English Literature – New Book ☆ CULTIVATING HAPPINESS: A Guide to Practices that do Wonders ☆ Mr. Jagat Singh Bisht

☆ CULTIVATING HAPPINESS: A Guide to Practices that do Wonders – By Jagat Singh Bisht ☆

I am happy to share with the readers and writers of e-abhivyakti that I have published a book CULTIVATING HAPPINESS: A Guide to Practices that do Wonders on Amazon.

Below you will find basic information about the book and you can also preview some chapters of the book.

A short video about the book:

(Mr. Jagat Singh Bisht)

YouTube Link  >>>  CULTIVATING HAPPINESS: A GUIDE TO PRACTICES THAT DO WONDERS – YouTube

About the book:

A right understanding of happiness and well-being, and the pathways to achieve them is the subject matter of the book.

You will discover inside, a unique confluence of positive psychology, yoga, laughter yoga, meditation, and spirituality.

It outlines twelve set of proven practices that are known to do wonders.

Each chapter begins with a description of the practice, takes you through step-by-step instructions on how to do it, and provides deep insights from experienced practitioners.

The practices covered include:

Evidence based happiness activities from the modern science of happiness,

Experiencing flow in life,

Nurturing positive relationships,

Taking care of mind, body, and soul, through yoga, meditation, and the Five Tibetans,

And how to find meaning and cultivate spirituality.

You can transform your life by adopting these wonderful practices.

Preview of the book:

This is a free preview of the book. Just click on the link, then the book cover, and flip through the pages. You can read from the pages of the book:

Amazon Kindle Link: >>>>  Book preview: CULTIVATING HAPPINESS

Book description:

LEARN PRACTICES TO FIND MEANING, PEACE AND WELL-BEING

You can change your life if you have the right understanding and adopt proven practices for creating happiness. This is a comprehensive guide on the art of living and the science of being, based on years of study and practical sessions. It includes a step-by-step guide to twelve sets of exercises and a treasure trove of timeless wisdom.

The book is a unique confluence of positive psychology, laughter yoga, yoga, meditation, and spirituality. It is the right place for beginners to take the first steps and for the advanced learners to add more skills to their repertoire. You will experience cheerful health, authentic happiness, and everlasting peace once you adopt these practices.

Mr. JAGAT SINGH BISHT

Author, Blogger, Laughter Yoga Master Trainer, Behavioural Science Trainer, and National Science Talent Scholar.

Founder: LifeSkills

He is a Laughter Yoga Master Trainer of international repute and has been propagating happiness and well-being among people for the past twenty years. He served in a bank for thirty-five years and has published four books.

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆

पाताल भुवनेश्वर चूना पत्थर की एक प्राकृतिक गुफा है, जो अल्मोड़ा जिले के बिनसर ग्राम, जहां क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम रुके हैं, से 115 किमी दूरी पर स्थित है। हमें आने जाने में लगभग आठ घंटे लगे और गुफा व आसपास दर्शन में दो घंटे। रास्ता कह सकते हैं कि मोटरेबिल है। लेकिन चीढ और देवदार से आच्छादित कुमांयु पर्वतमाला मन मोह लेती है और बीच बीच में हिमालय पर्वत की नंदादेवी चोटी के दर्शन भी होते हैं। हिमाच्छादित त्रिशूल चोटी को देखना तो बहुत नयनाभिराम दृश्य है। यह चोटी बिनसर वैली रिसार्ट से भी दिखती है। इस गुफा में धार्मिक तथा पौराणिक  दृष्टि से महत्वपूर्ण कई प्राकृतिक कलाकृतियां हैं, जो कैल्शियम के रिसाव से बनी हुई हैं। यह गुफा भूमि से काफी नीचे है, तथा सामान्य क्षेत्र में फ़ैली हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस गुफा की खोज अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्णा ने त्रेता युग में की थी । एक अन्य पौराणिक कथा, जिसका वर्णन स्कंदपुराण में है, के अनुसार स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं। यह भी जनश्रुति  है कि राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित 33 कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये थे। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया नाम दिया नर्मदेश्वर शिवलिंग।

गुफा के अंदर जाने के लिए बेहद चिकनी  सीढ़ियों व  लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है । संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है। गुफा की दीवारों से पानी रिसता  रहता है जिसके कारण यहां के जाने का  हलके कीचड व फिसलन से भरा  है। गुफा में शेष नाग के आकर का पत्थर है उन्हें देखकर ऐसा  लगता है जैसे उन्होंने पृथ्वी को पकड़ रखा है। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक शिवलिंग है जो जिस धरातल पर स्थापित है उसे पृथ्वी कहा गया है, इस शिवलिंग के विषय में मान्यता है कि यह लगातार बढ़ रहा है और जब यह शिवलिंग गुफा की छत, जिसे आकाश का स्वरुप माना गया है, को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी।

कुछ मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने क्रोध के आवेश में गजानन का जो मस्तक शरीर से अलग किया था, वह उन्होंने इस गुफा में रखा था। दीवारों पर हंस बने हुए हैं जिसके बारे में ये माना जाता है कि यह ब्रह्मा जी का हंस है। इस स्थल के नजदीक ही पिंडदान का स्थान है जहां कुमायूं क्षेत्र के लोग पितृ तर्पण करते हैं। एवं इस हेतु जल भी इसी स्थान पर से रिसती हुई धारा से लेते हैं।गुफा के अंदर एक हवन कुंड भी है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनमेजय ने नाग यज्ञ किया था जिसमें सभी सांप जलकर भस्म हो गए थे। एक अन्य स्थल पर पंच केदार की आकृति उभरी हुई है।‌कैलशियम के रिसाव ने ऐसा सुंदर रुप धरा है कि वह साक्षात शिव की जटाओं का आभास देता है।इस गुफा में एक हजार पैर वाला हाथी भी बना हुआ है। और भी अनेक देवताओं की तथा ऋषियों की साधना स्थली इस गुफा में है। अनेक गुफाओं में जाना संभव भी नही है । गुफा में मोबाइल आदि भी नहीं ले जा सकते थे, इसलिए छायाचित्र लेना भी सम्भव नहीं हो सका।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆ सब राह में खो गए ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सब राह में खो गए। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆

☆ सब राह में खो गए

जिंदगी गुजर गयी एक अच्छे कल की तलाश में,

एक दूसरे से सब कोसों दूर हो गए,

जीवन में सब आगे बढ़ते रहे मगर एक दूसरों को भूलते गए,

पीछे मुड़कर देखा तो पाया अपने सब ना जाने कहाँ बिछड़ गए ||

जिंदगी इतनी जल्दी बीत जाएगी अहसास ना था,

जिंदगी के उतार चढ़ाव में कितने मंजर देखे,

मुड़ कर जो देखा तो जिंदगी धुंधली नजर आई,

दादा-दादी नाना-नानी माता-पिता सब राह में कहीं खो गए ||

जीवन बहती नदियों सा बहता रहा,

पैसा शोहरत सब कुछ हासिल हुआ जिंदगी में,

मगर बहुत कुछ खो दिया इस जिंदगानी में,

जिंदगी में कुछ ना बचा बस आँखों में आंसू रह गए ||

अब कौन आंसू पोंछे, कौन मेरी तकलीफ समझे,

खुशनुमा था बचपन जहां पड़ौसी भी अपने थे,

माँ, दादी-नानी की ममता में जादु का अहसास था,

जादुई स्पर्श का अहसास करा सब ना जाने कहाँ चले गए ||

अब तो हम खुद जिंदगी की शाम में पहुंच गए,

दिल भर आया जब देखा सब अपने रिश्तेदारों में तब्दील हो गए,

खुद का शरीर भी समय देख कर बदल गया,

ढलती उम्र देख आँख-दांत गुर्दे-दिल सब साथ छोड़ते चले गए ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३९॥ ☆

 

पादन्यासैः क्वणितरशनास तत्र लीलावधूतै

रत्नच्चायाखचितवलिभिश चामरैः क्लान्तहस्ताः

वेश्यास त्वत्तो नखपदसुखान प्राप्य वर्षाग्रबिन्दून

आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान कटक्षान॥१.३९॥

वहां चरण निक्षेप से क्वणित रसना

जड़ित चँवरधारे , थके हाथ वाली

नखक्षत सुखद मेहकण पा लखेंगी

भ्रमर पंक्ति नयना तुम्हें देवदासी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 84 – इलाहींच्या आठवणी…. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

(जन्म – 1 मार्च 1946 मृत्यु – 31 जनवरी 2021)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 84 ☆

☆ इलाहींच्या आठवणी…. ☆

एकतीस जानेवारीला सुप्रसिद्ध गजलकार इलाही जमादार आपल्यातून निघून गेले. आणि मनात अनेक आठवणी जाग्या झाल्या…… तेवीस जानेवारीला मी त्यांना फोन केला होता तेव्हा त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, मी म्हटलं, मी प्रभा सोनवणे, मला इलाहींशी बोलायचं आहे….त्यांनी इलाहींकडे फोन दिला, तेव्हा ते अडखळत म्हणाले, “आता निघायची वेळ झाली ……पुढे बोललेली दोन वाक्ये मला समजली नाहीत….मग त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, त्या म्हणाल्या “आता त्यांना उठवून खुर्चीत बसवलं आहे, तब्बेत बरी आहे आता.”…..त्या नंतर सात दिवसांनी ते गेले!

मला इलाहींची पहिली भेट आठवते, १९९३ साली बालगंधर्व च्या कॅम्पस मधून चालले असताना अनिल तरळे या अभिनेत्याने माझी इलाहींशी ओळख करून दिली, मी इलाहीं च्या गजल वाचल्या होत्या, इलाही जमादार हे गजल क्षेत्रातील मोठं नाव होतं, मी त्यांच्यावरचा एक लेख ही त्या काळात वाचला होता, दारावरून माझ्या त्यांची वरात गेली मेंदीत रंगलेली बर्ची उरात गेली.. आता कशास त्याची पारायणे “इलाही’ माझीच भाग्यरेषा परक्या घरात गेली हा त्या लेखात उद्धृत केलेला शेर मला खुप आवडला होता, मी तसं त्यांना त्या भेटीत सांगितलं….कॅफेटेरियात आम्ही चहा घेतला, आणि इलाहींनी त्यांच्या अनेक गज़ला ऐकवल्या, मी खुपच भारावून गेले होते. त्यांनी मलाही कविता ऐकवायला सांगितलं तेव्हा मी पाठ असलेल्या दोन छोट्या कविता ऐकवल्या, त्यांनी छान दाद दिली.

एक छान ओळख करून दिल्याबद्दल अनिल तरळे चे आभार मानले, आणि म्हणाले, निघते आता, घरी जाऊन स्वयंपाक करायचा आहे तर ते म्हणाले “तुम्ही स्वयंपाक करत असाल असं वाटत नाही”, त्यांना नेमकं काय म्हणायचं होतं मला समजलं नाही…..

इलाहींच्या अप्रतिम गज़ला ऐकून मला कविता करणं सोडून द्यावंसं वाटलं होतं त्या काळात!

त्यानंतर काही दिवसांनी मी अभिमानश्री हा श्रावण विशेषांक काढला, त्याच्या प्रकाशन समारंभात आयोजित केलेल्या कविसंमेलनात त्यांना आमंत्रित केलं होतं त्या संमेलनात त्यांनी त्यांची गजल सादर केली होती. एवढा मोठा गजलकार पण अत्यंत साधा माणूस!

मी त्या काळात काव्यशिल्प या संस्थेची सभासद होते.

इलाहींच्या प्रभावाने आम्ही काव्यशिल्प च्या काही कवींनी एक गजलप्रेमी संस्था सुरू केली. काही मुशायरे घेतले, इलाही अनेकदा माझ्या घरी आले आहेत.ते स्वतःच्या गज़ला ऐकवत आणि माझ्या कविता ऐकवायला सांगत, दाद देत.

गजल च्या बाबतीत ते मला म्हणाले होते, तुम्ही “आपकी नजरोने समझा…..” ही गज़ल गुणगुणत रहा त्या लयीत तुम्हाला गज़ल सुचेल! पण तसं झालं नाही!

क्षितीज च्या मैफिलीत सादर करण्यासाठी मी पहिली गज़ल लिहिली ती अगदी ढोबळमानाने, मी इलाहींकडून गज़ल शिकले नाही. पण त्यांच्या प्रेरणेतून स्थापन झालेल्या या संस्थेमुळे गजलच्या वातावरणात राहिले, इलाहींच्या अध्यक्षतेखाली औरंगाबाद येथे संपन्न झालेल्या गजलसागर च्या अ.भा.म.गजलसंमेलनात माझ्या गजलला व्यासपीठ मिळालं त्यानंतर च्या अनेक गज़लसंमेलनात माझा सहभाग होता. “गजलसागर” चे गज़लनवाज भीमराव पांचाळे यांचा परिचय पुण्यात अल्पबचत भवन मध्ये त्यांच्या एका गजलमैफिलीच्या वेळी झाला होता, त्या मैफीलीचे सूत्रसंचालन अभिनेते प्रमोद पवार करत होते.

या अफाट गज़लक्षेत्रात माझी खसखशी एवढी नोंद घेतली गेली याला कुठेतरी कारणीभूत इलाही आहेत. निगर्वी, हसतमुख, मिश्किल नवोदितांना नेहमी प्रोत्साहन देणारे आणि नेहमी सहज छानशी टिप्पणी देणारे इलाहीजमादार आज आपल्यात नाहीत, पण त्यांच्या खुप स्वच्छ आणि सुंदर आठवणी आहेत.

लिहिल्या कविता, लिहिल्या गज़ला, गीते लिहिली
सरस्वती चा दास म्हणालो चुकले का हो?

?? असं म्हणणा-या या प्रतिभावंत गजलकाराला भावपूर्ण श्रद्धांजली, अभिवादन! ??

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनगाणे ☆ सौ. नीला देवल

सौ. नीला देवल

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ जीवनगाणे ☆ सौ. नीला देवल ☆ 

देवा हे तू बरे केलेस

अपयशाचे दान भरघोस दिलेस,

यशाच्या एकाच मोत्याने पाय भुवरच स्थिरावले.

 

देवा हे तू बरे केलेस

दुःखाचे चटके सोसताना,

काट्या सहित साहण्याचे गुलाब गुच्छ हाती दिलेस.

 

देवा हे तू बरे केलेस

दृष्टीला पापण्यांची कवाडे दिलीस,

अत्याचार दुराचार पाहण्या वेळेस कवाडे मिटली  गेली.

 

देवा हे तू बरे केलेस

बुद्धी सह विवेकाचे ही दान दिलेस,

सद्सद बुद्धीने विवेक तराजूत सत् असत् तोलता आले.

 

देवा हे तू बरे केलेस

सुदृढ बाहु करतल दिलेस,

देणाऱ्याने आमाप दिले तरी पसा येवढे घ्यायचे शिकवलेस.

 

देवा हे तू बरे केलेस

मजबूत कणखर पाय दिलेस,

धावता पळता दम दिलास कुठे थांबायचे हे शिकवलेस.

 

देवा हे तू बरे केलेस

जन्ममृत्यू ताब्यात ठेवलेस,

अल्प स्वल्प आयुष्याचे जीवनगाणे गाता आले.

 

© सौ. नीला देवल

९६७३०१२०९०

Email:- [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ परिपुर्ती – भाग-3 ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

☆ जीवनरंग ☆ परिपुर्ती – भाग-3 ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆ 

विश्वासराव एक यशस्वी उद्योजक होते. त्यांचा बिल्डणली. रक्ताची सोय केली. व दिपकच्या शाळेत त्याच्या शिक्षकांना त्याच्या आजाराची व ऑपरेशनची सर्व माहिती  सांगितली. गैरहजेरीचा एक महीन्याचा अर्ज लिहून दिला. मग त्यांनी दिपकला डॉक्टरांनी सांगितल्याप्रमाणे सोमवारी सकाळी७वाजता दवाखान्यात दाखल केले. तेथे डॉ. सानेंनी दिपकला ऑपरेशनची सर्व कल्पना दिली. मगच ते तयारीला लागले.ऑपरेशन करणार हे ऐकून दिपकही थोडा घाबरला. पण आईशी बोलल्यावर तो शांत झाला. विश्वासराव ९.३० वाजता दवाखान्यात आले. ते डॉ. सानेंना जाऊन भेटले. तेथे डॉ. वझे. व डॉ. सतीश देवही हजर होते. त्या सर्वांशी विश्वासरावांच बोलणं झालं. औषधे यादीप्रमाणे आहेत की नाही ते पाहीले. लगेचच लागणारी औषधे काढून घेतली व बाकीची विश्वासरावांना परत दिली. तेवढ्यात भूल देणारे डॉ. कोदेही आले. दिपकला १०.३० लाऑपरेशन थिएटरमध्ये नेण्यात आले.

बाहेर नमिताचा व इतर सर्वांचा सारखा ‘ओम नमःशिवाय’ चा जप सुरू होता. नमिता मनातून थोडी घाबरली होती. पण ती तशी खंबीर होती. तब्बल तीन तासांनी ऑपरेशन संपले. डॉ. वझेंनी ऑपरेशन थिएटरच्या बाहेर येऊन ऑपरेशन व्यवस्थित पार पडल्याचे सांगितले. थोड्या वेळाने डॉ. साने, व डॉ. देव ही बाहेर आले. सर्वांच्या चेहऱ्यावर समाधानाचे हास्य झळकले. एक काळजी थोडी कमी झाली.

अर्ध्या तासाने दिपकला ऑपरेशन थिएटरमधून बाहेर आणले. ऑपरेशनच्यावेळी त्याला रक्त व सलाईन चालू होते. सलाईन नंतरही चालूच होते. त्याला शुद्धीवर यायला बराच वेळ लागणार होता. कारण ऑपरेशन तसं मेजर व त्यात रिस्कही खूप होती. गाठीचा रिपोर्ट आल्याशिवाय पुढील औषधोपचार करता येणार नव्हते. दिपकला आय.सी.यू. मधेच ठेवण्यात आले.

क्रमशः….

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ खानदेशी  पाहुणचार! ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ खानदेशी  पाहुणचार! ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे 

दरवर्षी हा थंडीचा सिझन संपता-संपता येणाऱ्या उन्हाळ्यात मला शिरपूरची आठवण येते. साधारणपणे चाळीस वर्षे झाली आम्हाला शिरपूर सोडून, पण तिथे राहिलेले एक-दीड वर्ष अजूनही मनाच्या कोपऱ्यात  आहे. पश्चिम महाराष्ट्रात राहणारे आम्ही बदलीच्या निमित्ताने खानदेशात शिरपूर येथे गेलो. एकदम नवखा भाग, बरोबर दोन लहान मुले आणि आपल्या गावापासून खूप लांब त्यामुळे मनात टेन्शन होतेच! पण बघूया, जसं होईल तसं, म्हणून सामानासह शिरपूरला गेलो.

सरकारी दवाखान्याच्या आवारात असलेला मोठ्ठा ब्रिटिश कालीन बंगला आम्हाला राहायला होता. घरात सहा-सात खोल्या, वर कौलारू छप्पर, मोठ्या खिडक्या आणि दोन-तीन घराबाहेर जाता  येणारी दारे ! प्रथमदर्शनीच मन एकदम प्रसन्न झाले.बंगल्याच्या भोवतीच्या जागेत मोठे लिंबोणीचं झाड, गाडी लावायला गॅरेज, बसायला प्रशस्त अंगण आणि काय पाहिजे! हा दवाखाना गावापासून थोडा लांब एका टेकाडावर होता. दवाखान्याभोवती डॉक्टरांचा बंगला आणि कंपाउंडर, नर्स, क्लार्क वगैरे लोकांची घरे होती.  त्यामुळे हा परिसर खास आपल्यासाठी होता ! आम्ही आल्याबरोबर सकाळी आसपासची सर्व मंडळी हजर झाली. कोणी चहाची, तर कोणी नाश्त्याची व्यवस्था केली. नंतर जेवणाची व्यवस्थाही झाली. घरातील सामान लावायला चार हात पुढे आले, त्यामुळे दोन छोट्या मुलांबरोबर सामान लावण्याच्या माझ्या कसरती ला मदत झाली. लवकरच आम्ही तिथे रुळून गेलो.

एक दीड वर्षाचा कालावधी पण मला खानदेशी जीवनाचा त्यानिमित्ताने झालेला परिचय यात लिहावासा वाटतोय! आम्ही तिथे गेलो तेव्हा प्रथम जानेवारी ची थंडी होती. सकाळी खूप गारठा असे आणि नंतर दिवसभर ऊन तापत असे, इतक्या गरम आणि विषम हवामानाची आम्हाला सवय नव्हती, पण थोड्याच दिवसात तेथील रुटीन चालू झाले. सगळेजण मला आणि ह्यांना ताई, दादा म्हणत असत, बोलणे गोड आणि वागणूकही मान, आदर दाखवणारी!

रोज सकाळी लिंबोणी खालचा कचरा काढायला शिपाई आला की त्याच्या झाडू च्या आवाजाने जाग येई. अंगणात सडा मारून रांगोळी काढणे इतकेच काम असे! नंतर येणारी लता, भिल्ल समाजाची होती. सतरा-अठरा वर्षांची ती मुलगी स्वभावाने गोड आणि कामसू  होती.  ताई,ताई करून ती घराचा आणि मुलीचा ताबा घेत असे.केरवारा, भांडी करता करता मला सगळ्या गावाची माहिती देत असे.

माझी छोटी मुलगी जेमतेम तीन महिन्याची होती, त्यामुळे तिला आंघोळ घालण्यासाठी  लताची आई येत असे. गॅस नसल्यामुळे एका वातीच्या  आणि पंपाच्या स्टोव्हवरच स्वयंपाक करावा लागत असे. दवाखान्यातील एक शिपाई  भाजीपाला किंवा इतर सामान आणून देत असे, तर दुसरा एक  शिक्षित होता, तो माझ्यासाठी लायब्ररीची पुस्तके बदलून आणत असे, असं राजेशाही आयुष्य चालू होतं आमचं!

त्यावेळी संध्याकाळी दिवेलागणीच्या वेळी लाईट जाणं हे नेहमीच असे. लहान मुलांना त्याचा खूपच त्रास होई.उकाडा खूप! लाईट नाही,पंखा नाही, त्यामुळे तिकडच्या लोकांप्रमाणे आम्ही विणलेली बाज खरेदी केली होती, ती अंगणात टाकून त्यावर संध्याकाळी गप्पा मारत बसायचे. तिथल्या बायकांना आपल्याकडील पदार्थ, राहणीमान याविषयी मी सांगत असे, तर त्यांच्याकडून तिकडचे पदार्थ शिकत असे. दादर चे पापड, मूग, मठाचे(मटकीचे) सांडगे तोडणे, कलिंगड, खरबुजाच्या बिया भाजून खाणे अशा बऱ्याच गोष्टी मला तिथे कळल्या! बऱ्याच घरातून संध्याकाळी फक्त खिचडी बनवली जाई. त्या सर्वांना आमच्याकडे आलेल्या पाहुण्यांसाठी मी रोज संध्याकाळी पण पोळ्या, भाकरी करते याचे आश्चर्य वाटे! दवाखान्यातल्या सिस्टर खूप चांगल्या होत्या, उन्हाळी पदार्थ करताना त्या मला मुद्दाम बोलवत, आणि गव्हाचा शिजवलेला चीक  खाऊ घालत!

सगळीच माणसे सरळ आणि प्रेमळ मनाची होती.

तो दवाखाना विशेष करून बाळंतिणीचा होता. त्यामुळे रोज जवळपास एक दोन तरी डिलिव्हरी असायच्याच! खाण्यापिण्याची सुबत्ता असल्याने एकंदर तब्येती छानच असायच्या! एकदा तर एका बाईचं अकरा पौड वजनाचे बाळ डिलिव्हरी झाल्या झाल्या दुपट्यात गुंडाळून आणून सिस्टरनी  मला आणून दाखवले.ते पाहून मीच आश्चर्यचकित झाले!

खाण्यापिण्याच्या बाबतीत शिरपूर एकदम छान होते. छान दूध, तूप, खव्याचे पदार्थ मिळायचे. कलिंगडं, खरबूज यासारखी फळफळावळ मुबलक प्रमाणात असायची. शिरपूरच्या जवळून तापी नदी वाहते. त्यामुळे सर्व भाग सुपिक होता. शिरपूर जवळ’ प्रकाशे’ नावाचे तीर्थक्षेत्र आहे. तिथे तापी आणि गोमती नद्यांचा संगम  आहे.’प्रती काशी’

म्हणतात त्या तीर्थक्षेत्राला!

गव्हाची  शेती खुपच असल्याने उत्तम प्रतीचा गहू मिळत असे. शिरपूर मध्य प्रदेश आणि गुजरात या दोन्ही राज्यांना जवळ असल्याने तिथल्या भाषेवर हिंदी आणि गुजराथी भाषांचा प्रभाव दिसून येई. आणि अहिराणी भाषा ही तेथील आदिवासींची खास बोली! ती आम्हाला फारच थोडी समजत असे. शैक्षणिक दृष्ट्या हा भाग थोडा मागास असला तरी काळाबरोबर हळूहळू सुधारणा  होत आहेत. येथील सर्वांना सिनेमाचे वेड भारी होते. गावात तीन सिनेमा टाॅकीज होती, दर आठवड्याला पिक्चर बदलत असे. आम्हाला सिनेमाची फारशी आवड नव्हती आणि आमची मुले लहान म्हणून आम्ही कधीच सिनेमाला जात नसू. पूर्ण वर्षभरात सिनेमा न बघणारे आम्हीच! माझी कामवाली सखी-लता, प्रत्येक पिक्चर बघून यायची आणि मला स्टोरी सांगत काम करायची! तीच माझी करमणूक होती. शिरपूर लांब असल्यामुळे नातेवाईक ही फारसे येऊ शकत नसत. पण शिरपूर चे तो काळ खूप आनंदात गेला तो तिथल्या लोकांमुळे! शिरपूर ची खास तूरीची डाळ आणि तांदूळ घालून केलेली खिचडी आणि कढी विसरणार नाही. दादरचे पापड, सांडग्यांचे कालवण, डाल बाटी, तर्हेतर्हेची लोणची, खास खव्याचे मोठे मोठे पेढे आणि आमरस-पुरणपोळी हे पक्वान्न अजून आठवते!तिथले तीनही ऋतू अनुभवले!उन्हाळा, हिवाळा पुन्हा पावसाळा! आणि पुन्हा आपल्या गावाकडे परतलो, पण अजूनही शिरपूर चा खास पाहुणचार आम्ही विसरलो नाही. बहिणाबाईंच्या लोक गीतातून  दिसणारे खास खान्देशी समाज जीवन, तेथील प्रेमळ आदरातिथ्य आणि  तेथील मातीची ओढ हे सगळं दृश्य रूप होऊन डोळ्यासमोर आले! इतक्या वर्षांनंतरही शिरपूर चे ते थोड्या काळाचे वास्तव्य मनाच्या कोपऱ्यात तिथल्या साजूक, रवाळ तुपासारखे स्निग्धता राखून ठेवलं आहे!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-4 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे 

☆ विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-4 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे 

पुण्यापासून जवळच केडगाव आहे. तिथली नारायण महाराजांची सोन्याची दत्तमूर्ती Bank of Maharashtra मधे असते आणि वर्षातून एकदा दर्शनासाठी बाहेर काढली जाते. महाराजांचं सोन्याचं सिंहासन होतं. संन्यस्त असून हे ऐश्र्वर्य असल्याने नारायण महाराज उगाचच गैरसमजाच्या धुक्यात होते. पण त्यांच्या कार्यामागचा अर्थ वडिलांनी समजाऊन सांगितलेला… सहज शेअर करावासा वाटतो.

तसे घरातून माझ्यावर सर्वधर्मसमभावाचे संस्कार झालेले. म्हणजे घरी पारंपरिक सणवार, पूजाअर्चा, स्तोत्रपठण आणि गीतापाठांतर असेच वातावरण असले तरी मशीद आणि चर्चची ओळख आवर्जून करून दिली होती वडिलांनी. सगळ्याच लोकांना आणि चक्क मार्क्सवादी लोकांनाही आमचं घर “आपलं” वाटायचं कारण साऱ्या विचारांचा स्वीकार व्हायचा.

तरीही धर्म हा विषय समाजजीवनावर परिणाम करतोच. केडगावात तेच होत होतं. मिशनरी लोक गरीब लोकांना फक्त खायला द्यायचे आणि धर्मांतर करायचे. पंडिता रमाबाईंचं मिशनही कडेगावातच आहे. अर्थात तिथे आश्रयाला येणाऱ्या स्त्रियांवर धर्मांतराची सक्ती नसे… पण स्वतः रमाबाईंनी ख्रिश्चन धर्म स्वीकारला होता.

पुन्हा दयानंदांच्या वेळचाच मुद्दा इथेही लक्षात घ्यायला पाहिजे. एक विचार केवळ धाकानं किंवा पैशानं का नष्ट करायचा? शिवाय राजकीय विषयही होताच हा. ब्रिटिशांचा धर्म स्वीकारला की त्यांची गुलामी बोचणारच नाही. मग देशाचं आर्थिक शोषण, आत्मविश्वास संपणं सगळं आलंच….यासाठी भुकेमुळं होणारं धर्मपरिवर्तन थांबवणं गरजेचं होतं. हिंदुस्थानच्या धार्मिक बाबीत ढवळाढवळ करणार नाही अशी राणीची पॉलिसी होती. म्हणून नारायण महाराजांनी एकशेआठ सत्यनारायण रोज करण्याची पद्धत सुरू केली. त्यासाठी खास रेल्वेच्या वॅगन मधून तुळशी यायच्या. प्रसाद म्हणून मोठे वाडगे भरून प्रसाद सगळ्यांना द्यायचे. गोरगरीबांना साजूक तुपाचा उत्तम शिरा पोट भरून दिला जायचा. एकच माणूस पुन्हा आला तरी त्याला पुन्हा दिला जायचा. या एका गोष्टीमुळे भुकेपोटी होणारं धर्मपरिवर्तन थांबलं. आपलं कार्य संपल्यावर सगळं ऐश्र्वर्य सोडून एका वस्त्रानिशी अवघ्या बत्तीसाव्या वर्षी नारायण महाराज केडगावहून निघून गेले आणि बंगलोर इथे राहून शेवटी त्यांनी देह ठेवला.

“नामस्मरण करून आनंदात राहावे” हा त्यांचा एकमेव उपदेश आहे.

नामस्मरण करावं हे ठीक आहे.. पण आनंदात राहावे हे तितकेच महत्त्वाचे आहे ना.. आनंदी राहण्यासाठी मनाला केवढी शिस्त हवी! एवढ्यातेवढ्याने रागवायचे नाही, कुणाचा हेवा करायचा नाही, कशाचा लोभ धरायचा नाही, निंदेला घाबरायचं नाही, समाधानी राहायचं तर आनंदात राहता येईल. थोडक्यात इतका स्वत:चा विकास विवेकानं करता आला तरच आनंद मिळणार. हा एवढा अर्थ भरला आहे या छोट्या वाक्यात.

श्रावणात घरोघरी सत्यनारायण पूजा सुरू झाल्या की मला केडगावच्या नारायण महाराजांची आठवण येते.

 

© सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

मो – 7499729209

(लेखात व्यक्त केलेली मते लेखकाची वैयक्तिक मत आहेत.)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆ ख़लिश☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ख़लिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆

☆ ख़लिश

ज़िंदगी ख़लिश का ही तो दूसरा नाम है, है ना?

 

कभी बेवजह बहते आंसुओं की खलिश,

कभी दिल-भेदती दर्द की ख़लिश,

कभी रातों को तनहाई की ख़लिश,

कभी सुबह किसी की नामौजूदगी की खलिश,

कभी आफताब के तेज़ से जलने की खलिश,

कभी मुकम्मल मुहब्बत की ख़लिश…

 

खलिश भी होती कुछ ऐसी चीज़ है

जो मिटाए नहीं मिटती,

कोई इरेज़र काम नहीं आता,

कोई वाइपर इसे नहीं हटा पाता,

किसी नेट में यह नहीं पकड़ आती,

बस यह घर बसाए रहती है

दिल में, जिगर में, आँखों में…

 

बस यह कभी-कभी निकल जाती अब्र बनकर;

कुछ पल को ज़हन शांत हो जाता है,

पर फिर जोर से थरथराता है,

एक बार फिर आकर वहाँ

खलिश घर बना ही लेती है-

और ज़िंदगी है कि

चलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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