(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता ‘बेटी ! मत बन मेरी जैसी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 105 ☆
☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फॉलो अनफॉलो का चक्कर ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 125 ☆
☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆
एक दूसरे को देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है। सोशल मीडिया ने लगभग सभी को रील / शार्ट वीडियो बनाना सिखा दिया है। बस उसमें प्रचलित ऑडियो को सेट करें और वायरल का हैस्टैग करते हुए सब जगह फैला दीजिए। ये सब देखते हुए विचार आया कि इसे तकनीकी यात्रा का नाम दिया जाए तो कैसा रहेगा। वैसे भी यात्राएँ रुचिकर होती हैं। पुस्तकों में भी यात्रा वृतांत पढ़ने में आता है।
एक शहर से दूसरे शहर जाना अर्थात कुछ बदलना। ये बदलाव हमारे अवलोकन को बढ़ाता है। जगह – जगह का खान- पान, रहन-सहन, वेश- भूषा सब कुछ अलग होता है। चारों धाम की यात्रा यही सोच कर सदियों से की जा रही है। जब हम यात्रा संस्मरण पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमने भी यात्रा कर ली। रास्ता नापने के मुहावरा शायद यही सोचकर बनाया गया होगा। आजकल सड़कें भी बायपास हो गयीं हैं। बिना धक्के का रास्ता आनन्द के साथ- साथ रुचिकर भी होने लगा है। तेजी से बढ़ते कदम मंजिल की ओर जब जाते हों तो लक्ष्य मिलने में देरी नहीं लगती। आस- पास हरियाली हो, वन वे ट्रैफिक हो, बस और क्या चाहिए।
यात्राएँ हमें जोड़ने का कार्य बखूबी करतीं हैं। बहुत बार हम किसी विशेष स्थान से प्रभावित होकर वहीं बसने का फैसला कर लेते हैं। हम तो ठहरे तकनीकी युग के सो सारा समय फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप व ट्विटर पर बिताते हैं। जब मामला अटकता है तो गूगल बाबा या यू ट्यूब की शरण में पहुँच कर वहाँ से हर प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं। ये सब कुछ बिना टिकट के घर बैठे हो रहा है। पहले तो किसी से कुछ पूछो तो काम की बात वो बाद में करता था अनावश्यक का ज्ञान मुफ्त में बाँट देता था। चलो अच्छा हुआ इक्कीसवीं सदी में कम से कम इससे तो पीछा छूट गया है।
ये सब मिलेगा बस अच्छी पोस्ट को फॉलो और खराब को अनफॉलो करने की कला आपको आनी चाहिए। पहले अवलोकन करें जाँचे- परखे और सीखते- सिखाते हुए सबके साथ आगे बढ़ते रहें।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ मार्गशीष साधना🌻
आज का साधना मंत्र – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “राम जाने”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 126 ☆
☆ लघुकथा – राम जाने☆
बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”
बाबू जी कुछ देर चुप रहे।
“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”
“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”
“हां, यह बात तो सही है।”
“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”
“तो क्या हुआ
” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”
“नहीं यार!”
“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”
“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?
और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 135 ☆
☆ बाल कविता – खेल खिलौने टुनटुन वाले…☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆
आपण उत्सवप्रिय आहोत. श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक या महिन्यात विविध व्रतवैकल्ये, धार्मिक सण, उत्सव यांची रेलचेल असते. या काळात संपूर्ण निसर्ग बहरलेला असतो. वर्षाऋतुनं अवघ्या अवनीवरती जलाभिषेक केलेला असतो. सृष्टी सौंदर्यानं नटलेली असते. प्राणी पक्षी आनंदी असतात. झाडं,वेली पानाफुलांनी नटलेली असतात. आपले सण उत्सव आपल्या संस्कृतीची ओळख सांगतात. तसेच ते निसर्गाशी नातं सांगतात, निसर्गाशी जवळीक साधतात. निसर्गातल्या बदलांचं निरिक्षण करून त्यांचं आपल्या जीवनाशी असलेलं नातं शोधणं म्हणजे सण, उत्सव साजरे करणं , हो ना? सणांच्या निमित्तानं माणसं एकत्र येतात, सुसंवाद घडतात. वैयक्तिक, सामाजिक ताणतणाव कमी होतात. याबरोबरच सण, नैसर्गिक बांधिलकीची जाणीव देखील करून देतात. सृष्टीतील प्रत्येक सजीवांप्रती प्रेम, आदर, व्यक्त करण्याचा मार्ग म्हणून या सणांच्याकडं, बघायला हवं.
आपल्या चालीरीती, परंपरा आपल्याला निसर्गाविषयी कृतज्ञता व्यक्त करायला शिकवतात. आपल्या परिसरातील झाडं, वेली, शेती, प्राणी, पक्षी या सर्वांना मानाचं स्थान देण्यासाठी सण निर्माण केले आहेत. असा विचार केला तर परंपरा जपल्या जातीलच, पण त्याशिवाय निसर्गाचं जतन करायला, संवर्धन करायला, परिसंस्था टिकवायला हातभार लागेल.
वटपौर्णिमा, नागपंचमी, ऋषीपंचमी साजरी करायची असेल तर घरातून बाहेर जावं लागतं. निसर्गाशी संवाद साधावा लागतो.गणेशाला लाल फुले, दुर्वा, आघाडा प्रिय. अर्जुन, रुई, पिंपळ, कण्हेर, शमी, डाळिंब,शंखपुष्पी अशी एकवीस प्रकारची पत्री पूजेसाठी लागते. बाप्पासाठी हे सर्व लागते म्हणून या वनस्पतींची लागवड केली जाते. त्यांची काळजी घेतली जाते, संवर्धन केले जाते. पर्यायानं आपण आपल्या सभोवती असलेल्या निसर्गाचं संवर्धन करतो, जतन करतो. त्यामुळंच तर पर्यावरणाचा समतोल राखला जातो. शहरात पूजेसाठी लागणारी फुलं, फळं,पत्री विकत मिळते. परंतु खरेतर या वनस्पती आपल्या परिसरात आपण स्वतः लावणं अपेक्षित आहे. देवपूजेचं निमित्त करून, पूजेसाठी लागणारी सामग्री गोळा करण्यासाठी आपण त्यांच्या जवळ, त्यांच्या सान्निध्यात काही काळ व्यतीत केला पाहिजे. मोकळी हवा, भरपूर ऑक्सिजन मिळवण्यासाठी परिसरात फिरलं पाहिजे. सृजनातला आनंद मिळवला पाहिजे.सर्जनशीलता वाढली पाहिजे. या वनस्पतींच्या औषधी गुणधर्मांची माहिती करून घेतली पाहिजे. सगळ्यात महत्त्वाचं म्हणजे, त्या त्या ऋतूत मिळणाऱ्या भाज्या,फळं यांचं सेवन केलं पाहिजे.
आपली संस्कृती रोजच दारात रांगोळी काढायला सांगते. यामुळे घरासमोरील अंगण, घराचा बाह्य भाग, यांची स्वच्छता होते. सकाळचा कोवळा सूर्यप्रकाश मिळतो. ताजा प्राणवायू उत्साह द्विगुणित करतो. थोडासा व्यायाम होतो. शेजाऱ्यांची खुशाली समजते. कलागुणांना वाव मिळतो. मन प्रसन्न होतं. अनेक आजार दाराबाहेर रोखले जातात.
सणासुदीच्या काळात म्हंटल्या जाणाऱ्या आरत्या, स्तोत्र पठण, यांनी सात्विक वातावरण निर्माण होतं. आरती गाताना आपण टाळ्या वाजवतो. यामुळं जशी गेयता येते, तालाचं, चालीचं भान राहतं तसंच रक्ताभिसरण सुधारतं. ओवी, श्लोक, ऋचा, आरत्या जिभेला वळण लावतात, स्मरणशक्ती वाढवतात. विचार करावा तेवढे फायदे आहेत. आपल्या पूर्वजांनी अभ्यास करून रितीरिवाज, परंपरा, सणसमारंभ यांची आखणी केली आहे. आधुनिक काळात पाश्चिमात्य देशांमधील विचार, पद्धती, खाद्यसंस्कृती, वेषभूषा आपण स्वीकारतो. ती वाईट नाही. पण आपल्या हवामानाला पूरक नाही हे मात्र नक्की. निसर्गाचा समतोल राखत, मानवी जीवन आरोग्यपूर्ण, आनंदी आणि समाधानी करण्यासाठी परंपरा जपण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. अन्न,वस्त्र, निवारा देणारी अवनी जपली पाहिजे.
‘सहनाववतु, सहनोभुनोक्तु सहवीर्यं करवावहै’ ची अनुभूती घेतली पाहिजे.
तो बाहेरुन आल्यावर त्याला तात्या येऊन धीर देऊन , ‘ काहीअडलं -नडलं सांगा ‘ असं सांगून गेल्याचे समजलं, तेंव्हा तो उफाळून म्हणाला,
” काही नको त्यांची मदत आपल्याला. तशीच वेळ आली तर विष खाऊन जीव देऊ पण त्यांच्या दारात जाणार नाही. “
‘ काहिही झाले तरी त्यांच्या दारात जायचे नाही ‘ असे त्याने आईला तसेच निक्षून सांगितले होते.
चारच दिवसांनी तो आपल्या वडिलांच्या वयाच्या असणाऱ्या तात्यांच्या अंगावर धावून गेला होता. साधे फुले तोडण्याचे कारण घेऊन. त्यावेळी तात्या त्याला समजुतीने सांगत होते पण त्याने त्यांचे काहीही ऐकून न घेता, त्याच्या हद्दीतील फुलझाडाची चार फुले तोडली म्हणून त्यांच्या हातातील फुलांची परडी हिसकावून घेऊन त्यातील सारी फुले पायदळी तुडवली होती. तात्या त्यावरही काहीच न बोलता निमूटपणे त्यांच्या घरात परतले होते. त्याची मात्र स्वतःच्या दारात उभा राहून शिव्यां-शापांची लाखोली वहात बडबड चालू होती.
तात्यांची दोन्ही मुले त्याच्याबरोबरीचीच. तशीच गरम डोक्याची. ती नोकरीनिमित्त मुंबईला होती. ती तिथं असती तर भांडण हमरीतुमरीवर यायला कितीसा वेळ लागणार होता? त्याच्या आईने त्याला त्यावेळीही समजवण्याचा प्रयत्न केला होता पण उपयोग झाला नव्हता.
पिढी-दर-पिढी चाललेल्या त्यांच्या हद्दीच्या वादात खरे कुणाचे होते, कुणास ठाऊक ? प्रत्येकाला आपलीच बाजू बरोबर आहे, खरी आहे, योग्य आहे असे वाटत होते. दुसरा आपल्या मालकीच्या जाग्यावर अतिक्रमण करतोय असे वाटत होते आणि तेच मत पुढच्या पिढीत संक्रमित होत होते.. अगदी वारसा हक्काने !
रोहिणी नक्षत्रात पाऊस चांगला झाला होता. भाताची खाचरे भरून गेली होती. विहिरीचे पाणी उपसून खाचरात आणण्याची आवश्यकता नव्हती.प्रत्येकाने निसर्गाच्या, पावसाच्या कृपेचा फायदा घेत, भाताची लावण अगदी वेळेवर केली होती. मृग सरला, आर्द्रा सरल्या पण पुनर्वसू नक्षत्र लागले तेच मुळात वेगळे वातावरण घेऊन. पावसाने संततधार धरली.वादळी वारे वाहू लागले.त्या वादळी वाऱ्याने कितीतरी मोठमोठाली झाडे उन्मळून धारातीर्थी पडली होती. पुनर्वसू नक्षत्रात असा पाऊस, असे वादळी वारे नसते असे म्हातारी माणसे म्हणत होती.पण निसर्गाला काय झाले होते काय की..? तो जणू बेभान झाला होता, बेफाम झाला होता. ‘निसर्गाचा प्रकोप का काय म्हणतात, तोच झाला असावा. आपण काय करतोय याची त्याला जाणीवच नसावी.’ असे हे निसर्गाचे रूप पाहून सारे अवाक झाले होते, सारे भयभीत झाले होते, सगळेच हवालदिल झाले होते. गावात, परिसरात ,कितीतरी कुटुंबांच्या डोक्यावरचे छत वादळाने उडून जाऊन ती कुटुंबे उघड्यावर आली होती. कुणी देवळाचा आसरा घेतला होता कुणी शाळेचा. निसर्गाचा हा कहर पाहून पक्क्या घरात राहणाऱ्यांच्या मनातही भीती जागली होती. ‘ ही अमावस्या पार पडेपर्यंत काही खरं नाही.. ‘ म्हातारी-कोतारी माणसे मनाशीच पुटपुटत होती.. एकमेकांशी बोलत होती, कुटुंबातील सदस्यांना सांगत होती.
अमावस्येच्या दिवशी तर वादळ-वाऱ्याने, पावसाने कहरच मांडला होता. आठवडाभर लाईटही गेलेले होते. रात्र अगदी मुंगीच्या पावलाने सरकत होती. मध्यरात्र उलटून गेली असावी आणि कसल्याशा आवाजाने तात्यांना जाग आली. पुन्हा काहीतरी धाडs धाड ss असा कोसळल्यासारखा मोठा आवाज आला. तात्यांनी उशाची बॅटरी घेतली आणि घरातच सभोवतार फिरवली आणि ते उठले. तात्यांची बायकोही आवाजाने दचकून भिऊन जागी झाली होती.
” कसला .. कसला आवाज झाला हो ?”
तिने घाबरूनच तात्यांना विचारले.
” काहीतरी पडल्यासारखा आवाज वाटतोय. पावसाने नीट ऐकू आला नाही पण काहीतरी पडले असणार.. तसा मोठा आवाज झाला. बघतो बाहेर जाऊन..”
तरुणपणात कुणाची तरी येते ती आठवण…. म्हातारपणात होतं ते स्मरण…. यानंतरही जिवाभावात उरतात त्या मात्र स्मृती…. !
ऑक्टोबर महिन्यामध्ये घडलेल्या प्रत्येक घटना, स्मृती म्हणून माझ्या मनामध्ये कागदावर शिक्का मारावा त्याप्रमाणे उमटल्या आहेत…!
काल घडलेल्या सुखद घटना, शिक्का मारलेल्या या स्मृती, आज घरी येऊन घरातल्या आपल्या लोकांना चौखूर बसवून पुन्हा रंगवून सांगण्यात मजा असते… मी त्यालाच लेखा जोखा म्हणतो !!!
आमच्या खेडेगावात पूर्वी बुधवारी बाजार भरत असे (आताही तो बुधवारीच भरतो)…. लहानपणी आजीच्या बोटाला धरून मी तिच्या मागे मागे फिरून बाजार करत असे…सगळ्यात शेवटी ती माझ्यासाठी चार आण्याची भजी विकत घेत असे…. कळकट्ट पेपराच्या पुरचुंडीत बांधलेले हे सहा भजी मी जपून घरी आणत असे … बाजारातून घरी चालत जायला किमान एक तास लागे… तोवर मी साठ वेळा आजीच्या पिशवीतून भज्यांचा पुडा नीट आहे की नाही हे तपासात असे…. त्याचा वास घेत असे…. ! —- भजी खाण्यात जो आनंद आहे…. त्यापेक्षा त्याचा सुगंध नाकात भरून घेण्यात जास्त मजा असते…. !
एखादं ध्येय प्राप्त करण्यापेक्षा त्या ध्येयप्राप्तीपर्यंतचा प्रवास कधीकधी आनंददायी असतो….!!!
तर…. घरी जाईपर्यंत त्या कळकट पेपरला भज्यांचं तेल लागलेलं असे…. खून दरोडे बलात्कार आणि राजकारण याच बातम्या त्याही वेळी होत्या… आजही त्याच आहेत…. या बातम्यांची शाई माझ्या भजाला आपसूक चिटकत असे…. पण मला त्याचं काही सोयर सुतक नव्हतं !
आज वयाने मोठा झाल्यानंतर “भजी” म्हणतो…. लहानपणी “भजं” म्हणत होतो…!
वर्तमानपत्राचा कागद आज जरी बदलला असला तरी बातम्या मात्र त्याच आहेत….
वयाने कितीही मोठा झालो असलो, तरीसुद्धा सामाजिक परिस्थिती विशेष बदललेली नाही……. असो…
फरक फक्त इतकाच पडला आहे….. भजी विकणारे, पटका बांधणारे…. आजोबा जाऊन, त्यांच्या जागी त्यांचा मुलगा आला आहे…
आजोबा भजी विक्री करून “व्यवसाय” करायचे, घराचा उदरनिर्वाह भागवयाचे, मुलगा आता “धंदा” करतो….!
मातीची घरं जाऊन सिमेंट ची पक्की घरं झाली आहेत….
घरं पक्की झाली पण नाती भुसभूशीत झाली….!
घरा समोरचं अंगण जाऊन, तिथे पार्किंग ची जागा झाली आहे….
पूर्वी पाऊस पडल्यानंतर अंगणातल्या मातीला “सुगंध” यायचा… हल्ली नुसताच चिखल होतो…. या चिखलात घरापासून दूर गेलेल्या कारच्या खुणा फक्त ठळक दिसतात……..
गेलेली मुलं, नातवंडे परत घरी येतील या आशेवर दोन म्हातारे डोळे लुकलुकत असतात…. विझत चाललेल्या दिव्यासारखे !
माझी आजी गेली त्याला कित्येक वर्ष झाली… परंतु पडक्या त्या वाड्याला तिच्या स्मृतीचा सुगंध आहे… !
चार आण्याला हल्ली भजी मिळत नाहीत…. ते चार आणे भूतकाळात मी हरवून आलो आहे… तेलाचा डाग पडलेला तो वितभर पेपर…. पटका घालणारे ते बाबा… अन् वर दोन भजी जास्त घाल म्हणून वाद घालणारी ती माझी
आजी… ! —– आज जरी मी हे सगळं हरवलं आहे, तरीसुद्धा….तेलाचा डाग पडलेल्या, त्या कळकट पेपरमधल्या भज्यांच्या सुगंधासारख्या…. या सर्व स्मृती अजूनही मनात दरवळत आहेत… खमंग… खमंग !!!
या महिन्यात दिवाळी होती….!
मोठ्या हौसेने आम्हीसुद्धा पणत्या घेतल्या. पण आमच्या घरात त्या लावल्या नाहीत…. आम्ही त्या चार जणांना विकायला लावल्या…. ! …. विकलेल्या पणत्यांनी एका बाजूचं घर उजळेल…. तर दुसऱ्या बाजूला असणाऱ्या घराची भूक शमेल…!
आम्ही घरीच उटणं केलं …. रस्त्यावरील याचकाकडून त्याचं पॅकिंग करून घेतलं…. त्या बदल्यात त्यांना पगार दिला… या उटण्यात आम्ही चंदनाचे चूर्ण घातले होते…….. या उटण्याला चंदनाचा सुगंध येतोय की नाही माहित नाही, पण कष्टाचा सुगंध नक्कीच आहे !
आमच्या खेडेगावात पूर्वी प्रथा होती… घरामध्ये फराळ तयार झाला की, ताटंच्या ताटं भरून ती गल्लीतल्या शेजार पाजारच्या लोकांना द्यायची…… जणू शेजारच्यासाठीच घरी फराळ तयार करत आहोत….. आम्ही पोरं सोरं ही ताटं लोकांच्या घरी पोहोचते करत असू…. त्यावर एक फडकं झाकलेलं असे…. वाटेत जाताना हे फडकं हळूच बाजूला करून चिवड्यातल्या खमंग तळलेल्या खोबऱ्याच्या चकत्या आणि शेंगदाणे खायला मिळत, म्हणून हे ताट पोहोचवण्याचं काम अंगावर घ्यायला आम्ही प्रत्येक जण उत्सुक असत असू … घरातून भरलेलं ताट दुसरीकडे घेऊन जाईपर्यंत निम्मं व्हायचं… यात खूप “मज्जा” यायची….! सांगायला आनंद आणि अभिमान वाटतो की खेड्यातली ही प्रथा आताच्या आपल्या समाजातल्या अनेकांनी आजही जपली आहे…….
…. ताटंच्या ताटं भरून यावेळी समाजातल्या अनेक दानशूरांनी आमच्याकडे फराळ पाठवला… किमान ३० हजार लोकांना पुरेल इतका हा फराळ होता…
गावाकडल्या स्मृतीचा गंध पुन्हा मनात दरवळला…. लहानपणीप्रमाणेच याहीवेळी आम्ही फडकं झाकून फराळाचं ताट घेऊन रस्त्यावर गेलो…….
…. पण यावेळी तळलेल्या खोबऱ्याच्या खमंग चकत्या आणि शेंगदाणे आम्ही खाण्याऐवजी पोराबाळांची वाट बघणाऱ्या…. लुकलूकणारे डोळे आणि थरथरते हात घेऊन जगणाऱ्या जीवांना भरवल्या …….
…. आपण घेण्यापेक्षा, दुसऱ्याला देण्यामध्ये जास्त “मज्जा” येते हे आता कळलं…!
वैद्यकीय उपक्रमांतर्गत या महिन्यात जवळपास ९०० रुग्णांवर रस्त्यावरच उपचार केले. आणि १६ गंभीर रुग्णांना विविध हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट करून उपचार करून घेतले आहेत. गरजूंना वैद्यकीय साधने (व्हीलचेअर, कमरेचे पट्टे, कुबड्या, मास्क, sanitizer, स्टिक, गुडघ्याचे तथा मानेचे पट्टे,) दिले आहेत.
वृद्ध लोक ज्यांना बिलकुल ऐकायला येत नाही, वृद्धापकाळाने डोळ्यांना दिसत नाही आणि त्यामुळे रस्ता ओलांडताना एक्सीडेंट होऊन मृत्यू होतात, अशा सर्वांना कानाची मशीन दिले आहेत, डोळ्यांची ऑपरेशन्स केली आहेत….. या सर्व वृद्धांच्या, आवश्यक त्या सर्व तपासण्या आपण रस्त्यावरच केल्या आहेत.
शैक्षणिक उपक्रमांतर्गत ज्या मुलांनी शिक्षणाची वाट धरली आहे अशा सर्वांना काय हवं नको ते पाहून गरजेच्या शैक्षणिक बाबी पुरवल्या आहेत.
या महिन्यात अनेक गोरगरिबांना शिधाही दिला…
आमच्या परीनं आम्ही दिवाळी साजरी केली….
या अल्लाह…. दर्गाह मे हमने कोई चादर नही चढाई…. मगर रस्ते पे जो बुजुर्ग थंड मे मुरझाये पडे थे…. उनके शरीर पे चादर चढाई है ….
Dear Jejus, we have not offered a single candle to you in this Diwali …. But we have enlightened the houses of many poor people….!
वाहेगुरूजी का खालसा वाहेगुरूजी की फतह…
इस बार हमने गुरुद्वारेपे नही….रस्तेपेही लंगर आयोजित किया था…… पंजाबी या गुरुमुखी भाषा तो आती नही मुझे… लेकिन बिना शब्दोंकी बोली जो हमने बोली ….क्या वो आपकी भाषा से अलग है ?
देवी माते … नवरात्रात तुला साडी चोळी अर्पण करण्यापेक्षा, फुटपाथवरच्या मातेला आम्ही साडी चोळी अर्पण केली गं … ! त्यांनी भरभरून आशीर्वाद दिले…. ते तुझेच तर होते…..
हे शंकर भगवान…. भोलेनाथा…. लोक तुम्हाला दुधाचा अभिषेक करतात…. तुम्हाला अभिषेक करण्याऐवजी उपाशी आणि नागड्या पोरांना मांडीवर घेऊन, आम्ही त्यांना दूध पाजले आहे… यानंतर तुमच्या मुद्रेवर जे प्रसन्न हास्य उमटलं…. ते मी दिवाळीचा दिवा म्हणून मनात साठवून ठेवलंय…..
हे गजानना…. चतुर्थीला तुला मोदकाचा “नैवेद्य” दाखवण्याऐवजी रस्त्यावर भुकेचा महोत्सव मांडून…. भुकेल्यांना मोदक भरवून त्यांचा आनंद “प्रसाद” म्हणून आम्ही मिळवला आहे… !
आणि हो… हे सारं करण्याबद्दल मी तुमची मुळीच माफी मागणार नाही…. !