English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ एहसासों की गठरी/Bundle of feelings… – Ms. Neelam Saxena Chandra ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Ms. Neelam Saxena Chandra’s mesmerizing poem  “एहसासों की गठरी.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division.

☆ एहसासों की गठरी  

एहसासों की गठरी भी

कभी-कभी खुल ही जाती है,

और तब गिरने लगते हैं एहसास

सूखे पत्तों की तरह

जिनकी मौजूदगी, बस, ख़त्म होने को ही है!

 

कहाँ सूखे पत्तों की ज़िंदगी फिर से

हरी और खूबसूरत हो सकती है?

उन्हें तो खूबसूरती ढूँढनी पड़ती है

बस अपने आखिरी लम्हों में-

कभी वो खुश होते हैं

उनको इतनी रंगीन दहर का हिस्सा बनने का

हसीन मौक़ा मिला,

कभी वो अपने आखिरी पलों का

लुत्फ़ उठाते हैं और बस यूँ ही

बिना किसी बात के मुस्कुरा देते हैं,

और फिर माफ़ करते हुए उन सबको

जिन्होंने उन्हें कभी ग़म दिया हो,

समा जाते हैं मिट्टी में!

 

कभी टटोलकर देख लेना

अपने एहसासों की गठरी-

और धीरे-धीरे, एक-एक करके

गिराते रहना यह पत्ते-

जब सारे पत्ते एक साथ गिरते हैं ना,

शजर दर्द से तिलमिला उठता है!

☆ Bundle of feelings…

 Sometimes the bundle of

feelings, bursts open with

an outpour of emotions,

like an incessant fall

of dried leaves,

whose life cycle is

just about to end…!

 

Can the dried leaves

ever be green again?

Can  their  life  be

beautiful  ever again?

As they realise their beauty

in  the  dying  moments

sans anxiety, delightfully

to be part of a sprightly

hued journey,

Ever grateful for the heavenly

fortune they chanced upon…!

 

Making the world colourful

till their last moments,

As they kept spreading

the happiness smilingly,

with myriad hues of autumn,

without uttering a word,

Forgiving them all,

who gave them pain,

As they merged merrily

in the soil below…!

 

Keep groping your

Bundle of feelings, too;

And, you too, keep dropping

leaves, one by one, slowly

Coz, when all the leaves

fall together,

The tree itself writhes in

agony, excruciatingly…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको… इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है मुझे…हम कभी साथ नहीं चल सकते.., हाँफते-हाँफते उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद वे एक मोड़ पर मिले। …क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ…कई-कई घंटे…साथ वॉक करें कल? …नहीं मैं इतना नहीं चल सकता… मेरा वॉक अब बहुत कम हो गया है…दम लगने लगता है मुझे… हम कभी साथ नहीं चल सकते..,उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

©  संजय भारद्वाज

4.10 संध्या, 30.112020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ डा. स्नेहलता पाठक

डा. स्नेहलता पाठक

☆ आदमी होने की तमीज सिखाता व्यंग्य संग्रह ☆

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ डा. स्नेहलता पाठक ☆ 

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

व्यंग्यकार  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  विनम्र’

प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स, दिल्ली 

मूल्य – 300/- हार्ड बाउंड

200/- पेपर बैक

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व्यंग्य लेखन जगत का जाना माना नाम है । पेशे से इंजीनियर होते हुए भी भाषा और साहित्य में मजबूत पकड़ रखते हैं । यही कारण है कि लंबी सी बात को कम से कम शब्दों में कह देना उनके लेखन की विशेषता है । उनका मानना है कि कोई भी व्यंग्य रचना अपने आप में इतनी चुटीली हो कि उसे प्रभावशाली बनाने के लिए शाब्दिक साज-सज्जा की जरूरत ही न पड़े । सौम्य स्वभाव के विवेक रंजन का यही स्वभाव रचनाओं में देखा जा सकता है । वे बड़ी से बड़ी विसंगति को बिना आक्रोषित हुए बहुत ही सौम्यता से सामने रखने में महारथी हैं । अर्थात ‘‘जोर का झटका धीरे से’’ वाली कथनी चरितार्थ होती सी लगती है । संग्रह की दसवें नंबर की रचना ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ जो पुस्तक का शीर्षक भी है रचनाकार की इसी गंभीरता को उजागर करती है । लेखक का आशय है कि अक्सर लोगों की भलाई के लिए बनाये गये कानून भी आदमी के लिये समस्या बन चुके हैं । संक्षेप में कहें तो इस संग्रह की सभी  रचनाऐं अव्यवस्थित व्यवस्था को आगाह करती नजर आती हैं ।

व्यंग्य का उद्देश्य है नकारात्मकता से सकारात्मका की ओर चलना । गलत का प्रतिकार करने की ताकत समाज को देना । आज पूरा देश आँकड़ेबाजी के खेल में मस्त है । आँकड़ेबाजी का यह खेल जिस  मजबूती से अपनी जड़ें जमा रहा है उसके सामने मुँह से निकले आश्वासन भी निरर्थक साबित हो रहे हैं । आज पूरा देश इसी आँकड़ेबाजी के मोहजाल में घिरकर अपनी पीठ ठोंक रहा है । टी.वी. पर आने वाला घटिया से घटिया उत्पाद भी मार्केटिंग की इसी चाल से प्रभावित होकर अपने पांसे फेंक रहा है।  ।  ताज्जुब की बात है कि रंग बदलते माहौल में आम आदमी झूठ को ही सच समझकर कठपुतली की तरह नाच रहा है । वह हतप्रभ है आंकड़ेबाजी के इस मायाजाल से, मगर चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि चाटुकारिता से बजबजाती आज के राजनीतिक जलाशय के किनारे कोई कबीर खड़ा दिखाई नहीं देता जो ललकार कर आवाज बुलंद करने का हौंसला रखता हो । ‘‘जो घर जारे आपना सो चले हमारे साथ’’

आज का समाज ऐसी विषम स्थिति में जीने को मजबूर है, जिसे बार बार हर जरूरत के लिए पंजीकृत होने के अगम्य और दुष्कर रास्तों से होकर गुजरना पड़ रहा है । रह रह कर मन में आशंका जन्म ले रही कि आने वाले समय में शायद आम आदमी को अपने पेट के भूख की पंजीयन के लिये भी मजबूर कर दिया जायेगा । ताकि वह साबित कर सके कि भगवान ने उसे भी वह पेट दिया है जिसमें भूख लगती है । ‘‘व्यंग्यकार समस्या का पंजीकरण में एक जगह लिखता है कि अगले बरस चुनाव होने वाले है । राम भरोसे को उम्मीद है कि कठिनाइयों का कुछ न कुछ तो हल निकलेगा ही । मगर समस्या यह कि जब तक वह समस्या का पंजीकरण नहीं करवायेगा तब तक उसकी समस्या दर्ज ही नहीं होगी । इस पंजीयन के लिये रामभरोसे खिड़की दर खिड़की झांकता फिरता है मगर हर खिड़की  बंद होने के कारण उसे निराश कर देती है । तात्पर्य यह है कि रामभरोसे का भूखे रहना भी पंजीयन के बिना मान्य नहीं है । साथ में पेट की फोटोकापी भी जमा करनी होगी जो डाक्टर द्वारा सत्यापति हो कि यह रामभरोसे का ही पेट है । इतनी जिल्लतों के बाद भी आम आदमी बुरा नहीं मानता । क्योंकि सरकारी फरमान का बुरा मानना भी राष्ट्रद्रोह मान लिया गया है ।

आज की राजनीति की गाड़ी ठकुर सुहाती के पेट्रोल से चलती है । जी हुजूरी में ही पैसा है, रूतवा है और शांति है । इसमें पंजीयन के लिये जिल्लत नहीं उठानी पड़ती । पेट की भूख शांत करना है तो जी हुजूरी का चिमटा बजाकर भजन गाना क्या बुरा है? प्रभु ‘‘मेरे अवगुण चित न धरो’’ । इसमें शर्म किस बात की । आज की राजनीति में शर्म नामक शब्द सिरे से बर्खास्त कर दिया गया है । हमारे पूर्वज भी कह गये हैं कि ‘‘जिसने की शरम उसके फूटे करम’’ आज की व्यवस्था ने उसे जस का तस अपना लिया है । ‘‘शर्म तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’’ शीर्षक व्यंग्य संग्रह में दर्ज है । आज के अपडेट होते समय में पुरानी हिदायतों को वापस लाना आउट डेटेड मान लिया गया है । जो शर्म पहले जीवन का आभूषण मानी जाती थी आज वही अभ्रदता और किस्से कहानियों का हिस्सा बन गई है । आज अपनी गलती पर शर्मसार होना अभद्रता की कैटेगरी में शामिल हो गया है, चाहे जितना झूठ बोलो । चाहे जितना दूसरों का सुख छीनकर अपना घर भर लो मगर शर्म मत करो । कुर्सी की खातिर अपने आपको बेंच दो । कोई कुछ नहीं कहेगा । क्योंकि बिकना तो हमारी परंपरा है । जो सदियों से चली आ रही है।

विवेक रंजन जी गांधी और कबीर के सिद्धांतो के हिमायती हैं । एक जगह वे अति संवेदनशील होकर लिखते हैं कि आज खैर मांगने से भी किसी कमजोर की मजबूरी कम नहीं हो सकती । और न ही किसी भूखे को रोटी मिल सकती है । रचनाकार का मानना है कि मांगना केवल एक शब्द मात्र नहीं है । एक आशा है । विश्वास है । प्रार्थना है ।जो किसी मजबूर की हारी हुई आंखों से निकलती है । अतः जब तक व्यवस्था इस मजबूरी को दूर करने का प्रण अपने आचरण में नहीं उतारेगी तब तक किसी रामभरोसे का जीवन सुधर नहीं सकता । आज दिखावे का दौर चल रहा है । जिसमें खाली वायदों के गुब्बारे उड़ाते रहो, समस्यायें वहीं की वहीं रहेंगी । आशय यह है कि जब तक उन गुब्बारों में संवेदनशीलता की हवा नहीं भरी जायेगी तब तक दूर के ढोल सुहावने ही रहेंगे ।

उनके संग्रह में संग्रहीत सभी रचनाएँ सामयिक समस्याओं को लेकर लिखी गई हैं । फिर चाहे शराब की समस्या हो या मास्क की । सीबीआई की बात हो या स्वर्ग के द्वार पर कोरोना टेस्ट की । बिना पंजीकरण के तो आप बीमार भी नहीं पड़ सकते । इस प्रकार हम देखते हैं कि इन रचनाओं को आकार देते समय रचनाकार की पारखी नजर ऊंचाई पर उड़ते द्रोण की तरह चहुँतरफा देखती और परखती है । न केवल देखती है बल्कि उसमें निहित विसंगतियों का विरोध भी करती है । आम आदमी को सचेत करती है । उसे अधिकारों के प्रति सजग होना सिखाती है । लेखक की नजर चाहती है कि जीवन में चारों ओर समरसता का फैलाव हो । ताकि हर आदमी को वे सारे अधिकार मिल सकें जिनका वह अधिकारी होता है ।

संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यंग्य लेखन ऐसा पाना है जिसकी सहायता से समाज में फैली  बुराइयों को उखाड़ फेंका जा सकता है । परसाई के शब्दों में व्यंग्य एक ऐसी स्पिरिट है जो समाज को अंधेरे से उजाले की ओर प्रेरित करता है । इसी उद्देश्य के साथ संग्रह की सभी रचनाएँ आदमी को आदमी होने की तमीज सिखाती हुई आगे बढ़ती हैं । पेशे से इंजीनियर होने के नाते उनका संग्रह इस बात की पुरजोर वकालत करता है कि रचनायें लिखी नहीं जाती गढ़ी जाती हैं । वह अपनी वैचारिक छैनी और हथौड़ी से एक एक शब्द के अर्थ और प्रसंग को

ध्यान में रखते हुये इस प्रकार गढ़ता है कि कोई भी रचना व्यर्थ के शब्दों से बोझीली न होने पाये । उनकी छोटे छोटे कलेवर वाली हर रचना ‘‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’ वाली बिहारी के दृष्टिकोण को साबित करती है । यही कारण है कि उनकी हर रचना शुरू से अंत तक एक माला में, गुंथे हुये फूलों सी लगती है । समीक्षक यदि संग्रह में किसी त्रुटि का उल्लेख न करें तो उसकी ईमानदारी पर शक होता है । अतः एक बात कहना चाहूंगी कि संग्रह के शीर्षक में जुड़े ‘‘व अन्य व्यंग्य’’ शब्द पढ़ते हुये किसी आधार पाठ्य पुस्तक सा भ्रम होने लगता है । अतः ये शब्द व्यंग्य संग्रह के लिए सार्थक से नहीं लग रहे।

इन्हीं शब्दों के साथ व्यंग्यकार को शुभकामनाएँ देती हूँ और आशा करती हूँ कि उनका यह व्यंग्य संग्रह अपने उद्देश्य में सफल होकर व्यंग्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा ।

समीक्षाकार

डा. स्नेहलता पाठक

9406351567

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 47 ☆ जागरूक लोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जागरूक लोग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 47 – जागरूक लोग ☆

कथनी और करनी का भेद किसी को भी आगे बढ़ने से रोकता ही  है। इससे आप की विश्वसनीयता कम होने लगती है। न चाहते हुए भी शोभाराम जी अपनी इस आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। बस किसी तरह कोई उनकी बात में आया तो झट से उसे एक साथ इतने दायित्व सौंप देते हैं कि वो राह ही बदल लेता है। कार्य कोई और करे, श्रेय अपनी झोली में करना तो उनकी पुरानी आदत है। खैर आदतों का क्या है ये तो मौसम से भी तेज होती हैं , जब जी चाहा अपने अनुसार बदल लिया।

बदलने की बात हो और वक्त अपना तकाज़ा करने न पहुँचे ऐसा कभी नहीं हुआ। आरोह-अवरोह के साथ कार्य करते हुए बहुत से अवरोधों का सामना करना ही पड़ता है। अपनी विद्वता दिखाने का इससे अच्छा मौका कोई हो ही नहीं सकता। अब तो शोभाराम जी ने तय कर ही लिया कि सारे कार्यकर्ताओं को कोई न कोई पद देना है। बस उनके घोषणा करने की देर थी कि सारे लोग जी हजूरी में जुट गए। बहुत दिनों तक ये नाटक चलता रहा और अंत में उन्होंने सारे पद भाई-भतीजा बाद से प्रेरित होकर अपने रक्त सम्बन्धियों में बाँट दिए।

अब पूर्वाग्रही लोगों ने ये कहते हुए हल्ला बोल दिया कि उनके साथ दुराग्रह हुआ है। जबकि यथार्थवादी लोग पहले से ही इस परिस्थिति से निपटने की रणनीति बना चुके थे। दो खेमों में बटी हुई पार्टी अपना- अपना राग अलापने लगी। जो बात किसी को पसंद न आती उसे उस विशेष व्यक्ति की व्यक्तिगत राय कह कर पार्टी के अन्य लोग पल्ला झाड़ लेते। ऐसा तो सदियों से हो रहा है और होता रहेगा क्योंकि ऐसी ही नीतियों से ही लोकतंत्र का पोषण हो रहा है। लोक और तंत्र को अभिमंत्रित करने वाले गुरु लगातार इस कार्य में जुटे रहते हैं। लगभग पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होता ही रहता है। जब कुछ नहीं समझ में आता है तो दलबदलू लोग ही अपना पाँसा फेक देते हैं। और सत्ता पाने की चाहत पुनः जाग्रत हो जाती है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक सभी सक्रिय राजनीति का हिस्सा होते हैं। आखिर जनता के सेवक जो ठहरे। नौकरशाहों पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ये सभी हर स्तर पर बखूबी निभाते हैं। अब आवश्यकता है तो लोक के जागरूक होने की क्योंकि बिना माँगे कोई अधिकार किसी को नहीं मिलते तो भला सीधे – साधे लोक अर्थात जनमानस को कैसे मिलेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 54 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 54 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ !दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆

मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां

वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः

गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः

सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.९॥

अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल

पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी

तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से

सुमानी पपीहा हरेगा उदासी

आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका

समय इष्ट लख गर्भ के हित, गगन में

करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर

स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 61 – नशीबाची भाषा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #61 ☆ 

☆ नशीबाची भाषा ☆ 

नशीब म्हणजे  असते काय

बोल मनीचे बोलत जाय .

 

नशीब म्हणजे ओली रेघ

आठवणींचा हळवा मेघ.

 

प्रयत्न सारे अपुल्या हाती

दोष नको रे दुसर्‍या माथी .

 

हसणे रडणे सारे भोग

हे जीवनातील योगायोग.

 

झुलवत ठेवी प्रत्येकाला

नशीब ज्याचे कळे न त्याला.

 

लागून राहे  एकच आशा

कळून यावी,  नशीब भाषा.

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ फुलपाखरे ☆ श्री राजेंद्र परांजपे

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ फुलपाखरे ☆ श्री राजेंद्र परांजपे ☆ 

रंगबिरंगी पंख पसरुनी, झुलती, डुलती !

पुष्पापुष्पांतील मोदे ती मधुघट प्राशिती !

नाचती,बागडती, आनंदे नभी विहरती !

ती पहा फुलांवर फुलपाखरे भिरभिरती!

 

नाजूक, कोमल तनू वाऱ्यावर झुलविती !

धरु पहाता हाती न येती, निसटुनी जाती !

निमिषार्धातच नच कळे, कुठे ती हरवती !

ती पहा फुलांवर फुलपाखरे भिरभिरती !

 

क्षणी इथे क्षणी तिथे, नजर ठरु ना देती !

जीवनगंध पसरवती, मनी हर्ष फुलविती !

किमया विधात्याची,अद्भुत जीव निर्मिती !

ती पहा फुलांवर फुलपाखरे भिरभिरती !

 

© श्री राजेंद्र परांजपे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन ध्रुवांवर दोघी बहिणी …. – भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ जीवनरंग ☆ दोन ध्रुवांवर दोघी …. – भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

“ताई, तुला आठवतं? आपण लहानपणी आई-बाबांबरोबर मुंबई बघायला आलो होतो…….”

“मला लहानपणचं काही सांगू नकोस. मी विसरलेय सगळं.”

“असं थोडंच विसरता येतं मागचं?”  मीही हट्टालाच पिटले होते.

“मी प्रयत्नपूर्वक विसरलेय ते. मला पुन्हा आठवायला लावू नकोस.”

“असं काय वाईट होतं ग तेव्हा?”

“ते एवढंसं घर. बाबांचा तुटपुंजा पगार……”

“पण आपण तर समाधानी, सुखी होतो ना?”

“कारण आपल्याला मोठं घर,  भरपूर पैसा म्हणजे काय असतं,  तेच माहीत नव्हतं ना तेव्हा. तुला ठाऊक आहे?  माझ्या सासरच्या बायका मला कमी लेखायची एकही संधी सोडायच्या नाहीत. माझं अर्धवट राहिलेलं शिक्षण,  माहेरची बेताची परिस्थिती…. खूप अपमान करायच्या त्या. मग साहेब  माझी समजूत घालायचे-तुझ्या रूपावर जळतात त्या. म्हणून तर मी माझ्या दिसण्याची एवढी काळजी घ्यायला लागले. तेवढी एकच तर गोष्ट होती माझ्याकडे. दुसरं म्हणजे…. ”

बोलू की नको ,असा विचार करून मग तिने सुरुवात केली.

“साहेबांच्या सुलभाकाकी आहेत ना-. आहेत म्हणजे होत्या. गेल्या बिचा-या पाच-सहा वर्षांपूर्वी. तर काय सांगत होते, त्या काकांनी एक बाई ठेवली होती. ते तिला घेऊन दुसरीकडे घर करणार होते;  पण त्यांच्या आईंनी सांगितलं-इथेच राहू दे तिला. मग काय , ती घरातच राहायला लागली.

सासूबाई सांगायच्या ना,  त्या सुलभाकाकी रोज रात्री नटूनथटून बसायच्या नव-यासाठी. पण काका, त्यांच्याकडे ढुंकूनही न बघता त्या बाईच्या खोलीत जायचे. मग सुलभाकाकी सगळं विसकटून टाकायच्या .बिचा-या!

मला नेहमी भीती वाटायची, म्हणजे अजूनही वाटते, माझ्यावर तशी पाळी आली तर?”

“पण हे घरातल्या इतर बायकांच्या बाबतीतही घडू शकलं असतं की.”

“त्यांच्या बाबतीत घडलं असतं,  तर त्यांच्या माहेरचे आले असते जाब विचारायला आणि तशीच वेळ पडली असती, तर त्यांना माहेरी घेऊन गेले असते. एकेकीची माहेरं बघशील तर अशी श्रीमंत आहेत ,माहीत आहे?  सुलभाकाकीचं माहेर मात्र माझ्यासारखं. फाटकं.

म्हणून तर सासूबाई मला सांगत राहायच्या-‘डोळ्यांत तेल घालून जप नव-याला.”

मला आतापर्यंत ताईचा राग येत होता  पण आता मात्र दया येऊ लागली तिची.

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – संस्कार प्रभाव☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – संस्कार प्रभाव ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? बोध कथा?

कथा १२. संस्कार प्रभाव

विंध्यपर्वतावर  एका वटवृक्षावर  पोपटाचे जोडपे वास करत होते.  त्यांना राम व लक्ष्मण अशी दोन पिल्ले होती.  एकदा एका व्याधाने  जाळे पसरवून  त्या दोघांना पकडले. गोदावरी तीरावर राहणाऱ्या एका साधूला  राम विकला व एका कसायाला लक्ष्मण. त्या दोघांनीही छोट्या पोपटांचे प्रेमाने लालन पालन केले. आता त्या पिल्लांचे मातापिता वृद्ध झाले होते. राम व लक्ष्मणाच्या आठवणीने  ते व्यथित  होत होते.  त्यांना त्या दोघांच्या भेटीची ओढ लागली होती. आता दोघांना शोधूनच काढायचा त्यांनी निर्धार केला. त्यानुसार ते जोडपे  पर्वतांवर,  झाडांवर,  गावांमध्ये,  उद्यानात,  देवळांत,  राजवाड्यात इत्यादी सर्व  ठिकाणी  पिल्लांना शोधत कालांतराने गोदावरीच्या तीरावर आले. तेथे साधूच्या कुटीत व कसायाच्या घरात मधुर कूजन करणाऱ्या,  पिंजऱ्यात असलेल्या आपल्या पिल्लांना बघून ते खूप आनंदित झाले .

प्रथम त्या जोडप्याने  साधू जवळ येऊन त्याला प्रणाम केला व पिंजऱ्यातील पोपट आमचा पुत्र आहे असे सांगितले. तेव्हा  साधूने  त्या वृद्ध पोपटांना काही दिवस आदराने स्वतःच्या कुटीत ठेऊन घेतले. साधूने कसायाघरचा पोपटही काही मूल्य देऊन विकत घेतला व दोन्ही पिल्ले वृद्ध पोपटांना दिली. ते जोडपे काही दिवस पिल्लांसह आनंदात राहिले व नंतर मृत्यू पावले. माता-पित्याच्या मृत्युनंतर राम-लक्ष्मणाला एकत्र राहणे अशक्य झाले. ते दोघेही वेगवेगळ्या आम्रवृक्षांच्या फांदीवर घरटे बांधून राहू लागले.

एक दिवस कोणी एक ब्राह्मण नदीवर स्नानासाठी जात असताना थकून लक्ष्मण रहात असलेल्या झाडाखाली विश्रांतीसाठी  बसला. त्याला पाहून लक्ष्मण इतर पक्ष्यांना बोलावून “हा कोणी मनुष्य आला आहे. त्याचे चोचीने डोळे टोचून गळा फोडून खाऊ या” असे जोरजोराने ओरडू लागला. त्याचा तो आक्रोश ऐकून त्रस्त झालेल्या ब्राह्मणाने तेथून पळ काढला, व तो थेट राम रहात असलेल्या झाडाखाली आला.

ब्राह्मणाला पाहताच राम इतर पक्ष्यांना म्हणाला, “हा कोणी थकलेला मनुष्य आला आहे. आपण वृक्षाच्या पानांना जमिनीवर टाकूया, जेणेकरून हा सुखाने त्यावर बसू शकेल. फळेसुद्धा खाली टाकू व या अतिथीचे स्वागत करू.” ते रामशुकाचे बोलणे ऐकून ब्राह्मण आनंदित झाला. त्याने त्या पोपटाला विचारले, “मला प्रथम भेटलेला शुक ‘याला मारा, मारा’ असे ओरडत होता आणि तू तर माझे आतिथ्य करा असे सांगतो आहेस. हे कसे?” तेव्हा रामशुक म्हणाला, “आम्ही दोघे बंधू आहोत. मी साधूच्या घरी वाढलो. तिथे मी साधूला सगळ्यांचे आतिथ्य करताना पहिले. म्हणून माझी बुद्धी तशी संस्कारित झाली. तो कसायाच्या घरी वाढला. तिथे त्याने बोकड, मेंढे वगैरे मारताना पहिले, म्हणून त्याची बुद्धी तशी संस्कारित झाली.”

तात्पर्य – दुष्ट प्रवृत्तीच्या व्यक्तींची पूर्वी जशी दुर्बुद्धी असते, त्याचप्रमाणे ते वर्तन करतात. वृद्धावस्थेत सुद्धा त्यांची दुर्बुद्धी नष्ट होत नाही आणि सुबुद्धी जागृत होत नाही.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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