हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ज़िन्दगी की धूप… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश कुमार वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ज़िन्दगी की धूप …।)

☆ कविता  ☆ ज़िन्दगी की धूप … ☆

आज ठंड बहुत है,

खिड़की से देख रहाँ हूँ,

नीचे हल्के धूप के तिकोने में,

एक बच्ची मेरी यादोँ की, सी,

गुड़िया से खेल रही है,

 

खटोले पे बैठी दादी, भी,

स्वेटर बुन रही हैं,

खेलते, खेलते, वो बच्ची, देखती,

कभी मुझे, सरसरी निगाहों से,

जैसे मेरा अतीत देख रहा, मुझे,

फिर खेल में मशरूफ हो जाती, वो,

धूप का तिकोना, बढ़ गया फैल गया,

 

में भी सोच रहा अगर माँ होती तो,

वो भी जोर शोर से,

रंग बिरंगे ऊनों में उलझी होती,

वो भी मेरे लिए स्वेटर बुन रही होती,

 

लगा में भी कहीं, फिर,

उलझने लगा,

धूप लगा तेज़ हो गई,

सर गरम होने लगा,

में खिड़की से हट गया,

 

बच्ची, दादी, मां, बुनते रहे,

मेरी यादोँ का स्वेटर,

रोज़ इसी तरह,

ठंड बढ़ती गयी,

में इसी तरह,

ज़िन्दगी की धूप देखता रहा

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆

नैनीताल के पास ही एक छोटा कस्बा है नौकुचिया ताल जहाँ हमने दो रातें  बिताई और सुबह-सबेरे हरे भरे जंगल में ट्रेकिंग का आनंद लिया । यहाँ आसपास तीन तालाब हैं, नौ किनारों वाला नौकुचिया ताल जिसे एक सिरे से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भारत का नक्शा देख रहे हैं । गहरे नीले रंग केस्वच्छ जल से भरा  इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसे मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। परन्तु हम दोनों बहुत कोशिश करके भी कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देख सके लेकिन भाग्यशाली तो हम हैं जो ऐसे सुन्दर स्थलों को देख रहे हैं और जहांगीर ने तो सौदर्य से भरपूर कश्मीर को ही स्वर्ग माना था । इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकीनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इसी ताल के समीप है कमल ताल, लाल कमल के बीच  तैरती बतखे मन को प्रफुल्लित करती हैं । यह भी तो ताल देखने का एक आकर्षक कारण है।

नौकुचियाताल से कोई सात आठ किलोमीटर की दूरी पर है सत्तताल, जो अपने आप में सात तालाबों को समाहित किये हुए है ।  इसमें से तीन तालाबों के नाम राम, लक्ष्मण व सीता को समर्पित है और शेष ताल के नाम  नल- दमयंती, गरुड़ पर हैं तो एक पूर्ण ताल तो दूसरा केवल बरसात में कुछ समय के लिए भरने वाला सूखा ताल ।  इसी रास्ते में पड़ता है  भीम ताल, जिसे कहते हैं कि बलशाली पांडव भीम ने अपने वनवास के समय निर्मित किया था । भीम को तो लगता है जल स्त्रोत खोजने में महारत हासिल थी, भारत भर में अनेक दुर्गम जल क्षेत्र भीम को ही समर्पित हैं । इन सभी तालों में नौकायन करते हुए विभिन्न जलचरों  और देवदार के लम्बे पेड़ों को देखने का अपना अलग ही आनंद है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मृग तृष्णा। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा

मृग तृष्णा में भटकता रहा जीवन  भर

यहां से वहां इधर से उधर, उस मन मोहक मृग की चाह में

खेलता रहा जो हमेशा लुका छुपी का खेल

मोहक छवि कभी स्वर्ण सा कभी रजत सा दिखता रहा मृग ||

चल पड़ता अदृश्य होते मृग की खोज में

मादक अदा से बार-बार अदृश्य हो कर मुझे छलता रहा मृग

मस्तिष्क-पटल पर हमेशा अवतरित रहा मृग

भूलना चाहा पर फिर मनमोहक अदा दिखा व्याकुल कर जाता मृग ||

कभी स्वर्ण तो कभी रजत सा दिखता मृग

कभी लगती मन की कल्पना तो कभी पूर्वजन्म की अधूरी अभिलाषा

प्रकट हो लुभावनी अदा से आमंत्रित करता मृग

यौवन लील लिया मृग तृष्णा ने,कभी हासिल हो ना सका मोहक मृग ||

मृग का पीछा करते वृद्ध मार्ग तक पहुँच गया

मृग, मोहिनी अदा से सम्मोहित कर वृद्ध मार्ग पर फिर बढ़ जाता आगे

संध्या हो चली जीवन की, मन तृष्णा से व्यथित

अंधकार की और बढ़ता जीवन,चमकते नैनों से आमंत्रित करता रहा मृग ||

बार-बार मोहिनी अदा दिखा आगे बढ़ जाता

उबड़-खाबड़ दुर्गम कंटीले रास्ते पर बहुत आगे तक ले आया मुझे वो

थक कर विश्राम को बैठ गया राह में

शायद ही उसे पा सकूं मगर फिर सामने आकर मुझे रिझा जाता मृग ||

चारों और घनघोर अँधेरा, अमावस्या की स्याह रात

अब कुछ भी  नजर नहीं आ रहा सिवाय दूर चमकते दो मृग नैनों के

थक कर अब और आगे बढ़ ना पाया,

अंतिम छोर तक पहुंचा कर धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गया मृग ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ “वानप्रस्थ में संगीत के रंग, प्रो शुचिस्मिता के संग” – वानप्रस्थ (वरिष्ठ नागरिकों की संस्था) का आयोजन ☆ श्री अजीत सिंह

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

(श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)

☆ “वानप्रस्थ में संगीत के रंग, प्रो शुचिस्मिता के संग” – वानप्रस्थ (वरिष्ठ नागरिकों की संस्था) का आयोजन

हिसार। जनवरी १८, संगीत के मनोविज्ञान का अध्ययन करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में एक शोध परियोजना चलाई गई जिसके चमत्कारी परिणाम मिले हैं। विभाग की मुखिया व संगीत विदुषी प्रो शुचि स्मिता ने यह जानकारी देते हुए बताया कि इसके तहत विद्यार्थियों के एक ग्रुप को 40 दिन तक रोज़ाना 15 मिनट के लिए वीना वादक विश्वमोहन भट की एक रचना ‘रिलैक्सेशन’ सुनाई गई। इसके बाद उनका मनोवैज्ञानिक टेस्ट लिया गया। वे अधिक तरोताजा और ऊर्जावान पाए गए।

“संगीत एकाग्रता बढ़ाता है। चंचल मन को शांत करता है। जीवन की भागदौड़ में जीवन की  लय बिगड़ जाती है। संगीत इसे फिर से ठीक कर देता है”, प्रो शुचि स्मिता का कहना था। वे अभी तक 29 शोधार्थियों को पीएचडी करा चुकी हैं।

प्रो शुचि स्मिता / वानप्रस्थ की वेब गोष्ठी का दृश्य

वानप्रस्थ द्वारा आयोजित वेब गोष्ठी में उन्होंने संगीत की विभिन्न विधाओं का परिचय और फिर गीतों, ग़ज़लों और भजनों के इलावा हरियाणा व पंजाब के लोकगीतों की प्रस्तुति दी। गोष्ठी में हिसार, कुरुक्षेत्र, जम्मू, दुबई, लखनऊ, गुरुग्राम, दिल्ली, पूना, फरीदाबाद व भोपाल से लगभग 35 संगीत प्रेमी वरिष्ठ नागरिकों व अन्य ने भाग लिया।

प्रो स्मिता मुश्किल से मुश्किल राग रचना भी बड़े ही सहज भाव से गा लेती हैं। संगीत की प्रेरणा अपनी माता संतोष नारंग को नमन करते हुए उन्होंने गाया,

“मां सुनाओ मुझे वो कहानी, जिसमें राजा न हो, न हो रानी”।

स्मिता के पिता प्रो जी एल नारंग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में ही इंगलिश विभाग के प्रोफेसर थे। उनकी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी स्तर की पढ़ाई भी वहीं हुई और जॉब भी वहीं संगीत विभाग में लग गई।

“हरियाणा दिवस से पहले चार दिवसीय रत्नावली प्रोग्राम होता रहा है जहां हरियाणवी संस्कृति और लोकसंगीत को भी संवारा सजोया जा रहा था। मैं और मेरे छात्र छात्राएं हर बार इसमें  बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उसी समय का एक लोकगीत प्रस्तुत करते हुए उन्होंने गाया,

 “पाणी ल्यावण जा रही, हे मेरी सासड़ रानी, सात जणी का साथ।

कोए स्याणी, कोए याणी,  भर भर पाणी, ल्या रही हे मेरी सासड़ रानी, सात जणी का साथ”।

साथ ही उन्होने बन्ना बनड़ी के एक पंजाबी लोकगीत की भी प्रस्तुति दी।

“मत्थे ते चमकण वाल, मेरे बनड़े दे।”

प्रो शुचि स्मिता कहती हैं, सत्संग और कव्वाली जैसी संगीत विधाएं एक लय व स्वर में सामूहिक गान का अनुभव देती हैं जो सभी भागीदारों में प्रेम और एकता बढ़ाता है। यह अनुभव रिश्ते निभाने में भी काम आता है। जीवन भी सुर मिलाने से ही चलता है।

“राग भीम प्लासी” अवसाद यानि डिप्रेशन को दूर करता है।

मेरे पिता अक्सर गाते थे,

 ‘ जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दीये,

ढूंढ लाया हूं वही, गीत मैं तेरे लिए”।

साथ ही उन्होंने राग यमन का यह गीत भी गाया,

“रंजिश ही सही, दिल दुखाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।”

रागों  का परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि हर राग को हर गायक अलग ढंग से गाता हैं और एक ही गायक भी अलग समय पर एक ही राग को अलग ढंग से गाता है।

ग़ज़ल की बारी आई तो प्रो स्मिता ने जगजीत सिंह की गाई सुदर्शन फाकीर की रचना को चुना।

“आज के दौर में ऐ दोस्त, ये मंज़र क्यूँ है,

ज़ख़्म हर सर पे, हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है?”

फिर उन्होंने पंकज उदास की इस ग़ज़ल को गाया,

“झील में चांद नज़र आए, थी हसरत उसकी,

कब से आंखों में लिए बैठे हैं, सूरत उसकी”।

इसके बाद प्रो स्मिता ने  मीरा का भजन उन्होंने गाया ,” मेरो मन राम ही राम रटे रे”।

करीबन पौने तीन घंटे चली इस वेब गोष्ठी में पहली बार एक और संगीत विदुषी भोपाल से भारती वैद्यानाथन भी जुड़ी और उन्होंने एक मीठी प्रस्तुति दी, “हरि तेरो भजन कियो ना जाए”।

नोएडा से ऑनलाइन जुड़े आकाशवाणी के पूर्व सह निदेशक अरुण कुमार पासवान ने अटारी शीर्षक से एक कविता पेश की जिसमें भारत-पाक सीमा पर स्थित इस कस्बे द्वारा देखे गए नर संहार, लूट कसोट और भागम भाग की त्रासदी का भावपूर्ण वर्णन किया गया था।

वानप्रस्थ के स्थानीय सदस्यों प्रो शामसुंदर धवन, प्रो आर के सैनी, योगेश सुनेजा, डॉ प्रज्ञा कौशिक, पूनम परिणीता व प्रो राज गर्ग ने भी इस अवसर पर गीत व कविताओं की प्रस्तुति दी।

गोष्ठी का संचालन दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने किया। टेक्निकल कोऑर्डिनेशन प्रो सुरेश चोपड़ा ने किया।

वानप्रस्थ क्लब के महासचिव प्रो जे के डांग ने बताया कि आगामी शनिवार 23 दिसंबर को होने वाली साप्ताहिक मंगल मिलन वेब गोष्ठी में गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के प्रो जीतेंद्र कुमार “मानसिक संतुलन कैसे बनाए रखें”, इस विषय पर आख्यान देंगे।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२५॥ ☆

तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं

गत्वा सद्यः फलम अविकलं कामुकत्वस्य लब्धा

तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात

सभ्रूभङ्गं मुखम इव पयो वेत्रवत्याश चलोर्मि॥१.२५॥

उसी ओर विदिशा बड़ी राजधानी

पहुंच भोग साधन सकल प्राप्त करके

अधरपान रस सम मधुर जल विमल पी

सुभग तटरवा बेतवा उर्मियों से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 82 – घर माझे …. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 82 ☆

☆ घर माझे …. ☆

माझ्या साठी जागे असते घर माझे

मी येण्याची वाट पाहते घर माझे

 

घरी परतण्या उशीर होता धुसफुसते

रागावूनी धाक दावते घर माझे

 

या हाताची चव सांभाळी सर्वांना

आस्वादाने भरुन पावते घर माझे

 

पेल्यामधली वादळे, कधी वावटळी

शांतपणाने सर्व साहते घर माझे

 

अवगुण विसरत,जीव लावते कुणा कुणा

माणुसकी चा भार वाहते घर माझे

 

माझे माझे करत साजरे करताना

कधी मला ही बेघर करते घर माझे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जाणीव ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ जाणीव ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

आज एक मज मुंगी भेटली

तुरू तुरु तुरु ती होती चालली

थांब जरा ग म्हणता तिजला

‘ चालत बोलू’ मला म्हणाली ||

 

काय काम ते सांग लवकरी

कामे मजला असती कितीतरी

इवलीशी ती, मला दटावे

घरी जायचे मला लवकरी ||

 

विचारले मी करिशी का तू

सततच इतकी गडबड बाई

इतकी दगदग हवी कशाला ?

बरी मुळी ना इतकी घाई ||

 

थांबली मग ती माझ्यापाशी

म्हणे कशी ग मठ्ठ तू अशी

कण कण वेचत जाणे मजला

लेकरं माझी घरी उपाशी ||

 

आयुष्य किती मज माहीत नाही

जगेन तरी का, ठाऊक नाही

सहजच चिरडे कुणीही मजला

पोचीन घरी ही खात्री नाही ||

 

तुम्ही माणसे भाग्यवान ग

मरणाचेही तुमच्या कौतुक

गुपचुप मरतो आम्ही कारण

जगण्याचेच ग कुणा न कौतुक।।

 

तुमच्याहुन पण आम्ही शहाण्या

आम्हा ही तुमचे नाहीच कौतुक

क्षणभंगुर ठाऊक जगणे तरी

रडणे खचणे आम्हा न ठाऊक ।।

 

इतके बोलून कोडे घालून

हसतच गेली पुन्हा पळून

जाता जाता हळूच आणि

खट्याळ गेली मलाच चावून ||

 

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ जिंदगी के साथ (भाग-3) ☆ सौ. सुनिता गद्रे

सौ. सुनिता गद्रे

☆ जीवन रंग ☆ जिंदगी के साथ (भाग-3) ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

“थांबा, पोलिसात फोन केलाय. ते येतीलच एवढ्यात.” रिसेप्शनिस्ट म्हणाली. “मॅडम” घड्याळाकडे पाहत बेला म्हणाली. “माझी बेबी शाळेतनं  यायचीय. मला जरा लवकर..!” “नाही, सगळ्या फॉर्मलिटीज पूर्ण व्हायला पाहिजेत” रिसेप्शनिस्टचे उत्तर होते. ‘आलिया भोगासी’… वाट पाहण्याशिवाय गत्यंतर नव्हतं. बेलानं शाळेत आणि वडिलांना फोन करून चारूची व्यवस्था केली. किरणनं पण प्रकाश ला फोनवर घडलेलं अघटित  सांगितलं. बेलानं सुदेशला मेसेज टाकला. थोड्या वेळाने पोलीस येऊन धडकले. ”बेला, काय बोलायचं, सांगायचं ते काम तूच कर बाई. मला तर धडकीच भरलीय. उगीच त-त प-प व्हायचं” किरण बेलाचा हात घट्ट धरून म्हणाली.

‘तुम्ही इथं कशा काय आलात ?” पोलिसांच्या प्रश्नावर घाबरून बेला उत्तरली

“रिक्षानं.”

पोलीस दादा हसले. म्हणाले, ”घाबरू नका. तसं नव्हे का आलात?”

“ही पेशंट आमच्या शेजारणीची सून, तिनं पॉयझन घेतलं.  आत्ता घरात म्हाताऱ्या अधू सासु शिवाय कोणी नाही… त्यामुळे शेजारधर्म म्हणून.. बेलानं जरा चाचरत उत्तर दिलं.

मग चौकशीला सुरुवात झाली,

“पेशंटचे नाव?” पोलीस. “समीधा शहा” बेला.

“तुमची नावं?” पोलिस.

“बेला प्रधान, किरण कदम.”दोघी.

“त्यांच्या घरात काही भांडणं?” पोलीस.

“नाही सर,तसं कधी नाही वाटलं.” बेला.

“तसं म्हणजे कसं?” पुढचा प्रश्न.

“म्हणजे विष पिण्यासारखं, किरकोळ भांडणं तर प्रत्येक घरात होतच असतात” बेला जरा सावधानपूर्वक उत्तर देऊ लागली.

“बरं हुंड्यावरून छळ ?” पोलीस।.

“नाही हो सर, सासरची माणसं फार चांगली आहेत. सासू-सासरे ,नवरा, धाकटा दिर सगळेच” बेला.

“मग सून वाईट आहे ?” पोलीस. ”नाही- नाही,ती पण चांगली आहे.”

“काय भानगड आहे राव!” एक पोलिस दुसऱ्याला म्हणाला, ”सासरची माणसं चांगली…सून चांगली… शेजारीपाजारी चांगले… सगळेच कसे छान.. छान.. तरीही सून विष पिते!” पोलिसांचा उपरोधिक स्वर जाणवत होता.

तिथनं सुटका करून घ्यायच्या हेतूनं दोघी म्हणाल्या, “ सर आम्हाला जेवढी माहिती होती तेवढी सांगितली. आता आम्ही जाऊ?”

“नाही त्यांच्या घरातलं कुणीतरी येईपर्यंत थांबावे लागेल” उत्तर ऐकून दोघेही नाईलाजाने बसून राहिल्या.

दहा एक मिनिटात त्यांना सुदेश दिसला. त्याच्याबरोबर विकास भाई आणि समिधाचा नवरा धीरज पण होते… आणि अपार्टमेंटमध्ये काही लोक पण आले होते.

त्यामुळे दोघींची तेथून सुटका झाली. घरी पोहोचेपर्यंत दोघींनी सुदेशला झालेल्या घटनेची इत्यंभूत माहिती दिली होती.

तारा बेन कॉरिडॉरमधे वाट पाहत उभ्या होत्या. चिमुकली मीनू रडवेली झाली होती. त्यांचा अस्वस्थ चेहरा बघून त्यांनी विचारायच्या आतच बेलानं सांगून टाकलं,

“सकाळपर्यंत शुद्धीवर येईल समिधा. दोन दिवस ऑब्झर्वेशन साठी ठेवतील. काळजी करायचं काही कारण नाही. वेळेवर उपचार सुरू झाले त्यामुळे धोका टळला आहे.”       .        पण तारा बेन पॅनिक झाल्या. स्वतःला थोबाडीत मारुन घेत भिंतीवर डोकं आपटून लागल्या. “डाळ फार पातळ करते… भाजीत मसाला कमी असतो म्हणून जरा सांगायला गेले तर हा प्रकार!” त्या हुंदके देत पुढे सांगू लागल्या.

बेला पुढं झाली. त्यांच्या पाठीवरून हात फिरवून धीर देत राहिली.

“येतील थोड्या वेळाने विकासभाई. धीर धरा.। सगळं चांगलंच होणार आहे.” असं म्हणत त्यांना ती त्यांच्या घरी पोहोचवून आली.

क्रमशः …

© सौ. सुनिता गद्रे,

माधव नगर, सांगली मो – 960 47 25 805

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सांजवेळ … ☆ सौ. उज्ज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्ज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆  विविधा ☆ सांजवेळ … ☆ सौ. उज्ज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆ 

ही अशी सांजवेळ आली की मन थोडं अस्थिरच होते! सकाळची उभारी माध्यान्हीपर्यंत राहते आणि नंतर तिला कुठून कलाटणी मिळते ते कळत नाही,

मन उतरणीला लागतं! दिवस आणि रात्रीला जोडणारी ही सांजवेळ! जणू काळजाचा तुकडाच असते ती! सूर्योदयापासून आपण आपल्या उद्योगात इतके मग्न असतो की ही सांजवेळ इतकी लवकर डोकावेल याचे भानच नसते.

बालपणीची कोवळीक घेऊन सूर्य उगवतो, त्याआधी आभाळभर पसरलेला असतो तो त्याचा लाल, केशरी गालीचा! त्यावर लडिवाळपणे खेळत असतो तो बाल सूर्य! त्याच्या तप्त किरणांची शस्त्रे त्याने घरीच ठेवलेली असतात जणू!  जसजसे आकाशाचे अंगण त्याला खेळायला मुक्त मिळत जाते तसतसा  तो सर्वांगाने तेजस्वी होतो. त्याचे हे रूप कधी सौंम्य तर कधी दाहक असते. जेव्हा त्याची ही मस्ती कमी होऊ लागते, तेव्हा पुन्हा तो क्षितिजाशी दोस्ती करायला जातो. आपल्या सौम्य झालेल्या बिंबाची दाहकता कमी करत निशेला भेटायला! मधल्या या अदलाबदली च्या काळात ही सांजवेळ येते!

निसर्गाचे हे रूप मनामध्ये स्वप्नवत गुंतून राहते! मिटल्या डोळ्यासमोर अनेक सूर्यास्त उभे राहतात! समुद्रामध्ये बुडत जाणारे लाल केशरी सूर्यबिंब तर कधी डोंगराचा रांगात, झाडाझुडपात हळूहळू उतरणारे सूर्याचे ते लाल-केशरी रूप! आभाळ भर रंगांची उधळण असते म्हणून निसर्गाची ही ओढ मनाला खूपच जाणवते, जेव्हा आपलं मुक्त फिरणं बंद होतं तेव्हा! उगवती आणि मावळती या सूर्याच्या दोन वेळांच्या मध्ये असताना दिवस बाहेरच्या व्यापात कसाही जात असतोच. वेळ काही कोणासाठी थांबत नाही, पण ही सांजवेळ मात्र मनाला स्पर्शून जाते!

आयुष्याच्या उतरणीचा काळ असाच वेगाने जात असतो. जन्मापासूनचे बालरूप बदलत बदलत मनुष्य तरुण होतो, कर्तव्यतत्पर होत जातो. आयुष्याच्या माध्यांनीला तळपत्या सूर्याप्रमाणे तो कार्यरत असतो. जमेल तितक्या जास्त तेजाने तळपत असतो,तेव्हा कळत नाही की नंतर येणारी उतरण ही अधिक तीव्र स्वरूपाची असणार आहे! सध्यातरी मला या उतरणीची खूप जाणीव होते! आयुष्याची चढण कधी संपली कळलंच नाही आणि ह्या उतरणीच्या  सांजवेळे ला मी आता सामोरे जात आहे! कोरोनाच्या काळात एक नवीन धडा शिकलोय घरात बसायचा! जो अगदी संयमाने आपण पाळलाय! आता वाट पहातोय ती नवीन दिवसांची! ही हूरहूर लावणारी सांजवेळ संपून रात्री ची चाहूल लागली आहे.आनंद इतकाच आहे की आता नवीन दिवस उजाडणार आहे!

गेल्या कित्येक महिन्यांपासून आपण जी निराशादायी सांजवेळ अनुभवत होतो, ती संपून नवीन आरोग्यदायी आशेची पहाट उगवू लागली आहे!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ शाहू महाराजांचे प्राणीप्रेम: गजराज मोतीची शस्त्रक्रिया-2 ☆ संग्राहक – सौ.अस्मिता इनामदार

सौ.अस्मिता इनामदार

☆ इंद्रधनुष्य ☆ शाहू महाराजांचे प्राणीप्रेम: गजराज मोतीची शस्त्रक्रिया-2 ☆ संग्राहक – सौ.अस्मिता इनामदार ☆ 

दुसऱ्या दिवशी महाराज पिराजी मिस्त्रीला घेऊन आले. तेव्हा जखमेची पाहणी करुन पिराजी म्हणाला,”उरलेल्या दाताला जिथून दात्र्या पडल्या आहेत तेथून दात कापून टाकू.” महाराजांनी पिराजीच्या योजनेस संमती दिली. शस्त्रक्रियेसाठी हत्तीला सोनतळी कँपवर हलविण्यात आले. लोखंडही कापू शकतील आशा धारदार करवती पिराजीने आणल्या. मोतीला शांत ठेवण्याचे काम महाराजांनी अंबादास माहूताकडे सोपवले. मोतीचे पाय साखळदंडाने जखडून टाकले. हत्ती ठाणबंद झाला खरा पण सोंड मोकळीच होती. शस्त्रक्रियेसाठी जवळ जाणाऱ्याला तो सोंडेने उचलून फेकून देईल ही भीती होती. सोंड कशात तरी गुंतवून ठेवली पाहिजे यासाठी महाराजांनी एका नवीन साधनाचा शोध लावला. त्याचे तंत्र पिराजीस सांगितले व कुशल पिराजीने ते साधन तयार केले. “गळसाज” असे नाव देऊन ती साखळी हत्तीच्या गळ्यात घातली. लॉकेटप्रमाणे या साखळीत भक्कम काटेरी गोळा अडकविण्यात आला होता. हत्तीने हालचाल केली कि त्या गोळ्याचे अनकुचीदार काटे हत्तीच्या सोंडेला व पायाला टोचत. गोळ्याचे काटे टोचू नयेत म्हणून हत्ती साखळी सोंडेने उचलून धरी. अशाप्रकारे मोतीच्या सोंडेला गोळा उचलून धरण्याचे काम लागले !

अशाप्रकारे मोतीला ठाणबंद करुन पिराजी करवत घेऊन दात कापण्यासाठी मोतीच्या मानेखाली गेला. अंबादास हत्तीला गोंजारुन शांत ठेवू लागला पण पिराजीने दाताला करवत लावताच मोती बिथरला. हा माणूस आपल्याला इजा करणार असे वाटून तो पिराजीस पकडण्याचा प्रयत्न करु लागला. सोंड गुंतली असल्याने तो इकडेतिकडे झुकू लागला. त्यातूनही पिराजीने दाताला करवत लावली पण हत्तीने हिसडा दिल्यामुळे ती तुटली. तो दुसरी करवत लावणार तोच महाराज ओरडले, “पिराजी निघ बाहेर. मोती पायाखाली धरतोय तुला.” पिराजी पटकन हत्तीपासून दूर झाला. यानंतर हत्तीला झुलता येऊ नये म्हणून हत्तीच्या दोन्ही बाजूना बळकट दगडी भिंत बांधण्यात आली आणि पुन्हा एकदा शस्त्रक्रियेस सुरुवात झाली. आता मोतीला हालचाल करता येत नव्हती. पिराजीने दाताला करवत लावली. मोतीला राग आला व सोंडेला टोचणाऱ्या काट्यांची पर्वा न करता मस्तक फिरवू लागला.एकापाठोपाठ एक करवती मोडत होत्या. पिराजी आपल्या कामात मग्न होता. मोतीने दुसरीच युक्ती योजली. तो पुढचे पाय पुढे व मागचे पाय मागे पसरु लागला. त्याचे पोट खाली येत पिराजीला भिडले. पिराजी हत्तीखाली चेंगरणार तोच महाराजांनी पिराजीला ओढून बाहेर काढले.

महाराजांनी डाकवे मेस्त्रींना बोलावून दोन्ही बाजूंस हत्तीच्या पोटाला घासून भिंत बांधून घेतली. परत शस्त्रक्रिया सुरु झाली. मोतीला किंचितही हालता येईना. पाय पसरु लागताच पोट भिंतीला घासू लागले. त्यामुळे पायही पसरता येईनात. पिराजीने करवतीने काही दात्र्या कापल्या. हत्तीलाही कळून चुकले की हि माणसे आपल्याला इजा करणार नाहीत, तर आपल्या वेदना कमी करण्याच्या प्रयत्नात आहेत. तोही समंजसपणे वागू लागला; मुळात मोती होताच समंजस ! हत्तीने सहकार्य करताच आठ दिवसांत पिराजीने खुबीदारपणे दात कापला. कापलेला दात तसाच राहू दिल्यास इन्फेक्शन होऊन हत्तीस इजा होईल म्हणून, एक चांदीचे टोपण तयार केले व दाताला भोके पाडून स्क्रूने आवळून गच्च बसविले. मोती यातनामुक्त झाला. शस्त्रक्रियेचा प्रयोग यशस्वी झाला. हा प्रयोग यशस्वी करणाऱ्या पिराजी मेस्त्री, डाकवे मेस्त्री व अंबादास माहूताला स्वतःच्या पंगतीला बसवून घेऊन महाराजांनी मेजवानी दिली.

मोतीने एक दात गमावला. त्याचबरोबर त्याच्या भोवती असलेले वैभवाचे वलयही विरुन गेले. अंबारीला, छबिना मिरवणुकीला आता तो घेतला जाणार नव्हता. हे शल्य अंबादास माहूताला बेचैन करत होते. मोतीला पूर्वीचे वैभव प्राप्त झाले पाहिजे, ही महाराजांची उत्कट इच्छा होती. मोती होताच तसा विलोभनीय शरीरयष्टीचा व समंजस वृत्तीचा. एकदा महाराज मोतीजवळ उभे असता पिराजीला म्हणाले, “पिराजी, मोतीला दात बसवला पाहिजे. त्याशिवाय त्याला अंबारीसाठी घेता येणार नाही की मिरवणूकीसाठी बाहेर काढता येणार नाही.” तेव्हा पिराजी म्हणाला, ” बसवूया की महाराज. त्यात काय अवघड हाय ! भेंडीच्या लाकडाचा दात करतो. ते वजनाला हलकं, हत्तीच्या दाताच्या रंगाचं आणि महत्त्वाचं म्हणजे त्याला हिर नसतात. त्यामुळे दातासारखा दात करता येईल.” पिराजी कामाला लागला. अगदी तुटलेल्या दातासारखा हूबेहूब दात त्याने केला. त्याला पॉलिश केले. पाहणाऱ्याला तो खरा हस्तीदंत वाटायचा. हा लाकडी दात पिराजीने मोठ्या कौशल्याने चांदीच्या विळीच्या सहाय्याने मूळच्या दातास बेमालूम जोडला. दुसऱ्या दाताभोवतीही चांदीची विळी अडकवली. त्यामुळे पाहणाऱ्यास चांदीची विळी म्हणजे हत्तीचा अलंकार वाटे. दोन दातांचा डौलदार मोती पाहून महाराजांना अपरिमित आनंद झाला. अंबादास आनंदाने नाचू लागला आणि मोडक्या दाताच्या ठिकाणी आलेला दात पाहून मोतीसुद्धा आनंदित झाला. पुढे मोतीचा छबिना मिरवणुकीचा मानही अबाधित राहिला.

संग्राहक – सौ अस्मिता इनामदार

पत्ता – युनिटी हाईटस, फ्लॅट नं १०२, हळदभवन जवळ,  वखारभाग, सांगली – ४१६ ४१६

मोबा. – 9764773842

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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