English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 91 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 91 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 91) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 91 ?

☆☆☆☆☆

ना है खुशी की जुस्तजू

ना गम-ए-निजात  की आरज़ू

मैं ख़ुद से ही बेहद नाराज हूँ,

तेरी नाराजगी की क्या कहूँ…

 

Neither is there any quest for happiness

Nor is any desire to get rid of sadness

I am so very angry even with myself,

What to mention of your displeasure…!

☆☆☆☆☆

रूठे तारों को मना लेंगे,

चाँद को भी सजा देंगे,

एक मौक़ा तो दो इजहार का

तुम्हारे इश्क को भी पनाह देंगे…

 

Shall cajole the annoyed stars,

Shall decorate the moon, too…

Just give one chance to express

shall accommodate your love too…!

☆☆☆☆☆

इन खामोश आँखों में

और कितनी वफ़ा रखूँ ,

तुम्हीं  को चाहूँ और

तुम्हीं से फासला रखूँ …

In silent eyes how much

more trust should I keep,

Keep longing for you, and

keep a distance from you…!

☆☆☆☆☆ 

थमती नहीं जिन्दगी कभी

किसी के बिना, मगर,

यह गुजरती भी नहीं,

कभी अपनों के बिना… 

 

Life never ever stops,

without anyone, but then

It doesn’t even pass,

without the loved ones!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 137 ☆ मायोपिआ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 137 ☆ मायोपिआ ?

दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ।  अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।

 विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।

 दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले,  मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।

 मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं,  निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-

 वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं। काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 91 ☆ नवगीत – जाल न फैला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – जाल न फैला।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 91 ☆ 

☆ नवगीत – जाल न फैला 

*

जाल न फैला

व्यर्थ मछेरे

मछली मिले कहाँ बिन पानी।

*

नहा-नहा नदियाँ की मैली

पुण्य,  पाप को कहती शैली

कैसे औरों की हो खाली

भर लें केवल अपनी थैली

लूट करोड़ों, 

बाँट सैंकड़ों

ऐश करें खुद को कह दानी।

*

पानी नहीं आँख में बाकी

लूट लुटे को हँसती खाकी

गंगा जल की देख गंदगी

पानी-पानी प्याला-साकी

चिथड़े से

तन ढँके गरीबीे

बदन दिखाती धनी जवानी।

*

धंधा धर्म रिलीजन मजहब

खुली दुकानें, साधो मतलब

साधो! आराधो, पद-माया

बेच-खरीदो प्रभु अल्ला रब

तू-तू मैं-मैं भुला,

थाम चल

भगवा झंडा, चादर धानी।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

10.4.2018

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #122 ☆ कविता – अरमान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 122 ☆

☆ ‌कविता – अरमान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में सपने ‌पलते‌ है,

मै‌ पलता हूं सड़कों पे दिल में अरमान ‌मचलते हैं ।

मैं ‌बचपन ‌नही अमीरों का जो‌ महलों में पलते हैं,

जिनका‌ जीवन सुख में बीता‌ कालीन‌ पे‌‌ चलते है।

मैं खेतों में ‌मजदूरी करता सड़कों पे ‌पत्थर ढोता,

भठ्ठों‌ पर ईंटें ढ़ोता और ढाबों पर ‌प्लेटें धोता।

फिर भी भूखा ‌पेट‌ मै ‌सोता अपनी क़िस्मत पर‌ रोता,

भूखा बचपन मुरझाया तन कोई दया की भीख ना देता।

आंखों के आंसू सूख चले आशाओं में दिन ढ़लते हैं ,

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है ।।1।।

 

मैंने भी सपना देखा सच उसको पूरा करने दो,

आगे बढ़ने कुछ करने का‌ अरमान मचलने दो।

मत रोको मुझको पढ़ने दो आगे बढ़ने दो,

जीवन की कठिन डगर है फिर भी चलने दो।

गिरते गिरते मैं उठता हूं मुझे संभलने दो,

उम्मीदों ‌की डोर पकड़ कर आगे बढ़ने दो।

कठिनाइयों से  जूझ रहा हूं जीवन को सँवरने दो।

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।2।।

 

मैं भविष्य हूं भारत का‌ मुझे कर्ज चुकाना है,

कुर्बानी वतन की खातिर दे सर को कटाना है।

अपने देश समाज के प्रति मुझे फर्ज निभाना है,

अशिक्षा की तोड़ बेड़ियां उसे आजाद कराना है।

मुझमें सुभाष गांधी पलते हैं उनको पलने दो,

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।3।।

 

हम‌ सभी ‌पढे़ हम सभी बढ़े, उम्मीद का नारा है,

हम सब‌ में बचपन खिलता है जीवन धन प्यारा है।

हम समाज की आशायें है यही तो जीवन धारा है ,

उन्मुक्त गगन में उड़ने को अब पंख पसारा है।

परवाज़ गगन में करने दो पंछी सा उड़ने दो,

अरमान उमड़ते बादल से अब उन्हें घहरनें दो ।

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।4।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

२३–५—२०२०

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

वस्त्राभूषण बदल कर करने कुछ आराम।

अतिथि गये नेपथ्य में जहां आसन अभिराम।।21।।

 

धुले हाथ से सेवकों ने कर के केश-सिंगार।

धूप-गंध से सुखाकर छवि को दिया निखार।।22।।

 

पुष्पमाल मोती गुंथी से सज्जित कर माथ।

पद्यराग मणि नाथ दी, नवल प्रभा के साथ।।23।।

 

चंदन-कस्तूरी मिला कर वपु का अँगराग।

गो-रोचन से पत्रवत चित्र लिखे सानुराग।।24।।

 

मुक्ता की माला पहिन चित्रित हंस दुकूल।

नई राज्य- श्री वधू पा नृपति जंचा अनुकूल।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गंध अक्षरांचा … ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार

प्रा. सौ. सुमती पवार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गंध अक्षरांचा… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

आली अक्षरे जीवनी गंध रानीवनी गेला

बंध जुळती रेशमी पांघरला जणू शेला

नाती मुलायम किती जणू प्राजक्त बहरे

अक्षरांशी जडे नाते असे नाजुक गहिरे…

 

अक्षरांच्या कुंदकळ्या रातराणी बहरते

जाईजुई तावावर अलगद उतरते

कोरांटीची शुभ्र फुले जणू अक्षरे माळते

पिवळी पांढरी शेवंती रोज मला मोहवते ..

 

दरवळ केवड्याचा माझ्या अक्षरांची कीर्ति

मोतीदाणे झरतात अशी अक्षरांची प्रीती

अनंताचे अनमोल फुल उमलते दारी

रोज घालते जीवन माझ्या अक्षरांची झारी …

 

लाल कर्दळ बहरे चाफा मनात गहिरा

मांडवावर दारात मधुमालती पहारा

गुलाबाच्या शाईने मी कमलाच्या पानांवर

उतरतात अक्षरे पहा रोज झरझर…

 

वर्ख शाईने लावते मोती दाणे हिरेमोती

झोपाळ्यावर अंगणी माझी अक्षरेच गाती

बाळगोपाळांच्या मुखी केली अक्षर पेरणी

गंध आला अक्षरांना दरवळली हो गाणी…

 

काना कोपऱ्यात गेली जणू फुलला पळस

गुलमोहराचा टीळा केशराचा तो कळस

निशिगंध नि मोगरा माझ्या अक्षरांची रास

रोज घालते ओंजळ तुम्हासाठीच हो खास

© प्रा.सौ.सुमती पवार 

नाशिक

(९७६३६०५६४२)

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पारिजात… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पारिजात… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

पारिजातावर मन

रेंगाळून रेंगाळून

परिमळ दरवळ

काळजात साकळून.

 

दव थेंब वळवाचे

कसे भाव चिंबाळून

आभाळात इंद्रधनू

सप्तरंग सांभाळून.

 

दिरंगाई पाखरांची

घरट्यात हिंदोळून

कलकल हर्षनाद

रानोमाळी बिंबाळून.

 

सांगूनिया शब्दगुज

वारा वेडा पिसाळून

धरा प्रीत क्षितीजात

पारिजाता कवळून.

 

 © श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आणीबाणी… ☆ अनिल (आ.रा.देशपांडे) ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आणीबाणी… ☆ अनिल (आ.रा.देशपांडे) ☆

अशा काही रात्री गेल्या, ज्यात काळवंडलो असतो

अशा काही वेळा आल्या,होते तसे उरलो नसतो.

 

वादळ असे भरून आले,तारू भडकणार होते

लाटा अशा घेरत गेल्या,काही सावरणार नव्हते.  

 

हरपून जावे भलतीकडेच,इतके उरले नव्हते भान

करपून गेलो असतो,इतके पेटून आले होते रान.

 

डाव असे पडत होते की,सारा खेळ उधळून द्यावा

विरस असे झाले होते,जीव पुरा विटून जावा.

 

कसे निभावून गेलो,कळत नाही,कळत नव्हते

तसे काही जवळ नव्हते,–नुसते हाती हात होते.

 

 – अनिल (आ.रा.देशपांडे) 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आंतरराष्ट्रीय रेडक्राॅस दिनानिमित्त – रेडक्रास सोसायटी ☆ डाॅ.ए.पी.कुलकर्णी ☆

डाॅ.ए.पी.कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ आंतरराष्ट्रीय रेडक्राॅस दिनानिमित्त – रेडक्रास सोसायटी ☆ डाॅ.ए.पी.कुलकर्णी

कांही वर्षांपूर्वी प्रत्येक रूग्णवाहिकेवर तसेच डाक्टरांचे वाहनांवर रेडक्रास असावयाचा. डाक्टर वा अॕम्ब्युलंस चटकन ओळखता ये असे.

त्याच रेडक्रास बद्दल आज माहिती करून घेऊया.

आज ८मे जागतिक रेडक्रास दिन म्हणून साजरा केला जातो.

रेडक्रास या संस्थेची स्थापना हेन्री ड्युरंट यांनी (१८2८-१९१०)जिनेव्हा येथे केली.

यांची जन्मतारीख ८मे आहे. त्यांच्या स्मृती निमीत्त हा दिवस जागतिक रेडक्रास दिन म्हणुन साजराकेला जातो.

युध्दात जखमी, आजारी सैनिकांना कोणताही भेदभाव न करता योग्य ती मदत करणे हे या संस्थेचे मुख्य काम आहे.

ही संस्था स्थापण्या पुर्वी सुमारे १५८६ मध्ये जखमी सैनिकांना उपचार वा शुश्रूषा करणे साठी (फादर्स आॕफ गुडक्राॕस) स्थापन केली होती. याच सुमारास फ्रान्सचे सत्ताधारी ४थे लुईस यानीही शत्रू सैनिकांना ही चांगली वागणूक द्यावी असा आदेश दिला होता.

रेडक्राॕस संस्था स्थापण्या पूर्वी फ्लाॕरेंस नाईटिंगेल या परिचारिकेने युध्द भुमीवर जाऊन जखमी सैनिकांची सेवा शुश्रूषा केली होती.

२४जून १८५९ ला फ्रेंच व इटाली ही राष्ट्रे आणि आॕस्ट्रिया यांच्या मध्ये युध्द झाले. या युध्दात जवळपास चाळीस हजार सैनिक मृत झाले होते. जखमी सैनिकांची संख्याही खूप होती. जखमी सैनिकांकडे होणारे दुर्लक्ष व अनास्था पाहून हेन्री ड्युरंट खूप दुःखी झाले.

लढाईच्या जवळच्या गावातील चर्च मध्ये तात्पुरते रूग्णालय उभे करून सैनिकाना जमेल तेवढी मदत केली.

सन १८६२ मध्ये या कटू आठवणी लिहल्या. धर्म, जात, पंथ नागरीकत्व यात भेद भाव न करता या पीडीत सैनिकाना कशी मदत करता येईल असा विचार त्यांच्या मनात आला. या विचारांना संपूर्ण युरोप मध्ये अभुतपूर्व प्रतिसाद मिळाला.

हेंन्री ड्युरंट व आणखी पाच स्वीस नागरिकानी समिती स्थापन केली.

या समितीसच आंतरराष्ट्रीय रेडक्राॕस समिती असे ओळखू लागले.

या नंतरच्या काळात थोर स्वीस मानवतावादी ड्युरंट हेन्री यानी रेडक्राॕस या संस्थेस संघटीत स्वरूप व स्थैर्य प्राप्त करून दिले म्हणूनच त्याना रेडक्राॕस चळवळीचे जनक मानले जाते.

आॕगष्ट १८६3 वर्षी झालेल्या बैठकीत संस्थेची मूलतत्वे व बोधचिन्ह निश्चित केले.

मूल्ये…

  • दोन्हीही बाजूंच्या सैनिकांची तटस्थ पणे देखभाल करणे.
  • मानवी हालअपेष्ठा कमी करून जीविताचे व आरोग्य रक्षण करणे.
  • परस्परातील सामंजस्याने सहकार्य करून शांतता वाढवणे.
  • देश नागरिकत्व ,धर्म ,लिंग असा भेदभाव न करता मदत करणे.
  • संस्थेची स्वायतत्ता अबाधित राखून ठरावा नुसार काम करणे.
  • कोणत्याही लाभाची अपेक्षा न ठेवता काम करणे.
  • एका देशात एकच रेडक्राॕस संस्था देशभर कार्य करेल.
  • जबाबदारीने कर्तव्य पार पाडणे
  • सर्व गरजू लोकाना मदत करणे

बोधचिन्ह …

पांढऱ्या शुभ्र रंगावर तांबडा क्राॕस हे अधिकृत बोध चिन्ह आहे.

अधिकृत बोधचिन्ह असलेल्या वाहने, इमारती, व्यक्ती, यांचेवर हल्ला करूनये, मात्र यांचेकडे दारू गोळा, इतर युध्द जन्य सामान असता कामा नये.

युध्द करणाऱ्या राष्ट्रांमध्ये मध्यस्थ म्हणूनही ही संस्था काम करते.

अण्वस्त्रांवर निर्बंध घालण्यासाठी ही संस्था कार्य करते.

ही संस्था युध्दजन्य परिस्थितीत काम करतेच शिवाय भूकंप, महापूर, वादळ, वणवा, इ.

नैसर्गिक आपत्तीत ही संस्था कार्यरत असते.

१९३ देश याचे सदस्य आहेत. सदस्यांनी रेडक्राॕसचे जिन्हीवा संकेत पाळलेच पाहिजेत व बोधचिन्हही वापरलेच पाहिजे.

ही संस्था सर्वोत्तम परिचारिकेस फ्लाॕरेंस नाईटिंगेल नावाने पदक देते.

भारतीय रेडक्राॕस सोसायटी १९२० ला सुरू झाली.

© डाॅ.ए.पी.कुलकर्णी

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ परवड… भाग – 2 ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

? जीवनरंग ❤️

☆ परवड… भाग – 2 ☆ सौ. सुचित्रा पवार

आतापर्यँत यशोदाबाईला असलं काय सुचलं नव्हतं पण बायकांनी कान भरवल्यावर रात्रनदीन यशोदाबाईला जिथं तिथं नातवंड दिसू लागली,’घराचं गोकुळ व्हाया होवं ‘असं वाटू लागलं अन मग अशी कोण बरं आणावी ? म्हणून मनात खल सुरु झाला. गोदू रानात गेल्याचं बघून तिनं नवऱ्याच्या कानावर ही गोष्ट घातलीच. ल्योक तर थोडाच मर्जीभाईर होता ? दुपारच्या जेवणाला यशोदा बाई लेकाला  म्हणलीच,”आरं बुवा आमी थकत चाललो बग, तुझ्या पोटी एखादं मूल झालं की आमी काशीला जायाला बरं ! गुदीला काय आता मूल व्हायचं न्हाई तवा… दुसरी बायकू आणाया पायजे,तू वाणीवाणीचा योकच,एकाच दोन झालं मजी आमचं डोळ मिटलं तर चालंल. आणि आपल्याला काय कमी रं ?एक घर सांभाळल आन एक श्यात !कसं ? तू होय म्हण. ” बुवाला पण आळीत,चौकात लोकं ईचारायचीच ! बुवाच्या मागण लगीन झालेल्याना कुणाला दोन कुणाला तीन झाली होती,बुवान होकार देऊन टाकला. यशोदाबाई चा आनंद गगनात मावेना ! बुवाचा पाय हुंबऱ्यातन बाहेर पडुस्तोवर यशोदाबाई लगोलग  जावंच्या कानी लागली,”आग चम्पे ऐकलंस का ?बुवाच दुसरं लगीन करायचं म्हणतो तुज्या बघण्यात एकांदी हाय का गं ? धनधापुस नाकी डोळी नीट असली म्हंजी झालं. ” उंदरावर टपून बसलेल्या मांजरागत चंपाबाई जणू वाटच बघत होती,ती लगोलग म्हणाली,”एकांदी कशाबाय ? माज्या थोरल्या भावाची गेल्यासाली उरसाला आल्याली धुरपा काय वंगाळ हाय गं ? परक्याची आपल्या घरात घुसवण्यापेक्षा आपल्यात आपलं काय वाईट गं ?वाटीतलं ताटात सांडलं तर काय बिगाडलं ? आणि माझ्या नदरखाली पोरगी चांगली नांदल. बगा बाई,तुमचा समद्याचा इचार करून सांगा. “

सगळं कसं मनासारखं जुळून आल्यालं.  ‘आता कारभारी व्हय म्हणलं की झालं! ‘यशोदाबाई हरखून  गेली. ‘कवा एकदा घराचं गोकुळ होतंय’ असं तिला झालं होतं.

गावातला उरूस जवळ आला होता. सारवण,धूण कामाला वेग आला होता. चंपान धुरपीला मदतीला बोलवून घेतलं आणि सगळ्यांच्या नजरेत भरवून टाकलं. यशोदाबाई पुढं म्हातारा कधीच जात नव्हता. ठरलं तर !या कानाच त्या कानाला न कळता ! भल्या पहाटे बुवा,यशोदाबाई चंपाबाई,आणि दोघींचे कारभारी पाच माणसं देवाला चालली, सहाव्या माणसाचं नांव पाची जणानाच ठावं.  भोळी भाबडी गोदू संसारातल्या आगीविषयी यत्किंचितही मागमूस नसलेली.. नव्हे,आपल्या संसारात इस्तु पडत आहे याची कल्पना नसलेली.. नेहमीप्रमाणं उठून कामाला लागलेली,उरसामुळं चार पै पावण येणार म्हणून कामाचा ढीग जास्तच ! रानातल्या कडधान्यांना राखत घालून गाडग्यात, मडक्यात,कणगीत  जमेल तसं मावेल तसं भरून ठेवायचं होतं. गोदूच्या हातापायाला दम नव्हता. उरूस कामं लावायचा पण उत्साहही द्यायचा. वर्षातन तेवढच दोन दिस आनंदाचं. पै पावण्यात मजेत जायचं,परत वर्षभर हायच आपला रामरगाडा ! गोदीनं आवरून म्हशी सोडल्या अन शेतावर गेली. म्हसर खुट्ट्याला बांधून मिसरीची दोन बोटं इकडून तिकडून दातांवर फिरवली,चूळ भरून कडवाळ कापून भारा  म्हशीच्या पुढ्यात टाकला, अन कामाला लागली. दिस मावळतीला आला,घरात जाऊन सैपाक करायचा होता. “आत्याबाई कवा येत्यात काय म्हैत !” ती स्वतःचीच पुटपुटली. तिनं लगोलग जळणाचा भारा बांधला,म्हसरं सोडली अन भारा घेऊन ती घराच्या वाटेला लागली.

क्रमशः…

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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