हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 67 ☆ चांदनी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “चांदनी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 67 ☆

☆ चांदनी

आसमान की चादर पर चांदनी

मस्त हो, इतरा रही थी,

उसकी ग़ज़ब सी नज़ाकत थी,

एक पाँव भी आगे बढ़ाती

तो हवा पायल बन खनक उठती,

और उसकी मुस्कान पर तो

सेंकडों लोग फ़िदा थे –

उनमें से एक उसका आशिक़

बेपरवाह समंदर भी था!

 

समंदर ने उससे कहा,

“बहुत मुहब्बत करता हूँ तुमसे!”

और वो चांदनी इठलाती हुई

उसकी आगोश में समा गयी!

 

चांदनी तो

यह भी न समझ पायी

कि उसका रूप ही बदल गया है

और वो हो गयी है क़ैद

समंदर के घेरे में…

वो तो उसे एक हसीं मकाँ समझ

खुश रहती!

 

यह तो उसने कई दिनों बाद जाना

कि शांत सा समंदर

दिखता कुछ और था

पर उसके मन में कुछ और था;

उसके मन के ऊफ़ान को देख,

और उसका यह बनावटी पहलू देख,

आज़ादी को तरसने लगी!

 

आज मैंने देर रात को देखा

पहुँच गयी थी वापस आसमान में

और फिर मुसकुरा रही थी!

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ पाखंड ☆

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 89 ☆ साहबनामा – श्री मुकेश नेमा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  “साहबनामा ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – साहबनामा # 89 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – साहबनामा 

लेखक –  श्री मुकेश नेमा  

प्रकाशक – मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल

पृष्ठ – २२४

मूल्य – २२५ रु

☆ पुस्तक चर्चा ☆ साहबनामा – श्री मुकेश नेमा ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

कहा जाता है कि दो स्थानो के बीच दूरी निश्चित होती है. पर जब जब कोई पुल बनता है, कोई सुरंग बनाई जाती है या किसी खाई को पाटकर लहराती सड़क को सीधा किया जाता है तब यह दूरी कम हो जाती है. मुकेश नेमा जी का साहबनामा पढ़ा. वे अपनी प्रत्येक रचना में सहज अभिव्यक्ति का पुल बनाकर, दुरूह भाषा के पहाड़ काटकर स्मित हास्य के तंज की सुरंग गढ़ते हैं और बातों बातो में अपने पाठक के चश्मे और अपनी कलम के बीच की खाई पाटकर आड़े टेढ़े विषय को भी पाठक के मन के निकट लाने में सफल हुये हैं.

साहबनामा उनकी पहली किताब है. मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल ने लाइट वेट पेपर पर बिल्कुल अंग्रेजी उपन्यासो की तरह बेहतरीन प्रिंटिग और बाइंडिग के साथ विश्वस्तरीय किताब प्रस्तुत की है. पुस्तक लाइट वेट है,  किताब रोजमर्रा के लाइट सबजेक्ट्स समेटे हुये है. लाइट मूड में पढ़े जाने योग्य हैं. लाइट ह्यूमर हैं जो पाठक के बोझिल टाइट मन को लाइट करते हैं. लेखन लाइट स्टाईल में है पर कंटेंट और व्यंग्य वजनदार हैं.

अलटते पलटते किताब को पीछे से पढ़ना शुरू किया था, बैक आउटर कवर पर निबंधात्मक शैली में उन्होने अपना संक्षिप्त परिचय लिखा है, उसे भी जरूर पढ़ियेगा, लिखने की  स्टाईल रोचक है. किताब के आखिरी पन्ने पर उन्होने खूब से आभार व्यक्त किये हैं. किताब पढ़ने के बाद उनकी हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता समझकर मैं लिखना चाहता हूं कि वे अपने स्कूल के हिन्दी टीचर के प्रति आभार व्यक्त करना भूल गये हैं. जिस सहजता से वे सरल हिन्दी में स्वयं को व्यक्त कर लेते हैं, अपरोक्ष रूप से उस शैली और क्षमता को विकसित करने में उनके बचपन के हिन्दी मास्साब का योगदान मैं समझ सकता हूं.

जिस लेखक की रचनाये फेसबुक से कापी पेस्ट/पोस्ट होकर बिना उसके नाम के व्हाट्सअप के सफर तय कर चुकी हों उसकी किताब पर कापीराइट की कठोर चेतावनी पढ़कर तो मैं समीक्षा में भी लेखों के अंश उधृत करने से डर रहा हूं. एक एक्साईज अधिकारी के मन में जिन विषयो को लेकर समय समय पर उथल पुथल होती रही हो उन्हें दफ्तर, परिवार, फिल्मी गीतों, भोजन, व अन्य विषयो के उप शीर्षको क्रमशः साहबनामा में १८ व्यंग्य, पतिनामा में ८, गीतनामा में १०, स्वादनामा में १०, और संसारनामा में १६ व्यंग्य लेख, इस तरह कुल जमा ६२ छोटे छोटे,विषय केंद्रित सारगर्भित व्यंग्य लेखो का संग्रह है साहबनामा.

यह लिखकर कि वे कम से कम काम कर सरकारी नौकरी के मजे लूटते हैं, एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होते हुये भी लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो साहस मुकेश जी ने दिखाया है मैं  उसकी प्रशंसा करता हूं. दुख इस बात का है कि यह आइडिया मुझे अब मिल रहा है जब सेवा पूर्णता की कगार पर हूं .

किताब के व्यंग्य लेखों की तारीफ में या बड़े आलोचक का स्वांग भरने के लिये व्यंग्य के प्रतिमानो के उदाहरण देकर सच्ची झूठी कमी बेसी निकालना बेकार लगता है. क्योंकि, इस किताब से  लेखक का उद्देश्य स्वयं को परसाई जैसा स्थापित करना नही है. पढ़िये और मजे लीजीये. मुस्कराये बिना आप रह नही पायेंगे इतना तय है. साहबनामा गुदगुदाते व्यंग्य लेखो का संग्रह है.

इस पुस्तक से स्पष्ट है कि फेसबुक का हास्य, मनोरंजन वाला लेखन भी साहित्य का गंभीर हिस्सा बन सकता है. इस प्रवेशिका से अपनी अगली किताबों में  कमजोर के पक्ष में खड़े गंभीर साहित्य के व्यंग्य लेखन की जमीन मुकेश जी ने बना ली है. उनकी कलम संभावनाओ से भरपूर है.

रिकमेंडेड टू रीड वन्स.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 75 – लघुकथा – ऊँचा आसन…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “ऊँचा आसन….। प्रत्येक व्यक्ति की सोच भिन्न हो सकती है किन्तु, कई बार कोई बातों बातों में जो कह जाता है वह विचारणीय हो जाता है। एक ऐसी ही विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 75 ☆

? लघुकथा – ऊँचा आसन …. ?

काम वाली बाई उमा का रोज आना होता था, अच्छे संपन्न परिवार में। मेम साहब और साहब भी उसकी बातों से बहुत खुश रहते थे। नाटे कद की सरल स्वभाव की सारे जहां का गम छुपाए वह बहुत मुस्कुरा कर काम करती थी। आते ही ‘किस स्टेशन पर क्या हुआ, कोरोना में कौन मरा, किसके यहां चोरी हुई, किसी की सास ने आज अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनाई और आज सब्जी का ताजा भाव क्या है’।

इन सब के बीच वह अपनी भी बात कहती जाती:- ” अरे मैम साहब आज मेरा आदमी बिना रोटी खाए चला गया।  घर में आटा जो नहीं था। किसी दिन कहती – आज जी नहीं चला, बच्चों की खूब धुनाई कर कर आई हूं।” और खिलखिला कर हंस पड़ती। पर दिल की बहुत अच्छी थी उमा।

एक दिन घर में मेम साहब अकेली थी। उसको बैठा कर चाय पी रहे थे। अचानक उमा बोल पड़ी :-“मेम साहब मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूं, आप लोग बहुत अच्छे हैं, बहुत पढ़े लिखे लोग हैं, बताइए सभी देवी का मंदिर ऊपर ऊँची पहाड़ी पर या किसी कोने की गुफा पर क्यों बना है? जहां देखो चढ़ैया चढ़कर जाना पड़ता है या गुफा में कठिनाई से छुपकर जाना होता है।”

मेम साहब बोली – “अरे उमा उन्होंने अपना स्थान ऊँचा बनाया है। उनकी अपनी जगह है।”

जोर से उमा हंस पड़ी :-“बस यही तो होता आया है।  स्त्री को पहले भी सताया जाता था। सभी देवी घर छोड़ एकांत में ऊपर चढ़कर बैठ जाती थी और कहती- मना अब मुझे। ऊपर चढ़कर आने में तुझे कितना दर्द और बेचैनी सहनी पड़ती है। मुझ तक पहुंचने में तुझे कितना कष्ट सहना  पड़ता है। देवियों ने ऊंचे पहाड़ पर इसीलिए ऊँचा आसन बनाया अब आओ तुम मेरे पास तब पता चलेगा। नारी को पाना सहज नहीं समझो। “यह कहकर वह चलती बनी।

नारी मन उमा की बात को सोचते-सोचते ‘” क्या आज संसार बदल पाया? तब और अब मैं क्या अंतर है? “‘ इस बात को मेम साहब भी सोचने लगी। देवी और नारी की दशा और दिशा में क्या अंतर आया!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२४॥ ☆

पाण्डुच्चायोपवनवृतयः केतकैः सूचिभिन्नैर

नीडारम्भैर गृहबलिभुजाम आकुलग्रामचैत्याः

त्वय्य आसन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः

संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः॥१.२४॥

सुमन केतकी पीत शोभित सुखद कुंज

औ” आम्रतरु , काकदल नीड़वासी

लखोगे घिरे वन फलित जंबु तरु से

पहुंचते दशार्ण हंस अल्प प्रवासी

दशार्ण …  अर्थात वर्तमान मालवा मंदसौर क्षेत्र

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 81 ☆ लाटांचा या डोंगर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 81 ☆

☆ लाटांचा या डोंगर ☆

अथांग सागर गर्जत आला भेटायाला

गाज सोडुनी दुसरे काही कुठे बोलला

आवाजाने धडकी भरली हृदयी माझ्या

बघता बघता लाटांचा या डोंगर झाला

 

चक्रीवादळ त्याचे होते तो भिरभिरतो

हात कुणाचा हाती घेउन गरगर फिरतो

पाचोळ्याची अशी दशा ही केली त्याने

चक्कर आली निपचित पडला होता पाला

 

तांडव करते क्षणभर आणिक ही कोसळते

दिसेल त्याचे जागेवरती भस्मच करते

कोण ढकलतो आकाशातुन दामिनीस या

सापडला जो तावडीत तो कुठे वाचला

 

धरतीने या आज नव्याने कात टाकली

वसंत येता फळा फुलांनी धरती फुलली

प्रवास खडतर आणि दूरचा आहे तरिही

भेटो सागर म्हणुनी शिरला नदीत नाला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ राख ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

☆ कवितेचा उत्सव ☆ राख ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे 

जळून मेली दहा बालके

कुणाला काय धाड त्याची

माय बाप मोकलून रडती

राख जाहली माया माती

 

राजकारणी संधी शोधती

निपटविण्या कुणा बोलती

जाऊन घरी ते दर्द दावती

लाज वाटे ना ,फोटो घेती

 

चवथा स्तंभ ,स्तंभ रंगवी

लिहून टाकील बरेच काही

तळमळ खरी कुठेही नाही

जो तो अपुला मलिदा पाही

 

देऊन पैसे होइल मोकळे

कारवाईचे सोंग ते बेगडी

पेटवून मग चौकी मेणबत्त्या

श्रद्धांजली ची भाषणे देती

 

काय पेटविता मेणबत्त्या

घडली आहे ही बालहत्या

सांगतो काहीच होणार नाही

मेले ते आम, खास कुणीच नाही.

 

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ जिंदगी के साथ (भाग-2) ☆ सौ. सुनिता गद्रे

सौ. सुनिता गद्रे

☆ जीवन रंग ☆ जिंदगी के साथ (भाग-2) ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

“ए बाई, नौटंकी नकोय. खरं काय ते सांग.”बेला रागातच म्हणाली. समिधानंसांगितलेलं ऐकून ती हादरलीच. समिधानं एक कप डासांना मारायचं हिट घेतलं होतं.त्याचाच तो वास होता.

“पंधरा मिनिटं झाली. पण मला काहीच होत नाहीये.” समिधा भेसूर आवाजात म्हणाली.

“म्हणजे काय व्हायला हवं होतं ? मरायचं होतं तर इथं कशाला धावत आलीस ?घरात पडून राहायचंस ना! जीव देणं येवढ सोपं असतं होय ?”बेला वैतागून म्हणाली खरी, पण आता तिला वाचवायला पाहिजे हाच विचार बेलाच्या डोक्यात आला.

‘आता काय करावं? कुणाची मदत घ्यावी? उपचार तर लवकर सुरू व्हायला हवेत.’ विचार करत करत तिने किरण ला फोन लावला.तिची कादंबरी पूर्ण करायची निकड या गदारोळात निपचित पडून राहिली.

“बेलाअगं आपल्याला संध्याकाळी शॉपिंग ला जावं लागेल. आता आमच्याकडे एक गेस्ट यायचे आहेत.” किरण सांगत होती.

“ए बाई कसंही करून आत्ताच ये.एक शुक्लकाष्ट मागं लागलंय, एकदम एक मोठी इमर्जन्सी आली असं समज.  डेबिट कार्ड आहे माझ्याकडं .पण तू दहा-बारा हजार…जितके असतील तेवढे घेऊन ये. “बेला बोलून मोकळी झाली. अन् थोडी सावरली.

किरण ताबडतोब आली. अन् समिधा चा पराक्रम पाहून घाबरूनच गेली .तिनं तारा बेनला बोलावून आणलं    .

“ताराबेन असं काय घडलं घरात की या मूर्ख बाईनं विष प्यावं?” बेला जाब विचारावा तसं म्हणाली.” समिधानं… विष? त्यांच्या कानावर पडलेल्या शब्दांनी त्या दचकल्या, घाबरल्या, थरथर कापू लागल्या.

“हे भगवान, मी काय करू आता?” बसकण मारत त्या म्हणाल्या. “मी अशी दोन्ही गुडघ्यांनी अधू.. वर्षभराची नात माझ्याजवळ.” ..पुढे म्हणाल्या, “बेला आता तुझ्या हातात आहे सगळं काही.. काहीही कर, किती पैसे लागू देत, पण समिधाला वाचव.”

बेला, किरण विचारात पडल्या. यावेळी अपार्टमेंटमध्ये कोणी पुरुष माणूस नाहीये .इतर कोणी मदतीला येण्याची शक्यता पण नाही. येथून मेन रोड पर्यंत इतका अरुंद बोळ आहे की इथे ॲम्बुलन्स पण येऊ शकणार नाही.प्रत्येक क्षण मोलाचा होता. दोघींनी तिला कोपऱ्यावरच्या गोसावी डॉक्टरांकडं घेऊन जायचं ठरवलं.

“सुदेश मीटिंग मध्ये बिझी आहे तर तुझ्या प्रकाशचं ऑफिस आहे दीड तासाच्या अंतरावर. तेव्हा  देवाचं नाव घेऊन लागू या ‘मिशन जिंदगी के साथ’ या कामाला.” जिना उतरता उतरता बेला म्हणाली. दोघींनी समिधाला दोन्ही हातांनी पकडलं होतं. दहा-पंधरा पावलं पण चालून झाली नव्हती. तेवढ्यात….

“बेला आन्टी मला काही दिसेनासं झालंय.” समिधा घाबरुन म्हणाली. उभीच्या उभी थरथर कापू लागली. ऐकून किरणची सटकलीच.

“भोगा आता आपल्या कर्माची फळं !” किरण तिच्यावर खेकसली. बेलानं तिला खूणेनं शांत राहायला सांगितलं. पण पुढं थोडं अंतर चालून गेल्यावर समिधा एकदम थबकली .

“ऑंटी.. मला..एकही.. पाऊल.. पुढे.. टाकता.. येत नाहीय. माझे.. पाय.. जड.. झालेत .”रडत समिधा म्हणाली. तीला नीट बोलताही येत नव्हतं. त्यांना काही सुचेना. दोघी तिला ओढत ढकलत कशा बश्या दवाखान्यापर्यंत घेऊन आल्या. दवाखाना बंद होता पण डॉक्टर वरच्या मजल्यावर राहत होते.बेला तडक वरती डॉक्टरांच्या घरात गेली.

“डॉक्टर साहेब… जरा प्लीज ऐकता?… बेलानं अडखळत सगळा वृत्तांत सांगितला. त्यांनी परिस्थितीचं गांभीर्य ओळखलं. जेवणाच्या ताटावरून उठून ते तिच्याबरोबर खाली आले.

तिथं एक मोठा ‘सीनच’ क्रिएट झाला होता .समिधा फूटपाथवर गडाबडा लोळत होती.जिवाच्या आकांताने ओरडत होती…..अन् ही..मोठी गर्दी गराडा घालून उभी होती. ते बघून बेलाच्या उरात धडकीच भरली.डॉक्टरांनी नाडी बघितली. स्टेथेस्कोपनं चेकिंग केलं. मग जरा काळजी च्या आवाजात म्हणाले,

“विष अंगात भिनायला लागलंय. ताबडतोब हॉस्पिटल गाठावे लागेल तुम्हाला. जस्ट हरीअप्! त्यांनी जवळच असलेल्या कामत हॉस्पिटलच्या स्पेशालिस्ट ला फोन करून सगळी कल्पना दिली.

आता पुढचं काम!… लोकांच्या घोळक्यातून बाहेर पडून त्या रिक्षा थांबवायचा प्रयत्न करू लागल्या. कार वाल्यांना लिफ्ट मागू लागल्या. पण सगळेच बघे निघाले .मदत करायची सोडून काहीजण मोबाईलवर व्हिडीओ घेण्यात गुंतलेले दिसले. नशीब बलवत्तर असंच म्हणायला पाहिजे… एक रिक्षावाला मदतीला पुढे आला. त्यामुळे त्या वेळेवर हॉस्पिटलमध्ये पोहोचू शकल्या. स्पेशालिस्ट डॉक्टरांनी विचारलेली सगळी माहिती त्यांनी दिली. आणि इमर्जन्सी

मध्ये ट्रीटमेंट सुरू झाली. बाहेर रिसेप्शनवर फॉर्म लिहून देऊन, पैसे भरून, त्या परत जायला वळल्या.

क्रमशः …

© सौ. सुनिता गद्रे,

माधव नगर, सांगली मो – 960 47 25 805

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-2☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

☆ विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-2 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे 

दयानंदांनी वेदांचा अधिकार स्त्रियांना, शूद्रांना सर्वांनाच आहे, हे वेदांच्या सहाय्यानं समजावून दिलं.त्यामुळं घडलेली क्रांती मोठी होती.वेदच नव्हेत तर आधुनिक शिक्षणही स्त्रियांना देण्यात ज्यांनी ज्यांनी पुढाकार घेतला, त्यांच्यावर दयानंदांच्या विचारांचा परिणाम होत होता किंवा त्यांना यामुळे अधिकृतपणे धर्माचा पाठिंबा मिळाला.स्त्रीशिक्षण,जातिनिरपेक्षता हे धर्माविरुद्ध आहे असं म्हणणाऱ्या सनातनी लोकांना त्यांच्याच भाषेत उत्तर मिळालं.

आज व्यवसाय म्हणून पौरोहित्याचा मार्ग स्त्रियांना खुला झाला आहे यामागे दयानंदांचं खूप मोठं योगदान आहे.

त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वाचा कधीच प्रसिद्ध न झालेला पैलू म्हणजे भारतात घड्याळाचा कारखाना काढता येईल का,यासाठी त्यांनी विचार व पत्रव्यवहार केला होता.आर्थिकदृष्ट्या देश स्वावलंबी असावा हा यामागचा विचार! अर्थात तो अयशस्वी झाला.

तरी भारत “राष्ट्र”म्हणून उदयाला यावा ही त्यांची धडपड होती.

परकीय आक्रमणाची टांगती तलवार डोक्यावर असणाऱ्या उत्तरेकडच्या प्रांतात विशेषतः पंजाब,हरियाणात आर्य समाज रुजला कारण मूर्तीपूजा,त्याचा थाटमाट,मंदिरांचे ऐश्वर्य यासाठी त्यांच्याकडे स्वस्थता आणि सुरक्षितता नव्हती.त्यामानाने स्वस्थ, सुरक्षित दक्षिणेकडील प्रांतात आर्य समाज रुजला नाही.पण आजही आर्य समाजाचं काम चालू आहे.

दयानंदांवर माउंट अबू इथे विषप्रयोग झाला.त्यांना वैद्यकीय मदत लवकर मिळू नये अशी व्यवस्था करण्यात आली होती.तो कुणी केला, याबद्दल मतभेद आहेत.त्यांच्या कार्यामुळे हिंदू सनातनी, मुस्लिम, ख्रिश्चन धर्मप्रसारक, ब्रिटिश सरकार, काही विलासी संस्थानिक या सर्वांच्याच हिताला बाधा येत होती.पण एक नक्की…..

भारतातील अनेक पुरोगामी,देशहितकारी विचारांवर दयानंदांच्या विचारांची छाया आहे.प्रगतीच्या शिडीतील ही एक विस्मरणात गेलेली महत्त्वाची पायरी आहे,हे विसरता येणार नाही.

© सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

मो – 7499729209

(लेखात व्यक्त केलेली मते लेखकाची वैयक्तिक मत आहेत.)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्हाट्स ऍप, आजी आणि प्रायव्हसी -सिक्युरिटी ☆ श्री योगेश गोखले 

 ☆ विविधा ☆ व्हाट्स ऍप, आजी आणि प्रायव्हसी -सिक्युरिटी ☆ श्री योगेश गोखले ☆ 

ताई आजी आपल्या नातवाची वाटच पहात होती. गेले २ दिवस परीक्षेमुळे तो बिझी होता. व्हाट्स ऍप बंद पडणार असं ४ दिवसापूर्वी तिला कोणीतरी भजनीमंडळात सांगितलं. तेव्हा तिने लक्ष दिलं नाही. पण गेले २-३ दिवस नवीन टर्म्स आणि कंडिशन्स एकसेप्ट नाही केल्या तर व्हाट्स ऍप बंद होणार असे कमीत कमी १० मेसेजेस तिला वेगवेगळ्या ग्रुप वर आले.  रोज मंदिरात, संध्याकाळी कट्ट्यावर दुसरा विषय नाही गेले दोन दिवस. आणि मग मात्र तिला पटलं की आता व्हाट्स ऍप खरंच बंद होणार. मोबाईल च्या बाबतीत हुकमी एक्का म्हणजे नातू. पंच्याहत्तरीला ५ वर्षांपूर्वी त्यानेच तर बाबांच्या मागे लागून तिला स्मार्ट फोन घेवून दिला होता. संसार, माहेर, नातवंड यांच्या ग्रुप वर तिला एड करून दिलं. “स्नेहमंडळ” नावानी तिच्या मैत्रिणींचा ग्रुप करून दिला. आणि बघता बघता म्हातारी स्मार्ट आजी झाली. आता तर ती ५ ग्रुप ची ऍडमिन होती. दिवसाचे ३-४ तास बरे जायचे. आणि आता व्हाट्स  अँप बंद होणार. २ दिवसापासून ती बैचैन होती. त्यात हुकमी एक्क्याची नेमकी परीक्षा. बंडू पेपर संपवून आला आणि आजीने त्याच्या ताबा घेतला.

आजी : “बंड्या तुला काही चहा / कॉफी हवंय का? माझं एक काम आहे तुझ्याकडे. ते व्हाट्स ऍप बंद पडणार आहे. ते त्याच्या काय टर्म्स कंडिशन्स आहेत ते मंजूर कर. त्याचे काही पैसे-बैसे असतील तर ऑनलाईन भर. मी तुला लगेच देते आणि वर तुझी १०० रु करणावळ.”

बंड्या : “ते आधीचे १०००० राहिले आहेत.”

आजी : “गप रे मेल्या. या वेळी नक्की देईन पण ते तुझं काय ते डाउनलोड, इन्स्टॉल कर.  तो तुझा “झबलं बर्गर” काय परवानगी मागेल ती देऊन टाक.”

बंड्या :  “आजी, “झबलं बर्गर ” नाही गं, “मार्क झुकेरबर्ग ”

आजी : “हा..तेच ते…तू आधी मला ते काय ते करून दे..माझं व्हाट्स ऍप बंद नाही झालं पाहिजे.”

बंड्या : “पण आजी, तुला काही तुझ्या प्रायव्हसी ची काळजी आहे का नाही.”

आजी : “डोम्बल्याची प्रायव्हसी. अरे लग्न झालं तेव्हा दोन खोल्यांचा संसार. बाहेर मामंजी आणि सासूबाई. अशात सुद्धा ७ वर्षात ४ मुलं झाली. मला नको सांगू त्या प्रायव्हसी चं कौतुक. दे त्याला मान्यता.”

आजीच्या स्पष्टवक्तेपणाने आजची तरुण पिढीही क्लीनबोल्ड झाली. तरी पण स्वतःला सावरून बंड्याने आजीला समजावण्याचा प्रयत्न केला.

बंड्या : “आजी तशी प्रायव्हसी नाही, तुझ्या माहितीची सिक्युरिटी आणि प्रायव्हसी. पण तुला नक्की काय होतंय ते कळलंय का? तो तुझा “झबलं बर्गर” तुझे मेसेजेस वाचणार आणि वापरणारही.”

आजी : “मग वाचू देत की, त्यात काय बिघडलं. मी तुझ्या एवढी होते तेव्हा आमच्या वाड्यातल्या कित्येकांची पत्रे तो पोस्टमनच वाचून दाखवायचा. ते सुद्धा जाहीररीत्या. वाड्यातल्या चौकात.  अरे तुझे आजोबा २ वर्ष नोकरीला मुंबई ला आणि मी नगरला एकटीच. महिन्याला मनिऑर्डर यायची. तो पोस्टमन दारातूनच ओरडत यायचा. “वाहिनी या महिन्याला १०० ची आली”. सगळ्या वाड्याला कळायचं. अरे ६ महिन्यांनी १०० चे १५० झाले आणि त्या खडूस मालकांनी भाडं वाढवलं बघ.  अरे तुझ्या बापाच्या वेळेला माझ्या बाबांनी तार केली तर तो शहाणा तारवाला येताना पेढे घेऊन आला. वाड्याच्या चौकात सगळ्यांना बोलावून आनंदाची बातमी दिली. मग आजोबांच्या हातात तार दिली आणि पेढ्याचे ५ रुपये मागितले.

वाचुदे त्या बर्गरला माझी माहिती, काही बिघडत नाही. आणि वाचून काय वाचणार “गुड मॉर्निंग”, “गुड इव्हनिंग”, “गुड नाईट”. फॉरवर्ड केलेल्या कविता, काही  लेख, शुभेच्छा आणि सांत्वन. काय मेला फरक पडतो. उलट त्या तुझ्या “झबलं बर्गर” च्या ज्ञानात जरा भर पडेल.”

आजीला व्हाट्स ऍप हवंच होत. तिच्या कडे सगळ्याची उत्तर होती. तरीपण बंड्याने अजून एक प्रयत्न करायचा ठरवलं.

बंड्या : “आजी तसं नाही. तो तुझी माहिती नुसती  वाचणार नाही.  वापरणार सुद्धा.  म्हणजे विकणार सुद्धा.”

आजी : “विकूदे  विकलीतर.  त्यालाही संसार आहे. बायका, पोरं असतील. मिळाले चार पैसे माझ्या माहितीतून तर मिळूदेत त्या बिचाऱ्या ‘बर्गर” ला. नाहीतरी इतके दिवस व्हाट्स ऍप फुकट देतोय बिचारा. असा माणूस मिळत नाही हो. अरे तो तुझा देव सुद्धा तपश्चर्या केल्याशिवाय आशीर्वाद देत नाही. मिळवले चार पैसे तर कुठे बिघडलं. पण का रे बंड्या तो ती माहिती वापरणार कशी आणि पैसे कसे मिळवणार.?”

बंड्याला परत आशेचा थोडा किरण दिसला.

बंड्या : “हे बघ आजी म्हणजे..आता तू पर्वा निताताई ला शुभेच्छा पाठवल्यास ना डोहाळजेवणाच्या. तो मार्क झुकेरबर्ग आता त्या नीता ताईचा नंबर इन्शुरन्स कंपन्यांना देणार आणि त्या बदल्यात पैसे घेणार.  मग त्या इन्शुरन्स कंपन्या बरोबर १-१.५ वर्षांनी निताताईला “चिल्ड्रेन्स प्लॅन” विकणार. म्हणजे तसा प्रयत्न करणार त्यातून त्यांना पैसे मिळणार. किंवा तू राहुल दादा ला परवा मेसेज केलास ना “घर असावं घरा सारखं..नकोत नुसत्या भिंती…”त्यावरून ते अंदाज लावणार की राहुल दादाने नवीन घर घेतलं आहे. मग राहुलदादाचा नंबर ते बँकांना देणार आणि मग बँका त्याला लोन हवंय का..आमच्या ह्या स्किम आहेत म्हणून फोन करणार. असं गौडबंगाल असतं त्या मागे.”

आजी : “एवढच ना. मग काही प्रॉब्लेम नाही. कोणी काही विकेल रे पण आपल्या गरजा आपल्याला ओळखता आल्या पाहिजेत ना.  अंथरूण पाहून पाय पसरावेत. किंवा तुझ्या भाषेत उंटांचा मुका घ्यायला जाऊ नये. आणि समजा आले माझ्याकडे काही विकायला तर येवू देत. अरे बोहारीण पण कधी माझ्या वाट्याला गेली नाही. मुकाट मी दिलेल्या कपड्यात मागितलेलं भांड द्यायची. हे काय गंडवतात मला. तू कर रे ते नवीन व्हाट्स ऍप  इन्स्टॉल बिनधास्त कर. माझी जबाबदारी”

आणि बंडया ते FB काय असतं रे? सगळ्या व्हाट्स ऍप च्या त्या मेसेज मध्ये FB चा पण उल्लेख होता म्हणून विचारले.

बंड्या : “अग ते दोघे भाऊ भाऊ आहेत असं समज. FB हा व्हाट्स ऍप सारखा दुसरा कम्युनिकेशन प्लॅटफॉर्म आहे किंवा तुझ्या भाषेत सोशिअल-मिडिया. आता FB ने व्हाट्स ऍप ला विकत घेतलंय आणि ते म्हणतात की आपण आपापल्याकडची माहिती एकमेकांना शेअर करायची.”

आजी : “भाऊ -भाऊ च ना.  एकाच घरचे तर आहेत. कुठे बिघडलं माहितीची देवाण घेवाण केली तर. द्यावं रे बाबा..मोकळ्या मनाने आणि सढळ हाताने द्यावं.  म्हणजे समोरचा पण विश्वासाने आणि कृतज्ञतेने वापरतो. माझी आई सांगायची मला. असो. पण बंड्या त्या FB वर पण नवीन अकाऊंट काढावं लागतं का ? का अजून एक फोन घ्यावा लागेल??”

बंड्याने पुढचा धोका ओळखला आणि आजीला म्हणाला.

बंड्या : “तुला सांगितलं ना की दोघं, व्हाट्स ऍप आणि FB एकाच घरचे आहेत. एका ठिकाणी अकाउंट असलं की ते दुसरीकडे काढू देत नाहीत. नाहीतर तू बसशील स्वतःशीच बोलत या अकाउंट वरून त्या अकाउंट वर.”

हे मात्र आजीला पटलेलं दिसलं.

आजी : “भलता चलाख आहे रे तुझा “झबलं बर्गर”. हुशार दिसतोय. चांगला खोडा घालून ठेवला. पण मग तुझी ती “स्वीटू” तुला व्हाट्स ऍप वर मेसेज पाठवते आणि तू त्या “स्वीथ्री” बरोबर FB वर कनेक्ट असतोस ते कसं”

बंडया : “आजी माझ्या क्लास ची वेळ झाली, हा प्रश्न तू दीदी ला विचार.”

आणि बंड्या पसार झाला पण आता बहुदा त्यालाही क्लॅरिटी आली होती… व्हाट्स ऍप वरून स्विच व्हायचं का नाही.

होप, हे वाचून तुम्हाला पण येईल.

योगिया From Facebook

                                                                           (श्री योगेश गोखले यांच्या फेसबुक वॉलचे सौजन्याने)
© श्री योगेश गोखले 

ईमेल – [email protected]

मोबा. – ९८८१९ ०२२५२

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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