मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 11 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 11 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

माझा भरत नाट्यम् च्या नृत्यातील एम.ए. चा अभ्यास सुरु झाला. ताईनी मला नृत्यातील एक एक धडे द्यायला सुरवात केली. एम. ए.. करताना मला ज्या ज्या अडचणी आल्या.,  त्याचे वर्णन करताना.,  त्या आठवताना माझ्या अंगावर अक्षरशः काटा उभा राहतो आणि आधीच्या आयुष्यात ज्या काही अडचणी आल्या त्याचे काहीच वाटेनासे होते. कारण एम.ए. सारखी उच्चपदवी मिळविण्यासाठी अखंड परिश्रम.,  मेहनत आणि मुख्य म्हणजे एकाग्रता यांची अत्यंत गरज असते. त्यावेळी माझा हा अवघड अभ्यास सुरु असताना माझ्या आई बाबांच्या वृद्धापकाळामुळे.,  वयोमाना प्रमाणे खालावणारी प्रकृति.,  त्यांच्या तब्येतीत होणारे चढउतार यामुने मी खूप अस्वस्थ आणि अस्थिर होऊन गेले होते.

त्यावेळी माझ्या भावाने मिरज – सांगलीच्या मध्यावर असणाऱ्या विजयनगर या भागामध्ये घर बांधले होते. त्याचवेळी माझ्या आईच्या डोळ्याचे ऑपरेशन झाले होते. त्यामुळे आम्हा तिघांनाही तो तिकडे घेऊन गेला होता. पण माझा नृत्याचा क्लास मिरजेत असल्यामुळे मला तिकडून ये- जा करावी लागत असे. शक्यतो माझा भाऊ मला कार मधून सोडत असे पण ज्यावेळी कामामध्ये तो व्यस्त असे त्यावेळी बाबा वडाप रिक्षाने मला सोडत असत. नेमका त्याच वेळी बाबांचा पार्किसन्स चा विकार विकोपाला गेला होता. पण मी एम.ए. करावे ही त्यांची जबरदस्त इच्छा होती. त्यामुळे कोणत्याही अडचणीना आम्ही कोणीच दाद देत नव्हतो.

वडाप रिक्षाची वाट पाहात आम्ही जेव्हा उभे असू त्यावेळी आम्हाला बरेचदा रहदारीचा रस्ता क्रॉस करून जावे लागत असे.त्या रस्त्यावरून दोन्ही बाजूंनी भरधाव धावणाऱ्या गाड्या सुसाट धावत असत.त्यामुळे आम्ही ही जीव एकवटून रस्ता ओलांडत असू.त्यावेळी मला बाबांच्या हाताची थरथर जाणवत होती आणि चालताना ही त्यांना होणारे परिश्रम समजून येत होते.पण ते कोणतीही तक्रार न करता माझ्यासाठी भर दुपारी येत होते.त्यांच्या जिद्दीचे पाठबळ होते म्हणूनच तर सगळे जमू शकले.

नृत्याच्या प्रात्यक्षिकाचे मार्गदर्शन सुरू झाले होते.पण आता प्रश्न होता तो थिअरी चा.एम ए च्या अभ्यासासाठी., भारतीय नृत्यांच्या अभ्यासाबरोबर तत्त्वज्ञान या सारखा किचकट विषय होता.अशा एकूण प्रत्येक वर्षी चार पेपर्स चा अभ्यास मला करायचा होता.आता मोठा प्रश्न होता तो वाचनाचा.मला., मी अंदमानला जाऊन आल्यावर., ज्यांनी माझी मुलाखत घेतली होती., त्या सौ अंजली  ताई गोखले यांची आठवण झाली.आणि मी त्यांना  फोन केला.त्यांनी मला वाचून दाखवायला सहज आनंदाने होकार दिला.अशारितीने माझा तोही प्रश्न सुटला.ताईंनी त्यांच्या एमएच्या काही नोट्स मला वाचण्यासाठी दिल्या होत्या.त्याव्यतिरिक्त खरे मंदिर वाचनालय यामधून संदर्भग्रंथ आम्ही मिळवले होते.अशा तऱ्हेने एम एच या अभ्यासाचे रुटीन छान बसले.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 81 ☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘बेख़ुदी के लमहे। चित्रकार, कलाकार और ऐसे ही मिलते जुलते पेशे के लोगों की बेखुदी के लमहों के भी क्या कहने? डॉ परिहार सर के लेखनी के जादू ने तो ऐसे पात्र का सजीव शब्दचित्र ही खींच कर रख दिया। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 81 ☆

☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे

तुफ़ैल भाई हमारे शहर के एकमात्र बाकायदा मान्यता-प्राप्त चित्रकार हैं। बाथरूम पेन्टर तो बहुत से होंगे, उनसे हमें क्या लेना-देना।  बाथरूम में मोर नाचा,किसने देखा?

तुफ़ैल भाई अपनी हरकतों की वजह से अक्सर चर्चा में रहते हैं। उनके पास एक छोटी सी कार है जिसे उन्होंने चलता-फिरता कैन्वास बना रखा है। कार पर सब तरफ पेन्टिंग बनी है,जिसमें से कहीं आदमी की आँख, कहीं घोड़े का थूथन, कहीं बैल के सींग नज़र आते हैं। कार में कैन्वास, ब्रश और पेन्ट लादे वे पूरे शहर में घूमते रहते हैं और जहाँ मन होता है वहाँ ब्रश पेन्ट निकालकर शुरू हो जाते हैं। चौराहों पर खड़ी कई गायों की चमड़ी को वे समृद्ध, सुन्दर और मूल्यवान बना चुके हैं। कभी शास्त्री पुल पर कैन्वास टिकाकर पेन्टिंग शुरू कर देते हैं और ट्रैफिक गड़बड़ा जाता है।

तुफ़ैल भाई पक्के कलाकार हैं। जूते वे पहनते नहीं, क्योंकि जूते पहनने से काम बढ़ता है और ध्यान बँटता है। इतना क्या कम है कि कपड़े पहने रहते हैं। एक बार उसमें भी गड़बड़ हो गया। एक पान की दूकान पर पान खाने उतरे तो पता चला कुर्ता तो पहन आये, पायजामा घर में ही छूट गया। लोगों ने वापस उन्हें कार में बन्द कर दिया और एक आदमी को दौड़ा कर घर से पायजामा मंगवाया। अपने शहर के भद्र समाज को वे ऐसे ही संकट में डालते रहते थे।

तुफ़ैल भाई धूम्रपान को रचनाशीलता का ज़रूरी हिस्सा मानते हैं लेकिन वे सिगरेट की बजाय बीड़ी पसन्द करते हैं। उनका मत है कि बीड़ी ज़मीन की चीज़ है, जनता के पास पहुँचने में मददगार होती है।

एक बार वे भारी लफड़े में पड़ गये थे।  अपना कैन्वास-कूची लेकर वे एक भद्र परिवार की विवाहित युवती के पीछे पड़ गये थे। उनका कहना था कि उक्त नारी का सौन्दर्य ‘परफेक्ट’ है और इसलिए कलाकार होने के नाते इच्छानुसार उससे बातचीत करने और उसका चित्र बनाने का उन्हें हक है। मुश्किल यह है कि अभी हमारा समाज कलाकारों की अभीष्ट कद्रदानी नहीं जानता। युवती के परिवार के कुछ मूर्ख युवकों ने तुफ़ैल भाई पर हमला बोल दिया। लड़ाई में उनके चार कैन्वास, छः ब्रश और बायें हाथ की हड्डी काम आयी। वह तो अच्छा हुआ कि उनका दाहिना हाथ बच गया, अन्यथा कला जगत की भारी क्षति हो जाती।

कुछ दिन बाद मैंने अपने घर की मरम्मत कराके उसकी रंगाई-पुताई करायी। घर की सूरत निखर आयी तो घर के लोगों का मन बना कि उसमें एक दो पेन्टिंग टाँगी जाएं। जब आदमी का धन -पक्ष मज़बूत हो जाता है तो उसका ध्यान कला-पक्ष की तरफ जाता है ताकि दुनिया को लगे कि उसके पास माल के अलावा तहज़ीब और नफ़ासत भी है।

हुसेन और रज़ा को टाँगने की अपनी हैसियत नहीं थी, इसलिए तय हुआ कि फ़िलहाल तुफ़ैल भाई को टाँगकर काम चलाया जाए। ‘तुफ़ैल’ नाम भी कुछ ऐसा था कि कमज़ोर नज़र वाला उसे ‘हुसैन’ समझ सकता था। ज़्यादातर लोग पेन्टर का नाम देखकर ही यह निर्णय ले पाते हैं कि पेन्टिंग महत्वपूर्ण है या नहीं।

तुफ़ैल भाई के घर पहुँचा तो पाया कि गेट से लेकर दीवारें तक उनकी कला के नमूनों से सजी हैं। बरामदे में उनका एक चेला गन्दा कुर्ता पहने बेतरह दाढ़ी खुजा रहा था। लगता था किसी भी क्षण उसकी दाढ़ी से पाँच दस जूँ टपक पड़ेंगे।

मैंने उससे कहा कि मैं तुफ़ैल भाई से मिलना चाहता हूँ तो वह दाढ़ी खुजाने के आनन्दातिरेक में आँखें बन्द करके बोला, ‘नामुमकिन’।

मैंने वजह पूछी तो वह हाथ को विराम देकर बोला, ‘उस्ताद आजकल एक महान पेन्टिंग की तैयारी में डूबे हैं। दिन रात उसी के बारे मे सोचते रहते हैं। हर पेन्टिंग के पहले यही हालत हो जाती है। न खाते-पीते हैं, न सोते हैं। एकदम बेख़ुदी की हालत है। दीन-दुनिया का होश नहीं है। जब तक पेन्टिंग पूरी नहीं हो जाती, ऐसा ही जुनून सवार रहेगा। ‘

फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर बोला, ‘इस बार जो पेन्टिंग बनेगी वह पिकासो की ‘गुएर्निका’ को पीछे छोड़ देगी। आप देखना, दुनिया भर के पेन्टर उस्ताद को सलाम करने दौड़े आएंगे। ‘

मैंने प्रभावित होकर कहा, ‘मुझे उस्ताद की एक दो पेन्टिंग खरीदनी हैं। ‘

वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, ‘अभी तो भूल जाइए। उस्ताद की इजाज़त के बिना पेन्टिंग मिलेगी नहीं, और उस्ताद को अभी इस दुनिया में वापस लौटा लाना बहुत मुश्किल है। ‘

फिर वह मुझसे बोला, ‘आइए, आपको उस्ताद की हालत दिखाते हैं। ‘

मैं उसके पीछे हो लिया। एक खिड़की के पास रुककर इशारा करते हुए वह बोला, ‘देखिए। ‘

मैंने खिड़की से झाँका।  अन्दर कमरे में तख्त पर तुफ़ैल भाई ऐसे चित्त पड़े थे जैसे दीन-दुनिया से पूरा रिश्ता ही टूट गया हो। मैंने घबराकर चेले से पूछा, ‘तबियत तो ठीक है?’

वह फिर दाढ़ी खुजाते हुए हँस कर बोला, ‘फिकर की बात नहीं है। ऐसा तो होता ही रहता है। लेकिन परेशानी बहुत होती है। अभी कल उस्ताद के लिए चाय लाकर रखी। थोड़ी देर में देखा कि चाय ज्यों की त्यों रखी है और कूची धोने वाला कप खाली हो गया है। क्या कीजिएगा। कलाकारों के साथ यही मुश्किल सामने आती है। ‘

मैंने मायूस होकर कहा, ‘ठीक है। बाद में आ जाऊँगा। ‘

इतने में तख्त से एक कमज़ोर आवाज़ आयी, ‘कौन है, शेख़ू?’

चेला चमत्कृत होकर बोला, ‘ये सिंह साहब आये हैं, उस्ताद। पेन्टिंग देखना चाहते हैं। ‘

तुफ़ैल भाई उसी तरह आँखें बन्द किये बोले, ‘चाबियाँ लेकर दिखा दे। ‘

चेला एक कील से चाबियाँ उतारकर मुझे एक कमरे में ले गया। वहाँ सैकड़ों पेन्टिंग अलग अलग दीवारों से टिकी थीं। वह इशारा करके बोला, ‘देख लीजिए। ‘

मैंने पेन्टिंग उलट पलट कर देखीं। कुछ समझ में नहीं आया। चेला एक हाथ कमर पर रखे दाढ़ी खुजाता खड़ा था। शर्मिन्दगी से बचने के लिए मैंने ढेर में से दो पेन्टिंग निकाल लीं। चेले से कहा, ‘ये दोनों मुझे पसन्द हैं। ‘

चेला निर्विकार भाव से बोला, ‘उस्ताद से पूछना पड़ेगा। ‘

हम फिर झरोखे पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई उसी तरह बेजान पड़े थे। चेला बोला, ‘वो आदिवासियों वाली दो पेन्टिंग लेना चाहते हैं।

तुफ़ैल भाई के ओठों में जुम्बिश हुई। आवाज़ आयी, ‘बीस हज़ार ले ले। ‘

मैंने कुछ शर्मिन्दगी के भाव से कहा, ‘तुफ़ैल भाई, मुझे पाँच छः हज़ार से ज़्यादा की गुंजाइश नहीं है। ‘

लाश में से आवाज़ आयी, ‘मुरमुरा ख़रीदने निकले हैं क्या?’

मैं लज्जित होकर चुप हो गया। तख्त से फिर आवाज़ आयी, ‘पन्द्रह हज़ार दे जाइए। ‘

मैंने कहा, ‘चलता हूँ तुफ़ैल भाई। ख़ामख़ाँ आपको तक़लीफ़ दी। ‘

मैं दरवाज़े से बाहर निकला ही था कि चेले ने पीछे से आवाज़ दी। हम फिर खिड़की पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई के शरीर से फिर आवाज़ आयी, ‘दस हज़ार से कम नहीं होगा। वैसे बाज़ार में पचास पचास रुपये वाली भी मिलती हैं। ‘

चेला अपने गुरू को सुनाकर बोला, ‘आपको ये मिट्टी मोल पड़ रही हैं। आर्ट का मोल करना सीखिए, जनाब। एक दिन यही दो पेन्टिंग आपको करोड़पति बना देंगीं। ‘

मैंने कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। अभी इजाज़त चाहता हूँ। ‘

तुफ़ैल भाई के मुर्दा जिस्म से फिर आवाज़ आयी, ‘नगद ले ले। ‘

चेले ने छः हज़ार लेकर मुझे दोनों पेन्टिंग एक अखबार में लपेट कर दे दीं।

चलते वक्त मैंने खिड़की के सामने रुककर तुफ़ैल भाई के शरीर को संबोधन करके कहा, ‘चलता हूँ , तुफ़ैल भाई। बहुत बहुत शुक्रिया। ‘

जिस्म से कोई आवाज़ नहीं आयी। पीछे से चेला बोला, ‘किससे बात कर रहे हैं?’

मैंने कहा, ‘तुफ़ैल भाई से। ‘

वह बोला, ‘अब तुफ़ैल भाई कहाँ हैं? वे तो वापस बेख़ुदी की हालत में चले गये हैं। इस वक्त वे इस रोज़गारी दुनिया से ऊपर कला की दुनिया में हैं। आपसे अब उनकी बात नयी पेन्टिंग पूरी होने के बाद ही हो पाएगी। आप ख़ामख़ाँ अपना वक्त ज़ाया कर रहे हैं। ‘

मैं कला की उन दोनों अमूल्य कृतियों को बगल में दबाकर बाहर आ गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाईवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं। जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा

उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा

जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना

कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई

मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

पार जाने की सुध बनी रहे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 36 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 36 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 36) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 36☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 बुला  रही  हैं  हमें

 तल्ख़ियाँ हक़ीक़त की

 ख़याल-ओ-ख़्वाब की

 दुनिया से अब निकलते हैं..

 

Calling us are the bitter

 realities  of  the  life…

 It’s time to come out of the

 world of dream n euphoria

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 रास्ता है कि कटता

 चला जाता है…

और फ़ासला है कि

 कम ही नहीं होता…

 

The way keeps  

 on  going  past…

But, the damn distance

 never reduces only…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

आज परछाईं से पूछ ही लिया,

 क्यों चलती हो तुम मेरे साथ

उसने भी हँस कर कहा,

 और कौन है बता तेरे साथ…!!

 

Today I asked the shadow,

 Why d’you accompany me

It retorted laughingly, tell me

 Who else is there with you!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

  उजालों में तो मिल जाएगा

 कोई  साथ  निभाने  वा‌ला

 तलाश  तो  उनकी  करो

 जो अंधेरे में भी साथ दे…

 

You  will  always  find

 someone  in  the  light

Look for someone who’ll be

 with you even in darkness!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 37 ☆ छंद सप्तक ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘छंद सप्तक। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 37 ☆ 

☆ छंद सप्तक ☆ 

दोहा:

उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।

कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।

*

सोरठा

सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।

जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।

*

रोला

संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।

पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।

पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।

आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।

*

कुण्डलिया

बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग।

मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।

गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता।

माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।

राधा पूछे “मजा, मिले क्या तरसाने में?”

उत्तर “तूने मजा, लिया था बरसाने में??”

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ हॉर्न ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – हॉर्न ☆

विनोद और राजन दोनों जल्दी में थे। उन्हें अस्पताल पहुंचना था जहाँ उनका एक दोस्त ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहा था। सड़क दुर्घटना में वह बुरी तरह से घायल हो चुका था और इस समय उसके पास कोई नहीं था, एक अनजान आदमी ने उसे वहां तक पहुँचाया था। अत: उन दोनों की वहां उपस्थिति, रुपए-पैसे से उसकी सहायता और खून देने जैसी कई जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत जरूरी थी। इसलिए भीड़ भरी सड़क पर भी उनकी गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी।

अचानक सड़क पर ही अपने आगे उन्हें एक बारात जाती दिखी। बारात में बहुत सारे लोग थे, जिन्होंने पूरी सड़क पर कब्ज़ा कर रखा था। दो-पहिया, ति-पहिया वाहन तो जैसे-तैसे निकल रहे थे, परन्तु कार या अन्य बड़े वाहनों के निकलने की गुंजाइश अत्यंत कम थी।

राजन ने जोर-जोर से कई बार हॉर्न भी दिया, परन्तु कुछ तो बैंड-बाजे की तेज़ आवाज और कुछ शादी में शामिल होने का नशा, बारातियों के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी।

राजन को क्रोध आ गया, “जी तो करता है सालों पर गाड़ी ही चढ़ा दूं। उधर हमारा दोस्त मर रहा है और इन्हें नाच-गाने की पड़ी है। बाप की सड़क समझ रखी है…।” राजन का चढ़ता पारा देख विनोद तुरंत कार से नीचे उतर गया, “हॉर्न मारने से कुछ नहीं होगा, बेमतलब में झगडा जरूर हो जाएगा। तू रुक मैं देख कर आता हूँ…।”

वहां जाते ही वह जोर-शोर से नृत्य करता हुआ उन बारातियों में शामिल हो गया। बाराती एक नए व्यक्ति को नृत्य में शामिल हुआ देख थोड़ा चौंक से गए और सभी कुछ पल में ही अपना नृत्य छोड़ उसे देखने लगे। विनोद ने मौका देख कर कहा, “नाचो यार, आप लोग क्यों रुक गए, नाचो। ऐसे मौके बार-बार थोड़े आते हैं। मुझे देखो, मेरा दोस्त अस्पताल में पड़ा है, जीवन-मृत्यु से जूझ रहा है, पर मैं फिर भी नाच रहा हूँ। भई ख़ुशी के समय ख़ुश और गम के समय दुखी दोनों होने चाहियें।”

भीड़ में सन्नाटा छा गया। विनोद हाथ जोड़ कर आगे बोला, “पर भाइयों और बहनों, एक विनती जरूर है मेरी कि थोड़ा सा रास्ता आने-जाने वालों को जरूर दे दें, कहीं आपकी वजह से वहां कोई दूसरा दम न तोड़ दे, धन्यवाद।” कह कर वह कार की तरफ चल पड़ा।

…अब उनकी गाड़ी फिर सरपट अस्पताल की तरफ दौड़ रही थी।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -4 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -4 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

पाठशाला से ही मुझे बहुत स्पर्धाओं में पुरस्कार मिलते थे| सबसे अधिक वक्तृत्व स्पर्धा में मिलता था| शुरू-शुरू में हुई वक्तृत्व स्पर्धा में पाठशाला का एक-एक किस्सा मुझे याद है, ध्यान में है| कर्मवीर भाऊराव पाटील इन पर मैने भाषण किया था| मेंरा नंबर भी आया था, कौंन सा था मालूम नही| पुरस्कार देने का कार्यक्रम शुरू होने पर मेंरा नाम पुकारा गया, हम सब ग्राउंड पर बैठे थे| मै खडी हो गयी| मैं सहेलीके के साथ स्टेज पर जाने वाली थी, तो प्रमुख अतिथी स्टेज से नीचे उतरे| मेंरी पीठ थपथपाकर मुझे पुरस्कार दिया| इतने बडे आदमी होकर मेंरे लिये नीचे उतरे, कितने महान आदमी थे, किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं था| यह सब मुझे अभी भी याद है|

ऐसी ही कॉलेज की एक स्मृति है| गॅदरिंग में मेंरा नृत्य करना तय हो गया| में जब F.Y. में थी उस वक्त पुरस्कार देने के समारंभ में माननीय शिवाजीराव भोसले सरजी को कॉलेज ने बुलाया था| उस समारंभ में तीन-चार पुरस्कार मुझे भी मिले थे| मेंरा तय किया हुआ वक्तृत्व, कथाकथन, अंताक्षरी स्पर्धा चलता था| हमारे ग्रुप की प्रमुख मै ही थी| प्रश्नमंजुषा में भी मुझे पुरस्कार मिला था| पुरस्कार लेने के लिए मैं स्टेज पर दो चार बार जाकर पुरस्कार लेकर आई थी, बहुत खुशी से, आनंद से| कितने पुरस्कार लिये है तुमने? मुझे प्यार से कहा| आज भी मुझे उनकी सुंदर आवाज, उन के प्यारे बोल, मुझे दिखाई नही देते, फिर भी मुझे समझ में आया था| उनकी याद से मेंरा दिल अभी भी भर गया है, प्यार की आँखो से| श्री भोसले सरजी ने उनके आधे भाषण में मेरे कृत्य का ही वर्णन किया| इतना प्यार उमड़ आ रहा था कि उन्होंने मुझ पर छोटी सी कविता भी पेश किया| मुझे अभी कुछ याद नहीं, फिर भी उसका अर्थ समझ गया| भगवान मुझे कहते है, तुम्हारी बड़ी-बड़ी सुंदर आँखें मेंरे पास है| फिर भी मेंरा ध्यान तुम्हारे कर्तव्य की ओर है| यह बडा ‘आशयधन’  मेंरी हृदय में अभी भी जागृत है| उसका अंतर्मुख करनेवाला अर्थ, भाव-भावना जिंदगी में मैं कभी भी नही भूलूंगी|

२००७ साल के एप्रिल में, ‘रंगशारदा’ मिरज में मुंबई के क्रियाशील लोगों ने योगा शिविर का आयोजन किया था| उस शिविर में मैंने भी भाग लिया था| शिविर के आखरी दिन बातो-बातो में मैंने कह दिया की, मैं नृत्य सिखाती हूँ| उन सब लोगों को आश्चर्य होने लगा| ‘विशारद’ परीक्षा भी मैं देने वाली हूँ | जुलै में मुझे फोन आया| गुरुपौर्णिमा के दिन उन्होंने पूछा, मुंबई में एक कार्यक्रम में नृत्य करोगी क्या? आने-जाने का खर्चा हम करेंगे| पापा ने हाँ कह दिया| मेंरे मन में डर था, मुंबई जैसे बडे शहर में मेंरा कैसा होगा, यह डर था| मुझे मेंरा ही अंदाजा नही था, लोगों ने मुझे माथे पर चढा दिया| गाना पूरा होने तक नाचना,  हाथों से तालियाँ  बजाना चलता ही रहा था| मेरा मेकअप, मेरा आत्मनिर्भर होना, आत्मविश्वास इतना गाढा था कि, लोगों को मैं अंध हूँ, इस बात का विश्वास ही नहीं होता था| यह तो भगवान की ही कृपा से हुआ था| सभी स्त्रियों ने मेंरे हाथ हाथ में लेकर, मेंरे चेहरे पर, गालों को हाथ लगाकर, प्यार ही प्यार से आँखों को भी हात लगा कर सच का पता लगाया की सच में मैं अंधी हूँ या नही? मुंबई को भी मैंने मिरज जैंसे छोटे शहर की लडकी ने जगा दिया| मैंने मुंबई के लोगों को जीत लिया था| अनेक संस्थाऔं से पुरस्कार मिलते ही रहे, मिलते ही रहे| मुंबई के लोगों के दिल को मैंने जीत लिया था| यह मेरी लडाई मेरे जीने की आशा, प्रेरणा है|

 

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१५॥ ☆

 

रत्नच्चायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद

वल्मीकाग्रात प्रभवति धनुःखण्डम आखण्डलस्य

येन श्यामं वपुर अतितरां कान्तिम आपत्स्यते ते

बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः॥१.१५॥

 

यथा कृष्ण का श्याम वपु गोपवेशी

सुहाता मुकुट मोरपंखी प्रभा से

तथा रत्नछबि सम सतत शोभिनी

कान्ति पाओगे तुम इन्द्र धनु की विभा से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शब्दुली….. ☆ सौ.अस्मिता इनामदार

सौ.अस्मिता इनामदार

☆ कवितेचा उत्सव ☆ शब्दुली….. ☆ सौ.अस्मिता इनामदार ☆ 

आकाशात    अचानक

ढग भरूनीया आले

आणि डोळ्यातून माझ्या

असे कसे कोसळले?

*

चार शब्द तुझे आणले

चार  शब्द माझे आणले

बांधला त्याचा झुला

अन् आभाळपर्यंत पोचले

*

प्रत्येक नव्या ओळखीतून

नवे नाते अंकुरले

आणि मग नकळत

जीवन उमलून आले.

*

असे कसे मन माझे

रानावनात रमते

माणसांच्या गर्दीतही

मुके मुकेच राहते.

*

नको माणसांचा संग

नको घराचा निवारा

गच्च हिरव्या रानात

फुटे सुखाला धुमारा.

*

© सौ अस्मिता इनामदार

पत्ता – युनिटी हाईटस, फ्लॅट नं १०२, हळदभवन जवळ,  वखारभाग, सांगली – ४१६ ४१६

मोबा. – 9764773842

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 62 – सांजवारा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #62 ☆ 

☆ सांजवारा ☆ 

अताशा अताशा जगू वाटते

तुझा हात हाती धरू वाटते.

 

नदीकाठ सारा खुणा बोलक्या

तुझ्या सोबतीने फिरू वाटते.

 

किती प्रेम आहे,  नको सांगणे

तुझी भावबोली,  झरू लागते.

 

कितीदा नव्याने तुला जाणले

तरी स्वप्न तुझे बघू वाटते.

 

छळे सांजवारा,  उगा बोचरा

नव्याने कविता,  लिहू वाटते. . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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