हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 25 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 25 ??

गया मेला- श्राद्धकर्म के महत्व पर इस लेख में पहले चर्चा हो चुकी है। गयाश्राद्ध पर वैदिक परंपरा में विशेष श्रद्धा रखती है। तभी तो कहा गया है, ‘श्रद्धया इदं श्राद्धं’ अर्थात जो श्रद्धा से किया जाय,  वही श्राद्ध है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक 16 दिन का गया मेला होता है। वैदिक दर्शन दशगात्र और षोडशी संपीड़न तक मृतात्मा को प्रेत की संज्ञा देता है। संपीड़न पश्चात इस आत्मा को पितर के रूप में जाना जाता है।

रामायण मेला-  वैदिक होना अर्थात हर विचार को अभिव्यक्त  होने की स्वतंत्रता देना, हर मत को समाहित करने की उदारता होना, अनेकता से एकात्मता की विराट सदाशयता होना।

ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 164वें सूत्र की 46वीं ऋचा का एक अंश कहता है,

‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’

सत्य एक है जिसे ज्ञानी भाँति-भाँति प्रकार से कहते हैं।

इस ऋचा की प्रत्यक्ष प्रतीति है चित्रकूट और अयोध्या में लगनेवाला रामायण मेला। सुदूर के संत-महात्मा, धर्माचार्य,  रामकथा मर्मज्ञ इस में सम्मिलित होते हैं। रामलीला होती है, प्रवचन होते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।

रामायण मेला का विचार  1961 में सर्वप्रथम डॉ राम मनोहर लोहिया ने दिया था। 1973 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने चित्रकूट से इसका आरंभ किया। बाद में 80 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र ने अयोध्या में भी इसका आरंभ करवाया। डॉ. लोहिया के विचारसूत्र के अनुसार विश्व की सारी रामायण इस मेले में हों। केंद्र में तुलसीकृत रामचरितमानस हो। विभिन्न भाषाओं की रामायण का पाठ और पारायण भी हो। विषय के मर्मज्ञ इस पर चर्चा करें। संस्कृत में  महर्षि वाल्मीकि की रामायण, तमिल की कंबरामायण, असमिया में कथा रामायण, बांग्ला में कृत्तिवास रामायण,  मराठी में भावार्थ रामायण, गुजराती में राम बालकिया, पंजाबी में गोबिन्द रामायण, कश्मीरी में रामावतार चरित, मलयालम में रामचरितम् और ऐसी असंख्य रामायण के एक छत के नीचे होने की कल्पना ही रोमांचित कर देती है।

पनी विशिष्ट दृष्टि के चलते रामायण मेला, देश का अद्भुत मेला है। साथ ही इसमें अनुभव की जाती एकात्मता भी अद्भुत है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “ये जीवन है आसान नहीं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ये जीवन है आसान नहीं जीने को झगड़ना पड़ता है

चलने की गलीचों पै पहले तलवों को रगड़ना पड़ता है।

मन के भावों औ’ चाहों को दुनिया ने किसी के कब समझा

कुछ खोकर भी पाने को कुछ, दर-दर पै भटकना पड़ता है।

सर्दी की चुभन, गर्मी की जलन, बरसात का गहरा गीलापन

आघात यहाँ हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है।

सपनों में सजायी गई दुनियाँ, इस दुनियाँ में मिलती है कहाँ ?

अरमान लिये बोझिल मन से संसार में चलना पड़ता है।

देखा है बहारों में भी यहाँ कई फूल-कली मुरझा जाते

जीने के लिये औरों से तो क्या ? खुद से भी झगड़ना पड़ता है।

तर होके पसीने से बेहद, अवसर को पकड़ पाने के लिये

छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है।

अनुभव जीवन के मौन मिले लेकिन सबको समझाते हैं

नये रूप में सजने को फिर से, सड़कों को उखड़ना पड़ता है।

वे हैं ’विदग्ध’ किस्मत वाले जो मनचाहा पा जाते है

वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बनके बिगड़ना पड़ता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन  के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।

आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?”

बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच  ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।”

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले-  “प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”

“दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।”

“तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”

आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ इंसान पीढ़ियाँ और सोशल साइट्स ☆ श्री सूरज कुमार सिंह

श्री सूरज कुमार सिंह 

 

? इंसान पीढ़ियाँ और सोशल साइट्स ?

कहकर की संचार क्षेत्र मे क्रांति तुमने लाई है,

बिछुड़े मिलाए जानकारी पहुँचाये ऐसी चीज़ बनाई है।

 

तार, खत, टेलिफोन आदि सब को पीछे छोड़ आई है,

जो वस्तु सबके द्वारा सोशल साइट कहलाई है। 

 

ईमोटिकाॅन, शॉर्टकट शब्दावली ने शुद्ध भाषा मिटाई है,

अंतर्मुखी भी चैट करें ऐसी बेला आई है।

 

टेलिकॉम सेवा वाले सस्ते डेटा बरसाए हैं,

किताब-कलम छूटी हाथों से अब जो स्मार्टफोन आए हैं।

 

और तो और कोरोना की कैसी घड़ी यह आई है,

सोशल साइट्स की आंधी अब तो हर दिशा मे छाई हैI

 

आया जो फोन मे सोशल मीडिया रिश्तेदार मानो कोई आया है,

नए- नए विचार, प्रसंगों की बहार जीवन मे लाया है।

 

आया हुआ रिश्तेदार परंतु लेकर बहुत कुछ जाएगा,

नफरत और फ़िरकेबाज़ी मे सबको यह उलझाएगा।

 

जोड़ कर इन्होंने रिश्ते दो तोड़े हैं दो हज़ार

दूर हो गए वो जिनसे करते थे कभी हम प्यार।

 

समय और निजी  डेटा हमारे ऐसे चुराएँ हैं,

कर्ज़ किसी जन्म के जैसे हमने इनसे खाए हैं।

 

करना प्रयोग अवश्य इनके पर यह गौर फरमाना

मत देना चाबी जीवन की, नही तो भ्रष्ट हो जाएगा ज़माना।

 

© श्री सूरज कुमार सिंह

रांची

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (51 – 55) ॥ ☆

सर्गः-13

मुनिपत्नी अनसूया ने तापस जन स्नान।

हेतु त्रिपथगा गंगा का किया प्रवाह विधान।।51।।

 

निष्कम्पित तरू यहाँ के ऋषिगण सम ध्यानस्थ।

लगते जैसे योग में है सबके सब व्यस्त।।52।।

 

सफल यहाँ वटवृक्ष वह तव प्रार्थित तत्काल।

पद्यराग मणि सम फलों से शोभित खुशहाल।।53।।

 

देखो सीते! गंगा छवि नील यमुन से भिन्न।

कहीं जो उजली यष्टि सी नीलम जटित प्रसन्न।।54।।

 

कहीं नील संग सित कमल की माला अभिराम।

या मानसप्रिय हंसदल, श्वेत बीच ज्यों श्याम।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ५ मार्च – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ५ मार्च –  संपादकीय  ? 

हरी नारायण आपटे

अर्वाचीन मराठी वाङमयाचे जनक, विशेषत: मराठी कादंबरी आणि लघुकथांचे जनक हरी नारायण आपटे यांचा जन्म ८ मार्च १८६४ मध्ये झाला. पूर्वापार चालत आलेल्या लेखनापेक्षा अगदी वेगळ्या प्रकाराचं लेखन त्यांनी केलं. त्याचा प्रभाव पुढल्या लेखकांवर पडला म्हणून त्यांच्या कालखंडाला हरिभाऊ युग असे म्हणतात आणि हरीभाऊंना युगप्रवर्तक.

हरिभाऊंनी १२ सामाजिक आणि ११ ऐतिहासिक कादंबर्या् लिहिल्या. याशिवाय २ स्वतंत्र नाटके, ३ रूपांतरित नाटके व ३ प्रहसने लिहिली. त्यांच्या सामाजिक कादंबरीत तत्कालीन सामाजिक, राजकीय, संस्कृतिक, आर्थिक परिस्थितीचे दर्शन घडवते. त्यांच्या कादंबर्यां स्त्रीकेन्द्रित आहेत. स्त्रियांच्या दु:खाला वाचा फोडणे, हेच त्यांच्या कादंबरीचे सूत्र आहे. पुरुषप्रधान संस्कृतीच्या अनुषंगाने निर्माण झालेली पुरुष जातीची व समाजाची स्त्रीकडे बघण्याची मानसिकता त्यातून व्यक्त झाली आहे.

ह. ना आपटे ‘ज्ञानप्रकाश’ मासिकाचे काही काल संपादक होते. ‘आनंदाश्रम’ या प्रकाशन संस्थेचे व्यवस्थापकही होते. ‘करमणूक’ या मासिकाचे संस्थापक सदस्य होते. केशवसुतांची कविता व गो.ब.देवल यांचे संगीत शारदा हे नाटक हरिभाऊंनी प्रकाशात आणले. त्यांनी अनेक पुस्तकांच्या प्रस्तावना लिहिल्या. आठ स्त्रीरत्ने या सदराखाली त्यांनी भास्कराचार्याँची लीलावती , राणी दुर्गावती इ. ची बोधप्रद माहिती प्रकाशित केली.

ह. ना. आपटे यांची काही महत्वाची पुस्तके – सामाजिक – १. पण लक्षात कोण घेतो? २. जग हे असे आहे. ३. चाणाक्षपणाचा कळस, ४. मधली स्थिती ५. मायेचा बाजार, ६. मी, ७. यशवंत खरे

यापैकी ‘पण लक्षात कोण घेतो?’ ही कादंबरी मराठी कादंबर्यां चा मानदंड मानली जाते. १. ऐतिहासिक पुस्तके – १. उष:काल, २. केवळ स्वराज्यासाठी, ३. गड आला पण सिंह गेला, ४ चंद्रगुप्त व चाणक्य, ५ वज्राघात, ६. सूर्योदय, ७. रूपनगरची राजकन्या याशिवाय स्फुट गोष्टी भाग १ ते ६ हे त्यांचे कथा संग्रह आहेत, तर संत सखू व संत पिंगळा ही नाटके त्यांनी लिहिली आहेत. ‘हरीभाऊंची पत्रे ‘ म्हणून त्यांच्या पत्रांचेही संकलन, ससंपादन झाले आहे.

अकोला येथे भरलेल्या महाराष्ट्र साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

ह. ना. आपटे यांच्या संबंधीची काही महत्वाची पुस्तके –

१. आलोचना – ह. ना. आपटे विशेषांक (१९६३)

२. ह. ना. आपटे चरित्र – रा.भी. जोशी

३. ह. ना. आपटे चरित्र व वाङ्मय विवेचन – वेणूताई पानसे

४. ह. ना. आपटे संक्षिप्त चरित्र – बापूजी मार्तंड आंबेकर

५. ह. ना. आपटे निवडक वाङ्मय- साहित्य अकादमी – संपादक विद्याधर पुंडलिक

६ हरिभाऊ आपटे – आत्मचरित्रात्मक कादंबरी- मी – डॉ. रेखा वडीरतार्य

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

डॉ. नारायण गोविंद कालेलकर

डॉ. नारायण गोविंद कालेलकर हे मराठी भाषिक भाषावैज्ञानिक होते. त्यांचा जन्म ११ डिसेंबर १९०९चा. ५०च्या दशकात भाषाविज्ञान या विषयाचे औपचारिक शिक्षण घेतलेल्या लेखकांनी या विषयावर मराठीतून लिहायला सुरुवात केली. भाषेचा भाषा म्हणून वैज्ञानिक पद्धतीने करण्यात येणारा अभ्यास या अर्थी भाषाविज्ञान ही संज्ञा आज वापरण्यात येते, त्या प्रकारच्या अभ्यासाचा प्रारंभ त्या काळात झाला. नव्या अभ्यास शाखेचा परिचय करून देणारे लेखन मराठीत करणार्याा लेखकांपैकी डॉ. कालेलकर हे नाव प्रामुख्याने घेतले जाते.

फ्रेंच भाषा, साहित्य आणि भाषाशास्त्राचा अभ्यास करण्यासाठी ते सायाजीराव गायकवाड शिष्यवृत्ती मिळवून पॅरीसला गेले. तिथून परतल्यावर बडोदायेथील महाविद्यालयात तसेच विद्यापीठात फ्रेंच भाषा, साहित्य आणि भाषाशास्त्र हे विषय शिकवले.

कल्चरल एक्स्चेंज फेलो म्हणून ते पुन्हा पॅरीसला गेले. तेथील विद्यापीठात त्यांनी ‘ऋद्धिपूर’ वर्णनावरचा ( हा महानुभाव ग्रंथ आहे.) आपला प्रबंध फ्रेंचमधे सादर केला व डी. लिट. मिळवली.

१९५५-५६ ला रॉकफेलर प्रतिष्ठानची ज्येष्ठ अभ्यासवृत्ती मिळवून ते अमेरिकेत गेले. तिथे येल विद्यापीठात भाषाविज्ञान विभागात त्यांनी अध्ययन केले.
पुण्याच्या डेक्कन कॉलेज – पदव्युत्तर व संशोधन संस्था इथे इंडो-आर्यन भाषांचे ते प्रपाठक होते. नंतर याच संस्थेत भाषाविज्ञान विभागाचे ते प्रमुख झाले.

लेखन- संपादन

सायाजी साहित्य मालेचे २४६वे पुष्प म्हणून रिचर्ड फिक यांच्या जर्मन ग्रंथाचा डॉ. शिरिष कुमार मैत्र यांनी केलेल्या इंग्रजी अंनुवादावरून ‘बुद्धकालीन भारतीय समाज’ हे पुस्तक लिहिले.

१. ध्वनीलहरी, २. भाषा आणि संस्कृती, ३. भाषा, इतिहास आणि भूगोल ही त्यांची भाषाविज्ञान या ज्ञानशाखेची तोंडओळख करून देणारी पुस्तके.
त्यांनी भाषाविषयक पुस्तकांची परीक्षणेही लिहिली. मराठी व इंग्रजी दोन्ही भाषेत त्यांनी लेखन केले.

आधुनिक मराठी वाङ्मयाचे जनक असलेल्या ह. ना. आपटे आणि मराठीतील भाषाशास्त्राचे पंडीत डॉ. नारायण गोविंद कालेलकर यांच्या कार्याला शतश: प्रणाम.?

 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आभाळाची सरते माया… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आभाळाची सरते माया… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त: वनहरिणी)

आभाळाची सरते माया अन् भूमीही हो अनुदार

पत्ता शोधित खुद्द स्वतःचा,फिरे अधांतर दारोदार!

 

बरीच बाकी तपोसाधना,खूप दूर ती अजून सिद्धी

अर्ध्यामुर्ध्या हळकुंडाने नकोस होऊ पिवळा फार!

 

दोनचार त्या तुटल्या फांद्या, अजुन मुळावर घाव कुठे

रान माजले विषवृक्षांचे, अवतीभवती अपरंपार !……

 

जिंकलीस तू चकमक केवळ,अंतिम रण ते अजून बाकी

रणझुंजारा! अजून तुजला झेलायाचे बरेच वार !…….

 

विश्वासाच्या होती चिंध्या,कृतघ्नतेचे डसती नाग

कंठी होता दाह विषाचा,जटेत घ्यावी गंगाधार !…

 

दिवसाढवळ्या डोळ्यांदेखत,इथे खलांचा नंगानाच……

संत महात्मे साधू सज्जन, किती उदासिन किती लाचार!

 

सप्तसुरांच्या मैफिलीत ह्या, नादब्रह्म कुणि आहे अळवित

कुणी न श्रोता कुणी न दर्दी, फक्त पोरके शून्य अपार !…..

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 92 – नाहकता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 92 – नाहकता ☆

शब्दांची गर्दी हवी कशास नाहकता।

शब्दाविना वाढते भावनांची सुंदरता ।।

 

एक आर्त नजर तुझी खुप काही सांगते ।

लपलेली व्यथा तुझ्या नजरेतून जाणवते

मूक कटाक्ष सुद्धा तुझा घायाळ करतो पुरता।।१।।

 

समाधानाची ढेकर अशी दाद देऊन जाते।

आर्धी उष्टी खीर तुझी माझी काळजी सांगते ।

कपभर चहा ने तुझ्या शीण जातो पुरता ।।२।।

 

रुसवे-फुगवे सारे तुला शब्दाविना कळतात।

पश्चातापाचे भाव तुझ्या नजरेतच उमटतात ।

सुगंधी गजराही पुरतो मग मध्यस्थी करता।।३।।

 

विश्वासची ढाल तुझी लढण्याचे बळ देते।

नित्य अशी साथ तुझी अखंड मला लाभते।

कौतुकाच्या थापेलाही भासे शब्दांची नाहकता।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ गौरव मराठी भाषेचा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

?विविधा ?

☆ गौरव मराठी भाषेचा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

मराठी भाषा गौरव दिनानिमित्त्ताने…. सकाळपासून मोबाईल वर भाषा दिनानिमित्त चे विशेष वाचताना सहज लक्षात आलं ! महाराष्ट्राची प्रमाणित मराठी भाषा म्हणून जी आपण वापरतो ती पुस्तकातील भाषा ! पण बोली भाषा दर पाच मैलागणिक बदलते असे पूर्वी पासून ऐकून आहे! त्याप्रमाणे महाराष्ट्रात सुध्दा देश, कोकण, खानदेश,वर्हाड या प्रत्येक भागातील मराठी आपले वेगळेपण दाखवते!

मी महाराष्ट्रातील या सर्व भागात थोडा थोडा काळ राहिले आहे.आणि अनुभवली आहे वेगवेगळी मराठी भाषा.मिरज- सांगली तील भाषेवर कर्नाटक जवळ असल्याने कानडी भाषेची छाप दिसून येते.प्रत्येक वाक्यात शेवटी ‘की’ चा उपयोग!’काय की,कसं की..इ.’खानदेशाजवळ गुजरात राज्य असल्याने तेथील मराठीत गुजराथी, अहिराणी भाषेचे शब्द आपोआपच येतात!

तर नागपूर च्या मराठी भाषेत हिंदी शब्दांचा वापर जास्त दिसून येतो.’करून राहिले, बोलून राहिले,होय बाप्पा’ असे शब्द प्रयोग वर्हाडी भाषेतच दिसतात!

भाषेचा प्रवास हा असाच चालतो.व्यवहारात,बोली भाषेत अशी भिन्नता दिसत असली तरी पुस्तकी भाषा ही साधारणपणे एकच असते. ज्ञानेश्वरांनी सर्वसामान्य लोकांना कळावी म्हणून संस्कृतमधील भगवद्गीता त्याकाळात प्राकृत मराठीतून लिहिली पण आपण आता ज्ञानेश्वरी वाचायला घेतली तर ती भाषा आपल्याला पुष्कळ वेळा कळत नाही. त्यातील कित्येक शब्दांचे अर्थ लागत नाहीत! त्यातील भाषेचे सौंदर्य कळायला पुन्हा शब्दार्थ बघावे लागतात!

काळानुरूपही भाषा बदलत असते.लहान बालकाला बोलायला शिकताना अनुकरण हेच माध्यम असल्याने आई जे शब्द उच्चारेल तेच ते बाळ बोलते. म्हणून मातृभाषेचे महत्त्व फार आहे!आपण कितीही शिकलो, वेगवेगळ्या देशात गेलो तरी कोणतीही तीव्र भावना व्यक्त करताना आपण मातृभाषेतून च बोलतो.आपली मराठी भाषा इतकी समृद्ध आहे की तिची अभिव्यक्ती करताना शब्द संपदा कधी अपुरी पडत नाही! ओष्ठव्य, दंतव्य, तालव्य, कंठस्थ..

अशा सर्व प्रकारच्या अक्षरांनी ती संपन्न आहे! मराठी भाषा आपल्या शरीर मनाशी एकरूप झालेली असते.म्हणून ती मातेसमान आहे. त्या मराठी भाषेला आपण जतन केले पाहिजे,   

मराठी दिनासाठी ची शुभेच्छा!

एक  मराठीप्रेमी…

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ व्हिलचेअर…. अनामिक ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ❤️

? व्हिलचेअर…. अनामिक ? प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

विवियाना मॉल मध्ये रविवारी संध्याकाळची वेळ म्हणजे तरुणांची गर्दीची वेळ.. त्यांचा चिवचिवाट, भरलेले कॉफी हाऊसेस, सेल्फी टाईम.

अशा गर्दीच्या वातावरणात चटकन नजर गेली ती एका व्हीलचेअर वर एका आजीबाईंना प्रेमाने नेणारा एक माणूस आणि सोबत 12-13 वर्षाचा एक मुलगा.. मी आणि माझी मैत्रीण तिथे एका बाजूला बाकावर बसलो होतो. आम्ही बघत होतो.. व्हीलचेअर ढकलत तो माणूस त्या आजीबाईंना इकडून तिकडे नेत होता आणि त्याचा मुलगा ही त्याच्या सोबत होता..

 5 मिनिटांतच तो माणूस त्या आजींची व्हीलचेअर आमच्या अगदी बाजूला आणून उभं करून त्या मुलाशी इंग्रजीत बोलत होता. “मी ATM मधून पैसे काढून 1, 2 कामे करून येतो, तू आजी जवळ थांब” असं सांगून निघून गेला.

त्या आजी आमच्याकडे थोडं बघून हसल्या.. दोन – तीन मिनिटं गेली आणि हिंदीत मला सांगू लागल्या.. “हा माझा नातू. मुलाचा मुलगा, आणि तो गेला नां पैसे काढायला तो माझा मुलगा.. आम्ही ठाण्यातच राहतो.. आज ‘सुईधागा’ सिनेमा बघायला आम्ही आलो. सुनेला तिच्या कॉलेज ग्रुप बरोबर बाहेर जायचं होतं, मग माझ्या मुलांनी आमचा हा बेत जुळवून आणला..”

नकळत माझ्या तोंडून “अरे वाह!”  निघून गेलं..

आजी पुढे सांगू लागल्या… माझं वय 73 आहे.. मला चालता येत नाही म्हणून ही खुर्ची आणि ही फोल्डिंग काठी.. सिनेमा, नाटक बघायला जायचं तर थिएटर मध्ये काळोख व्हायच्या आत आम्हाला आत शिरावं लागतं. म्हणून मी कुठे जायचं म्हणजे माझी वरातच असते.. पण मुलगा, सून ऐकत नाहीत..

अजून दोन मुलं आहेत मला.. पण ते मला सांभाळायला तयार नाहीत.. हा मुलगा सायकॉलॉजिचा प्राध्यापक आहे. तो मला आनंदाने सांभाळतो.. दुसरी भावंडे सांभाळत नाहीत, त्या बद्दल त्याचा आकस नाही. मला माझा मुलगा थिएटर मध्ये काळोख व्हायच्या आतच घेऊन येतो.

आज आम्ही बाहेर जेवून सिनेमाला गेलो.. आता मॉल मध्ये या खुर्चीतून मला फिरवतो.. मी नको म्हणत असताना त्याचं म्हणणं.. ‘बघ नं जग किती बदललंय. सुंदर गोष्टीही आहेतच. असं फिरलीस, चार माणसं बघितलीस की तुझं मन व शरीर ही फ्रेश होईल. मी मनाचा अभ्यास केलेला माणूस आहे म्हणूनच सांगतोय.'”

हे सांगत असताना त्यांचा मुलगा काम आटपून परत आला.. आजीबाई माझ्याशी बोलत असलेल्या बघून त्यांनी त्यांना हिंदीत मला निर्देश करून विचारलं, “कौन है? किससे बात कर रही हो मम्मा..?”

आजीबाईंनी लगेच सांगितलं, “यहिपे बैठी थी। ऐसे ही मैने बात की उससे।”

मला वाटलं, हा माणूस वैतागेल. कोण कुठली ही बाई ! पण त्यांनी चक्क हसून मला जे सांगितलं त्यावर मी थक्क झाले.

ते म्हणाले, “आम्ही आईला दर महिन्याला एकदा असं बाहेर फिरवून आणतो.. रोज आम्ही व्यस्त असतो. मग एक दिवस तिला असं बाहेर घेऊन येतो. माझे वडील असतांनाही आम्ही हेच करायचो. ते नाहीत आता.. आज माझी बायको नाही येऊ शकली, नाहीतर आम्ही तिघे येतो. एक दिवस तिला देतो. कधी सिनेमा, नाटक, ते नाही जमलं तर संध्याकाळी तरी काहीतरी प्लॅन करतो आणि तिला फ्रेश व्हायला मदत करतो. त्यामुळे तिची तब्बेत चांगली राहायला मदतच होते ना.”

आम्हाला त्यांनी धन्यवाद म्हटलं, “माझ्या आईला तुमची सोबतच झाली” म्हणून ते तिघेही निघून गेले नि मी आणि माझी मैत्रीण सुन्न झालो. अरे किती नशीबवान या आजी..

कुठे ही परिस्थिती नी कुठे ‘आईवडील नकोत’ ही भावना जोपासणारी काही मुलं आईवडिलांना वृद्धाश्रमात पाठवतात..  समाजात एकाच परिस्थिती बाबत दोन भिन्न बाजू दिसल्या.

वय झालं आहे.. चालता येत नाही.. गर्दीत कुठे न्यायचं.. असा विचार न करता हा आजींचा मुलगा, सून आणि नातू ही यांच्या लेखी ‘आई म्हातारी झाली पण मी नेईन, तिला आनंद मिळावा’ ही भावना..

अशी ही माणसं समाजात आहेत हे बघून आम्हां दोघींना खरंच खूप बरं वाटलं. आणि किती तरी वेळ आम्ही शांत पणे त्या तिघांच्या पाठमोर्‍या आकृती कडे शांतपणे बघत होतो आणि डोळे कधी पाणावले कळलंच नाही…

@अनामिक.

??️?

सुश्री संग्राहक – मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares