हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – भाग्यं फलति सर्वत्र

 

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” भाग्य के स्वामी का भी अपना भाग्य होता है जो वांछित-अवांछित सब अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम और लक्ष्य के बीच अंतर घटता गया। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुजुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।” फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। श्रम ने सहानुभूति से गरदन हिलाई।

आजका दिन संकल्पवान हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 1: 38 बजे, 13.10.2019)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 17 – जनसेवक की जुबानी ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  वर्तमान चुनावी परिप्रेक्ष्य में एक उलटबासी “जनसेवक की जुबानी…….। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 17 ☆

 

☆ जनसेवक की जुबानी……. ☆  

 

तुम डाल-डाल, हम पात-पात

हम हैं दूल्हे, तुम हो बरात।।

 

हम  पावन मंदिर के झंडे

तुम पार्टी ध्वजों के हो डंडे

हम शीतल चंदन की सुगंध

तुम  औघड़िये ताबीज गंडे।

तुम तो रातों के साये हो

हम प्रथम किरण की सुप्रभात

तुम डाल डाल…………….।।

 

हम हैं गंगा का पावन जल

तुम तो पोखर के पानी हो

हम नैतिकता के अनुगामी

तुम फितरत भरी कहानी हो।

हथियारों से तुम लेस रहे

हम सदा जोड़ते रहे हाथ

तुम डाल डाल…………….।।

 

हम  शांत  धीर गंभीर बने

तुम व्यग्र,विखंडित क्रोधी हो

हम संस्कारों के साथ चले

तुम  इनके  रहे विरोधी हो।

हम जन-जन की सेवा में रत

तुम करते रहते खुराफ़ात

तुम डाल डाल…………।।

 

हम व्यापक हैं आकाश सदृश

तुम  बंधे  हुए  सीमाओं  में

हम गीत अमरता के निर्मल

तुम बसे व्यंग्य कविताओं में।

तुमने  गोदाम  भरे  अपने

हम भूखों के बन गए भात

तुम डाल डाल……………।।

 

हम नेता मंत्री, हैं अफसर

तुम पिछलग्गू अनुयायी हो

हम नोट-वोट, कुर्सी धारी

पर्वत हैं हम, तुम खाई हो।

हम पाते रहते सदा जीत

तुम खाते रहते सदा मात

तुम डाल डाल हम पात पात।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 19 – ऐलोमा पैलोमा ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनके पुरानी डायरी से एक कविता पर  एक कविता  “ऐलोमा पैलोमा ”.   बचपन में खेले गए खेलों के साथ उपजी कविता जैसे करेले की बेल के साथ अंकुरित होती है और बेल के साथ ही बढती है.  करेले के कोमल पत्ते,  फूल और फल. करेले की सब्जी के  स्वाद  सी कविता .  बचपन के खेल में गए गीत में सासु माँ का कथन  कि “बहु करेले की सब्जी खा फिर मायके जा” बहुत कुछ कह जाती है.  किन्तु, करेले सा यह कटु सत्य है कि  हम अपनी कविता की सही विवेचना हम  ही कर सकते हैं .  कुछ बातें गीतों और कविताओं में ही अच्छी लगती हैं. ऐसे  कुछ खेल अकेले ही  खेले जा सकते हैं. सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 19 ☆

 

☆ ऐलोमा पैलोमा ☆

 

या इथेच तर सुरू झाला खेळ,

कवितेत रंगण्याचा!

मी ही मग गायली पावसाची गाणी,

हदग्याच्या दिवसात ऐलोमा पैलोमाचा फेर ही धरला!

कारल्याचा वेल लावला खरा,

पण….

“कारल्याची भाजी खा गं सुने,

मग जा आपल्या माहेरा ”

म्हणणा-या सासू सारखीच वाटली,

ही व्यासपिठीय कविता!

मनात गच्च भरून राहिलेला पाऊस

एका स्नेहमयी सांजेला

हळूवार रिमझिमला

आणि वाटलं,

गवसलं कवितेचं रान,

मनमुक्त बरसायला!

अनुभवाच्या कारल्याचा वेल

हळूहळू वाढू लागला!

कारल्याला फूल येऊ दे गं….

म्हणत कवितेची दाद भुलवतच राहिली!

कारल्याला कारलीही आली हिरवीगार!

चिंचगुळ घालून भाजीही केली,

चटकदार, चविष्ट!

दारातला वेल हिरवा आहे आणि

जिभेवर कार्ल्याची चव आहे

तोवरच माहेरी जाईन म्हणते,

भोंडला खेळणा-या सोबतीणी तरी कुठं टिकतात इतका काळ?

आताशा हस्त बरसतच नाही आणि सोसवत नाही—

“नवरा मारितो ऽऽ ..बरे करितो”

असे खेळातल्या खेळातही म्हणणे!

कविते, आपले निर्णय आपणच घ्यायचे असतात,

 

बरेचसे  खेळ एकटीनेच खेळायचे असतात!

 

© प्रभा सोनवणे,  

(३०-५-१९९९)

 

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 8 – गीत – तिरंगा जब लहराएगा ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “गीत – तिरंगा जब लहराएगा ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 8 ☆

 

☆ गीत – तिरंगा जब लहराएगा

 

तिरंगा जब भी,

आसमान में लहराएगा,

हर भारतवासी का दिल,

अभिमान से भर आएगा।

 

मंगल पांडे जी की आहुति,

गंध मिट्टी यहाँ आज भी देती,

जब भी आजाद देश जश्न मनाएगा,

हर सूरमा आँसू दे जाएगा।

 

बापू की बात थी न्यारी,

सत्य, अहिंसा के थे पुजारी,

जो शांति की राह अपनाएगा,

फिर राजघाट भी खुशी मनाएगा।

 

अंग्रेजों ने की मनमानी,

सह न पाए हिन्दुस्तानी,

मर मिटे हैं मर मिटेंगे,

फिर-फिर जन्म ले आएगा।

 

इक पल की नहीं ये आजादी,

कितनों ने ही जान गवाँ दी,

याद करके उनकी आज,

दिल बाग-बाग हो जाएगा।

 

नाम अमर हो जाएगा

जो वतन पर मिट जाएगा,

देश का सपूत कहलाएगा,

आबाद आजादी जो रख पाएगा।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो राहा ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ दो राहा  ☆

 

मेरी नेक-नियत,

मेरा भोलापन और सच्चाई।

तेरे जग में मुझे अकेला कर गई।

सोचता हूँ बैठूँ,

हर दिन मधुशाला में।

झुठे ही सही,

मदहोशी में ही सही।

अंजाने यारों के संग,

कुछ पल तो बीतेगें ही सही।

बोलकर सच,

खुद को पागल समझता हूँ।

बोलकर झूठ कभी,

खुद को मुजरिम समझता हूँ।

 

बैठा हूँ दो-राहे पर,

चलूं,

सूने-सच्चाई के,

रास्तों पर अकेला ही।

या,

चलूं,

मन विरूध्द और,

समा जाऊँ भीड़ में ही।

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।36।।

 

जो है संयम हीन नर योग उन्हे दुष्प्राप्त

जो नर होते संयमी उन्हें न कुछ अप्राप्य।।36।।

 

भावार्थ :  जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।।36।।

 

I think  that  Yoga  is  hard  to  be  attained  by  one  of  uncontrolled  self,  but  the self-controlled and striving one attains to it by the (proper) means. ।।36।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 42 ☆ ई-अभिव्यक्ति की प्रथम वर्षगांठ पर हार्दिक शुभकामनायें ☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–42

 

☆ ई-अभिव्यक्ति की प्रथम वर्षगांठ पर हार्दिक शुभकामनायें ☆

 

15 अक्तूबर 2018 की रात्रि एक सूत्रधार की मानिंद जाने अनजाने मित्रों, साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर कुछ नया करने के प्रयास से एक छोटी सी शुरुआत की थी। आप सब की शुभकामनाओं से अब लगता है कि सूत्रधार का कर्तव्य पूर्ण करने के लिए जो प्रयास प्रारम्भ किया था उसका सार्थक एवं सकारात्मक परिणाम फलीभूत हो रहा है.  कभी कल्पना भी नहीं थी कि इस प्रयास में इतने सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार, मित्र  एवं पाठक जुड़ जाएंगे और इतना प्रतिसाद मिल पाएगा.

यदि मजरूह सुल्तानपुरी जी के शब्दों में कहूँ तो –

मैं अकेला ही चला था ज़ानिब-ए-मंज़िल मगर,

लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।

“अभिव्यक्ति” शब्द को साकार करना इतना आसान नहीं था। जब कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी की राह में  रोड़े आड़े आए तो डॉ.  राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के आशीर्वाद स्वरूप निम्न पंक्तियों ने संबल बढ़ाया –

सजग नागरिक की तरह

जाहिर हो अभिव्यक्ति।

सर्वोपरि है देशहित

बड़ा न कोई व्यक्ति।

इस यात्रा में कई अविस्मरणीय पड़ाव आए जो सदैव मुझे कुछ नए प्रयोग करने हेतु प्रेरित करते रहे। कई तकनीकी एवं साइबर समस्याओं का सामना भी करना पड़ा. इनकी चर्चा हम समय समय पर आपसे करते रहेंगे। मित्र लेखकों एवं पाठकों से समय-समय पर प्राप्त सुझावों के अनुरूप वेबसाइट में  साहित्यिक एवं अपने अल्प तकनीकी ज्ञान से वेबसाइट को बेहतर बनाने के प्रयास किए।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में  ई-अभिव्यक्ति की नींव डालने में कई सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकारों, मित्रों, लेखकों एवं पाठकों का सहयोग प्राप्त हुआ. उनके सम्मान की इस वेला में में किसी एक का नाम भी छूटना मेरे लिए कष्टप्रद होगा. अतः मैं प्रयास कर रहा हूँ  कि सभी से व्यक्तिगत संवाद बना कर धन्यवाद दे सकूँ.

इस संवाद के लिखते तक मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक  एक वर्ष में कुल 1905 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 1606 कमेंट्स प्राप्त हुए और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक  75300 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।

ई-अभिव्यक्ति की प्रथम वर्षगांठ पर आप सबको पुनः हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं.  

 

हेमन्त बावनकर

15 अक्टूबर 2019

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हिन्दी साहित्य – ☆ जन्म दिवस विशेष ☆ एक लेखक के रूप में डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जन्म दिवस विशेष 
विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं, जिन्होने  डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी के जन्मदिवस  के विशेष अवसर पर इस  ज्ञानवर्धक आलेख की रचना की है जिसमें उन्होंने उनके लेखकीय पक्ष की विस्तृत चर्चा की है। 

 

☆ एक लेखक के रूप में…..डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम 

 

शाश्वत सत्य है शब्द मरते नहीं. इसीलिये शब्द को हमारी संस्कृति में ब्रम्ह कहा गया है. यही कारण है कि स्वयं अपने जीवन में विपन्नता से संघर्ष करते हुये भी जो मनीषी  निरंतर रचनात्मक शब्द साधना में लगे रहे, उनके कार्यो को जब साहित्य जगत ने समझा तो  वे आज लब्ध प्रतिष्ठित हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं. लेखकीय गुण, वैचारिक अभिव्यक्ति का ऐसा संसाधन है जिससे लेखक के अनुभवो का जब संप्रेषण होता है, तो वह हर पाठक के हृदय को स्पर्श करता है. उसे प्रेरित करता है, उसका दिशादर्शन करता है. इसीलिये पुस्तकें सर्व श्रेष्ठ मित्र कही जाती हैं.केवल किताबें ही हैं जिनका मूल्य निर्धारण बाजारवाद के प्रचलित सिद्धांतो से भिन्न होता है. क्योकि किताबो में सुलभ किया गया ज्ञान अनमोल होता है.  आभासी डिजिटल दुनिया के इस समय में भी किताबो की हार्ड कापी का महत्व इसीलिये निर्विवाद है, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम स्वयं एक शीर्ष वैज्ञानिक थे, उनसे अधिक डिजिटल दुनिया को कौन समझता पर फिर भी अपनी पुस्तकें उन्होने  साफ्ट कापी के साथ ही प्रिंट माध्यम से भी  सुलभ करवाईं हैं.उनकी किताबो का अनुवाद अनेक भाषाओ में हुआ है. दुनिया के सबसे बड़े डिजिटल बुक स्टोर अमेजन पर कलाम साहब की किताबें विभिन्न भाषाओ में सुलभ हैं.  कलाम युवा शक्ति के प्रेरक लेखक के रूप में सुस्थापित हैं.

अवुल पकिर जैनुलअबिदीन अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता जैनुलअबिदीन एक नाविक थे और उनकी माता अशिअम्मा एक गृहणी थीं। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थे इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पड़ा। अपने पिता की आर्थिक मदद के लिए बालक कलाम स्कूल के बाद समाचार पत्र वितरण का कार्य करते थे। अपने स्कूल के दिनों में कलाम पढाई-लिखाई में सामान्य थे पर नयी चीज़ सीखने के लिए हमेशा तत्पर और तैयार रहते थे। उनके अन्दर सीखने की भूख थी और वो पढाई पर घंटो ध्यान देते थे। उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई रामनाथपुरम स्च्वार्त्ज़ मैट्रिकुलेशन स्कूल से पूरी की और उसके बाद तिरूचिरापल्ली के सेंट जोसेफ्स कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ से उन्होंने सन 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक किया। उसके बाद वर्ष 1955 में वो मद्रास चले गए जहाँ से उन्होंने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1960 में कलाम ने मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की। उन्होंने देश के कुछ सबसे महत्वपूर्ण संगठनों (डीआरडीओ और इसरो) में वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया।  वर्ष 1998 के पोखरण द्वितीय परमाणु परिक्षण में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ कलाम भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और मिसाइल विकास कार्यक्रम के साथ भी जुड़े थे। इसी कारण उन्हें ‘मिसाइल मैन’  कहा गया.  वर्ष 2002 में  कलाम भारत के ११ वें राष्ट्रपति चुने गए और 5 वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षण, लेखन, और सार्वजनिक सेवा में लौट आए। उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

राष्ट्रपति रहते हुये वे बच्चो से तथा समाज से जुड़ते गये, उन्हें जनता का राष्ट्रपति कहा गया. राष्ट्रपति पद से सेवामुक्त होने के बाद डॉ कलाम अपने मन की मूल धारा शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोध जैसे कार्यों में व्यस्त रहे और भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिल्लांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद, भारतीय प्रबंधन संस्थान, इंदौर, जैसे संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जुड़े रहे।  प्रायः विश्वविद्यालयो के दीक्षांत समारोहों में वे सहजता से पहुंचते तथा नव युवाओ को प्रेरक वक्तव्य देते.  वे भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर के फेलो, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी, थिरुवनन्थपुरम के चांसलर, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई, में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर भी रहे।

उन्होंने आई. आई. आई. टी. हैदराबाद, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और अन्ना यूनिवर्सिटी में सूचना प्रौद्योगिकी भी पढाया. वर्ष 2011 में प्रदर्शित हुई हिंदी फिल्म ‘आई ऍम कलाम’ उनके जीवन पर बनाई गई.

एक लेखक के रूप में अपनी पुस्तको “अदम्य साहस” जो जनवरी २००८ में प्रकाशित हुई, इस किताब में देश के प्रथम नागरिक के दिल से निकली वह आवाज है, जो गहराई के साथ देश और देशवासियों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचती है। अदम्य साहस जीवन के अनुभवों से जुड़े संस्मरणों, रोचक प्रसंगों, मौलिक विचारों और कार्य-योजनाओं का प्रेरणाप्रद चित्रण है।    उनकी एक और किताब “छुआ आसमान” २००९ में छपी जिसमें उनकी आत्मकथा है जो उनके अद्भुत जीवन का वर्णन करती है. अंग्रेजी में इंडोमिटेबल स्पिरिट शीर्षक से उनकी किताब २००७ में छपी थी जिसे विस्व स्तर पर सराहा गया. गुजराती में २००९ में “प्रज्वलित मानस” नाम से इसका अनुवाद छपा. “प्रेरणात्मक विचार” नाम से प्रकाशित कृति में वे लिखते हैं,  आप किस रूप में याद रखे जाना चाहेंगे ? आपको अपने जीवन को कैसा स्वरूप देना है, उसे एक कागज़ पर लिख डालिए, वह मानव इतिहास का महत्त्वपूर्ण पृष्ठ हो सकता है.

मैने कलाम साहब को अपनी बड़ी बिटिया अनुव्रता के एम बी ए के दीक्षान्त समारोह में मनीपाल के तापमी इंस्टीट्यूट में बहुत पास से सुना था, तब उन्होने नव डिग्रीधारी युवाओ को यही कहते हुये सम्बोधित किया था तथा उनहें देश प्रेम की शपथ दिलवाई थी.

भारत की आवाज़, हम होंगे कामयाब, आदि शीर्षको से उनकी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई किताबें ‘इंडिया 2020: ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’, ‘विंग्स ऑफ़ फायर: ऐन ऑटोबायोग्राफी’, ‘इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया’, ‘मिशन इंडिया’, आदि किताबें विभिन्न प्रकाशको ने प्रकाशित की हैं. ये सभी किताबें सहज  शैली, पाठक से सीधा संवाद करती भाषा और उसके मर्म को छूती संवेदना के चलते बहुपठित हैं. बहु चर्चित तथा प्रेरणा की स्त्रोत हैं.

न केवल कलाम साहब स्वयं एक अच्छे लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित हुये हें बल्कि उन पर, उनकी कार्य शैली, उनके सादगी भरे जीवन पर ढ़ेरो किताबें अनेको विद्वानो तथा उनके सहकर्मियो ने लिखी हैं.

27 जुलाई, 2015, को शिलोंग, मेघालय में आई आई एम के युवाओ को संबोधित करते हुये ही, देश की संसद न चल पाने की चिंता और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का समाधान खोजते हुये उनका देहाचवसान हो गया पर एक लेखक के रूप में अपने विचारो के माध्यम से वे सदा सदा के लिये अमर हो गये हैं.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 12 ☆ मंज़र ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “मंज़र”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 12 ☆

 

☆ मंज़र

कहाँ लगता है वक़्त

मंज़र के बदलने में?

शायद ये परिवर्तन

मौसम से भी बढ़कर होता है-

कम से कम

मौसम के आने और जाने का समय तो

लगभग सुनिश्चित है,

मंज़र तो

पलभर में भी बदल जाता है, है ना?

 

पहले बड़ा डर  सा लगता था

मंज़र के बदल जाने पर-

घबरा जाती थी,

हाथ-पैर  फूल जाते थे

और दिल तेज़ी से धड़कने लगता था;

पर अब धीरे-धीरे जान चुकी हूँ

कि खुदा मंज़र बनाता ही है

बदलने के लिए

और चाहता ही यह है

कि मंज़र चाहें कितने ही बदलें,

हम अपने जज़्बात,

अपने एहसास

और अपने खयालात में

संतुलन बनाकर रखें!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी

*प्रश्न*- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
*प्रश्न*- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।
*प्रश्न*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परकाया प्रवेश आना चाहिए।
*प्रश्न*- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।
*प्रश्न*- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।
*प्रश्न*- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।
*प्रश्न*- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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