श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा   “चाक का प्रसाद।  सुखान्त एवं प्रेरणास्पद / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 66 ☆

☆ लघुकथा – चाक का प्रसाद ☆

छोटा सा गाँव और गाँव के बाहर मैदान, जहाँ पर एक कुम्हार अपनी झोपड़ी बनाकर रहता था।

परिवार में छोटा बच्चा और पत्नी, आसपास थोड़ी पेड़ पौधे और बाहर आँगन पर उसकी चाक पड़ी रहती थी। बिल्कुल पास में ही छोटा सा मंदिर था। कुल मिलाकर बहुत ही दयनीय अवस्था। दिये, कुल्हड़, मटकी बनाया करता था। बिक जाते तो आटा दाल अच्छे से मिलता और कभी ना बिके तो जो मिले उसी से गुजारा होता।

गाँव बस्ती में एक फल वाली अम्मा जिसका कोई नहीं था अकेले रहती थी और फल लाकर  गाँव में बेचती थी। शहर से टोकरी लेकर वह बस से गाँव के बाहर उतरती थी। प्रतिदिन का काम था कि वह एक दो फल उस  मंदिर पर चढ़ा देती थी।

उस की टोकरी को हाथ लगा कर सिर चढ़ाने के लिए कुम्हार या उसकी पत्नी कोई भी खड़े रहते थे। कुम्हार की स्थिति देख फलवाली को बहुत दया आती पर स्वयं भी एक एक रुपए का सौदा करती थी।

इसलिए कभी ज्यादा नहीं दे पाती थी और जान बूझकर फल मंदिर में डाल जाती थी। मंदिर में जो फल मिलता था उसे कुम्हार की पत्नी अपने बच्चे को उठाकर दे देती थी।

सुभाष अपनी मां से और फल की मांग करता परंतु माँ कहती ‘चाक प्रसाद’ है बस एक ही खाया जाता है। जब दिवाली आएगी और बिक्री होगी तो खूब सारा प्रसाद चाक पर आयेगे और तब खा लेना।

बरसों बीत गए सुभाष पढ़ाई करने लगा। गरीबी कार्ड से उसे पढ़ने का अवसर मिल गया और पढ़ाई करने के बाद शहर के सरकारी अस्पताल में उसे परिचय पत्र बनाने का काम मिल गया।

सब कुछ भूल चुका था। अचानक एक दिन अस्पताल में कुछ काम से निकलकर वार्ड का चक्कर लगाते हुए देखा कि एक महिला गिरे केले के छिलके उठाकर खा रही थी। पाँव उसके वहीं ठिठक गए।

वह वहाँ से किसी को बताए बिना चुपचाप आकर नर्स और डॉक्टर से कहकर उस का इंतजाम करवाने लगा। अपने बिस्तर के पास टोकरी पर रखे ताजा फलों को देख अम्मा की आँखें भर आई। उसी समय नर्स ने हँसकर कहा…. “रोती क्यों हो अच्छे से खाओ और ठीक हो जाओ यह ‘चाक का प्रसाद’ है।”

‘चाक का प्रसाद’ बुढ़ी अम्मा सोचने लगी। दोपहर में गरम-गरम खाना लेकर सुभाष खड़ा था।

झलझलाती आंखों से उस बालक को पहचान लिया। और फिर भी रोते हुए लिपट पड़ी ।अस्पताल के कर्मचारी समझ न सके कि ‘चाक के प्रसाद’ का क्या मामला है। सभी को फल बांटा गया।

अब माँ खुश हो गई सभी ने समझा शायद किसी मंदिर से चाकदेव भगवान का प्रसाद आया है। सुभाष अपनी फल वाली माँ को पाकर बहुत खुश था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments