मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ तुझा पाय वामन ठरतो… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? तुझा पाय वामन ठरतो ?   सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

इवल्या इवल्या रोपांसाठी

तुझा पाय वामन ठरतो

पाय  पडताच रोपांवर

 त्याच जगणच नष्ट करतो

म्हणून चालताना पहावच

पायाखाली येतय काय

आपण पुढे जाता जाता

डोळस असावेत आपले पाय

काहिंच फुलण झुलण सार

 केवळ असत दुसऱ्या साठी

 परिमलही वाऱ्यास देतात

 तीच गंधित श्वासासाठी

  आभार त्याचे मानू नका

  दुर्लक्षही करून चालू नका

  जमल तर थोड पाणी देऊन

  आधार तयांना द्यावा मुका

   हिरवाई टिकेल तरच

  सम्रुद्वीच होईल जगण

 आपल्या सकल हितासाठी

  सुधाराव  आपलच वागण

चित्र साभार – सुश्री नीलांबरी शिर्के 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #145 – ग़ज़ल-31 – “माना आँसुओं से नहीं बदला…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल माना आँसुओं से नहीं बदला …”)

🎁 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री सुरेश पटवा जी को स्वस्थ जीवन के सत्तर वसंत पूर्ण करने पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🎁

? ग़ज़ल # 31 – “माना आँसुओं से नहीं बदला …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

आसमाँ में खोजने पर कहीं भी जवाहर नहीं मिलता,

समुंदर में डूबने पर कहीं भी आफ़ताब नहीं मिलता।

 

ज़ार-ज़ार रोना पड़ता है उस स्याह बादलों को जनाब,

फिर भी रेगिस्तान में कहीं पर सायवान नहीं मिलता।

 

माना आँसुओं से नहीं बदला कभी किसी का नसीब,

खून-पसीना एक करके भी तो जहान नहीं मिलता।

 

जो बिना खटके आए और वो रूठे बिना चला जाए,

ढूँढने से दुनिया में ऐसा कोई मेहमान नहीं मिलता। 

 

आँख बंद करके दुआएँ माँगते मंदिर मस्जिद में सब,

अंधों के पास कभी भी नज़र का सामान नहीं मिलता।

 

बुढ़ापा बीमारी और मौत से बचा कर स्वर्ग ले जाए

जहाँ में किसी को ऐसा कोई भगवान नहीं मिलता।

 

ख़ून-पसीना एक करना पड़ता पड़ता पंडा-मुल्ला को भी

पूजा अरदास नमाज़ उपवास से वरदान नहीं मिलता।

 

आसमान में उड़ने लगो तो धरती छूट जाती है तुमसे,

धरती पर रहो तो साला हाथ में आसमान नहीं मिलता।

 

शायरी के अखाड़े में दंड बैठक बहुतेरे शायर लगाते हैं,

जो कलाजंग लगा पाए ऐसा पहलवान नहीं मिलता।

 

तुम अहसासों को पढ़ना जल्दी सीखा जाओ ‘आतिश’,

हर महफ़िल में तुम्हें जाहिराना कद्रदान नही मिलता।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – अपने लिए ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  अपने लिए)

☆ लघुकथा – अपने लिए ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी में कार्यरत कर्मचारियों की तरह वर्दीनुमा कपड़े पहने कुछ सुंदर नौजवान युवक-युवतियों ने कार्यालय-कक्ष में प्रवेश किया और एक-एक कर अपनी कंपनी की तरफ से दिए गए उत्पाद सभी को दिखाने लगे। सभी को कंपनी-संचालक द्वारा एक बंधे-बंधाये प्रबंधन कोर्स की तरह प्रशिक्षित किया गया था और वह एक रट्टू तोते की तरह बोलकर अपने उत्पादों की अच्छाइयां और उनके अनूठे उपयोगों के बारे में बता रहे थे। साथ ही, एक के साथ एक मुफ्त या एक के दाम में दो का भी प्रलोभन दे रहे थे, जैसा कि ग्राहकों को लुभाने, या सरल शब्दों में कहें तो फंसाने का एक कारगर उपाय होता है। कुछ साथी कर्मचारी इस अंत में दिए गए मारक जाल में आ गए थे, और अपनी आवश्यकताओं या पसंद के अनुसार कुछ ना कुछ खरीद रहे थे। किसी-किसी ने वर्तमान की बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए भी उन नवयुवक और नवयुवतियों के प्रति अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए कुछ उत्पाद लिए, तो एक-दो का उनके प्रति आकर्षण भी कारण रहा होगा।

अब जब वह मेरे सामने खड़े रटे-रटाए वाक्य बोलने को हुए तो मैंने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया, “एक बात बताओ, तुम्हें इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?” वह एक-दूसरे को देखने लगे। मैंने कहा, “छोड़ो, जितने भी मिलते होंगे, पर इतने नहीं कि जिन्हें तुम्हारी दिनभर की दौड़-धूप के अनुसार संतोषजनक या ज्यादा कहा जा सके, क्यों?”

वह चुपचाप खड़े थे जिससे मुझे यह अंदाजा हो गया था कि मैं काफी हद तक सही हूं।

मैंने फिर कहा, “यह तो तुम लोग भी जानते हो कि यह सारे प्रोडक्ट, जो तुम लोग बेच रहे हो, वह उत्तम गुणवत्ता वाले या नामी कंपनियों के नहीं हैं। इनमें बहुत मार्जिन होता है। तुम लोगों को थोड़ा सा लाभ देकर ज्यादातर लाभ कंपनी या एजेंसी के पास चला जाता है, जबकि तुम इन्हें बेचने के लिए अपना पूरा पसीना बहा देते हो। तो क्यों नहीं तुम लोग अपना स्वयं का कोई काम शुरू करके उसमें अपना श्रम और शक्ति लगाते। कम से कम किसी मुकाम तक तो पहुंचोगे, और तुम्हें तुम्हारी मेहनत का पूरा फल भी मिलेगा। तुम्हें किसी के अधीन रहकर नहीं, बल्कि आजादी से काम करने को मिलेगा और तुम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करोगे, अपने लिए…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श…(6) – हरित शहर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श…(6) – हरित शहर ??

काट दिये गए हैं

पेड़ों के मुंड,

छील दी गई है

पूरी की पूरी छाल,

धरती को

पच्चीस-पचास मीटर

घनी छाँव से ढकनेवाले,

अब स्वयं खड़े हैं

निर्वस्त्र और विवश,

इनकी असहाय देह पर

घातक रंगों से

पोती जा रही हैं

रंग- बिरंगी पत्तियाँ,

उकेरे जा रहे हैं

कई तरह के फूल,

एल.ई.डी.की रोशनी में

प्रदर्शन के लिए रखी

अनावृत लाज पर

चस्पां हो रहे हैं स्लोगन

वृक्षारोपण और

वन महोत्सव के,

और इनके इर्द-गिर्द

फल-फूल रही है

बेख़ौफ़ ब्यूरोक्रेटिक घास,

सारा माज़रा

आशंका मिश्रित भय से

निहार रहे हैं

जवानी की दहलीज़ पर खड़े

आसपास के कच्चे पेड़,

मैं लिखता हूँ ख़त

आयोजकों को-

माफ कीजियेगा,

‘हरित शहर’ अभियान के

उद्घाटन के लिए

नहीं आ पाऊँगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 85 ☆ गजल – ’’आदमीयत से बड़ा जग में…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमीयत से बड़ा जग में …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 85 ☆ गजल – आदमीयत से बड़ा जग में …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी को फूलों की खुशबू लुटानी चाहिये।

दोपहर में भी न मुरझा मुस्कराना चाहिये।।

बदलता रहता है मौसम, हर जगह पर आये दिन

बेवफा मौसम को भी अपना बनाना चाहियें।

मान अपनी हार अँधियारो  से डरना है बुरा

मिटाने को अँधेरे दीपक जलाना चाहिये।

मुश्किलें आती हैं अक्सर हर जगह हर राह में

आदमी को फर्ज पर अपना निभाना चाहिये

क्या सही है, क्या गलत है, क्या है करना लाजिमी

उतर के गहराई में, खुद मन बनाना चाहिये।

जिन्दगी के दिन हमेशा एक से रहते नहीं

अपने खुद पर रख भरोसा बढ़ते जाना चाहिये।

जो भी जिसका काम हो, हो जिन्दगी में जो जहॉ

नेक नियती से उसे करके दिखाना चाहिये।

आदमीयत से बड़ा जग में है नहीं कोई धरम

बच्चों को सद्भाव की घुट्टी पिलाना चाहिये।

चार दिन की जिंदगी में बाँटिये  सबको ख़ुशी 

खुदगरज होके न औरों को सताना चाहिये।

किसी का भी दिल दुखे न हो सदा ऐसा जतन

भलाई कर दूसरों की, भूल जाना चाहिये।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 93 – भक्ति और संपत्ति ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #93 🌻 भक्ति और संपत्ति 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार काशी के निकट के एक इलाके के नवाब ने गुरु नानक से पूछा, ‘आपके प्रवचन का महत्व ज्यादा है या हमारी दौलत का? ‘नानक ने कहा, ‘इसका जवाब उचित समय पर दूंगा।’

कुछ समय बाद गुरु नानक जी ने नवाब को काशी के अस्सी घाट पर एक सौ स्वर्ण मुद्राएं लेकर आने को कहा। नानक वहां प्रवचन कर रहे थे। नवाब ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल नानक के पास रख दिया और पीछे बैठ कर प्रवचन सुनने लगा। वहां एक थाल पहले से रखा हुआ था।

प्रवचन समाप्त होने के बाद नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं मुट्ठी में लेकर कई बार खनखनाया। भीड़ को पता चल गया कि स्वर्ण मुद्राएं नवाब की तरफ से गुरु नानक जी को भेंट की गई हैं। थोड़ी देर बाद अचानक गुरु नानक जी ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं उठा कर गंगा में फेंकना शुरू कर दिया। यह देख कर वहां अफरातफरी मच गई। कई लोग स्वर्ण मुदाएं लेने के लिए गंगा में कूद गए। भगदड़ में कई लोग घायल हो गए। मारपीट की नौबत आ गई। नवाब को समझ में नहीं आया कि आखिर गुरु नानक जी ने यह सब क्यों किया। तभी गुरु नानक जी ने जोर से कहा, ‘भाइयों, असली स्वर्ण मुद्राएं मेरे पास हैं। गंगा में फेंकी गई मुद्राएं नकली हैं। आप लोग शांति से बैठ जाइए।’ जब सब लोग बैठ गए तो नवाब ने पूछा, ‘आप ने यह तमाशा क्यों किया?’

धन के लालच में तो लोग एक दूसरे की जान भी ले सकते हैं।’ गुरु नानक जी ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया वह आपके प्रश्न का उत्तर था। आप ने देख लिया कि प्रवचन सुनते समय लोग सब कुछ भूल कर भक्ति में डूब जाते हैं। लेकिन माया लोगों को सर्वनाश की ओर ले जाती है। प्रवचन लोगों में शांति और सद्भावना का संदेश देता है मगर दौलत तो विखंडन का रास्ता है।‘ नवाब को अपनी गलती का अहसास हो गया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती – 2॥ -॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती – 2

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस – नीति-प्रीति और लोक रीति की त्रिवेणी है।

भक्त शिरोमणि तुलसीदास कृत ‘मानस’ एक ऐसा अद्वितीय कालजयी ग्रंथ है कि जिसकी टक्कर का कोई दूसरा ग्रंथ तो मेरी समझ में विश्व में नहीं है। ‘मानस’ में मानव समाज के उत्कर्ष और सुख-शांतिपूर्ण जीवन के जो आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं वे महत्ï कल्याणकारी और लोकोपयोगी हैं। मानस में क्या नहीं है? वह सभी कुछ तो है जिससे मनुष्य का न केवल इहलोक बनता है वरन्ï परलोक के बनाने का सार मंत्र भी मिलता है।

समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति सुशिक्षित और सुसंस्कारित हो तो समाज स्वत: ही सर्वसुख सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न निर्मित हो सकेगा। बारीक विवेचन से एक बात बड़ी स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक और सशक्त, संवेदनशील तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है-वह है परिवार। अनेकों परिवारों का सम्मिलित समूह ही किसी समाज का निर्माता है अत: परिवार में व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व में निखार भी लाता है और संस्कार भी देता है। इन्हीं सुसंस्कारों से समाज को सुख, शांति, समृद्धि प्राप्त होती है और उस समाज की पहचान भी बनती है। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री प्रमुख सदस्य होते हैं। इनकें सिवाय अनेकों परिवारजन मित्र परिजन और सहयोगी सेवक भी जिनके विचारों व व्यवहारों की घटना दैनिक जीवन चक्र में होती है। हर परिवार की अपनी अलग संरचना होती है। अपनी अलग पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें हर व्यक्ति की अलग भूमिका होती है। वह भूमिका किस व्यक्ति के द्वारा कितनी भली प्रकार निभाई जाती है इसी पर परिवार का बनना-बिखरना निर्भर करता है। ‘मानसÓ का कथानक बड़ा विस्तृत है और बहुमुखी है। राम को केन्द्र बिन्दु पर रखकर मानसकार ने उनकी संपूर्ण जीवन गाथा को उसमें गुम्फित किया है। राम अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनकी माता कौशल्या हैं जो प्रमुख राजमहिषी है। उनकी दो विमातायें है सुमित्रा और कैकेयी। सुमित्रा माता के दो पुत्र है लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकयी विमाता के पुत्र का नाम भरत हैं। राम सब भाइयों में सबसे बड़े हैं। उनसे छोटे भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं। राज महल में अपार सुख-वैभव, राजसी ठाट और आनंद है। अनेकों सहायक, सुसेवक और  हरेक सदस्य के दास-दासियाँ हैं।

राजा दशरथ शक्तिशाली, सत्यवादी, उदार, जनप्रिय नरेश हैं। चारों पुत्र उनके वार्धक्य में उन्हें प्राप्त हुए है अत: माता-पिता के सभी अत्यंत लाड़ले हैं। मातायें  भी पुत्रों में अपने पराये का भेद किये बिना सब पर समान स्नेह रखती हैं। भाइयों में आपस में आदर भाव और मेल तथा पूर्ण सामाञ्जस्य  है। चारों भाइयों का साथ-साथ लालन-पालन और गुरुवर  वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा दीक्षा होती है। इसी बीच ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेजने की याचना करते हैं। कर्तव्य भाव से बँधे राजा उनके साथ अपने दोनों पुत्रों को भेज देते हैं जहाँ उन्हें युद्ध-विद्या में पारंगत होने का सुअवसर मिलता है और वे अनेकों राक्षकों क ा वध करके मुनि विश्वामित्र जी के साथ मिथिला जाते हैं। मिथिला में संयोगवश राजाजनक की सुपुत्री सीता से राम का विवाह होता है और अन्य तीनों भाइयों के भी उसी परिवार में विवाह संपन्न होते हैं। यहाँ तक तो पूर्ण आनंद और प्रेम के संबंध सबके साथ परिवार में सबके हैं। परिवार में आपसी संबंधों की परीक्षा तो तब होती है जब व्यक्तिगत स्वार्थों में टकराव होते हैं और तभी अच्छे या बुरे, हितकारी या अहितकारी, उदार या अनुदार कौन, कैसे हैं समझ में आता है और व्यक्तित्व की वास्तविक  परख होती है।

वह घड़ी आई राम के राज तिलक की घोषणा होने पर कैकेयी की दासी मंथरा के द्वारा उल्टी पट्ïटी पढ़ाये जाने पर विमाता कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से, अपने जीवन की पूर्व घटनओं की याद दिलाकर राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिये जाने और राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास दिये जाने का अडिग प्रस्ताव रखने पर।

यहीं से अनापेक्षित रूप से उत्पन्न हुई विपत्ति के समय परिवार के हर व्यक्ति का सोच, व्यवहार और राम को राज्याभिषेक के स्थान पर वनवास के अवसर पर उलझी समस्याओं के धैर्यपूर्ण स्नेहिल निराकरण के आदर्श दृश्य ‘मानस’ में देखने को मिलते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

राजा दशरथ का अपने दिये गये वचनों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का परित्याग करना- रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई। कैकेयी का अपने त्रिया-हठ पर अडिग रहकर अपूर्व दृढ़ता का परिचय देना।

राम का, पिता के मानसिक और पारिस्थितिक कष्ट देख दुखी होना तथा पिता की आज्ञा का पालन करने में अपना हित समझ राजपद को सहर्ष त्याग देना। कहीं कोई प्रतिकार न करना, विमाता कैकेयी के प्रति कोई रोष प्रकट न करना और माता कौशल्या को समझाकर वन जाने की तैयारी करना, पितृभक्त पुत्र के व्यवहार की विनम्रता की पराकाष्ठा है।

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें।

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ११ जून – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ११ जून – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

पांडुरंग सदाशिव तथा साने गुरुजी

खरा तो एकची धर्म,जगाला प्रेम अर्पावे या स्वतःच्याच शब्दांप्रमाणे आयुष्यभर ज्यांनी या जगावर प्रेमच केले, उदंड माया दिली, त्या सानेगुरुजींचा आज स्मृतीदिन आहे. 11 जून 1950 ला त्यांनी या जगाचा निरोप घेतला. पण आपले विचार व त्यानुसार प्रत्यक्ष आचरण यांचा मेळ घालून किर्तीरूपी ते अमरच आहेत.

रत्नागिरी जिल्ह्यातील पालगड या खेड्यात त्यांचा जन्म झाला. त्यांचे कुटुंब पिढीजात श्रीमंत गावातील खोताचे काम करणारे असले तरी त्यांचे वडिलांचे पिढीपासून त्यांच्या परिस्थितीला उतरती कळा लागली व प्रतिकुल गरीब परिस्थितीतच त्यांचे बालपण गेले. पण आईने केलेल्या संस्कारांची श्रीमंती त्यांना आयुष्यभर पुरली.

इंग्रजी घेऊन एम्.  ए. केल्यावर त्यांनी अंमळनेर येथे प्रताप हायस्कूल मध्ये शिक्षकाची नोकरी धरली. विद्यार्थी वसतिगृहाची जबाबदारीही त्यांच्यावर सोपवण्यात आली होती. याठिकाणी त्यांनी स्वतःच्या कृतीतून सेवावृत्तीचे व स्वावलंबनाचे धडे दिले.

साने गुरुजी हे म. गांधीवादी विचारांनी प्रभावित झाले होते. 1930मध्ये त्यांनी नोकरी सोडली व स्वातंत्र्यलढ्यात भाग घेण्यास सुरूवात केली. आयुष्यभर  खादीचा वापर केला. सविनय कायदेभंग चळवळीत सहभाग घेतला. 1942 च्या लढ्यात भूमिगत राहून कार्य केले.समाजातील जातिभेद,अनिष्ट रुढीपरंपरा,बंद व्हाव्यात यासाठीही लढा दिला. पंढरपूर येथील विठ्ठल मंदिरात हरिजनांना प्रवेश मिळावा यासाठी सत्याग्रह करून मंदिर सर्वांसाठी खुले केले.

1928 साली त्यांनी ‘विद्यार्थी’ हे मासिक व त्यानंतर ‘काँग्रेस’ नावाचे साप्ताहिक काढले. पुढे 1948 मध्ये ‘साधना’ साप्ताहिक सुरू केले.

राष्ट्र सेवा दलाची स्थापनाही त्यांनीच केली.

स्वातंत्र्यानंतर त्यांनी समाजवादी पक्षात प्रवेश केला.भारताची संस्कृती, विविध भाषा समजून घेण्यासाठी त्यांनी आंतरभारती चळवळ सुरू केली. त्यांना हिंदी, इंग्रजी व्यतिरीक्त तमीळी व बंगाली भाषा ही अवगत होत्या.

या सामाजिक व राष्ट्रीय कार्याबरोबरच त्यांनी विपुल लेखन केले आहे. त्यांची सुमारे 80 पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत. मानवतावाद, राष्ट्रभक्ती, समाजसुधारणा, संस्कार, ही सर्व मूल्ये त्यांच्या लेखनातूनही दिसून येतात.

त्यांनी काही पुस्तकांचा अनुवादही केला आहे.

तमिळ कवी तिरूवल्लीवर यांच्या ‘कुरल’या महाकाव्याचे भाषांतरत्यांनी  केले आहे. Les miserables या  फ्रेंच कादंबरीचे ‘दुःखी’ या नावाने कादंबरीत रूपांतर केले आहे. शिवाय डाॅ. हेन्री थाॅमस यांच्या ‘The story of human race’  चे मानवजातीचा इतिहास या नावाने  ग्रंथात भाषांतर केले आहे.

त्यांची काही पुस्तक अशी:

अमोल गोष्टी, आस्तिक, कला आणि इतर निबंध, गीता हृदय, गोड गोष्टी (दहा भाग), गोड निबंध (तीन भाग), भारतीय संस्कृती, मिरी, मुलांसाठी फुले, रामाचा शेला, धडपडणारी मुले, श्याम खंड एक व दोन, श्यामची आई, मोलकरीण, श्यामची पत्रे, स्त्री जीवन, स्वप्न आणि सत्य इत्यादी….

त्यांनी पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर, म.गांधी, गोखले, गौतम बुद्ध, विनोबाजी, देशबंधु दास, पं.नेहरू, छत्रपती शिवराय (आठ भाग), भगवान श्रीकृष्ण (आठ भाग) या व्यक्तींची चरित्रेही लिहीली आहेत. 

श्यामची आई व मोलकरीण या पुस्तकावर त्याच नावाने मराठी चित्रपटही निघाले आहेत.

करील मनोरंजन जो मुलांचे

जडेल नाते प्रभूशी तयांचे ;

बलसागर भारत होवो;

खरातो एकची धर्म   यासारखी त्यांची गीते आजही लोकप्रिय आहेत.

संस्कार, संस्कृती, संवेदना, समाजसुधारणा यासाठी आयुष्यभर प्रत्यक्ष व साहित्याच्या माध्यमातून कार्य करून गुरूजी विचारांचा वारसा मागे ठेवून हे जग सोडून गेले. त्यांच्या स्वप्नातील ‘बलसागर भारत’ उभा करणे हीच त्यांना खरी श्रद्धांजली! 🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ देव… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ देव… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

देव दगडाचा तरी,

मन असावेच त्याला

म्हणूनच पुजायचा

आम्ही अट्टाहास केला-

 

आम्ही बांधीयली पुजा,

त्याचे हरवले मन

आणि आमच्या वाटेला

आला केवळ पाषाण-

 

कधीतरी पाषाणाला,

वाटे फुटेल पाझर

असा पिसारा फुलवी

 माझ्या मनाचा मयूर-

 

आता थकला मयूर,

 त्याचा झडला पिसारा

 आतातरी पाषाणाने

 व्हावे समाधीचा चिरा

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बलसागर भारत होवो, विश्वात शोभुनी राहो ☆ साने गुरूजी ☆

साने गुरूजी

? कवितेचा उत्सव ?

बलसागर भारत होवो, विश्वात शोभुनी राहो ☆ साने गुरूजी ☆

हे कंकण करि बांधियले, जनसेवे जीवन दिधले

राष्ट्रार्थ प्राण हे उरले, मी सिद्ध मरायाला हो

 

वैभवी देश चढवीन, सर्वस्व त्यास अर्पीन

तिमिर घोर संहारिन, या बंधु सहाय्याला हो

 

हातात हात घालून, हृदयास हृदय जोडून

ऐक्याचा मंत्र जपून, या कार्य करायाला हो

 

करि दिव्य पताका घेऊ, प्रिय भारतगीते गाऊ

विश्वास पराक्रम दावू, ही माय निजपदा लाहो

 

या उठा करू हो शर्थ, संपादु दिव्य पुरूषार्थ

हे जीवन ना तरि  व्यर्थ, भाग्यसूर्य तळपत राहो

 

ही माय थोर होईल, वैभवे दिव्य शोभेल

जगतास शांती देईल, तो सोन्याचा दिन येवो

 

 – साने गुरुजी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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