मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! उर्वशी आणि सज्जन ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? उर्वशी आणि सज्जन ! ? 

“न..म..स्का..र 

पं..त,

हा….

तु..म..चा

पे…प….र !”

“अरे मोऱ्या, एवढी थंडी वाजत्ये तर पेपर न्यायचाच कशाला म्हणतो मी ?”

“त्याच काय आहे ना पंत, तुमचा पेपर वाचल्या शिवाय दिवसाची सुरवातच झाल्या सारखी वाटत नाही बघा मला !”

“म्हणजे रे काय मोऱ्या ? माझ्या पेपरला काय जगा वेगळ्या बातम्या असतात की काय ? मुंबईला ‘अभूतपूर्व थंडी’ ही बातमी माझ्या पेपरात काय, ‘मुंबईत उष्णतेची लाट’ अशी थोडीच छापणार आहेत ?”

“तसं नाही पंत, पण चहा पिता पिता तुमचा पेपर वाचला, की लगेच हेड ऑफिसचा कॉल येतो आणि एकदा का तो कॉल व्यवस्थित पार पडला, की सारा दिवस कसा उत्साहात जातो माझा !”

“अरे गाढवा, पण ज्या दिवशी पेपरला सुट्टी असते तेव्हा काय करतोस रे ?”

“जाऊ दे पंत, त्या विषयी नंतर बोलू ! पण मला एक सांगा, तुम्हांला कशी नाही थंडी वाजत या वयात ?”

“या वयात म्हणजे ? गधड्या आत्ता कुठे माझी सत्तरी आल्ये !”

“हॊ, माहित आहे मला, पण या वयात अंगातलं रक्त कमी होतं आणि त्यामुळे थंडी जास्त वाजते असं म्हणतात, म्हणून म्हटलं !”

“अरे आमची जुनी हाडं पेर ! असल्या बारा अंशाच्या थंडीला ती थोडीच भीक घालणार आहेत !”

“पंत, पण थंडी वाजू नये म्हणून तुम्ही काहीतरी उपाय करतच असणार ना ?”

“हॊ करतो नां! अरे मस्त आल्याचा चहा घेतो दोन तीन वेळेला आणि पाती चहाचा काढा सुंठ, काळी मिरी घालून उकळत ठेवला आहे बायकोने, तो पण घेतो मधून मधून ! मग थंडीची काय बिशाद !”

“अच्छा ! पण पंत तुम्हाला एक सांगू का, आपल्या मायबाप सरकारला यंदा आलेल्या बोचऱ्या थंडीची चाहूल आधीच लागली होती, असं मला आता वाटायला लागलंय !”

“असं कशावरून म्हणतोयस तू मोऱ्या ?”

“अहो पंत असं काय करता, सध्या सगळ्या पेपर मधे एकच विषय तर घटा घटा प्यायला, सॉरी, चघळा जातोय ना, वाईन, वाईन आणि फक्त वाईन !”

“तू म्हणतोयस ते बरोबर आहे रे मोऱ्या. अरे त्या वाईनच्या बातम्यांनी किराणामालाच्या दुकान मालकांचे गल्लेपण गरमा गरम झाले असतील नाही !”

“बरोब्बर पंत !”

“मोऱ्या, पण मला एक सांग, आपल्या चाळीच्या कोपऱ्यावरच्या ‘उर्वशी साडी सेंटर’ मधे सकाळ पासून खरेदीसाठी लाईन कशी काय लागलेली असते हल्ली ? काल परवा पर्यंत त्या दुकानात काळं कुत्र सुद्धा फिरकत नव्हतं रे !”

“अहो पंत तो पण वाईनचाच महिमा !”

“काय सांगतोयस काय मोऱ्या ?”

“अहो पंत, त्या उर्वशी साडी सेंटरच्या मालकाने एक स्कीम चालू केली आहे !”

“कसली स्कीम ?”

“अहो पहिल्या शंभर गिऱ्हाईकांना एका साडीवर एक वाईनची बाटली फुकट ! म्हणून तर सकाळ पासून गर्दी असते तिथे !”

“अरे पण नवीन सरकारी नियमांप्रमाणे साडीच्या दुकानात वाईन विकायला परमिशनच नाही, मग तो …..”

“अहो तो वाईन विकतच नाही, तो साडयाच विकतो ! पण एका साडी खरेदीवर तो एक कुपन देतो ! ते घेवून त्याच्याच भावाच्या किराणा मालाच्या दुकानात जायचं आणि ते कुपन दाखवून वाईनची एक बाटली मोफत मिळते ती घेवून घरी जायचं !”

“हे बरं आहे, म्हणजे साडी खरेदीमुळे बायको खूष आणि वाईन मिळाल्यामुळे नवरा पण खूष !”

“अगदी बरोब्बर बोललात पंत ! पंत,

पण एक विचारू का तुम्हांला ?”

“अरे विचार नां, त्याच्यासाठी परमिशन कसली मगतोयस, बोल ! “

“पंत ह्या ब्यागा कसल्या भरल्येत तुम्ही, कुठे बाहेर जाताय का काकूंच्या बरोबर ?”

“मोऱ्या, अरे पुण्यात जाऊन येतोय दोन तीन दिवस हिच्या भावाकडे !”

“काही खास प्रोग्राम ?”

“काही खास प्रोग्राम वगैरे नाही रे ! तुला तर माहित आहेच, हिचा भाऊ पुण्यात ‘अस्सल पुणेरी अर्कशाळा’ चालवतो ते !”

“हॊ मागे काकूंनी सुनीताला ओव्याच्या अर्काची बाटली दिली होती एकदा !”

“हां, तर त्याच हिच्या भावाने त्याच्या अर्कशाळेत, अथक परिश्रमातून साबुदाण्यापासून बनवलेली, उपासाला चालणारी, ‘सज्जन वाईन’ बनवल्ये आणि त्या वाईनच्या पहिल्या बाटलीच बूच, मी माझ्या हस्ते उघडून त्याच्या या नवीन वाईनच मी उदघाट्न करावं असं माझ्या मेव्हण्याला वाटत, म्हणून चाललोय पुण्याला !”

“धन्य आहे तुमची आणि तुमच्या त्या सज्जन मेव्हण्याची !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

ताजा कलम  – या पुढे भविष्यात प्रौढ शिक्षणाच्या मास्तरांनी, ‘झोप’ या विषयाला धरून निबंध लिहायला सांगितला, तरी त्या विषयी आज जागेपणी, काहीही न लिहिण्याचा मी संकल्प करत आहे !

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – pradnyavartak3@gmail.com

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 85 ☆ गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है युवा स्वतंत्रता सेनानी कनकलता बरुआ की शौर्यगाथा  ‘गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 85 ☆

☆ लघुकथा – गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया ☆

अठ्ठारह साल की दुबली – पतली लडकी कनकलता बरुआ हाथ में अपने देश की शान तिरंगा झंडा लिए जुलूस के आगे – आगे चल रही थी। उसकी उम्र तो कम थी लेकिन जोश में कमी न थी। उसके चेहरे पर प्रसन्न्ता थी साथ ही देश के लिए कुर्बानी का जज्बा भी साफ दिखाई दे रहा था। भारत माता की जय से वातावरण गूँज रहा था। भारत छोडो आंदोलन तेजी पर था। कनकलता बरुआ के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने आसाम के तेजपुर से थोडी दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराने का निश्चय किया। थाना प्रमुख जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता जुलूस में सबसे आगे थी, उसने निडरता से कहा- “आप हमारे रास्ते से हट जाइए। हम आपसे कोई विवाद नहीं करना चाहते हैं। हम थाने पर तिरंगा फहराने आए हैं और अपना काम करके लौट जाएंगे।“ थाने के प्रमुख ने उसकी एक ना सुनी और तेजी से कहा – ‘अगर कोई थोडा भी आगे बढा तो मैं सबको गोली से भून दूंगा। वापस लौट जाओ।‘

कनकलता इस धमकी से ना तो डरी और ना रुकी, वह आगे बढती रही। उसके पीछे था बडा हुजूम जिसमें स्वाधीनता के दीवाने ‘ भारत देश हमारा है ‘ के नारे लगा रहे थे। नारों से आकाश को गुंजाती हुई भीड थाने की ओर बढती ही जा रही थी। जब इन स्वतंत्रता सेनानियों ने पुलिस की बात ना सुनी तो उन्होंने जुलूस पर गोलियों बरसानी शुरू कर दीं। गोलियों की बौछार भी स्वातंत्रता के इन दीवानों को ना रोक सकी। पहली गोली कनकलता को लगी। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसने अपने हाथ में पकडे तिरंगे को झुकने नहीं दिया। उसकी शहादत ने स्वतंत्रता सेनानियों में जोश और आक्रोश भर दिया। हर कोई सबसे पहले झंडा फहराना चाहता था। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर युवक आगे बढ़ते गए, एक के बाद एक शहीद होते गए, लेकिन झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – richasharma1168@gmail.com  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #105 – लघुकथा- दूसरी शादी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद लघुकथा  “दूसरी शादी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 105 ☆

☆ लघुकथा- दूसरी शादी ☆ 

“मैं दूसरी शादी करके रहूंगी,” यह सुनते हैं घर में सन्नाटा पसर गया। ससुर समान पिता ने कहा, “बेटी! अभी तेरे शहीद पति की चिता भी ठंडी नहीं हुई और तूने यह फैसला कर लिया।”

“हां पिताजी, मैं नहीं चाहती हूं कि मैं अपने इरादे से डिग जाऊं।”

“इस बारे में एक बार और सोच लेती बेटी,” पिता बोले, “माना कि अभी शादी को एक बसंत भी नहीं बीता है मगर इस बच्चे के बारे में कुछ तो सोच लेती।”

“हां बेटी,” कब से चुप बैठी सासु ने कहा, “शादी के फैसले थोड़े दिनों के लिए टाल दो बेटी?”

“नहीं सासु मां, अब मैं इसे नहीं टाल सकती हूं। मैं तो शादी करने जा रही हूं,” कहते हुए शहीद की विधवा ने एक पत्र आगे बढ़ा दिया, “यह रहा मेरा विवाह का अनुबंध पत्र।”

उस अनुबंध पत्र को पढ़कर ससुर का हाथ आशीर्वाद के लिए उठ गया। वह अनुबंध पत्र नहीं फौज में विधवा की नियुक्ति का पत्र था।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ??

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। दुनिया की अन्यान्य सभ्यताएँ जब समुदाय या पड़ोसी से प्रेम करने की सीख दे रहे थे, उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

(महोपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति।  ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

(कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥ (गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ (6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत का यह अनहद नाद सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

श्रीमद्भागवत (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ। 

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

शांतिपाठ का पूर्णता की सम्पूर्णता बखानता यह श्लोक भी इसी अद्भुत सत्य की तार्किक पुष्टि करता है-

ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते!

सचमुच सामासिकता का परम है यह। मनुष्य मात्र नहीं सारे सजीव और निर्जीव में भी परम शक्ति देखने से बढ़कर सुदर्शन और क्या होगा! सब में एक ही आत्मा देखना अर्थात एक आत्मा होना भारतीयता के कण-कण में है। इसी संदर्भ में लेख के आरंभ में संत नामदेव महाराज के जीवन से जुड़ा प्रसंग प्रयोजनीय हो जाता है। गोस्वामी जी का ‘सकल राममय जानि’ इसी दर्शन का पुनरुच्चार है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 143 ☆ आत्मसंवाद – दो दो बातें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के अनुरोध पर दो दो बातें… शीर्षक से श्री विवेक जी का आत्मसंवाद के माध्यम से दो टूक बातें।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 143 ☆

? आत्मसंवाद – दो दो बातें…  ?

दो बातें जो एक  लेखक  की सृजनशीलता के लिए ज़रूरी हैं ?

‍‍‌‍‍‍‍‌‍‍‍‍‍..व्यापक सोच

और अभिव्यक्ति की क्षमता.

दो बातें जो एक सफल व्यंग्यकार में होनी चाहिये ?

..सूक्ष्म दृष्टि

और न्यूनतम शब्दों में चुटीला कहने का कौशल.

आपकी व्यंग्य लेखन यात्रा की दो सर्वाधिक  महत्वपूर्ण उपलब्धियां?

..पहली ही किताब “कौआ कान ले गया” को राष्ट्रीय दिव्य अलंकरण

और नई किताब “समस्या का पंजीकरण” पर पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी की भूमिका , डा सूर्यबाला , डा प्रेम जनमेजय , डा आलोक पौराणिक , डा गिरीश पंकज , श्री बी एल आच्छा की सम्मतियां  व समकालीन व्यंग्यकारो की टिप्पणियां.

आपकी लिखी दो पुस्तकें  जिनसे आपको एक लेखक के रूप में नई पहचान मिली ?

..कविता संग्रह “आक्रोश”

तथा  नाटक संग्रह “हिंदोस्ता हमारा “.

दो चुनौतियां जो एक अभियंता के प्रोफेशनल कैरियर में हमेशा रहती हैं?

..परिस्थिति के अनुसार आन द स्पाट निर्णय लेने की योग्यता ,

व अपनी टीम को उत्साह जनक तरीके से साथ लेकर चलने की क्षमता.

एक अभियंता के रूप में आपके जीवन के दो गौरवमयी पल?

..परमाणु बिजली घर चुटका जिला मण्डला जो अब निर्माणाधीन है का स्थल चयन से सर्वे का सारा कार्य ,

और अटल ज्योति योजना के जरिये म. प्र. में फीडर विभक्तिकरण में महत्वपूर्ण कार्य.

दो संदेश जो आज के हाई टेक युवा अभियंताओं को देना चाहते हैं?

..जल्दबाजी से बचें

एवं  बड़े लक्ष्य बनाकर निरंतर सक्रियता से कार्य करें.

आपके संघर्ष के दिनों के दो साथी जिन्होंने हमेशा आपका साथ दिया? 

.. मेरी पत्नी कल्पना

तथा मेरी स्वयं की इच्छा शक्ति.

अपने जीवन के दो निर्णय जिन पर आपको गर्व है?

.. केवल अभियंता के रूप में सिमट कर रह जाने की जगह लेखन को समानांतर कैरियर बनाना

एवं बच्चों को उन्मुक्त वैश्विक शिक्षा के अवसर देना.

दो बातें जिनसे आप प्रभावित होते हैं ? 

.. विनम्र व्यवहार

तथा तार्किक ज्ञान.

दो जीवनमूल्य जो आपको अपने माता पिता से मिले हैं?

.. जो पावे संतोष धन सब धन धूरि समान ,

तथा परिस्थिति जन्य तात्कालिक श्रेष्ठ निर्णय लेना फिर उस पर पछतावा नहीं करना.  

अपनी जीवनसंगिनी के व्यक्तित्व की दो विशेषताएँ को उनको खास बनाती हैं?

.. कठिन परिस्थितियों में भी विचलित न होकर अधिकतम नुकसान के लिये मानसिक रूप से तैयार होकर धैर्य बनाये रखना ,

आर्थिक प्रलोभन या नुकसान से प्रभावित न होना एवं अपनो पर पूरा भरोसा करना.

दो बातें जो आपको नाराज़ करती हैं?

..चीटिंग से घृणा है

और झूठ से गुस्सा आता है.

दो शख्सियतें जिनसे आपको हमेशा  प्रेरणा मिलती है ?

..भगवान कृष्ण , मुश्किल परिस्थिति में सोचता हूं भगवान कृष्ण ऐसे समय क्या करते ?  

और मेरी माँ के प्रगतिशील जीवन से मुझे सदा प्रेरणा मिलती है.

दो बातें जिनमे आप विश्वास करते हैं ?

.. मेहनत कभी बेकार नही जाती ,

संबंध वे काम कर सकते हैं जो रुपये नही कर सकते.

दो बातें जो आपको हिंदी भाषा में सर्वश्रेष्ठ लगती हैं ? 

.. आत्मीयता बोध से भरी हुई सहज सरल है ,

कम से कम शब्दों में बडी बात कहने में सक्षम है.

दो बातें जो आप अपने आलोचकों से कहना चाहते हैं?

.. आलोचना करने से पहले मुझसे सीधी बात कीजीये आप जान जायेंगे कि मैं गलत नही ,

आलोचना करना सबसे सरल है, उन्हीं स्तिथियों में बेहतर कर पाना कठिन.

दो सीख जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए कोरोना ने विश्व को दी हैं ?

.. धन से स्वास्थ्य सदा बड़ा होता है ,

हर पल का जीवन भरपूर जियें, जीवन क्षण भंगुर है.

जीवन में सफलता के दो मूल मंत्र ?

.. सचाई ,

तथा टैक्टफुलनेस.

दो अवार्ड जिन पर  आपको गर्व है ?

..सोशल राइटिंग के लिये राज्यपाल श्री भाई महावीर के हाथो मिला रेड एण्ड व्हाईट ब्रेवरी अवार्ड

और म प्र साहित्य अकादमी से मिला हरिकृष्ण प्रेमी सम्मान .

दो लक्ष्य जो आप जीवन में हासिल करना चाहते हैं ?

..कुछ शाश्वत लेखन

व निश्चिंत विश्व भ्रमण

मध्यप्रदेश के दो पर्यटन स्थल जो आपको आकर्षित करते हैं?

..नर्मदा का उद्गम अमरकंटक ,

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #87 ☆ लेखा जोखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 87 ☆ लेखा जोखा… 

मोबाइल पर ही जीवन सिमटता जा रहा। एक बार जो रील देखना शुरू कर दो तो कैसे एक से दो धण्टे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। इतने मजे से उसकी सेटिंग रहती है कि जिसको जो पसंद हो वही वीडियो लगातार मिलते जाते हैं। बीच- बीच में ज्ञानवर्द्धक बातें, किचन टिप्स, ज्योतिषी, वास्तु शास्त्र, खाने की रेसिपी, नेटवर्क मार्केटिंग से सम्बंधित ज्ञानार्जन भी होता जाता है। मन भी बड़ा चंचल ठहरा, बदल-बदल कर देखने की आदत ने इस लत को जुनून तक पहुँचा दिया है।

जब ऐसा लगता कि बहुत समय व्यर्थ कर दिया तो झट से एफ एम पर गाना लगाकर काम काज में जुट जाना और स्वयं को सुव्यवस्थित करते हुए आधे घण्टे में सारे कार्य निपटाकर पुनः तकनीकी से जुड़ जाना। अब तो पड़ोसियों की कोई जरूरत रही नहीं है, उनका सारा व्योरा स्टेटस से मिल जाता। खुद को अपडेट रखने हेतु ऐसा करना पड़ता। देश विदेश की सारी जानकारी इन्हीं रीलों के द्वारा छोटे- छोटे रूपों मिलती है। अब देश के बजट को भी समझने हेतु ऐसी ही रीलों का इंतजार है। दरसल कम में ज्यादा समझने की आदत दिनों दिन अखबार से दूर करती जा रही है। मोबाइल पर पेपर, पत्रिका सभी कुछ है। अलादीन का चिराग जैसा कार्य तो ये करता ही है। सेवा में गूगल महाराज चौबीसों घण्टे हाजिर रहते हैं।

यूट्यूब पर सचित्र बोलते हुए लोगों को देखना, सुनना, समझना कितना आसान हो चुका है। पहले टी वी पर न्यूज सुनने हेतु समय निर्धारित रहता था, अब तो जब चाहो पूरी न्यूज देख सकते हैं।सभी हाइलाइट्स जोर शोर से आकर्षण का केंद्र बनाकर बार- बार सामने आते हैं। चौराहे पर खड़े होकर बहस बाजी करने की लत दूर होकर अब सभी अपनी निगाहें मोबाइल पर टिकाए रहते हैं और पास खड़े व्यक्ति को स्क्रीन दिखाते हुए कॉपी लिंक भेज देते हैं ताकि वो भी वही देख सके जो वे देखते हैं। एक घर में चार लोग रहते हैं और चारों के फेसबुक पर अलग- अलग वीडियो व पोस्ट दिखाई देती हैं। जिसको जो पसंद होता है वो  तकनीकी एक्सपर्ट समझ जाते हैं  और उसी से मिलती हुई पोस्ट भेजना शुरू कर देते हैं।

कल्पना से परे ये तकनीकी युग दिनों दिन तरक्की कर रहा है।हर चीजें चुटकी में हासिल करने की ये आदत न जाने किस ओर ले जा रही है। बदलते वक्त के साथ सब सीखना होगा। अब तो यही लेखा- जोखा बचा था सो वो भी पूरा करना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 96 ☆ तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 96 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (16-20) ॥ ☆

सर्गः-12

 

किया राम ने भरत का अनुनय अस्वीकार।

परिवेत्ता बनने भरत हुये बहुत लाचार।।16।।

 

पितृ आज्ञा को त्यागने राम न थे तैयार।

चरणपादुका गह भरत पाये कुछ आधार।।17अ।।

 

राज्यदेवि के रूप में राम पादुका पूज।

राज चलाया भरत ने पा उनसे ही सूझ।।17ब।।

 

बनकर प्रतिनिधि राम के किया न नगर प्रवेश।

नंदि-ग्राम में रहे रख अपना तापस वेश।।18।।

 

अग्रज में दृढ़ भक्ति रख, लोभ-रहित मन साफ।

किया भरत ने प्रायश्चित माता के कृत पाप।।19।।

 

वयोवृद्ध इक्ष्वाकु नृप के कर सब आचार।

किया राम ने कम उमर में ही वन संचार।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आढावा ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आढावा ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

 (वृत्त:लवंगलता)

(मात्रा:८+८+८+४)

सारे घोडे बारा टक्के,सुभाषिताच्या पुरते….

कुणी रेसचे,कुणी रथाचे, कोणी टांग्यापुरते !

 

प्रत्येकाचे मुठभर येथे,अभाळ अपुल्यापुरते

तेज दूरच्या नक्षत्राचे, फिक्कट पायापुरते !..

 

घोडचुकांना ‘अनुभव’ ऐसे,द्यावे गोंडस नाव

नवीन सागर नवी तुफाने, पुन्हा भरकटे नाव !

 

कळपामधला मृगजळबाधित ,मृग एखादा कोणी

तृषार्त अंती उरि फुटण्याची, सांगे शोककहाणी !

 

स्मरणऋतूंच्या ओलस हळव्या,उरास भिडती लहरी

उत्तररात्री गजबजते ती , अवशेषांची नगरी !……….

 

दहा दिशांचे शाहिर गाती, दिग्विजयाची गाणी

झुंजारांच्या शोकांताची, सांगे कोण कहाणी ?

 

दूत युगांचा क्षण भाग्याचा ,अवचित येई दारा

अनाहुताला वर्ज्य उंबरा, विन्मुख क्षण माघारा!

 

कधी दुजांच्या बंडाचाही, झेंडा हाती घ्यावा

हतभाग्यांस्तव यावा कंठी, आभाळाचा धावा !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 98 – आई माझी मी आईचा…. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #98  ?

☆ आई माझी मी आईचा…. 

(वृत्त- समुदितमदना वृत्त  = ८ ८ ८ ३)

कधी वाटते लिहीन कविता आईवरती खरी

शब्द धावुनी येतील सारे काळजातल्या घरी

सुख दुःखाचे तुझे कवडसे शोधत राहू किती

कसे वर्णू मी आई तुजला आठवणींच्या सरी

 

आई माझी सुरेल गाणे ऐकत जातो कधी

राग लोभ ते जीवन सरगम सुखदुःखाच्या मधी

कोरा कागद लेक तुझा हा टिपून ‌घेतो तुला

आई माझी मी आईचा हा सौख्याचा निधी

 

आई माझी वसंत उत्सव चैत्र पालवी मनीं

झेलत राही झळा उन्हाच्या हासत जाते क्षणी

क्षण मायेचा बोल तिचा मी शब्द फुलांचा तुरा

घडवत जाते आई मजला यशमार्गाचा धनी

 

आई आहे अखंड कविता माया ममता जशी

शब्द सरीता वाहत जाते ओढ नदीला तशी

ओली होते पुन्हा पापणी वाहत येतो झरा

सुंदर कविता आईसाठी लिहू कळेना कशी

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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