मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उर्दू के प्रख्यात शायर- अल्लामा इकबाल ने कहा है-

है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज़

अहले नजर समझते हैं इनको इमामे हिन्द॥

भारत में अनेकों मुस्लिम, विद्वान, रामचरितमानस के अप्रतिम स्नेही भक्त और प्रवचनकार हैं जो इस ग्रंथ की एक-एक चौपाई की विशद व्याख्या करते हैं क्योंकि इस गं्रथ में कथानक और भाव की अप्रतिम माधुरी है।

अनेकों दोहे और चौपाइयां लोकोक्तियों और सूक्तियों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे-

पराधीन सपनेहु सुख नाही।

हित अनहित पशुपक्षिहु जाना।

जो जस करई सो तस फल चाखा।

नहि असत्य सम पातक पुंजा।

जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपति निदाना।

आज के भौतिकवादी सोच ने आपसी व्यवहारों में धन के महत्व को बढ़ा दिया है तथा आत्मिक व आध्यात्मिक प्रेम को हृदय से दूर कर रखा है। जहाँ प्रेम है वहां आनन्द है और जहां प्रेम नहीं है वहां अशांति और दुख है। पति-पत्नी में सच्चा प्रेम यदि है तो दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को बिना कहे भी पढ़ लेते हैं। भारतीय दाम्पत्य का यह ही मधुर अनुभव है। गंगा तट पर गंगा पार जब राम सीता लक्ष्मण उस तट पर पहुंचे तब निषाद (केवट) को उतराई देने के लिए राम के पास कुछ नहीं था। उनके मन की इस व्याकुलता को उनकी पत्नी सीता जी ने तुरंत ही समझ लिया और उन्होंने उतराई देने अपनी अंगुली से मणिमुद्रिका उतार कर आगे कर दी। मानसकार ने स्नेह की इस अनुभूति को किस सुंदरता से लिखा है-

प्रियहिय की सिय जाननहारी, मणिमुंदरी मनमुदित उतारी।

जहां प्रेम होता है वहां प्रिय के हृदय की बात प्रेमी को दूर से भी समझ में आ जाती है। यही प्रेम का अलौकिक आनंद है कि दो हृदयों को बिना वाणी के भी सबकुछ समझ में आ जाता है। इसलिये प्रेम को पावन कहा है। प्रेम इससे ही भगवान है।

तुलसीदास जी को समन्वयवादी कहा गया है। उन्होंने समन्वयवाद अर्थात् प्रेम की भावना को प्रतिष्ठित किया है। छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक, सम्पन्न-निर्धन, भक्ति-ज्ञान, शैव-वैष्णव, सुख-दुख में सबके बीच समन्वय स्थापित कर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। मन, वचन और कर्म के समन्वय से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व उठता है और जीवन में शांति और सुख प्राप्त होता है। व्यक्ति में देवत्व आता है।

प्रेम से आत्मा का परिष्कार होता है। मन का मैल धुल जाता है। गंगाजी के जल से जैसा शरीर निर्मल हो जाता है। पवित्रता प्राप्त होती है। वैसे ही प्रेम के प्रवाह में मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में सरलता होती है। कटुता दूर हो जाती है। व्यक्ति के प्रति प्रेम हो या ईश्वर की भक्ति निर्मल मन का बड़ा महत्व है। बिना निर्मल मन के मनुष्य को न तो जीवन में अन्य सहयात्रियों के प्रति भाव जागता है न ईश्वर की भक्ति में ही मन लगता है। प्रेम से ही भक्ति होती है। प्रेम से ही परमार्थ होता है। तुलसीदास जी ने कहा है-

परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

प्रेम निर्मल मन का सहज धर्म है। उसी से समाज में परोपकार और अध्यात्म भाव में ईश्वरोपासना व भक्ति संभव है। अत: मेरी समझ में मानस का रेखांकित शाश्वत सत्य यही प्रेम है, जिसका मानस में हर प्रसंग में किसी न किसी रूप से वर्णन आया है।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments