मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- 17 – भाग 1 – शांतिनिकेतन ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- 17 – भाग 1  ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ शांतिनिकेतन ✈️

कोलकत्याहून शांती निकेतन इथे पोचायला पाच तास लागले. शांतिनिकेतन परिसरातील गेस्ट हाऊसमध्ये आमची राहण्याची व्यवस्था केली होती. अनेक प्रकारच्या वनस्पती आणि मोहक रंगाच्या फुलझाडांनी बहरलेली झाडे, काटकोनात वळत जाणारे गेस्ट हाऊस शांत आणि शीतल होते. मागच्या बाजूला खळाळत येणारा एक ओढा होता .त्याचे पाणी अतिशय स्वच्छ आणि नितळ होते . ओढ्याचा तळ, तळातील खडे गोटे शेवाळे, छोटे छोटे मासे सहज दिसत होते. दुपारी शांतिनिकेतन पाहायला निघालो. शांतिनिकेतनचा परिसर विस्तीर्ण आहे. नोबेल पुरस्कार मिळवणारे श्रेष्ठ साहित्यिक रवींद्रनाथ टागोर यांना त्यांच्या गीतांजलीसाठी नोबेल पारितोषिक मिळाले होते. आकाशाच्या छताखाली आंबा, सप्तपर्णी ,शाल,बकुळअशा वृक्षांच्या दाट सावलीत तिथे पूर्वी शाळा कॉलेजांचे वर्ग भरत असत. झाडांना बांधलेल्या पाराजवळ शिक्षकांचे आसन फळा खडू आणि विद्यार्थ्यांसाठी बैठी आसने अशी त्याकाळची शिक्षण व्यवस्था बघायला मिळाली

रवींद्रनाथांचे घराणे पिढीजात जमीनदारांचे! त्यांचे वडील देवेंद्रनाथ जमिनींच्या कामासाठी फिरत असताना त्यांना बोलपुर जवळील हा उजाड माळ दृष्टीस पडला. त्यांनी तो माळ विकत घेऊन तिथे घर बांधले व त्याला शांतिनिकेतन असे नाव दिले. या घरांमध्ये रवींद्रनाथांनी १९०१ मध्ये चार पाच विद्यार्थ्यांना घेऊन गुरुकुल पद्धतीचे शिक्षण देणारी शाळा काढली. चार भिंतीतील पुस्तकी शिक्षणापेक्षा निसर्ग सान्निध्यातील जीवनदायी शिक्षण मुलांना माणूस म्हणून घडविण्यासाठी सुयोग्य आहे अशी त्यांची धारणा होती. या मूळ वास्तूमध्ये आता भारतीय भाषा विभाग आहे. आश्रम शाळेचे आज जगप्रसिद्ध विश्व भारती विद्यापीठ झाले आहे. विश्वभारती मध्ये पौर्वात्य व पाश्चिमात्य संस्कृतीचा मिलाप आहे. भारतीय परंपरा आणि संस्कृती बरोबरच पाश्चिमात्य संस्कृतीत उत्तम घटकांना या शिक्षणात सामावून घेतले आहे. चिनी जपानी फारसी इस्लामिक अशा आंतर्राष्ट्रीय शिक्षणाचे संशोधनाचे कलेचे ते महत्वपूर्ण केंद्र आहे .प्राचीन गुरुकुल परंपरेचा वारसा सांगणारे, निसर्गाशी सुसंवाद राखणारे, मानवी जीवन मूल्यांचा आदर राखणारे असे वैविध्यपूर्ण शिक्षण दिले जाते. जगभरातील विद्यार्थी शिक्षणासाठी येतात तसेच सार्‍या जगातून लोक या विद्यापीठाला भेट देण्यासाठी येत असतात.

मूळ वास्तू बाहेर प्रसिद्ध शिल्पकार भास्कर रामकिंकर यांनी साकारलेले एक वेगळेच शिल्प आहे. निर्वाण शिखा असे या कलाकृतीचे नाव आहे त्यावर जेव्हा ऊन पडते तेव्हा त्याची लांब मोठी सावली जमिनीवर पडते. एक माता बालकाला हातात धरून ईश्वराकडे मंगल प्रार्थना करीत आहे असे दृश्य त्या सावलीतून साकार होते. तिथून प्रार्थना सभागृह पाहिले. आता या काच सभागृहात प्रार्थना व कर्तृत्ववान व्यक्तींच्या निधनानंतर शोकसभा घेतली जाते. इथेच मातीच्या भिंती आणि छप्पर असलेले एक वर्तुळाकार घर आहे. रवींद्रनाथांनी तिथे महिलांसाठी हस्तकलेचे शिक्षण देणारे वर्ग सुरू केले होते. आता हे हस्तकला केंद्र दुसऱ्या इमारतीत आहे. आम्रवृक्ष वेढलेल्या परिसरात पदवीदान समारंभाच्या मंच बांधलेला आहे. यशस्वी पदवीधर विद्यार्थ्यांना पदवी बरोबरच इथे असलेल्या सप्तपर्णी वृक्षाची फांदी भेट देण्याची प्रथा आहे.१९३४ मध्ये महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरूंसह शांतिनिकेतन ला भेट दिली होती. त्यावेळी इंदिराजीही त्यांच्याबरोबर होत्या. नंतर काही काळ त्या तेथील विद्यार्थिनी होत्या. भारताचे पंतप्रधान हे विश्व भारती विद्यापीठाचे कुलगुरू असतात व त्यांच्या हस्ते पदवीदान समारंभ होतो.

ऑक्सफर्ड विद्यापीठाने १९४० साली रवींद्रनाथांना डि.लीट ही पदवी दिली तो पदवीदान समारंभ या इमारतीत झाला. या इमारतीच्या टॉवरवर मोठे घड्याळ आणि घंटा आहे. एका अष्टकोनी वास्तूला विनंतीका असे नाव आहे. सायंकाळी सर्व अध्यापकांनी इथे चहापानासाठी एकत्र जमून अनौपचारिक गप्पा माराव्यात अशी गुरुदेवांची कल्पना होती. तिथेच रवींद्रनाथांना सुचलेली चहा ही कविता भिंतीवर विराजमान आहे. चीन संस्कृती व परस्पर संबंधाचा अभ्यास होतो इथल्या भिंतीवर सत्यजित रे ,प्रभास असें नामवंतांनी चितारलेली सुंदर पेंटिंग. आहेत. त्या शिवाय संगीत भवन कला भवन नृत्य नाट्य भवन विज्ञान भवन अशा अनेक वस्तू आहेत तीन लाखांहून अधिक पुस्तके असलेले केंद्रीय ग्रंथागार आहे शेतकी कॉलेज आहे तसेच आधुनिक काळाला अनुसरून कम्प्युटर सेंटरही आहे अनेक नामवंतांची शिल्पे मिरज पेंटिंग आहेत रवींद्रनाथांनी प्रमाणेच सत्यजित रे नंदलाल बोस राम बिहारी मुखोपाध्याय अशा नामवंतांच्या कलाकृती इथे आहेत

भाग-1 समाप्त

 

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #113 – गीतिका – रोटियाँ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय गीतिका “रोटियाँ….”)

☆  तन्मय साहित्य  #113 ☆

☆ गीतिका – रोटियाँ….

कितना अहम सवाल हो गई है रोटियाँ

सुबहो शरण दी पेट में फिर शाम रोटियाँ।

 

जंगल में इसी बात पे पंचायतें जुटी

क्यों शहर में ही सिर्फ बिक रही है रोटियाँ।

 

फुटपाथ के फकीर ने उठते ही दुआ की

अल्लाह आज भी दिला दो चार रोटियाँ।

 

मजदूरनी के पूत ने रोते हुए कहा

छाती में नहीं दूध माँ कुछ खा ले रोटियाँ।

 

कचरे में ढूँढते हुए भारत का वो भविष्य

उछला खुशी से फेंकी हुई देख रोटियाँ।

 

संसद में मानहानि का गंभीर था सवाल

क्यों व्यर्थ ही चिल्ला रहे कुछ लोग रोटियाँ।

 

देहलीज से निकल के कहाँ लापता हुई

है संविधान ला दे मुझे मेरी रोटियाँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-12 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 12 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत मोबाइल में बात करने का दिखावा करते हुये सन्मति को नज़रअंदाज करते हुये क्रास कर गया पर दस कदम के बाद ही उसे Don’t use mobile here की आवाज़ सुनाई दी तो वो पीछे मुड़ा.

डॉक्टर सन्मति ने उसे देखकर कुछ याद करने की कोशिश की, फिर उसे यू ट्यूब में पोस्ट किसी कंपनी की वीडियो पोस्ट याद आई जिसने असहमत के जॉब इंटरव्यू को पब्लिक ओपीनियन के लिये पोस्ट कर दिया था और वीडियो को 1.2 मिलियन बार देखा जा चुका था. लाईक और डिस्लाईक में 20-20 का मैच चल रहा था. जो लिबरल, मस्तमौला और innovative थे, वो चाहते थे कि अपाइंटमेंट के बदले असहमत को कंपनी का ब्रांड एंबेसडर बना दिया जाय जबकि कंसरवेटिव सोच के धनी ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिये पहले असहमत को अस्थायी नियुक्ति देकर, महीने भर उसका अवैतनिक उपयोग कर बाद में not suitable to handle marketing का टैग लगाकर कंपनी से बाहर करने के कमेंट लिख रहे थे.

शायद सन्मति को यही वीडियो क्लिप याद रही और इस महान आत्मा को रूबरू पाकर ओंठो पर हल्की मुस्कान आ गई. न केवल असहमत बल्कि पाठकों के भ्रम को दूर करने के लिए कहना आवश्यक है कि यह मुस्कान असहमत की स्पष्टवादिता और अक्खड़पन से उपजी मुस्कान थी. ये तो बाद में पता चला कि once upon a time, असहमत और सन्मति same class की zoology lab.  में dissection के लिये एक ही प्रजाति के मेंढक शेयर किया करते थे, हालांकि टेबल अलग अलग थीं पर अर्ध बेहोश मेंढक, डिसेक्शन के अस्त्रों से घायल होकर अक्सर उछलकर दूसरी पंक्ति की टेबल पर जाकर silent zone को चेलेंज कर देते थे और लैब पहले चीखना और फिर प्रतिक्रियात्मक हंसी के कहकहों से गुलज़ार हो जाया करती थी.

असहमत का मोबाइल इस बार फिर बजा, इस बार दूसरी ओर पिताजी थे जो उसके इस तरह अचानक गोल हो जाने पर उसे पुलसिया धमकी की डोज़ दे रहे थे. असहमत ने सन्मति के बिना मांगे ही फिर मिलने का वचन देकर विदा ली.

क्रमशः….

**कहानी जारी रहेगी**

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – आत्मकथा  ??

बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।

उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’

कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 6 – नव वर्ष मुबारक हो — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नव वर्ष के आगमन पर आपकी एक भावप्रवण रचना “नव वर्ष मुबारक हो –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 6 ✒️

? गीत – नव वर्ष मुबारक हो —  डॉ. सलमा जमाल ?

पाहुने नव वर्ष ,

तुम आते हो प्रति वर्ष ।

बारह माह रहकर ,

सदा चले जाते हो सहर्ष ।।

 

फिर मानव वर्ष भर का ,

करता है लेखा-जोखा ।

कितना पाया सत्य और ,

कितना पाया धोखा ।।

 

पिछले वर्ष ने हमें ,

झकझोर कर रख दिया ।

एक के बाद एक क्षति ,

करोना ने क्रियान्वित कर दिया ।।

 

जाओ अतिथि अब ,

बहुत हो गया अहित ।

अतीत के क्रूर दृश्यों से ,

हृदय अब तक है व्यथित ।।

 

स्थान करो रिक्त ताकि ,

नवागंतुक के स्वागत का ।

पांव पखार, टीका वन्दन ,

करें सब तथागत का ।।

 

हे बटोही आगामी वर्ष के ,

तुम कर्मयोगी बन कर आओ।

देश की मां बहनों की ,

अस्मत लुटने से बचाओ ।।

 

छोटी दूध मुहीं बच्चियां ,

ना हो तार – तार ।

निरीह माताएं ना रोए ,

अब ज़ार – ज़ार ।।

 

सृजन कर्ता हो सके तो ,

यमदूत बन कर आओ ।

अन्याय, अपराध, भ्रष्टाचार,

बलात्कार को लील जाओ ।।

 

आतंकवाद, भाषावाद, धर्म वाद ,

सांप्रदायिकता का करो अन्त।

ऐसा सुदर्शन चलाओ ,

मिटें सारे पाखंडी संत ।।

 

भारत में बहे पुनः ,

दूध की नदियां ।

युवाओं में हों संस्कार ,

और निर्भीक हो बेटियां ।।

 

शिक्षा , संस्कार , मूल्य ,

ईमानदारी की हो स्थापना ।

हर युवा करे माता-पिता ,

एवं बुजुर्गों की उपासना ।।

 

जनता मिटा दे राजनीतिज्ञों ,

के झूठे व गन्दे खेल ।

हिंदू मुस्लिम सभी धर्मों की,

संस्कृतियों का हो जाए मेल।।

 

भारत माँ  का रक्त से ,

करो श्रंगार टीका वंदन ।

कन्याओं के जन्म पर हो ,

उनका शत्- शत् अभिनंदन।।

 

 है प्रिय  नवागन्तुक ,

तब लगेगा नव वर्ष आया ।

तुम्हारे स्वागत में हमने ,

पलक पांवड़ों को है बिछाया।।

 

‘सलमा’ सभी को मुबारक ,

आया हुआ यह नूतन वर्ष ।

अंधेरों से निकलो दोस्तो ,

प्रकाश में नहाकर मनाओ हर्ष।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – salmakhanjbp@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ पुस्तक चर्चा – महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ 

पुस्तक – महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास ( पौराणिक काल से आधुनिक युग तक)

लेखक – श्री सुरेश पटवा

प्रकाशक – वंश पब्लिकेशन, भोपाल 

मूल्य – रु.500/- हार्ड कवर 

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ “महाकौशल-गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास : रोचक शोधपरक कृति” – डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ 

हाथों में है, श्री सुरेश पटवा की कृति “महाकौशल -गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास” की पांडुलिपि। आँखों में तैर रहा है अतीत। हाँ, लगभग तीस बरस पहले भेंट हुई थी श्री पटवा जी से, और उन्हें बुद्धिमान, कर्मठ, संवेदनशील बैंक अधिकारी के रूप में जाना। श्री पटवा के व्यवहार से उनकी साहित्यिक, सांस्कृतिक रूचि भी प्रकट हुई। किंतु वे लेखक हैं या हो सकते हैं इस तरह की कोई आशंका या सम्भावना दूर-दूर तक लापता थी। विचित्र किंतु सत्य की भाँति पिछले तीन बरस में सात पुस्तकों के प्रकाशन और पाठकों द्वारा पसंदगी ने उनके लेखक रूप की मुनादी कर दी। और -अब “महाकौशल-गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास”।

बहुधा लोग हिमालय की चोटियों, घाटियों, नदियों, तराई के जंगलों के प्रति आकर्षित होते हैं, पर्यटन की योजना बनाते हैं। किंतु सतपुड़ा और विंध्याचल वृष्टिछाया में रह जाते हैं। जिज्ञासु प्रकृति, शोधप्रिय, पर्यटन प्रेमी और अध्ययनशील पटवा जी बाल्यकाल से उन संस्कारों से प्रेरित होते रहे, जो उन्हें देनवा के तट पर जन्मने तथा देनवा और पलकमती की रेत पर खेलते, नहाते, चटनी रोटी खाते और किताबों को पढ़ते हुए एक स्वप्नलोक रचता था- पहाड़ों का पहाड़ा पढ़ने का स्वप्न।

राजा मदन सिंह के संदर्भ में इतिहासकारों में मतभेद है किंतु गोंडवंश के प्रतापी राजा संग्राम सिंह का अस्तित्व सभी ने स्वीकार किया है और यह भी कि उनके पुत्र दलपत शाह का विवाह दुर्गावती से हुआ। दुर्गावती के पिता कौन थे- महोबा के राजा शालिवाहन या कालिंजर के कीर्तिसिंह, इस प्रश्न पर भी विद्वान एकमत नहीं है। इस सम्बंध में पटवा जी ने शोधपूर्ण लेखन को प्रधानता दी है।

श्री सुरेश पटवा 

संग्राम सिंह के बारे में किंवदंतियों के बजाय उन्होंने शोधपूर्ण लेखन को प्राथमिकता दी है। इससे पुस्तक की प्रामाणिकता पुष्ट हुई है। दुर्गावती का विवाह सिंगौरगढ़ में हुआ था, वहीं संग्राम शाह और दलपत शाह की मृत्यु हुई और वीरनारायण सिंह का जन्म हुआ था। भारत सरकार के संस्कृति विभाग ने सिंगौरगढ़ और परिवेश के सज्जा के लिए अभी-अभी 26 करोड़ रुपए देना मंज़ूर किए हैं। इससे सिंगौरगढ़ की महत्ता को समझा जा सकता है। मदनमहल के बारे में भ्रांतियाँ हैं। यह एक ऐसी छोटी इमारत है जो चट्टान पर बनी है। इसका उपयोग सुरक्षा चौकी या ग्रीष्म काल में विश्राम स्थल के रूप में किया जाता रहा होगा। यह न तो महल है और न महल जैसा आयतन और न सुविधा।

अभी तक इस क्षेत्र का सिलसिलेबार सम्पूर्ण इतिहास रोचक ढंग से नहीं लिखा गया है। आधे-अधूरे फुटकर वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। वे भी बिना किसी प्रामाणिकता के। महाकोशल और गोंडवाना का प्रामाणिक इतिहास जिस तरह से एक ओजपूर्ण रोचक शैली में श्री पटवा ने संयोजित किया है। वह आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने क्षेत्र के इतिहास को जानने समझने का एक उत्तम साधन रहेगा।

श्री सुरेश पटवा जी ने अपनी प्रकृति के अनुकूल बौद्धिक चातुर्य से सतपुड़ा, गोंडवाना, महाकौशल और पूरे क्षेत्र का किताबों और घुमंतू तरीक़ों से अनुसंधान करके एक उत्कृष्ट कृति “महाकौशल -गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास” रची है।

चौरागढ़ भी गोंड राज्य की राजधानी रही है। मेरे पूर्वज जब उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश आए तब उन्हें चौरागढ़ क़िले में ही आश्रय और राजगुरु का मान मिला था। इस क़िले को देखकर यह नहीं लगता कि उसका निर्माण संग्राम शाह ने कराया होगा। पटवा जी ने सभी दृष्टियों से महाकौशल के इतिहास के संदर्भ भी वर्णित किए हैं। आलेख खोजपूर्ण है।

डॉ.राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
112 सराफ़ा, सेठ चुन्नीलाल का बाड़ा, सिटी कोतवाली के पास, जबलपुर (म.प्र.)
मो 9981814539

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #90 – गांधी संस्मरण – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ गांधी संस्मरण के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  के महत्वपूर्ण संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #90 – गांधी संस्मरण – 1 ☆ 

गांधीजी की धर्म यात्रा

नोआखली अब बांग्लादेश में है और गुलामी के दिनों में यह क्षेत्र पूर्वी बंगाल का एक जिला था, जहां 80% आबादी मुस्लिमों की थी। जिन्ना की मुस्लिम लीग की सीधी  कारवाई या डायरेक्ट एक्शन के आह्वान पर यहां ग्रामीण इलाकों में दंगे हुए। दस अक्टूबर 1946 को शुरू हुए दंगे, जो लगभग एक सप्ताह चले, के दौरान मुस्लिम लीग के गुंडों का आतंक  हिंदुओं पर कहर बन कर टूट पड़ा।  यहां के निवासी हिन्दू जमींदार थे या व्यवसाई, उनके साथ कौन सा ऐसा जुल्म था जो नहीं हुआ। हत्या, बलात्कार , आगजनी, संपत्ति का लूट लेना सब कुछ हुआ , स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया। स्त्रियों के ऊपर बलात्कार हुए उनके अंग भंग कर कुएं में फेक दिया गया।  इस सांप्रदायिकता से बचने के लिए हिंदुओं ने वहां से पलायन कर दिया। बीस अक्टूबर तक जब नोआखली से दंगा पीड़ित कलकत्ता पहुंचे तब देश को इस विभीषिका का पता चला।  गांधीजी को जब यह सब समाचार मिले तो वे  नोआखली जाने के लिए व्यग्र हो उठे। उन्होंने कांग्रेस के नेता आचार्य कृपलानी और उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी को तत्काल नोआखली के लिए रवाना किया और उनकी रिपोर्ट मिलते ही स्वयं के वहां जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी।  और फिर गांधीजी 29 अक्टूबर 1946 को कलकत्ता पहुँच गए। उनका कलकत्ता आगमन मुस्लिम लीग के गुंडों को पसंद नहीं आया। उन्होंने गांधीजी को हतोत्साहित करने की खूब कोशिश की। बंगाल के मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी तो उनके नोआखली जाने के सख्त खिलाफ थे। पर गांधीजी तो किसी और मिट्टी के बने थे। मुस्लिम लीग के गुंडों के द्वारा पेश की गई अड़चनों, हमलों आदि ने भी उन्हे कर्मपथ से विचलित होने नहीं दिया। वे कलकत्ता में सबसे मिले स्थिति का जायजा लिया और फिर वहां से पूर्वी बंगाल निकल गए जहां विभिन्न ग्रामों में होते हुए अपने दल के साथ 20 नवंबर 1946 को श्रीरामपुर पहुंचे।  यहां से उन्होंने अपने दल के साथियों को अलग गांवों में भेज दिया।

श्रीरामपुर में रहते हुए गांधीजी ने बांग्ला भाषा सीखने का प्रयास शुरू कर दिया और उनके गुरू बने प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस। इस गाँव में रहते हुए गांधीजी ने रोज आस पास के गांवों में पैदल जाना शुरू किया, ताकि पीड़ितों को ढाढ़स बँधाया जा सके। पूर्वी बंगाल, नदियों के मुहाने में बसा हुआ क्षेत्र है।  यहां एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए नालों को पार करना होता था और इस हेतु बांस की खपच्चियों के बनाए गए अस्थाई पुल एक मात्र सहारा थे। इन पुलों पर चलना आसान न था। फिर भी गांधीजी ने धीरे धीरे इन पुलों पर चलने का अभ्यास किया। गांधीजी का भोजन उन दिनों कितना था ? पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि गांधीजी मौसम्बी का रस या नारियल के पानी के अलावा एक पाव बकरी का दूध, उबली  हुई सब्जी व जौ, कभी कभी खाखरा और अंगूर तथा रात में कुछ खजूर लेते थे और इस भोजन की कुल मात्रा 150 ग्राम ( दूध के अलावा) से अधिक नहीं होती थी।

गांधीजी अढ़ाई महीने  तक नोआखली में रुके और इस दौरान लगभग 200 किलोमीटर बिना चप्पल के नंगे पैर पैदल चलकर पचास गांवों में लोगों से मिले, उनके घावों में मलहम लगाया, उनके दुखदर्द सुने और उनके आत्मबल को मजबूत करने का प्रयास किया। गांधीजी की यह यात्रा धर्म की स्थापना की यात्रा थी और इस यात्रा का वर्णन पढ़ने से गांधीजी के तपोबल का अंदाज होता है।

जब गांधीजी नोआखली पहुँच गए तो मनुबहन गांधी, जो उन  दिनों सूदूर गुजरात में थी, को इसकी खबर लगी। वे बापूजी के पास जाने को व्यग्र हो उठी।  गांधीजी और मनु बहन व उनके पिता जयसुखलाल गांधी के बीच पत्राचार हुआ और अंतत: मनु बहन 19 12.1946 को श्रीरामपुर, गांधीजी के पास पहुँच गई। वे 02 मार्च 1947 तक गांधीजी के साथ इस यात्रा में शामिल रही और इस दौरान उन्होंने गांधीजी की दैनिक डायरी लिखी। इस डायरी को गांधीजी रोज पढ़ते थे और अपने हस्ताक्षर करते।  मनु बहन की यह डायरी बाद में नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद द्वारा 1957 में पहली बार प्रकाशित हुई नाम दिया गया एकला चलो रे – (गांधी जी की नोआखली की धर्म यात्रा की डायरी)

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (16-20) ॥ ☆

जग की रचना, भरण औं है कर्त्ता – संहार

त्रिविध देन हम सबों का नमन तुम्हें कई बार ॥ 16॥

 

ज्यों नभ का जल एक है, स्थान स्थान पै भिन्न

त्यों सत – रज – तम गुण सहित है कई आप अभिन्न ॥ 17॥

 

सतत सर्वपरिव्याप्त प्रभु अक्षर, अर्जित, असीम

सूक्ष्म रूप इस विश्व के कारण व्यक्त ससीम ॥ 18॥

 

हे प्रभु होते हृदय में भी रहते हो दूर

अजर, अनघ, तप, दयामय, ममता से भरपूर ॥ 19॥

 

हे प्रभु तुम सर्वज्ञ हो, तुम सबके आधार

स्वयंभूत सर्वेश तुम, सबमें सभी प्रहार ॥ 20॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आताशा… ☆ श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आताशा… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

धुंद धारांचा मनस्वी ,

जोरही सरला आताशा.

 

बेधुंद नाचणारा मनीचा,

मयूरही थकला आताशा .

 

क्षीण झाले चांदणे अन्

चंद्रही लोपला आताशा .

 

जीर्ण झावळ्यांचे कवडसे ,

वृक्षही झुकले आताशा .

 

लुप्त झाली पाखरे,

हरवले वारे आताशा .

 

नभ झाले निरभ्र सारे,

नीरदही गुप्त आताशा .

 

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 114 ☆ निरोप ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 114 ?

☆ निरोप ☆

सरत्या वर्षाचा निरोप घेताना,

मनात दाटून येताहेत ,

कितीतरी आठवणी……

या विषाणूंनी शिकवलंय बरंच काही,

पण मनातल्या विषवल्ली,

अजून तग धरून

काहीजणांच्या!

 

कटू गोड  क्षणांचा एक डोह,

मनात तुडुंब भरलेला!

सोडून द्यायचे काही…काही जपायचे,

मोरपीसासारखे!

सरत्या वर्षाचा निरोप घेताना,

मन प्रगल्भ व्हायला हवं,

जायलाच हवं सामोरं,

पेलायला हवीत काळाची आव्हानं,

निरोप गतकाळाचा घेताना,

व्हायलाच पाहिजे अधिक धीट,

खंबीर आणि जागरूक ही !

 निरोप द्यायलाच हवा,

 नैराश्याला, उदासीनतेला!

आणि आभार मानायलाच हवेत,

गतवर्षाने बहाल केलेल्या,

जिवंतपणाला !!

सरत्या वर्षाला निरोप घेताना…..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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