मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…भाग-4 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

☆  मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…भाग-4 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

बाबांची बदली “कद्रा ” येथे झाली. कारवारच्या पुढे काळी नदीच्या पलीकडे कद्रा हे छोटेसे खेडेगाव. गाव म्हणजे आदिवासी जमात आणि जंगल. तिथले सगळे वर्णन बाबा आम्हाला अगदी रंगवून सांगत असत. बाबांनी सांगितलेल्या त्या आठवणी  बाबांच्या शब्दात मांडल्या आहेत.

“मेडिकल ऑफिसर म्हणून माझं पोस्टिंग कद्रा येथे झालं. कद्रा म्हणजे जवळजवळ जंगलच. तेथील एक छोटीशी वस्ती असलेलं गाव. मनुष्यवस्ती अतिशय विरळ. लांब लांब वसलेल्या छोट्या छोट्या घरांची वसाहत. मी व सौ दोघे 2-3 गाड्या बदलून कद्र्याला पोचलो. गावातील लोकांना हे आलेले जोडपे डाॅक्टर आहेत, हे सहज लक्षात आले. जाॅन कपौंडरने दवाखाना दाखवला. एका ब्रिटिशकालीन बंगल्यामध्ये आमच्या रहाण्याचा इंतजाम केला होता. तो बंगला पाहिल्यावर मधुमती सिनेमातील महालाची आठवण झाली. भले मोठे दरवाजे, काचेची तावदाने असलेल्या चौकोनी मोठमोठ्या खिडक्या,  त्यावर अर्धगोलाकार रंगीत काचा, उंच छतावरून लोंबणारे दिवे, हंड्या, मोठाली दालने, अशा भव्य बंगल्यात रहाणार आम्ही दोघे.

पक्ष्यांच्या किलबिलाटाने सकाळी जाग येई. खिडकीतून येणा-या सूर्यकिरणांनी दिवसाची सुरुवात होत असे. सूर्य मावळला की दिवस संपला. घर ते दवाखाना,  दवाखाना ते घर. दुसरे काहीच नाही. इतरही वेळ घालवण्याचे साधन नाही.

आसपास चार घरे सोडली तर इतर सर्व परिसर जंगलच होतं. संध्याकाळ झाली की घराचे दरवाजे,  खिडक्या बंद ठेवा अशा सूचना वस्तीवरच्या लोकांनी दिल्याने दिवसाही खिडक्या  उघडण्याची भीती वाटत होती.

एकदा रविवारी सकाळी जाग आली तेव्हा जरा बाहेर जाऊन चक्कर मारून येऊ या असा विचार मनात आला.  दरवाजा उघडण्यापूर्वीच घाण वास  यायला लागला.  घरात शोधलं, उंदीर मरून पडलाय की काय? काहीच सापडलं नाही.. तेवढ्यात बाहेर घुर्र घुर्र आवाज आला. हळूच खिडकी  किंचितशी उघडून बघतो तर काय? ? बाप रे!

असा मोठ्ठा पिवळा जर्द पट्टेरी ढाण्या वाघाचं धूड व्हरांड्यात पसरलं होतं.  माझी तर बोबडीच वळली. खिडकी आवाज न करता बंद केली  आत जाऊन बसलो. दर दहा पंधरा मिनिटांनी कानोसा घेत होतो.  सगळा दिवस तो तिथेच होता. संध्याकाळ झाली तसा तो निघून गेला. दुस-या दिवशी जाॅनला सांगितलं तेव्हा तो हसायला लागला.  सायेब, अशेच आसता हंय….

एक दिवस कोवळी उन्हे अंगावर घेत व्हरांड्यात बसलो होतो. अचानक एक. कुत्र्याचं छोटुलं , गुबुगुबु पिल्लू शेपूट हलवत आमच्या जवळ आलं. बराच वेळ ते घोटाळत होतं. त्याला बहुतेक भूक लागली असावी असं समजून सौ ने चतकोर भाकरी दिली त्याला. ती खाऊन पिल्लू तिथेच रेंगाळलं. दुस-या दिवशी दार उघडलं तर पिल्लू हजर! दोनच दिवसात पिल्लू आपलंसं वाटू लागलं. आता रोज दोन्ही वेळी त्याची भाकरीची ताटली तयार असे. सौ ने त्याचं नाव ठेवलं “रघुनाथ”.

आता रोजचा वेळ रघुनाथ बरोबर छान जाऊ लागला. जवळपास फिरायला गेलो तरी रघुनाथ सोबत असेच. आम्हाला एक छान सोबती मिळाला.

एक दिवस अचानक रघुनाथ दिसेनासा झाला. दोन दिवस झाले, याचा पत्ताच नाही. मन अस्वस्थ झाले. जाॅनला विचारले,  तेव्हा तो सहजपणे म्हणाला, कुत्रे दिसत नाही,  तर नक्कीच वाघरानं खाऊन टाकलं असणार.

एवढंसं गोड पिल्लू वाघानं खाल्लं असं ऐकून खूप वाईट वाटलं. खूप चुकल्या चुकल्या सारखं वाटलं.  मुक्या प्राण्यांची सवय होते. पुढे नित्य व्यवहारात आठवण कमी होत गेली. कालाय तस्मै नमः II

क्रमशः…

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 70 ☆ मस्तानी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मस्तानी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 70 ☆

☆ मस्तानी

हुई थी एक मस्तानी कभी!

मैं भी हूँ एक मस्तानी ही!

रंगी थी वो बाजीराव प्रेम में-

मौला के रंग रंगी हूँ मैं भी!

 

जब झील के पानी में झाँका,

उसमें मैंने अक्स अपना देखा;

किसी पर मर-मिट जाने वाला

जाने कहाँ से मैंने अंश देखा!

 

कई बहाने थे ज़िंदगी में लुत्फ़ के,

इश्क में मस्तानी ने किस्मत बोई!

शहर के चौराहों में क्या रखा था?

पहाड़ पर खड़े दरख्तों में मैं खोई!

`

मुहब्बत मस्तानी ने भी की थी,

मुहब्बत तो में भी करती हूँ;

समाज से उसने जंग थी लड़ी,

किसी से कहाँ मैं भी डरती हूँ!

 

जाने उसने हिम्मत कहाँ से पाई?

उसके पास भला कैसे ताकत थी?

ने’मत है मेरे पास तो मौला की,

इश्क शायद उसकी इबादत थी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ग्लेशियर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – ग्लेशियर ☆

पाँच माह पूर्व लिखी एक कविता उत्तराखंड में कल हुई त्रासदी के बाद एकाएक स्मरण हो आयी।

? इस दुर्घटना में काल कवलित हुए सभी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना है। दिवंगत आत्माओं को नमन करते हुए हम सब जीवित देह वालों से चिंतन का अनुरोध भी है।?

कितने प्रवाह

कितनी धाराएँ,

असीम पीड़ाएँ

अनंत व्यथाएँ,

जटा में बंधी आशंकाएँ

जटा में जड़ी संभावनाएँ,

हिमनद पीये खड़ा है

महादेव-सा पग धरा है,

पंचतत्व की देन हो

पंचतांडव से डरो,

मनुज सम आचरण करो,

घटक हो प्रकृति के,

प्रकृति का सम्मान करो,

केदारनाथ की आपदा

का स्मरण करो,

मनुज, इस पारदर्शी

ग्लेशियर से डरो!

©  संजय भारद्वाज

(1.37 दोपहर, 4.9.2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 90 ☆ धर्म और संस्कृति एक विवेचना – श्री रंगा हरि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री रंगा हरि जी की पुस्तक  “धर्म और संस्कृति -एक विवेचना” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – धर्म और संस्कृति – एक विवेचना  # 90 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – धर्म और संस्कृति एक विवेचना

लेखक –  श्री रंगा हरि 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ धर्म और संस्कृति – एक विवेचना – श्री रंगा हरि ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

धर्म को लेकर भारत में तरह तरह की अवधारणायें पनपती रही हैं . यद्यपि हमारा संविधान हमें धर्म निरपेक्ष घोषित करतया है किन्तु वास्तव में यह चरितार्थ नही हो रहा. देश की राजनीति में धर्म ने हमेशा से बड़ी भुमिका अदा की है. चुनावो में जाति और धर्म के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं है. आजादी के बाद अब जाकर चुनाव आयोग ने धर्म के नाम पर वोट मांगने पर हस्तक्षेप किया है. तुष्टीकरण की राजनीति हमेशा से देश में हावी रही है. दुखद है कि देश में धर्म व्यक्तिगत आस्था और विश्वास तथा मुक्ति की अवधारणा से हटकर सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन तथा दिखावे का विषय बना हुआ है. ऐसे समय में श्री रंगाहरि की किताब धर्म और संस्कृति एक विवेचना पढ़ने को मिली.  लेखक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुयायी व प्रवर्तक हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हिन्दूवादी संगठन माना जाता है. स्वाभाविक रूप से उस विचारधारा का असर किताब में होने की संभावना थी, पर मुझे पढ़कर अच्छा लगा कि ऐसा नही है, बल्कि यह हिन्दू धर्म की उदारवादी नीति ही है जिसके चलते पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि हिन्दूत्व, धर्म से ऊपर संस्कृति है. मुस्लिम धर्म की गलत विवेचना के चलते सारी दुनियां में वह किताबी और कट्टरता का संवाहक बन गया है, ईसाई धर्म भारत व अन्य राष्ट्रो में कनवर्शन को लेकर विवादस्पद बनता रहा है.

सच तो यह है कि सदा से धर्म और राजनीति परस्पर पूरक रहे हैं. पुराने समय में राजा धर्म गुरू से सलाह लेकर राजकाज किया करते थे. एक राज्य के निवासी प्रायः समान धर्म के धर्मावलंबी होते थे. आज भी देश के जिन क्षेत्रो में जब तब  विखण्डन के स्वर उठते दिखते हैं, उनके मूल में कही न कही धर्म विशेष की भूमिका परिलक्षित होती है.

अतः स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र के लिये जरूरी है कि हम अपने देश में धर्म और संस्कृति की सही  विवेचना करें व हमारे नागरिक देश के राष्ट्र धर्म को पहचाने. प्रस्तुत पुस्तक सही मायनो में छोटे छोटे सारगर्भित अध्यायों के माध्यम से इस दिशा में धर्म और संस्कृति की व्यापक विवेचना करने में समर्थ हुई है.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सम्बंध… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सम्बंध…।)

☆ कविता  ☆ सम्बंध… ☆

शिशु औऱ उसकी माँ,

बूढा औऱ उसकी पत्नी,

शिशु, बूढ़े दोनों पुकारते,

दौड़ती औऱत, ही,

कभी माँ बन, कभी पत्नी,

 

दोनों के भाव एक से,

सम्बन्ध एक से,

निर्भरता भी है एक सी ही,

माँ बिन शिशु नहीँ,

पत्नी बिन बूढा नहीं…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 78 – लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एक भावुक एवं सार्थक लघुकथा  “हैप्पी वेलेंटाइन डे। इस लघुकथा के माध्यम से  आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने कई सन्देश देने का सफल प्रयास किया है । एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 78 ☆

? लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ❤️

 “हैप्पी वैलेंटाइन डे!” फोन पर आवाज सुनकर हर्षा चहक उठी। शहर के हॉस्टल में थी। इस दिन को वह कैसे भूल सकती है।

आज ही के दिन तो वह मम्मी के साथ गांव के हर कुआं (well) पर जाकर (rose) गुलाब का फूल चढ़ाती है। क्योंकि इसी दिन तो उसका वैलेंटाइन डे हुआ था। उसके अपने बापू ने तो फिर से छोरी आ गई कहकर कुएं में गेरने (गिराने) ले गए थे।

वह तो भला हो उस सिस्टर दीदी का जिन्होंने रात के अंधेरे में ही समय रहते, हर्षा को गिराने से बचा ही नहीं लिया, अपितु अपना घर, पूरा जीवन बेटी बनाकर रख, अपना नाम और पहचान दी।

सिस्टर दीदी यानी मम्मी फोन पर!!!! और हॉस्टल में हर्षा अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी।

दोनो की आंँखों से शायद आँसू बह रहे थे। पर खुशी के थे। हर्षा ने फोन पर “हैप्पी वैलेंटाइन डे मम्मी” कहकर अपनी विश पूरी की। वैसे मम्मी और हर्षा का तो रोज वैलेंटाइन डे होता है। पर आज कुछ खास है।

विश यू आल ए वेरी हैप्पी वैलेंटाइन डे!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४५॥ ☆

 

तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं

हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम

प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि

ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४५॥

 

उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर

लगेगा तुम्हें  ज्यों कोई कामिनी हो

जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से

सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को

वसन तुम  जिसे हर , अनावृत जघन कर

कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना

विवृत जघन कामिनी को भला

ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 84 ☆ तडा गेला आकाशाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 84 ☆

☆ तडा गेला आकाशाला ☆

आठवांचा हा पसारा

आहे फक्त सोबतीला

नव्या स्वप्नांच्या शोधात

मित्र परदेशी गेला

 

कधी मस्त भांडायचो

उरावर बसायचो

वैरभावाचा हा रंग

नाही कधी जोपासला

 

चिंचा झाडाच्या पाडून

सारे घ्यायचो वाटून

अशी धूम ठोकायचो

माळी येता धरायला

 

गनी शेख, गणेशास

गण्या म्हणती दोघास

जात धर्माचा पगडा

नाही मैत्रीमधे आला

 

वैरी होत गेला काळ

आणि तुटली ही नाळ

सारी पाखरे पांगली

तडा गेला आकाशाला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नकळत ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

 

☆ कवितेचा उत्सव ☆ नकळत ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सकाळी पळत

संध्याकाळी  पळत

डोळ्यापुढे दिसतेय

कामाची चळत

 

दिवस आला कसा

दिवस गेला कसा

वेळ कुठे गेला

काही नाही कळत

 

काटे चालले भरभर

वाटी भरते झरझर

वाळूची धार राही

संतत गळत

 

कुठे गेल्या हसणाऱ्या

सया कधी रुसणाऱ्या

कालच तर होतो आम्ही

खिदळत खेळत

 

अचानक असा

समोर आरसा

आरशातल्या ‘मी’शी

मी नाही जुळत

 

केस कधी पिकले,

शरीर कधी थकले

काळ माझ्यापुढे

मी काळापुढे पळत

 

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

विनोद आणि राजन दोघेही गडबडीत होते. त्यांना हॉस्पिटलमध्ये पोचायची घाई होती. तिथे त्यांचा एक मित्र जीवन-मरणाच्या सीमारेषेवर होता. रस्त्याच्या दुर्घटनेत तो जखमी झाला होता. त्याच्याजवळ कुणीच नव्हते.. कुणा अज्ञात इसमाने याला तिथे पोचवले होते. त्यामुळे पैशाची जुळणी करणं, रक्त देण्याची व्यवस्था करणं यासाठी त्या दोघांची उपस्थिती तिथे आवश्यक होती.त्यामुळे गर्दीच्या रस्त्यावरही त्यांची गाडी वेगाने चालली होती.

अचानक रस्त्यावर त्यांच्यापुढे त्यांना एक वरात जात असलेली दिसली.वरातीत खूप लोक होते. त्यांनी जवळ जवळ सगळा रसताच काबीज केला होता. दोन चाकी, तीन चाकी वहानं काशी-बशी जागा काढत जात होती. परंतु कार कोणतीही मोठी वाहाने जाणं शक्यच नव्हतं॰

राजनने जोरजोरात अनेकदा हॉर्न वाजवला. पण बेंड-बाजाचा मोठा आवाज आणि वरातीत सामील झाल्याची एक प्रकारची नशा, वरातीततल्या ओकांना काही म्हणता काही ऐकू येत नव्हतं. राजन रागारागाने म्हणाला, ‘वाटते, या लोकांच्या अंगावर सरळ गाडी घालावी. तिकडे इकडे आमचा मित्र मरणाच्या दारात उभा आहे आणि इकडेया लोकांचं नाच-गाणं चालू आहे, जसा काही यांच्या बापाचाच रास्ता आहे. राजनच्या रागाचा पारा चढत असलेला पाहून विनोद खाली उतरला. तो म्हणाला, ‘हॉर्न वाजवण्याचा काही फायदा होणार नाही.विनाकारण भांडण मात्र होईल. तू थांब. मी बघून येतो.वरातीजवळ पोचताच तो जोशात नृत्य करत वरातीमध्ये सामील झाला. बाकीचे सगळे आपापला नाच थांबवून त्याच्याकडे आश्चर्याने बघत राहिले. विनोद म्हणाला, ‘अरे थांबलात का? नाचा… नाचा… भरपूर नाचा… अशी संधी वारंवार थोडीच मिळते. आता माझ्याकडेच बघा ना, माझा मित्र हॉस्पिटलमध्ये पडलाय. मृत्यूशी झूंज देतोय., तरीही मी नाचतोय. खुशीच्या वेळी खूश आणि दु:खाच्या वेळी दु:खी व्हायला हवं॰

गर्दीत एकदम शांतता पसरली. विनोद हात जोडून पुढे म्हणाला, ‘माझ्या बंधुंनो आणि भगिनींनो, माझी एक विनंती आहे. थोडासा रास्ता येणार्‍या- जाणार्‍यासाथी मोकळा ठेवा. आपल्यामुळे तिकडे कुणी जीव गमावून बसू नये. धन्यवाड’ एवढा बोलून तो कारकडे गेला. आता त्यांची गाडी त्वरेने हॉस्पिटलकडे जाऊ लागली.

 

मूळ कथा – ‘हॉर्न ’ –   मूळ  लेखक – श्री विजय कुमार, 

सह संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका), अंबाला छावनी 133001, मोबाइल 9813130512

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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