडीला खालून दगड लागला. ऑईलचेंबर फुटला आणि ऑइल गळायला लागलं. मी तशीच गाडी दामटली. घरी आलो आणि गाडी बंद पडली.
दुसऱ्या दिवशी सकाळी मी मेस्त्रीला बोलावलं. त्यानं इंजिन चेक केलं आणि विचारलं, “ऑइल गळल्यावरही गाडी पळवलीय काय? “
” होय. पाच सहा किलोमीटरच.” मी म्हटलं.
” गाडीचं इंजिन जाम झालंय… इंजिनचं काम करावं लागेल.”
“अहो, नवीन गाडी आहे आणि एवढ्यात इंजिनचं काम?”
“ऑइल नसताना गाडी पळवल्याचा परिणाम. इंजिन खोलावंच लागेल.”
” ठीक आहे. इथंच काम होईल की गाडी मिरजला घेऊन जावी लागेल? “
” मिरजलाच घेऊन जावी लागेल.”
त्यांनी मग माझी गाडी एका टेंपोला बांधून ओढून नेली.
दुसऱ्या दिवशी सकाळी सकाळी एक पुढारी माझ्या दारात— ” वकीलसाहेब, गाडी बँकेनं ओढून नेली होय?” त्यानं विचारलं.
” कोण म्हटलं?”
” नाही, गावात कोणीतरी म्हणत होतं.”
तासाभरात दुसरा मनुष्य— ” वकीलसाहेब, किती हप्ते तटले होते हो?…हप्ते भरता येत नव्हते तर गाडीच घ्यायची नव्हती ! “
असेच मग दिवसभर लोक येत राहिले आणि प्रश्न विचारत राहिले. पण दिवसभरात एकानंही,” गाडीला काय झालं?” किंवा ” गाडी कुठं गेली?” म्हणून विचारलं नाही. सगळे जण असे बोलत होते की जणू गाडी बँकेनंच ओढून नेलीय.
मला सकाळी सकाळी या प्रश्नांचा राग आला होता. पण नंतर नंतर लोकांच्या हलक्या कानाचं आणि सुमार बुद्धीचं हसू यायला लागलं.
दुपारनंतर तर आमचा संवाद असा होऊ लागला,—
” वकीलसाहेब, बँकेनं गाडी ओढून नेली होय ?”
“होय.”
” का? “
” इंजिनच्या कामासाठी आणि ऑइल बदलीसाठी.”
” पण गाडी बँकेनं का नेली ?…मेस्त्रीनं न्यायला पाहिजे होती नव्हं?”
“आजकाल असंच असतं,” मी गंभीरपणे म्हणायचो, ” बँकेच्या कर्जवसूलीची कामं मेस्त्री करतात आणि गाड्या दुरुस्तीची कामं बँकवाले करतात.”
“असं का म्हणे?”
” काय माहीत?….पण सध्या असंच चाललेलं असतं !” मी आणखी गंभीर होऊन बोलायचो.
—–माझं नाटक बघून बायको हसायची आणि मग समोरचा माणूस खजिल होऊन निघून जायचा.
त्या एका प्रसंगानं मला शिकवलं की लोक काय म्हणतात तिकडं कधीच लक्ष द्यायचं नाही. लोक काहीही बोलत असतात.
मध्यंतरी तर कमालच झाली. माझ्याकडे एक वकील मुलगी कामाला आली. तिला गाडीत बसलं की मळमळायचं. म्हणून ती पुढे माझ्याशेजारी बसायची.
लोक म्हणायचे, ‘ वकिलानं दुसरं लग्न केलं वाटतं ! ‘ एक जण माझ्या खऱ्या बायकोला म्हणालीही, ” स्नेहा,खरंच भाऊजींनी दुसरं लग्न केलं होय गं ?” माझी बायको हजरजबाबी, बोलली,
“अगो बाई, तुम्हाला लग्नाला सांगायचंच राहिलं की !”
काही दिवसांनी ती मुलगी काम सोडून गेली.— लोक म्हणाले, ‘ वकीलाची दुसरी बायको वकीलाला सोडून गेली वाटतं !’
तोपर्यंत दुसरी मुलगी कामावर आली.
लोक म्हणाले, ‘आयला, वकीलाचं काही खरं दिसत नाही. दुसरी बायको गेली नाही तोपर्यंत तिसरी आणली.’
माझ्या कानावर अशा बातम्या आल्या की मी पूर्वी खूप अस्वस्थ व्हायचो.. पण आता हे सगळं एन्जॉय करत असतो….
लोक काय, काहीही बोलत असतात पण आपण आपलं काम करत जायचं….. कुणावरही न रागावता न चिडता.
कारण— “ ज्याची जेवढी कुवत तेवढा त्याचा विचार….!!”
आपण खूप हसत रहा आनंदी रहा—–
लेखक : अज्ञात
प्रस्तुती – श्री माधव केळकर
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ‘नये क्षितिज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 169 ☆
☆ कथा कहानी ☆ नये क्षितिज☆
शुभा अपना हाथ ऊपर उठाकर देखती है। त्वचा सूखी और सख़्त हो गयी है। उम्र का असर साफ दिखता है। शीशा उठाकर देखती है तो बालों में कई अधूरी-पूरी रजत-रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं। चेहरा भी सख़्त हो गया है, पहले जैसा चिकनापन और मृदुता नहीं रही। सड़क पर चलते अब लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिकती नहीं। सरकती हुई दूसरी चीज़ों की तरफ चली जाती हैं, जैसे वह भी सड़क पर चलती हज़ार सामान्य चीज़ों में से एक हो।
घर के बाहर कोने में वह नीम का दरख्त अब भी है जहाँ वह रोज़ सवेरे पिता की कुर्सी के बगल में दरी बिछाकर पढने बैठ जाती थी। जब हवा चलती तो पत्तियों की सरसराहट से संगीत फूटता। पिता अपना काम-धाम निपटाते रहते और वह अपनी किताब, कॉपी, पेंसिल और स्केल से जूझती रहती। पढ़ने में वह तेज़ थी। कई बार पिता पूछते, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगी तू?’ शुभा का एक ही जवाब होता, ‘डॉक्टर बनूँगी, बाबा।’
पिता कहते, ‘अच्छी बात है। लेकिन पैसा-बटोरू डॉक्टर मत बनना। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए भी कोई डॉक्टर चाहिए। एक बार मेरे सामने एक बूढ़े ने डॉक्टर से आँख की जाँच करायी। डॉक्टर जब फीस माँगने लगा तो बूढ़ा हक्का-बक्का हो गया। उसे पता ही नहीं था कि आँख की जाँच कराने की फीस लगती है। पैसा भी नहीं था उसके पास। डॉक्टर आगबबूला हो गया। जाँच का कार्ड छीन कर अपने पास रख लिया और बूढ़े को भगा दिया।’
अपनी कॉपी-किताब में उलझी शुभा को पिता की आधी बात समझ में आती है। कहती है, ‘तुम फिकर न करो बाबा। मैं सब का इलाज मुफ्त करूँगी।’
पिता हँसते, कहते, ‘देखूँगा। नहीं तो कान ऐंठने के लिए मैं तो हूँ ही।’
लेकिन पिता शुभा के कान ऐंठने के लिए रहे नहीं। एक दिन अपने भलेपन और भोलेपन की वजह से वे सड़क पर गुंडों से पिटते एक युवक को बचाने पहुँच गये। पचीसों लोग दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे। गुंडों के लिए यह इज़्ज़त का सवाल था। नतीजा यह कि पिता पेट में छुरे का वार झेल पर वहीं सड़क पर लंबे लेट गये और उन्हें वहाँ से तभी हटाया जा सका जब गुंडों ने अपना नाटक पूरा कर भद्र लोगों के लिए मंच खाली किया। सहायता उपलब्ध कराते तक बहुत देर हो चुकी थी।
शुभा को चौबीस घंटे नसीहत देने वाले पिता मौन हो गये और शुभा अचानक मजबूरन बड़ी हो गयी। चीनू और टीनू अभी नादान थे। वही कुछ करने लायक थी। माँ इस आघात से हतबुद्धि हो गयीं। उनका सारा आत्मविश्वास जाता रहा। अब दरवाज़े पर कोई भी आता तो ‘शुभी, शुभी’ चिल्लाकर पूरे घर को सिर पर उठा लेतीं। दुनिया और हालात का सामना करने का उनका सारा बल ख़त्म हो गया। ज़्यादातर वक्त वे अपने कमरे में कुहनी पर सिर रखे, आँखें बन्द किये लेटी रहतीं।
शुभा के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। घर में दो नादान भाई थे जिन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाना था। वर्तमान भले ही बिगड़ गया हो, भविष्य को सँवारना ज़रूरी था, अन्यथा अँधेरे की सुरंग कभी ख़त्म नहीं होगी। वह सवेरे दोनों भाइयों को डाँट-डपट कर उठा देती और उन्हें स्कूल के लिए तैयार होने को छोड़ उनके लिए टिफिन-बॉक्स तैयार करने में लग जाती। भाइयों के लिए वह बिलकुल पुलिस-इंस्पेक्टर बन गयी थी। स्कूल से सीधे घर आना ज़रूरी था, और पढ़ाई के घंटों में कोई दूसरा काम दीदी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में अगर माँ भी हस्तक्षेप करतीं तो उन्हें भी डाँट खानी पड़ती।
भाइयों की सब हरकतों पर शुभा की चौकस निगाह रहती थी। वे कहाँ खेलते हैं, किसके साथ उठते बैठते हैं, इसकी मिनट मिनट की खबर उसे रहती थी। जहाँ भी वे खेलते-कूदते वहाँ दीदी एकाध चक्कर ज़रूर लगाती।
एक बार मुसीबत हो गयी जब मुहल्ले के लड़के दोनों भाइयों को सिनेमा ले गये। तीन-चार दिन बाद एक भेदी ने भेद खोल दिया और बात दीदी तक पहुँच गयी। उसके बाद घर में जो लंकाकांड हुआ उसकी याद करके दोनों भाई आज भी सिहर कर माथे पर हाथ रख लेते हैं। शुभा रणचंडी बन गयी थी और माँ के लिए बेटों को उसकी मार से बचाना खासा मुश्किल काम हो गया था। माँ चिल्लातीं, ‘अरे निर्दयी, अब मार ही डालेगी क्या बच्चों को?’ और शुभा जवाब देती, ‘हाँ मार डालूँगी। कम से कम बाबा के जाने के बाद इन्हें आवारा बनाने का कलंक तो नहीं लगेगा।’
शुभा का क्रोध भाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उसके बाद वह मुहल्ले के दादा प्रेम प्रकाश पर भी टूटा जिनकी अगुवाई में यह टोली सिनेमा देखने गयी थी। शुभा छड़ी लेकर पागलों की तरह पिल पड़ी और प्रेम प्रकाश का सारा प्रकाश-पुंज उस दिन बुझ गया। शुभा के हाथों मार खाने के बाद उसका दादापन तो अस्त हुआ ही, शहर में उसका राजनीतिक कैरियर भी उठते उठते डूब गया।
लेकिन परिवार की देखरेख के चक्कर में शुभा की अपनी पढ़ाई मार खाने लगी। स्कूल तो उसने पास कर लिया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके पास वक्त नहीं था। माँ की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि घर में अकेली होते ही उन्हें अवसाद घेर लेता था। बच्चों के भविष्य के बारे में सारी दुश्चिंताएँ उन्हें जकड़ने लगतीं। बच्चों के घर लौटने तक वे उद्विग्न, घर में इधर-उधर घूमती रहतीं। इसलिए शुभा ने आगे की पढ़ाई घर में ही रहकर करने का निश्चय किया।
जैसा कि होता है, शुभा के रिश्तेदार, परिवार के मित्र और शुभचिन्तक अब माँ को शुभा की शादी की नसीहत देने लगे थे। माँ तत्काल उनसे सहमत होतीं और कहतीं कि कोई ठीक लड़का हो तो उन्हें बतायें। शुभा सुनती तो उसे हँसी और रुलाई दोनों ही आती। वह जानती थी कि अभी उसका विवाह संभव नहीं है। वह चली जाएगी तो माँ की पूरी गृहस्थी बैठ जाएगी। भाई अपने रास्ते से भटक जाएँगे और माँ के लिए उन्हें सँभालना मुश्किल हो जाएगा।
बी.ए. पास करने और माँ का मन कुछ स्थिर होने पर उसने एक चिकित्सा-उपकरण बनाने वाली कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी। अब दुनिया कुछ भिन्न और विस्तृत हो गयी। कुछ आत्मबल भी बढ़ा। नये वातावरण में घर के दबाव और चिन्ताओं से कुछ देर मुक्त रहने का अवसर मिला।
ऐसे ही वक्त गुज़रता गया। बड़ा चीनू बी.एससी. पास करके एक दवा कंपनी में नौकरी पा गया। जल्दी ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। घर में बहू आ जाए तो माँ को सहारा देने के लिए कोई रहे। माँ दबी ज़ुबान में कहतीं, ‘शुभी की शादी से पहले चीनू की शादी कैसे कर दें?’ शुभा हँस कर कहती, ‘माताजी, फालतू की बकवास छोड़ो। बूढ़ों की शादी की चिन्ता मत करो। चीनू की शादी कर डालो।’
माँ दुखी हो जातीं। ‘कैसी जली-कटी बातें करती है यह लड़की! कैसी पत्थरदिल हो गयी है।’
अन्ततः चीनू की शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। जल्दी ही टीनू कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने नागपुर चला गया।
चीनू की पत्नी को यह घर भाता नहीं था। छोटा सा, पुराना घर था। उसमें बहू की कोई स्मृतियाँ नहीं थीं। फिर उसे लगता था कि इस घर में दीदी की कुछ ज़्यादा ही चलती है। जब मन होता तब वह मायके जा बैठती। चीनू परेशान होने लगा। एक दिन शुभा ने खुद ही कह दिया, ‘भाई, तू अपनी बीवी के लिए कोई अच्छा सा घर ढूँढ़ ले और चैन से रह। हम माँ-बेटी यहाँ रह लेंगे।’ कुछ समय पाखंड करने के बाद चीनू ने घर ढूँढ़ लिया और अपनी गृहस्थी लेकर उसमें चला गया।
अब शुभा शीशे में अपनी बढ़ती उम्र के प्रमाणों को देखती रहती है। माँ उम्र बढ़ने के साथ-साथ निर्बल हो रही है। कभी हो सकता है कि वह घर में अकेली रह जाए और उसका मददगार कोई न हो। माँ ने अभी भी उसकी शादी की रट छोड़ी नहीं है। उनका विचार है अभी भी कोई नया नहीं तो दुहेजू वर तो मिल ही सकता है। कोई एकाध बच्चे वाला भी हुआ तो क्या हर्ज है? ऐसे एक दो प्रस्ताव आये भी हैं। लेकिन अब शुभा की विवाह में रुचि नहीं है। विवाह के नाम से स्फुरण होने वाली उम्र गुज़र चुकी है। अब शादी का नाम उठते ही अनेक आशंकाएँ मन को घेरने लगती हैं। ज़िन्दगी का जो ढर्रा बन गया है उसमें कोई बड़ा मोड़ पैदा करना संभव नहीं है।
घर के पास ही एक तालाब है। पक्की सीढ़ियों और छायादार वृक्षों के कारण वहाँ का दृश्य मनोरम हो गया है। शाम को अक्सर शुभा एक-दो घंटे वहीं गुज़ारती है।नहाने धोने वालों की वजह से वहाँ का वातावरण गुलज़ार बना रहता है। शुभा को देख कर कुछ पाने की लालच में एक दो बच्चे उसके पास आ बैठते हैं। शंकर से शुभा की पटती है। बातूनी और प्यारा लड़का है, लेकिन वक्त की मार झेलता, निरुद्देश्य भटकता रहता है।
एक दिन शुभा ने उससे पूछा, ‘स्कूल नहीं जाता तू?’
‘न! बापू नहीं भेजता। कहता है फीस और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।’
शुभा ने पूछा, ‘मैं फीस और किताबों के पैसे दूँ तो पढ़ेगा?’
शंकर खुश होकर बोला, ‘पढ़ूँगा, लेकिन बापू से बात करनी पड़ेगी।’
शुभा ने उसका हाथ पकड़ा, कहा, ‘आ चल। तेरे बापू से बात करती हूँ।’
Anonymous Litterateur of Social Media # 117 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 117)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ मार्गशीष साधना🌻
आज का साधना मंत्र – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 165 ☆ तीर्थाटन – 2 ☆
गतांक में हमने विभिन्न ग्रंथों में वर्णित व्याख्या के आधार पर तीर्थाटन के धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व को समझने का प्रयास किया था। सनातन दर्शन पग-पग पर विराट है। जंगम, स्थावर तथा मानस तीर्थों में वर्गीकरण इसी विराट की प्रतीति है। तीन शब्दों में वर्गीकृत यह सीमित, तीनों लोक नाप लेने जैसा असीमित है। आज हम सर्वसामान्य व्यक्ति द्वारा अनुभूत तीर्थ के महत्व की चर्चा करेंगे।
1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इनमें से अधिकांश स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाये जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।
2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता है।
3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,
उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें, मैं आदमी को पढ़ता रहा..!
तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थाई सीख देता है।
4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है, मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,
विवादों की चर्चा में युग जमते देखे, आओ संवाद करें, युगों को पल में पिघलते देखें..! मेरे तुम्हारे चुप रहने से बुढ़ाते रिश्ते देखे, आओ संवाद करें, रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!
बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।
5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर चिंतन जन्म लेता है जो चेतना के स्तर पर उसे जाग्रत करता है। यह जागृति मनुष्य को संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।
6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।
7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।
सार है कि संसार से तारता है तीर्थ। विश्वास न हो तो तीर्थाटन करके देखें। ..इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।
आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था वर्तिका के 35वें वार्षिकोत्सव पर आपके संस्मरण – वर्तिका… निरंतरता की यात्रा।)
ई-अभिव्यक्ति द्वारा 14 नवंबर 2018 को डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा “वर्तिका” पर आधारित आलेख आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ संस्मरण ☆ वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
(यह एक संयोग है की 1981-82 में मैंने वाहन निर्माणी प्रबंधन के सहयोग तथा स्व. साज जबलपुरी जी एवं मित्रों के साथ साहित्य परिषद, वाहन निर्माणी, जबलपुर की नींव रखी थी। 1983 के अंत में जब स्व साज भाई के मन में वर्तिका की नींव रखने के विचार प्रस्फुटित हो रहे थे, उस दौरान मैंने भारतीय स्टेट बैंक ज्वाइन कर लिया। नौकरी के सिलसिले में जबलपुर के साथ साज भाई का साथ भी छूट गया। 34 वर्षों बाद जब डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी और वर्तिका के माध्यम से पुनः मिलने का वक्त मिला तब तक काफी देर हो चुकी थी। स्व साज भाई, श्री एस के वर्मा, श्री सुशील श्रीवास्तव, श्री एच एस खरे, श्री इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव और मित्रों के साथ ‘प्रेरणा’ पत्रिका के प्रकाशन एवं वाहन निर्माणी इस्टेट सामाजिक सभागृह में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के आयोजन के लिए दिन-रात की भाग-दौड़ के पल आज मुझे स्वप्न से लगते हैं और वर्तिका की वर्तमान जानकारी साझा करना मेरा व्यक्तिगत दायित्व लगता है।)
वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र
१९९४, मैं मण्डला में पदस्थ था. अभिरुचि के अनुरूप लेखन, प्रकाशन के कार्य चल रहे थे. एक दिन अचानक फोन की घंटी बजती है, दूसरी ओर से आवाज आती है ” मैं साज जबलपुरी, वर्तिका, जबलपुर से बोल रहा हूं. आपका कविता संग्रह आक्रोश पढ़ा. हम वर्तिका के वार्षिकोत्सव में आपको सम्मानित करना चाहते हैं. क्या आप जबलपुर आ सकेंगे ? मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. रचनाकार को साहित्य जगत में उसकी रचनाओ के जरिये मान्यता मिले इससे बड़ा भला क्या सम्मान हो सकता है ! नियत तिथि, समय पर मैं रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर के सभागार में पहुंचा. द्वार पर ही गुलाब के पुष्प से हमारा स्वागत किया गया, स्मरण नही पर संभवतः झौये से निकाल कर हर प्रवेश करने वाले को पुष्प देते हुये ये शायद विजय नेमा अनुज, और डा विजय तिवारी, सुशील श्रीवास्तव ही थे. इन सबसे यह मेरा प्रथम परिचय था, जो संबंध आज मेरी पूंजी बन चुका है.
इससे पहले भी मैने भोपाल, दिल्ली, इलाहाबाद में अनेक बड़े साहित्यिक आयोजनो में कई भागीदारियां की थी पर किसी साहित्यिक आयोजन में और वह भी गैर सरकारी, स्वागत की यह शैली सचमुच अद्भुत थी, जो मेरे लिये चिर स्मरणीय बन गई.
बाद में मेरे जबलपुर स्थानातरण पर वर्तिका के अध्यक्ष और फिर प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में मुझे कार्य करने के अवसर मिले.
जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि ऐसे ही छोटे छोटे प्रयोग और आत्मीयता, से सबको अवसर, सबको सम्मान, सबको जोड़ना वर्तिका की विशिष्टता है.
वर्तिका पंजीकृत सक्रिय साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था है.संस्था की निरंतर आयोजन क्षमता उसकी सबसे बड़ी विशेषता है. संस्था ने जबलपुर में विगत अनेक वर्षो से प्रति माह अंतिम रविवार को मासिक काव्य गोष्ठी आयोजित कर एक रचनात्मक वातावरण बनाया है. बिना विवाद के वर्षो से ऐसे आयोजन निर्विघ्न होते रहना अद्भुत रिकार्ड है. जिन साहित्यकारो का जन्म दिवस जिस माह में होता है उनकी रचनाओ पर आधारित काव्य पटल का विमोचन शहर की साहित्यिक गतिविधियो के केंद्र ड्रीमलैंड फन पार्क में किया जाता था, जिसे ड्रीम लैंड फन पार्क के विस्थापन के बाद प्रतिष्ठित शहीद स्मारक में लगाया जाने लगा है. जहां यह काव्य पटल पूरे माह आम जनता के लिये पठन और मनन हेतु प्रदर्शित रहता है.आज जब पाठको की कमी होती जा रही है, ऐसे समय में नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने के लिये बड़े बैनर में कविता प्रकाशित कर उसे सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करने की वर्तिका की पहल ने साहित्य प्रेमियों का ध्यान खींचा है. काव्य गोष्ठी का आयोजन डा बी एन श्रीवास्तव चेरिटेबल ट्रस्ट मदन महल, ड्रीमलैण्ड फन पार्क के नये स्थान देवताल के सामने फिर हरिशंकर परसाई भवन भातखण्डे विद्यालय, जानकी रमण महाविद्यालय, आनलाइन आदि स्थलों पर निरंतर रूप से जारी है. बीच बीच में किसी रचनाकार के निवास पर भी आयोजन होते रहे हैं, जिनमें विजय नेमा अनुज, डा विजय तिवारी, स्व सुनिता मिश्रा के घर पर भी आयोजन संपन्न हुये हैं.
वर्तिका ने समय समय पर युवा रचनाकारो के मार्गदर्शन हेतु गजल कैसे लिखें ? दोहा कैसे लिखें ?, जैसे विषयों पर विद्वानो की कार्यशालायें आयोजित कर एक अलग क्रियाशील पहचान बनाई है.
प्रत्येक वर्ष संस्था वार्षिकोत्सव भी मनाती है. जिसमें संस्था देश के विभिन्न अंचलो से अनेक रचना धर्मियो को आमंत्रित कर उनका सम्मान करती है. वर्तिका से सम्मानित विद्वानो में स्व चंद्रसेन विराट, साहित्य अकादमी के निदेशक डा त्रिभुवन नाथ शुक्ल भोपाल,प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव,”विदग्ध”,आचार्य भगवत दुबे, श्री संजीव सलिल,दिल्ली के श्री जाली अंकल, हैदराबाद के स्व विजय सत्पट्टी, श्री अनवर इस्लाम, श्री कुंवर प्रेमिल डेली हंट के स्व आभास चौबे आदि कई विद्वान शामिल हैं.
इसके अतिरिक्त समाज के विभिन्न क्षेत्रो जैसे शिक्षा, चिकित्सा, समाज सेवा, आदि में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली विभूतियो को भी समाज के ही लोगो से सहयोग लेकर अलंकृत करने की परम्परा है. जिससे ऐसे लोग दूसरो के लिये उदाहरण बनते हैं और उन्हें अपने कार्यो को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन मिलता है. शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वालो को शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति वर्तिका शिक्षा अलंकरण, चिकित्सा के क्षेत्र में डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण अन्य सामाजिक गतिविधियों हेतु भी संस्था उल्लेखनीय कार्यो के लिए सम्मानित करती आ रही है.जो सुधीजन अपने स्वजनो की स्मृति में ये अवार्ड प्रदान करना चाहते हैं उनसे वर्तिका के पदाधिकारी संपर्क कर सहयोग राशि लेकर सम्मान आयोजित करते हैं.
इस हेतु साहित्य प्रेमियो से प्रकाशित किताबो या निरंतर साहित्य सेवा के अन्य साक्ष्य सहित नामांकन आमंत्रित किये जाते हैं. नामांकन हेतु कोई शुल्क न होना वर्तिका की खासियत है. नामांकन स्वयं या कोई भी साहित्य प्रेमी कर सकता है. नामांकन सादे कागज पर स्वयं का तथा नामांकित व्यक्ति या संस्था का पूर्ण विवरण लिखते हुये संस्था के पदाधिकारियो के पास भेजने होते हैं. एक और विशेषता है कि वर्तिका साहित्य व समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओ को भी पुरस्कृत करती है. गुंजन, गरीब नवाज कमेटी, प्रसंग, जागरण, एकता और शक्ति मंच आदि को वर्तिका सम्मान प्राप्त हो चुके हैं.
वर्तिका की एक उच्चस्तरीय चयन समिति प्राप्त नामांकनो तथा स्वप्रेरणा से व्यक्तियो व संस्थाओ के योगदान के आधार पर अवार्ड का निर्णय करती है. निर्णायको में हमारे संरक्षक,पदाधिकारी व वरिष्ठ साहित्यकार प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध आदि रह चुके हैं.
इस अवसर पर सामूहिक काव्य संकलन, वार्षिक स्मारिका का प्रकाशन भी होता है. श्री विजय नेमा अनुज का सहयोग इस प्रकाशन में अदभुत समर्पण और लगन का रहा है. वार्षिकोत्सव में इसका विमोचन अतिथियो के द्वारा किया जाता है. वर्तिका को कोई उल्लेखनीय वित्तीय सहयोग शासन से कभी नही मिला, हमारी वित्त पोषण व्यवस्था परस्पर आंतरिक सहयोग पर आधारित है, संरक्षक एक मुश्त राशि सहयोग स्वरूप देते हैं,जिसे बैंक में वर्तिका के खाते में जमा कर दिया जाता है, समय समय पर उसका उपयोग ही समिति की अनुशंसा पर किया जाता है. सदस्यता शुल्क, मासिक गोष्ठी में काव्य पटल शुल्क, तथा विशेष आयोजनो के लिये सदस्यो से स्वेच्छा से दी गई राशि से ही संस्था चलाई जा रही है.
संस्था के आयोजनो का साहित्यिक स्तर अति विशिष्ट रहा है. हमसे जुड़े अनेक रचनाकार राष्ट्रीय व वैश्विक क्षितिज पर महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रतिष्ठा अर्जित करते दिखते हैं. हमारी एक विशेषता यह भी है कि जो हमसे एक बार जुड़ जाता है, हम उससे निरंतर जुड़े रहते हैं, स्व अंशलाल पंद्रे आजीवन हमसे जुड़े रहे,जबलपुर में कमिश्नर रहे श्री मदन मोहन उपाध्याय, श्री वामनकर ढ़ेरो ऐसे नाम हैं जो वर्तिका से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. न केवल साहित्यिक वरन पारिवारिक उत्सवो सहित जीवन के हर सुख दुख के क्षेत्र मे वर्तिका के सदस्य परस्पर प्रेम भाव से जुड़े दिखते हैं यही संबंध वर्तिका की वास्तविक पूंजी है.
मैं वर्तिका से जुड़े रहने में गर्व महसूस करता हूं. व वर्तिका की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूं. इस वर्ष मैं संस्था के आयोजन में यहां न्यूजर्सी अमेरिका से अपने शब्दों और पुरानी यादों के इस लेख से ही अपनी सहभागिता कर पा रहा हूं. सभी सम्मानितो को बधाई और आयोजन की सफलता की मंगलकामनाएं
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)
☆ कविता 🤦♀️बड़ी ठंड है ! ❤डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆
☆ भजन – प्रभु हैं तेरे पास में…१ ☆
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कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…
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तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!
जो तेरा अपराधी है, उसको कर दे हँस माफ़ रे..
प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…
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चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.