आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

 

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।।19।।

 

समारंभ जिसके कर्मो का इच्छा ओै” संकल्प रहित

ज्ञानानल से भस्मित जिसके कर्म वही सच्चा पंडित।।19।।

 

भावार्थ :  जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।।19।।

 

He whose undertakings are all devoid of desires and (selfish) purposes, and whose actions have been burnt by the fire of knowledge,-him the wise call a sage. ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #5 – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धितसमस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)

??  मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि वारी पर बनाई गई फिल्म और इस लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– संजय  भारद्वाज  ????

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 5 ☆

 

☆ वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆

 

 

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

 

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक -आत्मकथ्य /विवेचना – ☆ द्वीप अपने अपने ☆ डॉ मुक्ता (विवेचना – डा•सुभाष रस्तोगी)

काव्य संग्रह  – द्वीप अपने अपने – डॉ. मुक्ता 

  • आत्मकथ्य – डॉ.मुक्ता
  • विवेचना – डॉ. सुभाष रस्तोगी 

 

☆ आत्मकथ्य  – संवेदनाओं का झरोखा ☆

– डॉ. मुक्ता

‘द्वीप अपने अपने’ विभिन्न मनःस्थितियों को उकेरता रंग-बिरंगे पुष्पों का गुलदस्ता है, जो उपवन की शोभा में चार चांद लगाते हैं। उपवन में कहीं महकते पुष्पों पर गुंजार करते भंवरे मन को आह्लादित, प्रफुल्लित व आनंदित करते हैं, तो कहीं कैक्टस के सुंदर रूप भी मन को आकर्षित करते हैं। मलय वायु पूरे वातावरण को महका देती है और मानव मदमस्त होकर प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है।

परन्तु प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। ऋतु परिवर्तन अंतर्मन को ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है क्योंकि मानव थोड़े समय तक किसी विशेष स्थिति में रहने से ऊब जाता है। मानव नवीनता का क़ायल है और लम्बे समय तक उसी स्थिति में रहना उसे मंज़ूर नहीं क्योंकि एकरसता जीवन में नीरसता लाती है। सो! वह उस स्थिति से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाना चाहता है। मानव बनी बनाई लीक पर चलना पसंद नहीं करता बल्कि उसे सदैव नवीन रास्तों की तलाश रहती है।

इस संग्रह की लघु कविताएं /क्षणिकाएं आपके हृदय को आंदोलित कर नवचेतना औ सुवास से भर देंगी क्योंकि इसमें कहीं मन प्रकृति में रमता है, तो कहीं प्रकृति उसे आंसू बहाती भासती है,जिसे देख मानव हैरान परेशान-सा हो जाता है। वैसे तो ‘द्वीप अपने अपने’नाम से स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के दौर में अधिकाधिक धन संग्रह की बलवती भावना से प्रेरित होकर मानव आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। पति-पत्नी में व्याप्त प्रतिस्पर्द्धा की भावना उन्हें एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बना देती है, जिसका परिणाम एक-दूसरे को नीचा दिखाने के रूप में परिलक्षित होता है। इसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। पति-पत्नी के मध्य सुरसा के मुख की भांति बढ़ता अजनबीपन का अहसास,परिवार की खुशियों को लील जाता है। सो! एकांत की त्रासदी झेलते बच्चे माता-पिता के स्नेह व सुरक्षा दायरे से  महरूम हो जाते हैं और वे दिन-रात टी•वी, मीडिया व मोबाइल में आंखें गड़ाए रहते हैं…नशे के शिकार हो जाते हैं। लाख कोशिश करने पर भी वे स्वयं को अंधी गलियों से मुक्त नहीं कर पाते।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, हत्या, लूटपाट व दुष्कर्म की समस्याएं विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। युवा-वर्ग रोज़गार के अभाव में गलत राहों पर चल निकलता है और फ़िरौती, हत्या व मासूमों की इज़्ज़त लूटना उनके शौक बन जाते हैं जिन्हें वे धड़ल्ले से अंजाम देते है, जिससे समाज में विसंगतियों- विषमताओं का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। रिश्तों की अहमियत-गरिमा को नकार वह समाज में अप्रत्याशित घटनाओं को अंजाम देता है। अहंनिष्ठता का भाव उसे निपट स्वार्थी व एकांगी बना देता है।

सामाजिक विषमताओं व विसंगतियों के कारण  रिश्ते रेत हो रहे हैं और आदमी स्वयं को बंटा हुआ अथवा असामान्य स्थिति में पाता है। हर इंसान स्वयं को  अधूरा अनुभव करता है और पति-पत्नी में अलगाव के कारण चारों और अव्यवस्था का दौर व्याप्त है, जिसका मुख्य कारण है… अधिकारों के प्रति सजगता व कर्तव्यनिष्ठता का अभाव। सो! जहां समाज में  अमीर-गरीब की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है,वहीं वर्षों से प्रताड़ित स्त्री अब आधी ज़मीन ही नहीं,आधा आसमान भी चाहती है,जिस पर पुरुष वर्ग आज तक काबिज़ था। आज वह हर क्षेत्र में मील के पत्थर साबित कर रही है…उसे अब किसी संबल-आश्रय की दरक़ार नहीं ।

बच्चे भी बड़े होने पर पक्षियों की भांति पंख  फैलाकर निःसीम गगन में उड़ जाते हैं अर्थात् अपनी नई दुनिया बसा लेते हैं और उनके माता-पिता को अक्सर वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ती है। वे शून्य नेत्रों से बंद दरवाज़ों को ताकते रहते हैं तथा हर आहट पर चौंक उठते हैं। उन्हें इंतज़ार रहता है आत्मजों का, जो लौट कर कभी नहीं आते।

इस संग्रह की अधिकांश लघु कविताएं/क्षणिकाएं एकांत की त्रासदी व असुरक्षा की भावना को उजागर करती हैं, जिससे हर इंसान जूझ रहा है क्योंकि वह अपने अपने द्वीप में कैद है और स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है…जो एक विरोधाभास है। मन चंचल है तथा हर पल उसे नवीनता की चाहत रहती है। वह  जीवन में आनंद पाने की  कामना करता है, जो उसे पारस्परिक स्नेह,सौहार्द व त्याग से ही प्राप्त हो सकता है। उसके लिए आवश्यकता है समन्वय की,समर्पण की,समझौते की…जो सामजंस्यता का मूल है। काश! मानव इस राह को अपना लेता तो स्व-पर,राग-द्वेष की भावनाओं का स्वतःअंत हो जाता। ग्लोबल विलेज जहां दूरियों को समाप्त कर एक-दूसरे के निकट ले आया है,वहां संवेदनाओं की बहुलता, निःस्वार्थ सेवा व त्याग के जज़्बे से घर-आंगन में खुशियों का बरसना अवश्यंभावी है।

इसी आशा और विश्वास के साथ—

डा• मुक्ता

डॉ. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

☆ पुस्तक विवेचना –  द्वीप अपने अपने ☆

– डा•सुभाष रस्तोगी

बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉक्टर मुक्ता एक सिद्धहस्त कवयित्री, कथाकार,लघु कथाकार,आलोचक,शोधक और चिंतक के रूप में मानी जाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि कविता ही उनका मुख्य रचना कर्म है। उनकी अब तक की कविता यात्रा इस बात की तसदीक करती है कि उन्होंने अब अपना एक स्वतंत्र कविता मुहावरा विकसित किया है और यह कविता मुहावरा है -अपनी कविता की मार्फ़त स्त्री की यात्रा,संघर्ष और स्त्री चिंतना पर प्रकाशवृत्त केंद्रित करना।यह स्त्री विमर्श की कविताएं हैं लेकिन बीती सदी के आठवें दशक में केंद्र में आए तथाकथित स्त्री विमर्श की देहमुक्ति की अवधारणा अथवा लिव इन रिलेशनशिप से इनका कोई वास्ता नहीं है।यह कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए जद्दोजहद करती कविताएं हैं, जो पुरुष के अधिनायकवादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। कवयित्री का मानना हैकि स्त्री और पुरुष दोनों समाज की दो धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धूप और छांव,आधी ज़मीन व आधा आसमान मिलना ही चाहिए। इस प्रकार डा•मुक्ता की कविताएं अपनी मुकम्मल कविता मुहावरे में स्त्री चेतना का एक नया मुहावरा रचती प्रतीत होती हैं।

डा•मुक्ता कविता की सभी विधाओं में साधिकार सृजन रत हैं। मुक्त छंद कविता, छंदबद्ध कविता यथा ग़ज़ल, गीत, मुक्तक और लघु कविता उन की अब तक की कविता यात्रा के अलग-अलग पड़ाव हैं।अध्यात्म की चेतना भी उनके कविता स्वभाव का एक मुख्य अंग है,तो व्यवस्था के पाखण्ड और राजनीति के राजनीति के विद्रूप की सत्शक्तता से निशानदेही करती है।उनके नव्यतम कविता संग्रह ‘अपने अपने द्वीप’ की कविताएं अपने समवेत पाठ में जीवन का व्यापक परिदृश्य उपस्थित करती हैं। इस संग्रह की कविताएं भावनाओं के रूप में सामने आई हैं।आकार  में छोटी दिखती इन कविताओं के अर्थ बहुत गहरे हैं औरज़्यादातर जीवन के उच्चाशयों को समर्पित यह क्षणिकाएं जीवन सूक्तियों का सा आभास देती हैं यथा’जीवन की सरहदों को पार करना संभव है/ परंतु दिलों की दूरी को पाटना असंभव…असंभव…असंभव। ’संबंधों के व्यर्थता बोध  को उजागर करती यह पंक्तियां भी तो अपने स्थान में एक जीवन सूक्ति ही प्रतीत होती हैं –’जुस्तज़ु के इस खेल में तुम्हें पाने की /ज़माने की गुफ्तग़ु के कारण/यह हो न सका/हम अपने अपने द्वीप में सिमटते गए/और खुद से अजनबी हो गए।’

स्त्री अब मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु नहीं है।पुरुष की इसी एकाधिकारवादी सत्ता को सीधे चुनौती देते हुए कवयित्री कहती है–-’मुझे नहीं दरक़ार तुम्हारे साथ की /संबल की,आश्रय की/ मैं बढ़ सकती हूं अकेली/ ज़िन्दगी/ की राहों पर/ मुझ में साहस है ,सुनामी की लहरों से टकराने का।’

भूमंडलीकरण की नई अवधारणा के चलते भले ही दुनिया अब तक एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है ।लेकिन यह भी सच है कि भूमंडलीकरण की इस अंधी दौड़ ने सबसे अधिक असुरक्षित माता-पिता को ही किया है। जो माता-पिता अपने दिन-रात के सुखचैन को तज कर इस उम्मीद से अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं कि जब वे वृद्ध हो जाएंगे तो वे उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।लेकिन वृद्ध होने पर उन्हें हासिल क्या होता है, इसी सच्चाई को रेखांकित करती यह पंक्तियां काबिले-ग़ौर हैं–’बच्चे पंख लगा कर उड़ जाते/निःसीम गगन में अपना आशियां बनाते/ रह जातेवे दोनों अकेले। ’उनके हिस्से में आता है केवल अकेलापन,असुरक्षा और निपट अकेलापन।    सहजानुभूति की इन कविताओं की कहन सादा है।वास्तव में यह कविताएं संवेदना के लघु द्वीप रचती प्रतीत होती हैं। ’सुनामी’ और ’कुकुरमुत्ता’ डा•मुक्ता के प्रिय उपमान हैं। लेकिन उनका प्रयोग मुस्लिफ़ है और पाठक को जीवन की एक नई सच्चाई के रू-ब-रू लाकर खड़ा कर देता है।

 

– डा•सुभाष रस्तोगी, मो•न•-8968987259

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 8 – लघुकथा – तरक़ीब ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी लघुकथा  “तरक़ीब  ”।  हमारे जीवन में  घटित  घटनाएँ कुछ सीख तो दे ही जाती हैं और कुछ तो तरक़ीब भी सीखा देती हैं।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 8 ☆

 

☆ लघुकथा – तरक़ीब ☆

 

रमेश जी अपने परिवार के साथ प्लेटफार्म पर बैठे थे। गाड़ी का इंतज़ार था। दोनों बच्चे प्लेटफार्म पर धमाचौकड़ी मचाये थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने ‘भूख लगी है’  की टेर लगानी शुरू कर दी। माँ ने टिफिन-बॉक्स खोला और बच्चों को देकर पति की तरफ भी पेपर-प्लेट बढ़ा दी।

रमेश जी के हलक़ तक निवाला पहुँचा होगा कि वे प्रकट हो गये—-तीन लड़कियाँ और दो लड़के, उम्र तीन चार से दस बारह साल के बीच। फटेहाल । करीब पांच फुट की दूरी पर जड़ हो गये। आँखें खाने पर, अपलक। जैसे आँखों की बर्छी भोजन को बेध रही हो।

निवाला रमेश जी के गले में अटक गया। मुँह फेरा तो वे मुँह के सामने आ गये। दृष्टि वैसे ही खाने पर जमी। रमेश जी के बच्चे भी उनकी नज़र देख कौतूहल में खाना भूल गये। रमेश जी गु़स्से में चिल्लाये, लेकिन बेकार। उनकी नज़र यथावत। झल्लाकर रमेश जी ने प्लेट उनकी तरफ ढकेल दी, चिल्लाये, ‘लो, तुम्हीं खा लो।’ वे प्लेट उठाकर पल में अंतर्ध्यान हो गये।

दिमाग़ ठंडा होने पर रमेश जी ने सोचा, यह तरक़ीब अच्छी है। न लड़ना झगड़ना, न चीख़ना चिल्लाना। बस खाना गले में उतरना मुश्किल कर दो । रमेश जी खीझ में हँस कर रह गये।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण रचना   “होम करते रहे हाथ जलते रहे.!”)

 

☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ 

 

होम करते रहे हाथ जलते रहे.!

हम मगर सत्य के साथ चलते रहे।

 

हर कदम पर दिया प्यार का इम्तिहां।

मुझको पागल समझता रहा ये जहां।।

नफरतों के कुटिल साँप पलते रहे

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

एक उम्मीद जलती रही रात-दिन।

बर्फ मन की पिघलती रही रात-दिन।

हर नजर में हमीं रोज खलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

ज्यादती कर रही बदनियति आजकल।

बदनुमा है मनुज की प्रकृति आजकल।

आचरण धर्म के हाथ मलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

आस-विश्वास का खुद हीआधार हूँ।

मुश्किलों का स्वयं मैं खरीदार हूँ ।

वक्त के साथ ही रोज ढलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #12 – अंतर… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  बरहवीं कड़ी अंतर… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  आज पढ़िये अंतर… ।  वास्तव  में सम्बन्धों में दूरी एवं मर्यादा  का  स्थान, काल, समय, उम्र एवं जिम्मेवारी का कितना महत्व है  न । फिर उससे भी अधिक सम्बन्धों में  समर्पण की भावना। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #12  ?

 

☆ अंतर… ☆

 

कितीक हळवे कितीक सुंदर,

अपुल्यामधले अंतर…

हे गाणं खूप जवळचं आहे… ह्यातील अपुल्यामधले अंतर हे दोन शब्द मनाचा ठाव घेतात… आणि एक प्रकारचं समाधान देऊन जातात…

मैत्रीला जपत असताना, त्या नात्याला फुलवत असताना, दोघांमधील मर्यादा लक्षात घेऊन त्या मर्यादांचा आदर ठेवणे, खरंच वाटतं तेवढं सोपं आहे का?

नक्कीच नाही ! पण स्थळ, काळ, वेळ, वय, जबाबदारी ह्याचं भान ठेवणंही तितकंच महत्वाचं आहे नाही !

हे अंतर जास्त असलं तरी एका हाकेत नष्ट होतं, खूप समजूतदार असतं, खोल असतं, अनेक क्षणांना एकत्रित गुंफलेलं असतं, मनाच्या एका कोपऱ्यात बंदिस्त असतं, ओंजळीत सुरक्षित असतं, बंद डोळ्यात बहरतं, शब्दांमध्ये अबोल असतं, स्वप्नांमध्ये जागं असतं, आठवणींचे झंकार छेडीत स्वरमय होऊन जातं, भरती ओहोटीच्या लाटेवर आरूढ होऊन किनारा शोधत असतं, नदीच्या पाण्याप्रमाणे प्रवाही असतं… !

हे अंतर म्हणजे प्रेमळ मन लागतं, आणि त्यातून निर्माण होणारे समर्पण, अवघ्या विचारधारेला ग्रासून टाकत हृदयस्थ होतं !

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ वारकरी ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। आज प्रस्तुत है उनकी  एक सामयिक कविता  “वारकरी…! ”। )

 

☆ वारकरी…! ☆ 

 

पंढरीच्या वाटेवर चालतोया वारकरी

विठ्ठलाला भेटण्याची आस असे त्याच्या ऊरी..!

 

टाळ मृदूंगची लय मना मनात घुमते

एक एक अभंगाने देहभान हरपते..!

 

हर एक वारकरी माझ्या विठूचेच रूप

डोक्यावरी टोपी त्याच्या भासे कळसाचे रूप..!

 

इवल्याशा तुळशीने दिंडी शोभून दिसते

दिंडी पताका घेऊन वारी सुखात चालते..!

 

किर्तीनात मृदूंग ही जेव्हा वाजत रहातो

भक्तिभाव तुकयाचा माझ्या अंतरी दाटतो..!

 

वारीमध्ये चालताना मी ही विठूमय झालो

माऊलीच्या सावलीला काही क्षण विसावलो..!

 

नाही म्हणावे कशाला काही कळेनाच आता

कंठ विठ्ठल विठ्ठल गात आहे गोड आता..!

 

© सुजित कदम

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ डांसिंग डॉल लाफ्टर: Dancing Doll Laughter ☆ जगत सिंह बिष्ट

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ डांसिंग डॉल लाफ्टर: Dancing Doll Laughter ☆

Video Link : डांसिंग डॉल लाफ्टर: Dancing Doll Laughter

 

इस प्रश्न का विज्ञान सम्मत उत्तर इस वीडियो में दिया गया है।

LAUGHTER YOGA EXERCISE Children love fun and activity.

This is a laughter exercise that children love to enact.

Tell them that we have become dolls, the keys have been turned to the full and we are dancing and laughing.

(The video is excerpted from Certified Laughter Yoga Leader training held in Indore and vidographed by Shri Ram Kishan ji.)

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

 

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।।19।।

 

समारंभ जिसके कर्मो का इच्छा ओै” संकल्प रहित

ज्ञानानल से भस्मित जिसके कर्म वही सच्चा पंडित।।19।।

 

भावार्थ :  जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।।19।।

 

He whose undertakings are all devoid of desires and (selfish) purposes, and whose actions have been burnt by the fire of knowledge,-him the wise call a sage. ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ संस्कार और विरासत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(मेरी पुस्तक ‘शब्द …. और कविता’ से ली गई एक कविता – “संस्कार और विरासत”।) 

 

☆ संस्कार और विरासत ☆

 

आज

मैं याद करती हूँ

दादी माँ की कहानियाँ।

राजा रानी की

परियों की

और

पंचतंत्र की।

 

मुझे लगता है

कि-

वे धरोहर

मात्र कहानियाँ ही नहीं

अपितु,

मुझे दे गईं हैं

हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत

जो ऋण है मुझपर।

 

जो देना है मुझे

अपनी अगली पीढ़ी को।

 

मुझे चमत्कृत करती हैं

हमारी संस्कृति

हमारे तीज-त्यौहार

उपवास

और

हमारी धरोहर।

 

किन्तु,

कभी कभी

क्यों विचलित करते हैं

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?

 

जैसे

अग्नि के वे सात फेरे

वह वरमाला

और

उससे बने सम्बंध

क्यों बदल देते हैं

सम्बंधों की केमिस्ट्री ?

 

क्यों काम करती है

टेलीपेथी

जब हम रहते हैं

मीलों दूर भी ?

 

क्यों हम करते हैं व्रत?

करवा चौथ

काजल तीज

और

वट सावित्री का ?

 

मैं नहीं जानती कि –

आज

‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?

और

‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?

 

यमराज में है

कितनी शक्ति?

और

कहाँ जा रही है संस्कृति?

 

फिर भी

मैं दूंगी

विरासत में

दादी माँ की धरोहर

उनकी अनमोल कहानियाँ।

 

उनके संस्कार,

अपनी पीढ़ी को

अपनी अगली पीढ़ी को

विरासत में।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

18 जून 2008

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