हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 26 ☆ हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक भावप्रवण कविता  “हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 26 ☆

☆ हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर ☆

 

मन में कुछ है, मुंह में कुछ है, कैसे बात  बने ?

समय गुजरता जा रहा है और नाहक तने तने ।

 

हल न समस्या का निकला कोई आपस में लड़ते

नये नए मुद्दे और उलझते जाते दिन बढते

 

भिन्न बहाने करते प्रस्तुत, मन में है दुर्भाव

कई कारणों से बढता आया द्वेष दुराव ।

 

हिंसा  से कब मिला कभी भी कोई सार्थक हल

और समस्या बढती जाती नई-नई प्रतिपल

 

हल पाने होती जब भी है मन में में सच्ची चाह

आपस में सद्भाव समन्वय से मिल जाती राह

 

मन में मैल जहाँ भी होता, होती ही नित भूल

सोच अगर सीधी सच्ची हो तो खिलते हैं नित फूल

 

हिंसा से हुई कभी न होती कोई समस्या दूर

जहां अहिंसक भाव है मन में वहीं शान्ति भरपूर

 

मन को स्वतः  टटोलो अपना और करो वह बात

देश के निर्दोषी लोगों को हो न  कोई व्याघात

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं।)

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1

यह बात 1984 कि है जब सुरेश की पोस्टिंग स्टेट बैंक की तुलाराम चौक, जबलपुर शाखा में थी। वह प्रशिक्षण हेतु भोपाल गया था। सुबह पाँच बजे के लगभग नर्मदा एक्सप्रेस से जबलपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरकर बाहर निकल रहा था। तभी गेट पर एक साईकल रिक्शा वाले से घर तक का किराया दस रुपए में तय हो गया। वह बैग़ को दोनों पैरों पर रखकर रिक्शे में बैठ ऊँघने लगा। रिक्शा मालगोदाम गेट के बगल से निकल मुख्य सड़क पर सरपट दौड़ने लगा। बायें तरफ़ वन विभाग कार्यालय और दाहिनी तरफ़ हाईकोर्ट के बीच से आगे चौराहे पर पहुँच कर रिक्शा अचानक रुक गया।

सुरेश की नींद का झौंका टूटा तो उसने रिक्शा को तीन लोगों की गिरफ़्त में पाया। वे अपने मुँह कपड़े से ढँके थे। उनकी सिर्फ़ आँखें दिख रहीं थीं। एक गोल कंजी आँख वाले ने रामपुरी चाकू उसकी तरफ़ दिखाते हुए कहा कि जो भी कुछ माल है अंटी में ढ़ीला करो। सुरेश ने सुबह के धुँधलके में देखा कि दूसरा लुटेरा साईकल रिक्शा का हैंडल पकड़े था और

तीसरा बाईं तरफ़ लोहे की रॉड लेकर तैयार था। सुरेश अखाड़े का खिलाड़ी रहा था। वह चाकू, बल्लम, बर्छी और लाठी चलाना और वार से बचना जानता था। उसने स्थिति का आकलन किया और अन्दाज़ लगाया कि चाकू वाले लुटेरे का गुप्तांग उसकी दाहिनी टाँग की ज़द में था। वह चोट करके अपने दाएँ हाथ से उसका चाकू झटक सकता था, परंतु बाएँ तरफ़ वाला लुटेरा उसे रॉड से घायल कर सकता था। सुरेश ने  जो कुछ भी ज़ेब में था, सब निकाल कर लुटेरों के हवाले कर दिया। सामने वाले लुटेरे ने रक़म झटकते हुए हाथ में बंधी रीको घड़ी की तरफ़ इशारा किया, वह भी उसको दे दी। बाएँ तरफ़ वाले लुटेरे ने बैग़ की खानातलाशी लेते हुए ट्रेनिंग की फाइल एक तरफ़ फेंकी और कपड़े दूसरी तरफ़ फेंक बैग़ टटोल कर कहा “साला शिकार फटियल निकला, चलो रे।” सुरेश बिखरे सामान को बैग़ में रख रहा था तभी रिक्शा वाला रिक्शा लेकर रफ़ूचक्कर हो गया।

एकाध महीना बाद, सुरेश बैंक में बचत खाता पासिंग आफ़िसर की कुर्सी पर बैठा पासिंग कर रहा था। बग़ल में वीनू परांजपे सरकारी भुगतान की डेस्क पर काम कर रहे थे। एक पुलिस कांस्टेबल वीनू भाई की डेस्क पर आया। उसने सुरेश के सामने रखी कुर्सी खिसकाने की अनुमति चाही, इसके पहले कि कुछ कहा जाता वह कुर्सी खिसका कर वीनू भाई के सामने बैठ गया। वीनू भाई ने उसका परिचय ओमती थाने के दीवान के के रूप में कराया। वह थाने के स्टाफ़ के वेतन बिल का भुगतान लेने आया था। वीनू भाई ने चाय बुलाकर पिलाई। थोड़ी देर बाद एक गोल कंजी आँख वाला लम्बा छरछरा तीसेक साल का व्यक्ति पान की पुड़िया लेकर दीवान साहब के पास आया। दीवान साहब और वीनू भाई को पान देने के बाद उसने पुड़िया सुरेश की तरफ़ बढ़ाई तो उसकी नज़र उस व्यक्ति की कलाई पर बंधी घड़ी पर अटक गई। घड़ी एक जगह से घिस गई थी इसलिए वहाँ से हल्का पीलापन उभर आया था। सुरेश को अपनी घड़ी पहचानते देर नहीं लगी।

थोड़ी देर बाद जैसे ही लंच का समय हुआ, सुरेश पुलिस कांस्टेबल को लंच कराने बैंक केंटीन में ले गया। वहाँ उसने उससे पान लाने वाले व्यक्ति की जानकारी चाही। पुलिस कांस्टेबल ने कहा “वह पुलिस का मुखबिर याने पुलिस को खबर पहुँचाने वाला ख़बरी है। सुरेश के यह पूछने पर कि वह छोटी-मोटी वारदात को अंजाम देता है क्या? कांस्टेबल बोला “गुंदरा है, जात का रंग तो दिखाएगा साहब।

सुरेश ने जानना चाहा गुंदरा मतलब क्या? “गुंदरा याने गुरंदी का निवासी” कांस्टेबल ने बताया। आगे जोड़ा “अब आगे  न पूछना साहब, ज़्यादा पता करना हो तो एस.पी.साहब से मिल लो आकर, वे इनके बारे में किताब में पढ़ते रहते हैं।”

ConfessionsOfAThug1858.jpg

(Confessions of a Thug is an English novel written by Philip Meadows Taylor)

सुरेश एस.पी.साहब से मिला, उन्होंने फिलिप मीडोज टेलर द्वारा 1839 में लिखी की पुस्तक  “कन्फेशंस ऑफ ए ठग” पुस्तक उसे दी। जिसे पढ़कर पता चला कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ठगों का आतंक था। यहां जीतू और ‘आमिर अली’ नामक ऐसे ठग थे, जिनके नाम पर सबसे ज्यादा हत्याएं इतिहास में दर्ज हैं। खास बात यह कि इन ठगों के खात्मे का मुख्य केन्द्र जबलपुर ही रहा था। आमिर अली यशवंत राव होलकर के साथ मिलकर सिंधिया के इलाक़ों में लूटपाट करते-करते बम्बई-आगरा रोड़ पर लूटमार करते पकड़ाया था।

फिलिप मीडोज टेलर की उस पुस्तक से ठगी प्रथा का पता चला। टेलर महोदय पुलिस कमिश्नर थे। उन्होंने ठग सरग़ना आमिर अली को पकड़ कर सागर सेंट्रल जेल में रखा था जहाँ उन्होंने आमिर अली से ठगी के तरीक़ों की पूरी जानकारी लेकर अपनी किताब में लिखी थी।

– ठगों की भाषा ‘रामासी’ थी। जो गुप्त और सांकेतिक थी।

– ठगों का मूल औजार तपौनी का गुड़, रूमाल और कुदाली होता था।

– ठग अपने शिकार को ‘बनिज’ कहते थे, जिनका रूमाल से गला घोंट दिया जाता था।

– शिकार का रूमाल से गला घोंटकर मारने के इशारे को झिरनी देना कहते थे।

– ठग शिकार को मारने के पहले उसकी कब्र खोदकर रखते थे और शिकार को मारकर उसके शव को कब्र में रख उसके पेट को फरसे से चीर देते थे ताकि शव फूलकर कब्र से बाहर न निकल आए।

– मूलत: ठग काली के उपासक थे, जिसमें मुस्लिम ठग भी शामिल थे।

जीतू के नेतृत्व वाले ठगों का कारोबार कटनी से होशंगाबाद तक फैला हुआ था। वे जबलपुर से नागपुर, सागर, बनारस और नर्मदा घाटी में शिकारों का काम तमाम करके उन्हें लूटते थे। ठगी विद्या में पहले शिकारी का भरोसा हासिल किया जाता था। जब उन्हें पक्का विश्वास हो जाता था तब मुख्य ठग दाहिने हाथ में रूमाल में सिक्का रख अंटी की फाँस बनाकर शिकार के पीछे खड़ा हो जाता था। उसके साथी शिकार को गाफ़िल पाते ही झिरनी याने इशारा देते थे। मुख्य ठग एक मिनट में शिकार का काम तमाम कर देता था।

जबलपुर से करीब 75 किलोमीटर दूर कटनी रोड पर स्थित “स्लीमनाबाद” व आसपास के कुछ क्षेत्रों में यह वर्ग लूट और ठगी का ही काम करता था। एक तरह से ठगी उनका परम्परागत व्यवसाय जैसा बन गया था। इस वर्ग के लोग राहगीरों को ठगकर या फिर लूटकर ही अपना परिवार चलाते थे। इसके अलावा और भी कई क्षेत्र थे जहां लूट के डर से शाम ढलने के बाद निकलना लोग जान से खिलवाड़ जैसा मानते थे। लूट और ठगी में किशोर और बच्चे तक शामिल रहते थे। इन गिरोहों ने अंग्रेजी हुकूमत तक की नींद मुश्किल कर दी थी। ये कभी पकड़ में नहीं आते थे। अंग्रेज हुकूमत परेशान थी।

आदमी की ज़िंदगी में कुछ घटनाएँ ऐसी भी घटती हैं कि सब कुछ असम्भव-अतार्किक सा लगता है। बिखरे-बेतरतीब सपनों की तरह। फिर इनकी यादें चाहे जब दिलो-दिमाग में दस्तक देने आ टपकती हैं। बेचैन करती हैं। इस बेकरारी का सबब कुछ समझ में नहीं आता। कभी लगता है कि यह फ़क़त दिमाग का फितूर है और ऐन इसी वक्त दिल कह रहा होता है कि कुछ तो है! अजीब से हालात होते हैं, जिन्हें स्लीमेन जबलपुर आने से पहले इलाहाबाद में झेल रहे थे। यहाँ वे चंद अरसा ही रहे, पर ये दिन बड़ी बेचैनी के थे। हाट-बाजार में घूमते हुए अचानक ऐसा लगता कि कोई उनका पीछा कर रहा है। पलटकर निगाह दौड़ाते तो मालूम पड़ता कि वैसा कुछ नहीं है। खुद पर खीझ हो आती कि यह क्या हरकत है? रातों को सोते हुए अचानक नींद खुल जाती। फिर कभी-कभी लगता कि कोई आवाज उनके पीछे है, जो उनसे कुछ कहना चाहती है। आवाज बहुत साफ होती बस उसके मायने पकड़ में नहीं आते! कभी आगत में खड़ी कोई चुनौती उन्हें ललकार रही होती। वह क्या थी, नहीं पता। पर वह जो भी थी अलग थी, अनूठी थी, अद्वितीय थी!

क्या यह उस जंग का असर था जो वे कुछ दिनों पहले नेपाल की सरहद में लड़कर आए थे? विलयम हैनरी स्लीमैन महज 21 साल की उम्र में  इंग्लैंड से भारत आकर दानापुर रेजिमेंट में भर्ती हो गए थे। इंसान चाहे कितना भी पत्थर-दिल हो, युद्धभूमि में मची मार-काट विचलित तो करती ही है। जंग सिर्फ बाहर नहीं होती, भीतर भी चलती है और जंग के खत्म हो जाने के बाद भी चलती रहती है। फिर स्लीमेन तो बहुत संवेदनशील थे। उनके बहुत से साथी बीमार पड़ गए। कुछ मारे भी गए। युद्ध से वितृष्णा-सी हो गई थी। कलकत्ते में आराम करने के लिए छुट्टी मिली। उन्होंने आला अफसरान को चिट्ठी लिखी कि वे फौज में लड़ने के बदले कॉलेज में पढ़ाना चाहते हैं। इलाहाबाद की एक लाइब्रेरी में किताबों के पन्ने पलटते रहे और बस एक पन्ने में उलझकर रह गए। यह एक फ्रेंच यात्री की किताब थी जो पचासेक साल पहले भारत-भ्रमण पर आया था। उनकी किताब के उस पन्ने पर आकर वे ठहर जाते, जिसमें लिखा था कि दिल्ली से आगरे का रास्ता बड़ा खतरनाक है और यहाँ से लोग न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं? इस एक पन्ने को उन्होंने बार-बार पढा। कई बार पढा। जंग की ताजी यादों के साथ यह एक पन्ना भी शायद इलाहाबाद में उनकी बेचैनी का सबब था।

मि. स्मिथ नाम के अंग्रेज अफसर को यह मंजूर नहीं था कि स्लीमैन जैसा नौजवान अपने आपको कॉलेज की चाहारदीवारी में कैद कर ले। स्लीमेन को उन्होंने सिविल सर्विसेस में भर्ती कर जबलपुर के पास सागर भेज दिया। फिर वे सागर से नरसिंहपुर आए। नरसिंहपुर में उस जमाने में ठगों की सबसे बड़ी ‘बिल’ के होने का वजूद सामने आया था। मजे की बात यह कि तब यह बात स्लीमेन को भी पता नहीं थी कि उनके दफ्तर से महज 300 मीटर के फासले पर कंदेली नामक एक गाँव ठगों का असली अड्डा है और पास ही मड़ेसुर में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ‘बिल’ है।

यह जो ‘बिल’ है, यह ठग-भाषा से है, जिसे रामासी कहा जाता था। ठगों की कूट भाषा। ‘बिल’ का आशय उस जगह से है जहाँ ‘बनिज’ (शिकार) को मारकर दफ़्न कर दिया जाता था। उस जमाने के ठग सच्चे ठग होते थे और उन्हें ‘बोरा’ या ‘ओला’ कहा जाता थे। जैसे कहते हैं कि सियासतदां के कुछ उसूल होते हैं, ठगों के भी कुछ उसूल हुआ करते थे और वे लोगों को जन्नत बख्शने के लिए धारदार हथियारों का इस्तेमाल नहीं करते थे। इस काम के लिए वे एक पीले रंग का रुमाल इस्तेमाल करते थे और उसे ‘पेलहू’ कहते थे। रुमाल की गांठों में विक्टोरियन सिक्का होता था ताकि पाप के भागी फिरंगी भी बनें! जैसे इन दिनों फाइन आर्ट्स-थिएटर वगैरह की बारीकी सीखने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण से गुजरना होता है, तब ठगी की भी बाकायदा ट्रेनिंग होती थी। परीक्षा देनी पड़ती थी। दीक्षांत समारोह में गुरु चेले के हाथों में गुड़ का टुकड़ा रख देता। फिर वह एक पीले रंग का रुमाल निकालता और उसके सिरे पर चाँदी का विक्टोरियन सिक्का बाँध दिया जाता। एक तरह से यही प्रशिक्षु की डिग्री-डिप्लोमा होती। गुड़ खाते ही वह ‘सर्टिफाइड’ ठग बन जाता। रुमाल में बंधे सिक्के से गुड़ की एक खेप और मंगाई जाती और इसके साथ ‘गुड़-भोज’ के रूप में लंच या डिनर होता। यह गुड़ ‘तुपोनी का गुड़’ कहलाता और कहते हैं कि इसे चखने वाला ताजिंदगी ठग बना रहता। वो ठग तो अब नहीं रहे पर इस फरेबी दुनिया में तब के गुड़ की तासीर अभी भी बची हुई है।

क्रमशः  —- भाग – 2

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

कॉलेज में मजा-मस्ती करते करते साल कैसे गुजर गया मालूम ही नही पड़ा  कुछ दिन के बाद रिझल्ट आ गया और मैं मराठी विषय लेकर बी.ए. अच्छे मार्क्स लेकर पास हो गई। सबको बहुत खुशी हो गई। सब लोगो ने मुझे बधाई दी। प्यार से मिठाई खिलाई।

अब आगे क्या करना है, मन में सवाल उठने लगे। कोई लोग बोले, मराठी में इतने अच्छे मार्क्स मिले है, एम.ए. करो। कोई बोलने लगे, तुम्हारी आवाज इतनी मधुर है, तो गाना सिखो।

बचपन से ही मुझे नाचने का बहुत शौक था। मुझे चौथी कक्षा तक अच्छा दिखाई देता था। जन्म से ही मोतियाबिंद था, तो भी ऑपरेशन के बाद थोडा-थोडा दिखाई देने लगा था। बहुत छोटी थी तब से मोतियाबिंद था इसके लिए कांचबिन्दु बढ़ गया। चौथी कक्षा के बाद से दृष्टि कम होने लगी थी।

बी.ए. होने के बाद २१ साल में मैंने भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। भरतनाट्यम ही क्यूँ? मुझे अभी भी याद आता है। मेरे पिताजी विद्या मंदिर प्रशाला, मिरज, पाठशाला में अध्यापक थे। उस वक्त दिल्ली में एक कोर्स में उनको नया प्रोजेक्टर स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिला था।  उसमें भारत के प्राचीन मंदिरों के स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिले थे। भारतीय नृत्य की सब पहचान, नृत्य की अदाकारी मिली थी। भगवान की कृपा से मुझे जब अच्छी तरह से दिखाई देता था, तब ही नृत्यमुद्रा, सुंदर पहनावा, अच्छे-अच्छे अलंकार मेरे मन को छू गए।  मेरी नजर तो चली गई, फिर भी मन में दृश्य अभी भी आइने के सामने वैसे ही है, जो मैने उस वक्त देखा था। उसका बुलावा मुझे हमेशा साथ देता आ रहा है। अच्छा पेड़ लगाया तो, अच्छी हवा में अच्छी तरह से फैलते है, और बडे होते है, ऐसा बोलते है ना? मेरा मन भी उसी प्रकार ही है। सच में यह सब मेरी नृत्य गुरु के कारण ही हुआ है। मेरी नृत्य गुरु मिरज की सौ. धनश्री आपटे मॅडम। मेरे नृत्य के, मेरे विचारधारा के प्रगति के फूल खिलनेवाली कलियाँ, मेरे आयु का आनंद और एक तरह से मेरे जीवन में बहार देने वाली मेरी दीदी सौ. धनश्री ताई यही मेरी गुरु, मेरी  मॅडम।

 

ऐसे गुरु मुझे सिर्फ नसीब से मिले। मेरी माँ और पिताजी की कृपादृष्टी, भगवान का आशीर्वाद और दीदी का बडप्पन इन सब लोगों की सहायता से प्राप्त हुआ।

बी.ए. पास होने के बाद, मेरी नृत्य सीखने की इच्छा माँ और पिताजी को बतायी। मेरे पिताजी ने सोच समझ कर निर्णय लिया। मुझे कोई तो नृत्य सीखने के लिए गुरु ढूँढने लगे।

धनश्री दीदी के बारे मे मालूम होने के बाद पापाजी मुझे दीदी के पास लेकर गये। पहिला दिन मुझे अभी भी याद है। पापा ने मेरी पहचान दीदी से कर दी। मेरे लडकी को आपके पास नृत्य सीखना है, आपकी अनुमति हो तो ही। मेरा चलना, इधर-उधर घूमना, देखकर मुझे पुरा ही दिखाई नहीं देता, ऐसा उनको नहीं लगा। जब उनके ध्यान में आ गया, तब एक अंध लडकी को सिखाने की चुनौती स्वीकार ली। थोडी देर के लिये तो मैं स्तब्ध ही हो गई। बाद में दीदी ने सोच लिया कि मुझे यह चुनौती स्वीकारनी है तो सोचकर दो दिन के बाद बताऊंगी, ऐसा बोला। बादमें उन्होने हाँ कह दिया। उनका ‘ हाँ ‘ कहना मेरे लिये बहुत ही अहम था। मेरे जिंदगी में उजाला छा गया।

मुझे अकेले को सिखाने के लिए दीदी ने मेरे लिए बुधवार और शुक्रवार का दिन चुना था। एक दिन उनको सिखाने के लिए समय नहीं था। इसके लिये मुझे घर आकर बता कर गई। कोई तो मुझे छोडने के लिए आयेंगे और दीदी नहीं हैं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसके लिये दीदी खुद आकर बता कर गई। उनका स्पष्ट तरह से सोचना, उनकी सच्चाई, इतने साल हो गये तो भी वैसी ही है।

दीदी ने मुझे नृत्य के लिए हाथ पाँव की मुद्रा, नेक चलना, देखना, हँसना, चेहरे के हाव-भाव कैसे चाहिये, यह सिखाया। हाथ की मुद्रा कैसे चाहिये, यह भी सिखाया। पहली उॅंगली और आखरी उॅंगली जोडकर बाकी की तीन उँगलियाँ वैसे ही रखने को बोलती थी। पैरों की हलचल करते वक्त नीचे बैठ कर मेरे हाथ- पाँव कैसे चलना चाहिए, सिखाती थी। मेरे समझ में आने के बाद प्रॅक्टिस कर लेती थी। मेरी एम.ए. की पढाई ही बताती हूँ। गंभीर रूप से नृत्य करना, दशावतार का प्रस्तुतीकरण करना था। सच में मुझे ऐसा लगा कि मैं घोडे पर सवार होकर नृत्य कर रही हूँ। मुझे ये सब कर के प्रसन्नता मिली।

गाने के विशेष बोल, उसका अर्थ, यह सब प्रॅक्टिस से जमने लगा। पहले-पहले मैं शरीर से नाच रही थी। घर में आने के बाद प्रॅक्टिस करती थी। एक बार दीदी को ध्यान में आया की नाच-नाच कर मेरे पाँव में सूजन सी आ रही है। तब दीदी बोली नृत्य सिर्फ शरीर सें नहीं करना चाहिये। बल्की मन से, दिमाग से सोच कर, होशियारी सें मने में उतरना चाहिए। उन्होंने मुझे सौ बाते बतायी, मुझे उसमे से पचास की समझ आयी। दीदी ने मुझे नृत्य में इतना उत्तम बनाया कि आज मैं सो जाऊंगी तो भी कभी भूल नही पाऊंगी। नृत्य की सबसे टेढी चाल सीधी करके सिखाई। मन से नृत्य कैसे करना चाहिए, उसकी ट्रिक भी सिखाई। मुझे अलग सा, मन को प्रसन्न लगने लगा। अब मैं कुछ तो नया बडा नाम कर दूँगी, ऐसा लगने लगा। नृत्य करने का बहुत बड़ा आनंद मुझे मिल गया। मैं भरतनाट्यम की लडकी हूँ। पुरा मैंने सीख लिया है, ऐसा तो मैं नही मानूँगी। फिर भी गांधर्व महाविद्यालय मे सात साल परीक्षाऍं देती रही। आखिर परीक्षा में ‘नृत्य विशारद’ पदवी संपादन कर ली।

जो मैं कर नही सकती, वह आसानी से कैसे करे, यह मैंने मेरी बहन से सीख लिया था। मेरे माँ और पिताजी के बाद, मेरे लिये दीदी का स्थान बडा है। मेरे लिये इन लोगों का स्थान महान है। गुरु कैसे मिलते है, उसके उपर शिष्य की प्रगती निर्भर होती है। मेरे गुरुवर उच्च विचारधारा वाले,  अध्यात्मज्ञान से परिपूर्ण हैं, बड़ा प्यार है। धनश्री दीदी जैसे गुरु ने बीस साल मुझे नृत्य की साधना सिखाई। जो-जो अच्छा मैने सीख लिया है, मेरे लिये अबोध और अद्भुत बात है। यही मेरा अनुभव हैं। यह सब मैं बता रही हूँ लगन से।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पराक्रम दिवस विशेष – आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाही ☆ श्री आर के रस्तोगी

श्री आर के रस्तोगी

Subhas Chandra Bose NRB.jpg

☆ पराक्रम दिवस विशेष – आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाही ☆ श्री आर के रस्तोगी☆ 

तुम मुझको दो खून अपना ,

मै तुमको दे दूंगा आजादी |

यही सुनकर देश वासियों ने,

अपनी जान की बाजी लगा दी ||

 

यही सुभाष का नारा था ,

जिसने धूम मच दी थी |

इसी विश्वास के कारण ही

आजाद हिन्द फ़ौज बना दी थी ||

 

याद करो 23 जनवरी 1897 को

जब सुभाष कटक में जन्मे थे |

स्वर इन्कलाब के नारों से वे ,

भारत के जन जन में जन्मे थे ||

 

वे अमर अभी तक विश्व में,

जिन को मृत्यु ने पाला था |

आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाही थे ,

सच्चा हिन्दुस्तानी वाला था ||

 

कहना उनका था वे आगे आये ,

जिसमे स्वदेश का खून बहता हो |

वही आगे आये जो अपने को ,

भारतवासी कहने का हक रखता हो ||

 

वह आगे आये जो इस पर ,

अपने खून से हस्ताक्षर करता हो |

मै कफ़न बढाता हूँ वह आये आगे,

जो इसको हंसकर आगे लेता हो ||

 

फिर उस रक्त की स्याही में ,

वे अपनी कलम डुबाते थे |

आजादी के इस परवाने पर ,

अपने हस्ताक्षर करते जाते थे ||

 

© श्री आर के रस्तोगी

गुरुग्राम

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Weekly Column☆ Samudramanthanam – 25 – Kalpavriksha ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  We are pleased to begin a series on excerpts from his well acclaimed book  “Samudramanthanam” .  According to Mr Ashish  “Samudramanthanam is less explained and explored till date. I have tried to give broad way of this one of the most important chapter of Hindu mythology. I have read many scriptures and taken references from many temples and folk stories, to present the all possible aspects of portrait of Samudramanthanam.”  Now our distinguished readers will be able to read this series on every Saturday.)    

Amazon Link – Samudramanthanam 

☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 25 – Kalpavriksha ☆ 

Last phase of churning of ocean of milk ‘Kshirasāgara’ was going on. All were waiting for amrita now. After one more round of push and pull of mount Mandara with the help of Naga Vasuki by Sura and Asura a tree with golden green leaves seen over ocean surface. Indira and other wondered that what is this. The glory of that tree was looking immeasurable. The roots and timber were below the ocean and only branches and leaves were visible above ocean.

Meantime an Asura started thinking in his mind about Rajasavik food. Soon a big plate of Rajsavik food appeared in front of him from nowhere.

All were amazed.

Other hand one Sura thinking about ornaments and soon he got them.

Then Lord Bharma said, “this is ‘Kalpavriksha’ that can fulfill wish only about thinking them. Now question is to whom this ‘Kalpavriksha’ belongs to”

Indira said, “No, question about it ‘Kalpavriksha’ is born to be a part of Indira’s  heaven”

Soon Bali said, “No, Indira till now we haven’t objected on anything. Even I have given Parijaat to your wife and make her my own sister’ but this ‘Kalpavriksha’ go to only underworld and if not, then war will surely take place”

After listing these words of their king against first time Asura felt very proud over him.

Soon both the teams lost their grips over Naga Vasuki and be ready for war.

Indira picked his Vajra and about to attack over Bali. Bali is actually ready for this attack and stop and hold Indira hand from his right hand.

Then one to one dual is started in between Indira and Bali and other hand both the teams also doing war against each other team members.

Brahma and other sage present there were trying to stop them but they were unable to listen.

This war is taking serious shape.

Then a big blast happened at place where ‘Kalpavriksha’ appeared from ocean. That was vanished and no mark of ‘Kalpavriksha’ remained.

© Ashish Kumar

New Delhi

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२८॥ ☆

 

वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां

सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूर उज्जयिन्याः

विद्युद्दामस्फुरितचक्रितैस तत्र पौराङ्गनानां

लोलापाङ्गैर यदि न रमसे लोचनैर वञ्चितो ऽसि॥१.२८॥

यदपि वक्र पथ , हे पथिक उत्तरा के

न उज्जैन उत्संग तुम भूल जाना

विद्युत चकित चारु चंचल सुनयना

मिल रमणियों से मिलन लाभ पाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ सम्पादकीय निवेदन 

आपल्या समुहातील लेखिका व कवयित्री सौ.सुमती पवार  यांचे दोन बाल कविता संग्रह नुकतेच प्रकाशित झाले आहेत.’चंदन’ आणि ‘चांदणं ‘

प्रा. सौ. सुमती पवार

समुहातील सर्वांकडक त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन ??

आज त्या स्वतः आपल्याला ‘चांदण’ या काव्यसंग्रहाविषयी सांगत आहेत.

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती.मराठी.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ छडी वाजे छम  छम् ☆ श्री राजेंद्र परांजपे

☆ कवितेचा उत्सव ☆ छडी वाजे छम  छम् ☆ श्री राजेंद्र परांजपे ☆

(भरलेल्या वर्गासमोर उभं राहून शिकवण्याची सवय असलेल्या शिक्षकांना ह्या कोरोनामुळे ऑनलाईन शिकवायची वेळ आली. काही दिवसांपूर्वी केलेल्या ह्या कवितेत त्यांचं मनोगत मांडण्याचा प्रयत्न केला आहे.)

नाही फळा तो मागे, नाही खडू हाती !

हे असे शिकवावयाचे अवघड वाटते !

 

करुन खटपटी, शिकलो जरी नवतंत्र !

परी संगणकाची अजून भीती वाटते !

 

दाटतो मम मनी तो गलबला मुलांचा !

रोजची तयांची मज मस्तीही भासते !

 

ते खेळणे तयांचे, दंगा अन् मस्करी !

न पाहू शके ते आज, परी उरी दाटते !

 

कधी पुन्हा उघडून भरेल मम शाळा ?

हे असे शिकवणे मज नकोसे वाटते !

 

थांबला असाच तो घंटेचाही ठणाणा !

निःशब्द जाहली ती जरी मनी वाजते !

 

© श्री राजेंद्र परांजपे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 58 – राजमाता स्वराज्याची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 58 – राजमाता स्वराज्याची ☆

राजे लखूजींच्या गृही

जन्मा आली विद्युलता।

ऊरी स्वप्न स्वराज्याचे

गुलामीची ती सांगता।

 

राजकन्या जाधवांची

कुलवधु भोसल्यांची।

मानबिंदू आदर्शाचा

राजमाता स्वराज्याची।

 

दिले अभय जनाला

घडी बसवी राज्याची ।

अराजक दानवांना

धास्ती तुझ्या शासनाची

 

स्वराज्याचे बाळकडू

तूच राजांना पाजले

सिंह सह्याद्री गर्जता

तक्त दिल्लीचे हालले।

 

बालराजे थोपविती

फोज लांखो यवनांची।

राष्ट्रहीता सज्ज पुत्र

धन्य माय साहसाची।

 

आऊ साहेबा समान

राष्ट्रमाता होणे नाही।

करू त्रिवार नमन

याल का हो लवलाही।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अवनीचा लॅपटॉप – भाग – 1 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले

सौ.अंजली दिलिप गोखले

☆ जीवनरंग ☆  अवनीचा लॅपटॉप – भाग – 1 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले ☆

“अवनी s चला,बूट घाल. बाहेर जायचे ना? गाडीच्या किल्ल्या  आण बरं”. बाबांनी आपल्या खास शैली मध्ये अवनीला हाक मारली. इतर वेळी गाडीच्या किल्ल्या म्हटल्याबरोबर दुडूदुडू धावत येणारी अवनी आज आली नाही. खिशामध्ये मोबाईल ठेवता ठेवता त्यांनी पुन्हा हाक मारली.” अवनी, आज गंमत आणायचीय ना? येताना आइस्क्रीम खाऊ याह!” आईस्क्रीम चं नाव ऐकलं की अवनी हमखास येणार याची खात्री होती. पण आज अवनी चांगलीच रुसु बाई झाली होती.

आपली पर्स,पिशव्या गोळा करता करता आई नही हाक मारली.” चल अवनी! आज तो नवीन लाल फ्रॉक घालायचं ना? पटकन ये. नाहीतर आम्ही जाऊ ह! घरी एकट बसावं लागेल. अंधार झाला की बागुलबुवा येईल गप्पा मारायला.”

“नाही, नाही, नाही, मी नाही येणार”. इतक्या ठसक्यातला नकार ऐकून सगळे एकमेकांकडे पाहायला लागले. काय बिनसलं एवढ्या पिटुकल्या 4 वर्षाच्या अवनीचं? कोणालाच कळेना.

खिडकीचे दार बंद करता करता अवनीच्या बाबांनी आपलं खास अस्त्र काढले.” अवनी चल बर पटकन. आज पाटी आणि रंगीत चित्राचे छान छान पुस्तकही घेऊया. मोठा फुगा आणूया”

सगळ्यांनी इतकी आमिषे दाखवली तरी अवनी आपली हुप्पच. शेवटी लाडक्या नातीला खुलवायला आजी गेली.” अवना, ए अवना, जायचे ना बाहेर? पाडव्याला नवीन शाळेत नाव घालायचे. कशी झोकात जाणाऱ आमची अवना शाळेला. नवीन दप्तर, नवीन पाटी, वा वा!”

गोबऱ्या गोबऱ्या गालांची, गोरी गोरी अवनी आज खूपच रुसली होती. फुगलेल्या दोन्ही गालांवर हाताची मूठ ठेवून आजीकडे रुसु बाई अवनी पाहत होती. “नाही म्हटलं ना, काही नको मला ती पाटी. मला लॅपटॉप – हवाय.”

आबा, आजी, आई, बाबा सगळ्यांनी गरकं न वळून तिकडे पाहिलं. हि च्या रुसव्याच कारण हे आहे तर.

कळायला लागल्यापासून लहानाचे मोठे होताना तिने आपल्या आई बाबांच्या हातात लॅपटॉप पाहिले होते. डोळे घालून दोघंही काम करताना ती रोज पहात होती. दुपारच्या वेळी तिचे आबा कॉम्प्युटरवर पत्त्यांचा डाव खेळत. तेही तिने निरखून पाहिलं होतं. त्यांच्या मांडीवर बसून कॉम्प्युटर चा माउस हाताळायला ती शिकली होती. त्यांच्याशी गोड गोड बोलून कार्टून ची सीडी लावायला तिनं शिकून घेतलं होतं. नुसतं क्लिक केलं, कि छोट्या पडद्यावर तिला तिच्या चुलत बहिणी राधा रमा यांचे फोटो बघता येत होते. ती स्वतः बाळ असल्यापासून चे फोटो रोज पहायचा नादच तिला लागला होता. ती छोटे छोटे बाळ होती तेव्हा आजी पायावर घेऊन तेलानं चोळत होती. भरपूर गरम गरम पाण्याने अंघोळ घालत होती. गुलाबी गुलाबी  पफनं पावडर लावत होती. छोटीशी काळी तीट लावत होती. त्यानंतर चे फोटो मात्र नव्हते. “आजी, अंघोळ झाल्यावर काय करायचे  ग मी? “दरवेळी अवनीचा  आजीला प्रश्न असायचा.” भु डूश्य करून माझी शहाणी अवना झोपून टाकायची. आहेच मुळी शहाणीअव ना”

खरंच छोटा बाळ असल्यापासून अवनी शहाण्यासारखे वागायची. वेळेवर झोपायची, सगळं कसं वेळच्या वेळी.म्हणूनच तर आई लगेच आपला ऑफिस जॉईन करू शकली. दुपारच्यावेळी आजी आणि आबांच्या सहवासात अवनी मोठी होत होती.

क्रमशः…

© सौ.अंजली दिलिप गोखले

मो  8482939011

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares