(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री सुधा कुमारी जी की पुस्तक “रुपये का भ्रमण पैकेज” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆
☆ “रुपये का भ्रमण पैकेज” … सुश्री सुधा कुमारी जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
रुपये का भ्रमण पैकेज
लेखिका.. सुधा कुमारी
पृष्ठ १७२,सजिल्द मूल्य ३५० रु
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
बीरबल या तेनालीराम जैसे ज्ञानी सत्ता में राजा के सर्वाधिक निकट रहते हुये भी राजा की गलतियों को अपनी बुद्धिमानी से इंगित करने के दुस्साहसी प्रयास करते रहे हैं. इस प्रयोजन के लिये उन्होने जिस विधा को अपना अस्त्र बनाया वह व्यंग्य संमिश्रित हास्य ही था. दरअसल अमिधा की सीधी मार की अपेक्षा हास्य व्यंग्य में कही गई लाक्षणिक बात को इशारों में समझकर सुधार का पर्याप्त अवसर होता है, और यदि सच को देखकर भी तमाम बेशर्मी से अनदेखा ही करना हो तो भी राजा को बच निकलने के लिये बीरबलों या तेनालीरामों की विदूषक छबि के चलते उनकी कही बात को इग्नोर करने का रास्ता रहता ही है. लोकतंत्र ने राजनेताओ को असाधारण अधिकार प्रदान किये हैं, किन्तु अधिकांश राजनेता उन्हें पाकर निरंकुश स्वार्थी व्यवहार करते दिख रहे हैं. यही कारण है कि हास्य व्यंग्य आज अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है. सुधाकुमारी जी जैसे जो बीरबल या तेनालीराम अपने परिवेश में देखते हैं कि राज अन्याय हो रहा है, वे चुपचाप व्यंग्य लेख के जरिये आईना दिखाने का अपना काम करते दिखते हैं. ये और बात है कि अधिकांशतः उनकी ये चिंता अखबारों के संपादकीय पन्नो पर किसी कालम में कैद या किसी पुस्तक के पन्नो में फड़फड़ाती रह जाती है. बेशर्म राजा और समाज उसे हंसकर टालने में निपुण होता जा रहा है. किन्तु इससे आज के इन कबीरों के हौसले कम नहीं होते वे परसाई,शरद, त्यागी और श्रीलाल शुक्ल के मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं, सुधा कुमारी जी भी उसी बढ़ते कारवां में रुपये का भ्रमण पैकेज लेकर आज चर्चा में हैं.
“स्थानांतरण का ईश्वरीय आदेश” में वे सरकारी कर्मचारियों की ट्रांसफर नीतीयो पर पठनीय कटाक्ष करती हैं, उन्होने स्वयं भी खूब पढ़ा गुना है तभी तो व्यंग्य में यथा स्थान काव्य पंक्तियो का प्रयोग कर रोचक प्रवाही शैली में लिख सकी हैं. इसी शैली का एक और सार्थक व्यंग्य ” बेचारा” भी किताब में है. “ओम पत्रकाराय नमः” में वे लिखती हैं ” आप ही देश चलाते हो, प्रशासन की खिंचाईकरते हो, कानून भी आपके न्यूजरूम में बन सकते हैं और न्याय भी आप खुद करते हो, खुद ही अभियोजन करते हो खुद ही फैसला सुनाते हो “… हममें से जिनने भी शाम की टी वी बहस सुनी हैं, वे सब इस व्यंग्य के मजे ले सकते हैं. ” अथ ड्युटी पार्लर कथा, बासमैनेजमेंट इंस्टीट्यूत, असेसमेंट आर्डर की आत्मकथा, सूचना अधिकार…अलादीन का चिराग, मखान सर शिक्षण संस्थान इत्यादि उनके कार्यालाय के इर्द गिर्द से उनके वैचारिक अंतर्द्वंद जनित रचनायें हैं, जिन्हें लिखकर उन्होने आत्म संतोष अनुभव किया होगा. कुछ रचनायें कोरोना की वैश्विक त्रासदी की विसंगतियों से उपजी हैं. और प्रजातंत्र की उलटबासियां, चुनावी दंगल, प्रजातांत्रिक पंचतंत्र,, नेताजी पर लेख जैसी रचनायें अखबार या टीवी पढ़ते देखते हुये उपजी हैं. चुंकि सुढ़ाकुमारी जी का संस्कृत तथा अंग्रेजी साहित्य का गहन अध्ययन है अतः उनके बिम्ब और रूपक मेघदूत, यक्षिणी, पीटर पैन, सोलोमन का न्याय के गिर्द भी बनते हैं. “चिंतन के लिये चारा” पुस्तक का सबसे छोटा व्यंग्य लेख है, पर मारक है…एक मरियल देसी गाय और एक बिहार की जर्सी गाय का परस्पर संवाद पढ़िये, इशारे सहज समझ जायेंगे… ” उन्हें विशेष प्रकार का चारा खिलाया गया , जो सामान्य आंखों से नही दिखता था, वह सिर्फ बिल और व्हाउचर में दिखाई देता था….
किताब के शीर्षक व्यंग्य रुपये का भ्रमण पैकेज से उधृत करता हूं… कुछ लोगों को रुपया हाथ का मैल लगता है पर अधिकतर को पिता और भाई से भी बड़ा रुपैया लगता है….. एडवांस्ड्ड मिड कैरियर ट्रैवल प्रोग्राम, प्रायः सरकारी अफसरो की तफरी के प्रयोजन बनते हैं उस पर तीक्ष्ण प्रहार किया है सुधा जी ने. “रिची रिच टू मैंगो रिपब्लिक” रुपये के देशी भ्रमण पैकेज के जरिये वे सरकारी अनुदान योजनाओ पर प्रहार करती हैं., उन्होंने तीसरा पैकेज ठग्स एंड क्रुक्स कम्पनी डाट काम के नाम पर परिकल्पित किया है.
कुल मिलाकर सुधा जी की लेखनी से निसृत व्यंग्य लेख उनकी परिपक्व वैचारिक अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं. व्यंग्य जगत को उनसे निरंतरता की उम्मीद है. मेरी कामना है कि उनका अनुभव केनवास और भी व्यापक हो तथा वे कुछ शाश्वत लिखें. यह किताब बढ़िया है, खरीदकर पढ़ना और पढ़ने में समय लगाना घाटे का सौदा नही लगेगा, इसकी गारंटी दे सकता हूं.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “ठहरी बिदाई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 ☆
☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई…☆
सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।
बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।
बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।
द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।
सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।
धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!
पत्नी ने धीरे से कहीं – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”
सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।
विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”
भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”
परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।
सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।
अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”
यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है आलेख – “पड़ोस और विवाह”।)
☆ आलेख ☆ पड़ोस और विवाह☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे विचार से ये दोनों पर्यावाची हैं।विवाह जैसे पवित्र बंधन के लिए भी कहा जाता है, जिसका हुआ वो भी पछताए और जिसका नहीं हुआ वो भी पछताए। वैसा ही हमारा पड़ोस जिनके पड़ोसी है, वो भी परेशान रहते हैं और जिनके पड़ोस में अभी प्लॉट खाली है, वो भी परेशान ही रहते हैं। सीमेंट और पेंट बनाने वाली कंपनियां भी अपने विज्ञापनों के माध्यम से पड़ोसी स्पर्धा का चित्रण करने में माहिर होते हैं। आखिर उनको भी तो अपनी रोज़ी रोटी चलानी हैं।
ये पड़ोसी, सभी देशों के साथ भी होते ही हैं। हमारे देश के भी बहुत सारे पड़ोसी देश हैं, जहां तक संबंध की बात है, अधिकतर देशों से कभी नरम और कभी गर्म ही रहते है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे घर के पड़ोसियों से रहते हैं। हमारे देश के दो पड़ोसी तो शत्रु देश भी कहलाते हैं। स्वतंत्र होने के समय अलग हुए पाकिस्तान में विगत कुछ दिनों से राजनैतिक विवाद भी चल रहा हैं। हमारा मीडिया भी दुनिया और देश की सब बातें भूल कर पाकिस्तान पर ही लगातार रात दिन चर्चा करते हुए थक भी नहीं रहा।
पाकिस्तान में रामलाल या श्यामलाल कोई भी प्रधानमंत्री बने, हम साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति का क्या वास्ता हैं? लेकिन नहीं मीडिया तो आप को इतिहास के गड़े मुर्दे और भविष्य के हसीन सपने परोसने में एड़ी चोटी एक कर देता हैं। इसी बहाने कुछ रिटायर्ड फौजी अधिकारी और विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हस्तियों के विचारों से भी अवगत हो जाते हैं।
इसी को भेड़ चाल भी कहते हैं, सभी चैनल सब कुछ भूल कर सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान के भूतकाल और भविष्य की कहानियां बुन रहे हैं। ऐसा लग रहा है की पड़ोसी के यहां आग लगी हुई है और हम उस पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं।
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ३ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
राम शेवाळकर
राम बाळकृष्ण शेवाळकर (2 मार्च 1931 – 3 मे 2009) हे लेखक,वक्ते,समीक्षक होते.
त्यांनी मराठी व संस्कृत साहित्यात एम. ए. केले. त्यांनी काही वर्षे कॉलेजात संस्कृत शिकवले.25 वर्षांपेक्षा जास्त काळ ते वणी येथील कॉलेजचे प्राचार्य होते.
शेवाळकरांनी ‘असोशी’, ‘निवडक मराठी आत्मकथा’, ‘अंगारा’ वगैरे 59 पुस्तके, समीक्षणे लिहिली.
रामायण, महाभारत या विषयांसाठी त्यांना शिष्यवृत्ती मिळाली. ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास इत्यादी संत, तसेच वि. दा. सावरकर, विनोबा भावे यांच्यावरही त्यांनी अभ्यासपूर्ण लेखन केलं आहे.
1980 मध्ये हृदयनाथ मंगेशकरांनी ‘अमृताचा घनू ‘ हा ज्ञानेश्वरांच्या रचनांवरील सांगितीक कार्यक्रम करायला सुरुवात केली. त्यात शेवाळकर ज्ञानेश्वरांच्या रचनांवर विद्वत्तापूर्ण विवेचन करत असत. रसिकांनी त्यांना चांगलीच दाद दिली.
शेवाळकर महाराष्ट्र राज्य फिल्म सेन्सर बोर्डचे 11 वर्षे सदस्य होते.
1994मध्ये पणजीला भरलेल्या मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.
नागपूर विद्यापीठाने त्यांना मानद डी. लिट. प्रदान केले.
त्यांना दीनानाथ मंगेशकर, कुसुमाग्रज पुरस्कार, नाग भूषण पुरस्कार, विदर्भ साहित्य संघाचा जीवनव्रती पुरस्कार इत्यादी पुरस्कार मिळाले.
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वि. द. घाटे
विठ्ठल दत्तात्रेय घाटे (18 जानेवारी 1895 – 3 मे 1978) हे शिक्षणतज्ज्ञ, लेखक व कवी होते. कवी दत्त यांचे ते ज्येष्ठ पुत्र.
वि. द. घाटे यांनी इतिहासलेखन, काव्य, नाट्यलेखन, कवितालेखन, आत्मचरित्र आदी अनेक ललित लेखनप्रकार हाताळले.
त्यांची ‘दिवस असे होते’ (आत्मचरित्र), ‘दत्तांची कविता’, ‘काही म्हातारे व एक म्हातारी ‘(व्यक्तिचित्रण), ‘नाट्यरूप महाराष्ट्र'(इतिहास), ‘नाना देशातील नाना लोक’, ‘पांढरे केस हिरवी मने’, ‘यशवंतराव होळकर’ इत्यादी पुस्तके प्रसिद्ध आहेत.
आचार्य अत्रे यांच्याबरोबर त्यांनी संपादित केलेली ‘नवयुग वाचनमाला’ महाराष्ट्रात शालेय पाठ्यपुस्तके म्हणून नावाजली गेली.
1953 साली अहमदाबादला झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.
अनंत देशमुख यांनी वि. द. घाटे यांचे चरित्र लिहिले.
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हमीद दलवाई
हमीद उमर दलवाई (29 सप्टेंबर 1932 – 3 मे 1977) हे समाजसुधारक व मराठी साहित्यिक होते.
महात्मा फुले यांच्या प्रभावामुळे त्यांनी मुस्लिम सत्यशोधक मंडळाची स्थापना केली.
तोंडी तलाक, बहुपत्नीत्व इत्यादीमुळे मुस्लिम स्त्रियांची होणारी घुसमट सरकारसमोर आणावी म्हणून 1966मध्ये 7मुस्लिम महिलांना घेऊन त्यांनी मुंबईतील कौन्सिल हॉलवर मोर्चा काढला.
महंमद पैगंबरांचे जीवन, कुराण – हदीस याबद्दल मोकळी, सविस्तर चर्चा होऊन त्या समाजातील साचलेपणा दूर व्हावा, आचारविचारात उदारता यावी यासाठी त्यांनी आपले आयुष्य वेचले. धर्मनिरपेक्षता व लोकशाही ही दोन मूल्ये त्यांच्या विचारांच्या केंद्रस्थानी होती.
परंपरावादाला नकार आणि ऐहिकतेचा स्वीकार यांचा पुरस्कार करणाऱ्या या मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडियात त्यांना मानाचे स्थान आहे.
‘इस्लामचे भारतीय चित्र’, ‘ राष्ट्रीय एकात्मता आणि भारतीय मुसलमान’, त्याचप्रमाणे ‘इंधन'(कादंबरी), ‘लाट'(कथासंग्रह) इत्यादी पुस्तके त्यांनी लिहिली.
प्रा. शमसुद्दीन तांबोळी यांनी ‘हमीद दलवाई : क्रांतिकारी विचारवंत ‘हे त्यांचे चरित्र लिहिले आहे.
‘हमीद : द अनसंग ह्युमॅनिस्ट’ हा लघुपट हमीद दलवाई यांच्या विविध पैलूंवर प्रकाश टाकतो.
अमेरिकेतील महाराष्ट्र फाउंडेशनने जानेवारी 2017मध्ये त्यांना मरणोत्तर जीवनगौरव पुरस्कार प्रदान केला.
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जगदीश खेबुडकर
जगदीश खेबुडकर( 10 मे 1932 – 3 मे 2011)हे मराठी गीतकार व साहित्यिक होते.
खेबुडकर हे पेशाने शिक्षक होते.
वयाच्या सोळाव्या वर्षी त्यांनी ‘मानवते, तू विधवा झालीस ‘ हे पहिले दीर्घकाव्य लिहिले. महात्मा गांधींच्या खुनानंतर खेबुडकरांचे घर जाळले गेले. त्या घराच्या राखेचा ढिगारा पाहून त्यांना हे काव्य सुचले.
लोकसंगीत, पोवाडा, अभंग, ओवी असे विविध काव्यप्रकार त्यांनी हाताळले.
संत एकनाथ, भा. रा. तांबे, कुसुमाग्रज, बा. भ. बोरकर, बा.सी. मर्ढेकर यांचा खेबूडकरांवर प्रभाव होता. साधेसोपे परंतु अर्थगर्भ व नादमयी शब्द हे त्यांच्या गीतांचे वैशिष्ट्य होते.
आपल्या कारकिर्दीत त्यांनी 3500 कविता आणि 2500हून अधिक गीते लिहिली.त्यांनी सुमारे 325 चित्रपटांसाठी गीते लिहिली.25 पटकथा -संवाद,50 लघुकथा,5 नाटके,4 दूरदर्शन मालिका,4 टेलिफिल्म्स, 5 मालिका गीते इत्यादी साहित्यसंपदा त्यांनी निर्माण केली.
त्यांची सांगीतिक कारकीर्द पाच दशकांएवढी मोठी होती. ग. दि. माडगूळकरांनंतर इतका मोठा गीतकार झाला नाही.त्यांच्या कारकिर्दीत त्यांनी 36 दिग्दर्शक,44संगीतकार,34 गायकांसमवेत काम केले.
1974 साली त्यांनी स्थापना केलेल्या ‘स्वरमंडळ’ या नाट्यसंस्थेतर्फे ‘रामदर्शन’ हा रामायणावरील वेगळा प्रयोग सादर केला. त्यानंतर त्यांनी 1980मध्ये ‘रंगतरंग’ व 1982मध्ये ‘रसिक कला केंद्रा’ची स्थापना केली. ‘रंगतरंग’तर्फे सादर केलेल्या ‘गावरान मेवा’चे 2000पेक्षा जास्त प्रयोग झाले.1986 मध्ये त्यांनी नाट्यकलेच्या सेवेसाठी ‘नाट्यछंद’ व ‘अभंग थिएटर्स’ची स्थापना केली.
खेबुडकरांना 60हून अधिक पुरस्कारांनी सन्मानित करण्यात आले होते. त्यांत 11वेळा राज्य शासनातर्फे मिळालेला पुरस्कार, गदिमा पुरस्कार, फाय फाउंडेशन पुरस्कार,3 जीवनगौरव पुरस्कार इत्यादीचा समावेश आहे.
राम शेवाळकर, वि. द. घाटे, हमीद दलवाई, जगदीश खेबुडकर यांच्या स्मृतिदिनी त्यांना आदरांजली.
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सौ. गौरी गाडेकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकीपीडिया.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ जागतिक वृत्तपत्र स्वातंत्र्यदिनानिमित्त लेख – वृत्तपत्र स्वातंत्र्य … ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆
भारतीय लोकशाही ही जगातील सर्वात मोठी लोकशाही आहे. भारतीय संविधान हे एक श्रेष्ठ संविधान आहे. या संविधानानुसार प्रत्येक भारतीय नागरिकाला आचार, विचार, संचार यांचे स्वातंत्र्य, व्यक्तिस्वातंत्र्य, लेखन स्वातंत्र्य, धार्मिक स्वातंत्र्य, अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य,भाषा स्वातंत्र्य वगैरे वेगवेगळ्या प्रकारची स्वातंत्र्ये मिळाली आहेत. तो आता प्रत्येकाचा हक्क झाला आहे.
त्यात लेखन स्वातंत्र्यामध्ये वृत्तपत्रातील लेखन हा महत्त्वाचा मुद्दा ठरतो. कारण देशातील सर्वच भागात वृत्तसेवा सुरू आहे. सगळीकडे वृत्तपत्रे प्रकाशित होतात. ती देशात तळागाळातील लोकांपर्यंत पोहोचतात. त्यामुळे त्या त्या वृत्तपत्रातील विचारही तिथे पोहोचतात. वृत्तपत्रे हा भारतीय लोकशाहीचा चौथा स्तंभ मानला जातो. त्यासाठी वृत्तपत्रात लेखन करण्याचे पूर्ण स्वातंत्र्य आवश्यक आहे.
पण हे स्वातंत्र्य म्हणजे स्वैराचार नव्हे! हेही लक्षात घेतले पाहिजे. त्यावरही कायद्याची काही बंधने आहेत. तसे वृत्तपत्र स्वातंत्र्याचे रक्षण आणि नियंत्रण करणारे कायदे संविधानात अस्तित्वात आहेत. शिवाय बंधने घालणारे कायदेही आहेत. प्रत्येक व्यक्तीला ते लागू आहेत.
वृत्तपत्रे छापणे व वितरित करणे हा केवळ धंदा नाही तर ते लोकांपर्यंत व्यवस्थितपणे विचार पोहोचविणे ,त्यांचे विचार जाणून घेणे यांचे एक उत्तम माध्यम आहे.त्यासाठीही कायद्याने संरक्षण आहे पण त्याचा अनिर्बंध वापर गेल्या काही वर्षांपासून होत आहे.
छापलेली वृत्तपत्रे लोकांपर्यंत वितरित करण्याचा ही वृत्तपत्र काढणाऱ्या लोकांना हक्क आहे. तरीही न्यायालयाचा अवमान होईल,कुणाची अब्रूनुकसानी होईल,असे काहीही करण्यास पुरता मज्जाव आहे.अश्लीलता विरोध,गोपनीयता हे सरकारचे तसेच लोकांचे अधिकार आहेत.त्याविरूद्ध आक्षेपार्ह मजकूर छापणे हा कायद्याने गुन्हा ठरू शकतो.
आणीबाणी जाहीर झाली होती तेव्हा एकदा सारी बंधने झुगारून देऊन वृत्तपत्र स्वातंत्र्यावर गदा आली होती. आता सुद्धा काही राजकारण्याचा हस्तक्षेप म्हणा किंवा वरदहस्त म्हणा या काही वृत्तपत्रांना मिळालेला आहे. त्या काही वृत्तपत्रांमधून अगदीच एकतर्फी बातम्या छापल्या जातात. हे अत्यंत चुकीचे आहे. असे न करता वृत्तपत्रांनी सर्वच प्रकारच्या विचारांना प्राधान्य दिले पाहिजे.
लोकशाहीचा चौथा महत्वाचा हा स्तंभ या दृष्टीने त्यांनी हक्कांबरोबर कर्तव्याचेही पालन करायला हवे. कायदेशीर बंधने पाळलीच पाहिजेत.
बाकी वृत्तपत्रांचा खप वाढविण्यासाठी समाजाचा कल पाहून ती छापली गेली पाहिजेत. तिथे निरपेक्षपणा अपेक्षित आहे.
त्यानुसार वृत्तपत्रे छापणे, वितरण करणे, आपले विचार लोकांपर्यंत पोहोचवणे हे भारतीय लोकशाही मध्ये कायद्याने दिलेले स्वातंत्र्य आहे. ते गैर मार्गाने वापरले जाऊ नये आणि विपरीत गोष्टी पसरविण्यासाठी उपयोगात येऊ नये.हीच इच्छा !!