हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

(21 June 1912 – 11 April 2009)

☆ संस्मरण  : विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें   

(आज प्रस्तुत है मूर्धन्य साहित्यकार स्व विष्णु प्रभाकर जी की जयंती (21 जून ) पर आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी के अविस्मरणीय संस्मरण। )

मित्र अरूण कहरवां ने आग्रह किया कि विष्णु प्रभाकर जी को स्मरण करूं कुछ इस तरह कि बात बन जाये। मैं फरवरी,  1975 में अहमदाबाद गुजरात की यूनिवर्सिटी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंन्दी भाषी लेखकों के लिए लगाये गये लेखन शिविर के लिए चुना गया था। दिल्ली में नरेंद्र कोहली जी मुझे रेलगाड़ी में विदा करने आए थे। पहली बार एक छोटे से कस्बे के युवा ने इतनी लम्बी रेल यात्रा की थी। बिना बुकिंग। एक कनस्तर पर बैठ कर। यूनिवर्सिटी पहुंचा। दूसरे दिन क्लासिज शुरू हुईं। मैंने कथा लेखन चुना। हमारे कथा गुरु के रूप में विष्णु प्रभाकर जी आमंत्रित थे। मज़ेदार बात कि आज की प्रसिद्ध कथाकार राजी सेठ व उनकी बहन कमलेश सिंह भी हमारे साथ प्रतिभागी थीं। कुल बतीस लेखक विभिन्न हिंदी भाषी प्रांतों से चुन कर आए थे। विष्णु प्रभाकर जी की सबसे चर्चित व लोकप्रिय पुस्तक आवारा मसीहा तब प्रकाशित हुई थी और वे उसकी प्रति झोले में रखते थे बड़े चाव से दिखाते। उनका शरतचंद्र का कहा वाक्य नहीं भूलता कि लिखने से बहुत मुश्किल है न लिखना। यानी जब कोई रचना आपके मन पर सवार हो जाती है तो आप उसे लिखे बिना नहीं रह सकते। फिर उनकी सुनाई लघुकथा :

चांदनी रात थी। नदी किनारे मेंढकों के राजा ने कहा कि कितनी प्यारी चांदनी खिली है। आओ चुपचाप रह कर इसका आनंद लें और सभी मेंढक यही बात सारी रात टर्राते रहे।

देखिए कितना बड़ा व्य॔ग्य। एक सप्ताह ऐसे ही कथा लेखन की बारीकियां सीखीं। शब्द चयन के बारे में वे कहते थे कि भागो नहीं , दौड़ो। इसका गूढ़ अर्थ यह कि भागते हम डर से हैं जबकि दौड़ते हम विजय के लिए हैं।

वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए कहानी का संपादन यानी चयन करते थे। मेरी कहानी थी -एक ही हमाम में। यह कहानी कार्यशाला में पढ़ी। उन्होंने शाम की सैर पर मुझे कहा कि कुछ तब्दीलियां कर लो तो इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में दे दूं। मैंने राजी सेठ से यह बात शेयर की। उन्होंने कहा कि इसलिए तब्दील मत करो कि यह साप्ताहिक हिंदुस्तान में आयेगी। यदि जरूरी हो तो चेंज करना। मैंने लालच छोड़ा और वह कहानी रमेश बतरा ने साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक मे प्रकाशित की और उतनी ही चर्चित रही। यानी चेंज लेखक सोच समझ कर करे।

इसके बाद मैंने लगातार विष्णु जी से सम्पर्क बनाये रखा। वे हर पत्र  का जवाब देते। अनेक पत्र घर में पुरानी फाइलों में मिलते रहे। बहुत समय बाद पता चला ये पत्र वे बोल कर मृदुला श्रीवास्तव और बाद में वीणा को लिखवाते थे। नीचे हस्ताक्षर करते थे। फिर वे लुधियाना आए। तब भी मुलाकात  हुई। जालंधर आए तब भी दो दिन मुलाकातें हुईं। फिर मैं दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक लगा तो उनकी इंटरव्यू प्रकाशित की -मैं खिलौनों से नहीं किताबों से खेलता था। इसके बाद मेरी ट्रांस्फर हिसार के रिपोर्टर के तौर पर हुई। यहां आकर विष्णु जी का हिसार कनैक्शन पता चला कि वे रेलवे स्टेशन के पास अपने मामा के पास ही पढ़े लिखे और उन्होंने ही उनकी पशुधन फाॅर्म में नौकरी लगवाई। वहीं लेखन में उतरे और नाटक मंचन में अभिनय भी करते रहे। बीस वर्ष यहीं गुजारे। शायद सारा जीवन हिसार में गुजारते लेकिन सीआईडी के इंस्पेक्टर ने कहा कि काका जी , क्रांति की अलख पंजाब के बाहर जगाओ। तब हिसार पंजाब का ही भाग था। इस तरह वे परिवार सहित दिल्ली कश्मीरी गेट बस गये और यह उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ। संभवतः हिसार में रह कर वे इतनी ऊंची उड़ान  न भर पाते। कहानी ही नहीं , नाटक और लघुकथा तक में उनका योगदान है। बहुचर्चित जीवनी आवारा मसीहा पर उन्हें जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने मकान बनाने में लगाया और उसी मकान पर कब्जा हुआ और वे प्रधानमंत्री तक गये और आखिरकार मकान मिला। वे इतने स्वाभिमानी थे कि प्रधानमंत्री के एक समारोह में जब उनके बेटे को साथ नहीं जाने दिया तब वे वापस आ गये। पता चलने पर प्रधानमंत्री ने चाय पर बुलाया। वे गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी किसी प्रकार की पेंशन लेने को तैयार न हुए।

आखिर दैनिक ट्रिब्यून की ओर से कथा कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार बांटने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया क्योंकि वे हिसार के हीरो थे। उन्हें पांवों में सूजन के कारण कार में ही दिल्ली से लाने की व्यवस्था करवाई और वे यहां चार दिन रहे। प्रतिदिन मैं उन्हें मामा जी के घर से लेकर आयोजनों में ले जाता। वे गुजवि के भव्य वी आई पी गेस्ट हाउस में नहीं रुके। उनका कहना था कि मुझे यह आदत नहीं और मैं अपने मामा के घर ही रहूंगा। यह सारी व्यवस्था संपादक विजय सहगल के सहयोग से करवाई। जब समारोह के बाद उन्हें सम्मान राशि दी तब वे आंखों में आंसू भर कर बोले -कमलेश। तेरे जैसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है।

बाद में उन्हें सपरिवार दिल्ली छोड़ने गया। मेरा दोहिता आर्यन मात्र एक डेढ़ वर्ष का था। उसे गोदी में खूब खिलाया। वह फोटो भी है मेरे पास।  लगातार लेखन में जुटे रहे और आज भी उनके बेटे अतुल  प्रभाकर के साथ सम्पर्क बराबर हैं। उन्होंने दो वर्ष पूर्व दिल्ली के समारोह में बुलाया और मुझसे कहानी पाठ के साथ विष्णु जी के संस्मरण सुनाने को कहा। इसी प्रकार रोहतक के एमडीयू के हिंदी विभाग के विष्णु स्मृति समारोह में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। बहुत कुछ है पर तुरंत जो ध्यान में आया लिख दिया। हिसार की चटर्जी लाइब्रेरी को उन्होंने 2100 पुस्तकें अर्पित कीं।  लाइब्रेरी में उनकी फोटो भी लगाई गयी है। हिसार के आमंत्रण पर उनका कहना था कि जब भी बुलाओगे तब नंगे पांव दौड़ा आऊंगा। आज बहुत याद आ रहे हैं विष्णु जी। हरियाणा सरकार ने जिला पुस्तकालय को विष्णु प्रभाकर जी के नाम से जोड़ा  तब भी राज्यपाल आए और विष्णु जी का पूरा परिवार भी आया। बहुत सी छोटी छोटी यादें उमड़ रही हैं। वे हमारे दिल में सदैव रहेंगे। मेरी चर्चित पुस्तक यादों की धरोहर में सबसे पहले इंटरव्यू विष्णु प्रभाकर जी का ही है जो उसी कथा कहानी प्रतियोगिता के समारोह के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून में विशेष रूप से प्रकाशित किया गया था। यह इंटरव्यू विशेष रूप से दिल्ली जाकर किया था और वे उस शाम बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने इंटरव्यू के बाद अपना उपन्यास अर्द्धनारीश्वर मुझे भेंट किया था। एक ऐसा उपहार जिसे मैं भूल नहीं सकता।  इस पुस्तक के दो संस्करण पाठकों के हाथों में बहुत कम समय में पहुंचे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे  – कनाडा यात्रा वृतांत

देश कनाडा में सभी, सभ्य सुसंस्कृत लोग ।

सद्गुण से परिपूर्ण हैं, करें सभी सहयोग।।

 

हाय हलो करते सभी, जो भी मिलता राह।

अधरों में मुस्कान ले, मन में दिखती चाह।।

 

कर्मनिष्ठ व्यवहार से, अनुशासित सब लोग।

नियम और कानून सँग, परिपालन का योग।।

 

झाँकी पर्यावरण की, मिलकर समझा देख।

संरक्षित कैसे करें, समझी श्रम की रेख।।

 

फूलों की बिखरी छटा, गुलदस्तों में फूल।

घर बाहर पौधे लगे, पहने खड़े  दुकूल।।

 

हरियाली बिखरी पड़ी, कहीं न उड़ती धूल।

दिखी प्रकृति उपहार में, मौसम के अनुकूल।।

 

मखमल सी दूबा बिछी, हरित क्रांति चहुँ ओर।

शीतल गंध बिखेरती, नित होती शुभ भोर।।

 

प्राण वायु बहती सदा, बड़ा अनोखा देश।

जल वृक्षों की संपदा, आच्छादित परिवेश।।

 

प्रबंधन में सब निपुण, जनता सँग सरकार।

आपस में सहयोग से, आया बड़ा निखार।।

 

साफ स्वच्छ सड़कें यहाँ, दिखते दिल के साफ।

भूल-चूक यदि हो गई, कर देते सब माफ।।

 

तोड़ा यदि कानून जब, जाना होगा जेल।

कहीं नहीं फरियाद तब, कहीं न मिलती बेल।।

 

शासन के अनुकूल घर, रखते हैं सब लोग।

फूलों की क्यारी लगा, फल सब्जी उपभोग।।

 

रखें प्रकृति से निकटता,जागरूक सब लोग।

बाग-बगीचे पार्क का, करें सभी उपयोग।।

 

सड़कें अरु फुटपाथ में, नियम कायदा जोर।

दुर्घटना से सब बचें, शासन का यह शोर।।

 

भव्य-दुकानों में यहाँ, मिलता सभी समान।

ग्राहक अपनी चाह का,रखता है बस ध्यान।।

 

दिखे शराफत है यहाँ, हर दिल में ईमान ।

ग्राहक खुद बिल को बना, कर देते भुगतान।।

 

वाहन में पैट्रोल सब, भरते अपने हाथ।

नहीं कर्मचारी दिखें, चुक जाता बिल साथ।।

 

बाहर पड़ा समान पर, नजर न आए चोर।

लूट-पाट, हिंसा नहीं, राम राज्य की भोर ।।

 

फूलों सा सुंदर लगा, बर्फीला परिवेश।

न्याग्रा वाटर फाल से, बहुचर्चित यह देश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ??

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 165 ☆ कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 165 ☆

? कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ?

कभी देखा है आपने किसी पेड़ को मरते हुये ?

देखा तो होगा शायद

पेड़ की हत्या, पेड़ कटते हुये

 

हमारी पीढ़ी ने देखा है एक

पुराने, कसैले हो चले

किंवाच और बबूल में तब्दील होते

कड़वे बहुत कड़वे नीम के ठूंठ को

ढ़हते हुये

 

हमारे मंदिर और मस्जिद

को देने के लिये

फूल, सुगंध और साया

रोपना है आज हमें

एक हरा पौधा

जो एक साथ ही हो

मीठी नीम, सुगंधित गुलाब और बरगद सा

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 127 – लघुकथा – संस्कारों की बुवाई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है नवीन पीढ़ी में संस्कारों के अंकुरण हेतु विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “संस्कारों की बुवाई…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – संस्कारों की बुवाई 

सत्य प्रकाश और उसकी पत्नी धीरा बहुत ही संस्कारवान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक ही बेटा है तनय वह भी बाहर पढ़ते हुए अपनी पसंद से शादी कर सुखद जीवन बिता रहे थे।

गाँव में सत्य प्रकाश को बहुत चाहते थे क्योंकि उनकी बातें व्यर्थ नहीं होती थी और न ही कभी असत्य का साथ देते थे।

वर्क फ्रॉम होम होने के कारण बेटा बहू अपने पाँच साल के बेटे यश को लेकर घर आए। दादा – दादी के प्यार से यश बहुत खुश हुआ। दिन भर धमाचौकड़ी मचाने वाला बच्चा दादा जी के साथ सुबह से उठकर उनसे अच्छी बातें सुनता, पूजा-पाठ में भी बड़े लगन के साथ रहता और जिज्ञासा वश  दिनभर दादा – दादी से प्रश्न करता रहता।

समय बीतता जा रहा था। उनका भी मन लग गया। बेटा बहु देरी से सो कर उठते थे। आज तनय जल्दी सो कर उठा। तो देखा कि दादा दादी और पोता मिलकर भगवान की आरती कर रहे हैं और बराबरी से मंत्र का उच्चारण उनके साथ उसका बेटा यश भी कर रहा है।

तनय आश्चर्य से देखने लगा बहुत अच्छा सा महसूस किया।

अपने पापा को आरती देकर यश चरण स्पर्श करता है तो तनय  खुशी से झूम उठता है।

और अपने पिताजी की ओर देखने लगता है। सत्य प्रकाश जी कहने लगे… बेटा मैंने संस्कारों की बुवाई कर दिया है। इसे किस तरह बढ़ाना है तैयार करना है यह तुम्हारे ऊपर है।

और हाँ इसका फायदा भी तुम्हें ही मिलेगा।

बरसों बाद आज माँ पिता के चरण स्पर्श कर तनय गले से लग गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “रद्दी वाला।)

☆ आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रद्दी शब्द उर्दू भाषा से है, परंतु हमारी रोजमर्रा के बोलचाल में बहुतायत से उपयोग होता हैं। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने के बाद अनुपयोगी हो जाते हैं। इन सबको रद्दी वाले को विक्रय कर दिया जाता हैं। आज की युवा पीढ़ी समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर मोबाईल से ही पूरी जानकारी ले लेती हैं। वैसे हमारे मोबाईल पर भी बहुत रद्दी एकत्र हो जाती हैं। उसको साफ़ करने में भी काफ़ी समय देना पड़ता हैं।

वर्षों पूर्व ये लोग पैदल घूम घूम कर आवाज़ लगाते थे “रद्दी वाला” बाद में साइकिल या ठेले पर घर का अनुपयोगी समान खरीद कर ये ही लोग ले जाते हैं।

ये लोग पहले आधा किलो के बांट से तौल कर ले जाते थे, अब भी एक किलो के बांट का प्रयोग करते हैं। हाथ ठेले/रिक्शे पर चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी लेकर चलते हैं। मुंबई प्रवास के समय रद्दी वालों की दुकानें भी देखने को मिली। आप उनको फोन कर बुला सकते है वो घर से रद्दी ले जाते हैं।

घर में पड़े कबाड़ और टूटे फूटे सामान को लेकर वो हमारे घर को स्वच्छ रखने में भी सहयोग कर रहे हैं। अब तो वास्तु शास्त्री भी घर में कबाड़ रखने से मना करते हैं। वर्तमान में पेपर को रिसाइकल किया जाता है, जिसमें इन सबका बड़ा योगदान हैं।

हम में से अधिकतर इनको हेय दृष्टि से देखते है, और वो सम्मान नहीं देते जिसके वो हकदार हैं। हमे हमेशा ये लगता है, कि वो लोग कम तोलते और बेईमानी करते हैं। उनकी आर्थिक दृष्टि को देखते हुए नहीं लगता की वो इस व्यापार से कोई बहुत अधिक धनार्जन करते हैं। शायद हमारा नजरिया गलत हो सकता हैं। रद्दी वाले को अपनी रद्दी नज़र से ना देखकर एक सहयोगी के रूप में देखना ही उचित होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उर्दू के प्रख्यात शायर- अल्लामा इकबाल ने कहा है-

है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज़

अहले नजर समझते हैं इनको इमामे हिन्द॥

भारत में अनेकों मुस्लिम, विद्वान, रामचरितमानस के अप्रतिम स्नेही भक्त और प्रवचनकार हैं जो इस ग्रंथ की एक-एक चौपाई की विशद व्याख्या करते हैं क्योंकि इस गं्रथ में कथानक और भाव की अप्रतिम माधुरी है।

अनेकों दोहे और चौपाइयां लोकोक्तियों और सूक्तियों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे-

पराधीन सपनेहु सुख नाही।

हित अनहित पशुपक्षिहु जाना।

जो जस करई सो तस फल चाखा।

नहि असत्य सम पातक पुंजा।

जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपति निदाना।

आज के भौतिकवादी सोच ने आपसी व्यवहारों में धन के महत्व को बढ़ा दिया है तथा आत्मिक व आध्यात्मिक प्रेम को हृदय से दूर कर रखा है। जहाँ प्रेम है वहां आनन्द है और जहां प्रेम नहीं है वहां अशांति और दुख है। पति-पत्नी में सच्चा प्रेम यदि है तो दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को बिना कहे भी पढ़ लेते हैं। भारतीय दाम्पत्य का यह ही मधुर अनुभव है। गंगा तट पर गंगा पार जब राम सीता लक्ष्मण उस तट पर पहुंचे तब निषाद (केवट) को उतराई देने के लिए राम के पास कुछ नहीं था। उनके मन की इस व्याकुलता को उनकी पत्नी सीता जी ने तुरंत ही समझ लिया और उन्होंने उतराई देने अपनी अंगुली से मणिमुद्रिका उतार कर आगे कर दी। मानसकार ने स्नेह की इस अनुभूति को किस सुंदरता से लिखा है-

प्रियहिय की सिय जाननहारी, मणिमुंदरी मनमुदित उतारी।

जहां प्रेम होता है वहां प्रिय के हृदय की बात प्रेमी को दूर से भी समझ में आ जाती है। यही प्रेम का अलौकिक आनंद है कि दो हृदयों को बिना वाणी के भी सबकुछ समझ में आ जाता है। इसलिये प्रेम को पावन कहा है। प्रेम इससे ही भगवान है।

तुलसीदास जी को समन्वयवादी कहा गया है। उन्होंने समन्वयवाद अर्थात् प्रेम की भावना को प्रतिष्ठित किया है। छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक, सम्पन्न-निर्धन, भक्ति-ज्ञान, शैव-वैष्णव, सुख-दुख में सबके बीच समन्वय स्थापित कर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। मन, वचन और कर्म के समन्वय से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व उठता है और जीवन में शांति और सुख प्राप्त होता है। व्यक्ति में देवत्व आता है।

प्रेम से आत्मा का परिष्कार होता है। मन का मैल धुल जाता है। गंगाजी के जल से जैसा शरीर निर्मल हो जाता है। पवित्रता प्राप्त होती है। वैसे ही प्रेम के प्रवाह में मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में सरलता होती है। कटुता दूर हो जाती है। व्यक्ति के प्रति प्रेम हो या ईश्वर की भक्ति निर्मल मन का बड़ा महत्व है। बिना निर्मल मन के मनुष्य को न तो जीवन में अन्य सहयात्रियों के प्रति भाव जागता है न ईश्वर की भक्ति में ही मन लगता है। प्रेम से ही भक्ति होती है। प्रेम से ही परमार्थ होता है। तुलसीदास जी ने कहा है-

परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

प्रेम निर्मल मन का सहज धर्म है। उसी से समाज में परोपकार और अध्यात्म भाव में ईश्वरोपासना व भक्ति संभव है। अत: मेरी समझ में मानस का रेखांकित शाश्वत सत्य यही प्रेम है, जिसका मानस में हर प्रसंग में किसी न किसी रूप से वर्णन आया है।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २१ जून – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २१ जून -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

द्वारकानाथ माधव पितळे म्हणजेच नाथमाधव  (एप्रिल १८८२ – २१ जून १९२८)

नाथमाधव  यांना अवघे ४६ वर्षांचे आयुष्य लाभले. यातला बराचसा काळ त्यांनी शिवाजीवरील संशोधनात घालवला. स्त्री शिक्षण आणि पुनर्विवाहाचे ते पुरस्कर्ते होते. 

त्यांचे शिक्षण मुंबईत झाले. कुलाब्याला ते तोफांचे गाडे बनवण्याच्या कारखान्यात नोकरीला लागले।. शिकारीची त्यांना आवड होती. एकदा सिंहगड परिसरात ते शिकारीला गेले होते. त्यावेळी टेहळणी करताना ते कड्यावरून खाली कोसळलले. या अपघातामुळे त्यांचा कमरेखालचा भाग लुळा पडला. रुग्णालयात वैद्यकीय उपचार घेत असताना, त्यांना वाचनाची गोडी लागली. त्यांनी अनेक मराठी, इंग्रजी ग्रंथ या काळात वाचून काढले. यातून पुढे त्यांना लिहिण्याची प्रेरणा मिळाली.

त्यांची पहिली कादंबरी ’प्रेमवेडा’ १९०८ साली प्रकाशित झाली. त्यांच्या ‘डॉक्टर’ या कादंबरीवरून ‘शिकलेली बायको’ हा चित्रपट तयार करण्यात आला. त्याकाळी हा चित्रपट खूप गाजला. या कादंबरीचे ३ भाग आहेत.

नाथमाधव यांच्या २३-२४ कादंबर्‍या आहेत.  त्यापैकी स्वराज्याचा श्रीगणेशा, स्वराज्याची स्थापना, सावळ्या तांडेल, वीरधावल, रॉयक्लब अथवा सोनेरी टोळी, मालती माधव, देशमुखवाडी इ. कादंबर्‍या विशेष गाजल्या.

नाथमाधव यांचा आज स्मृतीदिन. त्यांच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ त्यांना आदरांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचना/Information ☆ ई-अभिव्यक्ती मराठी च्या वाचकांना नम्र निवेदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ ई-अभिव्यक्ती मराठी च्या वाचकांना नम्र निवेदन 

आपण वाचलेल्या साहित्याविषयी आपली प्रतिक्रिया व्यक्त करावी. तसेच आवडलेले साहित्य आपल्या वाचनप्रेमी मित्रपरिवाराला पाठवावे . आपला वाचक वर्ग वाढवावा व त्यांनाही वाचनाचा आनंद घेऊ द्यावा.

       संपादक मंडळ

 ई-अभिव्यक्ती मराठी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मनपाखरा…..! ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मनपाखरा…..! ☆ श्रीशैल चौगुले ☆ 

मनपाखरा रे मनपाखरा

झेप गगनी यशाचे घे जरा.

                                 

संकटांत पंखा ठेव खंबीर

दुःख जाणीवा सुखाचे या घरा

मनपाखरा रे मनपाखरा.

 

ऊंच-ऊंच ध्येया पार करिशी

हिम्मत ना सोडी तुझ्या भरारा.

मनपाखरा रे मनपाखरा.

 

मनानेच जिंकीले हे भूलोक

स्वप्न वारुळ मुंगीचे निर्धारा

मनपाखरा रे मनपाखरा.

 

मागे न फिरशी विहार पूर्ण

अलौकिक जीवनी सार्थ फेरा.

मनपाखरा रे मनपाखरा.

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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