हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अंतिम भाग। )

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 2

उस समय स्लीमनाबाद के आसपास के क्षेत्र में मार्गों से यात्रा करने वाले लोगों को गायब कर दिया जाता है। उनका कभी पता नहीं चल पाता था। लोग दशहत में थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भी इस रहस्य से हैरान थे। कंपनी ने विलियम स्लीमैन को गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इंग्लेंड से आए कर्नल स्लीमैन ने भारत में 1806 में बंगाल आर्मी ज्वाइन की थी। 1814-16 में नेपाल युद्ध में सेवाएं दीं और फिर 1820 में सिविल सेवा में आए। इसके बाद उन्हें जबलपुर में गवर्नर लॉर्ड विलियम का सहायक बनाया। इसी दौरान उन्होंने बनारस से नागपुर तक सक्रिय ठगों और पिंडारियों के उन्मूलन के लिए स्लीमनाबाद में अपना कैंप लगाया। ठगी प्रथा के उन्मूलन के बाद यहां उन्होंने मालगुजार गोविंद से 56 एकड़ जमीन लेकर स्लीमनाबाद बसाया था। अपने कैंप और भ्रमण के दौरान स्लीमैन को पता चला कि 200 सदस्यों का एक ऐसा गिरोह है जो लूटपाट के लिये हत्या करता है। इसी वजह से लोग घर नहीं लौट पाते और उनके गायब होने की चर्चा फैल जाती है। लूट और हत्या की वारदातों को अंजाम देने वालों का मुखिया वास्तव में ‘बेरहाम ठग’ है। बेरहाम मुख्यमार्गों और जंगलों पर अपने साथियों के साथ घोड़ों पर घूमता था। इस पतासाजी के बाद कंपनी ने विलियम स्लीमैन’ को ठगों के खिलाफ कार्यवाही इंचार्ज बना कर जबलपुर में रख दिया।

बहरहाल, तब जबलपुर के कमिश्नर मि. मलोनी हुआ करते थे। इन्हीं के नाम पर अब एक मोहल्ला मिलौनीगंज है। इनके एक सहायक जब कुछ लंबे समय के लिए छुट्टी पर गए तो उन्होंने सहायता के लिए नरसिंहपुर से स्लीमैन को बुलवा लिया। जहाँ कमिश्नर कार्यालय था, वहीं पास के मैदान में एक बहुत बड़ी शहादत हुई थी। 1857 के गदर के ठीक बाद यहाँ तत्कालीन रेजिमेंट के कमांडेंट क्लार्क ने गोंड राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप के मुँह में बाँधकर उड़ा दिया था। क्लार्क दुष्ट, क्रूर और आतताई था। गदर के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों पर और भी बहुत से जुल्म ढाए। पर जैसे काबुल में सब गधे नहीं होते, कुछ अंग्रेज भले भी थे। इन्हीं गिनती के लोगों में एक स्लीमैन भी थे। मि. मलौनी की सहायता करते हुए एक दिन स्लीमैन ने कमिश्नर कार्यालय की खिड़की से जो नजारा देखा, वही आने वाले दिनों में ठग और ठगी के साथ उनके बहुत बड़े काम का सबब बना। यही वह काम था जो इलाहाबाद में उन्हें बेचैन किए हुए था। आगे वे इस काम में इतने लिप्त हो गए कि उनके मित्र उन्हें विनोद में ‘ठगी स्लीमेन’ कहकर पुकारने लगे थे।

इस कहानी में एक फ़िल्मी मोड़ है। उन दिनों जबलपुर के आस-पास गन्ने की खेती नहीं होती थी। थोड़े पतले और लंबे ईख होते हैं। गर्मियों के दिन किसी अप्रैल महीने में स्लीमेन पहली बार भारत से बाहर ऑस्ट्रेलिया गए और सुदूर ताहिती द्वीप से गन्ने की रोपण-सामग्री ले आए। इसकी बढ़त में कुछ दिक्कत हुई तो मॉरीशस को खंगाला। एक व्यापारिक समझौते के तहत वहाँ से 19 साल की लड़की एमेली वांछित सामग्री लेकर आई। गन्ने बहुत मीठे थे और एमेली बहुत सुंदर थीं, दोस्ती हुई, फिर मोहब्बत भी। जैसे मुरब्बा बनाने पर शीरे की मिठास धीरे-धीरे आँवले को भेदती है, एमेली के प्रेम की मिठास स्लीमैन को पगाती गई। सौदा गन्ने का भी हुआ और दिलों का भी। जबलपुर के आस-पास गन्ने के खेत नज़र आने लगे और जबलपुर के क्राइस्ट चर्च में विवाह के बाद स्लीमेन और एमेली साथ-साथ। दोनों में उम्र का बड़ा फासला था, पर आगे वैचारिक धरातल पर एमेली हमेशा विलियम के साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। यह जिक्र बेहद जरूरी है कि विलियम के काम में एमेली का भी योगदान बराबरी का रहा।

कमिश्नर कार्यालय के पास ही तीन दिनों से मैली-कुचैली वेशभूषा में ग्रामीण लोगों एक काफ़िला ठहरा हुआ था। उन्हें संदेह में रोका गया था और कुछ न मिलने पर आगे निकलने के लिए कमिश्नर की मंजूरी बस मिलने ही वाली थी। तभी स्लीमैन ने देखा कि सरकारी वर्दी में एक अर्दली काफिले के किसी यात्री से बात कर रहा है। अर्दली ने गोरे हाकिम को उनकी निगरानी करते हुए देख लिया। वह घबराया-सा आया और स्लीमैन के पैरों में गिर पड़ा। कभी उन्होंने ही उसे नरसिंहपुर में नौकरी पर रखा था। उसने कहा कि वह सुधर गया है। स्लीमैन ने कुछ न जानते हुए भी अभिनय करते हुए कहा कि नहीं, तुम अब भी वैसे ही हो। धमकाया गया। राज खुला तो पता चला कि वह काफिला ठगों का गिरोह है, लेकिन तब तक कमिश्नर की अनुमति से उनकी रवानगी हो गई थी। काफिले को फिर से जबलपुर के पास माढ़ोताल नाम की जगह में घेरा गया। वापसी हुई। गिरोह के सरगना दुर्गा को फाँसी की धमकी दी गई, जो अर्दली कल्याण सिंह का भाई था। मनोवैज्ञानिक प्रपंच रचा गया। आखिरकार दुर्गा टूट गया और उसने कबूल किया कि वे सिवनी के रास्ते नागपुर से आ रहे हैं और लखनादौन के पास उन्होंने 5-6 लोगों की हत्याएँ कर उनका माल-असबाब लूट लिया है। स्लीमेन रात को ही पुलिस-दल के साथ रवाना हुए। दो लाशें ‘बिल’ से निकाली गईं और उन्हें सम्मान कमिश्नर निवास के आगे धर दिया गया।

दुर्गा और कल्याण से ठगों की मैथडालॉजी के बारे में हैरतअंगेज जानकारियां हासिल हुईं। स्लीमैन को अब पता चला कि दिल्ली-आगरा के रास्ते लोग कहाँ गायब हो जाते थे। अमीर अली फिरंगिया, बहराम वगैरह तब के नामी ठग सरदार थे। गिरोह काफिलों में चलता था। काफिले में कई तरह के हुनर वाले लोग होते। तब सामान्य यात्री-व्यापारी वगैरह भी अकेले नहीं चलते थे। इन्हें भरमाया जाता। “ठगों” का डर दिखाकर या बड़े काफिले में बड़ी सुरक्षा की बात कहकर भरोसे में लिया जाता। फिर मौका देखकर पीले रुमाल से इनकी मुश्कें कस दी जातीं और लाशों को ‘बिल’ में दफ़्न कर दिया जाता। जब यात्रियों का पूरा काफिला ही शिकार बन गया हो तो शिकायत कौन करे और गवाही कौन दे? घर-परिवार के लोग सोचते कि वे हिंस्र-पशुओं के शिकार बन गए होंगे।

ठगी पर काम करने के साथ-साथ स्लीमैन भारतीय रंग-ढंग में रमते जा रहे थे। अवकाश के दिन वे घोड़े पर बैठकर जबलपुर के आस-पास के इलाकों में घूमने के लिए निकल जाते। हाट-बाजार, मेला-मड़ई घूमते। ठेठ देहात के लोगों के साथ अड्डेबाजी जमाते। विवाह के कई सालों बात तक भी कोई संतान नहीं थी। पास के एक गाँव कोहकाटोला में एक बुजर्ग ने उनसे मंदिर में मन्नत मांगने को कहा। स्लीमेन ने कहा कि सिर्फ आपकी भावनाओं के सम्मान के लिए मैं ऐसा कर लेता हूँ। एमेली भी साथ थीं। अगले बरस उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। स्लीमेन ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। घी के दिए जलाने के लिए सरकारी खजाने से राशि की मंजूरी दी। एक विशालकाय कांसे का दीप भी लगवाया जो अब भी इस मंदिर में अपनी रोशनी बिखेरता है।

स्लीमैन ने ठगों के गिरोह और उनके तौर-तरीकों को पकड़ तो लिया था, पर व्यावहारिक दिक्कत उन पर मुकदमे चलाने की थी। फिर देश भर में ठगों के कई गिरोह थे। अलग-अलग जागीरें, अलग-अलग स्टेट। एक जगह वारदात की और आगे बढ़ गए। गवाह मिलते न थे। आखिरकार स्लीमैन ने कम्पनी सेक्रेटरी को पत्र लिखा। लार्ड विलियम बैंटिक और डलहौजी तक बात पहुँची। देश में पहली बार जबलपुर में “ठग एंड डकैती सुप्रेशन डिपार्टमेंट” की स्थापना हुई। आगे चलकर यही विभाग सीआईडी के महकमे में तब्दील हुआ। स्लीमेन को बहुत से अधिकार दिए गए। वे देश में कहीं भी जाकर ठगों की धर-पकड़ कर सकते थे और उनके मुकदमे जबलपुर में ही चलाए जा सकते थे। गवाह आना नहीं चाहते थे सो मौके पर जाकर ही गवाही दर्ज करने का चलन शुरू किया। साक्ष्य जुटाने के लिए गिरोह में से ही कई लोगों को वायदा माफ गवाह बनाया।

स्लीमैन ने ठगों को कटनी की तरफ़ से घेरना शुरू किया तो ठग नर्मदा घाटी में शेर, शकर, दुधी नदी पार करके फ़तहपुर, शोभापुर, मकड़ाई रियासतों में घुसकर ठगी करने लगे। स्लीमैन ने उन्हें होशंगाबाद से घेरना शुरू किया और सोहागपुर को ठगी उन्मूलन का केंद्र बनाकर उन्हें जबलपुर और सोहागपुर के बीच समाप्त किया था। करीब 10 साल की कड़ी मशक्कत के बाद बेरहाम पकड़ा गया और तब सारी चीजों का खुलासा हुआ। ठगों में से कुछ को जबलपुर के वर्तमान क्राईस्टचर्च स्कूल के पास के इमली के पेडों पर और कुछ को स्लीनाबाद में फांसी पर लटका दिया।

जबलपुर से करीब 75 किमी दूर कटनी जिले के कस्बे स्लीमनाबाद को कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से ही बसाया गया है। कर्नल स्लीमैन ने ही 1400 ठगों का फांसी दी थी और उनकी सहायता करने वाले कई ठगों और उनके बच्चों को समाज की मुख्यधारा में जोडकऱ उनका पुनर्वास भी कराया था। स्लीमनाबाद में आज भी कर्नल स्लीमन का स्मारक है।

जबलपुर में एक “गुरंदी बाजार” बाज़ार है। इसका  भी एक जबरदस्त इतिहास है। अंग्रेजों द्वारा ठगी प्रथा खात्मे के बाद बचे हुए ठग गुरंदे कहलाए। जिंदा बचे ठगों और उनके बच्चों व परिवार का पुनर्वास गुरंदी बाजार में किया गया। इसलिए इसे गुरंदी बाजार कहा जाने लगा। गुरंदी में हर वह चीज मिला करती थी, जिसका किसी और जगह मिलना नामुमकिन होता था। इसी प्रकार कुछ परिवार सोहागपुर के नज़दीक बस गए, उस गाँव का नाम गुरंदे के बसने से गुंदरई हुआ। इस प्रकार सुरेश को गुरंदे, गुरंदा, गुरंदी और गुंदरई का मतलब पता चला।

पकड़े गए लोगों में से कोई एक फीसदी को ही संगीन सजाएँ हुई। बाकी के अपराध छोटे थे। कुछ बेकसूर पाए गए। कुछ वायदा माफ गवाह थे। इनके पुनर्वास का प्रश्न था क्योंकि वे भले ही ठगी के काम में लगे हों, पर वो एक काम तो था ही। जबलपुर के घमापुर इलाके में मिट्टी की जेल जैसी बनाई गई। हकीकतन यह एक खुली जेल थी और देश में इस तरह की सम्भवतः नवीन अवधारणा थी। फ़िल्म “दो आँखें बारह हाथ” में कुछ इस तरह का विचार दिखाई पड़ता है। यहाँ लोग खेती करने लगे। दस्तकारी के काम और प्रशिक्षण के लिए कलेक्ट्रेट के पास वाली जगह चुनी गई। इसे दरीखाना कहा जाता था और आजकल यहाँ होम गार्ड्स के कमांडेंट का कार्यालय है। यहाँ बनाई गई एक विशालकाय दरी को महारानी को तोहफे के रूप में भेजा गया और यह आज भी विंडसर में वाटरलू चैंबर में मौजूद है।

सुरेश को उसके साथ हुई लूट से सम्बंधित सारी बातों का उत्तर ज्ञात हो गया था। उसने रीको घड़ी   ठग के वंशज के पास रहने दी कि शायद उसका अच्छा समय आ जाए। फिर उसने स्लीमैन की जीवनी का सिलसिलेवार क्रम बिठाया, जो इस प्रकार था।

स्लीमैन का जन्म इंग्लैंड के क़स्बे स्ट्रैटन, कॉर्नवाल में हुआ था। वे तुर्क और सेंट टुडी के एक्साइज के पर्यवेक्षक फिलिप स्लीमैन के आठ बच्चों में से पाँचवें नम्बर के थे। 1809 में स्लीमैन बंगाल सेना में शामिल हो गए और बाद में 1814 और 1816 के बीच नेपाल युद्ध में सेवा की। 1820 में उन्हें प्रशासनिक सेवा  के लिए चुना गया और सौगोर (सागर) और नेरबुड्डा (नर्मदा) क्षेत्रों  में गवर्नर-जनरल के एजेंट के लिए कनिष्ठ सहायक बन गए। 1822 में उन्हें नरसिंहपुर जिले के प्रभारी के रूप में रखा गया था, और बाद में उनके जीवन के सबसे श्रमसाध्य भूमिका में उनके दो वर्षों का वर्णन किया जाएगा। वह 1825 में कैप्टन के पद पर आसीन थे, और 1828 में जुब्बलपुर जिले का प्रभार संभाला। 1831 में उन्हें एक सहयोगी के लम्बी छुट्टी पर जाने के कारण सागर जिले में स्थानांतरित कर दिया। अपने सहयोगी की वापसी पर, स्लीमैन 1835 तक सागर में मजिस्ट्रेट कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे। अंग्रेज़ी उनकी मातृभाषा थी परंतु उन्होंने हिंदी-उर्दू में धाराप्रवाह बोलने, लिखने और पढ़ने का कौशल विकसित किया एवं कई अन्य भारतीय भाषाओं के काम के ज्ञान का विकास किया। बाद में अपने जीवन में, स्लीमैन को “उर्दू और फारसी में अवध के नबाव को संबोधित करने वाला एकमात्र ब्रिटिश अधिकारी बताया गया था।”  अवध पर 800 पृष्ठों की उनकी रिपोर्ट को अभी भी सबसे सटीक और व्यापक अध्ययनों में से एक माना जाता है।

स्लीमैन एशिया में डायनासोर जीवाश्मों के सबसे पहले खोजकर्ता बन गए जब 1828 में, नर्मदा घाटी क्षेत्र में एक कप्तान के रूप में सेवा करते हुए, उन्होंने कई बेसाल्टिक संरचनाओं पर ध्यान दिया, जिन्हें उन्होंने “पानी के ऊपर उठी चट्टानों” के रूप में पहचाना। उन्होंने जबलपुर के पास लमहेंटा बारा सिमला हिल्स में चारों ओर खुदाई करके कई झुलसे हुए वृक्षों का पता लगाया, साथ ही साथ कुछ खंडित डायनासोर जीवाश्म नमूनों को भी देखा। इसके बाद, उन्होंने इन नमूनों को लंदन और कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय को भेज दिया। 1877 में रिचर्ड लिडेकेकर द्वारा जीनस को टाइटेनोसॉरस इंडिकस नाम दिया गया। स्लीमैन ने उन जंगली बच्चों के बारे में लिखा, जिन्हें भेड़ियों ने छह मामलों में अपने बच्चों के साथ पाला था। इसने कई लोगों की कल्पना को दिशा दी और अंततः द जंगल बुक में रुडयार्ड किपलिंग के मोगली चरित्र को प्रेरित किया।

स्लीमैन ने 1843 से 1849 तक ग्वालियर में और 1849 से 1856 तक लखनऊ में रेजिडेंट के रूप में काम किया। लॉर्ड डलहौजी द्वारा अवध के अधिग्रहण का उन्होंने विरोध किया गया था, लेकिन उनकी सलाह की अवहेलना की गई थी। स्लीमैन का मानना ​​था कि ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के केवल उन क्षेत्रों को अधिग्रहित करना चाहिए जो हिंसा, अन्यायपूर्ण नेतृत्व या खराब बुनियादी ढांचे से त्रस्त थे।

स्लीमैन ने अपना लगभग पूरा जीवन ही भारत में बिताया। भारतीय न होकर भी भारत से उन्हें बेपनाह मोहब्बत थी। अपने कामों के जरिए वे कुछ मूर्त चीजें भी यहाँ छोड़ गए ताकि इस वतन से नाता हमेशा बना रहे। नर्मदा के झाँसीघाट से गंगा किनारे मिर्जापुर तक उन्होंने सड़क के दोनों किनारों पर ठगों के जरिए पेड़ लगवाए। इन पेड़ों के तने अब खूब मोटे हैं। ठगों द्वारा लगाए जाने के बावजूद ये कोई ठगी नहीं करते और आज भी राहगीरों को खूब घनी छाँव देते हैं। विलियम आखिरी समय में रुग्ण हो गए थे। अपने देश वापस लौटना चाहते थे। नहीं लौट सके। समंदर की राह में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए। शव को जल में विसर्जित कर दिया गया। समंदर की लहरों ने उनके अवशेषों को भारत के ही किसी तट पर ला पटका होगा।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कलम ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “कलम। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  कलम  ☆

दबों कुचलों का हथियार ‌ये बन जाती है।

इसकी स्याही से इतिहास लिखी जाती है।

जब ये उतर आये अपनी हस्ती पे,

सारी दुनिया को नई राह दिखा जाती है।

मुहब्बत अमन के संदेश कलम लिखती है,

ज़ालिम को फांसी का आदेश कलम‌ लिखती है।

गलत‌ काम पे‌ नकेल कलम कसती है,

जोर जुल्म का‌ विरोध कलम‌ करती है।

कलम खुशियों के गीत लिखती है,

कलम ग़म के‌ संदेश लिखती है।

कभी गीत, गजल कलम लिखती है,

कविता, कहानी ये कलम लिखती है।

आग‌ और अंगार कलम लिखती है,

कभी ‌मासूम खिदमतगार दिखती है।

कौमों तंजीमों के अल्फ़ाज़  बदल डाले हैं,

इस कलम ने तख्तोताज ‌बदल डाले हैं।

कलम से गलत लोग डरा करते हैं,

इसके सिपाही तो फर्जो पे मरा करते हैं।

वो जंगे मैदां में पलट के प्रहार करते हैं,

बिना शमसीर के कलमों से वार करते हैं।

कलम जब तीर बन कर गुजर जाये,

हदों को पार कर जिगर में उतर जाये।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२९॥ ☆

 

वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः

संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभः

निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः संनिपत्य

स्त्रीणाम आद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु॥१.२९॥

विहग मेखला उर्मिताड़ित क्वणित नाभि

आवर्त लख मंदगति गामिनी के

हो एक रस , निर्विन्ध्या नदी मार्ग

में याद रख भावक्रम कामिनी के

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन –  कवी विकास जोशी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ सम्पादकीय निवेदन 

? कवी विकास जोशी – अभिनंदन ?

स्वरवसंत ट्रस्ट,सांगली यांचे तर्फे दरवर्षी पं.भीमसेन जोशी संगीत महोत्सव साजरा केला जातो. महोत्सवाचे हे सातवे वर्ष आहे.

आपल्या समुहातील कवी आणि संगीततज्ञ श्री विकास जोशी (संगीत अलंकार), यांना यावर्षीचा पं. वसंत नाथबुवा गुरव स्मृती पुरस्कार या महोत्सवात दि. 24/01/2021 रोजी प्रदान करण्यात येणार आहे.

पुरस्कार प्राप्ती बद्द्ल श्री विकास जोशी यांचे समुहातर्फे हार्दिक अभिनंदन आणि शुभेच्छा .

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मन हे दत्तपदी रमले ☆ कवी विकास जोशी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ मन हे दत्तपदी रमले ☆ कवी विकास जोशी ☆

मन हे दत्तपदी रमले

गाणगापूरी जाता जाता दत्तनाम जपले

मन हे दत्तपदी रमले ||ध्रु||

 

विश्वाच्या कल्याणासाठी

भक्तांच्या उध्दारासाठी

योगीराज नृसिंह सरस्वती भूवर अवतरले ||१||

 

निर्गुण मठी मना विश्रांती

सरते, मिटते भवभय, भ्रांती

दाटून आला शरणभाव अन मस्तक नत झाले ||२||

 

सूर, ताल, लय, गुरुंचे देणे

गुरुस्फूर्ती ही गुरुस अर्पिणे

भक्तीप्रेम हे अखंड राहो इतुकेच प्रार्थिले ||३||

 

© कवी विकास जोशी

गाणगापूर, १५.०१.२०२१

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अवनीचा लॅपटॉप – भाग – 3 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले

सौ.अंजली दिलिप गोखले

☆ जीवनरंग ☆  अवनीचा लॅपटॉप – भाग – 3 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले ☆

दुसऱ्या दिवशी आजोबांनी सकाळीच लाईटचा मेन स्वीच बंद करून ठेवला आणि आपणहून अवनीशी काहीही बोलायचे नाही असे पक्के ठरवून ठेवले. अर्थातच त्यांना ते जड जात होते. त्यांनाही करमत नव्हते. पण आज हे करायलाच हवे होते.

आजी आणि अवनी दोघींचं आवरण सुरु होतं. अंघोळ झाली, नाश्ता झाला. आज आजोबांनी लवकरच नाश्ता केला. अवनीला त्यांच्या डिशमधले दाणे मिळाले नाहीत. अवनीचं रोजच्या प्रमाणे आजोबां भोवती रुंजी घालणे सुरुहोते. पण आज आजोबांनी पेपरमधून डोकं काही बाहेर काढले नाही. डोळ्यासमोर पेपर धरला होता खरा पण सगळं लक्ष अवनीकडेच

“आजोबा, आज तुम्हाला बरं नाही का?.” अवनीचा   निरागस प्रश्न ऐकून आजोबांना कससच झालं. पण अवनीला आज पाटीची गोडी लावायची होती ना!

दुपारी आजी झोपली. आता आजोबा आणि अवनी दोघेच जागे.” आबा, चला ना. कॉम्प्युटर ला वाना. मला कार्टून पहायच य.”

अग, आज लाईट नाहीत.

“मग मी काय करु आता?”

आजोबा उठले. त्यानी काल आणलेली पाटी काढली. आणि आराम खूर्चीत बसून त्यावर चित्र काढायला लागले.” काय आहे ते आजोबा? काय करताय तुम्ही?”

“अग, हा माझा खूप जुना लॅपटॉप आहे. हे बघ, मी बॉल काढला. आता फूल काढतो”

लाईट नसतानाही सुरु होणारा आबांचा लॅपटॉप बघून अवनी आश्चर्यचकीत झाली. डोळे मोठ्ठे करून आबांना चिकटली.” कसं काढता हो आजोबा?”

“कसं म्हणजे काय? ही पांढरी पेन्सिल आहे ना, तो आमचा माऊस. बघ. बोटांनी क्लिक कर तो. हे असं. आला की नाही आंबा? आता परत रबरनं म्हणजे या रुमालानं पुसुया. बघ. गेल सगळं. क्लिक. आता अवनी काढूया. हे अवनीचं डोकं “हा फ्रॉक, हे पाय”. आता डोळे काढाना या अवनीला. आजोबा, मला देता हा लॅपटॉप? मला आवडला. लाईट गेले तरी तुमचा लॅपटॉप चालू राहतो.”

“हे बघ अवनी, तुझा लॅपटॉप. या तुझ्या लॅपटॉपला छानछान रंगीत मणी आहेत. एक दोन तीन असे शिकायला.”

“आहा आजोबा, किती छान. मला द्या माझा लॅपटॉप आणि पांढरा माऊस. मी ऑपरेट करते”.

लाईट गेल्यावरही सुरु होणारा लॅपटॉप अवनीला खूप आवडला.

पांढऱ्या माऊसनं क्लिक करत चित्र काढण्यात अवनी दंग होऊन गेली. आपला प्रयोग यशस्वी झाला म्हणून आजोबाही खूश झाले.

© सौ.अंजली दिलिप गोखले

मो  8482939011

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆  दुध हळद ते गोल्डन मिल्क ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर ☆

सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

☆ विविधा ☆  दुध हळद ते गोल्डन मिल्क ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर ☆

हळदीचा उल्लेख चारशे वर्षा पुर्वी वेदिक काळात मसाला  म्हणून केला गेला आहे .धार्मिक कार्यात व विवाह सोहळ्यात ही मांगल्या चे प्रतिक म्हणून हळदीचा वापर केला जातो.हळदीचा भारतीय केशर किव्हा दैवी वनस्पती म्हणून ओळखले जाते. शुश्रुत संहिता चरक संहिताअशा विविध आयुर्वेदिक ग्रंथात हळदीच्या उपयुक्ततेचा उल्लेख आहे. हळदीला आयुर्वेदा मध्ये हरिद्रा म्हणतात व जयंती मांगल्य वर्णदात्री इंडियन सॅफरॉन ह्या नावांनीही ओळखले जाते. इंग्रजीत हळदीला टर्मरिक म्हणतात व त्याचे पारिवारिक नाव झिंजिबर आहे.

भारत हा हळद उत्पादन करणारा जगातील सर्वांत मोठा देश आहे. जगाच्या एकूण उत्पादनाच्या सु. ८०% उत्पादन एकट्या भारतात होते. आयुर्वेदातील हळद हे एक महत्त्वाचे पीक आहे. हळदीला आर्थिक, धार्मिक, औषधी व सामाजिकदृष्टया अत्यंत महत्त्वाचे स्थान आहे. जगाच्या ८० टक्के हळदीचे उत्पादन हे भारतामध्ये घेतले जाते. हळदीचा उपयोग रोजच्या आहारात, औषधांमध्ये, सौंदर्य प्रसाधनांमध्ये, जैविक कीटकनाशकांमध्ये मोठया प्रमाणावर केला जातो. सामाजिक कार्यातही हळदीला अनन्यसाधारण महत्त्व आहे.

हळद भारतीय वनस्पति आहे.ही आल्या च्या प्रजाति ची ५-६ फुट वाढणारा रोप आहे. याच्या मूळ्यांच्या गाठीत हळद मिलते. भारतामध्ये हळदीच्या मुख्यतः दोन जातींची लागवड करतात. त्यांपैकी एका जातीची हळकुंडे (कुरकुमा लोंगा), कठीण व भडक पिवळ्या रंगाची असून तिचा रंगासाठी उपयोग करतात. ती ‘लोखंडी हळद’ म्हणून महाराष्ट्रात ओळखलीजाते. दुसऱ्या जातीची हळकुंडे जरा मोठी (कुरकुमा लोंगा), कमी कठीण व सौम्यपिवळ्या रंगाची असतात. त्यांचा उपयोग मुख्यतः मसाल्याचा पदार्थम्हणून होतो. तिसरी जाती रानहळद (कुरकुमा. ॲरोमॅटिका) असून भारतातती जंगली अवस्थेत वाढताना आढळते. चौथी जाती आंबेहळद (कुरकुमा आमडा) असून तिच्या हळकुंडांना आंब्याच्या कैरीसारखा वास असतो. पश्चिम बंगाल, तमिळनाडू व कोकण या ठिकाणी जंगलीअवस्थेत (wild variety) ती आढळते. पाचवी जाती पूर्व भारतीय हळद (कुरकुमा. अंगुस्तीफोलिया) असून तिची हळकुंडे बारीक व पांढरट रंगाची असतात.

हळदी ला आयुर्वेदात प्राचीन काळापासून ही एक चमत्कारिक द्रव्य च्या रूपात मान्यता मिळाली आहे.

हळदी मध्ये ओलेओरेसींन, करक्यूमिन नावाचा एक घटक आढळतो. करक्यूमिन मध्ये एंटीऑक्सीडेंट गुणधर्म आहेत. हळदी मध्ये प्रथिने, स्निग्ध पदार्थ, कार्बोदके, तंतू, क्याल्शिअम, फॉस्फोरोस, पोटॅशियम, सोडियम,  लोह,  अ, बी , बी २ जीवनसत्वे, नियासिन, ऍस्कॉर्बिक ऍसिड व तैल सुगंधी हे घटक असतात.

संशोधनानुसार आपल्या आहारात एंटीऑक्सीडेंटचे प्रमाण जास्त असणाऱ्या पदार्थांचा समावेश केला तर आजार होण्याची शक्यता कमी होते. काही संशोधनानुसार या घटकामुळे ताण तणावाची लक्षणे कमी होण्यास मदत होते. हळदीतील जंतूनाशक गुणधर्मा मुळे प्राचीन काळापासून त्याचा औषधांमध्ये वापर केला जातो. हळदीमुळे  एखादी जखम देखील लवकर भरते. हळदीचे पाणी प्यायल्यास स्नायूंना मजबुती मिळते. ज्यामुळे सांधेदुखी आणि आर्थरायटिस यासारख्या आजारांचा धोका कमी होतो. कॅन्सर सारख्या गंभीर आजारापासून देखील आपलं संरक्षण होण्यास मदत मिळते. हळदीतील पोषण तत्त्वांमुळे खराब कोलेस्ट्रॉल देखील कमी होते. हळदीचा उपयोग खाद्य पदार्थ व सौन्दर्य प्रसाधनात मध्ये ही खूप प्रमाणात केला जातो.

पी हळद हो गोरी ते वि को टरमेरिक आयुर्वेदिक क्रीम ते गोल्डेन मिल्क असा हळदीचा प्रवास.

त्याचे स्वरूप जरी बदलले असले तरी त्याच्या उपयुक्ततेत  किंतू ही बदल झाला नाही .किंबहुना त्याचा वापर दिवसेंदिवस वाढतच चालला आहे.

© सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

संपर्क –साहाय्यक प्राध्यापिका, श्रीमती काशीबाई नवले कॉलेज ऑफ फार्मसी,  पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ शेती भाती ☆ सौ. सावित्री जगदाळे

सौ. सावित्री जगदाळे

 ☆ मनमंजुषेतून ☆ शेती भाती ☆ सौ. सावित्री जगदाळे ☆ 

आईचं वय झाले आहे. आता शेतीतील कामे होत नव्हती. गुडघे दुखत होतेच. तरी तिचे माळवे लावायचे वेड कमी होत नव्हते. गवार भेंडी, पावटा, मिरच्या, असं लावायची. माळवं निघायला लागले की सुनेच्या मागे पिरपिर , “तेवढ्या गवारीच्या शेंगा तोडून दे पोरांना.”

सुनेने बाकीची कामे सोडून गवारी तोडाव्यात. नाहीतर रोजाच्या बाईला घेऊन माळवं तोडून तालुक्याच्या गावाला पाठवावे. तिथं मुलं शिकायला एक कुटुंब ठेवलेले. शेती करणारा भाऊ म्हणायचा, ” होत नाहीतर कशाला अबदा करून घेतीस? त्यांना पावशेर शेंगा विकत घेणं होईना काय…”

रोजाची बाई लावून भाज्या तोडून पाठवणे त्याला पटत नव्हते आणि परवडत ही नव्हते. पण एवढी मोठी शेती आणि पोरांनी विकतच्या भाज्या खायचे हे आईला पटत नव्हते. ती कोंबड्या पाळायची. अंडी लागतात पोरांना म्हणून. स्वतःच्या गळ्यात माळ असली तरी गावात मटण पडले की घ्यायला लावायची. पाठवून द्यायची.शहरात काहीच चांगले मिळत नाही हा तिचा समज. दूधवाला तर एक ठरवूनच टाकलेला. घरचे दूध रोज पोरांकडे पोच व्हायचे.

कोवळी गवार लोखंडी तव्यावर परतलेली पाहून तिला लेकिंची आठवण यायची. चुलीत भाजलेली वांगी पाहून तिचे डोळे भरायचे. भाजलेली, उकडलेली मक्याची   कण सं पाहून जीव तीळ तीळ तुटायचा. हे सगळं पोरांना पोच व्हायलाच पाहिजे हा तिचा अट्टाहास असायचा.

मातीशी असलेलं हे नातं तिच्या आरपार रुजलेले आहे. बाई शेतीशी कशी एकरूप, एकजीव होते हे तिच्या वागण्या बोलण्यातून जाणवत राहते. तिला कुठल्याही पाटाचे पाणी पवित्र वाटते. तहान लागली की ती ते पाणी पिते. साचलेले असले तरी. ” त्याला काय व्हत?” हेच तिचे पालुपद. आणि तिला खरेच पाणी बादले आहे असं झाले नाही. ही तिची अतूट श्रद्धा,  वावरा शिवाराची एक ताणता जाणवत राहते. पायात चप्पल न घालता शेताच्या सरीतून, बांधातून फिरायचे काटा मोडण्याचे भय तिला कधीच वाटले नाही. शेतातून फिरणारे साप तिला राखणदार वाटतात. त्यांचीही भीती कधी वाटली नाही.

आता नुसतीच मोठी पिकं घेतात. जवसाची मुठ, तिळाची मुठ कुणी पेरत नाही म्हणून ती हळहळत असते. तिळाची पेंढी असली की तेवढीच बडवून, पाखडून गाडग्या  मडक्यात भरून ठेवायची.

कधीही माहेरी गेली की ती धडधाकट होती तेव्हा रानात कामे करायची, घरी राहायला लागल्यावर सतत काही तरी निवडणे, पाखडणे चालूच असायचे. कुठल्या ना कुठल्या मडक्यात महत्वाचे ठेवलेले काढून द्यायची. ती उतरंड च आता गायब आहे.

असेच कितीतरी बदल होत राहतील. काळा बरोबर हे होतच राहणार… रानाशिवाराशी एकजीव झालेलं हे जुनं खोड बदल न्याहाळीत राहते. नजर कमकुवत झाली आहे तेही बरेच आहे.

© सौ. सावित्री जगदाळे

१७/२/१९

संपर्क – १००, कुपर कॉलनी, सदर बाजार, सातारा ,पीन-४१५०० १

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – १४) – ‘ भावाभिव्यक्ती’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – १४) – ‘भावाभिव्यक्ती’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆  

मागच्या भागात यमन रागाचं पूर्वीचं नांव ‘एमन’ आणि त्याच्या सुरांतून सहजी प्रकट होणाऱ्या मानवी मनाच्या कोणत्याही भावाभिव्यक्तीशी जोडला गेलेला ह्या नावाचा अर्थ आपण पाहिला. कोणत्याही मनोवस्थेतील भाव चपखलतेने प्रकट करणारा म्हणून जणू आपल्याच मनाशी संवाद साधणारा ह्या अर्थाने ‘ए मन’ असं दिलं गेलेलं नांव म्हणजे मानवानं त्याच्याकडच्या शब्दसंपत्तीचा केलेला चपखल वापर असं म्हणावं लागेल. मात्र काही संशोधकांच्या मते मानवाच्या आयुष्यात शब्दांची भाषा येण्यापूर्वीही संगीत काही प्रमाणात अस्तित्वात होतं. ह्याचाच अर्थ संगीताचा उगम हा आदिमानवासोबतच झाला असं म्हणायला हरकत नाही. पुढं जसजसा मानव उत्क्रांत होत गेला तसतसं संगीतही विकसित होत गेलं असावं.

विचार करता लक्षात येईल कि पूर्वीचा रानटी अवस्थेतील मानव हा निसर्गाच्या सान्निध्यात राहाणारा होता. आपल्या गरजा भागवण्याचे आणि सुख मिळवण्याचे मार्ग त्याने निसर्गातूनच शोधून काढले. अत्यंत बुद्धिमान, कल्पक व प्रगल्भ मेंदू लाभलेल्या मानवाला अन्न, वस्त्र, निवारा ह्या प्रमुख गरजांसोबतच ‘कोणकोणत्या गोष्टींतून आपल्याला सुख मिळतं’ हे लक्षात येत गेलं असावं आणि संगीत हा प्रत्येकच माणसाला सुखी करणाऱ्या सर्वोच्च मार्गांपैकी एक आहे हेही जाणवलं असावं. कारण संगीताचा संबंध थेट मनाशी आहे.

मागे ‘सप्तककथा’ ह्या लेखात आपण पाहिलं होतं कि काही विचारवंतांचं आणि शास्त्रज्ञांचंही मत आहे कि संगीत ही मानवाकडून उत्स्फूर्तपणे निर्माण झालेली गोष्ट आहे, ती माणसाची सहजनिर्मिती आहे. माणूस जसं हसणं, रडणं, बोलणं, चालणं-फिरणं आपोआप शिकतो तसंच मनातले भाव व्यक्त करायलाही आपोआपच शिकतो की! किंबहुना तो शिकतो म्हणण्यापेक्षा ते प्रत्येक माणसाकडून सहजपणेच घडतं. संगीताच्या बाबतीत म्हणायचं झालं तर त्याचं सहज गुणगुणणं हा त्याच्याकडून होत असलेल्या संगीताच्या सहजनिर्मितीचा भरभक्कम पुरावा आहे! म्हणजे संगीत ही एक स्वाभाविक क्रिया आहे.

आदिमानव अन्न ही गरज भागविण्यासाठी जंगलात हिंडून प्राण्यांची शिकार करत असे. त्यावेळी कानांवर पडलेल्या पशु-पक्षांच्या आवाजाची नक्कल करण्याचा तो प्रयत्न करी. हळूहळू त्यानं आत्मसात केलेल्या ह्या नादांचा वापर तो आपल्या मनातील भावना उघडपणे व्यक्त करताना करू लागला असावा आणि हाच संगीताच्या उत्पत्तीचा पहिला अविष्कार असल्याचं मानलं जातं. सप्तककथेमधेच ‘पशु-पक्षांच्या आवाजातून झालेली सप्तकनिर्मिती’ हाही भाग आपण पाहिला. सप्तकनिर्मिती ही संगीतशास्त्र प्रगत होण्याच्या प्रक्रियेतील महत्वाचा भाग आहेच, मात्र त्याचं उगमस्थान हे मानवानं सहजपणे त्या आवाजांची नक्कल करण्याच्या प्रयत्नात दडलेलं आहे असं म्हणाता येईल.
अर्थात ती नक्कल ह्याला संगीत म्हणता येईल का? किंवा संगीत म्हणून मानवाने तो अविष्कार केला असेल का? ह्याचं उत्तर ‘नाही’ असंच येईल. परंतू निसर्गातील ह्या आवाजाची नक्कल करण्याचं उत्क्रांत स्वरूप आदिवासी संगीतात आढळतं. आपण ऐकलेलं एखादं आदिवासी गीत आणि त्यांतल्या हुंकारयुक्त नादांचा अविष्कार आठवून पाहिलात तर ह्या वाक्याचा अर्थ सहजी लक्षात येईल.

खरंतर अवघं चराचर नादमय आहे. अवघ्या निसर्गात लयदार संगीत भरून राहिलेलं आहे. निर्झरांतलं संगीत, धबधब्यांचं ओसंडणं, लाटांचा खळाळ, पक्षांची किलबिल, प्राण्यांचे आवाज, वाऱ्याची झुळूक किंवा घोंघावणंही, पानांची सळसळ हे सगळं निसर्गाचं संगीतच आहे. ह्या सृष्टीचा निर्माता असलेल्या ब्रम्हदेवानं संगीतकलेची निर्मिती केली, त्यांनी ही कला भगवान शंकरांना दिली, शंकरांनी मग ही कला सरस्वती देवीला दिली. पुढं देवी सरस्वतीनं ही कला देवर्षी नारदांना सुपूर्द केली आणि नारदांनी संगीतकलेचं ज्ञान स्वर्गातील गंधर्व (गायन करणारे), किन्नर (वादन करणारे) व अप्सरा (नर्तिका) यांना दिलं. त्यानंतर संगीतकलेत पारंगत झालेले ऋषी नारद, भरत, हनुमान हे भूलोकी ह्या कलेचा प्रसार करण्यासाठी आले, हा संगीतकलेचा इतिहास सर्वज्ञात आहे.

मात्र ह्या सृष्टीचा एक घटक असलेल्या आणि निसर्गाला आपला मित्र मानणाऱ्या किंबहुना आपल्या संस्कृतीचं देणं म्हणून निसर्गाचा अत्यादर करणाऱ्या मानवानं निसर्गात असलेलं हे संगीत कसं शोधून काढलं? सृष्टीनिर्मात्यानं त्याला दिलेल्या बुद्धीचा वापर करून ह्या सहजनिर्मित प्रक्रियेला ज्ञान, विद्या ह्या संज्ञेपर्यंत नेत पुढं संगीतशास्त्र म्हणण्याइतका त्याचा विकास कसा केला? हे जाणून घेताना त्यातला पहिला टप्पा वरती सांगितल्यानुसार निसर्गातील नादांची नक्कल करून पाहाणे हा येतो. पुढं ह्या निरनिराळ्या नादांतून आपल्या विविध भावनांचं प्रकटीकरण होऊ शकतं हे त्याच्या लक्षात आलं… इथं मानवी जीवनाशी संगीताचा थेट संबंध जोडला गेला.

पुढं मानवाला भाषिक ज्ञान प्राप्त झाल्यानंतर, तो शब्दसंपत्तीचा धनी झाल्यानंतर शब्द आणि नाद/स्वर ह्या दोहोंचा वापर तो भावनांच्या व्यक्ततेसाठी करू लागला आणि ज्याला आपण आज लोकसंगीत म्हणतो ते असं शब्द-सुरांच्या संगमातून निर्माण झालं… जे मानवी जीवनातील जन्मापासून मृत्यूपर्यंतच्या प्रत्येक टप्प्यावर त्याच्या भावाभिव्यक्तीला पोषक ठरत राहिलं आहे आणि सृष्टीच्या अंतापर्यंत कायम राहील.

पुढील काही लेखांमधे मानवाने निसर्गातून शोधलेलं हे संगीत मानवी जीवनाशी कसं एकरूप होत गेलं ह्याचा म्हणजे लोकसंगीताचा संक्षिप्त धांडोळा आपण घेणार आहोत.

लोकसंगीतावर लिहिण्याची कल्पना मला सुचविल्याबद्दल उज्वलाताईंचे मन:पूर्वक आभार! त्यानिमित्ताने माझ्या कुवतीनुसार आजवर केलेल्या अल्प अभ्यासाचा नेमकेपणी मागोवा घेत त्यावर चिंतन करण्याची सुवर्णसंधी आपोआप मिळेल ह्यात शंका नाही.

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

Subhas Chandra Bose NRB.jpg

☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1 ☆

(आज 23 जनवरी है। महानायक सुभाषचंद्र बोस की जयंती। केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है – संजय भारद्वाज )

स्वाधीनता मानवजाति की मूलभूत आवश्यकता है। सोने के पिंजरे में रहकर भरपेट भोजन करते रहने से अच्छा मुक्त गगन में भूखे पेट विहार करना है । जाति को वरदान स्वरूप मिला स्वाधीनता का यह डी.एन.ए. ही है जिसने विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को समय-समय पर अपनी सार्वभौमता के लिए संघर्ष करने को उद्यत किया। इस संग्राम ने अनेक नायकों को जन्म दिया। विश्व इतिहास के इन नायकों में सुभाषचंद्र बोस अग्रणी हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महानायक कहा जाता है। सुभाषचंद्र का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था।

बालक सुभाष अत्यंत मेधावी छात्र थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की। फलस्वरूप 1920 में उन्हें सरकारी प्रशासनिक सेवा में नौकरी मिली। पर जिसके भीतर राष्ट्र की स्वाधीनता की अग्नि धधक रही हो, वह भला विदेशी शासकों की गुलामी कैसे करता! केवल एक वर्ष बाद उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राजपत्रित अधिकारी का पद छोड़ना परिवार और परिचितों के लिए धक्का था।

20 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र मुम्बई के मणि भवन में महात्मा गांधी से मिले। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए और कोलकाता में असहयोग आंदोलन की बागडोर संभालनेवाले देशबंधु चित्तरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी। सुभाषबाबू स्वयं भी देशबंधु के साथ जुड़ना चाहते थे। देशबंधु ने सुभाष की अनन्य प्रतिभा को पहचाना। 1922 में दासबाबू ने काँग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने कोलकाता महानगरपालिका का चुनाव जीता। दासबाबू कोलकाता के मेयर बने और सुभाषचंद्र बोस को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) बनाया। सीईओ बनते ही सुभाषबाबू ने कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मारे जानेवाले लोगों के परिजनों को मनपा में नौकरी देना भी आरंभ किया।

सुभाषबाबू का कद तेजी से बढ़ने लगा। 1928 में साइमन कमिशन को प्रत्युत्तर देने और भारत का भावी संविधान बनाने के लिए काँग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग गठित किया। बोस को इस आयोग में शामिल किया गया। इसी वर्ष कोलकाता में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाष के भीतर के सैनिक ने मूर्तरूप लिया। उन्होंने खाकी गणवेश धारण कर पं. मोतीलाल नेहरू को सैनिक तरीके से सलामी दी।

1930 में जेल में रहते हुए उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। 26 जनवरी 1931 को सम्पूर्ण स्वराज्य की माँग करते हुए उन्होंने विशाल मोर्चा निकाला। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी ग्यारह बार जेल गए। अंग्रेज उनसे इतना खौफ खाते थे कि छोटे-छोटे कारणों से गिरफ्तार कर उन्हें सुदूर म्यानमार के मंडाले कारागृह में भेज दिया जाता था। 1932 में तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उनके सामने युरोप चले जाने की शर्त रखी। ऐसी शर्तें पहले ठुकरा चुके सुभाषबाबू इस रिहाई को अवसर के रूप में लेते हुए युरोप चले गये। युरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैंड के नेता डी. वेलेरा से मिले। 1934 में अपने पिता की बीमारी के चलते वे भारत लौटे। कोलकाता पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर वापस युरोप भेज दिया गया। युरोप प्रवास में ही 26 दिसम्बर 1937 को उन्होंने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकेल से विवाह किया।

1938 में काँग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। सुभाषबाबू को इसमें काँग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन की सर्वाधिक प्रभावशाली अध्यक्षीय वक्तव्यों में गणना होती है। अध्यक्ष के रूप में अपने सेवाकाल में बोस ने पहली बार भारतीय योजना आयोग का गठन किया। पहली बार काँग्रेस ने स्वदेशी वैज्ञानिक परिषद का आयोजन भी किया।

सुभाषबाबू की आक्रमक कार्यपद्धति गांधीजी को मान्य नहीं थी। फलतः 1939 के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। सुभाषबाबू ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 203 मतों से परास्त कर यह चुनाव जीत लिया। काँग्रेस के इतिहास में पहली बार किसीने गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित किया था। पार्टी में खलबली मच गई। गांधीजी के विरोध और कार्यकारिणी के सदस्यों के असहयोग के चलते 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

4 दिन बाद याने 3 मई 1939 को उन्होंने काँग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सुभाषबाबू के कद को बरदाश्त न कर सकनेवाली लॉबी ने उन्हें काँग्रेस से निष्कासित करवा दिया। फॉरवर्ड ब्लॉक अब स्वतंत्र पार्टी के रूप में काम करने लगी।

इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। भारतीयों से राय लिए बिना भारतीय सैनिकों को इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में सुभाषबाबू ने आवाज उठाई। उन्होंने कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को तोड़ने की घोषणा भी की। सुभाषबाबू को धारा 129 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में अपील करने का अधिकार नहीं था। सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध को भारत की आजादी के लिए कारगर अस्त्र के रूप में देखते थे। फलतः रिहाई के लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरु कर दिया। बढ़ते दबाव से अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से तो मुक्त कर दिया पर घर में नजरबंद कर लिया गया।

क्रमशः … भाग – 2

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares