हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 9 ☆ बाल साहित्य – भोलू भालू सुधर गया ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “बाल साहित्य – भोलू भालू सुधर गया। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 9 ☆ 

☆ पुस्तक – भोलू भालू सुधर गया

पुस्तक चर्चा

☆ बाल साहित्य   – भोलू भालू सुधर गया– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

पुस्तक – भोलू भालू सुधर गया

लेखक – पवन चौहान

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य – १०० रु

 

बाल साहित्य रचने के लिये बाल मनोविज्ञान का जानकार होना अनिवार्य होता है. दुरूह से दुरूह बात भी खेल खेल में, चित्रात्मकता के साथ सरल शब्दो में बताई जावे तो बच्चे उसे सहज ही ग्रहण कर लेते हैं. बचपन में पढ़ा गया साहित्य जीवन भर स्मरण रहता है, और बच्चे को संस्कारित भी करता है.

बाल गीत, बाल कथाओ का इस दृष्टिकोण से बड़ा महत्व है. बच्चो की कहानियो के पात्र काल्पनिक होते हैं किन्तु वे बच्चो के नायक होते हैं.

नानी दादी की कहानियां अब गुम हो रही हैं, क्योकि परिवार विखण्डित होते जा रहे हैं, बाल मनोरंजन के अन्य इलेक्ट्रानिक संसाधन बढ़ रहे हैं. ऐसे समय में सुप्रतिष्ठित प्रकाशन गृह बोधि, जयपुर से पवन चौहान का बाल कथा संग्रह भोलू भालू सुधर गया प्रकाशित हुआ है. संग्रह में कुल जमा १५ बाल कथायें हैं. चूंकि पवन चौहान पेशे से शिक्षक हैं वे बच्चो के मन को खूब समझते हैं. छोटे छोटे वाक्य विन्यास के साथ उनकी कही कहानियां सुनने पढ़ने वाले पर चित्रात्मक प्रभाव छोड़ती हैं. सब जानते हैं कि शेर भालू इंसानी बोली नहीं बोल सकते, और न ही जंगल में इंसानी समस्यायें होती हैं जिनका हल चुनाव से निकालने की आवश्यकता हो, किन्तु पवन जी नें जंगली जानवरो को सफलता पूर्वक कथा पात्र बना कर उनके माध्यम से बाल मन पर बच्चे के परिवेश की इंसानी समस्याओ के हल निकालते हुये, बच्चो को सुसंस्कारित करने हेतु प्रस्तुत कहानियो के माध्यम से शिक्षित करने का महत्वपूर्ण काम किया है. बच्चो को ही नही, उनके अभिवावको व शिक्षको को भी किताब पसंद आयेगी.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 19 – निपूती (निःसंतान ) ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “निपूती (निःसंतान )”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि – निःसंतान स्त्री का भी ह्रदय होता है और उसमें भी बच्चों के प्रति अथाह स्नेह होता है।   क्षण भर को सब कुछ असहज लगता है किन्तु दुनिया में ऐसा भी होता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 19 ☆

 

☆  निपूती (निःसंतान) ☆

 

निर्मला अपने ससुराल आई। पति बहुत ही गुणवान और समझदार, दोनों की जोड़ी को सभी बहुत ही सुंदर मानते थे। घर परिवार भी खुश था। धीरे-धीरे साल बीता। घर में अब सास-ससुर बच्चे को लेकर चिंता करने लगे क्योंकि निर्मला का पति स्वरूप चंद्र घर में इकलौता था। परंतु विधान देखिए पता नहीं सब कुछ सही होने पर भी निर्मला को संतान सुख नहीं मिल पा रहा था। बहुत डॉक्टरी इलाज के बाद निर्मला अब थक चुकी थी। और सास-ससुर भी समय से पहले स्वर्ग सिधार गये। दोनों का जीवन अकेलेपन का कारण बनने लगा। अब निर्मला का पति घर से बाहर ज्यादा समय बिताने लगा।

निर्मला बहुत ही भरे पूरे परिवार से थी। घर में भाई भतीजे का, घर में सभी के बच्चों की देखभाल करती। मायके में उसे सब बहुत मानते थे। कोई कुछ नहीं कहता। परंतु निर्मला मन ही मन बहुत दुखी रहती थी। भाई की बिटिया उमा की शादी हुई घर में सभी प्रसन्नता पूर्वक कार्यक्रम होने लगा। अपनी बुआ के पास बैठी भतीजी बुआ का दर्द समझ रही थी। क्योंकि बचपन से बुआ जी से उसका ज्यादा लगाव था। विदाई हुई और ससुराल चली गई। बुआ निर्मला भी अपने घर आ गई। फिर से गुमसुम सी रहने लगी। मुहल्ले में उसने आना जाना बंद कर दिया।

धीरे-धीरे समय सरकता चला गया। निर्मला की भतीजी उमा  ने दो साल बाद सुंदर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। सभी आए, परंतु उसके ससुराल वालों के कारण निर्मला बुआ और फूफा जी को नहीं बुलाया गया। कहने लगे निपूती का इस अच्छे शुभ काम में क्या काम? यह बात भतीजी उमा को अच्छी नहीं लगी। परंतु कुछ कर ना सकी।

अचानक कुछ दिनों बाद बच्चे की तबीयत बहुत खराब हो गई। खून की आवश्यकता पड़ रही थी। रिश्तेदार दूर-दूर तक नहीं दिखाई दिए। निर्मला बुआ फूफा जी को जैसे ही खबर मिली वे  आ गए। उन्होंने चुपके से जाकर खून का सैंपल मिलवाया। बच्चे के खून से निर्मला का खून मैच कर गया। डॉक्टर ने तुरंत खून का इंतजाम कर लिया। बच्चा खतरे से बाहर हो गया। डॉक्टर ने कहा बच्चे की मां को कुछ समझाना है। अंदर आइए कौन है? उमा ने बिना कुछ सोचे समझे तुरंत कहा निर्मला है बच्चे की मां। डॉक्टर ने समझाकर केबिन से बाहर किया। निर्मला की आंखों में सारे जहां की खुशी और आंसू थे। उसकी गोद पर सुंदर बच्चा था और उमा कह रही थी “बच्चे का ध्यान रखिएगा, आप बहुत अच्छी मां है। हम सबको पता है इसका भी विशेष ध्यान रख सकती हैं।” कहकर उमा अस्पताल से बाहर चली गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #20 – कोजागरी ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एकसामयिक एवं सार्थक कविता  “कोजागरी”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 20 ☆

 

 ☆ कोजागरी ☆

ती सोबतीस माझ्या कोजागरीच माझी
येण्यास सोबतीला होताच चंद्र राजी
मी भाग्यवंत आहे तू भेटलीस येथे
माझे तुझे असूदे आता दिगंत नाते
ग्लासात चंद्र आहे कोजागरी म्हणूनी
ती केशरी मसाला गेली पुरी भिजोनी
ओठास लावलेला प्याला जरी दुधाचा
त्याच्यात गोडवा हा आला कसा मधाचा
ही रात्र पौर्णिमेची हे रूप ही रुपेरी
चंद्रास डाग आहे माझीच प्रीत कोरी
ना वाटली कधीही मज नजर धुंद इतकी
प्याला जरी दुधाचा तू वाटतेस साकी
बागा भरून गेल्या साऱ्याच माणसांनी
दोघेच फक्त आम्ही ह्या चिंब चांदण्यांनी

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 4 – ☆ मन – कवयित्री बहिणाबाई चौधरी ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “मन – कवयित्री बहिणाबाई चौधरी” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 4 ☆

 

☆ मन – कवयित्री बहिणाबाई चौधरी ☆ 

 

मनोव्यापार….माणसाचं मन हा अतिशय गूढ, गहन,  अनाकलनीय आणि तितकाच गुंतागुंतीचा विषय आहे. बहुरूपी, बहुढंगी मनाचे विभ्रम तर बघा जरा, घरी असलो तर बाहेर मोकाट, बाहेर असलो तर घरी सुसाट, देवासमोर श्लोक म्हणतांना देखील आजूबाजूच्या हालचाली टिपण्याचं त्याचं कसब विलक्षण ! कितीही रंजक पुस्तक हातात असू दे खिडकीतून दिसणा-या झाडाच्या फांद्या न्याहाळण्यात ते दंग ! परीक्षा संपण्याधीच त्याचे सुट्टीतले मनसुबे तयार. अप्रिय विषयाला पूर्णविराम न देता त्याचा चघळचोथा करण्यात आनंद मानावा तो त्यानेच ! एखाद्याबद्दलचा आकस, पूर्वग्रह गोंजारत त्याला अढळपद देण्याची दिलदारी दाखवावी ती देखील त्यानेच ! पा-यालाही मागे टाकणारी त्याची चंचलता, वा-यालाही लाजवेल असा त्याचा वेगवान मुक्त संचार, प्रसंगी खुपणारा त्याचा कोतेपणा,तर प्रसंगी गगनाला गवसणी घालणारा त्याचा मोठेपणा…छे..नाही थांग लागत, सारंच अनाकलनीय !

आज काव्यदिंडीतलं तिसरं पाऊल टाकतांना माहेरच्या आठवणीने भरून येतंय, कारण मी बोट धरलंय माझ्या माहेरच्या मायेच्या माणसाचं, खानदेशच्या सुप्रसिद्ध कवयित्री बहिणाबाई चौधरींचं !

 

☆ मन ☆

 

मन वढाय वढाय

उभ्या पिकातलं ढोर

किती हाकला हाकला

फिरी येतं पिकावर

 

मन मोकाट मोकाट

त्याले ठायी ठायी वाटा

जशा वा-यानं चालल्या

पान्याव-हल्यारे लाटा

 

मन लहरी लहरी

त्याले हाती धरे कोन

उंडारलं उंडारलं

जसं वारा वाहादन

 

मन जह्यरी जह्यरी

ह्याचं न्यारं रे तंतर

अरे इचू साप बरा

त्याले उतारे मंतर !

 

मन पाखरू पाखरू

त्याची काय सांगू मात ?

आता व्हतं भुईवर

गेलं गेलं आभायात

 

मन चप्पय चप्पय

त्याले नाही जरा धीर

तठे व्हयीसनी ईज

आलं आलं धरतीवर

 

मन एवढं एवढं

जसा खाकसचा दाना

मन केवढं केवढं ?

आभायात बी मायेना

 

देवा कसं देलं मन

अास नाही दुनियात !

आसा कसा रे तू योगी

काय तुझी करामत !

 

देवा आसं कसं मन ?

आसं कसं रे घडलं

कुठे जागेपनी तूले

असं सपनं पडल !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

image_print

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – ☆ Yoga  Nidra (In Hindi) – योग निद्रा (हिंदी में) ☆ – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

 

 ☆ Yoga  Nidra (In Hindi) – योग निद्रा (हिंदी में) ☆ 

 

Video Link >>>>>>

 

 

YOGA NIDRA – योग निद्रा (हिंदी में) 

 

Yoga nidra is a systematic method of inducing complete physical, mental and emotional relaxation.

योग-निद्रा पूर्ण शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति लाने का एक व्यवस्थित तरीका है.

A single hour of yoga nidra is as restful as four hours of ordinary sleep.

एक घंटे की योग-निद्रा का अभ्यास चार घंटे की साधारण नींद के बराबर विश्रामदायक है.

Yoga nidra is a more efficient and effective form of psychic and physiological rest and rejuvenation than conventional sleep.

शारीरिक एवं आत्मिक विश्राम प्रदान करने तथा पुनः ऊर्जान्वित करने हेतु, योग-निद्रा, साधारण नींद की अपेक्षा, अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुई है.

Yoga nidra is a technique which can be used to awaken divine faculties, and is one of the ways of entering samadhi.

योग-निद्रा एक ऐसी विधि है जिसका उपयोग अपने भीतर दिव्य गुणों को जाग्रत करने के लिए किया जा सकता है, साथ ही साथ यह समाधि की अवस्था में प्रवेश करने का एक साधन भी है.

Most people sleep without resolving their tensions. This is termed ‘nidra’. Nidra means sleep. Yoga nidra means sleep after throwing off the burdens. It is of a blissful, higher quality altogether. Yoga Nidra may be called The Blissful Relaxation.

अधिकतर लोग अपने तनावों का निराकरण किये बगैर सोते है. इसे निद्रा या नींद कहते हैं. योग निद्रा का अर्थ है सभी बोझों को उतार कर सोना. योग निद्रा को आनंदपूर्ण विश्रांति कहा जा सकता है.

सन्दर्भ ग्रंथ: योग निद्रा – स्वामी सत्यानन्द सरस्वती

(यह विडियो स्वामी सत्यानन्द सरस्वती को समर्पित है)

Music:
Healing by Kevin MacLeod is licensed under a Creative Commons Attribution license (https://creativecommons.org/licenses/…)
Source: http://incompetech.com/music/royalty-…
Artist: http://incompetech.com/

Oor Fundamentals :
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer
Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

 

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।35।।

 

भगवान ने कहा-

निश्चय ही मन है बड़ा चंचल औ” अग्राहय

पर अर्जुन अभ्यास से होता वह भी ग्राहय।।35।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है ।।35।।

 

Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but,  by practice and by dispassion it may be restrained! ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ भीड़ ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

कविता – भीड़ ☆

 

इन दिनों

जहाँ भी जाता हूँ

मेरे पीछे भीड़ ही भीड़ होती है

घर में, विद्यालय में

अस्पताल में, मुर्दाघर में

गाँव -घर के गलियारों में

बाज़ारों में, मेलों-ठेलों में

जहाँ पुलिस नहीं है उन चौराहों पर तो

और भी अगड़म-बगड़म तरीके से

पैदल भागती,

आँख मूँद सरपट्टा मार सड़क पार जाती

या फिर जाम में फँसी

कारों, बसों, टैंपो, रिक्शों में

भरी हुई यह भीड़

अनावश्यक रूप से पों-पों करते हुए

ठेलती चलती है अजनबीपन को

मुंडन-सुंडन में

शादी-ब्याह में,

बजबजाती वर्षगांठों में

एक अजीब तरह की

कास्मेटिक्स की दुर्गंध छोड़ती हुई भीड़

हमसे सही नहीं जा रही है इन दिनों

जहाँ भी जाता हूँ न जाने क्यों

इंसान तो इंसान मुर्दे तक

भीड़ की शक्ल में घेर कर खड़े हो जाते हैं हमें

कभी-कभी मुझे शक होता है कि-

यह भीड़ सिर्फ मुझे ही दिखती है

या खुद भीड़ को भी

इत्मीनान के लिए लिए पीछे मुड़-मुड़कर भी देखता हूँ

फिर खुद पर ही शर्मिंदा होता हूँ कि कहीं भीड़

कुछ समय के लिए पागल न समझ बैठे

या फिर मुझे पागल घोषित ही न कर दे

हमेशा-हमेशा के लिए

और अचानक बेवजह बात-बेबात मुझपर

ज़ोर-ज़ोर से पत्थर फेंकने लगे यह भीड़

इसी से

बाहर निकलने के नाम भर से चक्कर आते हैं

इन दिनों

जी मिचलाता है

उबकाई आती है

कुछ लार-सी ही

बाहर निकल जाए तो भी

शुकून मिल जाता है मन को

एक दिन पत्नी ने  मुझे बेसिन के पास ओ-ओ करते देखा तो

मज़ाक कर बैठी,

‘लो बहू तुम्हारी ओर से न सही तो

तुम्हारे बाबू जी की ओर से ही सही

खुशखबरी तो सुन रही हूँ कहीं से।’

उसके बाद से तो घर  में ज़ोर से खाँसता तक नहीं हूँ

किसी  के सामने

किसी को भी नहीं बताता

अपनी यह समस्या

कानी चिड़िया को भी नहीं

न ही किसी के पास

इन आलतू-फालतू बातों को सुनने के लिए समय ही है

इतनी गंभीर गोपनीयता के बावजूद

कई महीनों से

बच्चों को लगता है कि

मुझे कुछ मानसिक  समस्या है

लेकिन दिखाने कोई नहीं ले जाता कहीं

अभी कुछ दिनों से मुझे भी लगता है

किसी मनोचिकित्सक को दिखा ही लूँ

पोती को ले जाऊँगा साथ

अभी छोटी है तो क्या

कम से कम इससे

मज़ाक तो नहीं बनूँगा किसी के सामने

मन करता है कि जल्दी  ही चला जाऊँ

‘उपचार से बचाव अच्छा है’

पर,

वहाँ की भीड़ से भी डर रहा हूँ

सोचता हूँ घर से ही न निकलूँ तो ही बेहतर  है

लेकिन यह भी कोई स्थायी समाधान तो नहीं

आखिर करूँ तो करूँ क्या

अपना इलाज़ कराऊँ या उस भीड़ का

जो मुझको

मेरे साथ मेरे अपनों को भी

अपने में विलीन कर लेने के लिए

मेरे पीछे पड़ी है

घर से डॉक्टर के यहाँ तक

चार-पाँच अन्धे मोड़ हैं

बिना हॉर्न दिए भटभटाते हुए

अचानक घुस आते हैं लड़के

मुन्नी भी

भाग लेती है किसी ओर भी

अभी बहुत छोटी है

तो भी उठाई जा सकती है

कितने बड़े-बड़े मॉल हैं

जिनमें भी खो सकती है मेरी मुन्नी

मैं पागल ऐसे  ही नहीं हो रहा हूँ

भीड़ के पिछले इतिहास भी तो हैं

जिनमें खोए लोग

अभी तक खोज-खोज के थक गई हैं

हमारी सरकारें

यह भीड़ भी किसी समुद्र से कम नहीं

जिसमें अपना कोई डूब  जाए तो –

फिर खोजे  ही न मिले ।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्रोध – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्रोध

 

दोनों में बहस होने लगी थी। विवाद की तीक्ष्णता बढ़ती गई। आक्रोश में दोनों थे पर पहला मनुष्य था, दूसरा क्रोधी था। क्रोध, तर्क का पथ तज देता है, मर्म को चोट पहुँचाने की राह चलता है। इस राह के विनाशकारी मोड़ पर तिलमिलाहट टकराती है।

तिलमिलाहट में क्रोधी ने एक बड़ा पत्थर मनुष्य के सिर पर दे मारा। मनुष्य की मौत हो गई। क्रोधी को फाँसी चढ़ना पड़ा।

यश, संपदा, नेह, सम्बंध, अंतत: समूचे अस्तित्व की बलि ले लेता है क्रोध।

 

मनुष्यता बनी रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16 – जुग जुग जियो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  व्यंग्य विधा में एक प्रयोग  “माइक्रो व्यंग्य  – जुग जुग जियो” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य –  जुग जुग जियो   

 

ये बात तो बिलकुल सही है कि लोगों ने मरने का सलीका बदल दिया है।

रात में सोये और बिना बताए चल दिए, कहीं टूर में गए और वहीं दांत निपोर के टें हो गए, न गंगा जल पीने का आनन्द उठाया न गीता का श्लोक सुना ,…..अरे ऐसा भी क्या मरना?

…..पहले मरने का नाटक कर लो थोड़ी रिहर्सल हो जाय, नात – रिस्तेदार सब जुड़ जाएँ। पहले से रोना धोना सुन लिया जाय। कुछ अतिंम इच्छा पूरी हो जाए।

भई मरना तो सभी को है तो तरीके से मरो न यार,  घर वालों को मोहल्ले पड़ोस से पर्याप्त सहानुभूति बगैरह मिल जाए। अब तुम तो जाय ही रहे हो कुछ पडो़स वालों को भी डराय दो कि लफड़ा किया तो भूत बनके निपटा दूंगा।

यदि दिल के कोई कोने में कोई बचपन की पुरानी प्रेमिका छुपी रह गई हो तो उसको भी कोई बहाने से बुला लिया जाए।

बुलंद इमारत के खण्डहर में भी ताकत होती है, जश्न मनाके मरने का तरीका होना चाहिए।  मरने के पहले अड़ जाओ कि आज ही 500 लोगों को जलेबी पोहा मेरे सामने खिलाओ। अड़ जाओ कि जिस पुलिस वाले ने डण्डे से घुटना तोड़ा था उसको  सामने गुड्डी तनवायी जाए। ऐसी अनेक तरह के अविस्मरणीय मजेदार किस्सों के साथ मरोगे तो मरने का अलग मजा आएगा ………! आदि इत्यादि।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – शरद पूर्णिमा विशेष – ☆ शरद पूर्णिमा – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “शरद पूर्णिमा  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ “शरद पूर्णिमा   – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

आज शरद पूर्णिमा है मेरी पुस्तक पूर्ण विनाशक में से शरद पूर्णिमा पर एक लेख :

क्या आप जानते हैं कि एक पूर्णिमा या पूर्णिमा की रात्रि है जो दशहरा और दिवाली के बीच आती है, जिसमें चंद्रमा पुरे वर्ष में पृथ्वी के सबसे नज़दीक और सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। इस दिन लोग चंद्रमा की रोशनी की पूर्णता प्राप्त करने के लिए कई अनुष्ठान करते हैं क्योंकि इसमें उपचार गुण होते हैं । इसे शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा (शब्द ‘ कोजागरी’ का अर्थ है ‘जागृत कौन है’ अर्थात ‘कौन जाग रहा है?’) या रास पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात्रि भर चाँदनी में रखने का विधान है । कुछ लोग मानते हैं कि इस रात्रि देवी लक्ष्मी लोगों के घर का दौरा करने के लिए जाती है, और उन लोगों पर खुशी दिखाती है जो उन्हें इस रात्रि जाग कर देवी लक्ष्मी की पूजा करते हुए मिलते हैं । इसके पीछे एक लोकप्रिय कथा भी है। एक बार एक राजा एक महान वित्तीय संकट में था। तो रानी, अपने पति की सहायता करने के लिए, पूरी रात्रि जागकर देवी लक्ष्मी की पूजा करती है ।जिससे देवी लक्ष्मी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और राजा फिर से धन धन्य से पूर्ण हो जाता है ।

इसे कौमुदी (अर्थ : चन्द्रमा का प्रकाश) उत्सव भी कहा जाता है और इसे दैवीय रास लीला की रात्रि माना जाता है । शब्द, रास का अर्थ “सौंदर्यशास्त्र” और लीला का अर्थ “अधिनियम” या “खेल” या “नृत्य” है । यह हिंदू धर्म की एक अवधारणा है, जिसके अनुसार गोपियों के साथ भगवान कृष्ण के “दिव्य प्रेम” का खेल दर्शया जाता है ।

गोपी शब्द गोपाला शब्द से उत्पन्न एक शब्द है जो गायों के झुंड के प्रभारी व्यक्ति को निरूपित करता है । हिंदू धर्म में भगवत पुराण और अन्य पुराणिक कहानियों में वर्णित विशेष रूप से नाम गोपीका (गोपी का स्त्री रूप) का प्रयोग आमतौर पर भगवान कृष्ण की बिना शर्त भक्ति (भक्ति) अपनाने वाली गाय चराने वाली लड़कियों के समूह के संदर्भ में किया जाता है । इस समूह की एक गोपी को हम सभी राधा (या राधिका) के रूप में जानते हैं। वृंदावन में भगवान कृष्ण के साथ रास करने वाली 108 गोपीका बताई गयी हैं । भगवान कृष्ण ने राधा और वृंदावन की अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास लीला इस शरद पूर्णिमा की रात्रि ही की थी । भगवान कृष्ण ने खुद को उनमें से प्रत्येक गोपी के साथ नृत्य करने के लिए अपनी प्रतिलिपियाँ बनायीं और इसी रात्रि भगवान कृष्ण ने अपने भक्ति रस का प्रदर्शन राधा और अन्य गोपियों के साथ रास-लीला करके किया । यह दिन प्रेमियों द्वारा भी मनाया जाता है। प्रेमी जोड़े पूर्णिमा की इस रात्रि को एक-दूसरे के लिए अपना प्यार व्यक्त करते हैं । आज भी अगर कोई वृंदावन के निधिवन जाता है, और शरद पूर्णिमा की रात्रि वहाँ पर रहता है, तो प्रेम का विशेष रस निधिवन के अंदर उपस्थित वृक्षों से बहने लगता हैं जो किसी भी व्यक्ति के भाव को तुरंत प्रेम के दिव्य रस में बदल देता है। यदि वह व्यक्ति शुद्ध है और खुद को दूसरे के लिए समर्पित करता है। एवं वह जीवन में दूसरों के प्रति घृणा नहीं करता है। तो निधिवन में रात्रि को प्यार की एक सकारात्मक ऊर्जा उसके शरीर से चारों ओर बहने लगती है। लेकिन अगर कोई रात्रि में बुरे इरादे से जो शारीरिक रूप से या मानसिक रूप से शुद्ध नहीं है, वह निधिवन में जाता है तो वह मर जाता है या पागल हो जाता है”

‘निधि’ का अर्थ है खजाना और ‘वन’ का अर्थ ‘वन या जंगल’ है, इसलिए ‘निधिवन’ का अर्थ है वन का खजाना ऐसे ही ‘वृंदा’ का अर्थ फूलों का समूह है, इसलिए ‘वृंदावन’ का अर्थ कई प्रकार के फूलों से भरा वन है”.

 

© आशीष कुमार  

image_print

Please share your Post !

Shares
image_print